अनुलोम विलोम प्राणायामः एक संपूर्ण व्यायाम



प्राणायाम का अर्थ है प्राणों का विस्तार, प्राण शक्ति का विस्तार। प्राणायाम कई प्रकार के हैं और प्रत्येक प्रकार के प्राणायाम का अपना विशेष कार्य क्षेत्र है। परन्तु सभी प्रकार के प्राणायाम का आधार है - गहरे लम्बे श्वास प्रश्वास (Deep Breathing)। दो मिनट के लिए आंखों को बन्द करते हुए अपनी सांसों को देखें। आपका सारा मानसिक तनाव दूर हो जाता है। आनन्द की अनूभूति होती है। साधारण  श्वास लेते समय हमारी श्वास केवल हृदय से कण्ठ तक ही आती जाती है। परन्तु जब आप गहरी लम्बी श्वास लेते है, तो पूरे फेफड़े वायु से भर जाते हैं, छाती फूल जाती है और जब श्वास छोड़ते हैं तो फेफड़ों व छाती का संकोचन होता है। ऐसा क्यों होता है इसे जानने के लिए फेफड़ो की संरचना को समझ लेना आवश्यक है।

अनुलोम विलोम प्राणायामः एक संपूर्ण व्यायाम

फेफड़ों की संरचना
हमारे शरीर में दो फेफड़ें हैं छाती की दायीं और बायीं ओर और इन दोनों के बीच है हृदय - थोड़ा सा बायीं ओर। फेफड़ो में 75 करोड़ कोशिकाएं हैं और इनके बीच में है खाली स्थान। नालिकाओं से श्वास श्वास-नली के द्वारा फेफड़े में जाते हैं। ये कोशिकाएं अंगूर के गुच्छों की भांति श्वास नली के साथ उल्टी लटकी रहती हैं, जिन्हें Alveoli कहते हैं। जब हम साधारण श्वास लेते व छोड़ते है तो केवल एक तिहाई कोशिकाएं ही प्रभावित होती है, शेष दो तिहाई निष्क्रिय ही पड़ी रहती हैं। श्वासों की दो क्रियाएं हैं - श्वास भरते हुए वायु के साथ आक्सीजन फेफड़ो में पहुंचती है और श्वास छोड़ते हुए कार्बन डायक्सायड बाहर निकालते हैं। साधारण श्वास प्रश्वास की प्रक्रिया में न तो आक्सीजन पूरे फेफड़ो में पहुंचती है और न ही पूरी कार्बन डायक्सायड बाहर निकलती है। इस प्रकार धीरे-धीरे आयु के बढ़ने के साथ फेफड़ो के निचले भाग में कार्बन डायक्सायड एकत्रित होती रहती है और वहां आक्सीजन न पहुंचने के कारण फेफड़ो की वायु व आक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता कम होती जाती है। फेफड़ो की वायु व आक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता को VITAL LUNG-CAPACITY (VLC)कहते हैं। साधारण श्वास लेते समय हम एक मिनट में 18 सांस भरते-छोड़ते हैं और प्रत्येक सांस में आधा लीटर वायु अन्दर भरते हैं, अर्थात् एक मिनट में नौ लीटर वायु। जब हम चलते हैं, तो हमारी वायु भरने की क्षमता 16 लीटर हो जाती है। तेज चलते समय 27 लीटर प्रति मिनट और दौड़ते समय 45 लीटर। गहरे लम्बे श्वास भरते हुए भी हम 45 से 50 लीटर वायु ग्रहण करते हैं। इसी लिए प्राणायाम करते समय हमारी फेफड़ो की वायु ग्रहण क्षमता बहुत अधिक होती है और हम अधिक से अधिक आक्सीजन भी ग्रहण करते हैं।

