इस्लाम की आस्था और वन्देमातरम्, कितना उचितऔर कितना अनुचित?



वन्देमातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में अंगीकार किये जाने के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में चल रहे समापन समारोह के अवसर पर देशभर में शैक्षणिक संस्थानों में सात सितम्बर को सामूहिक वन्देमातरम् गाए जाने के सम्बंध में केन्द्र सरकार ने जो आदेश जारी किया है, उस के विरूद्ध कुछ अलगाववादी मुसलमानों ने बवाल मचा दिया है। इन तत्वों का यह कहना है कि यह गीत इस्लाम विरोधी है। अलगाववादी ताकतों का लक्ष्य 1905 में कुछ दूसरा था और लगता है आज भी दूसरा है। केवल राष्ट्रीय प्रवाह के विरूद्ध अपनी सोच को मान्यता दिलाना उनकी नियत है। नाम इस्लाम का है लेकिन काम राजनीति और कुटिल कूटनीति का है। इस्लाम के नाम पर आजादी से पहल और आजादी के बाद अनेक फतवे जारी हुए हैं। उन में वन्दे मातरम् का विरोधी भी उनका मुख्य लक्ष्य रहा है। सवाल यह उठता है कि वन्देमातरम् विरोधी जो ताकतें इस प्रकार की बातें कर रही है उनमें कितनी सच्चाई है उसका इस्लामी दृष्टिकोण से जायजा लेना अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं है तो फिर इन तत्वों के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही होनी चाहिये। आतंकवाद को ताकत पहुचाने वाली ऐसी हरकतें सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए घातक है अतएव उस पर गहराई से विचार होना चाहिये।

वन्देमातरम् की हर पंक्ति मां भारती का गुणगान करती है। न केवल वसुंधरा की प्रशंसा है बल्कि कवि एक जीती जागती देवी के रूप में भारत को प्रस्तुत कर रहा है। उसकी शक्ति क्या है और वह अपने शत्रु को किस प्रकार पराजित करने की क्षमता रखती है इसका रोमांचकारी वर्णन है। वन्देमातरम् केवल गीत नहीं बल्कि भारत के यथार्थ को प्रस्तुत करने वाला एक दस्तावेज है। भारत को पहचानने के लिये बंकिम अपनी मां को पहचाने का आह्वान कर रहे हैं। इसका सम्पूर्ण उद्देश्य अपने देश की धरती को स्वतंत्र करवाना है। इसलिये यहां जो भी सांस लेता है उसका यह धर्म है कि वह अपना सर्वस्व अर्पित कर दे।

कोई यह सवाल उठा सकता है कि भारत में कोई एक धर्म, एक जाति, एक आस्था के व्यक्ति नहीं है जो इस देश को माता के समान पूज्यनीय माने। एकेश्वरवादी इसके लिये कह सकते हैं कि यह हमारी आस्था और विचारधारा के विरूद्ध है। लेकिन जिस निर्गुण निराकार में उन्हें विश्वास है वह भी तो अपार शक्ति का मालिक है। किसी के गुण अथवा ताकत को स्वीकार करना या उस का आभास होना कोई एकेश्वरवाद के सिद्धांत को ठुकराना नहीं है।

वन्देमातरम् पर सबसे अधिक विरोध मुठ्ठीभर मुस्लिम बंधुओं को है। वे यह सवाल कर सकते हैं कि यहां तो इसका वर्णन कुछ इस प्रकार से किया जा रहा है कि मानो वह साक्षात देवी है और जिन अलंकारों का हम उपयोग कर रहे हैं वह केवल उसकी पूजा करने के समान है। जब इस बहस को शुरू करते हैं तो इस्लाम के सिद्धांतों पर वन्देमातरम् खरा उतरता है। क्या इस्लाम में मां को पूज्यनीय नहीं कहा गया है? पैगम्बर मोहम्मद साहब की हदीस है-- मां के पैर के नीचे स्वर्ग है’ यदि इस्लाम सगुण साकार के विरूद्ध है तो फिर मां और उसके पांव की कल्पना क्या किसी चित्र को हमारी आंखों के सामने नहीं उभारती। अपनी मां का तो शरीर है लेकिन वन्देमातरम् में जिस मां की वंदना की बात की जाती है उसका न तो शरीर है, न रंग है और न रूप है फिर उसे देवी के रूप में पूजने का सवाल कहां आता है? यहां तो केवल अलंकार है और विशेषण हैं इसलिये उसका आदर है। इस आदर को पूज्यनीय शब्द में व्यक्त किया जाए तो क्या उसकी पूजा किसी मूर्ति की पूजा के समान हो सकता है। भारत में जब बादशाहत का दौर था उस समय हर शहंशाह को ‘जिल्ले इलाही’ (उदाहरण के लिये मुगले आजम फिल्म) कहा जाता था। इस का अर्थ होता है ईश्वर का दिव्य प्रकाश। क्या यह शब्द किसी मूर्ति की प्रशंसा को प्रकट नहीं करता। यहां तो साक्षात् हाड़ मांस के आदमी के लिये इस शब्द का उपयोग किया जा रहा है। दूसरे शब्दों में इस शब्द के माध्यम से तो आप पत्थर या देश की ही नहीं अपितु एक इंसान को ईश्वर रूप में मान रहे हैं। इस तर्क के आधार पर तो तो यह कहना होगा कि वन्देमातरम् से अधिक इस्लाम के अनुयाइयों के लिये जिल्ले इलाही शब्द आपत्तिजनक होना चाहिये। यदि वे इसे विशेषण मानते हैं तो भारत के विशेषणों को स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये। व्यक्ति के चेहरे पर ईश्वरीय प्रकाश हो सकता है तो फिर किसी मां की प्रशंसा करने के लिये उसे सहस्त्र हाथों वाली भी कहा जा सकता है जो अपने बाहुबल से शत्रु का नाश करने वाली है। इस्लाम अपने झंडे में चांद और तारे को महत्व देता है। उस झंडे को सलामी दी जाती है। उस का राष्ट्रीय सम्मान होता है। ध्वज का अपमान करने वाले को दंडित किया जाता  है। क्या हरा रंग और यह चांद सितारे इस ब्रह्मांड के अंग नहीं है। यदि ध्वज को सलामी दी जा सकती है तो फिर धरती माता को प्रणाम क्यों नहीं किया जाता। यह प्रणाम ही तो इसकी वंदना है। इसलिये सलामी के रूप में आकाश के चांद तारे पूज्यनीय है तो फिर धरती की अन्य वस्तुओं को पूज्यनीय माने जाने से कैसे इंकार किया जा सकता है? भारतीय परिवेश में भक्ति प्रदर्शन का अर्थ पूजा होता है। पूजा इबादत का समानार्थी शब्द है इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा। बंगला भाषा के अनेक मुसलमान कवि और लेखकों ने इंसान के बारे में वंदना शब्द का प्रयोग किया है। कोई भी बंगाली मुसलमान वंदना शब्द से परहेज नहीं करता। लेकिन उसे अरबी के माध्यम से प्रयोग किया जाएगा तो मुसलमान उस पर अवश्य आपत्ति उठाएगा। क्योंकि समय, काल और देश के अनुसार हर स्थान पर अपने-अपने शब्द हैं और उनका उपयोग भी अपने-अपने परिवेश में होता है।

