कवि कैलाश गौतम का जीवन और साहित्य



 
हिन्दी और भोजपुरी बोली के रचनाकार कैलाश गौतम का जन्म चन्दौली जनपद के डिग्घी गांव में 8 जनवरी 1944 को हुआ। शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। लगभग 37 वर्षों तक इलाहाबाद आकाशवाणी में विभागीय कलाकार के रूप में सेवा करते रहे। व्यक्तित्व को देखें तो कैलाश गौतम एक सावधान लेखन-कर्मी के रूप में कौशल के साथ विनम्र, प्रेरक सहायक होने का सकारात्मक परिचय देते हैं। वे चक्रव्यूह में घिरे योद्धा की तरह जीवन-समर में जूझते हुए नजर आये। इलाहाबाद में भी अन्दर ही अन्दर लोग उनसे बरबस ईष्र्या रखते थे। हिन्दुस्तानी अकादमी में उनकी नियुक्ति के समय यह ही नहीं अनेक अवसरों पर उन्हें अकारण ही ईष्र्या का सामना करना पड़ा। लेकिन, वे सारे व्यूह-जालों को काटते हुए अपनी मंज़िलें पार करते गए।
कर्तव्य की दृष्टि से देखें तो कैलाश गौतम के पांच आयाम स्पष्ट दिखाई देते हैं-खड़ी बोली में आंचलिक लोकतत्व को जिस रूप और परिमाण में कैलाश गौतम ने समेटा है, अन्य किसी रचनाकार में यह क्षमता नजर नहीं आती। खड़ी बोली में ही दोहे की पुनस्र्थापना ’धर्मयुग‘ के माध्यम से कैलाश गौतम ने ही की थी। जैसे दुष्यन्त कुमार को नागरी गजल को आन्दोलन के रूप में स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है, उसी प्रकार दोहा-आंदोलन का पुरोधा निश्चित रूप से कैलाश गौतम को माना जायेगा। इन दोनों रचनाकारों ने काव्य के स्तर पर उर्दू के रचनाकारों को भी गहराई के साथ प्रभावित किया है। हिन्दी-उर्दू की नई गजल कहने वाले रचनाकारों और दोहाकारों के गले में दुष्यन्त और कैलाश के ताबीज देखे जा सकते हैं।
कैलाश गौतम के सर्जक का बड़ा प्रखर रूप उनके नवगीतों में द्रष्टव्य है। उनके नवगीत जहां एक ओर सामाजिक यथार्थ को स्वर देते हैं वहीं मानसिक रागभाव की तरलता को भी बरकरार रखते हैं। लोकतत्व का छौंक नवगीतों को एक अलग सौंधापन देता है। रंगमय चाक्षुषबिम्ब अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान करते हैं। यह विज्ञान परक आधुनिकता का द्योतक है। व्यंग्यकार के रूप में कैलाश गौतम की रचनाएं उन्हें जन-समूह से जोड़ती हैं। उनके व्यंग्यों का तीखापन जैसा खड़ी बोली में रहता है वैसा ही भोजपुरी में भी। सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक और मानसिक विषमताएं अपने पूरे जरूरीपन के साथ पाठक-श्रोता को सहज रूप से सहमत करने में सक्षम हैं। जो शालीनता बहु प्रचारित पाखण्डी परफाॅर्मर्स में बिलकुल नदारत है वह कैलाश में जैविक गुण-सूत्रों के रूप में विद्यमान है।
रेडियो-लेखन कैलाश के आशु-सृजन की ऐसी मंजूषा है जो केन्द्रीय योजनाओं को तात्कालिक अपेक्षा की पूर्ति के रूप में प्रचुर सामग्री प्रस्तुत करती है। इसमें रूपक, नाटक, झलकियां आदि सभी द्रष्टव्य हैं। छन्देतर कविताएं युगीन यथार्थ की खिड़की खोलने के अलावा कैलाश गौतम के विधागत पूर्वाग्रह से मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करती हैं। कैलाश गौतम का धारावाहिक उपन्यास ’आज‘ दैनिक के रविवासरीय अंकों में आंचलिक-बोध के सजीव चित्रण की क्षमता की ओर इंगित करता है।
कवि कैलाश गौतम उत्सवधर्मी रचनाकार थे। जीवन की रागनुभूतियां उन्हें भीतर तक उत्तेजित और प्रेरित करती थीं। इसीलिए भौजी, सियाराम, राग-रंग से भरे स्नेह सम्बन्ध, मेले-ठेले, पर्व उनके गीतों की अनुभूति में समाये हुए थे। मंच संचालन में विनोदप्रियता तथा चुटीली टिप्पणियां उनके व्यक्तित्व से जुड़ी हुई थीं जो गोष्ठियों को गरिमा प्रदान करतीं। बेहद सहज, आत्मीय और बेबाक संवेदनशील कवि कैलाश गौतम जी मूलतः नवगीत के चितेरे थे। डिग्घी गांव में जन्मे कैलाश गौतम जी शिक्षा के लिए इलाहाबाद आये और यहीं के होकर रह गये। उनका पूरा जीवन साहित्य को समर्पित था। प्रयाग की गंगा-जमुनी संस्कृति उनके रग-रग में समाई थी। जिस सरलता और सहजता के साथ आम आदमी के दुख और सुखों को कविता में संजोया वह अत्यंत मर्मस्पर्शी था। गांव की कच्ची मिट्टी की महक उनके गीतों में जिजीविषा थी। आज की चकाचैंध भरी जिन्दगी से अलग चना और चबेना में कविता का सौन्दर्य शास्त्र तलाशता यह कवि सभी से हटकर था। वह सहृदयता, जिन्दादिली, सहजता, आत्मीयता और संजीदगी का मिला-जुला अक्श थे। ऊर्जा से भरे हुए लोगों से गपियाते, ठहाका लगाते, आज यहां तो कल वहां हमेशा ही जल्दी लेकिन संजीदा, हर किसी को महत्वपूर्ण बनाते हुए, जो कोई भी मिला उनका गहरा आत्मीय बन गया, सबको लगता गौतम जी उनके सबसे निकट हैं। इतना लोकप्रिय इतना जिन्दादिल शख्स कभी समाप्त नहीं होता है। प्रयाग की माटी में पनपे कैलाश गौतम यहां की साहित्यिक विरासत के पुरजोर नुमाइन्दे थे। पंत, महादेवी, निराला, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, उपेन्द्र नाथ अश्क जैसे स्तम्भों के साथ एक नाम और जुड़ गया। भले ही आज साहित्यिक जगत मित्रों और आत्मीयों के बीच एक वीरानगी है पर जनकवि अपने शब्दों, कृतियों और गीत के बीच इतना कुछ छोड़ गये हैं जो साहित्यिक चिंतकों के बीच विरासत का काम करेगा और प्रयाग की धरती उसकी सुगंध से महकती रहेगी। वह जमीन से जुड़े हुए रचनाकार ही नहीं बल्कि एक सच्चे मनुष्य थे जिन्होंने ’मानुष सत्य‘ को जाना था और आम आदमी की संवेदना को छोटे-छोटे सपनों में बुना था। वे अपनी कविताओं में चरित्रों को गढ़ते हुए आमजन से रूबरू होते रहे। दरअसल लोकजीवन ही उनका अपना जीवन था। चाहे आम बात-व्यवहार हो, जिस इंसानी जज़्बे के साथ वह मुखातिब होते थे, उसके पीछे उनका यह गहरा लोक संस्कार ही था। मंचीय कविता में उनकी जीवंत उपस्थिति साथ-साथ पेशे के रूप में आकाशवाणी के ग्रामीण कार्यक्रमों में उनकी अत्यंत लोकप्रिय भागीदारी इसके ज्वलंत साक्ष्य हैं। रेडियो, नाटक, पटकथा, लेखन, गीतों के अलावा हास्य व्यंग्य और अखबारों में स्तम्भ-लेखन उनकी अभिव्यक्ति के ऐसे ही अन्य माध्यम थे। जब कवि सम्मेलनों की परम्परा में गिरावट आयी थी तो उसे उन्होंने स्वस्थ हास्य और कुशल संचालन से जैसे उबार लिया हो। बड़ी बात यह है कि उसकी संकीर्ण रसिकता पर अंकुश लगाते हुए उन्होंने सामान्य सुख-दुख के साथ प्रखर जन-पक्षधरता का भी समावेश किया। कहीं विडम्बनाओं में निर्ममता से नश्तर लगाये तो कहीं सुन्दर बहुरंगी लोक-छवियों के गुलदस्ते सजा दिये।
अपने जीवन के अंतिम समय में आकाशवाणी से रिटायरमेंट के बाद कैलाश गौतम इलाहाबाद में हिंदुस्तानी एकेडमी के अध्यक्ष पद पर कार्यरत थे। ग्रामीण जीवन के बिम्बों के इस प्रयोगधर्मी कवि का निधन 9 दिसंबर 2006 को हुआ। अखिल भारतीय मंचीय कवि परिषद की ओर से शारदा सम्मान, महादेवी वर्मा साहित्य सहकार न्यास की ओर से महादेवी वर्मा सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का राहुल सांकृत्यायन सम्मान सहित कैलाश गौतम मुम्बई का परिवार सम्मान, लोक भूषण सम्मान, सुमित्रानन्दन पंत सम्मान और ऋतुराज सम्मान से भी सम्मानित किया गया। अपने वाराणसी अधिवास के दौरान कैलाश गौतम 'आज' और 'गांडीव' जैसे दैनिक पत्र समूह से भी जुड़े रहे। सन्मार्ग के लिए भी उन्होंने नियमित स्तम्भ लिखा।

