निबंध - योग का महत्व




 निबंध - योग का महत्व
 
प्राचीन काल मे योग विद्या सन्यासियों या मोक्ष मार्ग के साधको के लिए ही समझी जाती थी तथा योगाभ्यास के लिए साधक को घर को त्याग कर वन मे जाकर एकांत में वास करना होता था । इसी कारण योगसाधना को बहुत ही दुर्लभ माना जाता था। जिससे लोगो में यह धारणा बन गयी थी कि यह योग सामाजिक व्यक्तियों के लिए नही है। जिसके फलस्वरूप यह योगविद्या धीरे-धीरे लुप्त होती गयी। परन्तु पिछले कुछ वर्षो से समाज में बढते तनाव, चिन्ता, प्रतिस्पर्धा से ग्रस्त लोगों को इस गोपनीय योग से अनेको लाभ प्राप्त हुए और योग विद्या एकबार पुनः समाज मे लोकप्रिय होती गयी। आज भारत में ही नही बल्कि पूरे विश्व भर में योगविद्या पर अनेक शोध कार्य किये जा रहे है और इससे लाभ प्राप्त हो रहे है। योग के इस प्रचार-प्रसार में विशेष बात यह रही कि यहां यह योग जितना मोक्षमार्ग के पथिक के लिये उपयोगी था, उतना ही साधारण मनुष्य के लिए भी महत्व रखता है। आज के आधुनिक एवं विकास के इस युग में योग में अनेक क्षेत्रों में विशेष महत्व रखता है जिसका उल्लेख निम्नलिखित विवरण से किया जा रहा हैं-
  1. स्वास्थ्य क्षेत्र में - वर्तमान समय में भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी योग का स्वास्थ्य के क्षेत्र में उपयोग किया जा रहा है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में योगाभ्यास पर हुए अनेक शोधों से आये सकारात्मक परिणामों से इस योग विद्या को पुनः एक नयी पहचान मिल चुकी है आज विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इस बात को मान चुका है कि वर्तमान में तेजी से फैल रहे मनोदैहिक रोगो में योगाभ्यास विशेष रूप से कारगर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि योग एक सुव्यवस्थित व वैज्ञानिक जीवन शैली है। जिसे अपना कर अनेक प्रकार के प्राणघातक रोगों से बचा जा सकता है। योगाभ्यास के अंतर्गत आने वाले षट्कर्मो से व्यक्ति के शरीर में संचित विषैले पदार्थों का आसानी से निष्कासन हो जाता है। वहीं योगासन के अभ्यास से शरीर मे लचीलापन बढता है व नस- नाड़ियो में रक्त का संचार सुचारु होता है। प्राणायामों के करने से व्यक्ति के शरीर में प्राणिक शक्ति की वृद्धि होती है, साथ -साथ शरीर से पूर्ण कार्बन डाई ऑक्साइड का निष्कासन होता है। इसके अतिरिक्त प्राणायाम के अभ्यास से मन की स्थिरता प्राप्त होती है जिससे साधक को ध्यान करने मे सहायता प्राप्त होती है और साधक स्वस्थ मन व तन को प्राप्त कर सकता है।
  2. रोगोपचार के क्षेत्र में- निस्संदेह आज के इस प्रतिस्पर्धा व विलासिता के युग में अनेक रोगो का जन्म हुआ है जिन पर योगाभ्यास से विशेष लाभ देखने को मिला है। संभवतः रोगो पर योग के इस सकारात्मक प्रभाव के कारण ही योग को पुनः प्रचार -प्रसार मिला। रोगों की चिकित्सा में इस योगदान में विशेष बात यह है कि जहाँ एक ओर रोगों की एलौपैथी चिकित्सा में कई प्रकार के दुष्प्रभाव के लाभ प्राप्त करता है वहीं योग हानि रहित पद्धति है। आज देश ही नही बल्कि विदेशों में अनेको स्वास्थ्य से सम्बन्धित संस्थाएं योग चिकित्सा पर तरह - तरह के शोध कार्य कर रही है। आज योग द्वारा दमा, उच्च व निम्नरक्तचाप, हृदय रोग, संधिवात, मधुमेह, मोटापा, चिन्ता, अवसाद आदि रोगों का प्रभावी रूप से उपचार किया जा रहा है। तथा अनेकों लोग इससे लाभान्वित हो रहे है।
