क्षत्रियों की उत्पत्ति एवं ऐतिहासिक महत्व



क्षत्रियों की उत्पत्ति एवं ऐतिहासिक महत्व
Origin and historical importance of Kshatriyas
पौराणिक पुस्तकों, वेदों एवं स्मृति ग्रंथों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में आर्यों के लिए निर्धारित नियम थे, परन्तु जाति एवं वर्ण व्यवस्था नहीं थी और न ही कोई राजा होता था। आर्य लोग कबीलों में रहते थे और कबीलों के नियम ही उन पर लागू होते थे। आर्य लोग श्रेष्ठ गुण और कर्म वाले समूहों के अंग थे। आर्यों ने गुणों एवं कर्मों के अनुसार वर्णों की व्यवस्था की थी। उस समय आर्यों का विशिष्ट कर्म यज्ञ करना था।

भगवान कृष्ण ने गीता के चतुर्थ अध्याय एवं 13 वें श्लोक में कहा था कि मैंने इस समाज को उसकी कार्य क्षमता, गुणवत्ता, शूर वीरता, विद्वता एवं जन्मजात गुणोंं, स्वभाव और शक्ति के अनुसार चार वर्णों में विभाजित किया।
चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्वयकर्तामव्ययम् ।। 

श्री कृष्ण ने गीता के तृतीय अध्याय एवं 10 वें श्लोक में कहा है कि ब्राह्मण ने प्रजापति से कहा कि यज्ञ तुम्हारी वृद्धि तथा इच्छित फल देने वाला है। इसके बाद इन आर्यों को गुणों एवं कर्मों के अनुसार चार वर्णों में विभाजित किया। वर्ण व्यवस्था का पहला अंग था ब्राह्मण, जिसका कार्य यज्ञ करना, वेद आदि धार्मिक ग्रन्थों का पठन करना, पढ़ाना तथा अन्य वर्णों को धर्म का मार्ग दिखाना। दूसरा अंग था क्षत्रिय जिसका मुख्य कार्य समूहों की रक्षा करना, वेदों का अध्ययन करना, यज्ञ करना तथा समाज को नियंत्रण में रखना था। तीसरा अंग था वैश्य, जिनका मुख्य कार्य वाणिज्य, कृषि एवं धर्म ग्रंथों को पढ़ना आदि था। चौथा अंग था शूद्र, जिसका कार्य उपरोक्त तीनों अंगों की सेवा करना था। ऋग्वेद में लिखा है:-
यत्पुरूष व्यदधु कतिध व्यकल्पयन।मुखं किमस्य को बाहु काबूरू पादा उच्यते ।।
ब्राद्य्राणोऽस्य मुखमासीद बाहू राजन्य कृतः । उरू तदस्य मद्धस्य पदभ्यां शूद्रोज्जायतः।।


प्रजापति ने मानव समाज रूपी जिस पुरुष का विधान किया। मुख कौन, हाथ कौन, जंघा कौन और पैर कौन इसके उत्तर में कहा कि मुख ब्राद्य्राण, हाथ क्षत्रिय, जंघा वैश्य और पैर शूद्र हैं। मनुस्मृत में कहा गया है कि:-
येषान्तु याद्धशड.क्म्र्म भूतानामिह कीर्तितम्
तत्तथा वोड़भिधास्यामि क्रम योगण्च जन्मनि। (चै. 48)

जिस जाति का जैसा कर्म प्रजापति ने बताया है, वैसा ही कार्य उनके लिए उचित है। इससे यह ज्ञात होता है कि मनु से पहले ही आर्यों ने वर्ण व्यवस्था बना ली थी।

ब्राह्मण : विद्वान, शिक्षा का कार्य करने वाला, निपुण पुरोहित एवं कर्मकाण्डी, यज्ञ तथा पूजा पाठ करने वाले को बा्रद्य्रण वर्ण में रखा गया है। इनको छूट है कि वे वैश्य एवं क्षत्रिय के भी कार्य कर सकते हैं। शिक्षा, शिक्षक और पुरोहित इनके मुख्य कार्य हैं तथा विशिष्ट परिस्थिति में यह हथियार उठाने में भी संकोच न करने वाले और कृषि का कार्य भी अपने हाथों में ले सकते हैं। इनको केवल वैश्य और शूद्र के कार्य करना वर्जित है। इन्हें अपने कार्य के अलावा कृषि का कार्य करने में संकोच नहीं करना चाहिये। मनुस्मृत के अनुसार बा्रद्य्राण शादी-ब्याह अपने वर्ण के अलावा, क्षत्रिय, वैश्य वर्ग में भी कर सकते है। लेकिन पहली शादी अपने वर्ण में ही करना आवश्यक है।

वैश्य : वैश्य का मुख्य कार्य व्यापार एवं कृषि है, परन्तु विशेष परिस्थिति में इन्हें हथियार उठाना वर्जित नहीं है। (मनुस्मृति में वर्णित) तदोपरान्त दूसरे वर्ण की जातियों में शादी करने में कोई बंदिश नहीं है। क्षत्रिय और वैश्य वंश में अपनी शादी कर सकते हैं। (मनुस्मृति के अनुसार)

शूद्र : इस वर्ण को ब्राद्य्रण, क्षत्रिय, वैश्य द्वारा बताए गए कार्यों को करना तथा कृषि एवं दूसरे कार्य जो उपरोक्त तीनों वर्ण द्वारा बताये गए है को सम्पन्न करना तथा अपनी जीविका के कार्य करना। ये अपने वर्ण में ही शादी कर सकते हैं।

