उच्च रक्तचाप के लिए घरेलू उपचार



वर्तमान मनुष्य का जीवन बहुत संघर्षमय है और इस कारण उसके रहन-सहन और खान-पान में बहुत बदलाव आया है। फास्टफूड (जंकफूड) की संस्कृति ने मनुश्य के स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव डाला है। साथ ही साथ प्रतिस्पर्धाओ के इस दौर में हरेक मनुष्य कम या अधिक तनावग्रस्त रहने लगा है। आज वह न ही सुकून से खा पाता है और न चैन की नींद से पाता है। उच्च रक्तचाप भी इन्हीं सब बातों का परिणाम है। रक्त वाहिनियों में बहता हुआ रक्त इसकी दीवारों पर जो दबाव डालता है रक्तचाप कहलाता है। उच्च रक्तचाप में यह दबाव सामान्य से अधिक हो जाता है। स्वस्थ मनुष्य का सामान्य रक्तचापः एक स्वस्थ्य मनुष्य का आराम करते समय यदि रक्तचाप नापा जाय तो वह सामान्यतः 120/80 मि0 मि0 मर्करी या इसके आसपपास होगा। हर व्यक्ति में यह दबाव भिन्न-भिन्न हो सकता है। यहाँ पर 120 मि. मि0 प्रकुंचन (सिस्टोलिक) तथा 80 मि0 मि0 प्रसारण (डायस्टोलिक) रक्त दबाव है। उम्र के साथ यह रक्तचाप बढ़ता जाता है, क्योंकि उम्र बढ़ने के साथ रक्तवाहिनियों के लचीलेपन में कमी आती है।
उच्च रक्तचाप के लिए घरेलू उपचार
  • बढ़ता है रक्तचाप
    मनुष्य का शरीर भी एक बहुत ही जटिल प्रकार की मशीन है। इसका ठीक से रख-रखाव रखना बहुत आवश्यक है। ऐसा न करने से शरीर में तरह-तरह की व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हें। शरीर को चुस्तदुरुस्त रखने के लिए हमें नियमित व्यायाम, पौष्टिक मगर संतुलित भोजन का सेवन, गहरी व पर्याप्त नींद लेने के साथ-साथ प्रसन्नचित व तनाव मुक्त रहना चाहिए, किन्तु अक्सर ऐसा हो नहीं पाता है। इसीलिए हम अस्वस्थ भी रहते है। रक्तचाप बढ़ने के निम्न प्रमुख कारण हैः
    • मधुमेह से पीडि़त होना
    • गुर्दे की बीमारियाँ
    • अत्यधिक मानसिक तनाव
    • लगातार कई दिनों तक ठीक से सो न पाना
    • हृदय की बीमारियाँ
    • रक्त नालिकाओं का लचीलापन कम हो जाना
    • उत्तेजक पदार्थ, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू आदि का अधिक सेवन करना।
    • अधिक चाय का सेवन
    • अधिक मदिरापान करने से
    • भोजन में अधिक चिकनाई, मलाई व सूखे मेवे लेने से
    • शारीरिक परिश्रम बिल्कुल न करने से
    • अत्यधिक मानसिक श्रम
  • उच्च रक्तचाप के सामान्य लक्षण
    उच्च रक्तचाप से पीडि़त व्यक्ति में सामान्यतः निम्नलिखित लक्षण मिल सकते हैं।
    • सामान्य कमजोरी और चक्कर
    • बेचैनी रहना एवं किसी भी काम में मन न लगना।
    • सिर भारी-भारी सा रहना या सिर में तीव्र पीड़ा होना।
    • बहुत अधिक तनाव महसूस करना। नाक से रक्त बहना।
    • बिना वजह चिड़चिड़ाहट रहना।
    • बांहों और अंगुलियों में कम्पन।
    • अनिद्रा
    • हर समय एकांत में लेटे रहने का मन करना, किसी भी काम में मन न लगना।
  • प्राकृतिक उपचार भी हो सकते हें कारगार
