संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा



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प्रस्तावना
चूंकि मानव परिवारों के सभी सदस्यों के जन्मजात गौरव और समान तथा अविच्छिन्न अधिकार की स्वीकृति ही विश्व-शांति, न्याय और स्वतंत्रता की बुनियाद है, चूंकि मानवाधिकारों के प्रति उपेक्षा और घृणा के फलस्वरूप ऐसे बर्बर कार्य हुए जिनसे मनुष्य की आत्मा पर अत्याचार किया गया, चूंकि एक ऐसी विश्व-व्यवस्था की उस स्थापना को (जिसमें लोगों को भाषण और धर्म की आजादी तथा भय और अभाव से मुक्ति मिलेगी) सर्वसाधारण के लिए सर्वोच्च आकांक्षा घोषित किया गया है, चूंकि अगर न्याययुक्त शासन और जुल्म के विरुद्ध लोगों को विद्रोह करने के लिए-उसे ही अन्तिम उपाय समझकर-मजबूर नहीं हो जाना है, तो कानून द्वारा नियम बनाकर मानवाधिकारों की रक्षा करना अनिवार्य है, चूंकि राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों की स्थापना को बढ़ावा देने के लिए यह आवश्यक है। चूंकि संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों की जनता के बुनियादी मानवाधिकारों में, मानव व्यक्तित्व के गौरव और योग्यता में और नर-नारियों के समान अधिकारों में अपने विश्वास को अधिकार-पत्र में दुहराया है और यह निश्चय किया है कि अधिक व्यापक स्वतंत्रता के अन्तर्गत सामाजिक प्रगति एवं जीवन के बेहतर स्तर को ऊँचा किया जाए, चूंकि सदस्य देशों ने यह प्रतिज्ञा की है कि वे संयुक्त राष्ट्र के सहयोग से मानवाधिकारों और बुनियादी आज़ादियों के प्रति सार्वभौम सम्मान की वृद्धि करेंगे, चूंकि इस प्रतिज्ञा को पूरी तरह से निभाने के लिए इन अधिकारों और आज़ादियों का स्वरूप ठीक-ठीक समझना सबसे अधिक जरूरी है। इसलिए, अब, महासभा घोषित करती है कि मानवाधिकारों की यह सार्वभौम घोषणा सभी देशों और सभी लोगों की समान सफलता है। इसका उद्देश्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति और समाज का प्रत्येक भाग इस घोषणा को लगातार दृष्टि में रखते हुए अध्यापन और शिक्षा के द्वारा यह प्रयत्न करेगा कि इन अधिकारों और आजादियों के प्रति सम्मान की भावना जाग्रत हो, और उपरोक्त ऐसे राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय उपाय किए जाएं जिनसे सदस्य देशों की जनता तथा उनके द्वारा अधिकृत प्रदेशों की जनता इन अधिकारों की सार्वभौम और प्रभावोत्पादक स्वीकृति दे और उनका पालन कराए।

अनुच्छेद 1
  • सभी मनुष्यों को गौरव और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतंत्रता और समानता प्राप्त है। उन्हें बुद्धि और अन्तरात्मा की देन प्राप्त है और परस्पर उन्हें भाईचारे के भाव से बर्ताव करना चाहिए।
अनुच्छेद 2
  • सभी को इस घोषणा में सन्निहित सभी अधिकारों और आज़ादियों को प्राप्त करने का हक है और इस मामले में जाति, वर्ण , लिंग, धर्म, राजनीति या अन्य विचार-प्रणाली, किसी देश या समाज विशेष में जन्म, संपत्ति या किसी प्रकार की अन्य मर्यादा आदि के कारण भेदभाव का विचार नहीं किया जाएगा। इसके अतिरिक्त, चाहे कोई देश या राज्य क्षेत्र स्वतंत्र हो, संरक्षित हो, या स्वशासन रहित हो या किसी अन्य प्रकार की सीमित संप्रभुता वाला हो, उस देश या राज्य क्षेत्र की राजनीतिक, क्षेत्राधिकार या अंतर्राष्ट्रीय स्थिति के आधार पर वहाँ के निवासियों के प्रति फर्क नहीं रखा जाएगा।
अनुच्छेद 3
  • प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वाधीनता और वैयक्तिक सुरक्षा का अधिकार है।
अनुच्छेद 4
  • कोई भी दासता की हालत में नहीं रखा जाएगा, दास -प्रथा और गुलामों का व्यापार अपने सभी रूपों में निषिद्ध होगा।
अनुच्छेद 5
  • किसी को भी शारीरिक यातना नहीं दी जाएगी और न किसी के भी प्रति निर्दय, अमानुषिक या अपमानजनक व्यवहार होगा।
अनुच्छेद 6
  • हर किसी को हर जगह कानून की निगाह में व्यक्ति के रूप में स्वीकृति-प्राप्ति का अधिकार है।
अनुच्छेद 7
  • कानून की निगाह में सभी बराबर हैं और उन्हें किसी भी भेदभाव के बिना कानून की सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है। इस घोषणा का अतिक्रमण करके कोई भी भेदभाव किया जाए इस प्रकार के भेद-भाव को किसी प्रकार से उकसाया जाये, तो उसके विरूद्ध समान संरक्षण का अधिकार भी सभी को प्राप्त है।
अनुच्छेद 8
  • सभी को संविधान या कानून द्वारा प्राप्त बुनियादी अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले कार्यों के विरुद्ध उपयुक्त समुचित राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल की कारगर सहायता पाने का अधिकार है।
अनुच्छेद 9
  • किसी को भी मनमाने ढंग से गिरफ्तार, नजरबंद या देश से निष्कासित नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद 10
  • सभी को पूर्णतः समान रूप से हक है कि उनके अधिकारों और दायित्वों के निश्चय करने के मामले में और उन पर आरोपित फौजदारी के किसी मामले में उनकी सुनवाई न्यायोचित और सार्वजनिक रूप से निरपेक्ष एवं निष्पक्ष अदालत द्वारा हो।
अनुच्छेद 11
  • प्रत्येक व्यक्ति, जिस पर दण्डनीय अपराध का आरोप लगाया गया हो, तब तक निर्दोष माना जाएगा, जब तक उसे ऐसी खुली अदालत में, जहाँ उसे अपनी सफाई की सभी आवश्यक सुविधाएं प्राप्त हों, कानून के अनुसार अपराधी न सिद्ध कर दिया जाए।
  • कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे दण्डनीय अपराध का अपराधी नहीं माना जायेगा जो उसने उस समय किया है जिस समय वह कृत्य किसी राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत दंडनीय अपराध नहीं माना जाता था और इसके लिए कोई उससे अधिक भारी दंड नहीं दिया जायेगा जो उस समय दिया जाता जब यह अपराध किया गया था।
अनुच्छेद 12
  • किसी व्यक्ति की निजता (या प्राइबेसी), परिवार, घर या पत्र व्यवहार के प्रति कोई मनमाना हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा, और न किसी के सम्मान और ख्याति पर कोई आक्षेप किया जायेगा। ऐसे हस्तक्षेप या अक्षेपों के विरुद्ध प्रत्येक को कानूनी रक्षा का अधिकार प्राप्त है।
अनुच्छेद 13
  • हर व्यक्ति को अपने देश की सीमाओं के अंदर स्वतन्त्रतापूर्वक आने, जाने और बसने का अधिकार है।
  • प्रत्येक व्यक्ति को अपने या पराये किसी भी देश को छोड़ने और अपने देश को वापस आने का अधिकार है।
अनुच्छेद 14
  • प्रत्येक व्यक्ति को सताये जाने पर दूसरे देशों में शरण लेने और रहने का अधिकार है।
  • इस अधिकार का लाभ ऐसे मामलों में नहीं मिलेगा जो वास्तव में गैर राजनीतिक अपराधों से सम्बन्धित हैं, या जो संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों और सिद्धांतों के विरुद्ध कार्य हैं।
अनुच्छेद 15
  • प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्रीयता नागरिकता का अधिकार है।
  • किसी को भी मनमाने ढंग से अपनी राष्ट्रीयता से वंचित नहीं किया जा सकता और न उसे अपनी राष्ट्रीयता बदलने से रोका जा सकता है।
अनुच्छेद 16
  • बालिग स्त्री-पुरुषों को बिना, राष्ट्रीयता या धर्म के प्रतिबंधों के बिना आपस में विवाह करने और परिवार बनाने का अधिकार हैं। उन्हें विवाह के विषय में, वैवाहिक जीवन के दौरान, तथा विवाह-विच्छेद के बारे में समान अधिकार हैं।
  • विवाह के इरादे वाले स्त्री-पुरुषों की पूर्ण और स्वतंत्र सहमति पर ही विवाह हो सकेगा।
  • परिवार समाज की स्वाभाविक और बुनियादी सामाजिक इकाई है और उसे समाज तथा राज्य द्वारा संरक्षण पाने का अधिकार है।
अनुच्छेद 17
  • प्रत्येक व्यक्ति को अकेले और दूसरों के साथ मिलकर संपत्ति रखने का अधिकार है।
  • किसी को भी मनमाने ढंग से अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद 18
  • प्रत्येक व्यक्ति को विचार, विवेक और धर्म की आजादी का अधिकार है; इस अधिकार के अन्तर्गत उसे अपना धर्म या आस्था बदलने और अकेले या दूसरों के साथ मिलकर तथा सार्वजनिक रूप से अथवा निजी तौर पर अपने धर्म या आस्था का प्रचार करने, उसके आधार पर आचरण करने, उसके अनुसार व्यवहार करने और उसे निजी अथवा सार्वजनिक तौर पर प्रकट करने का अधिकार है।

