प्रार्थना - आत्मा का भोजन




प्रार्थना-सभा के बाद एक वकील ने महात्मा गांधी से पूछा, 'आप प्रार्थना में जितना समय व्यतीत करते हैं, अगर उतना ही समय देश-सेवा में लगाया होता, तो अभी तक कितनी सेवा हो जाती?'
गाँधीजी गम्भीर हो गये और बोले-'वकील साहब, आप भोजन करने में जितना समय बर्बाद करते हैं, अगर वही समय काम काज में लगाया होता तो अभी तक आपने अनेक अतिरिक्त मुकदमों की तैयारी कर ली होती।'
वकील चकित होकर बोला, 'महात्मा जी! अगर भोजन नहीं करूँगा तो मुकदमों की तैयारी कैसे करूँगा?' तब महात्मा गांधी बोले, 'जैसे आप भोजन के बिना मुकदमे की तैयारी नहीं कर सकते, वैसे ही मैं बिना प्रार्थना के देश की सेवा नहीं कर सकता। प्रार्थना मेरी आत्मा का भोजन है। इससे मेरी आत्मा को शक्ति मिलती है, जिससे कि मैं देशकी सेवा कर सकूँ।'
चीज जितनी सूक्ष्म होती जाती है, उसकी दृश्यता घटती जाती है, किंतु प्रभाव बढ़ता जाता है, ठीक इसी प्रकार प्रार्थना का सूक्ष्म प्रभाव की दृश्यता कम, किंतु प्रभाव अत्यधिक होता है।


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विष्णु सहस्रनाम



 Vishnu Sahasranamam
विष्णु सहस्रनाम भगवान विष्णु के हजार नामों से युक्त एक प्रमुख स्तोत्र है। इसके अलग अलग संस्करण महाभारत, पद्म पुराण व मत्स्य पुराण में उपलब्ध हैं। स्तोत्र में दिया गया प्रत्येक नाम श्री विष्णु के अनगिनत गुणों में से कुछ को सूचित करता है। विष्णु जी के भक्त प्रातः पूजन में इसका पठन करते है।

Vishnu Sahasranamam

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Vishnu Sahasranamam

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रूप बड़ा या गुण



मेघदूत, रघुवंष और अभिज्ञान शाकुन्तलम् जैसे महान ग्रन्थों के रचयिता महाकवि कालिदास को कौन नहीं जानता? उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य अपनी वीरता और न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके दरबार में नौरत्न थे। उनमें से एक थे कालिदास।
 Kalidas
एक बार महाकवि कालिदास राजा विक्रमादित्य के साथ बैठे हुए थे। गर्मियों के दिन थे। राजा और महाकवि कालिदास गर्मी से बेहद परेशान थे। दोनों के षरीर पसीने से लथपथ थे। प्यास के मारे बार-बार कंठ सूखा जा रहा था। दोनों के पास मिट्टी की एक-एक सुराही रखी हुई थी। प्यास बुझाने के लिये थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें पानी पीना पड़ रहा था।
राजा विक्रमादित्य बहुत ही सुन्दर व्यक्ति थे, जबकि कालिदास उतने सुन्दर नहीं थे। विक्रमादित्य का ध्यान महाकवि के चेहरे की ओर गया। वे चुटकी लेने के लिये बोल पड़े- ‘‘महाकवि, इसमें संदेह नहीं कि आप अत्यंत विद्वान, चतुर और गुणी हैं, लेकिन ईश्वर ने यदि आपको सुन्दर रूप भी दिया होता तो कितना अच्छा होता’’?
‘‘महाराज, इसका उत्तर मैं आपको आज नहीं, कल दूँगा।’’ कालिदास ने कहा।
संध्या होते ही कालिदास सीधे सुनार के पास गए। उन्होंने उसे रातों-रात सोने की एक सुन्दर सुराही तैयार करने का आदेश दिया और घर लौट गए।
अगले दिन कालिदास ने पहले ही पहुँच कर राजा की मिट्टी की सुराही हटा दी और उसके स्थान पर सोने की सुराही कपड़े से ढक कर रख दी।
ठीक समय पर राजा विक्रमादित्य कक्ष में पधारे। राजा विक्रमादित्य और महाकवि कालिदास वार्तालाप करने लगे।
कल की तरह आज भी बहुत गर्मी थी। राजा को प्यास लगी। उन्होंने पानी के लिए संकेत किया। एक सेवक ने उनकी सुराही से पानी निकाल कर दिया। पानी होंठों से लगाते ही वे सेवक पर बरस पड़े- ‘‘क्या सुराही में उबला पानी भर के रखा है?’’ सेवक की तो घिग्घी बँध गई।
महाकवि कालिदास ने सुराही का कपड़ा हटाया। सोने की सुराही देखकर राजा विक्रमादित्य दंग रह गये।
राजा विक्रमादित्य ने कहा- ‘‘हद हो गई। पानी भी कहीं सोने की सुराही में रखा जाता है? कहाँ गई मिट्टी की सुराही? सोने की सुराही यहाँ किस मूर्ख ने रखी है?
कालिदास ने शान्त स्वर में कहा -‘‘वह मूर्ख मैं ही हूँ श्रीमान!’’
‘‘महाकवि आप?’’
‘‘जी हाँ, महाराज! आप सुन्दरता के पुजारी हैं न? आपकी यह सुराही साधारण मिट्टी की थी सो उसे हटा कर मैंने सोने की यह सुन्दर सुराही रख दी। क्या यह अच्छी नहीं है?’’ सोने की सुराही में तो पानी और भी अधिक ठंडा और स्वादिष्ट होना चाहिए?
महाराज, महाकवि का आशय समझ गए। उन्होंने महाकवि से क्षमा माँगी और कहा कि ‘‘आपने मेरी आँखें खोल दीं। अब मुझे समझ में आ गया कि महत्व बाहरी सुंदरता का नहीं, बल्कि आंतरिक गुणों का होता है।’’


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