कैलाश गौतम की मशहूर कविता- पप्पू के दुल्हिन
पप्पू के दुल्हिन की चर्चा कालोनी के घर घर में,
पप्पू के दुल्हिन पप्पू के रखै अपने अंडर में
पप्पुवा इंटर फेल और दुलहिया बीए पास हौ भाई जी
औ पप्पू अस लद्धड़ नाहीं, एडवांस हौ भाई जी
कहे ससुर के पापा जी औ कहे सास के मम्मी जी
माई डियर कहे पप्पू के, पप्पू कहैं मुसम्मी जी
पप्पू की दुल्हन पूरे कालोनी में चर्चित है, पप्पू को अपने अंडर में रखती है, पप्पू 12वीं फेल हैं और दुल्हन स्नातक पास है, एडवांस है, ससुर को पापा और सास को मम्मी बुलाती है। पप्पू को 'माई डियर' कहती है जबकि पप्पू उसे 'मोसम्मी जी' कहते हैं।

बहु सुरक्षा समिति का गठन
बहु सुरक्षा समिति बनउले हौ अपने कॉलोनी में
बहुतन के ई सबक सिखौले हौ अपने कॉलोनी में
औ कॉलोनी के कुल दुल्हनिया एके प्रेसिडेंट कहैंली
और एकर कहना कुल मानेली एकर कहना तुरंत करैली
पप्पू के दुल्हिन के नक्शा कालोनी में हाई हौ
ढंग एकर बेढब हौ सबसे रंग एके एकजाई हो
अपने कॉलोनी में उसने बहु सुरक्षा समिति का गठन किया है, कई लोगों को सबक सिखा चुकी है, कॉलोनी में सभी महिलाएं इसका कहना मानती हैं और प्रेसीडेंट कहती हैं।