अनुच्छेद 19
  • प्रत्येक व्यक्ति को विचार और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है; इसके अन्तर्गत बिना हस्तक्षेप के कोई राय रखना और किसी भी माध्यम से तथा सीमाओं की परवाह न करके किसी भी सूचना को प्राप्त करने और विचारों को ग्रहण करने का अधिकार शामिल है।

अनुच्छेद 20
  • प्रत्येक व्यक्ति को शांतिपूर्ण तरीके से सभा करने या संघ में शामिल होने की स्वतंत्रता का अधिकार है।
  • किसी को भी किसी संस्था विशेष का सदस्य बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
अनुच्छेद 21
  • प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश के शासन में प्रत्यक्ष रूप से या स्वतंत्र रूप से चुने गये प्रतिनिधियों के जरिए भाग लेने का अधिकार है।
  • प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश की सरकारी नौकरियों को प्राप्त करने का अधिकार है।
  • सरकार की सत्ता का आधार जनता की इच्छा होगी; इस इच्छा का प्रकटन समय-समय पर और वास्तविक चुनावों द्वारा होगा। ये चुनाव सार्वभौम और समान मताधिकार द्वारा होंगे और गुप्त मतदान द्वारा या किसी अन्य समान स्वतंत्र मतदान द्वारा या किसी अन्य समान स्वतंत्र मतदान पद्धति से कराये जायेंगे।
अनुच्छेद 22
  • समाज के एक सदस्य के रूप में प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा का अधिकार है और प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के उस स्वतंत्र विकास तथा गौरव के लिए जो राष्ट्रीय प्रयत्न या अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तथा प्रत्येक राज्य के संगठन एवं साधनों के अनुकूल हो अनिवार्यतः आवश्यक आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की प्राप्ति का हक है।

अनुच्छेद 23
  • प्रत्येक व्यक्ति को काम करने, इच्छा अनुसार रोजगार का चुनाव करने, काम की उचित व सुविधाजनक परिस्थितियों को प्राप्त करने और बेकारी से संरक्षण पाने का अधिकार है।
  • प्रत्येक व्यक्ति को समान कार्य के लिए बिना किसी भेदभाव के समान मजदूरी पाने का अधिकार है।
  • प्रत्येक व्यक्ति को जो काम करता है, अधिकार है कि वह इतनी उचित और अनुकूल मजदूरी पाए, जिससे वह अपने और अपने परिवार की ऐसी आजीविका का प्रबंध कर सके, जो मानवीय गौरव के योग्य हो तथा आवश्यकता होने पर उसकी पूर्ति अन्य प्रकार के सामाजिक संरक्षणों द्वारा हो सके।
  • प्रत्येक व्यक्ति का अपने हितों की रक्षा के लिए श्रमजीवी संघ बनाने और उनमें भाग लेने का अधिकार है।
अनुच्छेद 24
  • प्रत्येक व्यक्ति को काम के घंटों की उचित सीमा और सवेतन नियतकालिक अवकास सहित छुट्टी पाने और विश्राम करने का अधिकार है।

अनुच्छेद 25
  • प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे जीवन स्तर को प्राप्त करने का अधिकार है जो उसे और उसके परिवार के स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिए पर्याप्त हो। इसके अन्तर्गत खाना, कपड़ा, मकान, चिकित्सा संबंधी सुविधाएं और आवश्यक सामाजिक सेवाएं सम्मिलित हैं। वैधव्य, बुढ़ापे या अन्य किसी ऐसी परिस्थिति में आजीविका का साधन न होने पर जो उसके काबू के बाहर हो, सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है।
  • जच्चा और बच्चा को खास सहायता और सुविधा का हक है। प्रत्येक बच्चे को चाहे वह विवाहित माता से जन्मा हो या अविवाहित से, समान सामाजिक संरक्षण प्राप्त होगा।
अनुच्छेद 26
  • प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा का अधिकार है। शिक्षा कम से कम प्रारम्भिक और बुनियादी अवस्थाओं में निःशुल्क होगी। प्रारम्भिक शिक्षा अनिवार्य होगी। टेक्निकल, यांत्रिक और पेशे संबंधी शिक्षा साधारण रूप से प्राप्त होगी और उच्चतर शिक्षा सभी को योग्यता के आधार पर समान रूप से उपलब्ध होगी।
  • शिक्षा का उद्देश्य होगा मानव व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना और मानव अधिकारों तथा बुनियादी स्वतन्त्रताओं के प्रति सम्मान की पुष्टि। शिक्षा द्वारा राष्ट्रों, जातियों अथवा धार्मिक समूहों के बीच और आपसी सद्भावना, सहिष्णुता और स्त्री का विकास होगा और शांति बनाए रखने के लिए राष्ट्रों के प्रयत्नों को आगे बढ़ाया जाएगा।
  • माता-पिता को सबसे पहले इस बात का अधिकार है कि वे चुनाव कर सकें कि किस किस्म की शिक्षा उनके बच्चों को दी जाएगी।
अनुच्छेद 27
  • प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रतापूर्वक समाज के सांस्कृतिक जीवन में हिस्सा लेने, कलाओं का आनन्द लेने, तथा वैज्ञानिक उन्नति और उसकी सुविधाओं में भाग लेने का हक है।
  • प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी ऐसी वैज्ञानिक, साहित्यिक या कलात्मक कृति से उत्पन्न नैतिक और आर्थिक हितों की रक्षा का अधिकार है जिसका रचयिता वह स्वयं हो।
अनुच्छेद 28
  • प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की प्राप्ति का अधिकार है जिसमें इस घोषणा में उल्लिखित अधिकारों और स्वतन्त्रताओं को पूर्णतः प्राप्त किया जा सके।
अनुच्छेद 29
  • प्रत्येक व्यक्ति का उस समाज के प्रति दायित्व है जिसमें उसके व्यक्तित्व का स्वतंत्रता और विकास संभव हो सकता है।
  • अपने अधिकारों और स्वतन्त्रताओं का उपयोग करते हुए व्यक्ति केवल ऐसी ही सीमाओं से बंधा हुआ होगा, जो कानून द्वारा निश्चित की जाएगी और जिनका एकमात्र उद्देश्य दूसरों के अधिकारों और स्वतन्त्रताओं के लिए आदर और समुचित स्वीकृति की प्राप्ति होगा तथा जिनकी आवश्यकता एक प्रजातंत्रात्मक समाज में नैतिकता, सार्वजनिक व्यवस्था और सामान्य कल्याण की उचित आवश्यकताओं को पूरा करना होगा।
  • इन अधिकारों और स्वतन्त्रताओं का उपयोग किसी प्रकार से भी संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों और उद्देश्यों के विरुद्ध नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद 30
  • इस घोषणा में उल्लेखित किसी भी बात का यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए जिससे यह प्रतीत हो कि किसी भी राज्य, समूह या व्यक्ति का किसी ऐसे प्रयत्न में संलग्न होने या ऐसा करने का अधिकार है, जिसका उद्देश्य यहां बताए गए अधिकारों और स्वतन्त्रताओं में से किसी का भी विनाश करना हो।
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औषधीय गुणों से युक्त अदरक