  3. खेलकूद के क्षेत्र में - योग अभ्यास का खेल कूद के क्षेत्र में भी अपना एक विशेष महत्त्व है। विभिन्न प्रकार के खेलो में खिलाड़ी अपनी कुशलता, क्षमता व योग्यता आदि बढाने के लिए योग अभ्यास की सहायता लेते है। योगाभ्यास से जहाँ खिलाड़ी में तनाव के स्तर, में कमी आती है, वहीं दूसरी ओर इससे खिलाड़ियों की एकाग्रता व बुद्धि तथा शारीरिक क्षमता भी बढती है। क्रिकेट के खिलाड़ी बल्लेबाजी में एकाग्रता लाने, शरीर में लचीलापन बढाने तथा शरीर की क्षमता बढाने के लिए रोजाना योगाभ्यास को समय देते है। यहाँ तक कि अब तो खिलाड़ियों के लिए सरकारी व्यय पर खेल-कूद में योग के प्रभावों पर भी अनेको शोध हो चुके हैं जो कि खेल-कूद के क्षेत्र में योग के महत्त्व को सिद्ध करते है।
  4. शिक्षा के क्षेत्र में - शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों पर बढते तनाव को योगाभ्यास से कम किया जा रहा है। योगाभ्यास से बच्चों को शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी मजबूत बनाया जा रहा है। स्कूल व महाविद्यालयों में शारीरिक शिक्षा विषय में योग पढ़ाया जा रहा है। वहीं योग-ध्यान के अभ्यास द्वारा विद्यार्थियों में बढ़ते मानसिक तनाव को कम किया जा रहा है। साथ ही साथ इस अभ्यास से विद्यार्थियों की एकाग्रता व स्मृति शक्ति पर भी विशेष सकारात्मक प्रभाव देखे जा रहे है। आज कम्प्यूटर, मनोविज्ञान, प्रबंधन विज्ञान के छात्र भी योग द्वारा तनाव पर नियंत्रण करते हुए देखे जा सकते है। शिक्षा के क्षेत्र में योग के बढ़ते प्रचलन का अन्य कारण इसका नैतिक जीवन पर सकारात्मक प्रभाव है आजकल बच्चों में गिरते नैतिक मूल्यों को पुनः स्थापित करने के लिए योग का सहारा लिया जा रहा है। योग के अंतर्गत आने वाले यम में दूसरों के साथ हमारे व्यवहार व कर्तव्य को सिखाया जाता है, वहीं नियम के अंतर्गत बच्चों को स्वंय के अन्दर अनुशासन स्थापित करना सिखाया जा रहा है। विश्व भर के विद्वानों ने इस बात को माना है कि योग के अभ्यास से शारीरिक व मानसिक ही नहीं बल्कि नैतिक विकास होता है। इसी कारण आज सरकारी व ग़ैरसरकारी स्तर पर स्कूलों में योग विषय को अनिवार्य कर दिया गया है।
  5. पारिवारिक महत्त्व- व्यक्ति का परिवार समाज की एक महत्त्वपूर्ण इकाई होती है तथा पारिवारिक संस्था व्यक्ति के विकास की नींव होती है। योगाभ्यास से आये अनेकों सकारात्मक परिणामों से यह भी ज्ञात हुआ है कि यह विद्या व्यक्ति में पारिवारिक मुल्यों एवं मान्यताओं को भी जागृत करती है। योग के अभ्यास व इसके दर्शन से व्यक्ति में प्रेम, आत्मीयता, अपनत्व एवं सदाचार जैसे गुणों का विकास होता है और निःसंदेह ये गुण एक स्वस्थ परिवार की आधारशिला होते हैं। वर्तमान में घटती संयुक्त परिवार प्रथा व बढ़ती एकल परिवार प्रथा ने अनेकों प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया है आज परिवार का सदस्य संवेदनहीन, असहनशील, क्रोधी, स्वार्थी होता जा रहा है जिससे परिवार की धुरी धीरे-धीरे कमजोर होती जो रही है। लेकिन योगाभ्यास से इस प्रकार की दुष्प्रवृत्तियां स्वतः ही समाप्त हो जाती है। भारतीय शास्त्रों में तो गुहस्थ जीवन को भी गृहस्थयोग की संज्ञा देकर जीवन में इसका विशेष महत्त्व बतलाया है। योग विद्या में निर्देशित अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान पारिवारिक वातावरण को सुसंस्कारित और समृद्ध बनाते है।
  6. सामाजिक महत्त्व- इस बात में किसी प्रकार का संदेह नहीं है कि एक स्वस्थ नागरिक से स्वस्थ परिवार बनता है तथा एक स्वस्थ व संस्कारित परिवार से एक आदर्श समाज की स्थापना होती है। इसीलिए समाजोत्थान में योग अभ्यास का सीधा देखा जा सकता है। सामाजिक गतिविधियाँ व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक दोनों पक्षों को प्रभावित करती है। सामान्यतः आज प्रतिस्पर्धा के इस युग में व्यक्ति विशेष पर सामाजिक गतिविधियों का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। व्यक्ति धन कमाने, व विलासिता के साधनों को संजोने के लिए हिंसक, आतंकी, अविश्वास व भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति को बिना किसी हिचकिचाहट के अपना रहा है। ऐसे यौगिक अभ्यास जैसे- कर्मयोग, हठयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, अष्टांग योग आदि साधन समाज को नयी रचनात्मक व शान्तिदायक दिशा प्रदान कर रहे है। कर्मयोग का सिद्धांत तो पूर्ण सामाजिकता का ही आधार है “सभी सुखी हो, सभी निरोगी हो” इसी उद्देश्य के साथ योग समाज को एक नयी दिशा प्रदान कर रहा है।
