बलिदान एवं त्याग की प्रतिमूर्ति गुरु गोविन्द सिंह



गुरु तेगबहादुर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र गुरु गोविन्द सिंह दशम सिख गुरु बने जिन्होंने खालसा पंथ की स्थापना के संदर्भ में समस्त सिख समुदाय को पंथ की दीक्षा देकर उनकी मानसिकता में आमूलचूल रूपान्तरण कर दिया। हिन्दू-सिख दोनों का संरक्षण करने के लिए जब भी मुगलों व सिखों में युद्ध भड़कता था। वे देश का दाहिना हाथ बनकर उठ खड़े होते थे। धर्मान्ध महत्वाकांक्षी, कट्टर सुन्नी यह क्रूर शहंशाह अपने भाइयों की हत्या कर सिंहासन पर बैठा और बाद में अपने पिता को बंदी बनाकर रखा जो देश के लिए एक भूकम्प जैसी घटना से कम नहीं है।
जब औरंगजेब में हिन्दुस्थान को पूरी तरह इस्लामी राज्य बनाने की ठान ली थी और जब अकबर की नीतियों के विरुद्ध उसे इस्लाम का जुनून सवार हो चुका था, देश में अंधकार जैसा छा गया था ! तलवार के बल पर धर्मान्तरण, जजिया, हिन्दुओं के सार्वजनिक उत्सवों पर प्रतिबन्ध, तथाकथित ‘काफिरों’ के मंदिरों व तीर्थों का विध्वंस अबाध गति से हो रहा था और उत्तरी क्षेत्रों व राजस्थान से लेकर गुजरात तक उसका आतंक फैला हुआ था। 

यह बात भी भुलाई नहीं जा सकती है कि दीवारों के शिलालेखों, भित्तिचित्रों व बहुमूल्य कलासामग्रियों को सिर्फ इसलिए मटियामेट किया गया था क्योंकि बीजापुर व गोलकुण्डा के शासक शिया थे। गोलकुण्डा के किले के अंदर हजारों शियाओं को मुगल सैनिकों ने बेरहमी से मार दिया था।

औरंगजेब अपनी युवावस्था से ही कुचक्री था और इसीलिए शाहजहां ने उसे दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेजा था। सबसे बड़ा पुत्र दाराशिकोह क्योंकि अनेक हिन्दू पवित्र ग्रंथो का उसने फारसी में अनुवाद कराया था और सहिष्णु विद्वान भी था और शाहजहां का चहेता था। इसलिए उसका सिर कटवा कर दिल्ली दरवाजे पर लटकाया गया था। अपने दूसरे भाई मुराद व शुजा को भी मारकर उसने अपने रक्तरंजित हाथों से मुगलिया सल्तनत हासिल की थी।


अपने सबसे बडे़ पुत्र मुहम्मद सुल्तान को भी उसने ग्वालियर के किले में 12 वर्ष बंदी बनाकर रखा था। जहां 38 वर्ष की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गई थी। हिन्दुओं, सिखों, राजपूतों, शियाओं, इस्माइलियों, बोहरा आदि के साथ जब औरंगजेब ने अपनी बहन तथा बेटी जेबुन्निसा को भी कैद में डाल दिया था, उसके बाद से उसे जल्लादों का जल्लाद तक कहा जाने लगा था !

गुरु गोविन्द सिंह जी ने मुगलों की सेना से भिड़ने को त्याग, तपस्या, साधना, संगठन व अस्त्र-शस्त्र सभी क्षेत्रों में सिखों के आत्मबल को जगाया। जहां पहले के गुरु भक्ति पद्धति में भक्ति की आराधना को समन्वित करते थे वहीं गुरु गोविन्द सिंह स्वयं तलवार धारण करते थे-एक ‘पीरी’, दूसरी ‘भीरी’। शत्रु के राज्य में शक्ति की उपासना अनिवार्य है, यह उनका मत था।

