औरत की यह मजबूरी है



 


 तसलीमा से यह प्रश्‍न कि तसलीमा तुमने क्‍या किया ? हम और आप कौन है ? सेक्‍यूलर वाद की आड़ में गाहे वगाहे संप्रग & कम्‍पनी तमाशे का ढोल बजाती है। यह प्रश्‍न उनसे पूछना चाहिए कि "तुमने क्‍यों मजबूर किया" आदलती आदेश के बावजूद सरकार तस्लीमा देश में नही रह सकती उनकी किताब बेच नही सकती। मुझे कहने में हिचक नही है यह जो तंत्र चल रहा है वह किन्‍नरों का तंत्र है जिसका मुखिया अव्‍वल छक्‍का है। जो सरकार एक महिला के सम्‍मान की रक्षा नही कर सकती है। उस सरकार बने रहने का कोई अधिकार नही है।

एक मुस्लिम महिला से हम अपेक्षा ही क्या कर सकते है? जिसकी रक्षा सरकार भी नही कर सकती है। शाहबानों प्रकरण ने शिद्ध कर दिया। राजीव गांधी ने जिस प्रकार एक 62 वर्षीय महिला के पेट पर लात मारी वैसा कोई मुस्‍लमान ही कर सकता है। सच तो यही है कि राजीव गांधी भी तो असल औलाद मुसलमान की था। और आज भी उसी के वंशजों का ही शासन है। आज जो सरकार एक महिला अपना नेता बता कर सबसे बड़ा महिला हितचिंतक बनती है, वही तसलीमा और शाहबानों के नाम सेक्‍यूलर गुन्‍ड़ो के द्वारा आंतकित करती है। डायन भी सात घर छोड़कर बच्‍चो को खाती है किन्तु कुछ डायनों ने वोट की राजनीति के कारण अपने शिद्धान्‍त बदल दिये है।

तस्‍लीमा ने अपने किताब के जो पन्‍ने फाड़े है, वो पन्‍ने नही है बल्कि, भरें समाज में धर्मनिर्पेक्ष राष्‍ट्र के नेतृत्‍वकर्ताओं का बलात्कार किया है। और राष्‍ट्रीय शर्म की बात तो यह कि ये सेक्‍यूलर लोग अपने बलात्कार से खुश है। वैसे बलात्‍कार से खुश शायद ही कोई खुश होता हो ? मेरे विचार से शायद वेश्‍या भी नही। किन्‍तु आज एक महिला ने धर्मनिपेक्ष नपुंसकों का बलात्‍कार कर दिया। और ये खुश भी है। इन्‍हे किसकी संज्ञा दी जानी चाहिऐं।

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13 टिप्‍पणियां:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

आपके विचार चाहे जो हों, यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि आप भाषा में शालीनता बरतेंगे. गाली गलौज़ से कोई बात नहीं बनती. उलटे यह लगता है कि हमारे पास तर्कों की कमी है. एक सभ्य समाज का नागरिक होने के लिए सभ्य भाषा पहली ज़रूरत

संजय बेंगाणी ने कहा…

बात सही कही है, दोस्त धैर्य से लिखें. आप चिट्ठा लिख रहें है या भड़ास निकाल रहें है :)

शाहबानो केस कथित महिलावादीयों के गाल पर तमाचा था. तस्लिमा की मजबुरी बताती है की कथित सेक्यूलरों के राज में मुस्लिम नारी की वैचारिक स्वतंत्रता का क्या हाल है. वास्तविक अर्थो में ये लोग ही साम्प्रदायिक है.

bhuvnesh sharma ने कहा…

प्रेमेन्‍द्र भाई आपका विरोध जायज है पर इस प्रकार की भाषा का प्रयोग जायज विरोध को भी नाजायज बना देता है. रही बात तथाकथित सेक्‍युलरवादियों की तो मैं इस बात पर कतई आपसे सहमत नहीं हूं. अब तो क्‍या सेक्‍युलरवादी क्‍या भगवाधारी और क्‍या लाल झंडा सभी ने एक ही आवरण ओढ़ रखा है जरा आंखें खोलकर देखिए जनाब आप किस दुनिया में रहते हैं.