  7. आर्थिक दृष्टि से महत्त्व - प्रत्यक्ष रूप से देखने पर योग का आर्थिक दृष्टि से महत्त्व गौण नजर आता हो लेकिन सूक्ष्म रूप से देखने पर ज्ञात होता है कि मानव जीवन में आर्थिक स्तर और योग विद्या का सीधा सम्बन्ध है। शास्त्रों में वर्णित “पहला सुख निरोगी काया, बाद में इसके धन और माया” के आधार पर योग विशेषज्ञों ने पहला धन निरोगी शरीर को माना है। एक स्वस्थ्य व्यक्ति जहाँ अपने आय के साधनांे का विकास कर सकता है, वहीं अधिक परिश्रम से व्यक्ति अपनी प्रति व्यक्ति आय को भी बढ़ा सकता है। जबकि दूसरी तरफ शरीर में किसी प्रकार का रोग न होने के कारण व्यक्ति का औषधियों व उपचार पर होने वाला व्यय भी नहीं होता है। योगाभ्यास से व्यक्ति में एकाग्रता की वृद्धि होने के साथ -साथ उसकी कार्य क्षमता का भी विकास होता है। आजकल तो योगाभ्यास के अंतर्गत आने वाले साधन आसन, प्रणायाम, ध्यान द्वारा बड़े-बड़े उद्योगपति व फिल्म जगत के प्रसिद्ध लोग अपनी कार्य क्षमता को बढ़ाते हुए देखे जा सकते है। योग जहाँ एक ओर इस प्रकार से आर्थिक दृष्टि से अपना एक विशेष महत्त्व रखता है, वहीं दूसरी ओर योग क्षेत्र में काम करने वाले योग प्रशिक्षक भी योग विद्या से धन लाभ अर्जित कर रहे है। आज देश ही नहीं विदेशों में भी अनेको योगकेन्द्र चल रहे है जिनमे शुल्क लेकर योग सिखाया जा रहा है। साथ ही साथ प्रत्येक वर्ष विदेशों से सैकड़ों सैलानी भारत आकर योग प्रशिक्षण प्राप्त करते है जिससे आर्थिक जगत् को विशेष लाभ पहुँच रहा है।
  8. आध्यात्मिक क्षेत्र में - प्राचीन काल से ही योग विद्या का प्रयोग आध्यात्मिक विकास के लिए किया जाता रहा है। योग का एकमात्र उद्देश्य आत्मा-परमात्मा के मिलन द्वारा समाधि की अवस्था को प्राप्त करना है। इसी अर्थ को जानकर कई साधक योग साधना द्वारा मोक्ष, मुक्ति के मार्ग को प्राप्त करते है। योग के अंतर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि को साधक चरणबद्ध तरीके से पार करता हुआ कैवल्य को प्राप्त कर जाता है। योग के विभिन्न महत्त्वो देखने से स्पष्ट हो जाता है कि योग वास्तव में वैज्ञानिक जीवन शैली है, जिसका हमारे जीवन के प्रत्येक पक्ष पर गहराई से प्रभाव पड़ता है। इसी कारण से योग विद्या सीमित तौर पर संन्यासियों की या योगियों की विद्या न रह कर, पूरे समाज तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए आदर्श पद्धति बन चुकी है। आज योग एक सुव्यवस्थित व वैज्ञानिक जीवन शैली के रूप् में प्रमाणित हो चुका है। प्रत्येक मनुष्य अपने स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए,रोगो के उपचार हेतु, अपनी कार्य क्षमता को बढ़ाने, तनाव - प्रबंध, मनोदैहिक रोगो के उपचार आदि में योग पद्धति को अपनाते हुए देखा जा रहा है। प्रतिदिन टेलीविजन कार्यक्रमों में बढ़ती योग की मांग इस बात को प्रमाणित करती है कि योग वर्तमान जीवन में एक अभिन्न अंग बन चुका है। जिसका कोई दूसरा पर्याय नहीं हैं। योग की लोकप्रियता और महत्त्व के विषय में हजारों वर्ष पूर्व ही योगशिखोपनिषद् में कहा गया है- "योगात्परतंरपुण्यं यागात्परतरं शित्रम्।योगात्परपरंशक्तिं योगात्परतरं न हि।।"
    अर्थात् योग के समान कोई पुण्य नहीं, योग के समान कोई कल्याणकारी नही, योग के समान कोई शक्ति नही और योग से बढ़कर कुछ भी नही है। वास्तव में योग ही जीवन का सबसे बड़ा आश्रम है।


