औषधीय गुणों से युक्त अदरक



अदरक  आग और पानी का संगम है। नमीदार रहने तक यह अदरक कहलाता है और सूखने-सुखाने के बाद यही अदरक सौंठ बन जाता है। प्रकृृति का यह विचित्र करिश्मा ही कहिए कि इसका रस चाहे जल तत्व वाला है, मगर इसी जल में आग भी भरी हुई है। रूखापन अदरक का विशेष गुण है। यह भी इसकी एक खासियत ही कहिए कि रूखा होने पर भी यह सभी वर्गों का हितैषी है। महर्षि चरक ने तो सौंठ को बलवर्द्धक माना है। इसका प्रयोग हमारे परिवारों में कई बीमारियों के इलाज के लिए भी किया जाता है।
लोगों में अधिकांश दिक्कत भूख न लग्न, खाना न पचना, पेट में वायु बनना, कब्ज आदि पाचन संबंधित तकलीफे है और पेट से ही अधिकांश रोग उत्पन्न होते है।  अदरक पेट की अनेक तकलीफों में रामबाण औषधि है। शरीर में जब कच्चा रस (आम) बढ़ता है या लम्बे समय तक रहता है तब अनेक रोग उत्पन्न होते है।  अदरक का रस आमाशय के छिद्रों में जमे कच्चे रस एव  कफ को यथा बड़ी आँतों में जमे आंव को पिंघलाकर बाहर निकल देता है तथा छिद्रों को स्वच्छ कर देता है।  इस वजह से जठराग्नि प्रदीप्त हो जाती है और पाचन तंत्र स्वस्थ बनता है।  यह लार एव आमाशय का रस दोनों की उत्पत्ति बढ़ता है , जिससे की वजह से  भोजन का पाचन बढ़िया होता है एवं अरुचि दूर होती है।
कुछ नुस्खे प्रस्तुत हैं। ऐसी छोटी-बड़ी परेशानियां जब भी आपके सामने आएं इस सस्ती सी गांठ से राहत पाइए-
  • कान दर्द हो रहा हो, तो इसकी गांठ कुचल कर रस को गरम करके तीन चार बूंदें कान में टपका लें।
  • कफ जमने या किसी वजह से गला दुखने पर अदरक का रस 10 ग्राम लेकर उतनी ही मात्रा में शहद मिलाकर चाट जाएं। गले के रोगों में यह नुस्स्खा बहुत सस्ता और निरापद है।
  • छपाकी, शीत पित्ती अथवा पित्ती उछलना शरीर में पित्त के बढने से होता है। बचाव के लिए अदरक का रस शहद से चटाइए। शहद नहीं मिले तो पुराने गुड में मिलाकर भी दिया जा सकता है।
  • सर्दी की वजह से छाती में कफ जम जाने या किसी अन्य कारण से सर दर्द होता रहता है तो सौंठ या अदरक, काली मिर्च, पीपल, बायबिडंग, सैंधा नमक 10-10 ग्राम, अजवायन 20 ग्राम, काला नमक 40 ग्राम, राई 10 ग्राम का चूर्ण एक चम्मच पानी के साथ दिन में दो बार फंकवाना चाहिए।
  • पेट दर्द हो रहा हो तो अदरक का रस 5 ग्राम और उतना ही दूध मिलाकर पिलाएं। अजवायन में अदरक का रस मिलाकर लेना भी गुणकारी है।
  • पेट में गड-गड हो तो सौंठ या अदरक, हीरा हींग, काला नमक, सैंधा नमक, मीठा सोडा चुटकी भर, काली मिर्च, काला जीरा सबको 3-3 ग्राम की मात्रा में लेकर इनका चूर्ण बना लें। परेशानी के दौर में गरम पानी में थोड़ी सी मात्रा में चूर्ण की फांकी ले लीजिए, पेट ठीक हो जायेगा।