विभिन्न जातियों के कर्तव्य (कर्म) मनुस्मृति के अनुसार शस्त्र चलाना क्षत्रियों का कार्य है परन्तु बा्रद्याण और वैश्य जब धर्म पर आपत्ति आये तो उन्हें शस्त्र उठाना वर्जित नहीं है। महाभारत में वर्णित है कि:-
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वबा्रद्यमिदं जगत्।
ब्रद्याणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्।।

(भृगु ऋषि ने महर्षि भारद्वाज के प्रश्न के उत्तर में कहा कि सृष्टि के प्रारम्भ में वर्ण भिन्न-भिन्न नहीं थे, ब्रद्य से उत्पन्न होने के कारण सभी का नाम ब्राद्य्रण था।)

वज्र सूच्युपनिषद् में जिज्ञासु शिष्य अपने गुरु से पूछता है कि क्या कोई जाति से बा्रद्य्रण होता है ? इसका उत्तर देते हुए ऋषिवर ने स्पष्ट किया कि ब्राह्मणों की कोई जाति नहीं है, अनेक महर्षि दूसरी अन्य जातियों से उत्पन्न हुए हैं।

सभी धर्म ग्रंथों को देखने से यही स्पष्ट होता है कि ब्रद्य्रा ईश्वर के शरीर के चारों अंगों से चारों वर्णों की उत्पत्ति हुई है। इसका तात्पर्य यह है कि समूचा आर्य-जगत ईश्वर स्वरूप था, जिसे कर्मों के आधार पर चार वर्णों में बांटा गया, ताकि समाज का कार्य सुचारू रूप से चलता रहे।

आगे चलकर चारों वर्णों के बनाए जाने के बाद आर्य-जगत ने यह अनुभव किया कि सामूहिक शासन ठीक नहीं है। इसलिए समूह ने अपना प्रतिनिधि शासक बनाने का विचार किया। समूह द्वारा निर्णय लेने के बाद प्रतिनिधियों ने क्षत्रिय को राजा बनाया। यह क्षत्रिय सूर्य और उसकी पत्नी सरण्यु से उत्पन्न आर्य संतान पहला क्षत्रिय मनु था, जिसे प्रथम राजा बनाया गया। उसका राज्याभिषेक वायु नाम ऋषि ने किया।

भगवान श्री कृष्ण ने गीता के 18 वें अध्याय में 41,42,44,43 श्लोक में इस वर्ण व्यवस्था के बारे में विस्तृत वर्णन किया है जो इस प्रकार है:-
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणाम च परन्तप।
कर्माणि प्रतिभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।। 
हे परंतप! बा्रद्यण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणोंद्वारा विभक्त किये गये हैं। ।। 41 ।।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रद्य्राकर्म स्वभावजम्।।
अन्तःकरण का निग्रह करना; इन्द्रियों का दमन करना, धर्म पालन के लिए कष्ट सहन, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना; वेद, शास्त्र ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना; वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना- ये सब के सब ही बा्रद्य्रण के स्वाभाविक कर्म हैं ।। 42 ।।

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्मं स्वभावजम्
परिचयात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।।
खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप, सत्य व्यवहार - ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सभी वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ।। 44 ।।

क्षत्रिय
शौर्यंतेजा धृतिर्दाक्ष्यं युद्वे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभाववश्रच् क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में से न भागना, दान देना और स्वाभिमान - ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ।। 43 ।।

ऋग्वेद में क्षत्रिय के कर्म गुंण और स्वभाव के विषय में लिखा है।
धृतव्रता क्षत्रिय यज्ञनिष्कृतो बृहदिना अध्वं राणभर्याश्रियः।
अग्नि होता ऋत सांपों अदु हो सो असृजनु वृत्र तये ।।

क्षत्रिय नियमों का पालक, यज्ञ करने वाला, शत्रुओं का संहारक, युद्ध में सधैर्य और युद्ध क्रियाओं का ज्ञाता होता है।
क्षतात् किलत्रायत इत्युग्रह,
क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढा। (कालिदास)
अर्थात्:- विनाश या हानि से रक्षा करने के अर्थ में यह क्षत्रिय शब्द सारे भुवनों में प्रसिद्व है।

नियम पालनकर्ता, सत्य के अनुसार चलने वाला, शूरवीर, कुशल प्रशासक, दृढ़ संकल्प, अद्भुत संगठनकर्ता, शरणागत की रक्षा करने वाला, दूरदर्शी, चरित्रवान, युद्ध में न डरने वाला तथा अपने गुणों के कारण दूसरों पर प्रभाव डालने वाला। तथा प्रजापालक को क्षत्रिय के वर्ण में रखा गया है। ये गीता के ( अध्याय 18 वें और श्लोक 43 वें) में वर्णित है।
शोर्यं तेजा धृतिर्दाक्ष्यं युद्वे चाप्यपलायनम्।
छानमीश्रव्रभावश्रच् क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में से न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। क्षत्रिय के शब्दार्थ के अनुसार वो दूसरों को आश्रय तथा संरक्षण एवं सुरक्षा देने वाला। क्षत्रिय अपने वर्ण के अतिरिक्त वैश्य, शूद्र वर्ण में शादी कर सकते है। परन्तु पहले अपने वर्ण में तथा बाद में दूसरे वर्ण में इनको शादी करना वर्जित नहीं है। (मनुस्मृति के अनुसार)

