राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 6 प्रमुख उत्सव



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक देश व्यापी सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन है। देश भर में सभी राज्यों के सभी जिलों में 58967 हजार से शाखाओं के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य चल रहा है। प्रत्येक समाज में देशभक्त, अनुशासित, चरित्रवान और निस्वार्थ भाव से काम करने वाले लोगों की आवश्यकता रहती है। ऐसे लोगों को तैयार करने का, उनको संगठित करने का काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज में एक संगठन न बनकर सम्पूर्ण समाज को ही संगठित करने का प्रयास करता है।

Rashtriya Swayamsevak Sangh

हमारे सामाजिक जीवन में अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं राष्ट्रीय महत्व के प्रसंगों से हमारा समाज अनुप्राणित होता है। प. पू. डाॅक्टर जी ने समाज में जिन गुणों की आवश्यकता अनुभव की उन्हीं के अनुरूप उत्सवों की योजना की। प्रत्येक उत्सव किसी विशेष गुण की ओर इंगित करता है। यथा गुरु पूर्णिमा आत्म निवेदन एवं समर्पण भाव, रक्षाबन्धन के द्वारा समरसता एवं समानता का प्रकटीकरण, विजयादशमी, वर्ष प्रतिपदा एवं हिन्दु साम्राज्य दिवस के द्वारा विजीगीषु वृत्ति, पुरुषार्थ, राष्ट्र भाव एवं आत्म गौरव वृत्ति जागरण, पराभूत मानसिकता में परिवर्तन एवं मकर संक्रान्ति द्वारा सही दिशा में सम्यक क्रांति एवं संगठन का भाव निर्माण करना। उत्सवों के माध्यम से आत्म केन्द्रित स्वभाव बदलकर सामाजिक बोध का जागरण करना है।

उत्सवों के माध्यम से कार्यकर्ताओं को पास से देखने व समझने का मौका मिलता है। वह समाज में एक अच्छा संदेश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर जाता है, जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नये व्यक्तियों को संगठन से जोड़ने का स्वर्णिम अवसर मिल जाता है। उत्सव को मनाने के लिए, सादगी ढंग से तैयारी की जाती है। सभी स्वयंसेवकों की भी उचित व्यवस्था की जाती है। समाज को ही संगठित करने का प्रयास में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में छः उत्सव प्रमुख रूप में वर्ष प्रतिपदा, हिन्दु साम्राज्य दिवस, श्री गुरु पूर्णिमा, रक्षाबन्धन, विजया दशमी और मकर संक्रान्ति पर्व मनाये जाते हैंः-

1. वर्ष प्रतिपदा - चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ‘भारतीय काल गणना’ का प्रथम दिन अर्थात् नववर्ष का प्रथम दिन होता है। इसी दिन से नवरात्रे प्रारम्भ होते हैं, स्वामी दयानन्द द्वारा आर्य समाज की स्थापना हुई। विक्रमादित्य द्वारा शकों पर पूर्ण विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में विक्रमी सम्वत् प्रारम्भ हुआ था। वर्ष प्रतिपदा के ही दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म हुआ था। स्वयंसेवकों के लिए यह दिन और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इस दिन स्वयंसेवक ध्वज लगाने से पूर्व आद्य सरसंघचालक को प्रमाण करते हैं। इस दिन गणवेश व समय का ध्यान रखना स्वयंसेवक के लिए अपेक्षित है। इसी दिन सभी नागरिकों के द्वारा मिलकर नववर्ष भी मनाया जाता है तथा कार्यक्रम कराये जाते हैं।

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2. हिन्दु साम्राज्य दिवस - ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1731 (1674 ई.) के दिन छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक तथा हिन्दु पद पाद शाही की स्थापना हुई, जिसने ‘हिन्दु राज्य’ नहीं बन सकता, इस हीन भाव को दूर किया। छत्रपति शिवाजी महाराज ने सीमित साधनों से ही सिद्ध किया कि हिन्दू सभी दृष्टि से श्रेष्ठ, स्वतंत्र व स्वयं शासक बनने योग्य है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह उत्सव मनाने के पीछे उद्देश्य भी यही है कि हमारे अन्दर की शक्ति निकालकर शिवाजी की तरह दिखाना की तुम भी योग्य शासक बन सकते हो।

