श्रीराम की पुनः लंका - यात्रा और सेतु भंग



पद्म पुराण के अनुसार एक समय भगवान श्रीराम को राक्षस राज विभीषण का स्मरण हो आया। उन्होंने सोचा कि ‘विभीषण धर्म पूर्वक शासन कर रहा है कि नहीं ? देव - विरोधी व्यवहार ही राजा के विनाश का सूत्र है। मैं विभीषण को लंका का राज्य दे आया हूँ, अब जाकर उसे सम्हालना भी चाहिए। कहीं राज मद में उससे अधर्माचरण तो नहीं हो रहा है। अतएव मैं स्वयं लंका जाकर उसे देखूँगा और हितकर उपदेश दूँगा, जिससे उसका राज्य अनन्त काल तक स्थायी रहेगा। ' श्रीराम यों विचार कर ही रहे थे कि भरतजी आ पहुँचे। भरत जी  के नम्रता से पूछने पर श्रीराम ने कहा -‘भाई ! तुमसे मेरा कुछ भी गोपनीय नहीं है, तुम और यशस्वी लक्ष्मण मेरे प्राण हो। मैंने निश्चय किया है कि मैं लंका जाकर विभीषण से मिलूँ, उसकी राज्य - पद्धति को देखूँ और उसे कर्तव्य का उपदेश दूँ। 'भरत ने कभी लंका नहीं देखी थी, इससे उसने भी साथ चलने की इच्छा प्रकट की, श्रीराम ने स्वीकार कर लिया और लक्ष्मण को सारा राज्य का कार्यभार सौंप कर दोनों भाई पुष्पक विमान पर चढ़ लंका के लिये विदा हुए।

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पहले भरत के दोनों पुत्रों की राजधानी में जाकर उनसे मिले और उनके कार्य का निरीक्षण किया, तदनंतर लक्ष्मण के पुत्रों की राजधानी में गये और वहाँ छः दिन ठहर कर सब कुछ देखा - भाला। इसके बाद भारद्वाज और अत्रि के आश्रमों को गये। फिर आगे चलकर श्रीराम ने चलते हुए विमान पर से वह सब स्थान दिखलाये जहाँ श्री सीताजी का हरण हुआ था, जटायु की मृत्यु हुई थी, कबन्ध को मारा था और बालि का वध किया था। तत्पश्चात किष्किंधापुरी में जाकर राजा सुग्रीव से मिले। सुग्रीव ने राजघराने के सब स्त्री पुरुषों, नगरी के समस्त नर नारियों समेत श्री राम और भरत का बड़ा भारी स्वागत किया। फिर सुग्रीव को साथ लेकर विमान पर से भरत को विभिन्न स्थान दिखाया और उनकी कथा सुनाते हुए लंका में जा पहुंचे, राजा विभीषण को उनके दूतों ने यह शुभ समाचार सुनाया।