वेदों में क्षत्रियों के लिए लिखा है उसमें ‘‘क्षतात्च ते इति क्षत्रिय‘‘ अर्थात् जो वर्ग कमजोरों की सहायता करें और रक्षा करे वो क्षत्रिय है। उस काल में क्षत्रियों के नियम थे असहाय की रक्षा करना, देशद्रोहियों को दण्ड देना, इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना, बूढ़ों और विद्वानों की सेवा करना, धैर्यवान होना, युद्ध से नहीं डरना, यज्ञ करना और दान देना क्षत्रियों के गुण है।

राजपूत : राजपूत शब्द का प्रचलन मुस्लिम काल में हुआ। जैसे भारत के लिए हिंदुस्तान शब्द का तथा सनातन धर्म को हिन्दू धर्म कहा जाने लगा। इसी प्रकार क्षत्रियों के लिए राजपूत शब्द काम में लिया जाने लगा। राजपूत शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश है। कहीं-कहीं पर इसे रजपूत शब्द का भी प्रयोग किया गया। रज के अर्थात् मिट्टी, धरती। इसलिए इन्हें धरती पुत्र भी कहा जाता है। परन्तु राजपूत शब्द प्रचलन में बहुत आया। राजपुत्र के शब्दार्थ है राजा का पुत्र। धीरे-धीरे राजाओं के पुत्रों के परिवार की संख्या बढ़ने लगी और उन सभी को राजपुत्र कहा जाने लगा तथा धीरे-धीरे राजपूत शब्द में परिवर्तित हो गया। जैसा कि ऊपर कहा गया है राजपूत राजपुत्र का ही अपभ्रंश है।

पुराने समय में राजपुत्र शब्द जातिवाचक नहीं था। अपितु परिवार वाचक था और राजकुमार या राजवंशियों का सूचक था। क्योंकि प्राचीनकाल में सारा भारत वर्ष क्षत्रियों के अधीन था और राजकुमारों तथा राजवंशियों के लिए राजपुत्र शब्द का प्रयोग होता था। प्राचीन लेखकों ने जैसे कौटिल्य, कालिदास, बाणभट्ट ने अपनी रचनाओं में राजवंशियों के लिए राजपुत्र शब्द का प्रयोग किया है। यहीं राजपुत्र धीरे-धीरे राजपूत शब्द के रूप में परिवर्तित हो गया और चूँकि यह सभी क्षत्रिय थे, अतः क्षत्रिय के लिए राजपूत शब्द प्रयोग में आने लगा। राजपूत शब्द का प्रयोग महमूद गजनवी के समय तक नहीं था। उसके साथ ‘अलबेरूनी‘ भारत आया था, जो बड़ा विद्वान था। उसने अरबी में बहुत सी पुस्तकें लिखी हैं और भारत की विद्याओं, धर्मों और रीति-रिवाजों आदि का अध्ययन किया। उसने अपने ग्रन्थों में क्षत्रियों का वर्णन किया है, परन्तु कहीं भी राजपूत या राजपुत्र शब्द का प्रयोग नहीं किया। मोहम्मद गौरी के समय तथा अलबेरूनी की मृत्यु 1048 के बाद राजवंशियों को राजपूत नाम से संबोधित किया जाने लगा और धीरे-धीरे यह शब्द जो पहले वंशसूचक था जाति सूचक बन गया और क्षत्रियों के लिए राजपूत शब्द का प्रयोग होने लगा। अब क्षत्रियों और राजपूतों को एक ही नाम तथा जाति से जाना जाता है। अतः क्षत्रिय ही राजपूत और राजपूत ही क्षत्रिय है।
क्षत्रियों का ऐतिहासिक महत्व
क्षत्रियों का ऐतिहासिक महत्व
भारत में वर्ण व्यवस्था की शुरुआत के पहले से ही क्षत्रियों के अस्तित्व की जानकारी उपलब्ध है। ऋग्वेद में अनेकों स्थान पर ‘‘क्षत्र‘‘ एवं क्षत्रिय शब्द का प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद में क्षत्रिय शब्द का प्रयोग शासक वर्ग के व्यक्तित्व का सूचक है। यहां पर ‘‘क्षत्र‘‘ का प्रयोग प्रायः शूरता एवं वीरता के अर्थ में हुआ है। जिसका अभिप्राय लोगों की रक्षा करना था तथा गरीबों को संरक्षण देना था। यहां क्षत्रिय शब्द का प्रयोग राजा के लिये किया गया है। अतः समाज में क्षत्रियों का एक समूह बन गया जो शूर, वीरता और भूस्वामी के रूप में अपना आधिपत्य स्थापित किया और शासक के रूप में प्रतिष्ठित हुये।