    आजकल जरा-सा बीमार पड़ने पर मनुष्य अंधाधुंध दवाइयाँ लेने लगता है, परन्तु वह अपने आहार-विहार में कोई परिवर्तन नहीं करता। इसका परिणाम यह होता है कि कुछ समय बाद उन दवाइयों का प्रभाव घटता जाता है, जिसमें हमे दवाइयों की मात्रा बढ़ानी पड़ती है, दूसरे इन दवाइयों के दुष्परिणाम से शरीर में नई बीमारियाँ उत्पन्न होने लगती हैं। अंग्रेजी दवाइयों का यह बहुत बुरा अवगुण है। इसलिए दवाइयाँ शुरू करने से पहले प्राकृतिक उपचार पर विचार करना चाहिए। प्राकृतिक उपचार में उपवास,पथ्य-अपथ्य एवं जीवन शैली में बदलाव लाने पर बल दिया जाता है।
    • रक्त प्रवाह को शुद्ध रखने के लिए उच्च रक्तचाप के रोगियों को उपवास रखना चाहिए।
    • उपवास के दौरान रोगी को कच्ची सब्जियों व फलों का रस बिना नमक मिलाए दो-तीन बार लेना चाहिए।
    • रोगी को अपना खान-पान इस उपवास के बाद भी नियमित रखना चाहिए
    • वसायुक्त, मिर्चा मसाला युक्त, अति प्रोटीनयुक्त आहार नहीं लेना चाहिए।
    • नमक, मसाले और डिब्बाबंद आहार का पूर्ण परहेज करने से रक्तदाब शीघ्र ही सामान्य होने लगता है।
    • शराब, सिगरेट, बीड़ी और तम्बाकू तो उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिए बहुत ही हानिकारक है, एकदम त्याग देना चाहिए।
    • अधिक नमक का सेवन गुर्दे को प्रभावित करता है, जिसके कारण गुर्दे की समस्याएं पैदा हो जाती हैं एवं रक्तप्रवाह में अषुद्धियाँ मिल जाती हैं, जिससे उच्च रक्तचाप रहने लगता है। इसलिए सामान्य व्यक्ति को भी नमक कम से कम लेना चाहिए।
    • दिन भर में 10-12 गिलास पानी पीना हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। यह पानी सारे शरीर की गंदगी मूत्र द्वारा बाहर निकाल देता है। इसी प्रकार ष्शरीर के लिए कुनकुनी धूप भी आवश्यक है। इससे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, जिससे मनुष्य अधिक स्वस्थ व चुस्त-दुरुस्त रहता है।
  • सबसे उत्तम आयुर्वेदिक उपचार
    आयुर्वेदिक औषधियाँ प्रकष्ति के सबसे करीब हैं। प्रायः इनके कोई भी दुष्परिणाम देखने को नहीं मिलते हैं। आयुर्वेदिक औषधियाँ रोगी को स्वाभाविक रूप से स्वस्थ बनाने का प्रयत्न करतीहैं। इनको लम्बे समय तक बिना किसी भय के लिया जा सकता है। उच्च रक्तचाप के लिए निम्नलिखित आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन करना अच्छा रहता है।
    • जहर मोहरा खताई पिष्टी
    • राप्य भस्म
    • समीर-पन्नग रस
    • चन्द्रकला रस
    • चिन्तामणि रस
    • बालचन्द्र रस
    • रस राज रस
    • सर्पगंधा चूण योग
    • सर्पगंधाधन बटी आदि।
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    सतावर के प्रमुख औषधीय उपयोग



    सतावर का वानस्पतिक नाम ऐस्पेरेगस रेसीमोसस है यह लिलिएसी कुल का एक औषधीय गुणों वाला पादप है। इसे 'शतावर', 'शतावरी', 'सतावरी', 'सतमूल' और 'सतमूली' के नाम से भी जाना जाता है। यह भारत, श्रीलंका तथा पूरे हिमालयी क्षेत्र में उगता है। इसका पौधा अनेक शाखाओं से युक्त काँटेदार लता के रूप में एक मीटर से दो मीटर तक लम्बा होता है। इसकी जड़ें गुच्छों के रूप में होतीं हैं। वर्तमान समय में इस पौधे पर लुप्त होने का खतरा है।