पप्पू भी जान गया है कि किसलिए 'माई डियर' बुलाती है
औ कॉलोनी के बुढ़िया बुढ़वा दूरे से परनाम करैले
भीतरे भीतर सास डरैले भीतरे भीतर ससुर डरैले
दिन में सूट रात में मैक्सी, न घुंघटा न अँचरा जी
देख देख के हसं पड़ोसी मिसराइन औ मिसरा जी
अपने एक्को काम न छुए कुल पप्पु से करवावैले
पप्पुओ जान गयल हौ काहें माई डियर बोलावैले
कॉलोनी के सभी वृद्ध महिला-पुरुष इससे डरते हैं और दूर से ही प्रणाम करते हैं। दिन में सूट, रात में मैक्सी पहनती है, पड़ोस के मिश्रा जी और उनकी पत्नी देखकर हंसते हैं। खुद कोई काम नहीं करती, सभी काम पप्पू से करवाती है अब तो पप्पू भी जान गया है कि किसलिए 'माई डियर' बुलाती है।
चौराहेबाजी, हाहा ही ही सब कुछ छूट गया है
छूट गइल पप्पू के बीड़ी औ चौराहा छूट गइल
छूट गइल मंडली रात के ही ही हा हा छूट गइल
हरदम अप टू डेट रहैले मेकअप दोनों जून करैले
रोज बिहाने मलै चिरौंजी गाले पे निम्बुवा रगरै
पप्पू ओके का छेड़िहैं ऊ खुद छेड़ेले पप्पू के
जइसे फेरे पान पनेरिन ऊ फेरेले पप्पू के
पप्पू का रात का टहलना, चौराहेबाजी, हाहा ही ही सब कुछ छूट गया है, हमेशा अप टू डेट रहते हैं, दोनों टाइम मेकअप करते हैं। गाल पर नींबू और चिरौंजी मलते है। पप्पू उसको नहीं छेड़ पाते बल्कि वो खुद पप्पू को छेड़ती है।
एक दिन पप्पू के जेब से वो लव लेटर पा गई
पप्पू के जेबा एक दिन लव लेटर ऊ पाई गइल
लव लेटर ऊ पाई गइल, पप्पू के शामत आई गइल
मुंह पर छीटा मारै उनके आधी रात जगावैले
इ लव लेटर केकर हउवे ओनही से पढ़वावैले
लव लेटर के देखते पप्पुवा पहिले तो सोकताइ गइल
झपकी जैसे फिर से आइल पप्पुवा उहै गोताई गइल
एक दिन पप्पू के जेब से वो लव लेटर पा गई, फिर क्या था, पप्पू पर तो जैसे आफत आ गई। आधी-आधी रात को मुंह पर छींटे मार-मार कर वो पप्पू को जगाती थी और पूछती थी कि ये लव लेटर किसका है, उन्हीं से पढ़वाती भी थी।

अंदाज के एक तीर छोड़ दिया
मेहर छींटा मारे फिर फिर पप्पुवा आँख न खोलत हौ
संकट में कुकरे के पिल्ला जैसे कूँ कूँ बोलत हौ
जैसे कत्तो घाव लगल हौ हाँफ़त औ कराहत हौ
इम्तहान के चिट एस चिटिया मुंह में घोंटल चाहत हौ
सहसा हँसे ठठाकर पप्पुवा फिर गुरेर के देखलस
अँधियारन में एक तीर ऊ खूब साधकर मरलस
पप्पू को कई बार पानी के छींटे मारी लेकिन वो अभी आंख नहीं खोल रहा। संकट के समय जैसे कुत्ते के पिल्ले कूं-कूं बोलते हैं या कहीं घाव के चलते कराह रहे हों वैसे ही उसकी स्थिति है। परीक्षा के चिट की तरह वो लव लेटर को घोंट जाना चाहता है। अचानक उसे कोई उपाय सूझ गया और पहले तो ठठाकर हंसा फिर गुरेर कर पत्नी की तरफ देखा और अंधेरे में अंदाज के एक तीर छोड़ दिया।

अच्छा ! देखो, इधर आओ और सुनो !
अच्छा देखा एहर आवा बात सुना तू अइसन हउवे
लव लेटर लिखै के हमरे कॉलेज में कम्पटीसन हउवे
हमरो कहना मान मुसमिया रात आज के बीतै दे
सबसे बढ़िया लव लेटर पे पुरस्कार हौ, जीतै दे
अच्छा ! देखो, इधर आओ और सुनो ! ऐसा है कि हमारे कॉलेज में कल लव लेटर लिखने का कम्पटीसन है। मोसम्मी मेरी बात मान लो और आज की रात बीत जाने दो क्योंकि जो सबसे बढ़िया लव लेटर लिखेगा, उसे पुरस्कार मिलेगा इसलिए मुझे जीतने दो।


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देवेश ठाकुर - व्यक्ति परिचय, व्यक्तित्व तथा रचनाधर्मिता



देवेश ठाकुर प्रयोगधर्मी तथा बहुआयामी साहित्यकार हैं। वे एक साथ कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, समीक्षक, संपादक शोधक, शोध निर्देशक आदि हैं। उनके जीवनवृत्त, व्यक्तित्व, रचनाधर्मिता आदि की हम क्रम से जानकारी लेते हैं।
देवेश ठाकुर - व्यक्ति परिचय, व्यक्तित्व तथा रचनाधर्मिता

जन्म तथा जन्म स्थान - देवेश ठाकुर ने अपने नाम तथा जन्म के बारे में स्वयं कहा है कि, - "मैं - देवेश ठाकुर उर्फ दलजीत सिंह उर्फ दरबार सिंह ठाकुर उर्फ मुन्ना उर्फ दादा उर्फ दुर्गा उर्फ देबू आत्मज ठाकुर, दीवान सिंह नेगी और आनंदी देवी, ग्राम दाडिम, मल्लस सल्ट, जिला अलमोडा, उत्तराखंड। जन्म तिथी: स्कूल प्रमाणपत्र के अनुसार: 22 जुलाई, 1933।" देवेश ठाकुर के स्नेही सुदेश कुमार देवेश जी के नाम के बारे में लिखते हैं कि, "देवेश को घर में 'मुन्ना' कहकर पुकारा जाता था। वैसे उसका बचपन का नाम दलजीत सिंह है। देवेश की माताजी ने एक बार बातों-बातों में मुझे बताया था कि वह अपने ननिहाल में पैदा हुआ था। उसका नाम दलजीत रखा और उसके जन्म की सूचना उसके पिता को दे दी गई। उसके पिता तब बद्रीनाथ में तैनात थे। पिता को भगवान के दरबार में अपने बेटे के जन्म की सूचना मिली। इसलिए उसका नाम दरबार सिंह रखा। स्कुल-कॉलेज तक उसका यही नाम चलता रहा। देहरादून मे जब वह एम.ए. के प्रथम वर्ष में पढ रहा था, तब उसकी पहली कविता - पुस्तक छपी। उस पर उसका नाम 'देवेश ठाकुर' ही गया। बाद में एम.ए. पास करने के बाद बम्बई आने पर उसने कानूनी रूप से अपना नाम 'देवेश ठाकुर' करवा लिया"।