अनुलोम विलोम प्राणायाम
जब दोनों नासिकाओं से बारी बारी गहरी लम्बी श्वास भरते व छोड़ते हैं, तो उसे अनुलोम विलोम कहते हैं। इसमें बायीं नासिका से श्वास भरते हैं और दायीं से बाहर करते है। पिफर दायीं से भरते हैं और बायीं से निकालते हैं। इसकी विधि को पहले ठीक से समझ लें। दाएं हाथ के अंगूठे से दायीं नासिका बन्द करते हुए बायीं नासिका से सर्वप्रथम श्वास बाहर निकालते हैं। अब बायीं नासिका से ही श्वास भरते हैं, अनामिका अंगुली से बायीं नासिका बन्द करते हुए दायीं नासिका से अंगूठे को हटाकर श्वास बाहर करते हैं। अब दायीं नासिका से श्वास भरकर अंगूठे से दायीं नासिका बन्द करते हुए बायीं नासिका से अनामिका को हटाकर श्वास बाहर करते हैं यह अनुलोम विलोम की एक आवृत्ति है। इस क्रिया को आंखें बन्द रखते हुए शांत मन से दोहराते जाते हैं। इसमें विशेष बात यह है कि जितनी गिनती व गति से श्वास भरते हैं, उसी गिनती व गति से दूसरी नासिका से श्वास बाहर करते हैं। इसे धीरे-धीरे करते हैं ताकि आपको स्वयं भी श्वास भरने व छोड़ने की आवाज न आए। यह इतनी सरल विधि है कि इसे छोटे बच्चे से लेकर 90-100 वर्ष की आयु के लोग भी आराम से कर सकते हैं। वैसे तो अनुलोम विलोम खुली हवा में बैठकर आसन बिछाकर पद्मासन व सुखासन में बैठकर करना ही सर्वोत्तम है, परन्तु जो लोग विस्तर के साथ लगे हुए हैं, वे लेटे लेटे भी कर सकते हैं, कुर्सी पर बैठकर भी कर सकते हैं, परन्तु रीढ़ गर्दन सीधी रखते हुए। अनुलोम विलोम की कई और भी विधियां हैं जिनमें श्वास को रोका भी जाता है, श्वास भरने व छोड़ने की गति में अन्तर भी होता है, परन्तु सभी लोग उन्हें नहीं कर सकते। इसीलिए इस सरल विधि से अनुलोम विलोम करना सभी के लिए आसान है। अनुलोग विलोम को हम असानी से ऐसे समक्ष सकते है - सबसे पहले किसी अनुकूल और हवादार जगह पर पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएँ और इसके बाद अपने दाहिने नासिकाछिद्र को बंद कर लें और बाएँ छिद्र से साँस अन्दर की ओर भरें। फिर वाम नासिका छिद्र को अपनी अनामिका और कनिष्ठा अंगुली से बंद करके दाहिने छिद्र से साँस बाहर छोड़ दें। अब साँस दाहिनी नासिका से पुनः लें,और इसे छोड़े वाम छिद्र से,यह प्रक्रिया दोहराते जाएँ। साँसों को धीरे-धीरे आराम से 8 की गिनती में छोड़ें। शुरुआत में इसे 3 मिनट से ज्यादा न करें पर अभ्यास के साथ इसे 10 मिनट तक किया जा सकता है। इसे सुबह-सुबह खुली हवा में और योग प्रशिक्षक के निर्देश में किया जाए तो बेहतर है। ध्‍यान देने वाली बात यह है कि एनीमिया से पीड़ित रोगी इसे बिना उचित सलाह के न करें और साँस को सहजता से छोड़े व ग्रहण करें,ध्यान रखें जल्दबाजी में या तेजी से साँस लेने छोड़ने से कोई फायदा नहीं होगा।

अनुलोम विलोम का महत्व
हमारे शरीर में 72864 सूक्ष्म नस नाडि़यों का जाल पफैला हुआ है, जिनके द्वारा प्राण शक्ति का संचार पूरे शरीर में होता है। इनमें तीन प्रमुख नाडि़यां है - सूर्य (पिंगला) नाड़ी, चन्द्र (ईड़ा) नाड़ी और सुष्मना नाड़ी। ये तीनों नाडि़यां रीढ़ के सबसे निचले भाग से आरम्भ होती हैं। सूर्य नाड़ी दायीं ओर से आरम्भ होकर सुष्मना के इर्द-गिर्द घूमती हुई दायीं नासिका पर आती है। चन्द्र नाड़ी बायीं ओर से आरम्भ होकर सुष्मना के इर्द-गिर्द घूमती हुई बायीं नासिका पर आती है। अर्थात् सुष्मना नाड़ी तो सीधी है, परन्तु शेष दोनों नाडि़या टेढ़ी मेढ़ी हैं। सूर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी एक दूसरे की विपरीत दिशा में घूमती हैं और पांच स्‍थानों पर एक दूसरे को क्रास करती हैं। जहां-जहां ये मिलती हैं, वहीं पर चक्र है - मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,  मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र  और आज्ञा चक्र। सातवां चक्र है सहस्रार चक्र जहां केवल सुष्मना नाड़ी जाती है। शरीर की सभी 72864 सूक्ष्म नाडि़यां इन्हीं चक्रों के साथ जुड़ी हुई हैं। ये तीनों नाडि़यां हमारी स्नायु प्रणाली का आधार हैं।