अपने अनुआइयों से गुरुजी ने कहा कि वे तलवार को ईश्वर और ईश्वर को ही तलवार मानें ! उन्होंने लोहे को सबसे पवित्र बताया। अपनी प्रसिद्धकृति ‘‘चण्डी चरित्र’’ में उन्होंने यहां तक कहा था- ‘‘जै शुभ कर्मों से कभी न डरूं और युद्ध में जूझता मर जाऊं। गुरु गोविन्द सिंह जी ने युद्ध को धर्म से समन्वित कर दिया था, उनके दो पुत्र अजीत सिंह और जुझारू सिंह मुगलों के साथ युद्ध में मारे गए थे। दो अन्य पुत्रों जोरावर सिंह (9 वर्ष) और फतह सिंह (7 वर्ष) को सरहिन्द के सूबेदार वजीर खान ने इस्लाम स्वीकार न करने के कारण दीवारों में चुनवा दिया था। चार-चार वीर पुत्रों को खोकर भी गोविन्द सिंह जी ने हिम्मत न हारी थी--‘चार मुए तो क्या हुआ, जीवित कई हजार।’

12 अप्रैल, 1699 का वह दिन आया जब विभिन्न प्रदेशों से सिख आनंदपुर आ पहुंचे। वह बैसाखी का दिन था जब गुरुगोविन्द सिंह कृृपाण के साथ मंच पर पहुंचे उन्होंने कहा देवी बलिदान चाहती है, क्या कोई शीश देगा ? सहसा लाहौर का खत्री दयाराम उठा जिसे वह पर्दे के पीछे ले गए। एक बकरे की बलि चढ़ाई और रक्तरंजित तलवार लिए फिर बाहर आ गये। फिर उसी प्रश्न पर दिल्ली के जाट धरमदास उठ खडे़ हुए। उन्हें भी गुरुजी अंदर ले गए और रक्त से डूबी हुई तलवार लेकर बाहर आ गए।

इसी तरह का प्रश्न दोहराने पर एक के बाद एक-मोहकमचंद, साईं बचन्द तथा हिम्मतराम उठे जिन्हें गुरुजी अंदर ले गए। फिर सभी पांचों को अपने साथ लेकर मंच पर आए। उन्होंने कहा मैंने उन्हें मारा नहीं, ये ही पांचों बलिदानी पंजप्यारे हैं-पांच सिंह हैं। ये ही विशुद्ध खालसा बलिदानी वीर हैं। उस समय 80,000 सिखों ने अमृतपान कर खालसा पंथ का निर्माण किया था जो सदैव कफन सिर पर बांधे युद्ध के लिए तत्पर रहते थे।

इस प्रकार धर्म की रक्षा के लिए गुरु गोविन्द सिंह जी ने जिस पंथ का निर्माण किया, उसने धर्मान्ध मुसलमानों की बाढ़ को रोकने में सफलता पाई। देश के इतिहास में वस्तुतः गुरु गोविन्द सिंह जैसा व्यक्ति ढूंढ़़ पाना असम्भव सा हैं-एक वीर, तपस्वी और कवि के साथ-साथ पंजाबी, ब्रज, फारसी और अरबी आदि भाषाओं पर असाधारण अधिकार रखें, ऐसा विविध भाषाओं का ज्ञाता कहां मिल सकता है! इस सत्ता, सैनिक और कवि का देहावसान 16 अक्टूबर 1708 को केवल 42 वर्ष की अल्पायु में गोदावरी के तट पर महाराष्ट्र के नांदेड़ नामक स्थान पर हुआ था जहां का भव्य गुरुद्वारा एक तीर्थस्थल भी बन चुका है। उन्होंने धर्म को राष्ट्रीयता से जोड़कर उत्तर भारत में इतिहास की धारा को ही एक नया मोड़ दिया था।

गुरु गोविन्द सिंह के संगठन के पीछे की ऐतिहासिक भूमिका गुरु तेग बहादुर का बलिदान कार्य करता रहा था। कालान्तर में गुरु गोविन्द सिंह जी ने बलिदानी सिखों की वह खालसा सेना तैयार की थी जिसने हर मुगल शासक की विशाल फौज से टक्कर लेने में कोई झिझक नहीं दिखाई थी। गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी ने यह संघर्ष तब तक जारी रखा जब तक औरंगजेब की मृत्यु 80 वर्ष की आयु में अहमदनगर में 1707 में हो गई।


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