माता-पिता, भाई-बहन - देवेश ठाकुर के पिताजी का गाँव दाड़िम। पिताजी दस-ग्यारह साल के थे तब देवेश जी के दादाजी का निधन हुआ। उसके बाद घर-परिवार की ड़ोर उनके सबसे बड़े भाई के हाथ में आ गयी। बडे़ भाई की कठोरता से तंग आकर पिताजी घर से भाग गए और रानीखेत पहुँच गए। वहाँ छोटी-मोटी नौकरी करके जिंदगी शुरू कर दी। बाद में वे सेना में कांस्टेबल के रूपमें नियुक्त हो गए। 27-28 साल की उम्र में पैठानी गाँव की सात साल की लड़की से उनकी शादी हो गई। देवेश ठाकुर का जन्म नानी के घर अर्थात पैठानी में हुआ। देवेश ठाकुर के दो भाई और एक बहन थे। बहन होने के बाद उनकी माताजी घर में कन्या आ गयी इसलिए बहुत खुश हुई।
शिक्षा - जैसे की ऊपर कहा गया देवेश जी का जन्म नानी के यहाँ अर्थात् पैठानी में हुआ। वहीं पर उन्हें अक्षर-ज्ञान कराया गया और दो दर्जे तक की पढ़ाई बटूलियाँ स्कूल में हो गई। बाद में पिताजी के तबादले के कारण बिजनौर, चाँदपुर और नजीबाबाद इस प्रकार उनके स्कुललगातार बदलते रहे। नजीबाबाद के एकमात्र सरकारी स्कुल में पाँचवी कक्षा में रिक्त स्थान न होने के कारण उन्हें फिर से चैथी कक्षा में दाखिल करवा दिया था। इससे वे बहुत दुःखी हुए। परिणाम स्वरूप पढ़ाई से उनका मन ऊब गया। धीर-धारे वहाँ उन्हें दोस्त मिलते गऐ और वे उस परिवेश में घुलमिल गए। सब एक साथ मौज-मस्ती करने लगे। उनका अधिकांश समय गिल्ली-डंडा खेलने, सड़कों पर पहिया चलाने, पतंग उड़ाने और छोटी-छोटी बातों पर लड़ने और झगड़ने में बीतने लगा। बाद में छोटे भाई और बहन के साथ खेलने में उनका समय बीतने लगा। सन् 1948 में उनके पिताजी रिटायर हो गए। तब वे दसवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। रिटायर होने के बाद आर्थिक तंगी के कारण उनके पिताजी काफी चिंतित और उदास रहने लगे। एक दिन उन्होंने देवेश जी से कहा, "दुर्गा, तू पढा़ई में ध्यान क्यों नहीं लगाता। तू पढ़लेगा तो अपने भाई-बहन को भी पढा लेगा। मैं तो आब रिटायर हो गया हूँ। 50-55 रूपए पेंशन मिलेगे उससे क्या होगा। दसवीं की परीक्षा शुरू हो गयी। परीक्षा के लिए माँ श्रध्दानुसार उन्हें एक चम्मच दही चटाती और सर पर हाथ फेरकर उन्हें शुभकामनाएँ देती। आखिरकार परीक्षा खत्म हो गयी और देवेश जी द्वितीय श्रेणी में पास हों गये।
उनके पिताजी चाहते थे किं इंटर पास करके देवेश पुलिस सब-इन्स्पेक्टर बन जाये। इसलिए नगीना में उनका दाखिला करवा लिया। उन्होंने इंटर की परीक्षा दे दी। बाद में मिलिट्री में उन्हें दाखिल करवाने के प्रयास हुए। वहाँ दुबली तबीयत के कारण असफल हो गये। बाद में आर्थिक तंगी के बावजूद देहरादून में बी.ए. के लिए उनका दाखिला करवाया गया। बी.ए. और एम.ए. के दौरान उनका जीवन बड़ा ही संघर्षमय बीता। एम.ए. के परिणाम घोषित होने पर पता चला देवेश जी द्वितीय श्रेणी में पास हो गये। नौकरी की आवश्यकता के कारण उन्होंने बी.एड. पूरा होने के पूर्व 'बाम्के एज्युकेशन सर्विसेज' के द्वारा असिस्टैट लेक्चरर के पद पर नियुक्ति हो गयी। तभी उन्होंने पं. नंद दुलारे वाजपेयी के निर्देशन में सागर विश्वविद्यालय के अंतर्गत पीएचडी. के लिए पंजीकरण किया और 1961 में पीएचडी. की डिग्री मिल गयी। बाद में वाजपेयी के आदेशानुसार उन्होंने डी.लिट. के लिए कार्य करना शुरू किया और हिन्दी साहित्य में विश्वविद्यालयीन उच्चतम् उपाधि डि.लिट. भी अर्जित की।