अदरक  आग और पानी का संगम है। नमीदार रहने तक यह अदरक कहलाता है और सूखने-सुखाने के बाद यही अदरक सौंठ बन जाता है। प्रकृृति का यह विचित्र करिश्मा ही कहिए कि इसका रस चाहे जल तत्व वाला है, मगर इसी जल में आग भी भरी हुई है। रूखापन अदरक का विशेष गुण है। यह भी इसकी एक खासियत ही कहिए कि रूखा होने पर भी यह सभी वर्गों का हितैषी है। महर्षि चरक ने तो सौंठ को बलवर्द्धक माना है। इसका प्रयोग हमारे परिवारों में कई बीमारियों के इलाज के लिए भी किया जाता है।
लोगों में अधिकांश दिक्कत भूख न लग्न, खाना न पचना, पेट में वायु बनना, कब्ज आदि पाचन संबंधित तकलीफे है और पेट से ही अधिकांश रोग उत्पन्न होते है।  अदरक पेट की अनेक तकलीफों में रामबाण औषधि है। शरीर में जब कच्चा रस (आम) बढ़ता है या लम्बे समय तक रहता है तब अनेक रोग उत्पन्न होते है।  अदरक का रस आमाशय के छिद्रों में जमे कच्चे रस एव  कफ को यथा बड़ी आँतों में जमे आंव को पिंघलाकर बाहर निकल देता है तथा छिद्रों को स्वच्छ कर देता है।  इस वजह से जठराग्नि प्रदीप्त हो जाती है और पाचन तंत्र स्वस्थ बनता है।  यह लार एव आमाशय का रस दोनों की उत्पत्ति बढ़ता है , जिससे की वजह से  भोजन का पाचन बढ़िया होता है एवं अरुचि दूर होती है।
कुछ नुस्खे प्रस्तुत हैं। ऐसी छोटी-बड़ी परेशानियां जब भी आपके सामने आएं इस सस्ती सी गांठ से राहत पाइए-
  • कान दर्द हो रहा हो, तो इसकी गांठ कुचल कर रस को गरम करके तीन चार बूंदें कान में टपका लें।
  • कफ जमने या किसी वजह से गला दुखने पर अदरक का रस 10 ग्राम लेकर उतनी ही मात्रा में शहद मिलाकर चाट जाएं। गले के रोगों में यह नुस्स्खा बहुत सस्ता और निरापद है।
  • छपाकी, शीत पित्ती अथवा पित्ती उछलना शरीर में पित्त के बढने से होता है। बचाव के लिए अदरक का रस शहद से चटाइए। शहद नहीं मिले तो पुराने गुड में मिलाकर भी दिया जा सकता है।
  • सर्दी की वजह से छाती में कफ जम जाने या किसी अन्य कारण से सर दर्द होता रहता है तो सौंठ या अदरक, काली मिर्च, पीपल, बायबिडंग, सैंधा नमक 10-10 ग्राम, अजवायन 20 ग्राम, काला नमक 40 ग्राम, राई 10 ग्राम का चूर्ण एक चम्मच पानी के साथ दिन में दो बार फंकवाना चाहिए।
  • पेट दर्द हो रहा हो तो अदरक का रस 5 ग्राम और उतना ही दूध मिलाकर पिलाएं। अजवायन में अदरक का रस मिलाकर लेना भी गुणकारी है।
  • पेट में गड-गड हो तो सौंठ या अदरक, हीरा हींग, काला नमक, सैंधा नमक, मीठा सोडा चुटकी भर, काली मिर्च, काला जीरा सबको 3-3 ग्राम की मात्रा में लेकर इनका चूर्ण बना लें। परेशानी के दौर में गरम पानी में थोड़ी सी मात्रा में चूर्ण की फांकी ले लीजिए, पेट ठीक हो जायेगा।
  • घुटनों में दर्द होता रहता है तो अदरक का रस या सौंठ का चूर्ण, काली मिर्च, बायविंडग तथा सैंधा नमक का चूर्ण बनाकर रख लें। इस चूर्ण की 3-3 ग्राम की मात्रा शहद में मिलाकर चाटते रहना चाहिए।
  • ठीक से नींद नहीं आ पाती हो तो सौंठ के 2 ग्राम चूर्ण में 8 ग्राम पीपलामूल को गुड़ में पीसकर खाएं। इसके बाद दूध पीना चाहिए। 3-4 दिन में ही रूठी नींद मानती नजर आएगी, आप मीठी नींद ले सकेंगे। कुछ दिन लगातार लेते रहें।
  • बच्चे को हिचकी आती हो तो काली मिर्च, अदरक का रस और नींबू का रस घोलकर चटाना चाहिए।
  • इंफ्लूएन्जा (फ्लू) होने पर अदरक की गाँठ व तुलसी के पत्ते पीसकर गरम पानी में उबाल कर पिलाएं।
  • कुंभ कमला हो गया हो यानी सीना छोटा और पेट फूलकर घड़ा जैसा रहता हो तो इस वात वायु प्रधान बीमारी से निजात पाने के लिए अदरक, त्रिफला (हरड़, बहेड़ा, आंवला) और त्रिकुटा (सौंठ, पीपल, काली मिर्च) समान मात्रा में लेकर गुड़ मिलाकर दिन में गरम पानी के साथ 10 ग्राम मात्रा में लें। यदि सांस फूलती हो जी मिचलाता हो तो दिन में 4-4 घण्टे में देते रहें।
  • मूत्र नलिका में दर्द हो तो अदरक का रस या सौंठ का चूर्ण गौमूत्र के साथ लें।
  • जिगर में सूजन, तिल्ली बढ़ना आदि से बचना हो तो अदरक के 2-3 टुकडे, एक ताजी नरम मूली और एक नींबू के रस तीनों को सलाद की तरह लें या चटनी की तरह लें।
  • मुंह पर झाइंयाँ हो, मुंहासे हो तो अदरक को कुचलकर उसका रस निकालकर हल्का सा गरम करके नारियल के तेल में मिलाकर सबरे-सबेरे मुँह पर नीचे से ऊपर की तरफ हल्की-हल्की मालिश कुछ दिन लगातार करें।
  • सूखा रोग में अदरक और बांसे के रस को शहद में मिलाकर (तीनों 5-5 ग्राम) लें। 15 ग्राम की खुराक सबेरे-शाम लेते रहें।
  • दमे के लिए सीप भस्म अदरक के रस में मिलाकर गोलियाँ बना लें। इन्हें प्रातः सायं तुलसी पत्ती डली हुई चाय के साथ लेते रहें।
  • पेट में मरोड़ आकर पानी जैसे पतले दस्त लग रहे हों तो नाभि के आसपास आटा गीला कर मेड़ बना दें तथा उसमें अदरक का रस भर दें। यह प्रयोग ग्रामीणों में अनुभूत प्रयोग माना जाता है। परेशान रोगी तुरन्त राहत महसूस करने लगेगा।
  • अम्ल पित्त (एसीडिटी) में अदरक और धनिया समान मात्रा में लेकर पीने से पित्त शामिल हो जाता है।
  • महिलाओं को कमरदर्द हो तो सौंठ के चूर्ण या अदरक के रस को नारियल के तेल में उबालकर मालिश करें।
  • रोज भोजन  से पहले अदरक को बारीक़ टुकड़े टुकड़े करके सेंधा नमक के साथ लेने से पाचक रस बढ़कर अरुचि मिटती है।  वायु भी नहीं बनती व् भूख भी खुलकर लगती है।  जिससे स्वास्थ्य अच्छा बना रहता है।

इस तरह अदरक से अनेक रोगों और मौसमी परिवर्तन के दौरान उठने वाले शारीरिक उपद्रवों का इलाज आप घर बैठे कर सकते हैं। चाय में अदरक लेने की आदत बनाइए। भोजन के समय अदरक की चटनी या नमक लगाकर अदरक के मिक्स अचार, मुरब्बे, चटनी के रूप में भी ले सकते हैं। कभी-कभी उबालकर सूप बनाकर लेने से पेट के आतंरिक विकारों से राहत पायेंगे। सर्दी में इसके लड़डू बनाकर खाना भी बलवर्द्धक, रक्तशोधक होता है। इसलिए इस चटपटी मसाले की गांठ को अपने आहार में भरपूर मात्रा में प्रयोग करने की आदत बनाकर इसके गुणों को पाइए।

महत्वपूर्ण लेख 


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तेजस्वी बलिदानी सिख गुरु तेगबहादुर



आज  से  कई  दशक  पहले  मैं दिल्ली में निवास के दौरान जब भी वहां के प्रसिद्ध गुरुद्वारा रकाबगंज के सामने से  निकलता  था  तब  दूसरे  अनेक श्रद्धालुओं की तरह सड़क से ही स्वतः आंखें झुक जातीं और उनके प्रति आदर से हाथ जोड़ लेता था। सिख गुरु तेग बहादुर  के  बलिदान  से  जुड़े  इस पवित्र स्थल के बारे में इससे अधिक जानने  का  मैंने  कभी  कोई  प्रयत्न नहीं  किया  था।  पर  हाल  में  जब मैंने  प्रसिद्ध  लेखक  व  साहित्यकार डॉ  किशोरीलाल  व्यास  ‘नीलकण्ठ’ का खालसा नाटक व उसकी भूमिका पढ़ी  तब  मैं  कुछ  ऐतिहासिक  तथ्यों को  जानकर  स्तब्ध  सा  रह  गया था।  नवं  सिख  गुरु  तेगबहादुर  के शीश कटने के बाद एक लखी शाह नाम का बंजारा था जो उनके धड़ को अंधेरे का लाभ उठाकर ले गया और अपनी रूई भरी बैलगाड़ी पर ही उसने शीश विहीन धड़ का संस्कार कर दिया था। जिस स्थान पर बंजारे ने गुरु जी का अंतिम संस्कार किया था वहीं पर यह गुरुद्वारा रकाबगंज निर्मित हुआ था। इस गुरुद्वारे  के  एक  विशाल  सभागृह  में जिसका  नाम  लखी  बंजारा  हाल  है, उसकी  स्मृति  को  भी  अक्षुण्ण  रखा गया है।
वीरता  और  शौर्यपूर्ण  सिखों  का पहले मुगलों और बाद में अंग्रेजों के साथ संघर्ष के इतिहास में अनेक लोमहर्षक प्रसंग  हुए  जिनका  वर्णन  किसी  भी देशवासी के हृदय को तेजस्वी गुरुओं को दी गई भयावह यातनाओं और उस समय हिन्दुओं को बचाने के लिए दिए गए बलिदानों के कारण द्रवित सकता है।