उत्तर वैदिक काल तक क्षत्रियों को राजकुल से संबंधित मान लिया गया। इस वर्ग के व्यक्ति युद्ध कौशल और प्रशासनिक योग्यता में अग्रणी माने जाने लगे। यह समय क्षत्रियों के उत्कर्ष का समय था। इस काल में क्षत्रियों को वंशानुगत अधिकार मिल गया था तथा वे शस्त्र और शास्त्र के ज्ञाता भी बन गये थे। इस प्रकार राजा जो क्षत्रिय होता था वह राज्य और धर्म दोनों पर प्रभावी हुआ। पुरोहितों पर राजा का इतना प्रभाव पड़ा कि वे राजा का गुणगान करने लगे तथा उनको महिमा मंडित करने के लिये उन्हें दैवी गुणों से आरोहित किया और उन्हें देवत्व प्रदान किया तथा अपनी शक्ति के प्रभाव से राजा को अदण्डनीय घोषित किया गया।
राजपद एवं राजा की प्रतिष्ठा के साथ क्षत्रियों की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई। वृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि क्षत्रिय से श्रेष्ठ कोई नहीं है। ब्राह्मण का स्थान उसके बाद आता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि राज्य शक्ति से सम्मिलित क्षत्रिय जो ब्राह्मणों के रक्षक और पालक हैं सामाजिक क्षेत्र में श्रेष्ठ स्वीकार किये गये। ब्राह्मण की श्रेष्ठता का आधार उनका बौद्धिक एवं दार्शनिक होना था। इसका हास हुआ और क्षत्रिय इन क्षेत्रों में भी अग्रणी हुये। राजा जनक, प्रवाहणजबलि, अश्वपति, कैकेय और काशी नरेश अजातशत्रु ऐसे शासक थे, जिनसे शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने ब्राह्मण आते थे। पौरोहित्य, याज्ञिक क्रियाओं, दार्शनिक गवेषणाओं में भी क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के एकाधिकार को चुनौती दी। इन परिस्थितियों में क्षत्रियों ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को अस्वीकार किया। महाभारत में तो यहां तक कहा गया कि ब्राह्मणों को क्षति से बचाने के कारण ये ‘‘क्षत्रिय‘‘ कहे गये। इस प्रकार क्षत्रियों ने शस्त्र और शास्त्र दोनों के ज्ञाता हो अपनी श्रेष्ठता स्थापित की।

इस पूर्ण भू भारत के चप्पा-चप्पा भू को रक्त से सींचने वाले क्षत्रिय वंश के पूर्वज ही तो थे। इनकी कितनी सुंदर समाज व्यवस्था, कितनी आदर्श परिवार व्यवस्था, कितनी निष्कपट राज व्यवस्था, कितनी कल्याणकारी अर्थव्यवस्था और कितनी ऊंची धर्म व्यवस्था थी। आज भी क्षत्रिय वंश और भारत को उन व्यवस्थाओं पर गर्व है। यह व्यवस्थाएँ क्षत्रिय वंश द्वारा निर्मित, रक्षित और संचालित थीं। इसके उपरांत विश्व साहित्य के अनुपम ग्रन्थ महाभारत और रामायण इसी काल में निर्मित हुए। गीता जैसा अमूल्य रत्न भी इसी वंश की कहानी कहता है। जिसका मूल्यांकन आज का विद्वान न कर सका है और न कर सकता है। इन दोनों में क्षत्रिय वंश के पूर्वजों की गौरव गाथाएँ और महिमा का वर्णन है। जिन्होंने विश्व विजय किया था और इस भूखंड के चक्रवर्ती सम्राट रहे थे। महाभारत का युद्ध दो भाइयों के परिवार का साधारण गृह युद्ध नहीं था। वह धर्म और अधर्म का युद्ध था। जो छात्र धर्म के औचित्य और स्वरूप को स्थिर रखने का उदाहरण था।

परम् ब्रह्म परमात्मा के रूप में जिस भगवान कृष्ण की भक्ति का भागवत में वर्णन किया गया है, वे 16 कलाओं से परिपूर्ण भगवान कृष्ण भी तो हमारे पूर्वज थे। यह जाति अति आदर्श वान, उच्च निर्भीक और अद्वितीय है। वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्य, और उत्पीड़न के सामने झुकना, नतमस्तक होना नहीं जानती तथा वह पराजय व पतन को भी विजय और उल्लास में बदलना जानती है। रघुवंशियों के गौरव गाथा और उज्ज्वल महिमा का वर्णन रघुवंश में दिया गया है। इसे पढ़ने पर मन आनंदित और आत्मा पुलकित हो उठती है।

परम् श्रद्धेय अयोध्या पति श्री राम रघुवंशी भी तो हमारे पूर्वज थे। उनके गौरव व बड़प्पन की तुलना संसार में किसी से नहीं की जा सकी। यहीं कहीं बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रवर्तक और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले क्षत्रिय पुत्र भगवान बुद्ध और क्षत्रिय पुत्र महावीर ही तो थे। जिन्होंने उस समय देश को अहिंसा का पाठ पढ़ाया। अतः इस वसुन्धरा में क्षत्रिय जाति को छोड़कर कोई अन्य जाति विद्यमान नहीं है, जिसके पीछे इतना साहित्यिक बल, प्रेरणा के स्त्रोत और जिनकी गौरवमई गरिमा एवं शौर्य का वर्णन इतने व्यापक और प्रभावपूर्ण ढंग से हुआ हो। अपने सम्मान और कुल गौरव की रक्षा के लिए वीरांगनाओं ने अग्नि स्नान (जौहर) और धारा (तलवार) स्नान किया है। मैं यह मानने के लिए कभी तैयार नहीं हूँ कि जिस जाति और वंश के पास इतनी अमूल्य निधि और अटूट साहित्यिक निधि हो वह स्वयं अपने पर गर्व नहीं कर सकती।

