निराला जो "निराला" ही रहा



 

सूर्य कान्‍त्र त्रिपाठी निराला हिन्‍दी छाया काव्‍य के एक दिदिप्‍तमान स्‍तम्‍भों में से एक थें। इनका जन्‍म 21 फरवरी 1898 ई0 को मेदिनीपुर पश्चिम बंगाल में हुआ था। इनके पिता का नाम राय सहाय तिवारी स्‍थानीय रियासत में कर्मचारी थे। प्रारम्‍भ में निराला का नाम सूर्ज कुमार तेवारी था। (चूकिं बंगाल में सूर्य को सूर्ज कहा जाता था इसलिये इनका नाम सूर्ज पड़ा) इनकी प्रारम्‍भिक शिक्षा-दीक्षा बंगाली में ही होती है। सूर्ज कुमार के 14 वर्ष के होने के बाद इनका विवाह 11 वर्षीय मनोहरा देवी के साथ हो जाता है। शादी के 6 साल बाद ही इनकी पत्‍नी का देहान्‍त हो जाता है और कुछ दिनों के बाद माता-पिता-भाई आदि भी स्‍वर्ग सिधार जाते है। अपनी दो संतानों स‍हित भतीजे और भतीजी का पालन पोषण का जिम्‍मा इन पर आ जाता है। रोटी के तलाश मे ये कलकत्‍ता पहुँच कर पिता के स्‍थान पर नौकरी कर लेते है। किन्‍तु सूर्ज कुमार को कुछ और ही मंजूर था इस प्रकार जहाँ चाह वहॉं राह की उक्ति की सार्थकता सिद्ध करते हुऐ इन्‍होने मैट्रिक हासिल करने के बाद स्‍वाध्‍ययन के द्वारा बंगाली और दर्शनशास्‍त्र की शिक्षा ग्रहण की और बाद में स्‍वामी विवेकानंद और रामकृष्‍ण परमहंस के विचारों से प्रभावित होकर रामकृष्‍ण मिशन के लिये कार्य करने लगें। सूर्ज कुमार में प्रतिभा की कोई कमी नही थी, मात्र 17 वर्ष की आयु में उन्‍होने पहली कविता लिखी और लेखन कार्य को सम्‍पादित करते हुऐ महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के सम्‍पर्क में आ गये। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के बारे विख्‍यात था कि वे हर किसी की रचना को सरस्‍वती में जगह नही देतें थे, और सरस्‍वती से जोड़ने की बात तो दूर थी किन्‍तु द्विवेदी जी ने इन्‍हे सरस्‍वती के प्रकाशन कार्य में भी सम्मिलित किया। इस प्रकार सरस्‍वती के कार्य को देखते हुऐ सूर्ज कुमार का पूरा जीवन साहित्‍य साधना में लग गया।
साहित्‍य से लगाव के कारण इन्‍हे अपना नाम काव्‍य परिपाटी के अनुरूप नही लगा तो इन्‍होने ने अपना नाम सूर्ज कुमार तेवारी से बदल कर सूर्य कान्‍त त्रिपाठी कर लिया, और निराला उपाख्‍य के साथ साहित्‍य सृजन करने लगें। यह कहना गलत न होगा कि स्‍वाभिमान का दूसरा नाम निराला है। निराला का जो भी अतीत था निश्चित रूप से संघर्षमय था। बाल्यकाल से लेकर काव्य जीवन के अन्तिम पड़ाव के तक संघर्ष ही किया। जीवन के प्रारम्भिक 8 साल कलकत्‍ता और फिर 14 साल तक लखनऊ में रहकर गंगा पुस्तक माला और सुधा प्रकाशन में काम करने लगे। फिर आगे के सफर में इन्‍हे जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत की मित्रता प्राप्त होती है और सबसे बड़ी बात यह कि एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग मिला जो निराला के लिये संजीवनी का काम किया। निराला छायावाद के महत्वपूर्ण स्तम्भ कहे जाते थे। इन्‍होने अनामिका, परिमल, अप्सरा, अलका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता अपरा, आराधना तथा नये पत्ते आदि की रचना भी की।
निराला के जीवन के कुछ अमूल्य प्रसंग भी याद आ जाते है। एक बार निराला जी काफी ठंड में एक शाल ओढ़कर चले जा रहे थे कि उन्होंने देखा कि एक भिखारी काँप रहा था। और वो अपने वो शॉल उस भिखारी को देकर आगे बढ जाते है। वह शॉल उनके लिये कोई मामूली शॉल नही थी वह शॉल वेशकिमती शॉल उन्‍हे एक सम्‍मान समारोह में मिली थी वरन निराला के वश में कहॉं था इतनी महँगी शॉल को खरीदना। दूसरी घटना वो याद आती है‍ कि जब पंडि़त नेहरू इलाहाबाद के प्रवास पर थे, और वे निराला से मिलने की इच्‍छा प्रकट करते है। एक वाहक निराला के पास संदेश लेकर आता है कि पंडि़त नेहरू ने आपसे मिलने की इच्‍छा प्रकट की है। किन्‍तु अपनी बात कह लेने के बाद वह संदेश वाहक निराला का उत्‍तर पाकर ठगा सा रह गया। निरला का उत्‍तर था कि पंडि़त जी को मिलने से मना किसने किया है। वाहक को लगा था कि निराला पं‍डित जी का नाम सुन कर दौड़ पड़ेगें किन्‍तु निराला कि फितरत में यह न था। पं नेहरू भी एक समझदार व्‍यक्ति थे और निराला का उत्‍तर सुन कर वे स्‍वयं उनसे मिलने आते है। यह गलत न होगा कि निराला का जीवन सदा निराला ही था।