स्नायु प्रणाली के दो भाग हैं - मस्तिष्क व रीढ़। इन दोनों को जोड़ने के लिए गर्दन में है  Medulla Oblongata रीढ़ में 33 गोटियां होती हैं। इनमें 31 जोड़ हैं - 16 जोड़ मस्तिष्क को संदेश देते हैं, जिन्हें अनुकम्पी स्नायु प्रणाली (Sympathetic Nervous System) कहते हैं और 15 जोड़ों द्वारा मस्तिष्क शरीर  को आदेश देता है। इसे सह अनुकायी प्रणाली (Para Sympathetic Nervous System) कहते है

जब हम अनुलोम विलोम करते हैं तो रीढ़ की सभी 33 गोटियां, 31 जोड़, Medulla Oblongata व मस्तिष्क प्रभावित होते हैं। इससे समूचे शरीर की प्रत्येक कोशिका तक आक्सीजन पहुंचती है तो पूरा शरीर स्वस्थ रहता है और कहीं भी कोई रोग नहीं होता है। अनुकम्पी व सह अनुकम्पी स्नायु प्रणालियां ठीक से काम करती है।

सूर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी का संतुलन ही हमें स्वास्थ्य प्रदान करता है, इससे शरीर का तापमान सदैव ठीक रहता है। अधिकांश लोगों को यह मालूम नहीं है कि ये दोनों नाडि़यां साथ-साथ नहीं चलतीं। एक घण्टा सूर्य नाड़ी चलती है और एक घण्टा चन्द्र नाड़ी। पूरे दिन में 12 घण्टे सूर्य नाड़ी चलती है और 12 घण्टे चन्द्र नाड़ी। जब हमें सर्दी जुकाम लग जाता है अथवा ज्वर हो जाता है व अन्य कोई भी रोग हो जाता है, तो यह सन्तुलन बिगड़ जाता है। सूर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी का सम चलने व रहने से ही हम स्वस्थ रहते है। जब हम रोगी हो जाते हैं, तो थोड़ी सी उत्तेजना से ही यह सन्तुलन बिगड़ जाता है। दोनों नासिकाओं की गति में अवरोध  उत्पन्न हो जाता है। अनुलोम विलोम से हम इस सन्तुलन को बनाए रखते हैं। केवल 15 मिनट सुबह और 15 मिनट सायं अनुलोम विलोम कर लेने से दिन भर के लिए हमारी सूर्य व चन्द्र नाड़ी सम भाव से चलती रहती है। और हम अनेकों रोगों से बच जाते हैं।

सूर्य नाड़ी मस्तिष्क के दाएं भाग को और चन्द्र नाड़ी मस्तिष्क के बाएं भाग को संचालित करती है। दायां मस्तिष्क हमें शांति प्रदान करता है, हमारी भावनाओं पर नियंत्राण रखता है, तनाव को दूर करता है। बायां मस्तिष्क हमें दैनिक कार्यों को सम्पन्न करने में सक्षम बनाता है। अनुलोम विलोम से मस्तिष्क के दाएं व बाएं भाग में संतुलन बना रहता है। तन, मन व बुद्धि का समन्वय होता है। इसीलिए यह मानसिक रोगों, क्रोध, ईष्‍या, द्वेष अवसाद, उच्च व निम्न रक्तचाप, माईग्रेन, सिर दर्द आदि से बचने का सर्वश्रेष्ठ व सुलभ साधन है। यहां तक कि अनुलोम विलोम से मस्तिष्क के अर्बुद (Tumour) से भी बचा जा सकता है। अनुलोम विलोम केवल रक्षात्मक नहीं है अपितु उपर्युक्त सभी रोगों को दूर भी करता है। वास्तव में अनुलोम विलोम से पूरी स्नायु प्रणाली व रीढ़ प्रभावित होती है।
शरीर में सभी रोगों को दूर करने में भी यह सक्षम है।