सतयुग का इतिहास हमें वैदिक वाङ्मय के रूप में देखने को मिलता है। वैदिक और उत्तर वैदिक साहित्य में तत्कालीन जीवन दर्शन समाज व्यवस्था आदि का सांगोपांग चित्रण मिलता है। त्रेता और द्वापर युगों के इतिहास पर समस्त पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है। वाल्मीकि रामायण और महाभारत उसी इतिहास के दो अमूल्य ग्रंथ है। महाभारत काल के पूर्व का हजारों वर्षों का इतिहास क्षत्रिय इतिहास मात्र है। महाभारत काल के पश्चात लगभग डेढ़ हजार वर्ष का इतिहास भारतीय इतिहास की दृष्टि से अंधकार का युग कहा जा सकता है, पर यह बताने में हमें तनिक भी संकोच नहीं है कि उस समय का समस्त भारत और आस-पास के प्रदेशों पर क्षत्रियों का सार्वभौम प्रभुत्व था।

मौर्य काल का इतिहास तिथि वार, क्रमवार उपलब्ध है। मौर्य काल से लगाकर मुसलमानों के आक्रमण तक भारत की क्षत्रिय जाति सार्वभौम प्रभुत्व सम्पन्न जाति रही है। इस्लामी प्रभुत्व के समय में भी जौहर और शाका करके जीवित रहने वाली मर-मर कर पुनः जीवित होने वाली क्षत्रिय जाति का इतिहास हिंदू भारत का इतिहास है। अतः मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि संसार के प्राचीनतम सभ्य देश भारत में इतिहास में से क्षत्रिय इतिहास निकालने के उपरान्त कुछ भी नहीं बचता। अतः दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि मूलतः क्षत्रियों का इतिहास ही भारत का इतिहास है।

इस प्रकार महान और व्यापक हिन्दू संस्कृति के अन्तर्गत क्षत्रियों (राजपूतों) की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति रही है। यह विशिष्ट संस्कृति कालान्तर में विशिष्ट आचार-विचार, विशिष्ट भाषा, विशिष्ट साहित्य, विशिष्ट इतिहास, विशिष्ट कला-कौशल, विशिष्ट राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक व्यवस्थाओं के कारण और भी सबल बनी है।

अतः राजपूत एक ऐसा वंश है, जिसके स्वयं के राज नियम, राज विधान, शासन प्रणाली, सभ्य संसार के इतिहास में सबसे अधिक समय तक प्रचलित रहे हैं तथा सबसे अधिक कल्याणकारी और सफल सिद्ध हुई है। बीच-बीच में कुछ राजाओं द्वारा अपने अलग के नियम और प्रजा के अमंगलकारी कार्यों से पूरे क्षत्रिय वंश को बुरा नहीं कहा जा सकता। जहां राजपूतों ने एक ओर भारतीय संस्कृति की रक्षा की, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी स्वयं की विशिष्ट संस्कृति का निर्माण किया। यह विशिष्ट राजपूत संस्कृति आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित होती है। यहां मैं कहना चाहूँगा कि सभी क्षत्रिय शासक निरंकुश नहीं थे, बल्कि इनके समय में शिक्षा, कला, संगीत और संस्कृति की अद्भुत उन्नति हुई थी। कई तो स्वयं इसके पारखी भी थे, कई तो गरीबों के मित्र एवं संरक्षक थे। उन्हें सहायता एवं भोजन देते थे। इसमें महाराज हर्ष सबसे अग्रणी थे। ये बैस क्षत्रिय ही तो थे ओर अपनी बहन से मांगकर कपडे़ पहनते थे। बैसवाडे़ में गंगा तट पर बहुत से महत्वपूर्ण स्थान हैं। जिनकी खुदाई कर हम अपने प्राचीन इतिहास को उजागर कर सकते है। यहां समय-समय पर प्राचीन तथा पुरातत्व महत्व की वस्तुओं, सिक्के, बर्तन, हथियार मिलते रहते हैं। जिससे हमारी प्राचीन सभ्यता का ज्ञान होता है। बैसवाड़ा का गंगा तटीय इलाका इस प्राचीन एवं पुरातत्व की वस्तुओं की खान है।

निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि कितने लाख वर्ष पहले हमारे पूर्वजों ने इस वर्ण व्यवस्था को अपना कर सामाजिक जीवन में एक महत्वशाली अनुशासन की व्यवस्था की थी। अतएव अतीत के उस सुदूर प्रभात में भी मानवता के लक्षण, पौषण और उसके लौकिक और पारलौकिक उत्कर्ष के लिए यदि कोई वर्ण उत्तरदायी था तो वह वर्ण मुख्य रूप से क्षत्रिय ही तो था ओर यदि कोई जाति और व्यक्ति उत्तरदायी था तो वह क्षत्रिय ही तो था।
पौराणिक काल के जम्बूदीप पर एकछत्र राज की यदि किसी जाति ने स्थापना की तो वह एक मात्र क्षत्रिय ही तो थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पृथ्वी को वर्तमान आकार और स्वरूप देने वाले और इसका दोहर कर समस्त जीवनोपयोगी सामग्री उपलब्ध कराने वाले व्यक्ति क्षत्रिय राजा पृथु ही थे। हिमालय से लगाकर सुदूर दक्षिण और प्रशान्त महासागर से लगाकर ईरान के अति पश्चिमी भाग के भू-खण्ड के अतिरिक्त पूर्वी भाग में तथा आसाम पर क्षत्रियों का ही तो शासन था। यहाँ तक कि देवा सुर संग्राम में देवताओं ने क्षत्रियों का तेज, छात्र शक्ति अन्तर्दृष्टि देखकर ही इनसे सहायता प्राप्त की। एक ओर क्षत्रियों द्वारा रक्षित शान्ति के समय वेदों की रचना हुई तथा सार्वभौमिक सिद्धान्तों के प्रणेता उपनिषदों के अधिकांश आचार्य क्षत्रिय ही तो थे। कोई आज बता सकता है कि संसार में वह कौन सी जाति है जिसमें अवतरित मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की भारत के आधी से ज्यादा नर-नारी, परमेश्वर के रूप में उसकी उपासना करते हैं तथा कोई बता सकता है कि वह कौन सी जाति है जिसमें पुरुषोत्तम योगी राज भगवान कृष्ण अवतरित हुए हैं। क्या कोई बता सकता है कि वह कौन सी जाति थी जिसके काल में वाल्मीकि रामायण, महाभारत एवं गीता की रचना हुई। क्या कोई बता सकता है कि सर्वप्रथम शान्ति और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध और जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर किस जाति के थे। इन सब प्रश्नों का उत्तर है ‘‘क्षत्रिय‘‘।

जिस समय संसार की अन्य जातियां अपने पैरो पर लड़खड़ाते हुई उठने का प्रयास कर रही थी, उस समय भारत वर्ष में क्षत्रिय महान साम्राज्यों के अधिष्ठाता थे:- साहित्य, कला, वैभव, ऐश्वर्य, सुख, शांति के जन्मदाता थे। स्वर्ण युग भारत ज्ञान गुरु भारत और विश्व विजयी भारत के शासक क्षत्रिय ही तो थे। विदेशी आक्रमणकारी यवन, शक, हूण, कुषाण जातियों को क्षत्रियों के बाहुबल के सामने नतमस्तक होना पड़ा था। यह क्षत्रिय ही तो थे, जिन्होंने इन आक्रमणकारी जातियों के अस्तित्व तक को भारत में आज ऐतिहासिक खोज बना दिया है। हम उन पूर्वजों को कैसे भूला सकते हैं, जिन्होंने देश भर में शौर्य और तेज के बल से प्रबल राज्यों का निर्माण कर इतिहास में राजपूत काल को अमर कर दिया। इसके बाद इस्लाम धर्म का प्रबल तूफान उठा और भारत की प्राचीन संस्कृतियों, सुव्यवस्थित साम्राज्यों, दीर्घकालीन व्यवस्थाओं को एक के बाद एक करके धराशायी कर दिया। भारत में इन आक्रमणकारियों का सामना मुख्य रूप से क्षत्रियों को ही करना पड़ा। साम्राज्य नष्ट हुए, जातियाँ समाप्त हुई, स्वतंत्रता विलुप्त हुई पर संघर्ष बन्द नहीं हुआ।

क्या कोई इतिहासकार बता सकता है कि राजपूतों के अतिरिक्त संसार में कोई भी अन्य जाति हुई हैं, जिसने धर्म और सम्मान की रक्षा के लिए सैकड़ों शाके कियें हो। वे राजपूत नारियों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसी नारियाँ संसार में हुई, जिन्होंने हँसते-हँसते जौहर कर प्राणों की आहुति दी हो व धारा (तलवार) स्नान किया हो। इसका उदाहरण इतिहास में अन्यथा नहीं मिलेगा। इस्लाम धर्म का प्रभाव सैकड़ों वर्षों तक क्षत्रियों से टकराकर निस्तेज होकर स्वतः शांत हो गया। कितने आश्चर्य की बात है कि क्षत्रिय राज्यों के पश्चात् स्थापित होने वाला मुसलमानी राज्य क्षत्रिय राज्यों से पहले ही समाप्त हो गया।

महात्मा बुद्व के प्रभाव से अधिकांश क्षत्रियों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और अहिंसा पर विश्वास करने लगे। अशोक महान एक शक्तिशाली राजा के रूप में उदित हुए। उसके बाद महाराजा हर्ष वर्धन जो कि एक बैस क्षत्रिय राजा थे, जो शीलादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए और एक चक्रवर्ती राजा का रूप लिया। जिनका शासन नर्मदा के उत्तर से नेपाल तक तथा अफगानिस्तान, ईरान से लेकर पूर्व में आसाम तक था और जिसके सम्मुख कोई भी राजा सर नहीं उठा सकता था। इन्होंने भी अन्त में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। साथ ही अधिकतर क्षत्रिय जाति ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और इनके बाद कोई प्रभावशाली उत्तराधिकारी न होने के कारण इनका राज्य छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। बौद्ध धर्म समाज की शाश्वत आवश्यकता, सुरक्षा के लिए अनुपयोगी सिद्ध हुआ। उसने राष्ट्र की स्वाभाविक छात्र शक्ति को निस्तेज, पंगु और सिद्धान्त हीन बना दिया। वह राष्ट्र पर बाहरी आक्रमणों के समय असफल सिद्ध होने लगा। अतएव क्षत्रियों ने छात्र धर्म के प्रतिपादक वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की, परन्तु शक्तिशाली केन्द्रीय शासन के अभाव में राजपूत राजा आपस में युद्ध करते-करते छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गए। जिसका लाभ मुस्लिम काल में मुस्लिम आक्रान्ताओं को मिला और क्षत्रिय अपनी शक्ति को क्षीण करते रहे तथा अपने अस्तित्व के लिये लड़ते रहे और भगवान कृष्ण के उपदेशों की पालन करते रहे, परन्तु संघर्ष को कभी विराम नहीं दिया। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि वास्तव में धर्म युद्ध से बढ़कर कल्याण कारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिए और कुछ नहीं।