नौकरियाँ - देवेश जी का असली संघर्षमय जीवन बी.ए. तथा एम.ए. के दौरान शुरू हो गया। आर्थिक दृष्टि से उन्हें बड़ा संघर्ष करना पड़ा। अपनी पढा़ई पूरी करने के लिए उन्हें टयुषन लेना पड़ा। इतना ही नहीं होटल में मैनेजर बनकर ग्राहकों की जुठी प्लेटें भी उठाने का काम किया। गर्मियोंकी छुट्टियों में अपने घर न जाकर अखबार बाँटने का काम किया। जब उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं होता तब वे खाने के समय पर दोस्तों के घर जाते और उनको वहाँ खाना मिल जाता। बी.ए. की परीक्षा देने के बाद पैसा कमाने के हेतु से वे दिल्ली चले गये। वहाँ जुतों के डिब्बे को साफ करने का काम भी किया। प्रतिकूल परिस्थिति के बावजूद भी उन्होंने आशावादी बनना स्वीकार किया।
एम.ए. में द्वितीय श्रेणी पाने के बाद एक प्राइमरी स्कूल में उन्हें पढा़ने का काम मिल गया। लेकिन पढ़ाने की ट्रेनिंग न होने के कारण 'हफ्ते भर बाद वहाँ से मेरी यह कहकर छुट्टी कर दी गयी कि मुझे पढ़ाना नहीं आता।" बाद में बी.एड. का ट्रेनिंग पूरा होने से पहले 'बाम्के एजुकेशन सर्विसेज' के अंतर्गत 'सिड़नहम' कॉलेज में असिस्टैंट लेक्चरर के पद पर नियुक्ति हो गयी। इसलिए देहरादून में बी.एड. की ट्रेनिंग छोड़कर वे बम्बई चले गये। वहाँ नौकरी ज्वाइन की। देवेश ठाकुर के शब्दों मे 'सिड़नहम कॉलेज में मेरे दिन बडे़ अच्छे बीते। मुझसे पहले दिनेश यहाँ आ चुका था। मैं उसी के साथ 'शेरे पंजाब हॉस्टल' में रहने लगा। कॉलेज में मेरे विभागाध्यक्ष प्रो. चंदुलाल दुबे ने मुझे बहुत सहयोग दिया। जब तक वे बम्बई में रहे, हर रोज घर से मेरा लंच लेकर आते रहें।" उनका तबादला होने के बाद देवेश जी विभागाध्यक्ष बनें। बाद में उनकी बदली राजकोट में हो गयी। लेकिन वहाँ का वातावरण उनको रास नहीं आया। उन्होंने इस्तीफा दिया और वे बम्बई लौट आये। बम्बई में राम नारायण रूइया कॉलेज में सहजता से उनको नौकरी मिल गयी, वहाँ पर 33 वर्षों तक वे कार्यरत रहें और 1993 में वहाँ पर सेवानिवृत्त हुए।

पारिवारिक जीवन - देवेश जी का विवाह पंजाब के सुविख्यात कामरेड पद्म विभूषण सत्यपाल डंग की बहन सुशीला जी, जो दिल्ली के लेडी हार्डिंग हॉस्पिटल में सिस्टर इंचार्ज थी, उनसे 1961 में हुआ। उन्होंने देवेश जी के हर सुख-दुःख में बखूबी साथ निभाया। दिसम्बर 1962 में उनकी पहली बेटी आभा का जन्म हुआ। जो की आज डॉक्टर है और उन्होंने एम.डी. और डीएनबी के सिवा लंदन में जाकर दो साल की लीवर ट्रांसप्लैंट की ट्रेनिंग ली है। गैस्टोएन्ट्रोलाॅजी की वह विशेषज्ञ भी है। दिसम्बर 1963 में उनकी छोटी बेटी आरती का जन्म हुआ। जो स्थानीय कॉलेज में इकाॅनाॅमिक्स की वरिष्ठ प्रवक्ता है। देवेश जी ने दोनों बेटियों का विवाह भी सादे ढंग से किया। इसके बारे में डॉ. रोहिणी देवबालन का कथन है कि "कोई शर्त नहीं, कोई धार्मिक पाखण्ड नहीं। कोई लेन-लेन नहीं। कोई मंत्रोच्चार नहीं। दोनों की रजिस्टर्स मैरिज। दोनों के अत्यन्त सम्मानित परिवारों में विवाह किया। देवेश सर की अपनी बच्चियों से बड़ी दोस्ती है, आभा-आरती दोनों ही सर को पिता से ज्यादा मित्र समझती है। सौभाग्य से उनको दोनों दामाद भी ऐसे ही मिले हैं जिनके साथ सर का व्यवहार सम्बन्धियों जैसा नहीं, बल्कि फक्कड़ दोस्तों जैसा अधिक है। आभा के पति भी लीवर ट्रांसप्लैट के सर्जन है। दोनों जसलोक और भाटिया अस्पताल में विशेषज्ञ हैं। दोनों बेटियाँ उनके घर-संसार में सुखी हैं। "कामयाब आदमी के पीछे औरत का हाथ होता है।" इसी हिसाब से देखा जाऐ तो देवेश जी के यशश्वी जीवन के पीछे भी उनकी पत्नी सुशीला जी का अनमोल सहकार्य ही है। परिवार की अधिक से अधिक जिम्मेदारी उठाने के कारण ही देवेश जी अपनी 'साहित्य-साधना' कर पायें। सुशीला स्वयं कहती है कि, "वैवाहिक जीवन में अनेक-अनेक कठिन मौकों पर हमने समझदारी बरती है और मिलकर हर स्थिति का सामना किया है और सफलता के साथ किया है।" आगे वह कहती हैं कि, "वैसे मैं जानती हूँ कि यह घर मेरी वजह से ही चल रहा है अन्यथा इनकी आदतें इस घर को न जाने कहाँ ले जाती। फिर भी यह क्यों न माने कि ये मूलतः एक अच्छे, हँसोड़, समझदार और जिन्दादिल इन्सान हैं, इनकी अव्यवस्था में भी एक व्यवस्था हैं।" पत्नी तथा अपने परिवार के साथ-साथ उनके दोस्तों का योगदान भी कम नहीं है। कॉलेज के दिनों से लेकर आज तक उनके सच्चे और आत्मीय दोस्तों ने प्रामाणिकता से अपनी मित्रता निभाई है। उनके परम स्नेही सुदेश कुमार का सुशीला जी के बारे में कथन है कि, "शीला भाभी बहुत सहज, संतुलित और शालीन हैं। मैं तो यह सोचता हूँ कि आज देवेश जो भी बन पाया है, उस में 50 प्रतिशत से अधिक भाग शीला भाभी का हैं। वे देवेश की पत्नी भी है, प्रेमिका भी हैं, दोस्त भी हैं और माँ और बहन भी हैं।" वैवाहिक जीवन में दोनों के वैचारित ताल-मेल से ही जीवन सुखकर हो जाता है तथा हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। देवेश जी और सुशीला जी के सम्बन्धों को देखकर यह बात सोलह आना सच लगती है।
अपने पूरे जीवन में उन्होंने अपने तत्वों के साथ कभी समझौता नहीं किया। जो गलत है उसे गलत ही ठहराया गया है। किसी भी परिस्थिति में गलत को सही मानने की गलती नहीं की। यहाँ तक की अपनी माँ, बहन और भाई के टुच्चे पन को भी सही-सही दर्शाया। परिवारवालों की स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण 37 वर्ष की आयु में उनका पहला बड़ा हृदयाघात हुआ। जिसके परिणाम स्वरूप 1995 में 'ओपन हार्ट सर्जरी' करवानी पडी। ऐसी परिस्थिति में सुशीला जी ने खास खयाल रखा। पारिवारिक संघर्ष के बावजूद देवेश जी ने परिस्थितियों का सामना किया, आशावादी बनकर।

