दर्दो का बादशाह मुकेश के दर्द भरे गीत




आज भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्‍ठ गायको में एक मुकेश कुमार का पुण्‍यतिथि है, मुकेश के बारे में बहुत कुछ बताने की जरूरत नही है। बतौर अभिनेता और गायक 1941 में मुकेश ने निर्दोष में काम किया। लोकप्रिय गायक मुकेश ने निर्दोष के अलावा अभिनेता के रूप में मशूका, आह, अनुराग और दुल्‍हन में बतौर अभिनेता काम किया।
मुकेश द्वारा गाई गई तुलसी रामयण आज भी लोगो को भक्ति भाव से झूमने को मजबूर कर देती है, करीब 200 से अधिक फिल्‍मो में आवाज देने वाले मुकेश ने संगीत की दुनिया में अपने आपको दर्द का बादशाह तो स‍ाबित किया ही इसके साथ साथ वैश्विक गायक के रूप में अपनी पहचान बनाई। फिल्‍मफेयर पुरस्‍कार पाने वाले वह पहले पुरूष गायक था। ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना के गीत गा के भरोसे आज भी उनके प्रशंसक उनकी राह देख रहे है। पर जाने वाले कभी लौट कर नही आते किन्‍तु यादें जरूर हमारे बीच रह जाती है।
‘जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां’ जिंदगी के मायने बड़े ही सुरीले अंदाज में मुकेश ने अपनों गानों के जरिए पेश किए। पहले ‘शो मैन’ राजकपूर की आवाज बन शोहरत की ऊंचाईयां छूईं और वक्त के साथ अपनी गायकी में नए प्रयोग और बदलाव लाते रहे मुकेश।
बेशक वक्त के गर्दिश में यादों के सितारे डूब जाते हैं। लेकिन यादें खत्म नहीं होती हैं। दिल के किसी कोने में चुपचाप बैठी रहती हैं। और जब करवट लेती हैं तो पूरा वजूद हिल जाता है। तब अहसास होता है कि कितना आसां है कहना भूल जाओ, कितना मुश्किल है पर भूल जाना। 37 साल पहले आज ही के दिन मुकेश ने दुनिया को अलविदा कहा था। लेकिन उनकी आवाज आज भी हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में कहीं ना कहीं हमसे टकराती है। पल भर के लिए यादों की पोटली टटोलती है और गुनगुनाने पर मजबूर कर देती है।
साल 1959 में ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘अनाड़ी’ ने राजकपूर को पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया। लेकिन कम ही लोगों को पता है कि राज कपूर के जिगरी यार मुकेश को भी अनाड़ी फिल्म के ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’ गाने के लिए बेस्ट प्लेबैक सिंगर का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला था।
शुरुआत में राज कपूर की आवाज बने मुकेश, लेकिन आहिस्ते-आहिस्ते इस छवि से बाहर निकल मुकेश ने प्लेबैक सिंगिंग का एक नया इतिहास लिखा। 40 साल लंबे करियर में अपने दौर के हर सुपरस्टार के लिए मुकेश ने गाना गाया।
22 जुलाई 1923 को लुधियाना के जोरावर चंद माथुर और चांद रानी के घर जन्म हुआ मुकेश चंद माथुर का। बड़ी बहन संगीत की शिक्षा ले रही थीं और मुकेश बड़े चाव से सुर के खेल में मग्न हो गए। मोतीलाल के घर मुकेश ने संगीत की पारंपरिक शिक्षा लेनी तो शुरू कर दी। लेकिन मुकेश की दिली ख्वाहिश थी कि वो हिंदी फिल्मों में बतौर अभिनेता एंट्री मारे। 2 साल बाद जब सपनों के शहर मुंबई का रुख किया तो उन्हें बतौर एक्टर सिंगर ब्रेक मिला 1941 में आई फिल्म निर्दोष में।
इंडस्ट्री में शुरुआती दौर मुश्किलों भरा था। लेकिन इस आवाज के जादूगर का जादू केएल सहगल साहब पर चल गया। मुकेश के गाने को सुन के एल सहगल भी दुविधा में पड़ गए थे। 40 के दशक में मुकेश का अपना प्लेबैक सिंगिग स्टाइल था। नौशाद के साथ उनकी जुगलबंदी एक के बाद एक सुपरहिट गाने दे रही थी और उस दौर में मुकेश की आवाज में सबसे ज्यादा गीत फिल्माए गए दिलीप कुमार पर।