श्री राम के लंका पधारने का संवाद सुनकर विभीषण को बड़ी प्रसन्नता हुई | सारा नगर बात की - बात में सजाया गया और अपने मंत्रियों को साथ लेकर विभीषण अगवानी के लिये चला। सुमेरु स्थित सूर्य की भांति विमानस्थ श्रीराम को देखकर साष्टांग प्रणाम पूर्वक विभीषण ने कहा —'प्रभो ! आज मेरा जन्म सफल हो गया, आज मेरे सारे मनोरथ सिद्ध हो गये। क्योंकि आज मैं जगद्बन्ध अनिन्द्य आप दोनों स्वामियों के चरण - दर्शन कर रहा हूँ। आज स्वर्गवासी देवगण भी मेरे भाग्य की श्लाघा कर रहे हैं। मैं आज अपने को त्रिदश पति इन्द्र की अपेक्षा भी श्रेष्ठ समझ रहा हूँ। ' सर्वरत्न सुशोभित उज्ज्वल भवन में महोत्तम सिंहासन पर श्रीराम विराजे, विभीषण अर्घ्य देकर हाथ जोड़ भरत और सुग्रीव की स्तुति करने लगा। लंका निवासी प्रजा की राम दर्शनार्थ भीड़ लग गयी। प्रजा ने विभीषण को कहलाया, ' प्रभो ! हमको इस अनोखी रूप माधुरी को देखे बहुत दिन हो गये। युद्ध के समय हम सब देख भी नहीं पाए थे। आज हम दीनों पर दया का हमारा हित करने के लिये करुणामय हमारे घर पधारे हैं, अतएव शीघ्र ही हम लोगों को उनके दर्शन कराइये। ' विभीषण ने श्रीराम से पूछा और दयामय की आज्ञा पाकर प्रजा के लिये द्वार खोल दिये। लंका के नर-नारी श्री राम-भरत की झांकी देखकर पवित्र और मुग्ध हो गये। यों तीन दिन बीते। चौथे दिन रावण माता कैकसी ने विभीषण को बुलाकर कहा, ' बेटा ! मैं भी श्रीराम के दर्शन करूँगी। उनके दर्शन से महामुनि गण भी महा पुण्य के भागी होते हैं। श्रीराम साक्षात् सनातन विष्णु हैं, वही यहाँ चार रूपों में अवतीर्ण हैं। सीता जी स्वयं लक्ष्मी हैं। तेरे भाई रावण ने यह रहस्य नहीं जाना। तेरे पिता ने कहा था कि रावण को मारने के लिये भगवान विष्णु रघुवंश में दशरथ के यहाँ प्रादुर्भूत होंगे। ' विभीषण ने कहा – ' माता ! आप नये वस्त्र पहन कर कंचन - थाल में चंदन, मधु, अक्षत, दधि, दूर्वा का अर्घ्य सजाकर भगवान श्रीराम का दर्शन करें। सरमा ( विभीषण - पत्नी ) को आगे कर और अन्यान्य देव कन्याओं को साथ लेकर आप श्रीराम के समीप जाये। मैं पहले ही वहां चला जाता हूँ।'
विभीषण ने श्रीराम के पास जाकर वहाँ से सब लोगों को बिल्कुल हटा दिया और श्रीराम से कहा, ‘देव ! रावण, कुम्भ कर्ण और मेरी माता कैकसी आपके चरण कमलों के दर्शनार्थ आ रही हैं, आप कृपापूर्वक उन्हें दर्शन देकर कृतार्थ करें। ' श्रीराम ने कहा, 'भाई ! तुम्हारी मां तो मेरी ' मां ' ही है। मैं ही उनके पास चलता हूँ, तुम जाकर उनसे कह दो, इतना कहकर विभु श्रीराम उठकर चले और कैकसी को देखकर मस्तक से उसे प्रणाम किया तथा बोले- आप मेरी धर्म माता हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। अनेक पुण्य और महान तप के प्रभाव से ही मनुष्य को आपके ( विभीषण - सदृश भक्तों की जननी के ) चरण - दर्शन का सौभाग्य मिलता है। आज मुझे आपके दर्शन से बड़ी प्रसन्नता हुई। जैसे श्री कौशल्या जी हैं, वैसे ही मेरे लिये आप हैं। ' बदले में कैकसी ने मातृ भाव से आशीर्वाद दिया और भगवान श्रीराम को विश्व पति जानकर उनकी स्तुति की। इसके बाद 'सरमा' ने भगवान की स्तुति की। भरत को सरमा का परिचय जानने की इच्छा हुई, उनके इशारे को समझ कर 'इङ्गित विद’ श्री राम ने भरत से कहा, ' यह विभीषण की साध्वी भार्या हैं, इनका नाम सरमा है। यह महाभागा सीता की प्रिय सखी हैं, और इनकी सखिता बहुत दृढ़ है। ' इसके बाद सरमा को समायोचित उपदेश दिया। फिर विभीषण को विविध उपदेश देकर कहा कि ' हे निष्पाप ! देवताओं का प्रिय कार्य करना, उनका अपराध कभी न करना। लंका में कभी मनुष्य आवे तो उनका कोई राक्षस वध न करने पावें। ' विभीषण ने आज्ञानुसार चलना स्वीकार किया।

तदनंतर वापस लौटने के लिये सुग्रीव और भरत सहित श्रीराम विमान पर चढ़े। तब विभीषण ने कहा ' प्रभु ! यदि लंका का पुल ज्यों - का - त्यों बना रहेगा तो पृथ्वी के सभी लोग यहाँ आकर हम लोगों को तंग करेंगे, इसलिए क्या करना चाहिये ? ' भगवान ने विभीषण की बात सुनकर पुलको बीच में से तोड़ डाला और दश योजन के बीच के टुकड़े के फिर तीन टुकड़े कर दिये। तदनंतर उस एक - एक टुकड़े के फिर छोटे - छोटे टुकड़े कर डाले, जिससे पुल टूट गया और यों लंका के साथ भारत का मार्ग पुनः विछिन्न हो गया।


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