अनुलोम विलोम शरीर के सातों चक्रों को भी ठीक रखता है। जब हम बारी-बारी से दोनों नासिकाओं से गहरी लम्बी श्वास भरते हैं, तो पहले मूलाधार चक्र, पिफर स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र व सहस्रार चक्रों पर प्रभाव पड़ता है। इन सभी चक्रों में आक्सीजन व शुद्ध रक्त का संचार भरपूर होता है। जब हम गहरी लम्बी श्वास छोड़ते हैं, तो इन सभी चक्रों में से कार्बन डायक्सायड के रूप में सारी गन्दगी भी बाहर निकल जाती है। सातों चक्रों के शुद्ध होने से इनमें जुड़ी सभी प्राणिक नस नाडि़यां भी शुद्ध हो जाती हैं। उनमें कहीं भी कोई अवरोध नहीं रहता। नस-नाडि़यों व रक्त वाहिनियां लचीली बनी रहती है। हृदय भी स्वस्थ रहता है और समूचे शरीर में शक्ति का संचार होता है। इसीलिए इसे नाड़ी शोधन प्राणायाम भी कहते हैं। अनुलोम विलोम के निरन्तर अभ्यास से कुण्डलिनी जागरण भी होता है। सुष्मना नाड़ी जो मूलाधार में सुप्त रहती है, जागृत होती है और प्राण शक्ति को मूलाधार से सहस्रार तक ले जाती है। इसीलिए आध्यात्मिक उत्त्थान के लिए भी अनुलोम विलोम अनिवार्य है। हमारा शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल। जब तक इनका संतुलन बना रहता है, हम स्वस्थ रहते हैं। इनमें जरा सा भी असंतुलन होने से हम रोग ग्रस्त हो जाते हैं। हाथों की मुद्राओं द्वारा हम पांचो  तत्वों का संतुलन कर सकते हैं। यही कार्य अनुलोम विलोम भी करता है। जब अनुलोम विलोम द्वारा श्वास इन पांचो  चक्रों में पहुंचाते हैं, तो पाँचों तत्वों का संतुलन भी बनता है। मुद्रा चिकित्सा के साथ यदि अनुलोम विलोम भी जोड़ लें, तो आश्चर्यजनक लाभ होता है। इसलिए अनुलोम विलोम एक संजीवनी बूटी है -रामवाण है। इससे मस्तिष्क के दायें बायें भाग का समन्वय, पांचों तत्वों का संतुलन, सातों चक्रों का जागरण होता है, रक्त की शुद्ध होती है, शरीर की प्रत्येक कोशिका प्रभावित होती है तथा इससे शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है।

अनुलोम-विलोम से होने वाले लाभ– 
  • अनुलोम-विलोम प्राणायाम के अभ्यास से हम अतिरिक्त शुद्ध वायु भीतर लेते हैं और कार्बन डाईऑक्साइड यानी दूषित वायु बाहर निकाल देते हैं. इससे रक्त की शुद्धि होती है।  
  • शुद्ध रक्त हृदय के माध्यम से शरीर के सभी अंगों तक पहुँच जाता है और उन्हें पोषण प्रदान करता है।
  • फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ती है और प्राणशक्ति का स्तर बढ़ता है।
  • मस्तिष्क की विचार क्षमता गहरी होती है और एकाग्रता बढ़ती है और मानसिक तनाव का स्तर घटता है। इसलिए हृदय रोगी और जिनका रक्तचाप बढ़ा हुआ है और उन्हें अनुलोम-विलोम का अभ्यास नियमित रूप से करना चाहिए।
  • अनुलोम-विलोम को 'नाड़ी शोधक प्राणायाम' भी कहा जाता है और इससे गठिया, जोड़ों का दर्द व सूजन आदि शिकायतें दूर होती हैं।
  • रोजाना अनुलोम-विलोम करने से फेफड़े शक्तिशाली बनते हैं और शरीर में वात, कफ, पित्त आदि के विकार दूर होते हैं।
  • अनुलोम-विलोम प्राणायाम त्रिदोष नाशक है,अर्थात वात-पित्त-कफ सभी दोषों का शमन करता है।
  • इसे ‘नाड़ी शोधक’ प्राणायाम है, क्योंकि इससे नाड़ियाँ सिद्ध होती है जिससे शरीर स्वस्थ और कान्तियुक्त हो जाता है।
  • अनुलोम विलोम करते समय जब हम शुद्ध हवा भीतर की ओर खींचते हैं तब हमारे रक्त से की दूषित और विषाक्त तत्वों को बाहर निकाल देती है।
  • नियमित रूप से यह प्राणायाम करने से,फेफड़े शक्तिशाली होते हैं और जुकाम और दमे की बीमारी से पूर्ण मुक्ति मिलती है।
  • यह मोटापे और उच्च-रक्तचाप से पीड़ित रोगियों के लिए लाभप्रद है। यह कोलेस्ट्राल को कम करने का सबसे कारगर तरीका है।
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आदि शंकराचार्य का जीवन और दर्शन