50 का दशक मुकेश को एक नई पहचान दे गया। उन्हें शोमैन राजकपूर की आवाज कहा जाने लगा। कई इटंरव्यू में खुद राज कपूर ने अपने दोस्त मुकेश के बारे में कहा है कि मैं तो बस शरीर हूं मेरी आत्मा तो मुकेश है।
राज कपूर और मुकेश की दोस्ती स्टूडियो तक ही नहीं थी। मुश्किल दौर में राजकपूर और मुकेश हमेशा एक दूसरे की मदद को तैयार रहते थे। बतौर प्लेबैक सिंगर मुकेश इंडस्ट्री में अपना मकाम बना चुके थे। कुछ नया करने की चाह जगी तो प्रोड्यूसर बन गए और साल 1951 में फिल्म ‘मल्हार’ और 1956 में ‘अनुराग’ लेकर आए। एक्टिंग का शौक बचपन से था इसलिए ‘माशूका’ और ‘अनुराग’ में बतौर हीरो भी आए। लेकिन बॉक्स ऑफिस पर ये दोनों फिल्में फ्लॉप हो गईं। काफी पैसा डूब गया। कहते हैं कि इस दौर में मुकेश आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे।
बतौर एक्टर प्रोड्यूसर मुकेश को सफलता नहीं मिली। गलतियों से सबक लेते हुए फिर से सुरों की महफिल में लौट आए। 50 के दशक के आखिरी सालों में मुकेश फिर प्लेबैक के शिखर पर पहुंच गए। ‘यहूदी’, ‘मधुमती’, ‘अनाड़ी’ जैसी फिल्मों ने उनकी गायकी को एक नई पहचान दी। और फिर ‘जिस देश में गंगा रहता है’ के गाने के लिए उन्हें फिल्मफेयर में नॉमिनेशन मिला।
60 के दशक की शुरुआत मुकेश ने कल्याण जी आनंद जी के डम-डम डीगा-डीगा, नौशाद का मेरा प्यार भी तू है, और एसडी बर्मन के इन नगमों से शुरू किया। और फिर राज कपूर की फिल्म ‘संगम’ में शंकर जयकिशन का कंपोज किया गाना उन्हें एक और फिल्मफेयर नॉमिनेशन दे गया।
60 के दशक में मुकेश का करियर अपने चरम पर था। और अब मुकेश ने अपनी गायकी में नए प्रयोग शुरू कर दिए थे। उस वक्त के अभिनेताओं के मुताबिक उनकी गायकी भी बदल रही थी। जैसे कि सुनील दत्त और मनोज कुमार के लिए गाए गीत।
70 के दशक का आगाज मुकेश ने ‘जीना यहां मरना यहां’ गाने से किया। उस वक्त के हर बड़े स्टार की आवाज बन गए थे मुकेश। साल 1970 में मुकेश को मनोज कुमार की फिल्म ‘पहचान’ के गीत के लिए दूसरा फिल्मफेयर मिला। और फिर 1972 में मनोज कुमार की ही फिल्म के गाने के लिए उन्हें तीसरी बार फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया गया।
अब मुकेश ज्यादातर कल्याण जी आंनद जी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और आरडी बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ काम कर रहे थे। साल 1974 में फिल्म ‘रजनीगंधा’ के गाने के लिए मुकेश को नेशनल फिल्म अवॉर्ड दिया गया। लेकिन नेशनल अवॉर्ड का मतलब 51 बरस के हो चुके मुकेश के लिए रिटायरमेंट तो कतई नहीं था। मुकेश विनोद मेहरा और फिराज खान जैसे नए अभिनेताओं के लिए भी गा रहे थे।
70 का दशक भी मुकेश की गायकी का कायल रहा। कैसे भुलाए जा सकते हैं ‘धरम करम’ का ‘एक दिन बिक जाएगा..’ गीत। फिल्म ‘आनंद’ और ‘अमर अकबर एंथनी’ की वो बेहतरीन नगमें। साल 1976 में यश चोपड़ा की फिल्म ‘कभी कभी’ के इस टाइटल सॉन्ग के लिए मुकेश को अपने करियर का चौथा फिल्मफेयर मिला। और इस गाने ने उनके करियर में फिर से एक नई जान फूंक दी।
मुकेश ने अपने करियर का आखिरी गाना अपने दोस्त राज कपूर की फिल्म के लिए ही गाया था। लेकिन 1978 में इस फिल्म के रिलीज से दो साल पहले ही 27 अगस्त को मुकेश का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।हीरो बनने का सपना अधूरा रह गया। लेकिन अब पोते में एक जुनून है। अपने दादा के सपनों को साकार कर दिखाने का। 40 साल के लंबे करियर में हर दौर के स्टार की आवाज बने मुकेश। 70-80 के दशक में जब किशोर कुमार फिल्म इंडस्ट्री में हावी हो रहे थे तो भी मुकेश की चमक कम नहीं हुई थी।