  • घुटनों में दर्द होता रहता है तो अदरक का रस या सौंठ का चूर्ण, काली मिर्च, बायविंडग तथा सैंधा नमक का चूर्ण बनाकर रख लें। इस चूर्ण की 3-3 ग्राम की मात्रा शहद में मिलाकर चाटते रहना चाहिए।
  • ठीक से नींद नहीं आ पाती हो तो सौंठ के 2 ग्राम चूर्ण में 8 ग्राम पीपलामूल को गुड़ में पीसकर खाएं। इसके बाद दूध पीना चाहिए। 3-4 दिन में ही रूठी नींद मानती नजर आएगी, आप मीठी नींद ले सकेंगे। कुछ दिन लगातार लेते रहें।
  • बच्चे को हिचकी आती हो तो काली मिर्च, अदरक का रस और नींबू का रस घोलकर चटाना चाहिए।
  • इंफ्लूएन्जा (फ्लू) होने पर अदरक की गाँठ व तुलसी के पत्ते पीसकर गरम पानी में उबाल कर पिलाएं।
  • कुंभ कमला हो गया हो यानी सीना छोटा और पेट फूलकर घड़ा जैसा रहता हो तो इस वात वायु प्रधान बीमारी से निजात पाने के लिए अदरक, त्रिफला (हरड़, बहेड़ा, आंवला) और त्रिकुटा (सौंठ, पीपल, काली मिर्च) समान मात्रा में लेकर गुड़ मिलाकर दिन में गरम पानी के साथ 10 ग्राम मात्रा में लें। यदि सांस फूलती हो जी मिचलाता हो तो दिन में 4-4 घण्टे में देते रहें।
  • मूत्र नलिका में दर्द हो तो अदरक का रस या सौंठ का चूर्ण गौमूत्र के साथ लें।
  • जिगर में सूजन, तिल्ली बढ़ना आदि से बचना हो तो अदरक के 2-3 टुकडे, एक ताजी नरम मूली और एक नींबू के रस तीनों को सलाद की तरह लें या चटनी की तरह लें।
  • मुंह पर झाइंयाँ हो, मुंहासे हो तो अदरक को कुचलकर उसका रस निकालकर हल्का सा गरम करके नारियल के तेल में मिलाकर सबरे-सबेरे मुँह पर नीचे से ऊपर की तरफ हल्की-हल्की मालिश कुछ दिन लगातार करें।
  • सूखा रोग में अदरक और बांसे के रस को शहद में मिलाकर (तीनों 5-5 ग्राम) लें। 15 ग्राम की खुराक सबेरे-शाम लेते रहें।
  • दमे के लिए सीप भस्म अदरक के रस में मिलाकर गोलियाँ बना लें। इन्हें प्रातः सायं तुलसी पत्ती डली हुई चाय के साथ लेते रहें।
  • पेट में मरोड़ आकर पानी जैसे पतले दस्त लग रहे हों तो नाभि के आसपास आटा गीला कर मेड़ बना दें तथा उसमें अदरक का रस भर दें। यह प्रयोग ग्रामीणों में अनुभूत प्रयोग माना जाता है। परेशान रोगी तुरन्त राहत महसूस करने लगेगा।
  • अम्ल पित्त (एसीडिटी) में अदरक और धनिया समान मात्रा में लेकर पीने से पित्त शामिल हो जाता है।
  • महिलाओं को कमरदर्द हो तो सौंठ के चूर्ण या अदरक के रस को नारियल के तेल में उबालकर मालिश करें।
  • रोज भोजन  से पहले अदरक को बारीक़ टुकड़े टुकड़े करके सेंधा नमक के साथ लेने से पाचक रस बढ़कर अरुचि मिटती है।  वायु भी नहीं बनती व् भूख भी खुलकर लगती है।  जिससे स्वास्थ्य अच्छा बना रहता है।