साहित्य का आरंभ - देवेश ठाकुर का भी अधिकांश साहित्यकारों की तरह साहित्य का प्रारंभ काव्यलेखन से ही हुआ। देवेश जी का शिक्षा पूरी करने के लिए संघर्ष चल ही रहा था। एम.ए. के समय उनकी दोस्ती साहित्यिक तथा साहित्य पे्रमी दोस्तों से हो गयी। उनके साथ रहने के कारण देवेश जी में भी साहित्य की रूचि निर्माण हुई और वे भी युवावस्था में कविताएँ लिखने लगे। देवेश ठाकुर ने अपने साहित्य के आरंभ के बारे में स्वयं कहा हैं कि, "देहरादून में पहली बार मुझे अपने परिवारवालों से अलग रहना पड़ा। घर की बड़ी याद आती थी। अकेली घड़ियों में या तो मैं रोता था या कविता करता था। इस तरह मैं समझता हूँ मेरा अकेलापन ही मेरे लिखने की शुरूआत का कारण बना।" देहरादून का वातावरण बड़ा साहित्यिक था। वहाँ पर स्थानीय काव्य-गोष्ठियाँ होती थी। उनमें श्रीराम शर्मा 'प्रेम', मनोहरलाल 'श्रीमान' और अपना सहपाठी 'कुल्हड' आदि लोकप्रिय कवि सहभागी रहते थे। कवि सम्मेलन होते थे। उनमें नीरज हंस कुमार तिवारी, देवेश जी के मित्र देवराज 'दिनेश' आदि भी सहभागी होते थे। इनकी प्रेरणा से देवेश जी की 'काव्य-साधना' आगे बढती गई। एम.ए. के प्रथम वर्ष में 'वैनगार्ड' नामक स्थानीय पत्रिका में उनकी कविताएँ छपने लगी। बाद में 'मयुरिका' नाम का पहला काव्य संकलन प्रकाशित हुआ। 1956 में उनका 'अन्तर-छाया' नामक खंडकाव्य प्रकाशित हुआ।
देवेश ठाकुर के एक और मित्र प्रा. दिनेश कुकरेती का कथन है कि "कॉलेज में और शहर में भी आए दिन छोटे-मोटे कवि सम्मेलन तथा साहित्य गोष्ठियाँ होती रहती थी। इसी वातावरण से प्रभावित होकर हम दो-चार मित्रों ने 'तरूण-साहित्य मण्डल' नाम से छोटी सी संस्था संगठित की थी। जिसकी प्रथम दो-तीन गोष्ठियाँ बंगाली-मौहल्ले के उस कमरे में धूमधाम से आयोजित की गई जो देवेश एवं सुदेश का निवास-स्थान था।" इस प्रकार काव्य से देवेश ठाकुर का साहित्यिक प्रवास शुरू हो गया। जो आगे चलकर उपन्यास कहानी, समीक्षा, शोध आदि की तरफ बढता ही गया। साहित्य के प्रति उनकी अपनी एक अलग रूचि है। इसके बारे में दिनेश कुकरेती का मत द्रष्टव्य है, "पुस्तकों से देवेश का प्रारम्भ से ही प्यार रहा है, पढ़ने का ही नहीं, संग्रह का भी शौक है। भीषण अर्थाभाव के दिनों में भी वह पुस्तकें खरीदता रहता था। बम्बई में होटल निवास के दिनों में ही उसका ट्रंक कपड़ों की जगह पुस्तकों से भर गया था।" साहित्य के प्रति रूचि, लगन तथा जिज्ञासा के कारण 500 पृष्ठों का शोध-प्रबंध उन्होंने 18 महीनों में पूरा कर लिया। जिसके परिणाम स्वरूप 1961 में उन्हें पीएच.डी. की उपाधि मिल गयी।

सम्मान एवं उपाधियाँ - देवेश ठाकुर के 'शून्य से शिखर तक', और 'शिखर पुरुष' दोनों उपन्यास महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादमी द्वारा पुरस्कृत हैं। उनका डी.लिट्. का शोध-प्रबंध 'आधुनिक हिंदी साहित्य की मानवतावादी भूमिकाएँ' - हिन्दी संस्थान, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 'तुलसी पुरस्कार' से पुरस्कृत हैं।


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खांसी की आयुर्वेदिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा



खांसी की समस्या प्रायः हर मौसम में होने की सम्भावना होती है किंतु ठंड में अधि‍क होती है।  यह कई अन्य बीमारियों की जड़ भी हो सकती है। अगर खांसी का उपचार समय पर नहीं किया गया तो यह कई बीमारियां दे सकती हैं। यदि उपचार के बाद भी खांसी जल्दी ठीक न हो तो इसे मामूली बिल्कुल न समझें। आयुर्वेद में खांसी को कास रोग भी कहा जाता है। खांसी होने ये पहले रोगी को गले में खरखरापन, खराश, खुजली आदि होती है और गले में कुछ भरा हुआ-सा महसूस होता है। कभी-कभी मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है और भोजन के प्रति अरुचि हो जाती है।