औरंगजेब आजीवन इस प्रयत्न में रहा  कि  सिखों  के  गुरु  यदि  इस्लाम कबूल कर लें तो सिखों का बड़ा समुदाय स्वयमेव  मुसलमान  बन  जायेगा।  पर सिखों  ने  पीढ़ी-दर-पीढ़ी  बलिदान देकर  औरंगजेब  की  आकांक्षाओं  को विफल  कर  दिया  था।  उनका  सारा इतिहास बलिदानों का इतिवृत्त रहा है जो कश्मीर के ब्राह्मणों पर औरंगजेब द्वारा अत्याचारों व सहस्रों की हत्या के साथ वस्तुतः शुरु होता है।

कहते हैं-जब मारे हुए ब्राह्मणों के जनेयू का वजन बारह सेर होता था तभी औरंगजेब खाना खाता था। अनेकों ने आत्महत्या  की,  पलायन  किया  या इस्लाम  कबूल  कर  लिया  था।  तब ब्राह्मणों का प्रतिनिधिमण्डल सिखों के नवं गुरु तेग बहादुर, जिन्हें वे तेजस्वी महापुरुष मानते थे कि शरण में पहुंचा जो  उस  समय  ध्यानावस्थित  थे  और स्वयं उस विकट परिस्थिति में बलिदान की  आवश्यकता  उस  मुगल  धर्म  को समाप्त करने के लिए हल बताने लगे ! सभी लोग हतप्रभ थे ! तभी दस वर्षीय गुरु गोविन्द सिंह जो वहां बैठे थे, कह उठे-पिताश्री इस समय आपसे बढ़कर तेजस्वी पुरुष कौन है ?

गुरु  तेगबहादुर  को  लगा  कि बालक की बात सच है और वे स्वयं औरंगजेब से मिलकर उसे समझाने के लिए प्रस्तुत हो गए। पण्डितों ने धैर्य की सांस ली जब गुरु तेगबहादुर अपने पांच शिष्यों के साथ दिल्ली के लिए निकल पडे़ जहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनके  नाम  थे-  भाई  मतिदास,  भाई दयाला, भाई सतिदास गुरुजी की आंखों के सामने एक-एक शिष्य को समाप्त किया गया ताकि उन्हें सदमा लगे। भाई मतीदास को एक बड़े आरे से चिरवाया गया, भाई दयाला को एक बड़ी देगची ने उबलते  पानी  में  फेंक  दिया,  भाई सतीदास को चारों ओर रूई में लपेटकर आग लगा दी गई। मरने के क्षण तक ये श्रद्धालु भक्त जपुजी, सुखमयी आदि का पाठ करते रहे। गुरुजी ने शांत होकर ये वीभत्स  दृश्य  देखे  और  अपना  धर्म बदलना नामंजूर कर दिया। तब दिल्ली के चांदनी चैक में सभी लोगों के समक्ष गुरुजी के वध का आदेश दिया गया। यह घटना 1675 ई0 की है जब गुरुजी की आयु 53 वर्ष की थी।

बीच बाजार में बिठाकर मौलवियों ने  गुरुजी  से  व्यंगपूर्ण  स्वर  में  कुछ चमत्कार  दिखाने  का  आग्रह  किया। गुरुजी ने कहा मैं कोई चमत्कारी पुरुष नहीं। गले में बंधी रस्सी को इंगित कर उन्होंने कहा--यही मेरा चमत्कार है। जल्लाद ने मौलवियों के आदेश पर एक ही झटके में तलवार से उनका सिर धड़ से  अलग  कर  दिया।  जब  दर्शकों  में हाहाकार मचा था, एक शिष्य ने अचानक जान जोखिम में डालकर गुरुजी का सिर लेकर गायब कर दिया। उस सिर को लेकर आनन्दपुर साहिब पहंुचा। गोविन्द सिंह  ने  उसका  दाह  संस्कार  किया। औरंगजेब की आज्ञा से ‘हिन्दू धर्म’ की ढाल  बने  गुरुजी  का  बलिदान  हुआ। आज दिल्ली में उसी स्थान पर शीशगंज गुरुद्वारा बना हुआ है।


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बलिदान एवं त्याग की प्रतिमूर्ति गुरु गोविन्द सिंह



गुरु तेगबहादुर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र गुरु गोविन्द सिंह दशम सिख गुरु बने जिन्होंने खालसा पंथ की स्थापना के संदर्भ में समस्त सिख समुदाय को पंथ की दीक्षा देकर उनकी मानसिकता में आमूलचूल रूपान्तरण कर दिया। हिन्दू-सिख दोनों का संरक्षण करने के लिए जब भी मुगलों व सिखों में युद्ध भड़कता था। वे देश का दाहिना हाथ बनकर उठ खड़े होते थे। धर्मान्ध महत्वाकांक्षी, कट्टर सुन्नी यह क्रूर शहंशाह अपने भाइयों की हत्या कर सिंहासन पर बैठा और बाद में अपने पिता को बंदी बनाकर रखा जो देश के लिए एक भूकम्प जैसी घटना से कम नहीं है।
जब औरंगजेब में हिन्दुस्थान को पूरी तरह इस्लामी राज्य बनाने की ठान ली थी और जब अकबर की नीतियों के विरुद्ध उसे इस्लाम का जुनून सवार हो चुका था, देश में अंधकार जैसा छा गया था ! तलवार के बल पर धर्मान्तरण, जजिया, हिन्दुओं के सार्वजनिक उत्सवों पर प्रतिबन्ध, तथाकथित ‘काफिरों’ के मंदिरों व तीर्थों का विध्वंस अबाध गति से हो रहा था और उत्तरी क्षेत्रों व राजस्थान से लेकर गुजरात तक उसका आतंक फैला हुआ था। 

यह बात भी भुलाई नहीं जा सकती है कि दीवारों के शिलालेखों, भित्तिचित्रों व बहुमूल्य कलासामग्रियों को सिर्फ इसलिए मटियामेट किया गया था क्योंकि बीजापुर व गोलकुण्डा के शासक शिया थे। गोलकुण्डा के किले के अंदर हजारों शियाओं को मुगल सैनिकों ने बेरहमी से मार दिया था।

औरंगजेब अपनी युवावस्था से ही कुचक्री था और इसीलिए शाहजहां ने उसे दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेजा था। सबसे बड़ा पुत्र दाराशिकोह क्योंकि अनेक हिन्दू पवित्र ग्रंथो का उसने फारसी में अनुवाद कराया था और सहिष्णु विद्वान भी था और शाहजहां का चहेता था। इसलिए उसका सिर कटवा कर दिल्ली दरवाजे पर लटकाया गया था। अपने दूसरे भाई मुराद व शुजा को भी मारकर उसने अपने रक्तरंजित हाथों से मुगलिया सल्तनत हासिल की थी।


अपने सबसे बडे़ पुत्र मुहम्मद सुल्तान को भी उसने ग्वालियर के किले में 12 वर्ष बंदी बनाकर रखा था। जहां 38 वर्ष की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गई थी। हिन्दुओं, सिखों, राजपूतों, शियाओं, इस्माइलियों, बोहरा आदि के साथ जब औरंगजेब ने अपनी बहन तथा बेटी जेबुन्निसा को भी कैद में डाल दिया था, उसके बाद से उसे जल्लादों का जल्लाद तक कहा जाने लगा था !

गुरु गोविन्द सिंह जी ने मुगलों की सेना से भिड़ने को त्याग, तपस्या, साधना, संगठन व अस्त्र-शस्त्र सभी क्षेत्रों में सिखों के आत्मबल को जगाया। जहां पहले के गुरु भक्ति पद्धति में भक्ति की आराधना को समन्वित करते थे वहीं गुरु गोविन्द सिंह स्वयं तलवार धारण करते थे-एक ‘पीरी’, दूसरी ‘भीरी’। शत्रु के राज्य में शक्ति की उपासना अनिवार्य है, यह उनका मत था।

अपने अनुआइयों से गुरुजी ने कहा कि वे तलवार को ईश्वर और ईश्वर को ही तलवार मानें ! उन्होंने लोहे को सबसे पवित्र बताया। अपनी प्रसिद्धकृति ‘‘चण्डी चरित्र’’ में उन्होंने यहां तक कहा था- ‘‘जै शुभ कर्मों से कभी न डरूं और युद्ध में जूझता मर जाऊं। गुरु गोविन्द सिंह जी ने युद्ध को धर्म से समन्वित कर दिया था, उनके दो पुत्र अजीत सिंह और जुझारू सिंह मुगलों के साथ युद्ध में मारे गए थे। दो अन्य पुत्रों जोरावर सिंह (9 वर्ष) और फतह सिंह (7 वर्ष) को सरहिन्द के सूबेदार वजीर खान ने इस्लाम स्वीकार न करने के कारण दीवारों में चुनवा दिया था। चार-चार वीर पुत्रों को खोकर भी गोविन्द सिंह जी ने हिम्मत न हारी थी--‘चार मुए तो क्या हुआ, जीवित कई हजार।’