प्रसिद्ध बंगाली विद्वान मौलाना अकरम खान साहब की मुख्य कृति ‘मोस्तापाचरित’ में पृष्ठ 1575 पर जहां अरब देश का भौगोलिक वर्णन किया है वहां वे लिखते हैं.... अर्थात कवि ने अरब को ‘मां’ कह कर सम्बोधित किया है।

देश को जब हम मां कहते हैं तब रूपक अर्थ में ही कहते हैं। देश को मां के रूप में सम्बोधन करने का मूल उद्देश्य है। यहां हम देश को ‘खुदा’ नहीं कहते। यदि हमारी मां को मां कह कर पुकारने में कोई दोष नहीं होता तो रूपक भाव से देश को मां कहने में भी कोई दोष नहीं हो सकता। देश भक्ति, देश-पूजा, देश वंदना, देश-मातृका एक ही प्रकार के विभिन्न शब्द हैं जो इस्लाम की दृष्टि में पूर्णतया मर्यादित हैं। इसलिये वंदेमातरम् गीत को गाना न तो ‘बुतपरस्ती’ है और न ही इस्लाम विरोधी।

देश को मां कहकर सम्बोधित करने की प्रथा अरबी और फारसी में बहुत पुरानी है। ‘उम्मुल कोरा’ (ग्राम्य जननी) उम्मुल मूमिनीन (मूमिनों की जननी) उम्मुल किताब (किताबों की जननी) यानी यह सभी मां के रूप में है तो फिर वन्देमातरम् शब्द का विरोध कितना हास्यास्पद है।

वन्देमातरम् यदि इसलिये आपत्तिजनक है क्योंकि इस में देश का गुणगान है तो फिर अरब भूखंड के अनेक देशों का भी उन के राष्ट्रगीत में वर्णन है। उजबिकिस्तान हो या फिर किरगिस्तान सभी स्थान पर उनके राष्ट्रगीत में उनके खेत, उनके पशु पक्षी और उन के नदी पहाड़ का सुन्दर वर्णन मिलता है। यमन अपने खच्चर को इसी प्रकार प्यार करता है जिस तरह से कोई हिन्दू गाय को। यमन के राष्ट्रगीत में कहा गया है कि खच्चर उसके जीवन की रेखा है। नंगे पर्वत दूर-दूर तक फैले हुए हैं जिनमें कोई स्थान पर झरने फूटते हुए दिखलाई पड़ते हैं। जिस तरह किसी माता के स्तन से ममता फूट रही हो। इजिप्ट के राष्ट्र गीत में तो लाल सागर, भूमध्य सागर और स्वेज का वर्णन पढ़ने को मिलता हैं नील नदी उनके लिये गंगा के समान पवित्र है। इजिप्टवासी की यह इच्छा है कि मरने के पश्चात स्वर्ग में भी उसे नील का पानी पीने को मिले। पिरामिड को अपनी शान और पुरखों की विरासत के रूप में अपने राष्ट्रगीत में याद करता है।

डाक्टर इकबाल ने अपनी कविता ‘नया शिवालय’ में लिखा है...... पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है.... खाके वतन का मुझको हर जर्रा देवता है। डाक्टर इकबाल केवल पत्थर से बनी मूर्तियों में ईश्वर का प्रतिबिम्ब नहीं देखते हैं उनके लिये तो सारे देश हिन्दुस्तान का हर कण देवता है। क्या वन्दे मातरम् का विरोध करने वाले यह कह सकते हैं कि इकबाल ने भारत को देवता कहकर इस्लाम विरोधी भावना व्यक्त की है? वन्दे मातरम् में भारत की हर वस्तु की प्रशंसा ही इस गीत की आत्मा है। पाकिस्तान में प्रथम राष्ट्र गीत मोहम्मद अली जिन्ना ने लाहौर के तत्कालीन प्रसिद्ध कवि जगन्नाथ प्रसाद आजाद से लिखवाया था। डेढ़ साल के बाद लियाकत ने उसे बदल दिया। राष्ट्रगीत पाकिस्तान में तीन बार बदला गया है। दुनिया के हर देश की जनता जब अपने देश के बखान करती है और उसे अपना ईमान मानती है तब ऐसी स्थिति में भारत की कोटि-कोटि जनता कलकल निनाद करते हुए वन्देमातरम् को अपने दिल की धडकने बनाए रखे तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिये। क्योंकि राष्ट्र की वंदना हमारा धर्म भी है, कर्म भी और जीवन का मर्म भी।