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कोरोना में केनरा बैंक की मनमानी



भारत की गरीब जनता आए दिन बैंक कर्मचारियों के अड़ियल रवैया और अनियमितताओं से रूबरू होती रहती है। ऐसे ही आज दिनांक 18 अप्रैल 2020 को लूकरगंज स्थित केनरा बैंक की शाखा में एक महिला जो अत्यंत जरूरत मंद, अनपढ़ और असहाय थी उसे उसके जनधन खाते से ₹700 निकालने के लिए पिछले 3 दिनों से 3 किलोमीटर से अधिक दूरी, दौड़ाया जा रहा था और इधर-उधर के नियम बता कर पैसे निकालने नहीं दिए जा रहे थे।

आज वह अपनी समस्या राष्ट्र रक्षक समूह के सचिव देवांशु मेहता के पास लेकर आई और कहा की भैया पैसा की बहुत जरूरत है बैंक वाले पिछले 3 दिन से दौड़ा रहे हैं और पैसा नहीं दे रहे हैं। उस असहाय महिला की स्थिति को देख देवांशु जी ने समूह के संरक्षक श्री देवेंद्र प्रताप सिंह जी और समूह के अन्य सदस्यों सर्वश्री बाबा हिंदुस्तानी, शिवांशु मेहता और मैं स्वयं जो बैंक के आसपास मौजूद थे उनको अवगत कराया।
हम सभी लोग बैंक पहुंचे और तत्काल 112 नंबर पर फोन कर पुलिस सहायता मांगी, बैंक में उपस्थित शाखा प्रबंधक को पिछले 3 दिन से महिला की हो रही दिक्कतों से अवगत कराया गया और महिला को हुई दिक्कत के लिए बैंक में स्थित कंप्लेंट रजिस्टर की मांग की गई।
कुछ लोगों की उपस्थिति और विधिक न्यायोचित बातों के आगे बैंक प्रबंधक अपने कर्मचारियों के दुर्व्यवहार के लिए क्षमा मांगने लगा और तत्काल महिला को मांगी जाने वाली राशि उपलब्ध करा दिया। हमारे द्वारा विरोध किया गया कि आप लोगों द्वारा इस महामारी की स्थिति में जबकि सरकार ने लोगों को घर में रहने का निर्देश दिया है एक महिला को अनावश्यक बार-बार दौड़ा रहे हैं और पता नहीं अब तक कितने लोगों को इसी प्रकार परेशान किया गया होगा।
निश्चित रूप से आज जो भी लोग अपनी सेवाएं दे रहे हैं वह साधुवाद के पात्र हैं किंतु इस प्रकार किसी को परेशान किए जाने वाली घटनाएं बिल्कुल बर्दाश्त करने योग्य नहीं है और मोदी सरकार के निर्देशों का उल्लंघन है। बैंक मैनेजर ने आगे से किसी प्रकार की ऐसी घटना की पुनरावृत्ति ना होने का वायदा करते हुए क्षमा मांगी और किसी प्रकार की कार्यवाही ना करने की बात कही।


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निबंध - जीवन परिचय क्रांतिकारी अशफ़ाक़ उल्ला खाँ



अशफ़ाक़ उल्ला खाँ का जन्म 22 अक्टूबर सन् 1900 ई. को शाहजहाँपुर के एक सम्पन्न पठान खानदान में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री शफीक उल्ला खाँ था। उनका खानदान कदैल खैल के नाम से प्रसिद्ध था। उनके पिता रईस जमींदार थे। अशफ़ाक़ उल्ला खाँ चार भाई थे तथा वे सबसे छोटे थे। उनसे बडे़ तीन भाई श्री सफी उल्ला खाँ, श्री रियासत उल्ला खाँ, श्री शहनशाह उल्ला खाँ थे। अशफ़ाक़ सबसे छोटे होने के कारण परिवार में सभी के लाड़ले थे। घर में उन्हें प्यार से सभी 'अच्छू' बुलाया करते थे। "लड़कपन से ही आप बड़ी मस्तानी तबियत के थे। नदी 'खन्नौत' में तैरना, घोडे़ की सवारी और भाई की बन्दूक से शिकार खेलना इन्हें बहुत प्रिय था। लड़कपन से ही देश की धुन समा गयी थी। आन्दोलन से दिलचस्पी रखते, उसे जानने समझने की कोशिश करते थे। उनका झुकाव विशेष तौर पर क्रांतिकारी आन्दोलन की ओर था।" शाहजहाँपुर के मिशन स्कूल में पढ़ने के समय ही अशफ़ाक़ की भेंट पं. रामप्रसाद बिस्मिल से हुई थी। "मूल रूप में आपके (अशफ़ाक़) पूर्वज अफगानिस्तान के थे जो लगभग 300 साल पहले भारत में आ गए थे। अशफ़ाक़ के परिवार में कई जज और मजिस्ट्रेट हुए थे। जमींदार घराना था। अंग्रेज सरकार में उनके कई खानदानी अहम पदों पर भी थे। आपके बडे़ भाई पं रामप्रसाद बिस्मिल के सहपाठी थे। यौवन आते ही जवानी ने मुल्क परस्ती का रंग दिखाना शुरू कर दिया। क्रांति की ओर कदम बढ़ाने के कारण आपकी पढ़ाई बिलकुल खत्म हो गई और देश सेवा के लिए सभी कामों को छोड़ दिया।" अशफ़ाक़ उल्ला खाँ बिस्मिल जी से बहुत प्रभावित थे तथा उनसे मित्रता कर क्रांतिकारी मार्ग पर अग्रसर होना चाहते थे। "गोरे रंग का हंसता झूमता, हट्टा-कट्टा सुन्दर सा यह नौजवान श्री बिस्मिल के साथ 1921 के आन्दोलन में स्कूल छोड़कर मैदान में कूद पड़ा। अनेक जिलों के गाँवों में पैदल घूम कर जनता को आज़ादी की जंग में शामिल होने का संदेश सुनाया।"
निबंध - जीवन परिचय क्रांतिकारी अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ाँ
निबंध - जीवन परिचय क्रांतिकारी अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ाँ
 
अशफ़ाक़ जब स्कूल में थे, तभी पं. रामप्रसाद बिस्मिल को उन्होंने देखा था। क्रांति की ओर अशफ़ाक़ का झुकाव होने के कारण उन्होंने भी क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लेना चाहा। जब पं. रामप्रसाद बिस्मिल मैनपुरी षडयंत्र केस में आम माफी की घोषणा के पश्चात् शाहजहाँपुर आए तब वे आर्य समाज भवन शाहजहाँपुर में रहने लगे थे। बिस्मिल जी उस समय उत्तर भारत के शीर्षस्थ क्रांतिकारी थे। उनके पासबडे़-बडे़ क्रांतिकारी "देश को आज़ाद कराने के लिए क्रांति की नई रूपरेखा तैयार करते थे। उन दिनों शाहजहाँपुर में खन्नौत नदी के किनारे एक सभा के अन्त में बिस्मिल जी ने शेर पढ़ा-
बहे, बहरे फना में, जल्द, या खा लाश बिस्मिल की,
कि भूखी मछलियाँ हैं, जौहरे शमशीर कातिल की ।