3. श्री गुरु पूर्णिमा - यह उत्सव आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता है। व्यास महर्षि ने हमारे राष्ट्र जीवन के श्रेष्ठतम गुणों को निर्धारित करते हुए, उनके महान् आदर्शों को हमे दिखाया है। इस तरह वेद व्यास जगत गुरु हैं। उसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अपना एक गुरु भगवा ध्वज को बनाया है, जो हमें देश के प्रति समर्पण भाव को जगाता है और इसी दिन स्वयंसेवक गुरु दक्षिण के रूप में भेंट भी देते हैं, जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य सुचारू रूप से चलता है।

4. रक्षाबंधन - श्रावण की पूर्णिमा को यह उत्सव मनाया जाता है। इस दिन को समाज में जाति का भेद मिटाकर समानता, समरसता युक्त समाज का स्वरूप खड़ा करने का प्रयास किया जाता है। रक्षाबंधन का त्योहार जहाँ भाई-बहन की रक्षा करता है, यह कथा है। वही स्कन्द पुराण में यह भी लिखा है कि- ‘‘राजाओं एवं अन्य बन्धु-बन्धवों तथा यजमानों के हाथ में शुद्ध स्वर्णिम सूत्र बांधते हुए शुभ कामनाएँ करते थे।’’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी परम वंदनीय भगवा ध्वज को रक्षा-सूत्र बांध कर संकल्प करते हैं कि इस ध्वज की रक्षा का भार हम पर है। जिस समाज, राष्ट्र व संस्कृति का यह पवित्र ध्वज प्रतीक है, हम उसकी रक्षा करेंगे। यह समाज का परस्परावलंबी व अन्योन्याश्रित न्याय का पर्व है। आज के दिन सभी स्वयंसेवक एक-दूसरे को व बस्तियों में जाकर लोगों को राखी बांधते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प करते हैं।

5. विजयादशमी - आश्विन शुक्ल दशमी को यह दिन मनाया जाता है। यह दिन भी स्वयंसेवक के लिए बहुत महत्व का है। क्योंकि आज के ही दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की गई थी। यह दिन शक्ति की उपासना के लिए भी मनाया जाता है। आज के दिन राम ने सामान्य लोगों को संगठित कर, अत्याचारी व साधन सम्पन्न रावण पर विजय प्राप्त की। विजय की आकांक्षा को जगाना ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य है। स्वयंसेवकों के गणवेश में कार्यक्रम व पथ संचलन भी किया जाता है। इसके माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शक्ति तथा अनुशासन का प्रदर्शन होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भी संगठित होकर इस देश की समस्याओं को हल करेंगे।

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6. मकर संक्रान्ति - यह उत्सव चन्द्र मास गणना के अनुसार लेकिन यह उत्सव सौर मास गणना के अनुसार माघ 1 सौर मास सामान्यतः 14 जनवरी को होता है। इसी दिन सूर्य मकर राशि में संक्रमण कर दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करता है, जिसके कारण दिन बड़े होने शुरू हो जाते हैं। एक सकारात्मक परिवर्तन होता है। इस दिन खिचड़ी बनाई जाती है, जिसमें सामूहिक दालों का मेल होता है। उसी तरह हमारे समाज में भी भिन्नता होते हुए एकता है उसी का भाव जगाना है। गुड़, तिल का मिश्रण भी बनाया जाता है, जिससे गुड़ में सबको चिपकाने की शक्ति यानी समाहित की उसी तरह हमें भी सभी को एक साथ लेकर चलना है। तिल की तरह स्नेह दिखाना। यह उत्सव हमें समाज में समरसता व समाज में सशक्तिकरण की भावना को बढ़ाता है।

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इस प्रकार उत्सव के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में कार्यक्रमों की व्यवस्था बनी रहती है। जिससे लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ते हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य को अपना ध्येय मानकर करते हैं। वह हिन्दू संस्कृति की रक्षा करते हैं।



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श्री शुकदेवजी की शंकाओं का विदेहराज जनक द्वारा समाधान