आदि शंकराचार्य का जीवन और दर्शन
Life and Philosophy of Adi Shankaracharya

आदि गुरु शंकराचार्य जी का जीवन परिचय
आदि शंकराचार्य (788 ईसवी - 820 ईसवी) का जन्म दक्षिण-भारत के केरल राज्य के कालड़ी ग्राम में हुआ था। केरल की पुण्य भूमि पर एक से एक महान मनीषियों, संतो, तपस्वियों ने जन्म लेकर मानव मात्र को सद्जीवन जीने के लिए प्रेरित किया है। वेदोक्त सनातन, शाश्वत जीवन दर्शन एवं धर्म के आचार्यों में भगवान श्री आद्य शंकराचार्य का स्थान निश्चित रूप से सर्वोपरि है। उनके द्वारा प्रदत्त उदार जीवन दर्शन एवं उनके द्वारा किए गए अथक प्रयासों से, विविध विघटित संप्रदायों को सत्य के एक सूत्र में पिरोया गया था। शंकराचार्य जी को हम भगवान के अवतार की तरह इसलिए स्वीकार करते है, क्योंकि, जो महान कार्य उन्होंने अत्यंत अल्पायु में किए-वो एक साधारण मानव के लिए असंभव प्रतीत होते है। ये अद्वैत वेदांत के प्रणेता, संस्कृत के विद्वान, उपनिषद व्याख्याता और हिन्दू धर्म प्रचारक थे। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार इनको भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिक भाग उत्तर भारत में बीता। चार पीठों (मठ) की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा जो आज भी मौजूद है।

Adi Shankaracharya
आदि शंकराचार्य (Adi Shankaracharya) की कहानी

भारत की पवित्र भूमि पर सनातन धर्म का अद्वैतवाद का प्रचार यानि आत्मा और परमात्मा की एक ही है, प्राचीन काल से ही था। किंतु कालान्तर में जब भारत में बौद्ध और जैन धर्म के प्रसार और हिन्दू कर्मकांडों में आई विकृतियों के विरोध के कारण सनातन धर्म अपनी पहचान खोने लगा। इस के चलते हिंदू धर्म में भी वेदों के ज्ञान को नकारा जाने लगा। सनातन धर्म के अस्तित्व पर आए संकटकाल में ही आदि शंकराचार्य संकटमोचक के रुप में अवतरित हुए। वैशाख शुक्ल पंचमी यानि मई के शुभ दिन ही ऐसे ही कर्मयोगी आदि शंकराचार्य का आविर्भाव यानि जन्म दिवस मनाया जाता है।
आदि शंकराचार्य ने अल्पायु में ही अपने अलौकिक वैदिक ज्ञान और वेदान्त दर्शन से बौद्ध, मीमांसा, सांख्य और चार्वाक अनुयायियों की वेद विरोधी भावनाओं को सफल नहीं होने दिया। आदि शंकराचार्य ने ज्ञान मार्ग के द्वारा ही न केवल बौद्ध धर्म और अन्य संप्रदायों के विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर वेद धर्म का मान बढ़ाया बल्कि उन धर्म और संप्रदायों के अनुयायियों ने भी वैदिक दर्शन को स्वीकार कर लिया। ऐसा कर उन्होंने हिन्दू धर्म का पुनर्जागरण के साथ ही सनातन धर्म और वेदों को फिर से स्थापित और प्रतिष्ठित करने में अहम योगदान दिया। यही कारण है शंकराचार्य प्राचीन अद्वैत मत के प्रवर्तक कहलाए और उनके वैदिक दर्शन और अद्वैत मत शाङ्कर दर्शन या शाङ्कर मत कहलाया।
आदि शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन के अनुसार ब्रह्म और जीव या आत्मा और परमात्मा एक रूप हैं। किंतु ज्ञान के अभाव में ही दोनों अलग-अलग दिखाई देते हैं। आदि शंकराचार्य ने परमात्मा के साकार और निराकार दोनों ही रुपों को मान्यता दी। उन्होनें सगुण धारा की मूर्तिपूजा और निरगुण धारा के ईश्वर दर्शन की अपने ज्ञान और तर्क के माध्यम से सार्थकता सिद्ध की। इस प्रकार सनातन धर्म के संरक्षण के प्रयासों को देखकर ही जनसामान्य ने उनको भगवान शंकर का ही अवतार माना। यही कारण है कि उनके नाम के साथ भगवान शब्द जोड़ा गया और वह भगवान आदि शंकराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।