इस तरह अदरक से अनेक रोगों और मौसमी परिवर्तन के दौरान उठने वाले शारीरिक उपद्रवों का इलाज आप घर बैठे कर सकते हैं। चाय में अदरक लेने की आदत बनाइए। भोजन के समय अदरक की चटनी या नमक लगाकर अदरक के मिक्स अचार, मुरब्बे, चटनी के रूप में भी ले सकते हैं। कभी-कभी उबालकर सूप बनाकर लेने से पेट के आतंरिक विकारों से राहत पायेंगे। सर्दी में इसके लड़डू बनाकर खाना भी बलवर्द्धक, रक्तशोधक होता है। इसलिए इस चटपटी मसाले की गांठ को अपने आहार में भरपूर मात्रा में प्रयोग करने की आदत बनाकर इसके गुणों को पाइए।

महत्वपूर्ण लेख 


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तेजस्वी बलिदानी सिख गुरु तेगबहादुर



आज  से  कई  दशक  पहले  मैं दिल्ली में निवास के दौरान जब भी वहां के प्रसिद्ध गुरुद्वारा रकाबगंज के सामने से  निकलता  था  तब  दूसरे  अनेक श्रद्धालुओं की तरह सड़क से ही स्वतः आंखें झुक जातीं और उनके प्रति आदर से हाथ जोड़ लेता था। सिख गुरु तेग बहादुर  के  बलिदान  से  जुड़े  इस पवित्र स्थल के बारे में इससे अधिक जानने  का  मैंने  कभी  कोई  प्रयत्न नहीं  किया  था।  पर  हाल  में  जब मैंने  प्रसिद्ध  लेखक  व  साहित्यकार डॉ  किशोरीलाल  व्यास  ‘नीलकण्ठ’ का खालसा नाटक व उसकी भूमिका पढ़ी  तब  मैं  कुछ  ऐतिहासिक  तथ्यों को  जानकर  स्तब्ध  सा  रह  गया था।  नवं  सिख  गुरु  तेगबहादुर  के शीश कटने के बाद एक लखी शाह नाम का बंजारा था जो उनके धड़ को अंधेरे का लाभ उठाकर ले गया और अपनी रूई भरी बैलगाड़ी पर ही उसने शीश विहीन धड़ का संस्कार कर दिया था। जिस स्थान पर बंजारे ने गुरु जी का अंतिम संस्कार किया था वहीं पर यह गुरुद्वारा रकाबगंज निर्मित हुआ था। इस गुरुद्वारे  के  एक  विशाल  सभागृह  में जिसका  नाम  लखी  बंजारा  हाल  है, उसकी  स्मृति  को  भी  अक्षुण्ण  रखा गया है।
वीरता  और  शौर्यपूर्ण  सिखों  का पहले मुगलों और बाद में अंग्रेजों के साथ संघर्ष के इतिहास में अनेक लोमहर्षक प्रसंग  हुए  जिनका  वर्णन  किसी  भी देशवासी के हृदय को तेजस्वी गुरुओं को दी गई भयावह यातनाओं और उस समय हिन्दुओं को बचाने के लिए दिए गए बलिदानों के कारण द्रवित सकता है।

औरंगजेब आजीवन इस प्रयत्न में रहा  कि  सिखों  के  गुरु  यदि  इस्लाम कबूल कर लें तो सिखों का बड़ा समुदाय स्वयमेव  मुसलमान  बन  जायेगा।  पर सिखों  ने  पीढ़ी-दर-पीढ़ी  बलिदान देकर  औरंगजेब  की  आकांक्षाओं  को विफल  कर  दिया  था।  उनका  सारा इतिहास बलिदानों का इतिवृत्त रहा है जो कश्मीर के ब्राह्मणों पर औरंगजेब द्वारा अत्याचारों व सहस्रों की हत्या के साथ वस्तुतः शुरु होता है।