हे महाराज! मैं उन्ही के आदेश से आपकी पुरी में आया हूँ। हे राजेन्द्र! हे अनघ! मैं मोक्ष का अभिलाषी हूँ, अतः जो कार्य मेरे लिये उचित हो, वह बताइये।

हे राजेन्द्र! तप, तीर्थ, व्रत, यज्ञ, स्वाध्याय, तीर्थसेवन और ज्ञान-इनमें से जो मोक्ष का साक्षात् साधन हो, वह मुझे बताइये।

जनक जी बोले-मोक्षमार्गावलम्बी विप्र को जो करना चाहिये, उसे सुनिये। उपनयन संस्कार के बाद सर्वप्रथम वेदशास्त्र का अध्ययन करने हेतु गुरू के सांनिध्य में रहना चाहिए। वहाँ वेद-वेदान्तों का अध्ययन करके दीक्षान्त, गुरूदक्षिणा देकर वापस लौटे विप्र को विवाह करके पत्नी के साथ गृहस्थी में रहना चाहिये। {गृहस्थाश्रम में रहते हुए} न्यायोपार्जित धन से सर्वदा सन्तुष्ट रहे और किसी से कोई आशा न रखे। पापों से मुक्त होकर अग्निहोत्र आदि कर्म करते हुए सत्यवचन बोले और मन, वचन, कर्म से सदा पवित्र रहे। पुत्र-पौत्र हो जाने पर {समयानुसार} वानप्रस्थ-आश्रम में रहे। वहाँ तपश्चर्याद्वारा काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य-इन छहों शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके अपनी स्त्री रक्षा का भार पुत्र को सौंप देने के पश्चात्, वह धर्मात्मा सब अग्नियों का अपने में न्यायपूर्वक आधान कर ले और सांसारिक विषयों के भोग से शान्ति मिल जाने के बाद हृदय में विशुद्ध वैराग्य उत्पन्न होने पर चैथे आश्रम का आश्रय ले ले। विरक्त को ही संन्यास लेने का अधिकार है, अन्य किसी को नहीं- यह वेदवाक्य सर्वथा सत्य है, असत्य नहीं-ऐसा मेरा मानना है।

Muni Shukdev and Janak

हे शुकदेवजी! वेदों में कुल अड़तालीस संस्कार कहे गये हैं। उनमें गृहस्थ के लिये चालीस संस्कार महात्माओं ने बताये हैं। मुमुक्षु के लिये शम, दम आदि आठ संस्कार कहे गये हैं। एक आश्रम से ही क्रमशः दूसरे आश्रम में जाना चाहिये, ऐसा शिष्टजनों का आदेश है।

शुकदेवजी-चित्त में वैराग्य और ज्ञान-विज्ञान उत्पन्न हो जाने पर अवश्य ही गृहस्थादि आश्रमों में रहना चाहिये अथवा वनों में।

जनकजी-हे मानद! इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् होती हैं, वे वश में नही रहतीं। वे अपरिपक्व बुद्धिवाले मनुष्य के मन में नाना प्रकार के विकार उत्पन्न कर देती है।

यदि मनुष्य के मन में भोजन, शयन, सुख और पुत्र की इच्छा बनी रहे तो वह सन्यासी होकर भी इन विकारांे के उपस्थित होने पर क्या कर पायेगा।

वसनाओं का जाल बड़ा ही कठिन होता है, वह शीघ्र नही मिटता। इसलिये उसकी शान्ति के लिये मनुष्य को क्रम से उसका त्याग करना चाहिये।

ऊँचे स्थान पर सोने वाला मनुष्य ही नीचे गिरता है, नीचे सोनेवाला कभी नही गिरता। यदि सन्यास-ग्रहण कर लेने पर भ्रष्ट हो जाय तो पुनः वह कोई दूसरा मार्ग नही प्राप्त कर सकता।