बिस्मिल जी के व्यक्तित्व से प्रभावित अशफ़ाक़ उल्ला खां अपने स्कूली पढ़ाई के दौरान बिस्मिल जी से मिले भी परंतु बिस्मिल जी ने उन्हें नजर अंदाज कर दिया। बिस्मिल जी यह सोचते थे कि एक कट्टर मुसलमान युवक मेरे संपर्क में क्यों आना चाहता है? बिस्मिल जी कट्टर आर्यसमाजी थे। वहीं अशफ़ाक़ इस्लाम के पक्के पाबंद। बचपन में अशफ़ाक़ को उनके अध्यापक ने एक पुस्तक जो क्रांतिकारियों के जीवन के सम्बन्ध में थी, दी। उन्होंने उसे पढ़कर क्रांतिकारी आंदोलन को समझा। उनके अंदर देश भक्ति की भावना उत्पन्न हुई । "बिस्मिल के सम्पर्क में आते ही अशफ़ाक़ के अंदर का वतन परस्त खुलकर सामने आ गया और जल्दी ही उन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से बिस्मिल के मन में जगह बना ली और वे अंग्रेज सरकार की नजरों में बिस्मिल के 'लेफ्टीनेंट' के रूप में पहचाने जाने लगे।" असहयोग आंदोलन में अशफ़ाक़ ने बिस्मिल जी के साथ प्राणपण से योगदान दिया था परंतु जब आंदोलन रुका, तब अशफ़ाक़ को गहरा धक्का लगा तत्पश्चात् अशफ़ाक़ ने बिस्मिल जी की ही भाँति ही क्रांति के पथ पर सक्रियता से कदम बढ़ाये। क्रांतिकारी इतिहास में अशफ़ाक़ का योगदान अभूतपुर्व है। बिस्मिल जी और अशफ़ाक़ की मित्रता इतनी गहरी थी कि सबको आश्चर्य होता था। इस जोड़ी ने क्रांतिकारी गतिविधियों में भी उतना समर्पण दिखाया जितना इनकी मित्रता में था। क्रांतिकारी दल में अशफ़ाक़ को 'कुँवर जी' के नाम से पुकारते थे। असहयोग आंदोलन के समय से ही पुलिस अशफ़ाक़ के पीछे पड़ी थी। बिस्मिल जी के मित्र तथा सहयोगी होने के कारण पुलिस की नजरें इन पर बनी रहती थी। काकोरी षड्यंत्र में भाग लेने के पश्चात् अशफ़ाक़ फरार हो गये थे। 26 सितम्बर 1925 ई. में इनके नाम का वारण्ट भी निकला पर श्रीअशफ़ाक़ हाथ न आए। श्री अशफ़ाक़ पुलिस को चकमा देकर छिपे रहे। श्री अशफ़ाक़ को उनके मित्रों ने सलाह दी कि वे छुपकर अफगानिस्तान चले जायें लेकिन श्री अशफ़ाक़ ने इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा कि 'उनका काम देश में है, बाहर जाकर आराम करना उनका काम नहीं है।' अन्त में 8 सितम्बर, 1926 ई. को देहली में रहने वाले एक महान हिन्दी साहित्यिक, लौह लेखनी के धनी की विशेष दया से पुलिस ने उन्हें दिल्ली में गिरफ्तार कर लिया। उधर शचीन्द्र नाथ बख्शी भागलपुर में गिरफ्तार हो गये। गिरफ्तारी के पश्चात् ब्रिटिश सरकार के गुर्गों ने अर्थात् पुलिस ने उन्हें मजहबी बातें कर देशद्रोही सिद्ध करने की कोशिश की, पर ब्रिटिश सरकार इसमें सफल न हो सकी। "काकोरी मुकदमें के इन्चार्ज तसद्दुक हुसैन डिप्टी सुपरिंटेंण्डेंट सी.आई.डी इम्पीरियल ब्रांच ने उनसे मिलकर कहा, "देखो अशफ़ाक़ तुम से हमारे कुछ खानदानी ताल्लुकात हैं। हम और तुम दोनों मुसलमान हैं। काफिर रामप्रसाद आर्यसमाजी है। हमारे मजहब का जानी दुश्मन है। वह मुल्क में हिन्दू राज कायम करना चाहता है, तुम पढ़े-लिखे समझदार हो, तुम्हें काफिर का साथ देकर मजहब को नुकसान न पहुँचाना चाहिए। पुलिस को सब मालूम हो चुका है। यह तो तुम्हें इतने दिनों मुकदमा चलने से मालूम ही हो चुका होगा। मेरा कहना मानकर जो कुछ बातें हो, वह साफ-साफ कह दो। उस काफिर रामप्रसाद की दोस्ती में अपने को तबाह न करो। गुस्से से श्री अशफ़ाक़ का चेहरा तमतमा उठा। आँखे लाल हो गयी। तेज सांस लेते हुए डपट कर उन्होंने कहा 'बस कीजिये जनाब! बहुत हो गया। मैं आपके मुँह से ऐसी बातें नहीं सुनना चाहता। आइन्दा इनका दोहराना आपके हक में अच्छा न साबित होगा। पण्डित जी सच्चे हिन्दुस्तानी हैं। वे सबके लिये एक हुकुम देने वाली पंचायती सरकार हिन्दोस्तान में कायम करना चाहते हैं। मुल्क की गुलामी को तबाह करना चाहते हैं। वे किसी फिरकेवार सल्तनत के हामी नहीं है उन्हें तो ऐसी सल्तनत से दिली नफरत है और जैसा आप कहते हैं, वह भी बात सही होती तो भी मैं पण्डित जी का साथ जरूर देता। मेरी नजर में गैर मुल्क के रहने वालों की गुलामी से अपने मुल्क के रहने वाले भाईयों की मातहती कहीं ज्यादा बेहतर है।' खान साहब के होश गुम हो गये, अपना सा मुँह लेकर वे लौट गये।" पहली बार जब श्री अशफ़ाक़ का मजिस्ट्रेट सैयद अईनुद्दीन से सामना हुआ तो श्री अशफ़ाक़ ने उनसे प्रश्न पूछा कि 'मजिस्ट्रेट साहब आप मुझे पहचानते हैं? मैंने तो कई बार आपके दर्शन किये हैं। मजिस्ट्रेट साहब ने आश्चर्यजनक तरीके से पूछा, "आपने मुझे देखा! कब और कहाँ? हँसकर श्री