वंदेमातरम् - यानी मां तुझे सलाम



यह अफसोसजनक है कि राष्ट्रगीत वंदे मातरम् को लेकर मुल्क में फित्ने और फसाद फैलाने वाले सक्रिय हो गए हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तय किया कि 7 सितंबर वंदे मातरम् का शताब्दी वर्ष है। इस मौके पर देश भर के स्कूलों में वंदे मातरम् का सार्वजनिक गान किया जाए। इस फैसले का विरोध दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम (वे स्वयं को शाही कहते हैं) अहमद बुखारी ने कर दिया। बुखारी के मन में राजनीतिक सपना है। वे मुसलमानों के नेता बनना चाहते हैं। बुखारी को देश के मुसलमानों से कोई समर्थन नहीं मिला। देश मुसलमान वंदे मातरम् गाते हैं। उसी तरह जैसे कि ‘जन गण मन’ गाते हैं। ‘जन गण मन’ कविन्द्र रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने अंग्रेज शासक की स्तुति में लिखा था। बहरहाल जब ‘जन गण मन’ को आजाद भारत में राष्ट्र गान का दर्जा दे दिया गया तो देश के मुसलमान ने भी इसे कुबूल कर लिया। ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा’ एक रम्प और सांगीतिक गान था लेकिन एकाधिक कारणों से उसे राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान का दर्जा नहीं मिल सका। इसके बावजूद कि कोई बाध्यता, अनिवार्यता नहीं है, राष्ट्रीय दिवसों पर ‘सारे जहां से अच्छा...’ जरूर गया जाता है। यह स्वतः स्फूर्त है। भारत का गुणगान करने वाले किसी भी गीत, गान या आह्वान देश के मुसलमान को कभी कोई एतराज नहीं रहा। आम मुसलमान अपनी गरीबी और फटेहाली के बावजूद भारत का गान करता है। सगर्व करता है। एतराज कभी कहीं से होता है तो वह व्यक्ति, नेता, मौलाना या इमाम विशेष का होता है। इस विरोध के राजनीतिक कारण हैं। राजनीति की लपलपाती लिप्साएं है। कभी इमाम बुखारी और कभी सैयद शहाबउद्दीन जैसे लोग मुसलमानों के स्वयं-भू नेता बन कर अलगाववादी बात करते रहे हैं। ऐसा करके वे अपनी राजनीति चमका पाते हैं या नहीं यह शोध का विषय है लेकिन देश के आम मुसलमान का बहुत भारी नुकसान जरूर कर देते हैं। आम मुसलमान तो ए.आर. रहमान की धुन पर आज भी यह गाने में कभी  कोई संकोच नहीं करता कि ‘मां, तुझे सलाम...’ इसमें एतराज की बात ही कहां हैै? धर्म या इस्लाम कहां आड़े आ गया? अपनी मां को सलाम नहीं करें तो और क्या करें? अपने मुल्क को, अपने वतन को, अपनी सरजमीन को मां कहने में किसे दिक्कत है? वंदे मातरम् का शाब्दिक अर्थ है मां, तुझे सलाम। इसमें एतराज लायक एक भी शब्द नहीं है? जिन्हें लगता है वे इस्लाम और उसकी गौरवपूर्ण परंपरा को नहीं समझते। इस्लामी परंपरा तो कहती है कि ‘हुब्बुल वतन मिनल ईमान‘ अर्थात राष्ट्र प्रेम ही मुसलमान का ईमान है। आजादी की पहली जंग 1857 में मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की अगुवाई में ही लड़ी गई। फिर, महात्मा गांधी के नेतृत्व में बादशाह खान सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. जाकिर हुसैन, डॉ. सैयद महमूद, यूसुफ मेहर अली, सैफउद्दीन किचलू, एक लंबी परंपरा है भारत के लिए त्याग और समर्पण की। काकोरी कांड के शहीद अशफाक उल्लाह खान ने वंदे मातरम् गाते हुए ही फांसी के फंदे को चूमा। कर्नल शहनवाज खान, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के विश्वस्त सहयोगी थे। पाकिस्तान के साथ युद्धों में कुर्बानी का शानदार सिलसिला है।


ब्रिगेडियर उस्मान, हवलदार अब्दुल हमीद से लेकर अभी कारगिल संघर्ष में मोहत काठात तक देशभक्ति और कुर्बानी की प्रेरक कथाएं हैं। इन्हें रचने वाला देश का आम मुसलमान भी है।