कहते हैं-जब मारे हुए ब्राह्मणों के जनेयू का वजन बारह सेर होता था तभी औरंगजेब खाना खाता था। अनेकों ने आत्महत्या  की,  पलायन  किया  या इस्लाम  कबूल  कर  लिया  था।  तब ब्राह्मणों का प्रतिनिधिमण्डल सिखों के नवं गुरु तेग बहादुर, जिन्हें वे तेजस्वी महापुरुष मानते थे कि शरण में पहुंचा जो  उस  समय  ध्यानावस्थित  थे  और स्वयं उस विकट परिस्थिति में बलिदान की  आवश्यकता  उस  मुगल  धर्म  को समाप्त करने के लिए हल बताने लगे ! सभी लोग हतप्रभ थे ! तभी दस वर्षीय गुरु गोविन्द सिंह जो वहां बैठे थे, कह उठे-पिताश्री इस समय आपसे बढ़कर तेजस्वी पुरुष कौन है ?

गुरु  तेगबहादुर  को  लगा  कि बालक की बात सच है और वे स्वयं औरंगजेब से मिलकर उसे समझाने के लिए प्रस्तुत हो गए। पण्डितों ने धैर्य की सांस ली जब गुरु तेगबहादुर अपने पांच शिष्यों के साथ दिल्ली के लिए निकल पडे़ जहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनके  नाम  थे-  भाई  मतिदास,  भाई दयाला, भाई सतिदास गुरुजी की आंखों के सामने एक-एक शिष्य को समाप्त किया गया ताकि उन्हें सदमा लगे। भाई मतीदास को एक बड़े आरे से चिरवाया गया, भाई दयाला को एक बड़ी देगची ने उबलते  पानी  में  फेंक  दिया,  भाई सतीदास को चारों ओर रूई में लपेटकर आग लगा दी गई। मरने के क्षण तक ये श्रद्धालु भक्त जपुजी, सुखमयी आदि का पाठ करते रहे। गुरुजी ने शांत होकर ये वीभत्स  दृश्य  देखे  और  अपना  धर्म बदलना नामंजूर कर दिया। तब दिल्ली के चांदनी चैक में सभी लोगों के समक्ष गुरुजी के वध का आदेश दिया गया। यह घटना 1675 ई0 की है जब गुरुजी की आयु 53 वर्ष की थी।

बीच बाजार में बिठाकर मौलवियों ने  गुरुजी  से  व्यंगपूर्ण  स्वर  में  कुछ चमत्कार  दिखाने  का  आग्रह  किया। गुरुजी ने कहा मैं कोई चमत्कारी पुरुष नहीं। गले में बंधी रस्सी को इंगित कर उन्होंने कहा--यही मेरा चमत्कार है। जल्लाद ने मौलवियों के आदेश पर एक ही झटके में तलवार से उनका सिर धड़ से  अलग  कर  दिया।  जब  दर्शकों  में हाहाकार मचा था, एक शिष्य ने अचानक जान जोखिम में डालकर गुरुजी का सिर लेकर गायब कर दिया। उस सिर को लेकर आनन्दपुर साहिब पहंुचा। गोविन्द सिंह  ने  उसका  दाह  संस्कार  किया। औरंगजेब की आज्ञा से ‘हिन्दू धर्म’ की ढाल  बने  गुरुजी  का  बलिदान  हुआ। आज दिल्ली में उसी स्थान पर शीशगंज गुरुद्वारा बना हुआ है।


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बलिदान एवं त्याग की प्रतिमूर्ति गुरु गोविन्द सिंह