Adi Shankaracharya

आदि शंकराचार्य वेदों के परम विद्वान थे, प्रखर भविष्यदृष्टा थे। उन्होंने सनातन धर्म की अपने ज्ञान से तत्कालिन समय में ही रक्षा नहीं की वरन सनातन धर्म और वेदों का अस्तित्व और प्रतिष्ठा अनंत काल तक बनाए रखने की दृष्टि के साथ अपने जीवनकाल में ही जगह-जगह घूमकर वेदान्त दर्शन का प्रचार-प्रसार किया । इसी उद्देश्य से उन्होंने देश की चारों दिशाओं में चार धाम, चार पीठ, बारह ज्योर्तिंलिंगों और अखाड़ों की स्थापना की। इनके व्यापक प्रभाव से बाद में अनेक संप्रदाय और पंथ स्थापित हुए। उनके द्वारा इन सब देवस्थानों और धर्म पीठों के स्थानों का चयन उनकी अद्भुत दूरदर्शिता का प्रमाण है। जहां बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ ज्योतिर्लिंग हिमालय पर्वत की श्रृंखलाओं में हैं, वहीं शेष सागर के तटों पर अन्य तीन दिशाओं में हैं। इस प्रकार आदि शंकराचार्य ने पूरे देश को सदियों पूर्व ही एक धर्म सूत्र में बांध दिया था, जो आज भी कायम है।

आदि शंकराचार्य की विद्वानता के कारण ही कहा जाता है कि उनकी जीभ पर माता सरस्वती का वास था। यही कारण है कि अपने ३२ वर्ष के संपूर्ण जीवनकाल में ही आदि शंकराचार्य ने अनेक महान धर्म ग्रंथ रच दिये। जो उनकी अलौकिक प्रतिभा को साबित करते हैं। आदि शंकराचार्य कर्मयोगी, वेदों की प्रति गहन विचारशीलता, ईश्वरीय प्रेम, त्याग, पाण्डित्य से भरे अद्भुत गुणों की मूर्ति थे। आदि शंकराचार्य ने प्रखर ज्ञान और बुद्धि बल से ही आठ वर्ष की उम्र में चारों वेद और वेदांगों का ज्ञान प्राप्त किया। 12 वर्ष की उम्र में हिन्दू धर्म शास्त्रों की गूढ़ता में दक्ष बने और 16 वर्ष की अल्पायु में ब्रह्मसूत्र पर भाष्य रच दिया। यही कारण है कि आज भी हर सनातन धर्मावलंबी आदि शंकराचार्य को स्मरण कर स्वयं को धन्य मानता है। साथ ही उनके द्वारा स्थापित वैदिक धर्म का अनुसरण और पालन करते हैं।

काशी में मिला ज्ञान
अद्वैत वेदांत के प्रणोता आद्य शंकराचार्य ने दुनिया को ज्ञान दिया, इसकी अजस्त्र धारा उनमें देवाधिदेव की नगरी काशी में ही फूटी। काशी विश्वनाथ के दरस परस के निमित्त महादेव की नगरी में आगमन की राह से इसकी शुरुआत हुई। दो घटनाक्रमों से देश को दिशा देने वाली इन महाविभूति का प्राकट्य हुआ। इसका बड़ा स्रोत बनीं महामाया लीला जिन्होंने सत्य से उनका साक्षात्कार कराया। अद्वैत ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष ब्रह्म को सत्य मानते थे। ब्रह्म मुहूर्त में शिष्यों संग स्नान के लिए मणिकर्णिका घाट जाते आचार्य का राह में बैठी विलाप करती युवती से सामना हुआ। युवती मृत पति का सिर गोद में लिए बैठी करुण क्रंदन कर रही थी। शिष्यों ने उससे शव हटाकर आचार्य शंकर को रास्ता देने का आग्रह किया। दुखित युवती के अनसुना करने पर आचार्य ने खुद विनम्र अनुरोध किया। इस पर युवती के शब्द थे कि हे संन्यासी, आप मुझसे बार-बार शव हटाने को कह रहे हैं। इसकी बजाय आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते। आचार्य ने दुखी युवती की पीड़ा को महसूस करते हुए कहा कि देवी! आप शोक में शायद यह भी भूल गई हैं कि शव में स्वयं हटने की शक्ति नहीं होती। स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- महात्मन् आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता। एक सामान्य महिला के ऐसे गंभीर, ज्ञानमय व रहस्यपूर्ण शब्द सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए। समाधि लग गई और अंत:चक्षु में उन्होंने देखा कि सर्वत्र आद्या शक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया। मुख से मातृ वंदना की शब्द धारा फूट चली। इसके साथ आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार भक्ति धाराएं एक साथ हिलोरें लेने लगीं। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है वही द्वैत भूमि पर सगुण साकार रूप हैं। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुंचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन धरती पर उन्होंने यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है।  