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भाजपा का दर्द - जिन्‍ना से जसवंत तक



भारतीय जनता पार्टी में आम चुनाव में हार के बाद जिस प्रकार का कलह मजा है, इसके दूरगामी परिणाम दिखाई पड़ते दिख रहे है। 1998 तक देश की सबसे अनुशासित प‍ार्टियों में गिनी जाने वाली भाजपा आज अपने अ‍तीत को भूल कर कांग्रेसी पथ पर चलने को अग्रसर दिखाई पड़ती है। सात साल के केन्‍द्रीय सत्‍ता सुख के काल में भाजपा के नेता कार्यकर्ताओं से विमुख हो चुके थे, उनके दम्‍भ था कि अटल के भरोसे पर कोई भी चुनाव जीता जा सकता है, मगर जो होना था उसका परिणाम हमारे समाने है। अटल के काल मे ही भाजपा सत्‍ता के सिंहासन से घूल चाटती हुई, पराभाव के रसातल में पहुँच गई।

जसवंत सिंह
आडवानी भी जिन्‍ना का गुणगान कर चुके थे और अब जसवंत ने भी किया, दोनो के गुणगान मे बहुत बड़ा अंतर है। आडवानी ने जो किया मै उस पर जाना नही चाहूँगा किन्‍तु जसवंत पर जरूर कहना चाहूँगा। जिस व्‍यक्ति ने भाजपा निर्माण से लेकर आज तक अपना जीवन अपनी पार्टी को दिया आज वही पार्टी उन्‍हे बाहर का रास्‍ता दिखा दिया, और कारण सरदार पटेल पर टिप्‍पणी को बताया जा रहा है। जसवंत सिंह को पार्टी से निकालना भाजपा की सबसे बड़ी राजनैतिक भूलो में से एक होगी। अपनी लिखी पुस्‍तक सरदार पटेल पर टिप्‍पणी दुर्भाग्‍य पूर्ण है किन्‍तु अनुचित नही है। देश की अखंडता में जिनता योगदान सरदार पटेल का रहा है उसे कोई भी भूला नही सकता किन्‍तु यह भी भूला दिया जाना कि गलत होगा कि सरदार पटेल भी हमेंशा गांधी के हाथ की कठ‍पुतली साबित हुये है। एक बड़ा जनमानस चाहे वह हिन्दू रहा होगा या मुसलमान विभाजन के पक्ष में नही था किन्‍तु नेहरू-गांधी पदलिप्‍सा के आगे पूरा देश लाचार रहा और विभाजन की भीषण विभीषिका से जूझता रहा।

आज यह शोध का विषय होना चाहिये कि क्‍या भारत विभाजन रोका जा सकता था ? मेरी नज़र में इसका उत्तर हाँ में आएगा क्योंकि आज देश में जितने मुसलमान है उतने आज पाकिस्तान में भी नही है। जब आज मुस्लिम स्वतंत्रता पूर्वक रह सकते है तो तब भी रह सकते थे किन्तु नेहरू के मोह में गांधी जी के आँखो में पट्टी सी बांध दी थी। नेहरू के अतिरक्ति कोई भी ऐसा भारतीय नेता इस हैसियत में नही था कि व गांधी जी के गलत बातों का विरोध कर सकें, यहाँ तक कि सरदार पटेल भी नही। देश के साथ साथ काग्रेस का एक बड़ा जनमानस खुद सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनने की इच्‍छा रखता था किन्‍तु नेहरू और गांधी के प्रभाव में जो वस्‍तु स्थिति हमारे समाने आयी उससे हम भली भाति परिचित है, कि देश कि इच्‍छा के विरूद्ध हमने नेहरू के रूप में देश का पहला प्रधानमंत्री पाया।