स्वधर्ममपि चावेक्ष्यण् न विकम्पितुमर्हसि।
धम्र्याद्धि युद्धाच्दे, योऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।
और यदि धर्म युद्ध, संग्राम को क्षत्रिय नहीं करता तो स्वधर्म, कीर्ति को खोकर पाप का भागी होता। 
अथ चेत्वमिमं धम्यं, संगा्रमं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्म कीर्तिं च, हित्वा पापमवाप्स्यसि।।

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शिक्षाप्रद बाल कहानी - स्वप्न महल



एक रात राजा कृष्णदेव राय ने सपने में एक बहुत ही सुंदर महल देखा, जो अधर में लटक रहा था। उसके अंदर के कमरे रंग-बिरंगे पत्थर से बने थे। उसमें रोशनी के लिए दीपक या मशालों की जरूरत नहीं थी। बस जब मन में सोचा, अपने आप प्रकाश हो जाता था और जब चाहे अँधेरा।
 

उस महल में सुख और ऐश्वर्य के अनोखे सामान भी मौजूद थे। धरती से महल में पहुँचने के लिए बस इच्छा करना ही आवश्यक था। आँखें बंद करो और महल के अंदर। दूसरे दिन राजा ने अपने राज्य में घोषणा करवा दी कि जो भी ऐसा महल राजा को बनाकर देगा, उसे एक लाख स्वर्णमुद्राओं का पुरस्कार दिया जाएगा।

सारे राज्य में राजा के सपने की चर्चा होने लगी। सभी सोचते कि राजा कृष्णदेव राय को न जाने क्या हो गया है। कभी सपने भी सच होते हैं? पर राजा से यह बात कौन कहे?

राजा ने अपने राज्य के सभी कारीगरों को बुलवाया। सबको उन्होंने अपना सपना सुना दिया। कुशल व अनुभवी कारीगरों ने राजा को बहुत समझाया कि महाराज, यह तो कल्पना की बातें हैं। इस तरह का महल नहीं बनाया जा सकता। लेकिन राजा के सिर पर तो वह सपना भूत की तरह सवार था।

कुछ धूर्तों ने इस बात का लाभ उठाया। उन्होंने राजा से इस तरह का महल बना देने का वादा करके काफी धन लूटा। इधर सभी मंत्री बेहद परेशान थे। राजा को समझाना कोई आसान काम नहीं था। अगर उनके मुंह पर सीधे-सीधे कहा जाता कि वह व्यर्थ के सपने में उलझ रहे हैं तो महाराज के क्रोधित हो जाने का भय था।

मंत्रियों ने आपस में सलाह की। अंत में फैसला किया गया कि इस समस्या को तेनालीराम के अलावा और कोई नहीं सुलझा सकता। तेनालीराम कुछ दिनों की छुट्टी लेकर नगर से बाहर कहीं चले गए। एक दिन एक बूढ़ा व्यक्ति राजा कृष्णदेव राय के दरबार में रोता-चिल्लाता हुआ आ पहुँचा।

राजा ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, ‘तुम्हें क्या कष्ट है? चिंता की कोई बात नहीं। अब तुम राजा कृष्णदेव राय के दरबार में हो। तुम्हारे साथ पूरा न्याय किया जाएगा।’‘मैं लुट गया, महाराज। आपने मेरे सारे जीवन की कमाई हड़प ली। मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं, महाराज। आप ही बताइए, मैं कैसे उनका पेट
भरूँ?’ वह व्यक्ति बोला।

क्या हमारे किसी कर्मचारी ने तुम पर अत्याचार किया है? हमें उसका नाम बताओ।’ राजा ने क्रोध में कहा। ‘नहीं, महाराज, मैं झूठ ही किसी कर्मचारी को क्यों बदनाम करूँ?’ बूढ़ा बोला। ‘तो फिर साफ क्यों नहीं कहते, यह सब क्या गोलमाल है? जल्दी बताओ, तुम चाहते क्या हो?’‘महाराज अभयदान पाऊँ तो कहूँ।’ ‘हम तुम्हें अभयदान देते हैं।’ राजा ने विश्वास दिलाया।

महाराज, कल रात मैंने सपने में देखा कि आप स्वयं अपने कई मंत्रियों और कर्मचारियों के साथ मेरे घर पधारे और मेरा संदूक उठवाकर आपने अपने खजाने में रखवा दिया। उस संदूक में मेरे सारे जीवन की कमाई थी। पाँच हजार स्वर्ण मुद्राएँ।’ उस बूढ़े व्यक्ति ने सिर झुकाकर कहा।