सतावर अथवा शतावरी भारतवर्ष के विभिन्न भागों में प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली बहुवर्षीय आरोही लता है। नोकदार पत्तियों वाली इस लता को घरों तथा बगीचों में शोभा हेतु भी लगाया जाता है। जिससे अधिकांश लोग इसे अच्छी तरह पहचानते हैं। सतावर के औषधीय उपयोगों से भी भारतवासी काफी पूर्व से परिचित हैं तथा विभिन्न भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में इसका सदियों से उपयोग किया जाता रहा है। विभिन्न वैज्ञानिक परीक्षणों में भी विभिन्न विकारों के निवारण में इसकी औषधीय उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है तथा वर्तमान में इसे एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधा होने का गौरव प्राप्त है।
    Asparagus racemosus willd shatavari
    सतावर की पूर्ण विकसित लता 30 से 35 फुट तक ऊँची हो सकती है। प्रायः मूल से इसकी कई लताएं अथवा शाखाएं एक साथ निकलती हैं। यद्यपि यह लता की तरह बढ़ती है परन्तु इसकी शाखाएं काफी कठोर और लकड़ी के जैसी होती हैं। इसके पत्ते काफी पतले तथा सुइयों जैसे नुकीले होते हैं। इनके साथ-साथ इनमें छोटे-छोटे कांटे भी लगते हैं। जो किन्हीं प्रजातियों में ज्यादा तथा किन्हीं में कम आते हैं ग्रीष्म ऋतु में प्रायः इसकी लता का ≈परी भाग सूख जाता है तथा वर्षा ऋतु में पुनः नवीन शाखाएं निकलती हैं। सितंबर-अक्टूबर माह में इसमें गुच्छों में पुष्प आते हैं तथा तदुपरान्त उन पर मटर के दाने जैसे हरे फल लगते हैं।
    Asparagus racemosus willd shatavari
    धीरे-धीरे ये फल पकने लगते हैं तथा पकने पर प्रायः लाल रंग के हो जाते हैं। इन्हीं फलों से निकलने वाले बीजों को आगे बिजाई हेतु प्रयुक्त किया जाता है। पौधे के मूलस्तम्भ से सफेद ट्यूबर्स (मूलों) का गुच्छा निकलता है जिसमें प्रायः प्रतिवर्ष वृद्धि होती जाती हैं औषधीय उपयोग में मुख्यतया यही मूल आथवा इन्हीं ट्यूबर्स का उपयोग किया जाता है।

    सतावर के प्रमुख औषधीय उपयोग
    सतावर भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख औषधीय पौधों में से एक हैं जिन विकारों के निदान हेतु इसका प्रमुखता से उपयोग किया जाता है, वे निम्नानुसार है-
    • शक्तिवर्धक के रूप में
      विभिन्न शक्तिवर्धक दवाइयों के निर्माण में सतावर का उपयोग किया जाता है। यह न केवल सामान्य कमजोरी, बल्कि शुÿवर्धन तथा यौनशक्ति बढ़ाने से संबंधित बनाई जाने वाली कई दवाईयों जिसमें यूनानी पद्धति से बनाई जाने वाली माजून जंजीबेल, माजून शीर बरगदवली तथा माजून पाक आदि प्रसिद्ध हैं, में भी प्रयुक्त किया है। न केवल पुरुषों बल्कि महिलाओं के विभिन्न योनिदोषों के निवारण के साथ-साथ यह महिलाओं के बांझपन के इलाज हेतु भी प्रयुक्त किया जाता हैं इस संदर्भ में यूनानी पद्धति से बनाया जाने वाला हलवा-ए-सुपारी पाक अपनी विशेष पहचान रखता है।
    • दुग्ध बढ़ाने हेतु