बेनामी ने कहा…

:) sab hits paane ka chakkar hai shab

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

@ आदरर्णीय दुर्गा प्रसाद जी,
जो वर्तमान परिस्थितियॉं है, उसके अनुसार तो नही लग रहा है कि इस समय देश में लोकतंत्र है, ताकत के बल पर आज लोग मन माना काम कर रहे है। गुजरात के मुस्लिमों नाम पर हाय हाय होती है, नंदीग्राम में जो हो रहा है उसकी खबर किसी को नही है। देश के गृहमंत्री को बंगाल के हालात बहुत अच्छें दिख रहे है। यह आवाज उस तंत्र के खिलाफ है जो नक्कहरा बना हुआ है। मैने इस लेख को प्रकाशित करते समय बहुत बार सोचा था, किन्तु् मै अपनी भावनाओं के समक्ष विवश रहा, शीर्षक भी काफी कटु रखा था किन्तुछ उसे मैने परिवर्तित कर दिया। सच कहू तो मुझे इस प्रकार की भाषा प्रयोग के लिये खेद हे किन्तुभ ऐसे लोगों के और किया भी क्याउ जा सकता है। श्रीमान जी, मैने कहीं गाली नही दी है किन्नेर कोई गाली नही है। संसद में कई अक्सकर सरकार के काम से असंतुष्ट चुडि़यॉं दिखाई जाती है। जो मुखिया अपने अधिकार और कर्तव्या को नही समक्ष रहा है उसे कहा भी क्याु जा सकता है? भारतीय लोकत्रंत में इससे काला शासन कभी नही हुआ है।

@ संजय भाई,
भइया आप चाहे जो समझे, किन्तुॉ तसलीमा और शाहबानों मामलों के सम्बोन्धस में सरकारों का जो रवैया था इससे यही प्रतीत होता है कि देश में सविधान, संसद और सरकार से बड़़ी भी एक ताकत काम कर रही है तो अपने वोटों के बल पर कुछ भी परिवर्तन करा सकती हे और करा रही है।

@ भुवनेश भाई, सभी एक ही रंग में रंगे है, और सभी चोर है तो क्योै न उसनी मदत करें तो कम चोर हों। भाषा के सम्बपन्धक में मै अपनी बात लिख लिख चुका हूँ। भगवाधारी कोई काम करते है तो खुलकर कह कर करते है किन्तु धर्मर्निपेक्षों की तरह बिना पेदीं के लोटा नही होते है।
@ सजिद भाई,
मुझे हिट्स के अचार नही डालना है, यदि आपको यह हिट्स पाने का तरीका लगता है तो आप भी कीजिए, और यदि आपको तब पर भी न मिले तो मुझसे कहिएगा मै आपका दे दूँगा मेरे पास काफी हिट्स है :)

sachchibaat ने कहा…

माननीय अग्रवाल साहब स्वयं सीधे सीधे सच बोलने का साहस नहीं है तो कम से कम दूसरे के बोले सच को गाली गलौज़ तो मत कहो। शालीन तर्कों पर यहां ध्यान कौन देता है। आप केवल तर्क करते रहिये, वे अपनी मनमानी करते रहेंगे। वैसे गाली किस शब्द को आप कह रहे हैं यह इस अल्पबुद्धि मूर्खाधिराज को समझाएं तो बड़ी कृपा हो। ताकि मैं स्वयं उन शब्दों से परहेज रख सकूं।

गौरव सोलंकी ने कहा…

आप तस्लीमा के बहाने से मुसलमानों को गाली क्यों दे रहे हैं?