खांसी की आयुर्वेदिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा

खांसी के प्रकार
  1.  कफज खांसी : कफ के कारण होने वाली खांसी में कफ बहुत निकलता है। इसमें जरा-सा खांसते ही कफ आसानी से निकल आता है। कफज खांसी के लक्षणों में गले व मुंह का कफ से बार-बार भर जाना, सिर में भारीपन व दर्द होना, शरीर में भारीपन व आलस्य, मुंह का स्वाद खराब होना, भोजन में अरुचि और भूख में कमी के साथ ही गले में खराश व खुजली और खांसने पर बार-बार गाढ़ा व चीठा कफ निकलना शामिल है।
  2. क्षतज खांसी : यह खांसी वात, पित्त, कफ, तीनों कारणों से होती है और तीनों से अधिक गंभीर भी। अधि‍क भोग-विलास (मैथुन) करने, भारी-भरकम बोझा उठाने, बहुत ज्यादा चलने, लड़ाई-झगड़ा करते रहने और बलपूर्वक किसी वस्तु की गति को रोकने आदि से रूक्ष शरीर वाले व्यक्ति के गले में घाव हो जाते हैं और खांसी हो जाती है।इस तरह की खांसी में पहले सूखी खांसी होती है, फिर रक्त के साथ कफ निकलता है।
  3. क्षयज खांसी : यह खांसी क्षतज खांसी से भी अधिक गंभीर, तकलीफदेह और हानिकारक होती है। गलत खानपान, बहुत अधि‍क भोग-विलास, घृणा और शोक के के कारण शरीर की जठराग्नि मंद हो जाती है और इनके कारण कफ के साथ खांसी हो जाती है। इस तरह की खांसी में शरीर में दर्द, बुखार, गर्माहट होती है और कभी-कभी कमजोरी भी हो जाती है। ऐसे में सूखी खांसी चलती है, खांसी के साथ पस और खून के साथ बलगम निकलता है। क्षयज खांसी विशेष तौर से टीबी यानि (तपेदिक) रोग की प्रारंभिक अवस्था हो सकती है, इसलिए इसे अनदेखा बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए।
  4. पित्तज खांसी : पित्त के कारण होने वाली खांसी में कफ निकलता है, जो कि पीले रंग का कड़वा होता है। वमन द्वारा पीला व कड़वा पित्त निकलना, मुंह से गर्म बफारे निकलना, गले, छाती व पेट में जलन होना, मुंह सूखना, मुंह का स्वाद कड़वा रहना, प्यास लगती रहना, शरीर में गर्माहट या जलने का अनुभव होना और खांसी चलना, पित्तज खांसी के प्रमुख लक्षण हैं।
  5. वातज खांसी : वात के कारण होने वाली खांसी में कफ सूख जाता है, इसलिए इसमें कफ बहुत कम निकलता है या निकलता ही नहीं है। कफ न निकल पाने के कारण, खांसी लगातार और तेजी से आती है, ताकि कफ निकल जाए। इस तरह की खांसी में पेट, पसली, आंतों, छाती, कनपटी, गले और सिर में दर्द भी होने लगता है।
एलोपैथिक चिकित्सा के अनुसार निम्न कारणों से होती है-
  1. प्लूरा के रोग, प्लूरिसी, एमपायमा आदि रोग होने से खांसी होती है।
  2. फुफ्फुस के रोग, जैसे तपेदिक (टीबी), निमोनिया, ट्रॉपिकल एओसिनोफीलिया आदि से खांसी होती है।
  3. श्वसन नली के ऊपरी भाग में टांसिलाइटिस, लेरिन्जाइटिस, फेरिन्जाइटिस, सायनस का संक्रमण, ट्रेकियाइटिस तथा यूव्यूला का लम्बा हो जाना आदि से खांसी होती है।
  4. श्वसनी (ब्रोंकाई) में ब्रोंकाइटिस, ब्रोंकियेक्टेसिस आदि होने से खांसी होती है।
खांसी की आयुर्वेदिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा
  1. अगर आप खांसी से परेशान हैं तो अदरक का जूस पीएं। इसमें शहद मिला कर आप इसका और ज्यादा फायदा उठा सकते हैं।
  2. अगर खांसी के साथ बलगम भी है तो आधा चम्मच काली मिर्च को देसी घी के साथ मिलाकर खाएं। आराम मिलेगा।
  3. अडूसा के पत्तों के रस (6 मि.ली.) को शहद (4मि.ली.) में मिलाकर पीने से भी खांसी और गले की खराश से राहत मिलती है।
  4. अदरक के रस में तुलसी मिलाएं और इसका सेवन करें। इसमें शहद भी मिलाया जा सकता है।
  5. अदरक को छोटे टुकड़ों में काटें और उसमें नमक मिलाएं। इसे खा लें। इसके रस से आपका गला खुल जाएगा और नमक से कीटाणु मर जाएंगे।
  6. अनार का रस भी खांसी से राहत दिलाता है। लेकिन इसके लिए आपको सिर्फ अनार का नहीं, इसमें जरा सा पिपली पाउडर और अदरक भी डालना होगा।
  7. अनार के जूस में थोडा अदरक और पिपली का पाउडर डालने से खांसी को आराम मिलता है।
  8. अपनी चाय में अदरक, तुलसी, काली मिर्च मिला कर चाय का सेवन कीजिए। इन तीनों तत्वों के सेवन से खांसी-जुकाम में काफी राहत मिलती है।
  9. अलसी के बीजों को मोटा होने तक उबालें और उसमें नीबू का रस और शहद भी मिलाएं और इसका सेवन करें। जुकाम और खांसी से आराम मिलेगा।
  10. आंवला खांसी के लिए काफी असरकारी माना जाता है। आंवला में विटामिन-सी होता है, जो ब्लड सरकुलेश को बेहतर बनाता है। अपने खाने में आंवला शामिल कर आप एंटी-ऑक्सीडेंट्स का सोर्स बढ़ा सकते हैं। यह आपकी इम्यूनिटी को मजबूत करेगा।
  11. आंवला में प्रचुर मात्रा में विटामिन-सी पाया जाता है जो खून के संचार को बेहतर करता है और इसमें एंटी-ऑक्सीडेंट्स भी होते हैं जो आपकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता में इजाफा करता है।