श्री मुजफ्फर हुसैन, प्रख्यात देशभक्त मुस्लिम पत्रकार
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन)


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सरफरोशी की तमन्ना का मंत्र बना वन्देमातरम्



सन् 1905 में बंग भंग आंदोलन प्रारंभ होने के साथ ही बंगाल सचिव लाइल का यह आदेश लागू हो गया कि जो भी वंदेमातरम का उद्घोष करेगा उसे कोड़े लगाए जाएंगे, जुर्माना होगा और स्कूल से निकाल दिया जाएगा। इसके बाद स्थिति यह हो गई कि ढाका के एक स्कूल में छात्रों से पांच सौ बार लिखवाया गया- वंदेमातरम् कहना सबसे बड़ा पाप हैं पर अधिकतर छात्र लिखते थे- वंदेमातरम् कहना सबसे बड़ा धर्म है। कोलकाता में नेशनल कालेज के एक छात्र सुशील सेन को वंदेमातरम् कहने पर पंद्रह बेंत मारने की सजा मिली और उसके अगले दिन स्टेटसमैन अखबार ने लिखा कि प्रत्येक बेंत की मार पर सुशील सेन के मुख से एक ही नारा निकलता था- वंदेमातरम्। तब काली प्रसन्न जैसे कवि गा उठे-
बेंत मेरे कि मां भुलाबि। आमरा कि माएर सेई छेले
मोदेर जीवन जाय जेन चले वंदेमातरम् बोले।
अर्थात बेंत मारकर क्या मां को भुलाएगा, क्या हम मां की ऐसी संतान हैं? वंदेमातरम् बोलते हुए हमारा जीवन भले ही चला जाए पर वंदेमातरम् बोलेंगे।

इसकी गूंज सात समुद्र पार करके लंदन की धरती पर पहुंची, जहां मदन लाल ढींगरा ने अपना अंतिम वक्तव्य वंदेमातरम् के साथ ही पूरा किया। उसने कहा- भारत वर्ष की धरती को एक ही बात सीखनी है कि कैसे मरना है और यह स्वयं मरकर ही सीखा जा सकता है। इसलिए मैं मर रहा हूँ-वंदेमातरम्।

आखिर क्या है वंदेमातरम् जिसकी चोट अंग्रेज की छाती पर गोली से भी गहरी होती थी। बंगाल के बंकिम चंद्र ने अपने उपन्यास‘आनंद मठ’ में भारत माता को मानो साकार रूप ही दे दिया। बंकिम ने एक वक्तव्य में कहा था- मेरा आनंद मठ कभी सारे देश में एक सच्चाई के रूप में प्रकट होगा। भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक मात्र जयघोष वंदेमातरम् था।

हम नहीं जानते कि भारत सरकार के गणित का आधार क्या है पर हमारी सरकार की इच्छा है कि वर्ष 2007 को वंदेमातरम् की शताब्दी के रूप में मनाया जाए। वैसे सारा देश एक बार 1996 में वंदेमातरम् की शताब्दी मना चुका है। वर्ष 1882 में श्री बंकिम चंद्र के आनंद मठ उपन्यास का प्रकाशन हुआ। यह गीत उसी का भारतग है। फिर 1896 में पहली बार यह गीत कोलकाता में श्री बाल गंगाधर तिलक की उपस्थिति में कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया और स्वयं श्री टैगोर ने इस गीत का गायन किया। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही सरकार को यह भी याद नहीं कि इसके अनुसार सन 1996 वंदेमातरम का सौवां वर्ष था। 7 अगस्त 1905 का दिन तो भुलाया ही नहीं जा सकता, जब बंग-भंग आंदोलन के विरोध में  पूरा बंगाल ही गरज उठा था और कोलकाता के कालेज चैक में पचास हजार से भी ज्यादा भारत के बेटे-बेटियां वंदेमारतम् कहकर स्वतंत्रता के लिए बलिपथ पर चल पड़े । इन्हीं दिनों मैडम भीका जी कामा ने एमस्र्डम में वंदेमातरम् वाला भारत का ध्वज फहराया। फिर भी भारत सरकार 2007 को ही शताब्दी मना रही है।

भारत के मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने यह घोषण की कि सभी स्कूलों में वंदेमातरम गाया जाए और साथ ही सांप्रदायिक शक्तियों के आगे घुटने टेकते हुए यह भी कह दिया कि जो इसे नहीं गाना चाहता, न गाए। अफसोस तो यह है कि देश के गृह राज्य मंत्री श्री जायसवाल भी राष्ट्रीय गान के गौरव का सम्मान रक्षण नहीं कर पाए। कौन नहीं जानता कि बंग-भंग में धर्म, संप्रदाय, जाति का भेद भुलाकर वंदेमातरम के साथ ही अंग्रेजों से लोहा लिया गया था और अब एक शाही इमाम के विरोध को पूरे मुस्लिम समाज का विरोध मानकर सरकार ने यह निंदनीय-लज्जाजनक आदेश दिया है।

प्रसिद्ध लेखक एवं क्रांतिकारी हेम चंद ने कहा था- पहले हम इस बात को समझ नहीं पाए थे कि वंदेमातरम गीत में इतनी शक्ति और भारतव छिपा है। अरविंद ने सत्य ही कहा था कि वंदेमातरम् के साथ सारा देश देशभक्ति को ही धर्म मानने लगा है। यह मंत्र भारत में ही नहीं सारे विश्व में फैल गया। 7 अगस्त 1905 को जब बंग भंग के विरोध में पचास हजार देशभक्त कोलकाता में इकट्ठे हुए तो अचानक ही एक स्वर गूंजा- वंदेमातरम और इसके साथ ही वंदेमातरम् क्रांति का प्रतीक बन गया। इस आंदोलन के मुख्य नेता सुरेंन्द्र नाथ बनर्जी ने कहा हमारे अंतर्मन की भारतवनाएं वंदेमातरम् के भारतव के साथ जुड़ जानी चाहिए।