      माताओं का दुग्ध बढ़ाने में भी सतावर काफी प्रभावी सिद्ध हुआ है तथा वर्तमान में इससे संबंधित कई दवाइयां बनाई जा रही हैं। न केवल महिलाओं बल्कि पशुओं-भैसों तथा गायों में दूध बढ़ाने में भी सतावर काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है।
    • चर्मरोगों के उपचार हेतु
      विभिन्न चर्म रोगों जैसे त्वचा का सूखापन, कुष्ठ रोग आदि में भी इसका बखूबी उपयोग किया जाता है।
    • शारीरिक दर्दों के उपचार हेतुआंतरिक हैमरेज, गठिया, पेट के दर्दों, पेशाब एवं मूत्र संस्थान से संबंधित रोगों, गर्दन के अकड़ जाने (स्टिफनेस), पाक्षाघात, अर्धपाक्षाघात, पैरों के तलवों में जलन, साइटिका, हाथों तथा घुटने आदि के दर्द तथा सरदर्द आदि के निवारण हेतु बनाई जाने वाली विभिन्न औषधियों में भी इसे उपयोग में लाया जाता है। उपरोक्त के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के बुखारों ह्मलेरिया, टायफाइड, पीलिया तथा स्नायु तंत्र से संबंधित विकारों के उपचार हेतु भी इसका उपयोग किया जाता है। ल्यूकोरिया के उपचार हेतु इसकी जड़ों को गाय के दूध के साथ उबाल करके देने पर लाभ होता है। सतावर काफी अधिक औषधीय उपयोग का पौधा है। यूं तो अभी तक इसकी बहुतायत में उपलब्धता जंगलों से ही है परन्तु इसकी उपयोगिता तथा मांग को देखते हुए इसके कृषिकरण की आवश्यकता महसूस होने लगी है तथा कई क्षेत्रों में बड़े स्तर पर इसकी खेती प्रारंभ हो चुकी है जो न केवल कृषिकरण की दृष्टि से बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी काफी लाभकारी सिद्ध हो रही है।
    सतवारी से दवा बनाने की विधिपाँच किलो भैंस के दूध् का घर पर मावा (खोवा) बनायें, पाँच किलो दूध का लगभग एक किलो मावा बन जाता है, मावा बनाने के लिए दूध को धीमी आँच पर रख दें। जब दूध पकते -पकते गाढ़ा-सा हो जाये और मावा बनने वाला हो तब पचास ग्राम शतावरी का चूर्ण उसमें डालकर कुछ देर तक हिलाते रहें। मावा बनने के साथ शतावरी का चूर्ण उसमें एकदिल हो जाएगा। जब मावा बनकर तैयार हो जाये तब 20-20 ग्राम के पेड़े बना ले और काँच के पात्रा में सुरक्षित रख ले।
    सेवन विधिरोजाना प्रातः निराहार एक पेड़ा दूध् के साथ बच्चे बड़े सभी खा सकते हैं। बारह मास इन पेड़ों का सेवन किया जा सकता है।
    लाभशतावरी के पेड़ों के नियमित सेवन से बालको की बुद्धि,स्मरणशक्ति और निश्चय-शक्ति बढ़ती है और अच्छा विकास होता है। रूपरंग निखरता है। त्वचा मजबूत और स्वस्थ होती है।
    शरीर भरा-भरा पुष्ट और संतुलित होता है। पफेपफड़े रोग रहित और मजबूत बनते हैं। आँखों में चमक और ज्योति बढ़ती है। शरीर की सब प्रकार की कमजोरियां नष्ट होकर अपार वीर्य वृद्धि और शुक्र वृद्धि होती है। इसके सेवन से वृद्धावस्था दूर रहती है और मनुष्य दीर्घायु होता है।
    जो बच्चे रात को चैंक कर और डर कर अचानक नींद से जाग उठते हों उनके सिरहाने, तकिये के नीचे या जेब में शतावरी के पौधे की एक छोटी सी डंठल रख दें अथवा बच्चे के गले में बांध दें तो बच्चा रात में नींद में डरकर या चैंककर नहीं उठेगा।

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