गुरु तेगबहादुर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र गुरु गोविन्द सिंह दशम सिख गुरु बने जिन्होंने खालसा पंथ की स्थापना के संदर्भ में समस्त सिख समुदाय को पंथ की दीक्षा देकर उनकी मानसिकता में आमूलचूल रूपान्तरण कर दिया। हिन्दू-सिख दोनों का संरक्षण करने के लिए जब भी मुगलों व सिखों में युद्ध भड़कता था। वे देश का दाहिना हाथ बनकर उठ खड़े होते थे। धर्मान्ध महत्वाकांक्षी, कट्टर सुन्नी यह क्रूर शहंशाह अपने भाइयों की हत्या कर सिंहासन पर बैठा और बाद में अपने पिता को बंदी बनाकर रखा जो देश के लिए एक भूकम्प जैसी घटना से कम नहीं है।
जब औरंगजेब में हिन्दुस्थान को पूरी तरह इस्लामी राज्य बनाने की ठान ली थी और जब अकबर की नीतियों के विरुद्ध उसे इस्लाम का जुनून सवार हो चुका था, देश में अंधकार जैसा छा गया था ! तलवार के बल पर धर्मान्तरण, जजिया, हिन्दुओं के सार्वजनिक उत्सवों पर प्रतिबन्ध, तथाकथित ‘काफिरों’ के मंदिरों व तीर्थों का विध्वंस अबाध गति से हो रहा था और उत्तरी क्षेत्रों व राजस्थान से लेकर गुजरात तक उसका आतंक फैला हुआ था। 

यह बात भी भुलाई नहीं जा सकती है कि दीवारों के शिलालेखों, भित्तिचित्रों व बहुमूल्य कलासामग्रियों को सिर्फ इसलिए मटियामेट किया गया था क्योंकि बीजापुर व गोलकुण्डा के शासक शिया थे। गोलकुण्डा के किले के अंदर हजारों शियाओं को मुगल सैनिकों ने बेरहमी से मार दिया था।

औरंगजेब अपनी युवावस्था से ही कुचक्री था और इसीलिए शाहजहां ने उसे दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेजा था। सबसे बड़ा पुत्र दाराशिकोह क्योंकि अनेक हिन्दू पवित्र ग्रंथो का उसने फारसी में अनुवाद कराया था और सहिष्णु विद्वान भी था और शाहजहां का चहेता था। इसलिए उसका सिर कटवा कर दिल्ली दरवाजे पर लटकाया गया था। अपने दूसरे भाई मुराद व शुजा को भी मारकर उसने अपने रक्तरंजित हाथों से मुगलिया सल्तनत हासिल की थी।


अपने सबसे बडे़ पुत्र मुहम्मद सुल्तान को भी उसने ग्वालियर के किले में 12 वर्ष बंदी बनाकर रखा था। जहां 38 वर्ष की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गई थी। हिन्दुओं, सिखों, राजपूतों, शियाओं, इस्माइलियों, बोहरा आदि के साथ जब औरंगजेब ने अपनी बहन तथा बेटी जेबुन्निसा को भी कैद में डाल दिया था, उसके बाद से उसे जल्लादों का जल्लाद तक कहा जाने लगा था !

गुरु गोविन्द सिंह जी ने मुगलों की सेना से भिड़ने को त्याग, तपस्या, साधना, संगठन व अस्त्र-शस्त्र सभी क्षेत्रों में सिखों के आत्मबल को जगाया। जहां पहले के गुरु भक्ति पद्धति में भक्ति की आराधना को समन्वित करते थे वहीं गुरु गोविन्द सिंह स्वयं तलवार धारण करते थे-एक ‘पीरी’, दूसरी ‘भीरी’। शत्रु के राज्य में शक्ति की उपासना अनिवार्य है, यह उनका मत था।