आज स्वतंत्रता के साठवें वर्ष में वंदेमातरम् गीत गाना सांप्रदायिक माना जाने लगा है। जिस वंदेमातरम् के साथ क्रांतिकारी देशभक्त हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ जाते थे उसे ही स्वतंत्र भारत की सरकार एक संप्रदाय विशेष को न गाने की छूट दे रही है। दुर्भारतग्य से भारत के विभारतजन के साथ ही वंदेमातरम् का भी विभारतजन कर दिया गया। स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं को इस गीत के प्रथम भारतग में तो देशभक्ति दिखाई देती है, पर पिछले हिस्से में सांप्रदायिकता लगती है। आखिर क्या बुरा लिखा है इसमें? भारत की संतान भारत मां से यही तो कहती है न कि भारत मां तू ही मेरी भुजाओं की शक्ति है, तू ही मेरे हृदय की भक्ति है, तू धरनी है, भरनी है, सुंदर जल और सुंदर फल फूलों वाली है, तेरे करोड़ों बच्चे हैं, फिर तू कमजोर कैसी? हमें याद रखना होगा कि 15 अगस्त 1947 की सुबह आकाशवाणी से प्रसारित होने वाला पहला गीत वंदेमातरम था, जो पंडित ओंकार नाथ ने पूरा गाया था।

आज तो भारत स्वतंत्र है, पर जिस समय वंदेमातरम कहना अपराध माना जाता था उस समय राष्ट्र के महान नेता सुरेंद्र नाथ बनर्जी, विपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष वंदेमातरम के बैज सीने में लगाकर निकलते थे। अमृत बाजार पत्रिका के संपादक मोतीलाल घोष ने सिंह गर्जना करते हुए कहा था- चाहे सिर चला जाए मैं वंदेमातरम गाऊंगा। वीर सावरकर ने 1908 में इंग्लैंड में वंदेमातरम गुंजाया। मार्च 1907 को युगांतर दैनिक ने यह लिखा कि वंदेमातरम की गूंज ने शत्रु की हिम्मत छीन ली है, वे अब परास्त हो रहे हैं और भारत मां मुस्कुरा रही है। डा. हेगेवार बचपन से ही राष्ट्रभक्ति में रंगे हुए थे। नागपुर के नील सिटी स्कूल में पढ़ते समय उन्होंने सारे स्कूल में ही वंदेमातरम का जयघोष करवा दिया और दंडित हुए। वाराणसी की जेल में जब चंद्रशेखर आजाद को कोड़े मारे गए, तब भी वह वंदेमातरम ही बोलते रहे। 29 दिसंबर 1927 को जब अशफाख उल्ला खां को फांसी पर रबाया गया तब भी वह वंदेमातरम का नार ही लगाते रहे। कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में श्री विष्णु दिगंबर पालुसकर ने वंदेमातरम का गीत गाकर ही सम्मेलन का प्रारंभ करवाया।

कौन नहीं जानता कि स्वतंत्रता की बेदी पर प्राण देने वाले हरेक देशभक्त ने वंदेमातरम् से ही प्रेरणा ली थी। यह तो अंग्रेजों की कुटिल नीति थी, जिसने देश के हिंदू-मुसलमानों को अलग कर दिया। सच यह है कि बंग-भंग आंदोलन के समय मुस्लिम छात्र नेता लियाकत हुसैन कोलकाता के कालेज चैक में हर शाम को अपने साथियों सहित वंदेमातरम् के नारे लगाता और बेंत भी खाता था।

अब प्रश्न यह है कि जो वंदेमातरम् राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम का मंत्र बन गया था उसे स्वतंत्र भारत में सम्मान क्यों नहीं? बड़ी कठिनाई से वह दिन आया जब भारत सरकार ने स्कूलों में वंदेमातरम् गाने का संदेश दिया। आश्चर्य है कि राष्ट्रीय गीत गाने के लिए भी आदेश देना पड़ता है, पर साथ ही एक बार फिर विभारतजन कर दिया कि जो गाना चाहे वही गाए। जो लोग यह कहते हैं कि इस्लाम की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मां को प्रणाम नहीं किया जा सकता वह हजरत मुहम्मद साहब का यह वाक्य कैसे भूल गए कि दुनिया में अगर कही जन्नत है तो मां के चरणों में ही है और ए.आर.रहमान ने मां तुझे सलाम गाकर भारत संतान की रगों में एक नया जोश भर दिया। आश्चर्य यह है कि जहां जन-गण-मन के किसी अधिनायक की बात की गई है वह तो सबको स्वीकार है, पर जहां भारत भक्ति का स्वर है उस गीत को सांप्रदायिक कहा जाता है। अच्छा हो देश के यह तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता अपनी आंखों से संकीर्ण राजनीति का चश्मा उतारकर अपनी आत्मा को जरा उनके नजदीक ले जाएं जो एक बार वंदेमातरम् कहने के लिए फांसी चढ़ते थे, कोड़े खाते थे, रक्त की नदी पर करके भी राष्ट्रीय ध्वज फहराना चाहते थे, तब उन्हें अहसास होगा कि वंदेमातरम् के साथ भारत की आत्मा जुड़ी है, सांप्रदायिकता नहीं। यह भारत भक्ति का मंत्र है, किसी संप्रदाय विशेष का नहीं। जो आज इस गीत को न गाने की छूट देते हैं हो सकता है कल को वे तुष्टीकरण करते हुए राष्ट्र के अन्य प्रतीकों का भी अपमान करने की छूट दे दें। अभी से सावधान होना होगा।
लक्ष्मी कांता चावला, प्रसिद्ध स्तंभकार
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन) 


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वंदेमातरम् - यानी मां तुझे सलाम