12 अप्रैल, 1699 का वह दिन आया जब विभिन्न प्रदेशों से सिख आनंदपुर आ पहुंचे। वह बैसाखी का दिन था जब गुरुगोविन्द सिंह कृृपाण के साथ मंच पर पहुंचे उन्होंने कहा देवी बलिदान चाहती है, क्या कोई शीश देगा ? सहसा लाहौर का खत्री दयाराम उठा जिसे वह पर्दे के पीछे ले गए। एक बकरे की बलि चढ़ाई और रक्तरंजित तलवार लिए फिर बाहर आ गये। फिर उसी प्रश्न पर दिल्ली के जाट धरमदास उठ खडे़ हुए। उन्हें भी गुरुजी अंदर ले गए और रक्त से डूबी हुई तलवार लेकर बाहर आ गए।

इसी तरह का प्रश्न दोहराने पर एक के बाद एक-मोहकमचंद, साईं बचन्द तथा हिम्मतराम उठे जिन्हें गुरुजी अंदर ले गए। फिर सभी पांचों को अपने साथ लेकर मंच पर आए। उन्होंने कहा मैंने उन्हें मारा नहीं, ये ही पांचों बलिदानी पंजप्यारे हैं-पांच सिंह हैं। ये ही विशुद्ध खालसा बलिदानी वीर हैं। उस समय 80,000 सिखों ने अमृतपान कर खालसा पंथ का निर्माण किया था जो सदैव कफन सिर पर बांधे युद्ध के लिए तत्पर रहते थे।

इस प्रकार धर्म की रक्षा के लिए गुरु गोविन्द सिंह जी ने जिस पंथ का निर्माण किया, उसने धर्मान्ध मुसलमानों की बाढ़ को रोकने में सफलता पाई। देश के इतिहास में वस्तुतः गुरु गोविन्द सिंह जैसा व्यक्ति ढूंढ़़ पाना असम्भव सा हैं-एक वीर, तपस्वी और कवि के साथ-साथ पंजाबी, ब्रज, फारसी और अरबी आदि भाषाओं पर असाधारण अधिकार रखें, ऐसा विविध भाषाओं का ज्ञाता कहां मिल सकता है! इस सत्ता, सैनिक और कवि का देहावसान 16 अक्टूबर 1708 को केवल 42 वर्ष की अल्पायु में गोदावरी के तट पर महाराष्ट्र के नांदेड़ नामक स्थान पर हुआ था जहां का भव्य गुरुद्वारा एक तीर्थस्थल भी बन चुका है। उन्होंने धर्म को राष्ट्रीयता से जोड़कर उत्तर भारत में इतिहास की धारा को ही एक नया मोड़ दिया था।

गुरु गोविन्द सिंह के संगठन के पीछे की ऐतिहासिक भूमिका गुरु तेग बहादुर का बलिदान कार्य करता रहा था। कालान्तर में गुरु गोविन्द सिंह जी ने बलिदानी सिखों की वह खालसा सेना तैयार की थी जिसने हर मुगल शासक की विशाल फौज से टक्कर लेने में कोई झिझक नहीं दिखाई थी। गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी ने यह संघर्ष तब तक जारी रखा जब तक औरंगजेब की मृत्यु 80 वर्ष की आयु में अहमदनगर में 1707 में हो गई।


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क्षत्रियों की उत्पत्ति एवं ऐतिहासिक महत्व



क्षत्रियों की उत्पत्ति एवं ऐतिहासिक महत्व
Origin and historical importance of Kshatriyas
पौराणिक पुस्तकों, वेदों एवं स्मृति ग्रंथों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में आर्यों के लिए निर्धारित नियम थे, परन्तु जाति एवं वर्ण व्यवस्था नहीं थी और न ही कोई राजा होता था। आर्य लोग कबीलों में रहते थे और कबीलों के नियम ही उन पर लागू होते थे। आर्य लोग श्रेष्ठ गुण और कर्म वाले समूहों के अंग थे। आर्यों ने गुणों एवं कर्मों के अनुसार वर्णों की व्यवस्था की थी। उस समय आर्यों का विशिष्ट कर्म यज्ञ करना था।

भगवान कृष्ण ने गीता के चतुर्थ अध्याय एवं 13 वें श्लोक में कहा था कि मैंने इस समाज को उसकी कार्य क्षमता, गुणवत्ता, शूर वीरता, विद्वता एवं जन्मजात गुणोंं, स्वभाव और शक्ति के अनुसार चार वर्णों में विभाजित किया।
चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्वयकर्तामव्ययम् ।। 

श्री कृष्ण ने गीता के तृतीय अध्याय एवं 10 वें श्लोक में कहा है कि ब्राह्मण ने प्रजापति से कहा कि यज्ञ तुम्हारी वृद्धि तथा इच्छित फल देने वाला है। इसके बाद इन आर्यों को गुणों एवं कर्मों के अनुसार चार वर्णों में विभाजित किया। वर्ण व्यवस्था का पहला अंग था ब्राह्मण, जिसका कार्य यज्ञ करना, वेद आदि धार्मिक ग्रन्थों का पठन करना, पढ़ाना तथा अन्य वर्णों को धर्म का मार्ग दिखाना। दूसरा अंग था क्षत्रिय जिसका मुख्य कार्य समूहों की रक्षा करना, वेदों का अध्ययन करना, यज्ञ करना तथा समाज को नियंत्रण में रखना था। तीसरा अंग था वैश्य, जिनका मुख्य कार्य वाणिज्य, कृषि एवं धर्म ग्रंथों को पढ़ना आदि था। चौथा अंग था शूद्र, जिसका कार्य उपरोक्त तीनों अंगों की सेवा करना था। ऋग्वेद में लिखा है:-
यत्पुरूष व्यदधु कतिध व्यकल्पयन।मुखं किमस्य को बाहु काबूरू पादा उच्यते ।।
ब्राद्य्राणोऽस्य मुखमासीद बाहू राजन्य कृतः । उरू तदस्य मद्धस्य पदभ्यां शूद्रोज्जायतः।।


प्रजापति ने मानव समाज रूपी जिस पुरुष का विधान किया। मुख कौन, हाथ कौन, जंघा कौन और पैर कौन इसके उत्तर में कहा कि मुख ब्राद्य्राण, हाथ क्षत्रिय, जंघा वैश्य और पैर शूद्र हैं। मनुस्मृत में कहा गया है कि:-
येषान्तु याद्धशड.क्म्र्म भूतानामिह कीर्तितम्
तत्तथा वोड़भिधास्यामि क्रम योगण्च जन्मनि। (चै. 48)

जिस जाति का जैसा कर्म प्रजापति ने बताया है, वैसा ही कार्य उनके लिए उचित है। इससे यह ज्ञात होता है कि मनु से पहले ही आर्यों ने वर्ण व्यवस्था बना ली थी।

ब्राह्मण : विद्वान, शिक्षा का कार्य करने वाला, निपुण पुरोहित एवं कर्मकाण्डी, यज्ञ तथा पूजा पाठ करने वाले को बा्रद्य्रण वर्ण में रखा गया है। इनको छूट है कि वे वैश्य एवं क्षत्रिय के भी कार्य कर सकते हैं। शिक्षा, शिक्षक और पुरोहित इनके मुख्य कार्य हैं तथा विशिष्ट परिस्थिति में यह हथियार उठाने में भी संकोच न करने वाले और कृषि का कार्य भी अपने हाथों में ले सकते हैं। इनको केवल वैश्य और शूद्र के कार्य करना वर्जित है। इन्हें अपने कार्य के अलावा कृषि का कार्य करने में संकोच नहीं करना चाहिये। मनुस्मृत के अनुसार बा्रद्य्राण शादी-ब्याह अपने वर्ण के अलावा, क्षत्रिय, वैश्य वर्ग में भी कर सकते है। लेकिन पहली शादी अपने वर्ण में ही करना आवश्यक है।

वैश्य : वैश्य का मुख्य कार्य व्यापार एवं कृषि है, परन्तु विशेष परिस्थिति में इन्हें हथियार उठाना वर्जित नहीं है। (मनुस्मृति में वर्णित) तदोपरान्त दूसरे वर्ण की जातियों में शादी करने में कोई बंदिश नहीं है। क्षत्रिय और वैश्य वंश में अपनी शादी कर सकते हैं। (मनुस्मृति के अनुसार)

शूद्र : इस वर्ण को ब्राद्य्रण, क्षत्रिय, वैश्य द्वारा बताए गए कार्यों को करना तथा कृषि एवं दूसरे कार्य जो उपरोक्त तीनों वर्ण द्वारा बताये गए है को सम्पन्न करना तथा अपनी जीविका के कार्य करना। ये अपने वर्ण में ही शादी कर सकते हैं।