  12. आधा चम्मच शहद में एक चुटकी इलायची और कुछ नीबू का जूस डालें। इस मिश्रण को दिन में दो से तीन बार लें। यह घरेलू नुस्खा खांसी की रामबाण दवा साबित हो सकता है।
  13. खांसी की अंग्रेजी दवा तो बहुत से लोग लेते हैं, लेकिन उसे लेने से नींद आने लगती है और उसके साइड इफेक्ट भी बहुत हैं। इसकी जगह आप हल्दी वाला दूध ले सकते हैं। हल्दी वाले दूध एंटीऑक्सीडेंट्स होते हैं। इसके अलावा हल्दी में एंटी वायरल और एंटी बैक्टीरियल गुण भी होते हैं, जो संक्रमण से लड़ने में मददगार होते हैं। तो खांसी की दवा के तौर पर आप हल्दी वाले दूध का इस्तेमाल कर सकते हैं।
  14. खांसी की असरकारी दवा के तौर पर आप गर्म पानी और नमक का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके लिए आप गर्म पानी में चुटकी भर नमक डालकर उससे गरारे कर सकते हैं। ऐसा करने से आपको खांसी से हुए गले के दर्द से राहत मिलेगी।
  15. खांसी के साथ अक्सर बलगम भी हो जाती है। यह बेचैनी और दर्द पैदा करती है। इससे बचने के लिए आप काली मिर्च को देसी घी में मिलकार ले सकते हैं। राहत महसूस होगी।
  16. गर्म पानी में चुटकी भर नमक मिला कर गरारे करने से खांसी-जुकाम के दौरान काफी राहत मिलती है। इससे गले को राहत मिलती है और खांसी से भी आराम मिलता है। यह भी काफी पुराना नुस्खा है।
  17. गले में खराश या ड्राई कफ होने पर अदरक के पेस्ट में गुड़ और घी मिलाकर खाएं।
  18. जितना हो सके गर्म पानी पिएं। आपके गले में जमा कफ खुलेगा और आप सुधार महसूस करेंगे।
  19. जुकाम और खांसी के उपचार के लिए आप गेहूं की भूसी का भी प्रयोग कर सकते हैं। 10 ग्राम गेहूं की भूसी, पांच लौंग और कुछ नमक लेकर पानी में मिलाकर इसे उबाल लें और इसका काढ़ा बनाएं। इसका एक कप काढ़ा पीने से आपको तुरंत आराम मिलेगा। हालांकि जुकाम आमतौर पर हल्का-फुल्का ही होता है जिसके लक्षण एक हफ्ते या इससे कम समय के लिए रहते हैं। गेंहू की भूसी का प्रयोग करने से आपको तकलीफ से निजात मिलेगी।
  20. जैसा कि हम बता चुके हैं अदरक और नमक दोनों ही खांसी में गले के दर्द से राहत दिलाते हैं। तो अगर दोनों को एकसाथ खाया जाए तो यह और भी फायदेमंद साबित होंगी। आपको करना बस यह है कि अदरक के टुकड़ों पर नमक लगा कर खाना है।
  21. तुलसी के साथ शहद हर दो घंटे में खाएं। कफ से छुटकारा मिलेगा।
  22. नहाते समय शरीर पर नमक रगड़ने से भी जुकाम या नाक बहना बंद हो जाता है।
  23. नाक बह रही हो तो काली मिर्च, अदरक, तुलसी को शहद में मिलाकर दिन में तीन बार लें। नाक बहना रुक जाएगा।
  24. बचपन में सर्दियों में नानी-दादी घर के बच्चों को सर्दी के मौसम में रोज हल्दी वाला दूध पीने के लिए देती थी। हल्दी वाला दूध जुकाम में काफी फायदेमंद होता है क्योंकि हल्दी में एंटीआक्सीडेंट्स होते हैं जो कीटाणुओं से हमारी रक्षा करते हैं। रात को सोने से पहले इसे पीने से तेजी से आराम पहुचता है. हल्दी में एंटी बैक्टीरियल और एंटी वायरल प्रॉपर्टीज मौजूद रहती है जो की इन्फेक्शन से लडती है. इसकी एंटी इंफ्लेमेटरी प्रॉपर्टीज सर्दी, खांसी और जुकाम के लक्षणों में आराम पहुंचाती है।
  25. ब्रैंडी तो पहले ही शरीर गर्म करने के लिए जानी जाती है। इसके साथ शहद मिक्स करने से जुकाम पर काफी असर होगा।
  26. लगभग 2 कप पानी में अदरक के छोटे-छोटे टुकड़े और कुछ इमली की कुछ पत्तियां डालें और तब तक उबालें जब तक कि ये एक कप न रह जाए। इसमें 4 चम्मच शक्कर ड़ालकर धीमी आंच पर कुछ देर और उबालें, फिर ठंडा होने दें। ठंडा होने पर इसमें 10 बूंद नीबू रस की डाल दें। हर तीन घंटे में इस सिरप का एक बार सेवन करने से खांसी छू-मंतर हो जाती है।
  27. लहसुन को घी में भून लें और गर्म-गर्म ही खा लें। यह स्वाद में खराब हो सकता है लेकिन स्वास्थ्य के लिए एकदम शानदार है।
  28. लहसुन भी खांसी से राहत दिलाने में कारगर है। इसके लिए आपको लहसुन को घी में भून कर गर्मागरम खाना होगा।
  29. खांसी से परेशान हैं तो गर्म पानी पिएं। यह गले में जमे कफ को कम करने में मदद करेगा।
  30. समान मात्रा में शहद और कच्चे प्याज का रस (लगभग एक चम्मच) मिलाकर 3 से 4 घंटे के लिये किसी अंधेरे स्थान पर रख दें और बाद में इसका सेवन करें। यह खांसी की दवाई के रूप में सटीक कार्यकरता है।
  31. खांसी-जुकाम में गाजर का जूस काफी फायदेमंद होता है लेकिन बर्फ के साथ इसका सेवन न करें।
  32. सूप, चाय, गर्म पानी का सेवन करें और ठंडा पानी, मसालेदार खाना आदि से परहेज करें।


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