यह अफसोसजनक है कि राष्ट्रगीत वंदे मातरम् को लेकर मुल्क में फित्ने और फसाद फैलाने वाले सक्रिय हो गए हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तय किया कि 7 सितंबर वंदे मातरम् का शताब्दी वर्ष है। इस मौके पर देश भर के स्कूलों में वंदे मातरम् का सार्वजनिक गान किया जाए। इस फैसले का विरोध दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम (वे स्वयं को शाही कहते हैं) अहमद बुखारी ने कर दिया। बुखारी के मन में राजनीतिक सपना है। वे मुसलमानों के नेता बनना चाहते हैं। बुखारी को देश के मुसलमानों से कोई समर्थन नहीं मिला। देश मुसलमान वंदे मातरम् गाते हैं। उसी तरह जैसे कि ‘जन गण मन’ गाते हैं। ‘जन गण मन’ कविन्द्र रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने अंग्रेज शासक की स्तुति में लिखा था। बहरहाल जब ‘जन गण मन’ को आजाद भारत में राष्ट्र गान का दर्जा दे दिया गया तो देश के मुसलमान ने भी इसे कुबूल कर लिया। ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा’ एक रम्प और सांगीतिक गान था लेकिन एकाधिक कारणों से उसे राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान का दर्जा नहीं मिल सका। इसके बावजूद कि कोई बाध्यता, अनिवार्यता नहीं है, राष्ट्रीय दिवसों पर ‘सारे जहां से अच्छा...’ जरूर गया जाता है। यह स्वतः स्फूर्त है। भारत का गुणगान करने वाले किसी भी गीत, गान या आह्वान देश के मुसलमान को कभी कोई एतराज नहीं रहा। आम मुसलमान अपनी गरीबी और फटेहाली के बावजूद भारत का गान करता है। सगर्व करता है। एतराज कभी कहीं से होता है तो वह व्यक्ति, नेता, मौलाना या इमाम विशेष का होता है। इस विरोध के राजनीतिक कारण हैं। राजनीति की लपलपाती लिप्साएं है। कभी इमाम बुखारी और कभी सैयद शहाबउद्दीन जैसे लोग मुसलमानों के स्वयं-भू नेता बन कर अलगाववादी बात करते रहे हैं। ऐसा करके वे अपनी राजनीति चमका पाते हैं या नहीं यह शोध का विषय है लेकिन देश के आम मुसलमान का बहुत भारी नुकसान जरूर कर देते हैं। आम मुसलमान तो ए.आर. रहमान की धुन पर आज भी यह गाने में कभी  कोई संकोच नहीं करता कि ‘मां, तुझे सलाम...’ इसमें एतराज की बात ही कहां हैै? धर्म या इस्लाम कहां आड़े आ गया? अपनी मां को सलाम नहीं करें तो और क्या करें? अपने मुल्क को, अपने वतन को, अपनी सरजमीन को मां कहने में किसे दिक्कत है? वंदे मातरम् का शाब्दिक अर्थ है मां, तुझे सलाम। इसमें एतराज लायक एक भी शब्द नहीं है? जिन्हें लगता है वे इस्लाम और उसकी गौरवपूर्ण परंपरा को नहीं समझते। इस्लामी परंपरा तो कहती है कि ‘हुब्बुल वतन मिनल ईमान‘ अर्थात राष्ट्र प्रेम ही मुसलमान का ईमान है। आजादी की पहली जंग 1857 में मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की अगुवाई में ही लड़ी गई। फिर, महात्मा गांधी के नेतृत्व में बादशाह खान सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. जाकिर हुसैन, डॉ. सैयद महमूद, यूसुफ मेहर अली, सैफउद्दीन किचलू, एक लंबी परंपरा है भारत के लिए त्याग और समर्पण की। काकोरी कांड के शहीद अशफाक उल्लाह खान ने वंदे मातरम् गाते हुए ही फांसी के फंदे को चूमा। कर्नल शहनवाज खान, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के विश्वस्त सहयोगी थे। पाकिस्तान के साथ युद्धों में कुर्बानी का शानदार सिलसिला है।


ब्रिगेडियर उस्मान, हवलदार अब्दुल हमीद से लेकर अभी कारगिल संघर्ष में मोहत काठात तक देशभक्ति और कुर्बानी की प्रेरक कथाएं हैं। इन्हें रचने वाला देश का आम मुसलमान भी है।

वंदे मातरम् हो या जन गण मन, आपत्ति आम मुसलमान को कभी नहीं रही। वह मामूली आदमी है। प्रायः शिक्षित नहीं है। अच्छी नौकरियों में भी नहीं है लेकिन ये सारी हकीकतें देश प्रेम के उसके पावन जज्बे को जर्रा भरी भी कम नहीं करतीं। साधारण मुसलमान अपनी ‘मातृभूमि’ से बेपनाह मोहब्बत करता है, अत्यंत निष्ठावान है और उसे अपने मुल्क के लिए दुश्मन की जान लेना और अपनी जान देना बखूबी आता है। अपने राष्ट्र प्रेम का प्रमाण पत्र उसे किसी से नहीं चाहिए।