अशफ़ाक़ ने उत्तर दिया, जबसे आपकी अदालत में काकोरी का मुकदमा शुरू हुआ है, तबसे मैं कई बार राजपूतानी वेश में आकर मुकदमा देखा करता था। अशफ़ाक़ उल्ला खाँ और शचीन्द्र नाथ बख्शी पर काकोरी रेल डकैती का पूरक मुकदमा चलाया गया। अदालत ने श्री अशफ़ाक़ को पं. रामप्रसाद बिस्मिल का लेफ्टीनेंट ठहराया और फाँसी की सजा सुनायी गयी। फैसला सुनने के पश्चात् श्री अशफ़ाक़ ने जज साहब का शुक्रिया अदा किया तथा अदालत से कहा कि 'इससे कम सजा मेरे लिये बाय-से तौहीन (अपमान जनक) है।" फैसले के दिन वे बसन्ती रंग के पहनावे में अदालत पहुँचे थे। अदालत के फैसले के पश्चात् उन्हें फैजाबाद जेल की काल कोठरी में रखा गया। श्री अशफ़ाक़ को "फाँसी के एक दिन पहले कुछ दोस्त मिलने गये। आज श्री अशफ़ाक़ को अपने कपड़े पहनने को मिल गए थे। उन्होंने नहा-धोकर बड़ी सफाई के साथ इन कपड़ों को पहना था। लोगों ने उन्हें बहुत ही खुश पाया। हँसते हुए उन्होंने अपने दोस्तों से कहा, "सुबह मेरी शादी है। कहो, दूल्हे में कोई फर्क तो नहीं पाते हो? यह कहकर वह बड़ी जोर से हँस पड़े। दोस्तों के होंठों पर भी मुस्कुराहट आ गयी, पर उनके दिल को उसी वक्त मालूम हुआ जैसे किसी ने बड़ी बेदर्दी के साथ मसल दिया हो। सुबह फाँसी पर चढ़ने वाला इस मस्ताने ढंग से हंसकर बातें कर रहा है, हंस रहा है, यह उसके लिये तो मुमकिन था पर उसके सच्चे दोस्तों के लिये उसका साथ देना बहुत मुश्किल था।" अशफ़ाक़ अपनी सजा के विरूद्ध माफी की प्रार्थना भी नहीं करना चाहते थे अपितु वे उन जुर्मों को भी स्वीकार कर रहे थे जो उन्होंने नहीं किए थे जिससे वे बिस्मिल जी को बचा सकते परन्तु ऐसा हो न सका। श्री अशफ़ाक़ से इसी विषय में जब कृपा शंकर हजेला जो उनके वकील थे पूछा कि 'ऐसा क्यों कर रहे हो।' तब श्री अशफ़ाक़ ने उत्तर दिया कि 'बिस्मिल हमारे नेता हैं हम उनकी बराबरी नहीं कर सकते। उनका जिन्दा रहना देश की भलाई के लिये बहुत जरूरी है। बिस्मिल हमसे ज्यादा दिलो दिमाग तथा हौसलारखते हैं। जब काकोरी केस के चारों फाँसी की सजा प्राप्त अभियुक्तों की सजा कम करने हेतु अपीलें की जा रहीं थी तब उसी दौरान श्री अशफ़ाक़ के बड़े भाई रियासत उल्ला खां श्री गणेश शंकर विद्यार्थी से कानपुर में मिले। विद्यार्थी जी उस समय अत्यधिक बीमार थे, श्री अशफ़ाक़ की सजा के विषय में सुनकर बेहद दुःखी हुए। विद्यार्थी जी ने श्री अशफ़ाक़ के बड़े भाई को सलाह दी कि वकील कृपा शंकर हजेला से सरकार को तार दिलवा दीजिये, प्रिवी कौंसिल में अपील करेंगे। विद्यार्थी जी ने अपने आदमी के माध्यम से 1200/- रूपये मुकदमे के खर्च के लिये श्री रियासत उल्ला खां के पास शाहजहाँपुर भिजवाये लेकिन श्री रियासत उल्ला खां मुकदमे की फ़ीस जमा कर चुके थे अतः उन्होंने विद्ध्यार्थी जी के रूपये वापिस भिजवाने के साथ-साथ उन्हें धन्यवाद दिया। श्री अशफ़ाक़ ने अपने वकील कृपा शंकर हजेला से कहा कि "हजेला साहब मैं चाहता हूँ कि फाँसी के दिन यानी 19 दिसम्बर 1927 की सुबह को आप जेल में फाँसी के वक्त मेरे सामने मौजूद हों और देखें कि अशफ़ाक़ किस जाँनिसारी से फाँसी के फन्दे को चूमता है।"
अशफ़ाक़ उल्ला खां ने फैजाबाद जेल की काल कोठरी से एक पत्र अपनी माँ के नाम 13 दिसम्बर को लिखा तथा 16 दिसम्बर को एक पत्र अपने साथी क्रान्तिकारी शचीन्द्र नाथ बख्शी की बड़ी बहन नलिनी को भी लिखा था। श्री अशफ़ाक़ उन्हें (नलिनी) को अपनी बहन मानते थे। नलिनी भी क्रान्तिकारी थीं। 'बनारस बम काण्ड में गिरफ्तार हुई थीं। वे बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के क्रान्तिकारियों के मध्य कड़ी का काम करती थीं। उन्होंने तीन वर्ष का कारावास भी भोगा था। "19 दिसम्बर, 1927 को प्रातः 6 बजे वे (अशफ़ाक़) फैज़ाबाद जेल में फाँसी घर की ओर चल दिये। सुंदर घुंघराले लम्बे बाल पीछे की ओर लटक रहे थे। साफ सुथरे कुर्ते के ऊपर 'कुरान शरीफ' का बस्ता लटक रहा था और जुबान से 'कुरान' की आयतें पढ़ी जा रही थीं। सीढ़ियाँ चढ़कर फांसी के फन्दे के पा पहुँचे। रस्सी को चूम कर उन्होंने कहा, "मेरे हाथ कभी इन्सानी खून से नहीं रंगे गए जो इल्जाम मेरे ऊपर लगाया है वह गलत है। मेरा इन्साफ खुदा के यहाँ होगा।" फन्दा ले में पढ़ा। श्री अशफ़ाक़ ने शेर पढ़ा -
तंग आकर हम भी उनके जुल्म से बेदाद से।
चल दिये सूये अदम जिंदाने - फैजाबाद से।।
फना है सबके लिये हम कुछ पे नहीं मौकूफ।
बका है एक फकत जात किब्रिया के लिये।।