विभिन्न जातियों के कर्तव्य (कर्म) मनुस्मृति के अनुसार शस्त्र चलाना क्षत्रियों का कार्य है परन्तु बा्रद्याण और वैश्य जब धर्म पर आपत्ति आये तो उन्हें शस्त्र उठाना वर्जित नहीं है। महाभारत में वर्णित है कि:-
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वबा्रद्यमिदं जगत्।
ब्रद्याणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्।।

(भृगु ऋषि ने महर्षि भारद्वाज के प्रश्न के उत्तर में कहा कि सृष्टि के प्रारम्भ में वर्ण भिन्न-भिन्न नहीं थे, ब्रद्य से उत्पन्न होने के कारण सभी का नाम ब्राद्य्रण था।)

वज्र सूच्युपनिषद् में जिज्ञासु शिष्य अपने गुरु से पूछता है कि क्या कोई जाति से बा्रद्य्रण होता है ? इसका उत्तर देते हुए ऋषिवर ने स्पष्ट किया कि ब्राह्मणों की कोई जाति नहीं है, अनेक महर्षि दूसरी अन्य जातियों से उत्पन्न हुए हैं।

सभी धर्म ग्रंथों को देखने से यही स्पष्ट होता है कि ब्रद्य्रा ईश्वर के शरीर के चारों अंगों से चारों वर्णों की उत्पत्ति हुई है। इसका तात्पर्य यह है कि समूचा आर्य-जगत ईश्वर स्वरूप था, जिसे कर्मों के आधार पर चार वर्णों में बांटा गया, ताकि समाज का कार्य सुचारू रूप से चलता रहे।

आगे चलकर चारों वर्णों के बनाए जाने के बाद आर्य-जगत ने यह अनुभव किया कि सामूहिक शासन ठीक नहीं है। इसलिए समूह ने अपना प्रतिनिधि शासक बनाने का विचार किया। समूह द्वारा निर्णय लेने के बाद प्रतिनिधियों ने क्षत्रिय को राजा बनाया। यह क्षत्रिय सूर्य और उसकी पत्नी सरण्यु से उत्पन्न आर्य संतान पहला क्षत्रिय मनु था, जिसे प्रथम राजा बनाया गया। उसका राज्याभिषेक वायु नाम ऋषि ने किया।

भगवान श्री कृष्ण ने गीता के 18 वें अध्याय में 41,42,44,43 श्लोक में इस वर्ण व्यवस्था के बारे में विस्तृत वर्णन किया है जो इस प्रकार है:-
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणाम च परन्तप।
कर्माणि प्रतिभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।। 
हे परंतप! बा्रद्यण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणोंद्वारा विभक्त किये गये हैं। ।। 41 ।।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रद्य्राकर्म स्वभावजम्।।
अन्तःकरण का निग्रह करना; इन्द्रियों का दमन करना, धर्म पालन के लिए कष्ट सहन, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना; वेद, शास्त्र ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना; वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना- ये सब के सब ही बा्रद्य्रण के स्वाभाविक कर्म हैं ।। 42 ।।

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्मं स्वभावजम्
परिचयात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।।
खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप, सत्य व्यवहार - ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सभी वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ।। 44 ।।

क्षत्रिय
शौर्यंतेजा धृतिर्दाक्ष्यं युद्वे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभाववश्रच् क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में से न भागना, दान देना और स्वाभिमान - ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ।। 43 ।।

ऋग्वेद में क्षत्रिय के कर्म गुंण और स्वभाव के विषय में लिखा है।
धृतव्रता क्षत्रिय यज्ञनिष्कृतो बृहदिना अध्वं राणभर्याश्रियः।
अग्नि होता ऋत सांपों अदु हो सो असृजनु वृत्र तये ।।

क्षत्रिय नियमों का पालक, यज्ञ करने वाला, शत्रुओं का संहारक, युद्ध में सधैर्य और युद्ध क्रियाओं का ज्ञाता होता है।
क्षतात् किलत्रायत इत्युग्रह,
क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढा। (कालिदास)
अर्थात्:- विनाश या हानि से रक्षा करने के अर्थ में यह क्षत्रिय शब्द सारे भुवनों में प्रसिद्व है।

नियम पालनकर्ता, सत्य के अनुसार चलने वाला, शूरवीर, कुशल प्रशासक, दृढ़ संकल्प, अद्भुत संगठनकर्ता, शरणागत की रक्षा करने वाला, दूरदर्शी, चरित्रवान, युद्ध में न डरने वाला तथा अपने गुणों के कारण दूसरों पर प्रभाव डालने वाला। तथा प्रजापालक को क्षत्रिय के वर्ण में रखा गया है। ये गीता के ( अध्याय 18 वें और श्लोक 43 वें) में वर्णित है।
शोर्यं तेजा धृतिर्दाक्ष्यं युद्वे चाप्यपलायनम्।
छानमीश्रव्रभावश्रच् क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में से न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। क्षत्रिय के शब्दार्थ के अनुसार वो दूसरों को आश्रय तथा संरक्षण एवं सुरक्षा देने वाला। क्षत्रिय अपने वर्ण के अतिरिक्त वैश्य, शूद्र वर्ण में शादी कर सकते है। परन्तु पहले अपने वर्ण में तथा बाद में दूसरे वर्ण में इनको शादी करना वर्जित नहीं है। (मनुस्मृति के अनुसार)

वेदों में क्षत्रियों के लिए लिखा है उसमें ‘‘क्षतात्च ते इति क्षत्रिय‘‘ अर्थात् जो वर्ग कमजोरों की सहायता करें और रक्षा करे वो क्षत्रिय है। उस काल में क्षत्रियों के नियम थे असहाय की रक्षा करना, देशद्रोहियों को दण्ड देना, इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना, बूढ़ों और विद्वानों की सेवा करना, धैर्यवान होना, युद्ध से नहीं डरना, यज्ञ करना और दान देना क्षत्रियों के गुण है।

राजपूत : राजपूत शब्द का प्रचलन मुस्लिम काल में हुआ। जैसे भारत के लिए हिंदुस्तान शब्द का तथा सनातन धर्म को हिन्दू धर्म कहा जाने लगा। इसी प्रकार क्षत्रियों के लिए राजपूत शब्द काम में लिया जाने लगा। राजपूत शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश है। कहीं-कहीं पर इसे रजपूत शब्द का भी प्रयोग किया गया। रज के अर्थात् मिट्टी, धरती। इसलिए इन्हें धरती पुत्र भी कहा जाता है। परन्तु राजपूत शब्द प्रचलन में बहुत आया। राजपुत्र के शब्दार्थ है राजा का पुत्र। धीरे-धीरे राजाओं के पुत्रों के परिवार की संख्या बढ़ने लगी और उन सभी को राजपुत्र कहा जाने लगा तथा धीरे-धीरे राजपूत शब्द में परिवर्तित हो गया। जैसा कि ऊपर कहा गया है राजपूत राजपुत्र का ही अपभ्रंश है।

पुराने समय में राजपुत्र शब्द जातिवाचक नहीं था। अपितु परिवार वाचक था और राजकुमार या राजवंशियों का सूचक था। क्योंकि प्राचीनकाल में सारा भारत वर्ष क्षत्रियों के अधीन था और राजकुमारों तथा राजवंशियों के लिए राजपुत्र शब्द का प्रयोग होता था। प्राचीन लेखकों ने जैसे कौटिल्य, कालिदास, बाणभट्ट ने अपनी रचनाओं में राजवंशियों के लिए राजपुत्र शब्द का प्रयोग किया है। यहीं राजपुत्र धीरे-धीरे राजपूत शब्द के रूप में परिवर्तित हो गया और चूँकि यह सभी क्षत्रिय थे, अतः क्षत्रिय के लिए राजपूत शब्द प्रयोग में आने लगा। राजपूत शब्द का प्रयोग महमूद गजनवी के समय तक नहीं था। उसके साथ ‘अलबेरूनी‘ भारत आया था, जो बड़ा विद्वान था। उसने अरबी में बहुत सी पुस्तकें लिखी हैं और भारत की विद्याओं, धर्मों और रीति-रिवाजों आदि का अध्ययन किया। उसने अपने ग्रन्थों में क्षत्रियों का वर्णन किया है, परन्तु कहीं भी राजपूत या राजपुत्र शब्द का प्रयोग नहीं किया। मोहम्मद गौरी के समय तथा अलबेरूनी की मृत्यु 1048 के बाद राजवंशियों को राजपूत नाम से संबोधित किया जाने लगा और धीरे-धीरे यह शब्द जो पहले वंशसूचक था जाति सूचक बन गया और क्षत्रियों के लिए राजपूत शब्द का प्रयोग होने लगा। अब क्षत्रियों और राजपूतों को एक ही नाम तथा जाति से जाना जाता है। अतः क्षत्रिय ही राजपूत और राजपूत ही क्षत्रिय है।
क्षत्रियों का ऐतिहासिक महत्व
क्षत्रियों का ऐतिहासिक महत्व
भारत में वर्ण व्यवस्था की शुरुआत के पहले से ही क्षत्रियों के अस्तित्व की जानकारी उपलब्ध है। ऋग्वेद में अनेकों स्थान पर ‘‘क्षत्र‘‘ एवं क्षत्रिय शब्द का प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद में क्षत्रिय शब्द का प्रयोग शासक वर्ग के व्यक्तित्व का सूचक है। यहां पर ‘‘क्षत्र‘‘ का प्रयोग प्रायः शूरता एवं वीरता के अर्थ में हुआ है। जिसका अभिप्राय लोगों की रक्षा करना था तथा गरीबों को संरक्षण देना था। यहां क्षत्रिय शब्द का प्रयोग राजा के लिये किया गया है। अतः समाज में क्षत्रियों का एक समूह बन गया जो शूर, वीरता और भूस्वामी के रूप में अपना आधिपत्य स्थापित किया और शासक के रूप में प्रतिष्ठित हुये।