जिस प्रकार चींटी वृक्ष की जड़ से चढ़कर शाखा पर चढ़ जाती है और वहाँ से फिर धीरे-धीरे सुखपूर्वक पैरों से चलकर फलतक पहुँच जाती है। विघ्न-शंका के भय से कोई पक्षी बड़ी तीव्र गति से आसमान में उड़ता है और परिणामतः थक जाता है, किंतु चींटी सुखपूर्वक विश्राम ले-लेकर अपने अभीष्ट स्थानपर पहुँच जाती है।

मन अत्यन्त प्रबल है; यह अजितेन्द्रिय पुरूषों के द्वारा सर्वथा अजेय है। इसलिये आश्रमों के अनुक्रम से ही इसे क्रमशः जीतने का प्रयत्न करना चाहिये।

गृहस्थ-आश्रम में रहते हुए भी जो शान्त, बुद्धिमान् एवं आत्मज्ञानी होता है, वह न तो प्रसन्न होता है और न खेद करता है। वह हानि-लाभ में समान भाव रखता है।

जो पुरूष शास्त्र प्रतिपादित कर्म करता हुआ, सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त रहता हुआ आत्मचिन्तन से सन्तुष्ट रहता है; वह निःसन्देह मुक्त हो जाता है।

हे अनघ! देखिये, मैं राजकार्य करता हुआ भी जीवन मुक्त हूँ मैं अपने इच्छानुसार सब काम करता हूँ, किन्तु मुझे शोक या हर्ष कुछ भी नही होता।

जिस प्रकार मैं अनेक भोगों को भोगता हुआ तथा अनेक कार्यो को करता हुआ भी अनासक्त हूँ, उसी प्रकार हे अनघ! आप भी मुक्त हो जाइये।

ऐसा कहा भी जाता है कि जो यह दृश्य जगत् दिखायी देता है, उसके द्वारा अदृश्य आत्मा कैसे बन्धन में आ सकता है? पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश-ये पंचमहाभूत और गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द-ये उनके गुण दृश्य कहलाते हैं।

आत्मा अनुमानगम्य है और कभी भी प्रत्यक्ष नहीं होता। ऐसी स्थिति में है ब्रह्मन्! वह निरंजन एवं निर्विकार आत्मा भला बन्धन में कैसे पड़ सकता है? हे द्विज! मन ही महान् सुख-दुःख का कारण है, इसी के निर्मल होने पर सब कुछ निर्मल हो जाता है।

सभी तीर्थों में घूमते हुए वहाँ बार-बार स्नान करके भी यदि मन निर्मल नही हुआ तो वह सब व्यर्थ हो जाता है। हे परन्तप! बन्धन तथा मोक्ष का कारण न यह देह है, न जीवात्मा है और न ये इन्द्रियाँ ही हैं, अपितु मन ही मनुष्यों के बन्धन एवं मुक्ति का कारण है।

आत्मा तो सदा ही शुद्ध तथा मुक्त है, वह कभी बँधता नही है। अतः बन्धन और मोक्ष तो मन के भीतर हैं, मन की शान्ति से ही शान्ति है।

शत्रुता, मित्रता या उदासीनता के सभी भेदभाव भी मनमें ही रहते हैं। इसलिये एकात्मभाव होने पर यह भेदभाव नहीं रहता; यह तो द्वैतभाव से ही उत्पन्न होता है।

’मैं जीव सदा ही ब्रह्म हूँ-इस विषय में और विचार करने की आवश्यकता ही नही है। भेदबुद्धि तो संसार में आसक्त रहने पर ही होती है।

हे महाभाग! बन्धन का मुख्य कारण अविद्या ही है। इस अविद्या को दूर करने वाली विद्या है। इसलिये ज्ञानी पुरूषों को चाहिये कि वे सदा विद्या तथा अविद्या का अनुसन्धान पूर्वक अनुशीलन किया करें।

जिस प्रकार धूप के बिना छाया के सुख का अनुभव नही होता, उसी प्रकार अविद्या के बिना विद्या का अनुभव नही किया जा सकता।

गुणों में गुण, पंचभूतों में पंचभूत तथा इन्द्रियों के विषय में इन्द्रियाँ स्वयं रमण करती हैं; इसमें आत्मा का क्या दोष है।