वेदोक्त ज्ञान का प्रसार
वेद वे प्रामाणिक ग्रंथ हैं जो जीवन की जटिल पहेली का हमें प्रामाणिक उत्तर प्रदान करते हैं। परम्परा अनुसार वेदों का ज्ञान सदैव किसी श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ से ही प्राप्त करना चाहिए। विश्व भर में जहाँ भी किसी सामाजिक क्रांति का आविर्भाव हुआ है, वहाँ सत्य को ही उद्घाटित कर प्रचलित मोह को समाप्त किया गया था। आचार्य शंकर के समय भी इस जटि़ल जीवन की पहेली को न बूझ पाने का कारण दो प्रकार की अतियाँ विशेष रूप से प्रचलित हो गई थी, जिनको भगवत्पाद ने अपने ज्ञान के प्रकाश से दूर कर एक अत्यंत दूरगामी सामाजिक क्रांति का शुभारम्भ किया था। एक तरफ वेदों में आस्था रखने वाले वेदों के समग्र ज्ञान से अनभिज्ञ होने के कारण कर्मकांड को ही मोक्ष प्रतिपादक भाग समझ बैठे थे, तो दूसरी तरफ कर्मकांड का उचित स्थान तथा प्रयोजन न जानने के कारण एवं कर्मकांड से प्रचलित कुछ कुरीतियों के कारण बौद्धों ने प्रतिक्रिया स्वरूप वेदों का ही खंडन करना प्रारंभ कर दिया था। ये दोनों आतियाँ त्याज्य थी,जिन्हें भगवत्पाद ने अपने दिव्य ज्ञान के प्रकाश से इन्हें दूर कर वेदोक्त दिव्य ज्ञान की सुगंध पूरे देश में फैला दी थी। आचार्य शंकर का अपना कोई पृथक् दर्शन नहीं था, वे तो वेद का ही वास्तविक रहस्य उद्घाटित कर वेदों की प्रमाणिकता एवं मर्यादा की पुनःस्थापना करने के प्रति समर्पित थे। उनका जीवन ऐसे लोगों को पुनर्विचार के लिए प्रेरित करता है जो थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त कर उस ज्ञान को अपने नाम से जोड़कर अपने संप्रदाय बनाने में ज्यादा इच्छुक होते हैं। वेदों का संदेश जीवन में ‘एकमेव अद्वितीय’ दिव्य सत्ता का संदेश है। अतः उनका हेतु किसी दर्शन का खंडन करना मात्र नहीं था और न ही वे किसी अन्य दर्शन के प्रतिस्पर्धी की तरह खड़े हुए। उन्होंने समस्त दर्शनों का जीवन के इस परम लक्ष्य ‘अद्वैत साक्षात्कार’ में स्थान बताया और एक समन्वित दृष्टिकोण प्रदान किया। उनके समस्त भाष्य, काव्य, स्तोत्र या अन्यान्य रचनाओं में एक अद्भुत समन्वय दिखाई पड़ता है। ये समस्त रचनाएँ न केवल उनके सर्वात्मभाव को उद्घाटित करती है, बल्कि एक पूर्ण विकसित मानव का हमारे समक्ष जीवंत दृष्टान्त प्रस्तुत करती हैं।  

आचार्य का संदेश
प्रत्येक मनुष्य का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह शाश्वत,दिव्य, कालातीत सत्ता को अपनी आत्मा की तरह से जानकर मोक्षानंद का पान करें। इस अन्तः जागृति के लिए केवल ज्ञान मात्र की अपेक्षा होती है, लेकिन ईश्वर से ऐक्य का ज्ञान तभी संभव होता है जब ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ भक्ति-भाव विद्यमान हो। ऐसी भक्ति एकदेशीय न होकर सार्वकालिक होनी चाहिए, अतः भक्त के प्रत्येक कर्म उत्साह से युक्त, निष्काम एवं सुंदर होने अवश्यंभावी है। इस तरह से समस्त ज्ञान, भक्ति एवं कर्म प्रधान साधनाओं का सुंदर समन्वय हो जाता है। जो भी मनुष्य ऐसी दृष्टि का आश्रय लेता है वह अपने धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष रूपी समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि कर परम कल्याण को प्राप्त होता है।