जिन्‍ना और गांधी यह भूलना गुनाह होगा कि गांधी जी ने नेहरू के राजनैतिक कैरियर बनाने के लिये सुभाष चंद्र बोस के साथ क्‍या-क्‍या नही किया ? काग्रेस समिति के पूर्ण बहुतमत के फैसले का विरोध करते है गांधी ने सुभाष बावू को अध्‍यक्ष पद के चुनाव में हराने के लिये क्‍या क्‍या नही किया। गांधी जी उस हद तक गिरे जिस हद तक उन्‍हे ने जाना चाहिये था, पटेल, टंडन सहित अनेको नेताओं को चुप कराने के लिये उन्‍होने नेताजी की जीत को आपनी हार बताने लगे।

नेहरू, गांधी व पटेल आज जरूरत है कि देश के विभाजन की सही विभिषिका देश के समाने रखी जाये, वही जसवंत सिंह ने रखने का प्रयास किया था। भारत विभाजन के लिये जिन्‍ना से ज्‍यादा दोषी नेहरू, गांधी और कांग्रेस पार्टी है जो जो मुस्लिमो को साथ नही रख सकें, आज यही काग्रेस पार्टी मुस्लिमों को की सबसे बड़ी हितैसी बनी हुई है। गेहू के साथ सदैव घुन पीसा जाता है, नेहरू और गांधी के पापों के छिट्टे पटेल पर पड़ना स्‍वाभाविक ही था।

गांधी और सुभाष

जसवंत सिंह की किताब पर जो रवैया भाजपा का है वह र्दुभाग्य पूर्ण है, वह एक लेखक की किताब को अपनी विचारधारा से तुलना कर रही है और किताब के लेखक के विचारों को अपनी विचारधारा से जोड़ रही है। भाजपा के अंदर की इस कुस्‍ती को असली मजा देश विभाजन की दोषी कांग्रेस ले रही है।त् इंटरनेट के विभिन्न सूत्रों से 

साभार


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कानपुर की यात्रा और यादें



कानपुर का अपना ही महत्व है, कानपुर भुलाये नहीं भूलता, कैसे भूलेगा बचपन के 5-6 साल जो वहां बीते थे। 18 अगस्‍त को व्‍यक्तिगत काम से कानपुर जाना हुआ। 1994 के बाद कानपुर को नजदीक से देखने का यह पहला मौका था। 2007 में अनूप जी से मिलना हुआ था किन्तु वह एक भागम-भाग यात्रा थी, भागमभाग तो इस बार की थी किन्तु कानपुर छाप नही छूटी।

कानपुर सेंट्रल पर उतर कर हम रिक्शा लेकर नवीन मार्केट पर पहुंचे, रास्ते में एक थाना था अब नाम याद नही शायद कर्नलगंज रहा होगा। उस पर बड़े बड़े शब्दों में लिखा था दलालो का प्रवेश वर्जित है वाकई यह एक हास्‍यास्‍पद बात ही लगी, कोई दलाली करने आये बंद कर दो थाने में और दिला दो याद छठी के दूध का पर नहीं भारतीय पुलिस है, ऐसे थोड़े ही काम करेगी।

नवीन मार्केट में भारतीय मजदूर संघ के प्रादेशिक कार्यालय पर कुछ देर का विश्राम किया, जो भी कार्यालय पर अधिकारी नेता व पिताजी का पुराना परिचित मिला भैया जी को तो पहचान लिया किंतु मुझे पहचाना नही पाया। शायद यह लम्‍बे अंतराल के कारण था। 16-17 साल पहले जिस कार्यलय में बचपन के कुछ छण व्‍य‍तीत किये वहाँ फिर से पहुँच कर बहुत अच्‍छा अनुभव रहा।