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राजा-रंक ब्‍लागर मीट



एक दिन रामचन्द्र मिश्र जी से जीटॉक यका यक बात हुई। और फोन नंबरों का आदान प्रदान हुआ। चैट के दौरान मैने सर्वप्रथम उन्हें अपने घर पर आने के निमंत्रित किया। और उन्होंने आने का भी वादा भी किया किन्तु अभी तक वो वादा पूरा नहीं किया। फिर अचानक एक दिन उनका फोन आता है कि अगर आज शाम खाली हो तो 5:30 बजे मेरे घर पर आ जाओ यही हो जाती है ब्लॉगर मीट। मैंने भी हॉं कर दिया और समय अनुसार तैयार भी हो गया था कि मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या थी अदिति। क्योकि जहाँ भी जाओं उसे लिये बिना जा पाना संभव नही होता है। उसे भी सभी के बाहर जाने का पूरा एहसास हो जाता है। जैसे ही मै कपड़े बदल रहा था कि उसने अपना मंत्र जपना चालू कर दिया कि ‘चाचा जाई’। फिर क्‍या था वह सामने से हटने को तैयार नहीं हो रही थी और मे उसकी नज़र बचा कर भी नहीं निकल पा रहा था तभी राम चंद्र जी का फोन आता है कि अरे प्रमेन्द्र तुम अभी तक आये नहीं मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ। मै अपनी समस्‍या बताई तो उन्‍होने कहा कि समस्‍या को यही ले आओं। तो फिर क्‍या था फिर अदिति भी मेरे साथ हो ली। जहॉं मुझे जाना था सायकिल से वहॉं मिल गई मोटर सायकिल।


रामचंद्र जी के यहाँ पहुँचने पर काफी जोरदार स्वागत हुआ। काफी चर्चा हुई। नाश्ता भी किया गया। चर्चाओं का दौर खत्म होने का नाम ही नही ले रहा था। अदिति भी हमारे था मीट में मस्‍त थी। और इस मीट का अभिन्‍न अंग भी बनी। बाद मे रामचंद्र जी ने फोटो भी खींचा जो उन्हीं के पास है। हम भी प्रतीक जी से ज्यादा फटीचर निकले जो उनसे पहले बिन कैमरे के मीट कर ली और रिपोर्ट आज पेश कर रहा हूँ। फिर हम लोग कुछ देर तक कंप्यूटर पर बैठना हुआ और उनका ब्रॉडबैंड कनेक्‍शन भी काम करना बंद कर दिया मैने उन्हें उसके काम न करने का कारण भी बताया कि जहाँ मै बैठता हूँ वहाँ का कनेक्शन खराब हो जाता है, देखिए कि मेरे आने के बाद उनका कनेक्‍श भी ठीक काम करने लगा। और इस प्रकार शाम 6:30 पर शुरू हुई ब्लॉगर मीट 9 बजे समाप्त हो गई।


आगे ..... की कड़ी का इंतजार कीजिए। क्योंकि इलाहाबाद के ब्‍लागर आलसी हो गये है। न रामचन्‍द्र जी ने, न ज्ञान जी ने और न ही संतोष जी से अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत किया। जबकि उनसे पास चित्र भी है। चूंकि हमारा कैमरा एक बार में 150 रुपये की बैटरी खा जाता है इस लिये हम फोटो नहीं दे पा रहे है। तो प्रतीक जी जैसा हमें भी समझ लीजिए।


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