इशारा हुआ। जल्लाद ने हत्था खींचा था। श्री अशफ़ाक़ का शरीर रस्सी में झूल गया।" बहुत मुश्किल से श्री अशफ़ाक़ का शरीर शाहजहाँपुर ले जाने की आज्ञा मिली। "ट्रेन से उनका शरीर फैजाबाद से शाहजहाँपुर लाया गया। लखनऊ स्टेशन पर गणेश शंकर विद्यार्थी जी सहित भारी जनसमूह ने डिब्बे में रखे उनके शव पर श्रद्धासुमन अर्पित किए और उनकी लाश को डिब्बे से उतार कर फोटो खिंचवाया गया। इसके बाद शाहजहाँपुर में उनके घर के सामने वाले मुहल्ले के बगीचे (अब अशफ़ाक़ नगर) में दफन कर दिए गए। हजारों अश्रुपूरित नेत्रों ने भारत माँ के उस बेटे को श्रद्धाँजलि दी जो हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश देकर मादरे वतन की आजादी की खातिर फाँसी के तख्ते पर झूल गया।" "श्री अशफ़ाक़ एक जिंदा दिल शायर थे। 'हसरत' के नाम से शायरी लिखते थे। उनकी कुछ चीज नीचे दे रहे हैं-
यूं ही लिखा था किसमत में चमन पैराये आलम ने,
कि फस्ले गुल में गुलशन छूट कर है कैद जिन्दा की।
तनहाइये गुर्बत से मायूस न हो 'हसरत'
कब तक खबर न लेंगे याराने वतन तेरी।
बर्जुमें आरजू पै जिस कदर चाहे सजा दे लें,
मुझे खुद ख्वाहिशे ताजीर है मुल्जिम हूँ इकरारी।
कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो यह है,
रखदे कोई जरा सी, खाके वतन कफन में।।
ऐ पुख्ताकार-उल्फत, हुशियार! डिग न जाना,
मेराज आशंका है इस दार औ, रसन में,
सैयाद जुल्म पेशा आया है जब से 'हसरत'
हैं बुलबुले कफस में जागो जगन चमन में।
न कोई इंग्लिश, न कोई जर्मन,
न कोई रशियन, न कोई तुर्की।
मिटाने वाले हैं अपने हिन्दी,
जो आज हमको मिटा रहे हैं।।
जिसे फना वह समझ रहे हैं,
बका का राज इसमें मजमिर।
नहीं मिटाने से मिट सकेंगे,
वह लाख हमको मिटा रहे हैं।
खामोश 'हसरत' खामोश 'हसरत'
अगर है जज्बा वतन का दिल में।
सजा को पहुचेंगे अपनी बेशक।
जो आज हमको सता रहे हैं।।
बुजदिलों ही को सदा मौत से डरते देखा,
गोकि सौ बार उन्हें रोज ही मरते देखा।
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा।
तख्तये मौत पे भी खेल को करते देखा।
मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है।
हम सदा खेल ही समझा किये मारना क्या है।।
वतन हमेशा रहे शाद काम और आजाद।
हमारी क्या है अगर हम रहे, रहे न रहे।।