अच्‍छा अनुभव काफी देर बरकरार नही रहा, चौराहे पर एक आदमी और भीड़ के मध्‍य विवाद से रूबरू होना पड़ा, करीब आधा दर्जन लोग एक 35-45 वर्ष के अधेड़ को मारे जा रही थी। सुनने में आया कि छेड़खानी का मामला था। वाकई कितना विपरीत समय आ गया है कि 45 साल तक की उम्र पहुँचने के बाद छेड़खानी करने की आदत नही गई।

हम कल्‍यानपुर पहुँचने के लिये आटो पर बैठ गये और कानपुर विश्वविद्यालय पहुँचे, रास्‍ते के नज़ारे देखने लायक थे, चौड़ी सड़के और सड़को के किनारे हुये विकास और बदलाव अच्‍छी अनुभूति दे रहे थे। कानपुर विश्वविद्यालय पहुँच कर विभिन्‍न अधिकारियो से मिलना हुआ। करीब ढ़ाई-तीन बजे सोचा कि अनूप जी से मिला जा सकता है, नम्‍बर तो था नही सिद्धार्थ जी से उनका नम्‍बर प्राप्‍त हुआ और पता चला कि उनकी ब्‍लाग अधारित पुस्‍तक 30 अगस्‍त को हमारे बीच ला रहे है। अनूप जी से बात हुयी और समय की परिस्‍थति के अनुसार मिल न पाने खेद जाहिर कर कानपुर छोड़ने की अनुमति चाही। उस समय 4.30 के आस-पास हुए थे इलाहाबाद के लिए चौरी-चौरा 5.30 पर कानपुर सेंट्रल पर तैयार खड़ी रहती है। मेरी बात को सुनते हुए न मिल पाने पर अनूप जी ने खेद जाहिर किया और कहा कि मै 30 को सम्‍भवत: इलाहाबाद आ ही रहा हूँ, और वही बैठकी हो जायेगी।

कानपुर यात्रा का अभी सबसे महत्वपूर्ण और रोमांचक सिरा बाकी था, कानपुर विवि पर ऑटो मिल गया था, गाड़ी ऐसे चला रहा था कि जैसे सनी पाजी गदर में ट्रक चला रहे थे। आटो ऐसा चला रहा था लग रहा था कि भगवान अब बुला ले कि तब, सभी की सांसे अटकी हुई थी। घंटाघर से 200 मीटर पहले ही आटो रोकर उसने कहा कि हे भगवान गाड़ी में गैस खत्म हो गई अब क्या करें? और हम लोगों से करबद्ध निवेदन किया कि आप लोग पैदल चले जाये स्टेशन थोड़ी दूर ही पर है, मुझे और ऑटो पर बैठे दो चार और आदमियों को दया आ रही थी और हम उतरने को तैयार थे, तभी ऑटो में बैठी गंभीर और उम्मीद से ज्यादा मोटी और भारी महिला ने विरोध किया, तुम आटो धक्‍का देकर पहुँचाओं मै नही उतरू‍गीं, उसके सुर में सुर मिलाने वालों की संख्या बढ़ गई, और उस ड्राइवर से कहा जाने लगा कि तुम सबसे 2-2 रूपये कम लो हम उतर जाएंगे या कोई और गाड़ी पर हमें बैठाओं हम पैसा उसी को देंगे और तुम उसके हिसाब करना, तरह तरह की बाते सुन कर वो गाड़ी वाला खीज पड़ा और कहा आप लोग नही उतरेगे, नही उतरेगे और नही उतरेगे कहा हुआ ऑटो स्टार्ट किया और पागलों की तरह बड़बड़ाता हुआ कि भलाई का ज़माना ही नही रह गया है, रिक्वेस्ट कर रहा था पर किसी को सुनाई नहीं देता, महिला बोली बोल गैस कहां से आ गई ? यह सुनते ही वह और पागल टाइप का हो गया और हल्की गति में जा कर एक रिक्शे वाले से भिड़ गया, हमने उसे पैसा दिया और उसका तमाशा अभी जारी था।

चौरी-चौरा स्टेशन पर खड़ी थी और उस पागल आदमी का स्टंट इसी प्रकार चलता रहता था हमारी ट्रेन पूरी तरह से छूटने को तैयार थी।


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