राष्ट्रगीत को लेकर इने गिने लोगों की मुखालिफत को प्रचार बहुत मिला। बिना बात का बखेड़ा है क्योंकि बात में दम नहीं है। मुल्क के तराने को गाना अल्लाह की इबादत में कतई कोई खलल नहीं है। अल्लाह तो लाशरीकलहू (उसके साथ कोई शरीक नहीं) ही है और रहेगा। अल्लाह की जात में कोई शरीक नहीं। बहरहाल मुसलमानों का भी अपना समाज और मुल्क होता है। जनाबे सद्र एपीजे अब्दुल कलाम अगर चोटी के साइंटिस्ट हैं तो उनकी तारीफ होगी ही, मोहम्मद कैफ अच्छे फील्डर हैं तो तालियां बटोरेंगे ही, सानिया मिर्जा सफे अव्वल में हैं तो हैं, शाहरूख खान ने अदाकारी में झंडे गाड़े हैं तो उनके चाहने वाले उन्हें सलाम भी करेंगे। इसी तरह बंकिम चन्द्र चटर्जी का राष्ट्रगीत है। शायर अपने मुल्क की तारीफ ही तो कर रहा है। ऐसा करना उनका हक है और फर्ज भी। कवि यही तो कह रहा है कि सुजलाम, सुफलाम, मलयज शीतलाम। कवि ने मातृभूमि की स्तुति की। इसमें एतराज लायक क्या है। धर्म के विरोध में क्या है? जिन निहित स्वार्थी तत्वों को वंदे मातरम् काबिले एतराज लगता है वो अपनी नाउम्मीदी, खीझ और गुस्से में दो रोटी ज्यादा खाएं लेकिन इस प्यारे मुल्क के अमन-चैन और खुशगवार माहौल को खुदा के लिए नजर नहीं लगाएं। वंदे मातरम्।
शाहिद मिर्जा, लेखक राजस्थान पत्रिका के डिप्टी एडिटर हैं
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन) 


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वंदेमातरम के बहाने लोकतंत्र का मजाक



अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन 1905 में किया था और इसके खिलाफ जो मशहूर बंग-भंग आंदोलन हुआ था, उसमें भी वंदेमातरम् ही मुख्य गीत था। राष्ट्रीय स्वयं संघ के संस्थापक डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार को तो वंदेमातरम् आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए ही नागपुर में स्कूल से निकाल दिया गया था और 1925 में उन्होंने संघ की स्थापना की।

आज कांग्रेस वंदेमातरम् को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है। जाहिर है कि शरीयत आदि का जो हवाला इस महान गीत के खिलाफ दिया गया है उसे लेकर कांग्रेस को अपने अल्पसंख्यक वोट बैंक की काफी चिंता है। मगर यही कांग्रेस अगर वह आजादी के पहले वाली कांग्रेस की उत्तराधिकारी है तो 1915 के बाद अपना हर अधिवेशन वंदेमातरम् से शुरू करती रही है और आज तक करती है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने तो वंदेमातरम् को अपनी आजाद हिंद फौज का प्रयाण गीत बना दिया था और सिंगापुर में जो आजाद हिंद फौज रेडियो स्टेशन था वहां से उसका लगातार प्रसारण होता था।

14 अप्रैल 1906 को कोलकत्ता में वंदेमातरम् गाते हुए देशभक्तों का एक बड़ा जुलूस निकला था। इस जुलूस में महर्षि अरविंद भी थे जो आईसीएस की अपनी नौकरी छोड़़ कर देश और समाज की लड़ाई में शामिल हो गए थे। इस जुलूस पर लाठियां चली और महर्षि अरविंद भी घायल हुए। बाद में महर्षि ने खुद वंदेमातरम् का सांगीतिक अंग्रेजी अनुवाद किया। महर्षि ने अपनी पुस्तक महायोगी में लिखा है कि वंदेमातरम् से बड़ा राष्ट्रीयता का प्रतीक दूसरा नहीं हो सकता। बाकी सबको छोडि़ये, अंग्रेजों की रची किताब कैम्ब्रिज हिस्ट्री आॅफ इंडिया में भी लिखा है कि वंदेमातरम् संसार की महानतम साहित्यिक और राष्ट्रीय रचनाओं में से एक है। महात्मा गांधी की हर प्रार्थना सभा वंदेमातरम से शुरू होती थी।

आलोक तोमर, वरिष्ठ पत्रकार
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन) 


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राष्ट्रीय एकता का महामंत्र वन्देमातरम् के महत्वपूर्ण तथ्य



संसार के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में से एक है वंदेमातरम्। सन् 2002 में बीबीसी द्वारा कराए गए एक सर्वे में यह जानकारी प्रकाश में आई। बी.बी.सी. ने सन् 2002 में अपनी 70वीं वर्षगांठ पर दुनिया के 155 देशों में इन्टरनेट पर यह सर्वे कराया था और संसार के दस सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय गीतों के बारे में लोगों से राय मांगी थी। लाखों लोगों ने इस सर्वे में हिस्सा लिया। बी.बी.सी. ने इस सर्वे के आधार पर ‘वन्दे मातरम्’ को विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में दूसरा स्थान दिया। पहला नंबर आयरलैण्ड के राष्ट्रगीत ‘ए नेशन वन्स अगेन’ को मिला था।

