श्री रामानुजाचार्य जी का जीवन परिचय



 
दक्षिण में रामानुज नाम से प्रसिद्ध एक जितेन्द्रिय ब्राह्मण वास करते थे, भगवान विष्णु के श्रीचरणों में उनका अटूट अनुराग था। उन्होंने क्रमशः ब्रह्मचर्य और गृहस्थाश्रम को पार करके वानप्रस्थ में प्रवेश किया। वेंकटाचल के वन में उन्होंने कुटी बनाई और आकाशगंगा के तट पर रहकर तपस्या प्रारंभ की। ग्रीष्मऋतु में वे पंचाग्नितप करते हुए वे निरन्तर भगवान विष्णु के ध्यान में ही मग्न रहते। वर्षा में खुले आकाश के नीचे बैठकर मुख से अष्टाक्षरी मंत्र (ऊँ नमो नारायणाय) का जाप और हृदय से भगवान जनार्दन का निरन्तर चिंतन किया करते थे। उन्होंने कितने ही वर्षों तक सूखे पत्ते खाकर निर्वाह किया। कुछ काल तक केवल जलाहार पर ही जीवन-यापन किया और कितने ही वर्षों तक वे केवल वायु पीकर ही रहे। उनकी इतनी कठोर तपस्या और निश्छल भक्ति देखकर भक्तवत्सल भगवान विष्णु प्रसन्न हो गये। उन्होंने अपने प्रियभक्त रामानुज को प्रत्यक्ष दर्शन दिया। भगवान के हाथों में शंख-चक्र-गदादि आयुध शोभा पा रहे थे। उनके नेत्र विकसित कमलदल की भाँति सुन्दर थे। श्रीअंगों से कोटि-कोटि सूर्यों के समान दिव्यप्रभा बरस रही थी। गरूढ़ पर विराजमान भगवान् के ऊपर छत्र तना हुआ था। पार्षदगण चँवर डुला रहे थे। दिव्यहार, भुजबन्ध, मुकुट और कंगनादि आभूषण भगवान् के अंगो का सुखद संग पाकर स्वयं विभूषित हो रहे थे। विश्वक्सेन, सुनन्दादि पार्षद उन्हें सब ओर से घेरकर खड़े थे। नारदादि देवर्षि वीणा आदि बजाकर भगवान् की महिमा का वर्णन कर रहे थे। भगवान के मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की अद्भुत छटा छा रही थी। दोनों पाश्रवों में खड़े हुए सनकादि योगेश्वर भगवान की सेवा में संलग्न थे। भगवान की यह अनुपम अदृष्टपूर्व झाँकी देखकर रामानुज विभोर हो गये। भक्तवत्सल प्रभु ने अपनी चारों भुजाओं से पकड़कर उन्हें हृदय से लगा लिया और प्रेमपूर्वक कहा-‘महामुने! तुम कोई वर मांगों, मैं तुम्हारी भक्ति-प्रेम और तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ।
रामानुज ने कहा-‘नारायण! रमानाथ! श्रीनिवास! जनार्दन आपको मेरा साष्टांग प्रणाम है। मैं आपके दर्शन से ही कृतार्थ हो गया। आप धर्म के रक्षक हैं। ब्रह्माजी और महादेवजी भी जिन्हें यथार्थरूप में नहीं जानते, तीनों वेदों को भी जिनका ज्ञान नहीं हो पाता, वे ही परमात्मा आप आज मेरे समक्ष आकर मुझे अपने दर्शन से कृतार्थ कर रहे हैं-इससे बढ़कर और कौन सा वरदान हो सकता है। प्रभो! मैं तो इतने से ही कृतकृत्य हो गया हूँ, फिर भी आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए मैं यही वर मांगता हूँ कि आपके युगल चरणविन्दों में मेरी अविचल भक्ति बनी रहे।’ श्रीभगवान् ने कहा-‘‘एवमस्तु’’। मुझमें तुम्हारी दृढ़ भक्ति होगी। प्रारब्धानुसार जब इस शरीर का अंत होगा, तब तुम्हें मेरे स्वरूप की प्रप्ति होगी। प्रभु का यह वरदान पाकर रामानुज धन्य-धन्य हो गये। उन्होंने बड़ी विनय के साथ भगवान से कहा-‘प्रभो! आपके भक्तों के लक्षण क्या हैं, किस कर्म से उनकी पहचान होती है-यह मैं सुनना चाहता हूँ।’’
भगवान विष्णु बोले-‘‘ जो समस्त प्राणियों के हितैषी हैं, जिनमें दूसरों के दोष देखने का स्वभाव नहीं है, जो किसी से भी द्वैष नहीं रखते और ज्ञानी, निःस्पृह तथा शांतचित्त हैं, वे भगवद् भक्त हैं। जो मन-वाणी व क्रिया द्वारा दूसरों को पीड़ा नहीं देते और जिनमें संग्रह करने का स्वभाव नहीं है, जो उत्तम मानव माता-पिता की सेवा करते हैं, देवपूजा ें तत्पर रहते हैं, जो भगवत्पूजन के कार्य में सहायक होते हैं और कहीं भी पूजन होता देखकर मन में आनंद मनाते हैं, वे भगवद्भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। जो ब्रह्मचारियों और संन्यासियों की सेवा करते हैं तथा दूसरांे की निन्दा कभी नही करते/सुनते हैं जो सबके लिए हितकर वचन बोलते हैं और जो लोक में सद्गुणों के ग्रहक हैं, वे उत्तम भगवद्भक्त है, जो सभी प्राणियों को अपने समान देखते हैं तथा शत्रु और मित्र में समभाव रखते हैं, वे सभी उत्तम भगवद् भक्त हैं। जो एकादशी का व्रत करते, मेरे लिए सत्कर्मों का अनुष्ठान करते, मेरे भजन के लिए लालायित रहते तथा सदैव मेरे नामों के स्मरण में तत्पर होते हैं, वे उत्तम भागवदभक्त हैं। सद्गुणों की ओर जिनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है, वे सभी श्रेष्ठ भक्त हैं।’’
इस प्रकार उपदेश देकर भगवान विष्णु अन्तध्र्यान हो गये। मुनिवर रामानुज ने आकाशगंगा के तट पर रहकर भगवान् के भजन में ही शेष आयु व्यतीत की। अंत में करूणामय भगवान् कृपा से उन्हें सारूप्य मुक्ति प्राप्त हुई।


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