वंदे मातरम् हो या जन गण मन, आपत्ति आम मुसलमान को कभी नहीं रही। वह मामूली आदमी है। प्रायः शिक्षित नहीं है। अच्छी नौकरियों में भी नहीं है लेकिन ये सारी हकीकतें देश प्रेम के उसके पावन जज्बे को जर्रा भरी भी कम नहीं करतीं। साधारण मुसलमान अपनी ‘मातृभूमि’ से बेपनाह मोहब्बत करता है, अत्यंत निष्ठावान है और उसे अपने मुल्क के लिए दुश्मन की जान लेना और अपनी जान देना बखूबी आता है। अपने राष्ट्र प्रेम का प्रमाण पत्र उसे किसी से नहीं चाहिए।

राष्ट्रगीत को लेकर इने गिने लोगों की मुखालिफत को प्रचार बहुत मिला। बिना बात का बखेड़ा है क्योंकि बात में दम नहीं है। मुल्क के तराने को गाना अल्लाह की इबादत में कतई कोई खलल नहीं है। अल्लाह तो लाशरीकलहू (उसके साथ कोई शरीक नहीं) ही है और रहेगा। अल्लाह की जात में कोई शरीक नहीं। बहरहाल मुसलमानों का भी अपना समाज और मुल्क होता है। जनाबे सद्र एपीजे अब्दुल कलाम अगर चोटी के साइंटिस्ट हैं तो उनकी तारीफ होगी ही, मोहम्मद कैफ अच्छे फील्डर हैं तो तालियां बटोरेंगे ही, सानिया मिर्जा सफे अव्वल में हैं तो हैं, शाहरूख खान ने अदाकारी में झंडे गाड़े हैं तो उनके चाहने वाले उन्हें सलाम भी करेंगे। इसी तरह बंकिम चन्द्र चटर्जी का राष्ट्रगीत है। शायर अपने मुल्क की तारीफ ही तो कर रहा है। ऐसा करना उनका हक है और फर्ज भी। कवि यही तो कह रहा है कि सुजलाम, सुफलाम, मलयज शीतलाम। कवि ने मातृभूमि की स्तुति की। इसमें एतराज लायक क्या है। धर्म के विरोध में क्या है? जिन निहित स्वार्थी तत्वों को वंदे मातरम् काबिले एतराज लगता है वो अपनी नाउम्मीदी, खीझ और गुस्से में दो रोटी ज्यादा खाएं लेकिन इस प्यारे मुल्क के अमन-चैन और खुशगवार माहौल को खुदा के लिए नजर नहीं लगाएं। वंदे मातरम्।
शाहिद मिर्जा, लेखक राजस्थान पत्रिका के डिप्टी एडिटर हैं
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन) 


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वंदेमातरम के बहाने लोकतंत्र का मजाक



अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन 1905 में किया था और इसके खिलाफ जो मशहूर बंग-भंग आंदोलन हुआ था, उसमें भी वंदेमातरम् ही मुख्य गीत था। राष्ट्रीय स्वयं संघ के संस्थापक डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार को तो वंदेमातरम् आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए ही नागपुर में स्कूल से निकाल दिया गया था और 1925 में उन्होंने संघ की स्थापना की।

आज कांग्रेस वंदेमातरम् को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है। जाहिर है कि शरीयत आदि का जो हवाला इस महान गीत के खिलाफ दिया गया है उसे लेकर कांग्रेस को अपने अल्पसंख्यक वोट बैंक की काफी चिंता है। मगर यही कांग्रेस अगर वह आजादी के पहले वाली कांग्रेस की उत्तराधिकारी है तो 1915 के बाद अपना हर अधिवेशन वंदेमातरम् से शुरू करती रही है और आज तक करती है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने तो वंदेमातरम् को अपनी आजाद हिंद फौज का प्रयाण गीत बना दिया था और सिंगापुर में जो आजाद हिंद फौज रेडियो स्टेशन था वहां से उसका लगातार प्रसारण होता था।

14 अप्रैल 1906 को कोलकत्ता में वंदेमातरम् गाते हुए देशभक्तों का एक बड़ा जुलूस निकला था। इस जुलूस में महर्षि अरविंद भी थे जो आईसीएस की अपनी नौकरी छोड़़ कर देश और समाज की लड़ाई में शामिल हो गए थे। इस जुलूस पर लाठियां चली और महर्षि अरविंद भी घायल हुए। बाद में महर्षि ने खुद वंदेमातरम् का सांगीतिक अंग्रेजी अनुवाद किया। महर्षि ने अपनी पुस्तक महायोगी में लिखा है कि वंदेमातरम् से बड़ा राष्ट्रीयता का प्रतीक दूसरा नहीं हो सकता। बाकी सबको छोडि़ये, अंग्रेजों की रची किताब कैम्ब्रिज हिस्ट्री आॅफ इंडिया में भी लिखा है कि वंदेमातरम् संसार की महानतम साहित्यिक और राष्ट्रीय रचनाओं में से एक है। महात्मा गांधी की हर प्रार्थना सभा वंदेमातरम से शुरू होती थी।

आलोक तोमर, वरिष्ठ पत्रकार
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन) 


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