अपने अनुआइयों से गुरुजी ने कहा कि वे तलवार को ईश्वर और ईश्वर को ही तलवार मानें ! उन्होंने लोहे को सबसे पवित्र बताया। अपनी प्रसिद्धकृति ‘‘चण्डी चरित्र’’ में उन्होंने यहां तक कहा था- ‘‘जै शुभ कर्मों से कभी न डरूं और युद्ध में जूझता मर जाऊं। गुरु गोविन्द सिंह जी ने युद्ध को धर्म से समन्वित कर दिया था, उनके दो पुत्र अजीत सिंह और जुझारू सिंह मुगलों के साथ युद्ध में मारे गए थे। दो अन्य पुत्रों जोरावर सिंह (9 वर्ष) और फतह सिंह (7 वर्ष) को सरहिन्द के सूबेदार वजीर खान ने इस्लाम स्वीकार न करने के कारण दीवारों में चुनवा दिया था। चार-चार वीर पुत्रों को खोकर भी गोविन्द सिंह जी ने हिम्मत न हारी थी--‘चार मुए तो क्या हुआ, जीवित कई हजार।’

12 अप्रैल, 1699 का वह दिन आया जब विभिन्न प्रदेशों से सिख आनंदपुर आ पहुंचे। वह बैसाखी का दिन था जब गुरुगोविन्द सिंह कृृपाण के साथ मंच पर पहुंचे उन्होंने कहा देवी बलिदान चाहती है, क्या कोई शीश देगा ? सहसा लाहौर का खत्री दयाराम उठा जिसे वह पर्दे के पीछे ले गए। एक बकरे की बलि चढ़ाई और रक्तरंजित तलवार लिए फिर बाहर आ गये। फिर उसी प्रश्न पर दिल्ली के जाट धरमदास उठ खडे़ हुए। उन्हें भी गुरुजी अंदर ले गए और रक्त से डूबी हुई तलवार लेकर बाहर आ गए।

इसी तरह का प्रश्न दोहराने पर एक के बाद एक-मोहकमचंद, साईं बचन्द तथा हिम्मतराम उठे जिन्हें गुरुजी अंदर ले गए। फिर सभी पांचों को अपने साथ लेकर मंच पर आए। उन्होंने कहा मैंने उन्हें मारा नहीं, ये ही पांचों बलिदानी पंजप्यारे हैं-पांच सिंह हैं। ये ही विशुद्ध खालसा बलिदानी वीर हैं। उस समय 80,000 सिखों ने अमृतपान कर खालसा पंथ का निर्माण किया था जो सदैव कफन सिर पर बांधे युद्ध के लिए तत्पर रहते थे।

इस प्रकार धर्म की रक्षा के लिए गुरु गोविन्द सिंह जी ने जिस पंथ का निर्माण किया, उसने धर्मान्ध मुसलमानों की बाढ़ को रोकने में सफलता पाई। देश के इतिहास में वस्तुतः गुरु गोविन्द सिंह जैसा व्यक्ति ढूंढ़़ पाना असम्भव सा हैं-एक वीर, तपस्वी और कवि के साथ-साथ पंजाबी, ब्रज, फारसी और अरबी आदि भाषाओं पर असाधारण अधिकार रखें, ऐसा विविध भाषाओं का ज्ञाता कहां मिल सकता है! इस सत्ता, सैनिक और कवि का देहावसान 16 अक्टूबर 1708 को केवल 42 वर्ष की अल्पायु में गोदावरी के तट पर महाराष्ट्र के नांदेड़ नामक स्थान पर हुआ था जहां का भव्य गुरुद्वारा एक तीर्थस्थल भी बन चुका है। उन्होंने धर्म को राष्ट्रीयता से जोड़कर उत्तर भारत में इतिहास की धारा को ही एक नया मोड़ दिया था।

गुरु गोविन्द सिंह के संगठन के पीछे की ऐतिहासिक भूमिका गुरु तेग बहादुर का बलिदान कार्य करता रहा था। कालान्तर में गुरु गोविन्द सिंह जी ने बलिदानी सिखों की वह खालसा सेना तैयार की थी जिसने हर मुगल शासक की विशाल फौज से टक्कर लेने में कोई झिझक नहीं दिखाई थी। गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी ने यह संघर्ष तब तक जारी रखा जब तक औरंगजेब की मृत्यु 80 वर्ष की आयु में अहमदनगर में 1707 में हो गई।


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