उत्तर वैदिक काल तक क्षत्रियों को राजकुल से संबंधित मान लिया गया। इस वर्ग के व्यक्ति युद्ध कौशल और प्रशासनिक योग्यता में अग्रणी माने जाने लगे। यह समय क्षत्रियों के उत्कर्ष का समय था। इस काल में क्षत्रियों को वंशानुगत अधिकार मिल गया था तथा वे शस्त्र और शास्त्र के ज्ञाता भी बन गये थे। इस प्रकार राजा जो क्षत्रिय होता था वह राज्य और धर्म दोनों पर प्रभावी हुआ। पुरोहितों पर राजा का इतना प्रभाव पड़ा कि वे राजा का गुणगान करने लगे तथा उनको महिमा मंडित करने के लिये उन्हें दैवी गुणों से आरोहित किया और उन्हें देवत्व प्रदान किया तथा अपनी शक्ति के प्रभाव से राजा को अदण्डनीय घोषित किया गया।
राजपद एवं राजा की प्रतिष्ठा के साथ क्षत्रियों की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई। वृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि क्षत्रिय से श्रेष्ठ कोई नहीं है। ब्राह्मण का स्थान उसके बाद आता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि राज्य शक्ति से सम्मिलित क्षत्रिय जो ब्राह्मणों के रक्षक और पालक हैं सामाजिक क्षेत्र में श्रेष्ठ स्वीकार किये गये। ब्राह्मण की श्रेष्ठता का आधार उनका बौद्धिक एवं दार्शनिक होना था। इसका हास हुआ और क्षत्रिय इन क्षेत्रों में भी अग्रणी हुये। राजा जनक, प्रवाहणजबलि, अश्वपति, कैकेय और काशी नरेश अजातशत्रु ऐसे शासक थे, जिनसे शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने ब्राह्मण आते थे। पौरोहित्य, याज्ञिक क्रियाओं, दार्शनिक गवेषणाओं में भी क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के एकाधिकार को चुनौती दी। इन परिस्थितियों में क्षत्रियों ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को अस्वीकार किया। महाभारत में तो यहां तक कहा गया कि ब्राह्मणों को क्षति से बचाने के कारण ये ‘‘क्षत्रिय‘‘ कहे गये। इस प्रकार क्षत्रियों ने शस्त्र और शास्त्र दोनों के ज्ञाता हो अपनी श्रेष्ठता स्थापित की।

इस पूर्ण भू भारत के चप्पा-चप्पा भू को रक्त से सींचने वाले क्षत्रिय वंश के पूर्वज ही तो थे। इनकी कितनी सुंदर समाज व्यवस्था, कितनी आदर्श परिवार व्यवस्था, कितनी निष्कपट राज व्यवस्था, कितनी कल्याणकारी अर्थव्यवस्था और कितनी ऊंची धर्म व्यवस्था थी। आज भी क्षत्रिय वंश और भारत को उन व्यवस्थाओं पर गर्व है। यह व्यवस्थाएँ क्षत्रिय वंश द्वारा निर्मित, रक्षित और संचालित थीं। इसके उपरांत विश्व साहित्य के अनुपम ग्रन्थ महाभारत और रामायण इसी काल में निर्मित हुए। गीता जैसा अमूल्य रत्न भी इसी वंश की कहानी कहता है। जिसका मूल्यांकन आज का विद्वान न कर सका है और न कर सकता है। इन दोनों में क्षत्रिय वंश के पूर्वजों की गौरव गाथाएँ और महिमा का वर्णन है। जिन्होंने विश्व विजय किया था और इस भूखंड के चक्रवर्ती सम्राट रहे थे। महाभारत का युद्ध दो भाइयों के परिवार का साधारण गृह युद्ध नहीं था। वह धर्म और अधर्म का युद्ध था। जो छात्र धर्म के औचित्य और स्वरूप को स्थिर रखने का उदाहरण था।

परम् ब्रह्म परमात्मा के रूप में जिस भगवान कृष्ण की भक्ति का भागवत में वर्णन किया गया है, वे 16 कलाओं से परिपूर्ण भगवान कृष्ण भी तो हमारे पूर्वज थे। यह जाति अति आदर्श वान, उच्च निर्भीक और अद्वितीय है। वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्य, और उत्पीड़न के सामने झुकना, नतमस्तक होना नहीं जानती तथा वह पराजय व पतन को भी विजय और उल्लास में बदलना जानती है। रघुवंशियों के गौरव गाथा और उज्ज्वल महिमा का वर्णन रघुवंश में दिया गया है। इसे पढ़ने पर मन आनंदित और आत्मा पुलकित हो उठती है।

परम् श्रद्धेय अयोध्या पति श्री राम रघुवंशी भी तो हमारे पूर्वज थे। उनके गौरव व बड़प्पन की तुलना संसार में किसी से नहीं की जा सकी। यहीं कहीं बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रवर्तक और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले क्षत्रिय पुत्र भगवान बुद्ध और क्षत्रिय पुत्र महावीर ही तो थे। जिन्होंने उस समय देश को अहिंसा का पाठ पढ़ाया। अतः इस वसुन्धरा में क्षत्रिय जाति को छोड़कर कोई अन्य जाति विद्यमान नहीं है, जिसके पीछे इतना साहित्यिक बल, प्रेरणा के स्त्रोत और जिनकी गौरवमई गरिमा एवं शौर्य का वर्णन इतने व्यापक और प्रभावपूर्ण ढंग से हुआ हो। अपने सम्मान और कुल गौरव की रक्षा के लिए वीरांगनाओं ने अग्नि स्नान (जौहर) और धारा (तलवार) स्नान किया है। मैं यह मानने के लिए कभी तैयार नहीं हूँ कि जिस जाति और वंश के पास इतनी अमूल्य निधि और अटूट साहित्यिक निधि हो वह स्वयं अपने पर गर्व नहीं कर सकती।

सतयुग का इतिहास हमें वैदिक वाङ्मय के रूप में देखने को मिलता है। वैदिक और उत्तर वैदिक साहित्य में तत्कालीन जीवन दर्शन समाज व्यवस्था आदि का सांगोपांग चित्रण मिलता है। त्रेता और द्वापर युगों के इतिहास पर समस्त पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है। वाल्मीकि रामायण और महाभारत उसी इतिहास के दो अमूल्य ग्रंथ है। महाभारत काल के पूर्व का हजारों वर्षों का इतिहास क्षत्रिय इतिहास मात्र है। महाभारत काल के पश्चात लगभग डेढ़ हजार वर्ष का इतिहास भारतीय इतिहास की दृष्टि से अंधकार का युग कहा जा सकता है, पर यह बताने में हमें तनिक भी संकोच नहीं है कि उस समय का समस्त भारत और आस-पास के प्रदेशों पर क्षत्रियों का सार्वभौम प्रभुत्व था।

मौर्य काल का इतिहास तिथि वार, क्रमवार उपलब्ध है। मौर्य काल से लगाकर मुसलमानों के आक्रमण तक भारत की क्षत्रिय जाति सार्वभौम प्रभुत्व सम्पन्न जाति रही है। इस्लामी प्रभुत्व के समय में भी जौहर और शाका करके जीवित रहने वाली मर-मर कर पुनः जीवित होने वाली क्षत्रिय जाति का इतिहास हिंदू भारत का इतिहास है। अतः मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि संसार के प्राचीनतम सभ्य देश भारत में इतिहास में से क्षत्रिय इतिहास निकालने के उपरान्त कुछ भी नहीं बचता। अतः दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि मूलतः क्षत्रियों का इतिहास ही भारत का इतिहास है।

इस प्रकार महान और व्यापक हिन्दू संस्कृति के अन्तर्गत क्षत्रियों (राजपूतों) की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति रही है। यह विशिष्ट संस्कृति कालान्तर में विशिष्ट आचार-विचार, विशिष्ट भाषा, विशिष्ट साहित्य, विशिष्ट इतिहास, विशिष्ट कला-कौशल, विशिष्ट राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक व्यवस्थाओं के कारण और भी सबल बनी है।