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

क्या यह कहना भी ज़रूरी है कि गाली किसी एक शब्द में नहीं पूरी अभिव्यक्ति और बात कहने के अन्दाज़ में भी हो सकती है? चलिये, गाली न सही, आप इसे अशोभनीय, अशालीन भाषा कह लें. जो हो. जो नाराज़गी आपकी है, उससे भला कौन असहमत होगा? मामला चाहे शाहबानो वाला हो, तसलीमा वाला, हुसैन वाला, गोधरा वाला, नन्दीग्राम वाला, कश्मीरी पण्डितों वाला - हर सोचने समझने वाला उससे आहत हुआ है, होता है. अब राजनीति के इस खेल को कौन नहीं समझता कि कौन लोग हुसैन का विरोध करते करते क्यों तस्लीमा के हितचिंतक बन जाते हैं? क्या ये दोनों प्रकरण एक ही सिक्के के दो पहलू नहीं हैं? या तो दोनों का समर्थन कीजिए या दोनों का विरोध? मीठा-मीठा गप्प और कडव कडवा त्थू - यह तो उचित नहीं. यही बात हिंसा को लेकर भी है. जितना गलत गोधरा था उससे कम गलत नन्दीग्राम नहीं है. लेकिन हमारी गडबड यह है कि अगर मैं वाम पंथी हूं तो मुझे गोधरा दिखाई देता है, नन्दीग्राम नहीं, और अगर मैं एक पक्ष (धर्म) का हूं तो मुझे हुसैन खराब लगते हैं, तस्लीमा अच्छी, या इसके विपरीत. यह दो मुंहा पन कब तक चलेगा? इसका विरोध होना चाहिएऔर मुद्दे साफ होने चाहिए. और अंत में फिर यह कि अपनी असहमति के बावज़ूद भाषा की शालीनता का निर्वाह किया जाना चाहिए.

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

और हां, 'सच्ची बात' जी को अगर यह सुनकर खुशी होती है कि मुझ में 'सीधे-सीधे सच बोलने का साहस नहीं है' तो यही सही. कम से कम आप तो खुश हो लीजिए.

sachchibaat ने कहा…

और हां, 'सच्ची बात' जी को अगर यह सुनकर खुशी होती है कि मुझ में 'सीधे-सीधे सच बोलने का साहस नहीं है' तो यही सही. कम से कम आप तो खुश हो लीजिए.

नहीं अग्रवाल साहब मुझे यह सुन कर कोई खुशी नहीं हुई।मेरा आपसे कोई परिचय नहीं, कोई मतभेद नहीं। आपका संदेश पढ़ कर ऐसा लगा कि यह क्या बात हुई कि कोई तो गलत से गलत कार्य कर भी दे और कोई अपने तरीक़े से कहे भी नहीं। ऐसी शालीनता और सभ्यता ही तो गलत करने वालों को निरंकुश बना रही है। सो मैंने अपनी समझ के अनुसार बात कह दी। फिर भी यह मेरी समझ है कोई जिद नहीं है, जो गलत भी हो सकती है। आप इसे मूर्खतापूर्ण मान कर ध्यान मत दीजिये क्या अन्तर पड़ता है। संभवतः आपको मेरा कहने का तरीक़ा भी अशिष्ट लगा। मैं हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ। किसी विषय को व्यक्तिगत आक्षेपों में उलझा कर मूल विषय से हटना मुझे भी उचित नहीं लग रहा।

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

भाई 'सच्ची बात जी', मै6ने ऐसा तो नहीं कहा कि आपका तरीका मूर्खतापूर्ण था. आप सही कह रहे हैं कि किसी गम्भीर मुद्दे को व्यक्तिगत बहस तक सीमित नहीं करना चाहिए. मैं इसमें इतना और जोडने की अनुमति चाहता हूं कि बहस को एक न्यूनतम स्तर से नीचे नहीं उतरने देना चाहिए. आखिर हम भाषा के माध्यम से अपनी बात कह रहे हैं तो भाषा को भाषा ही रहने दें. देखिए, वैचारिक असहमति कहां नहीं होती. जीवन में भी बहुत कुछ ऐसा होता है जिसको हम पसन्द नहीं करते. लेकिन एक खास स्तर से नीचे तो नहीं उतरते ना! आप कृपया पुनर्विचार कि क्या 'शालीनता और सभ्यता' को त्यागना उचित होगा, किसी भी हालत में?
परिचित मैं भी आपसे नहीं हूं. लेकिन यह भाषा ही तो है जो आपके मेरे बीच पुल बना रही है. यह पुल बना र्हए, और मज़बूत हो - मैं तो इतना ही चाहता हूं.

abhishek ने कहा…

bhai aise hi ladte rahiye, yahi to blogworld true aazadai,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

Vishu ने कहा…

parmendra bhai,

main aapki baaton se sehmat hoon lekin un shabdo ko prastut kerne ke dhang se katai khush nahin hoon, aap mere bhout ache dost hain - isliyein keh raha hoon ki aap itni khadi boli ka istamaal kerke logo ke man main apne lekh ke bare main ek galat immage bana rahe hain.

har baat ko kehne ke 100 tarike hote hain.