आज भगवत्पाद की पुनः आवश्यकता
आचार्य शंकर के आगमन के समय देश जिन विकट परिस्थितियों के दौर से गुजर रहा था वही समस्याएँ आज भी नज़र आती हैं। धर्म के नाम पर संप्रदाय विघटित होते जा रहे हैं। भिन्न-भिन्न मतावलम्बी अपने-अपने संप्रदायों के प्रति आस्था रखे हुए अपनी अलग पहचान बनाने के लिए आतुर है। धर्म के नाम पर सत्य की खोज एवं उसमें जागृति गौण हो गई है, तथा अन्य प्रयोजन प्रधान हो गए हैं। आज जहाँ एक तरफ विज्ञान एवं उन्नत प्रोद्यौगिकी लोगों की दूरी को कम कर रही है, वहीं दूसरी तरफ धर्म के नाम पर कट्टरता मनुष्यों के बीच के फासले एवं विद्वेष बढ़ाती जा रही है। आत्मीयता-स्वरूप जो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की दृष्टि प्राप्त होनी चाहिए, उसके बजाए विपरीतपरिणामदेखें जा रहे हैं। सत्य की खोज के नाम पर तो ऐसासम्भव नहीं। ऐसी विषम परिस्थितियों में हमें भगवान आदि शंकराचार्य के अद्भुत, उदात्त, समन्वयात्मक एवं सत्यपरक संदेश की पुनः अत्यंत आवश्यकता है। आज उनके द्वारा प्रदत्त संदेश को जनमानस तक पहुँचाने की अत्यंत आवश्यकता है। 

आदि शंकराचार्य के अनमोल विचार 

  1. एक सच यह भी है की लोग आपको उसी वक़्त ताक याद करते है जैब ताक सांसें चलती हैं। सांसों के रुकते ही सबसे क़रीबी रिश्तेदार, दोस्त, यहां तक की पत्नी भी दूर चली जाती है।
  2. मंदिर वही पहुंचता है जो धन्यवाद देने जाता हैं, मांगने नहीं।
  3. सत्य की कोई भाषा नहीं है। भाषा सिर्फ मनुष्य का निर्माण है। लेकिन सत्य मनुष्य का निर्माण नहीं, आविष्कार है। सत्य को बनाना या प्रमाणित नहिं करना पड़ता, सिर्फ़ उघाड़ना पड़ता है।
  4. मोह से भरा हुआ इंसान एक सपने कि तरह हैं, यह तब तक ही सच लगता है जब तक आप अज्ञान की नींद में सो रहे होते है। जब नींद खुलती है तो इसकी कोई सत्ता नही रह जाती है।
  5. आत्मसंयम क्या है ? आंखो को दुनियावी चीज़ों कि ओर आकर्षित न होने देना और बाहरी ताकतों को खुद से दूर रखना।
  6. जिस तरह एक प्रज्वलित दिपक को चमकने के लीए दूसरे दीपक की ज़रुरत नहीं होती है। उसी तरह आत्मा जो खुद ज्ञान स्वरूप है उसे और क़िसी ज्ञान कि आवश्यकता नही होती है, अपने खुद के ज्ञान के लिए।
  7. तीर्थ करने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है। सबसे अच्छा और बड़ा तीर्थ आपका अपना मन है, जिसे विशेष रूप से शुद्ध किया गया हो।
  8. सच की जिज्ञासा - जब मन में सच जानने की जिज्ञासा पैदा हो जाए तो दुनियावी चीज़े अर्थहीन लगती हैं।
  9. हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि आत्मा एक राज़ा की समान होती है जो शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि से बिल्कुल अलग होती है। आत्मा इन सबका साक्षी स्वरुप है।
  10. सत्य की परिभाषा क्या है ? सत्य की इतनी ही परिभाषा है की जो सदा था, जो सदा है और जो सदा रहेगा।
  11. अज्ञान के कारण आत्मा सीमित लगती है, लेकिन जब अज्ञान का अंधेरा मिट जाता है, तब आत्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाता है, जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देने लगता है।
  12. धर्म की किताबे पढ़ने का उस वक़्त तक कोई मतलब नहीं, जब तक आप सच का पता न लगा पाए। उसी तरह से अगर आप सच जानते है तो धर्मग्रंथ पढ़ने कि कोइ जरूरत नहीं हैं। सत्य की राह पर चले।
  13. आनंद तभी मिलता है जब आनंद कि तालाश नही कर रहे होते है।

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