राष्ट्र की जय चेतना का गान वन्देमातरम्।
राष्ट्रभक्ति प्रेरणा का गान वन्देमातरम्।।
राष्ट्रभक्ति के जीवन्त प्रतीक राष्ट्रगीत की रोचक गाथा निम्न प्रकार हैः
  • राष्ट्रगीत वन्देमातरम् के रचयिता श्री बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म 26 जून सन् 1938 को बंगाल के नौहाटी जनपद के कांटालपाड़ा ग्राम में हुआ था। इनके पिताजी का नाम यादवचन्द्र चट्टोपाध्याय था।
  • बंकिमचन्द्र चटर्जी काफी मेधावी छात्र थे। स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद 7 अगस्त सन् 1858 को उन्होंने सरकारी सेवा में यशोहर जिले के डिप्टी कलेक्टर के रूप में पद ग्रहण किया।
  • अंग्रेजी हुकुमत के रूप में भारतीयों के साथ सौतेला व्यवहार होने के कारण 30 वर्षों की सुदीर्घ सेवा के बावजूद उन्हें प्रोन्नति नहीं दी गयी। चट्टोपाध्याय ने अपने सेवा काल में ही फिरंगियो की भेदभावपूर्ण नीति के विरूद्ध अपने ओजपूर्ण आलेखो के द्वारा संर्घष का शंखनाद कर दिया था।
  • वन्देमातरम् गीत की रचना तो श्री बंकिमचन्द्र ने सन् 1874 ई. में ही कर दी थी किन्तु आम लोगों को इसकी विशेष जानकारी नही थी।
  • अप्रैल 1881 में बंगला पत्रिका ‘बंग दर्शन’ में इसके प्रथम प्रकाशन के बाद ही आम जनता का ध्यान इस गीत की ओर आकृष्ट हुआ।
  • सन् 1882 में श्री चटर्जी के सर्वाधिक चर्चित उपन्यास ‘आनन्दमठ’ के प्रकाशन के बाद तो इस गीत की धूम न सिर्फ शहरो-नगरों और गांवों में बल्कि मातृभूमि के प्रेम में पागल सन्यासियों के मुख से खंडहरों, पहाड़ों और जंगलों में भी सुनाई देने लगी तथा राष्ट्रीय भावनाओं को उत्पे्ररित करने का काम वन्देमातरम् के माध्यम से होने लगा। (हम सभी को ‘आनन्दमठ’ पढ़ना चाहिए)।
  • सन् 1896 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस अधिवेशन में कविवर श्री रविन्द्रनाथ टैगोर ने इस गीत को सर्वप्रथम संगीतबद्ध कर गाया। इसके बाद तो इसका सर्वत्र प्रचार किया गया और फिर तो कांग्रेस अधिवेशनों का शुभारम्भ व समापन इसी गीत से होने लगा।
  • सितम्बर 1905 में लार्ड कर्जन ने जब बंगाल विभाजन की घोषणा ब्रिटिश सत्ता की राजधानी कलकत्ता में की तो बंगाल सहित पूरे देश में भूचाल सा आ गया और पूरा देश वन्देमातरम् के नारे से गूंज उठा। देशभक्तों की आस्था का शब्द वन्देमातरम्, लार्ड कर्जन की दृष्टि से राजद्रोह का प्रतीक बन गया तथा पूर्वी बंगाल में कर्जन के अधीनस्थ ले. गर्वनर फुलर ने वन्देमातरम् पर कानूनन प्रतिबंध लगा दिया। बाबू सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में ‘बन्दी विरोधी समिति’ ने इसका विरोध करने का बीड़ा उठाया। इस प्रतिबंध ने आग में घी का काम किया और देखते ही देखते वन्देमातरम् देशभर में सर्वव्यापी हो गया, फिर तो अंग्रेजों के अत्याचार जितने बढ़ते थे उतनी ही तेजी से प्रतिकार भी होता था।
  • 14 अप्रैल 1906 को कांग्रेस का प्रान्तीय अधिवेशन बंगाल के बारीसाल में होना था। इसके पूर्व ही सरकार ने गांव-गांव में दीवारों पर पोस्टर चिपका कर घोषणा की कि जो भी व्यक्ति वन्देमातरम् गायेगा उसे दण्डित किया जायेगा। इसकी प्रतिक्रिया में युवकों ने अमृत बाजार पत्रिका के तत्कालीन सम्पादक मोतीलाल घोष के साथ न सिर्फ जुलूस निकाला बल्कि पूरे जोश के साथ वन्देमातरम् भी गाया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर बर्बतापूर्वक लाठी चार्ज किया जिसमें कई लोग बुरी तरह घायल हो गये।
  • बारीसाल के जुलूस पर सरकार के हिंसक हमले की पूरे देश में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और सर्वत्र वन्देमातरम् का जयघोष सुनाई पड़ने लगा। परिणामस्वरूप लार्ड कर्जन को भारत छोड़कर स्वदेश वापस जाना पड़ा। 6 अगस्त 1906 को विपिन चन्द्र पाल ने अंग्रेजी में दैनिक ‘वन्देमातरम्’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया। बाद में इसका संपादन श्री अरविन्द ने संभाला और उन्होंने लिखा कि बंग-वासी सत्य की साधना से रत थे, तभी किसी दिव्य क्षण में से किसी ने नारा दिया और असंख्य कंठों से राष्ट्रमंत्र वन्दे मातरम् मुखरित हो उठा।
  • भगिनी निवेदिता ने कलकत्ता कांग्रेस में वन्देमातरम् से अंकित राष्ट्रध्वज तैयार किया। लाला लाजपत राय ने 1920 में दिल्ली से हिन्दी में 1941 में मुम्बई से गुजराती में वन्देमातरम् अखबार निकाले फिर तो एक दूसरे का अभिवादन करते समय भी वन्देमातरम् का उद्घोष आरम्भ हो गया।
  • शहीद मदन लाल धींगरा को फांसी मिलने पर उनका बयान ‘आह्वान’ शीर्षक से डेली न्यूज में प्रकाशित हुआ जिसका अन्तिम शब्द था वन्देमारम्।
  • नासिक में वन्देमातरम् पर प्रतिबंध के विरूद्ध आवाज उठाने पर वामनराव खरे, बाबा सावरकर एवं नौ छात्र पकड़े गये, पुलिस की लाठियों को वन्देमातरम् की ढाल पर सहने वाले इन वीरों के तो मुकद्दमे का नाम ही वन्देमातरम् कांड पड़ गया।
  • राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार को वन्देमातरम् गाने के कारण ही उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया था।
  • स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर को जिन लेखों के कारण काला पानी की सजा मिली, उनमें सबसे प्रमुख लेख वन्देमातरम् ही है। जो 1907 में मुम्बई से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘बिहारी’ में छपा था।
  • किंगफोर्ड पर बम फेंककर उसे मारने का प्रयास करने वाले खुदीराम बोस की 11 अगस्त 1908 को फांसी दे दी गयी। उनकी शवयात्रा से लेकर शरीर चिता पर रखे जाने तक एक ही स्वर सुनाई पड़ता था ‘वन्देमातरम्’।
  • रामप्रसाद बिस्मिल 16 दिसम्बर 1927 को वन्देमातरम् का उद्घोष करते हुए ही फांसी के फंदे पर झूले थे।
  • 12 फरवरी सन् 1934 को वधशाला की ओर जाते हुए क्रांतिकारी सूर्य सेन के कंठ से वन्देमातरम् का स्वर ही गूंज रहा था। इस स्वर को रोकने के लिए पुलिस ने फांसी से पहले ही इस वीर पर लाठियों की बरसात की। उसी समय कारागार में भी इस नारे की गूंज शुरू हुई और राजबंदियों की पिटाई के बाद सूर्यसेन को अचेत अवस्था में ही फांसी दे दी गयी।
  • इतने बलिदानों के बाद भी कुछ देशद्रोही तत्व इस राष्ट्रगान का विरोध कर रहे थे। पहली बार वन्देमातरम् का विरोध 1923 के कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में मो. अली जिन्ना ने किया। इसके बाद तो मुसलमानों ने वन्देमातरम् के विरोध का रास्ता ही अपना लिया।
  • 1937 के मुसलिम लीग के अधिवेशन में जिन्ना ने मुसलमानों को वन्देमातरम् के बहिष्कार का आदेश दिया। इसके बाद कांग्रेस ने मुसलिम भावनाओं को तुष्ट करने की दृष्टि से वन्देमातरम् को खण्डित कर इसके पहले दो पदों को ही गाने की घोषणा कर दी। कांग्रेस की इसी तुष्टिकरण की नीति से मुसलिम कट्टरपंथियों के हौसले बढ़े और उन्होंने तब से लेकर आज तक वन्देमातरम् का विरोध बदस्तूर जारी रखा तथा कांग्रेस उसी नक्शेकदम पर चलते हुए आज भी वन्देमातरम् की शताब्दी मनाने में भी आनाकानी कर रही है तथा यूपीए सरकार के मानव संसाधन मंत्री श्री अर्जुन सिंह कह रहे हैं कि जिसकी मर्जी हो वह गाये या जिसकी मर्जी न हो व न गाये।
  • राष्ट्रभक्ति के जीवन्त प्रतीक के रूप में बंकिम बाबू ने जिस राष्ट्रगीत की रचना की थी उस वन्देमातरम् की शताब्दी न मनाने का पातकीय षडयंत्र आज इस देश में किया जा रहा है।
  • वन्देमातरम् भारत का राष्ट्रगीत है। इसकी रचना बंकिम चन्द्र चटर्जी ने सन् 1876 में की थी। यह उनकी पुस्तक आनंदमठ में प्रस्तुत है। ‘‘वन्देमातरम् जादुई शब्द है, जो लौहद्वार खोल देंगे, खजाने की दीवारें तोड़  देंगे।’’-रवीन्द्रनाथ ठाकुर (ग्लोरियस थाॅट्स आॅफ टैगोर पृ.- 165)
  • ‘‘मेरी सारी कृतियां गंगा में डुबो दो तो कोई हानि नहीं होगी, परन्तु यह एक शाश्वत महान गीत बचा रहेगा तो देश के हृदय में मैं जीता रहूंगा’’ -बंकिम चन्द्र चटजी
  • महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रिका में थे तो वे वन्देमातरम् के बारे में सुना। वन्देमातरम् गीत से उनके मन में देशप्रेम जगा और इससे इतना प्रभावित हुए कि अपने पत्राचार में वे अंतिम वाक्य लिखने लगे- ‘मोहनदास की ओर से वन्देमातरम्।
  • विवेकानंद ने भगिनी निवेदिता को कहा कि ‘‘बंगाली अस्थियों से अतिशक्तिवान अस्त्र यह गीत निकाल कर बाहर लाएगा।’’
  • प्रसिद्ध क्रांतिकारी और विचारक अरविन्द ने ‘वन्देमातरम्’ समाचार पत्र निकाला।
  • 1896 में रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने कोलकाता कांग्रेस में इसे गाया था।
  • प्रख्यात क्रांतिकारी विपिन चन्द्र पाल की दृष्टि में वन्देमातरम् ने केवल आर्थिक, राजनीतिक स्वतंत्रता की भावना ही नहीं दौड़ाई अपितु धर्म धारणा की अलौकिक राह दी है।
  • सुविख्यात क्रांतिकारी अशफाक उल्ला, रोशन और रामप्रसाद ने देश की आजादी के लिए फांसी के फंदे को चूमा। उन सभी के स्वर ‘वन्देमातरम्’ के थे।
  • देश की आजादी के बाद ‘वन्देमातरम्’ राष्ट्रगीत स्वीकार किया गया।
  • वन्देमातरम् का विरोध मुस्लिम लीग ने प्रारंभ  की।