हे पवित्रात्मन्! सबकी सुरक्षा के लिये वेदों में सब प्रकार से मर्यादा की व्यवस्था की गयी है। यदि ऐसा न होता तो नास्तिकों की भाँति सब धर्मों का नाश हो जाता। धर्म के नष्ट हो जाने पर सब नष्ट हो जायेगा और सब वर्णों की आचार-परम्परा का उल्लंघन हो जायेगा। इसलिये वेदोपदिष्ट मार्ग पर चलने वालों का कल्याण होता है।

शुकदेवजी-हे राजन्! आपने जो बात कही उसे सुनकर भी मेरा सन्देह बना हुआ है; वह किसी प्रकार भी दूर नही होता।

हे भूपते! वेदधर्मों में हिंसा का बाहुल्य है, उस हिंसा में अनेक प्रकार के अधर्म होते हैं। {ऐसी दशा में} वेदोक्त धर्म मुक्तिप्रद कैसे हो सकता है? हे राजन्! सोमरस-पान, पशुहिंसा और मांस-भक्षण तो स्पष्ट ही अनाचार है। सौत्रामणियज्ञ में तो प्रत्यक्षरूप से सुराग्रहण का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार द्यूतक्रीड़ा एवं अन्य अनेक प्रकार के व्रत बताये गये है।

सुना जाता है कि प्राचीन काल में शशबिन्दु नाम के एक श्रेष्ठ राजा थे। वे बड़े धर्मात्मा, यज्ञपरायण, उदार एवं सत्यवादी थे। वे धर्मरूपी सेतु के रक्षक तथा कुमार्गगामी जनों के नियन्ता थे। उन्होने पुष्कल दक्षिणवाले अनेक यज्ञ सम्पादित किये थे।

{उन यज्ञों में} पशुओं के चर्म से विन्ध्यपर्वत के समान ऊँचा पर्वत-सा बन गया। मेघों के जल बरसाने से चर्मण्वती नाम की शुभ नदी बह चली।

वे राजा भी दिवंगत हो गये, किन्तु उनकी कीर्ति भूमण्डल पर अचल हो गयी। जब इस प्रकार के धर्मों का वर्णन वेद में है, तब हे राजन्! मेरी श्रद्धाबुद्धि उनमें नहीं है।

स्त्री में साथ भोग में पुरूष सुख प्राप्त करता है और उसके न मिलने पर वह बहुत दुःखी होता है तो ऐसी दशा में भला वह जीवन्मुक्त कैसे हो सकेगा?

जनकजी-यज्ञों में जो हिंसा दिखायी देती है, वह वास्तव में अहिंसा ही कही गयी है; क्योंकि जो हिंसा उपाधियोग से होती है वही हिंसा कहलाती है, अन्यथा नहीं-ऐसा शास्त्रों का निर्णय है।

जिस प्रकार {गीली} लकड़ी के संयोग से अग्नि से धुआँ निकलता है, उसके अभाव में उस अग्नि में धुआँ नही दिखायी देता, उसी प्रकार हे मुनिवर! वेदोक्त हिंसा को भी आप अहिंसा की समझिये। रागीजनों द्वारा की गयी हिंसा ही हिंसा है, किंतु अनासक्त जनों के लिये वह हिंसा नही कही गयी है।

जो कर्म राग, तथा अंहकार से रहित होकर किया जाता हो, उस कर्म को वैदिक विद्वान, मनीषीजन न किये हुए के समान ही कहते हैं।

हे द्विजश्रेष्ठ! रागी गृहस्थों के द्वारा यज्ञ में जो हिंसा होती है; वही हिंसा है। हे महाभाग! जो कर्म रागरहित तथा अहंकार शून्य होकर किया जाता है, वह जितात्मा मुमुक्षुजनों के लिये अहिंसा ही है।



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राष्ट्रवाद मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है- महर्षि अरविन्द घोष