फाँसी के पहले उन्होंने देश के नाम यह सन्देश दिया था:-
'भारतमाता के रंग-मंच पर हम अपना पार्ट अदा कर चुके। गलत या सही हमने जो कुछ किया, आजादी हासिल करने की भावना से प्रेरित होकर किया। हमारे अपने हमारी निंदा करें या प्रशंसा, पर हमारे दुश्मनों तक को हमारे साहस और वीरताकी प्रशंसा करनी पड़ी है। लोग कहते हैं, हम मुल्क में आतंक फैलाना चाहते थे, यह गलत है। इतने लम्बे अर्से तक मुकदमा चला, हममें से बहुत से बहुत दिनों इस मौके पर आजाद रहे और आज भी कुछ आजाद है, फिर भी हमने या हमारे किसी साथी ने किसी, अपने नुकसान पहुँचाने वाले पर गोली नहीं चलाई। हमारा यह उद्देश्य नहीं था। हम तो आजादी हासिल करने के लिये मुल्क में क्रांति कराना चाहते थे।

"जजों ने हमें निर्दय, बर्बर, मानव कलंक आदि नामों से याद किया है। हमारे शासकों की कौम के जनरल डायर ने निहत्थों पर गोलियाँ चलायी थीं और चलायी थीं स्त्री, पुरूष, बच्चे और बूढ़ों तक पर। न्याय के इन ठेकेदारों ने अपने इन भाई-बन्दों को किन विशेषणों से सम्बोधित किया है? फिर हमारे ही साथ ऐसा सलूक क्यों?हिन्दुस्तानी भाईयों! आप चाहे जिस मजहब या फिरके के मानने वाले हों, मुल्क के काम में साथ दीजिये। व्यर्थ में आपस में न लड़िए। रास्ते चाहे अलग हों, पर लक्ष्य सबका एक है सब धर्म एक ही लक्ष्य की पूर्ति के साधन है। फिर यह व्यर्थ के टण्टे-झगड़े क्यों? एक होकर आप मुल्क की नौकरशाही का सामना कीजिये और अपने मुल्क को आजाद बनाइये। मुल्क के सात करोड़ मुसलमानों में मैं पहला मुसलमान हूँ जो मुल्क की आजादी के लिये फाँसी चढ़ रहा हूँ। यह सोचकर मुझे फक्र होता है अन्त में मेरा सबको सलाम! हिन्दोस्तान आजाद हो। मेरे भाई खुश रहे!" श्री अशफ़ाक़ की यही इच्छा थी कि सभी देशवासी हिन्दू-मुसलमान का भेदभाव त्यागकर श्री अशफ़ाक़ तथा पं. रामप्रसाद बिस्मिल की भांति अंग्रेजी साम्राज्य का सामना करें।

श्री अशफ़ाक़ की फांसी के पश्चात् उनके भाई ने उनकी कब्र कच्ची बनवा दी। विद्यार्थी जी के भेजे पैसों से उनके भाई ने कब्र पुख्ता कर दी परन्तु मकबरा अभी तक न बन सका। श्री अशफ़ाक़ के बड़े भाई स्व. रियासत उल्ला खाँ ने अपने जीवन काल में संस्मरण लिखा था उसमें श्री अशफ़ाक़ का मकबरा न बन पाने पर शोक तथा विद्यार्थी जी के सहयोग का वर्णन करते हुये लिखते हैं कि, विद्यार्थी जीे ने "मुझसे कहा कि कब्र कच्ची बनवा देना। हम पुख्ता करा देंगे और उनका मकबरा हम ऐसाबनावाऐंगे कि जिसका नजीर यू.पी. में न होगी। लेकिन अफसोस कि मकबरा बनाने से पेशतर वे खुद ही शहीद हो गये लेकिन मोहनलाल सक्सेना वकील के जरिए उन्होंने 200 रूपये भेजे थे जिससे मैंने कब्र पुख्ता करा दी। मकबरा उनका आज तक न बन सका।

एक महीने के बाद उनका खत मेरे पास आया कि आप राजा मोती चन्द बनारस के पास चले जाएँ, वह 100 रूपये महावार और खाना देंगे, आप उनकी हिफाजत जान की तरह करते रहें और कोई काम न होगा लेकिन अशफ़ाक़ को शहीद हुए कुछ ही दिन गुजरे थे, मेरी माता ने मुझको जाने न दिया। मैंने गणेश शंकर जी को लिखा कि अभी ताजा जख्म हैं, वालिदा रोकती हैं। विद्यार्थी जी ने मुझको जवाब दिया "अच्छा हम दूसरा इन्तजाम करेंगे और आप कतई परेशान न हो, हम आपके खानदान की मद्द करेंगे और ख्याल करेंगे।" श्री अशफ़ाक़ ने अपनी फाँसी से एक दिन पहले एक पत्र श्री गणेश शंकर विद्यार्थी को लिखा जिसमें उन्होंने कहा था कि 19 दिसम्बर को लखनऊ स्टेशन पर दो बजे आखिरी मुलाकात जरूर कीजियेगा और मेरे भाई तबाह व बर्बाद हो चुके हैं। मेरी क़ब्र पुख्ता बनाने का इंतजाम करें तथा मेरे परिवार का ख्याल रखें। विद्यार्थी जी ने अशफ़ाक़ की इच्छा पूरी की तथा जब तक जीवित रहे, श्री अशफ़ाक़ के भाईयों का ख्याल रखा। विद्यार्थी जी, बिस्मिल जी तथा श्री अशफ़ाक़ को बहुत चाहते थे तथा उन्होंने दोनों के ही परिवार की बहुत सहायता की।


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