जिस गीत के कारण सदियों से सुप्त देश जाग उठा और अर्धशताब्दी तक स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरक बना रहा, जिस गीत के पीछे न जाने कितनी माताओं की गोद सूनी हो गई, कितनी स्त्रियों की मांग का सिन्दूर धुल गया। बंग-भंग आन्दोलन के समय जो गीत धरती से आकाश तक गूंज उठा, बंगाल की खाड़ी से निकलकर जिसकी लहरें इंग्लिश चैनल पारकर ब्रिटिश पार्लियामेंट तक पहुंच गई, जिस गीत के कारण बंगाल का विभाजन न हो सका, उसी गीत को अल्पसंख्यकों की तुष्टि के लिए खंडित किया गया। यहां तक कि उन्हें खुश करने के लिए हमारी मातृभूमि को भी खंडित किया गया। उसके बाद भी जनमानस को उद्वेलित करने वले इस गीत को प्रमुख राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार नहीं किया गया। जो गीत गंगा की तरह पवित्र, स्फटिक की तरह निर्मल और देवी की तरह प्रणम्य हैं उसी गीत को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया गया। भारतीय राजनीति का यह निर्मम परिहास नहीं तो और क्या है? इसका निर्णय भारत के भावी पीढ़ियों को करना होगा।

(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन) 


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