जीवन जीवन है, चाहे वह एक बिल्ली का हो, एक कुत्ते का या मनुष्य का। एक बिल्ली या एक आदमी में कोई अंतर नही है। अंतर का यह विचार दरअसल मनुष्य के स्वयं के लाभ के लिए एक मानवीय अवधारणा है। व्यक्तियों में सर्वथा नवीन चेतना का संचार करो, उनके अस्तित्व के समग्र रूप को बदलो, जिससे पृथ्वी पर नए जीवन का समारंभ हो सके। जिस व्यक्ति में त्याग की मात्रा जितने अंश में हो, वह व्यक्ति उतने ही अंश में पशुत्व से ऊपर है। गुण कोई किसी को सिखा नही सकता। दूसरों के गुण लेने या सीखने की भूख जब मन में जागती है, तब गुण आने आप सीख लिए जाते हैं। यदि तुम किसी का चरित्र जानना चाहते हो, उसके महान कार्य न देखो, उसके जीवन के साधारण कार्यो का सूक्ष्म निरीक्षण करो। जहां तक भारत का बात है, तो यद्यपि वह भौतिक समृद्धि से हीन है, लेकिन उसके जर्जर शरीर में आध्यात्मिकता का तेज वास करता है। जैसे सारा संसार बदल रहा है, वैसे ही अब भारत को भी बदलना चाहिए। युगो का भारत मृत नही हुआ है और न उसने अपना अंतिम सृजनात्मक संवाद उच्चारित ही किया है। वह जीवित है और उसे अब भी स्वयं अपने लिए और मानवता के लिए बहुत कुछ करना है। इसका जाग्रत होना अब आवश्यक है।

यह देश यदि पश्चिम की शक्तियों को ग्रहण करे और अपनी शक्तियों का भी विनाश नही होने दें, तो उसके भीतर से जिस संस्कृति का उदय होगा, वह अखिल विश्व के लिए कल्याणकारिणी होगी। वास्तव में वही संस्कृति विश्व की अगली संस्कृति बनेगी। राष्ट्रवाद ऐस धर्म है, जिसे तुम्हें अपने जीवन का आधार बनाना होगा। वह ईवरीय शक्ति का प्रतीक है। राष्ट्र अमर है, वह मर नही सकता, क्योकिं यह कोई भौतिक वस्तु नही है, बल्कि ईश्वरीय देन है, युग की आवश्यकता है। राष्ट्रवाद देशवासियों को एकता का संदेश देता है। यह हो सकता है कि उसके कार्य भिन्न-भिन्न हों, किन्तु मूलतः वे एक हैं। वास्तव में सच्चा और आदर्श राष्ट्रवाद वह है, जो मनुष्य-मनुष्य में, जाति-जाति में, वर्ग-वर्ग में कोई भेदभाव न रखता हो, वहां समानता ही समानता हो। राष्ट्रवाद मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है, न कि तोड़ता है। मानव, चाहे वह जिस देश, जाति या धर्म का हो, एक दूसरे का बंधु है। विश्व बंधुत्व की भावना का विकास केवल हिंदू राष्ट्रवाद में ही संभव है। राष्ट्रवाद एकता के स्वर का संवाहक है, संपूर्ण विश्व को एकत्व में बांधने का पक्षधर है।

प्रभु जिसे मुक्ति देना चाहते हैं, उसे ही राष्ट्र की भक्ति की ओर उन्मुख करते हैं। राष्ट्र की भक्ति जन-जन की आराधना है, पूजा है, वंदना है। व्यक्ति की पूजा ही तो ईश्वर की पूजा है। मनुष्य की पूजा करना भगवान की पूजा करना है। भगवान की व्याप्ति कण-कण में है, इसलिए हमें भगवान की पूजा करने के लिए मानव की पूजा करनी चाहिए। स्वदेशी वस्तुओं से ही हमारा कल्याण होगा, विदेशी से नही। हमें स्वदेश में निर्मित वस्तुओं को स्वीकार करना चाहिए, भले ही वह गुणवत्ता में विदेशी वस्तु के सामने लचर पड़ती हो। जब हम स्वदेशी की मूल भावना को आत्मसात करेंगे, तो हममें आत्मविश्वास, आत्मनिष्ठा, आत्मगौरव और आत्मश्रेष्ठता की भावनाएं आ जाऐंगी। आत्मगौरव का भाव ही अध्यात्म शिखर की ओर ले जाता है, जिससे व्यक्ति और राष्ट्र, दोनो का कल्याण होता है।


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