अतः राजपूत एक ऐसा वंश है, जिसके स्वयं के राज नियम, राज विधान, शासन प्रणाली, सभ्य संसार के इतिहास में सबसे अधिक समय तक प्रचलित रहे हैं तथा सबसे अधिक कल्याणकारी और सफल सिद्ध हुई है। बीच-बीच में कुछ राजाओं द्वारा अपने अलग के नियम और प्रजा के अमंगलकारी कार्यों से पूरे क्षत्रिय वंश को बुरा नहीं कहा जा सकता। जहां राजपूतों ने एक ओर भारतीय संस्कृति की रक्षा की, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी स्वयं की विशिष्ट संस्कृति का निर्माण किया। यह विशिष्ट राजपूत संस्कृति आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित होती है। यहां मैं कहना चाहूँगा कि सभी क्षत्रिय शासक निरंकुश नहीं थे, बल्कि इनके समय में शिक्षा, कला, संगीत और संस्कृति की अद्भुत उन्नति हुई थी। कई तो स्वयं इसके पारखी भी थे, कई तो गरीबों के मित्र एवं संरक्षक थे। उन्हें सहायता एवं भोजन देते थे। इसमें महाराज हर्ष सबसे अग्रणी थे। ये बैस क्षत्रिय ही तो थे ओर अपनी बहन से मांगकर कपडे़ पहनते थे। बैसवाडे़ में गंगा तट पर बहुत से महत्वपूर्ण स्थान हैं। जिनकी खुदाई कर हम अपने प्राचीन इतिहास को उजागर कर सकते है। यहां समय-समय पर प्राचीन तथा पुरातत्व महत्व की वस्तुओं, सिक्के, बर्तन, हथियार मिलते रहते हैं। जिससे हमारी प्राचीन सभ्यता का ज्ञान होता है। बैसवाड़ा का गंगा तटीय इलाका इस प्राचीन एवं पुरातत्व की वस्तुओं की खान है।

निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि कितने लाख वर्ष पहले हमारे पूर्वजों ने इस वर्ण व्यवस्था को अपना कर सामाजिक जीवन में एक महत्वशाली अनुशासन की व्यवस्था की थी। अतएव अतीत के उस सुदूर प्रभात में भी मानवता के लक्षण, पौषण और उसके लौकिक और पारलौकिक उत्कर्ष के लिए यदि कोई वर्ण उत्तरदायी था तो वह वर्ण मुख्य रूप से क्षत्रिय ही तो था ओर यदि कोई जाति और व्यक्ति उत्तरदायी था तो वह क्षत्रिय ही तो था।
पौराणिक काल के जम्बूदीप पर एकछत्र राज की यदि किसी जाति ने स्थापना की तो वह एक मात्र क्षत्रिय ही तो थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पृथ्वी को वर्तमान आकार और स्वरूप देने वाले और इसका दोहर कर समस्त जीवनोपयोगी सामग्री उपलब्ध कराने वाले व्यक्ति क्षत्रिय राजा पृथु ही थे। हिमालय से लगाकर सुदूर दक्षिण और प्रशान्त महासागर से लगाकर ईरान के अति पश्चिमी भाग के भू-खण्ड के अतिरिक्त पूर्वी भाग में तथा आसाम पर क्षत्रियों का ही तो शासन था। यहाँ तक कि देवा सुर संग्राम में देवताओं ने क्षत्रियों का तेज, छात्र शक्ति अन्तर्दृष्टि देखकर ही इनसे सहायता प्राप्त की। एक ओर क्षत्रियों द्वारा रक्षित शान्ति के समय वेदों की रचना हुई तथा सार्वभौमिक सिद्धान्तों के प्रणेता उपनिषदों के अधिकांश आचार्य क्षत्रिय ही तो थे। कोई आज बता सकता है कि संसार में वह कौन सी जाति है जिसमें अवतरित मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की भारत के आधी से ज्यादा नर-नारी, परमेश्वर के रूप में उसकी उपासना करते हैं तथा कोई बता सकता है कि वह कौन सी जाति है जिसमें पुरुषोत्तम योगी राज भगवान कृष्ण अवतरित हुए हैं। क्या कोई बता सकता है कि वह कौन सी जाति थी जिसके काल में वाल्मीकि रामायण, महाभारत एवं गीता की रचना हुई। क्या कोई बता सकता है कि सर्वप्रथम शान्ति और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध और जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर किस जाति के थे। इन सब प्रश्नों का उत्तर है ‘‘क्षत्रिय‘‘।

जिस समय संसार की अन्य जातियां अपने पैरो पर लड़खड़ाते हुई उठने का प्रयास कर रही थी, उस समय भारत वर्ष में क्षत्रिय महान साम्राज्यों के अधिष्ठाता थे:- साहित्य, कला, वैभव, ऐश्वर्य, सुख, शांति के जन्मदाता थे। स्वर्ण युग भारत ज्ञान गुरु भारत और विश्व विजयी भारत के शासक क्षत्रिय ही तो थे। विदेशी आक्रमणकारी यवन, शक, हूण, कुषाण जातियों को क्षत्रियों के बाहुबल के सामने नतमस्तक होना पड़ा था। यह क्षत्रिय ही तो थे, जिन्होंने इन आक्रमणकारी जातियों के अस्तित्व तक को भारत में आज ऐतिहासिक खोज बना दिया है। हम उन पूर्वजों को कैसे भूला सकते हैं, जिन्होंने देश भर में शौर्य और तेज के बल से प्रबल राज्यों का निर्माण कर इतिहास में राजपूत काल को अमर कर दिया। इसके बाद इस्लाम धर्म का प्रबल तूफान उठा और भारत की प्राचीन संस्कृतियों, सुव्यवस्थित साम्राज्यों, दीर्घकालीन व्यवस्थाओं को एक के बाद एक करके धराशायी कर दिया। भारत में इन आक्रमणकारियों का सामना मुख्य रूप से क्षत्रियों को ही करना पड़ा। साम्राज्य नष्ट हुए, जातियाँ समाप्त हुई, स्वतंत्रता विलुप्त हुई पर संघर्ष बन्द नहीं हुआ।

क्या कोई इतिहासकार बता सकता है कि राजपूतों के अतिरिक्त संसार में कोई भी अन्य जाति हुई हैं, जिसने धर्म और सम्मान की रक्षा के लिए सैकड़ों शाके कियें हो। वे राजपूत नारियों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसी नारियाँ संसार में हुई, जिन्होंने हँसते-हँसते जौहर कर प्राणों की आहुति दी हो व धारा (तलवार) स्नान किया हो। इसका उदाहरण इतिहास में अन्यथा नहीं मिलेगा। इस्लाम धर्म का प्रभाव सैकड़ों वर्षों तक क्षत्रियों से टकराकर निस्तेज होकर स्वतः शांत हो गया। कितने आश्चर्य की बात है कि क्षत्रिय राज्यों के पश्चात् स्थापित होने वाला मुसलमानी राज्य क्षत्रिय राज्यों से पहले ही समाप्त हो गया।

महात्मा बुद्व के प्रभाव से अधिकांश क्षत्रियों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और अहिंसा पर विश्वास करने लगे। अशोक महान एक शक्तिशाली राजा के रूप में उदित हुए। उसके बाद महाराजा हर्ष वर्धन जो कि एक बैस क्षत्रिय राजा थे, जो शीलादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए और एक चक्रवर्ती राजा का रूप लिया। जिनका शासन नर्मदा के उत्तर से नेपाल तक तथा अफगानिस्तान, ईरान से लेकर पूर्व में आसाम तक था और जिसके सम्मुख कोई भी राजा सर नहीं उठा सकता था। इन्होंने भी अन्त में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। साथ ही अधिकतर क्षत्रिय जाति ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और इनके बाद कोई प्रभावशाली उत्तराधिकारी न होने के कारण इनका राज्य छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। बौद्ध धर्म समाज की शाश्वत आवश्यकता, सुरक्षा के लिए अनुपयोगी सिद्ध हुआ। उसने राष्ट्र की स्वाभाविक छात्र शक्ति को निस्तेज, पंगु और सिद्धान्त हीन बना दिया। वह राष्ट्र पर बाहरी आक्रमणों के समय असफल सिद्ध होने लगा। अतएव क्षत्रियों ने छात्र धर्म के प्रतिपादक वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की, परन्तु शक्तिशाली केन्द्रीय शासन के अभाव में राजपूत राजा आपस में युद्ध करते-करते छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गए। जिसका लाभ मुस्लिम काल में मुस्लिम आक्रान्ताओं को मिला और क्षत्रिय अपनी शक्ति को क्षीण करते रहे तथा अपने अस्तित्व के लिये लड़ते रहे और भगवान कृष्ण के उपदेशों की पालन करते रहे, परन्तु संघर्ष को कभी विराम नहीं दिया। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि वास्तव में धर्म युद्ध से बढ़कर कल्याण कारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिए और कुछ नहीं।


स्वधर्ममपि चावेक्ष्यण् न विकम्पितुमर्हसि।
धम्र्याद्धि युद्धाच्दे, योऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।
और यदि धर्म युद्ध, संग्राम को क्षत्रिय नहीं करता तो स्वधर्म, कीर्ति को खोकर पाप का भागी होता। 
अथ चेत्वमिमं धम्यं, संगा्रमं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्म कीर्तिं च, हित्वा पापमवाप्स्यसि।।

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