विचित्र मूर्ख हो तुम! कहीं सपने भी सच हुआ करते हैं?’ राजा ने क्रोधित होते हुए कहा। ठीक कहा आपने, महाराज! सपने सच नहीं हुआ करते। सपना चाहे अधर में लटके अनोखे महल का ही क्यों न हो और चाहे उसे महाराज ने ही क्यों न देखा हो, सच नहीं हो सकता।’

राजा कृष्णदेव राय हैरान होकर उस बूढ़े की ओर देख रहे थे। देखते-ही-देखते उस बूढ़े ने अपनी नकली दाढ़ी, मूँछ और पगड़ी उतार दी। राजा के सामने बूढ़े के स्थान पर तेनालीराम खड़ा था। इससे पहले कि राजा क्रोध में कुछ कहते, तेनालीराम ने कहा- ‘महाराज, आप मुझे अभयदान दे चुके हैं।’ महाराज हँस पड़े। उसके बाद उन्होंने अपने सपने के महल के बारे में कभी बात नहीं की।
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शिक्षाप्रद बाल कहानी - तीन सवाल-अकबर बीरबल



बादशाहा अकबर, बीरबल की हाजि़रजवाबी के बडे कायल थे। उनकी इस बात से दरबार के अन्य मंत्री मन ही मन बहुत जलते थे। उनमें से एक मंत्री, जो महामंत्री का पद पाने का लोभी था, ने मन ही मन एक योजना बनाई। उसे मालूम था कि जब तक बीरबल दरबार में मुख्य सलाहकार के रूप में है उसकी यह इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकती।

एक दिन दरबार में अकबर ने बीरबल की हाजि़रजवाबी की बहुत प्रशंसा की। यह सब सुनकर उस मंत्री को बहुत गुस्सा आया। उसने बादशाह से कहा कि यदि बीरबल मेरे तीन सवालों का उत्तर सही-सही दे देता है तो मैं उसकी बुद्धिमता को स्वीकार कर लूँगा और यदि नहीं तो इससे यह सिद्ध होता है कि वह बादशाह का चापलूस है। अकबर को मालूम था कि बीरबल उसके सवालों का जवाब ज़रूर दे देंगे इसलिए उन्होंने उस मंत्री की बात स्वीकार कर ली। उस मंत्री के तीन सवाल थे -
आकाश में कितने तारे हैं?
धरती का केन्द्र कहाँ है?
सारे संसार में कितने स्त्री और कितने पुरुष हैं?
अकबर ने फौरन बीरबल से इन सवालों के जवाब देने के लिए कहा। और शर्त रखी कि यदि वह इनका उत्तर नहीं जानता है तो मुख्य सलाहकार का पद छोड़ने के लिए तैयार रहें।

बीरबल ने कहा, तो सुनिये बादशाह।

पहला सवाल - बीरबल ने एक भेड़ मँगवाई और कहा जितने बाल इस भेड़ के शरीर पर हैं आकाश में उतने ही तारे हैं। मेरे दोस्त, गिनकर तस्सली कर लो, बीरबल ने मंत्री की तरफ देखकर मुस्कुराते हुए कहा।

दूसरा सवाल - बीरबल ने ज़मीन पर कुछ लकीरें खींची और] कुछ हिसाब लगाया। फिर एक लोहे की छड़ मँगवाई गई और उसे एक जगह गाड़ दिया और बीरबल ने बादशाह से कहा, बादशाह बिल्कुल इसी जगह धरती का केन्द्र है, चाहे तो आप स्व्यं जाँच लें। बादशाह बोले ठीक है अब तीसरे सवाल के बारे में कहो।

अब बादशाह तीसरे सवाल का जवाब बड़ा मुश्किल है। क्योकि इस दुनिया में कुछ लोग ऐसे हैं जो ना तो स्त्री की श्रेणी में आते हैं और ना ही पुरुषों की श्रेणी में। उनमें से कुछ लोग तो हमारे दरबार में भी उपस्थित हैं जैसे कि ये मंत्री जी। बादशाह यदि आप इनको मौत के घाट उतरवा दें तो मैं स्त्री-पुरूष की सही सही संख्या बता सकता हूँ. अब मंत्री जी सवालों का जवाब छोडकर थर-थर काँपने लगे और बादशाह से बोले, बादशाह बस-बस मुझे मेरे सवालों का जवाब मिल गया। मैं बीरबल की बुद्धिमानी को मान गया हूँ।

बादशाह हमेशा की तरह बीरबल की तरफ पीठ करके हँसने लगे और इसी बीच वह मंत्री दरबार से दबे पाँव चला गया।

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शिक्षाप्रद बाल कहानी - बीरबल की खिचड़ी



एक बार शहंशाह अकबर ने घोषणा की कि यदि कोई व्यक्ति सर्दी के मौसम में नर्मदा नदी के ठंडे पानी में घुटनों तक डूबा रहकर सारी रात गुज़ार देगा उसे भारी भरकम उपहारों से पुरस्कृत किया जाएगा।

एक गरीब धोबी ने अपनी गरीबी दूर करने के लिए सारी रात नदी में घुटने तक के पानी में खड़े रहकर ठिठुरते बिताई और जहाँपनाह से अपना ईनाम लेने पहुँचा।

बादशाह अकबर ने उससे पूछा, तुमने नदी में खड़े-खड़े ही कैसे सारी रात बिना सोए बिताई? तुम्हारे पास क्या सबूत है?
 

धोबी ने उत्तर दिया, जहाँपनाह, नदी के छोर से महल का एक कमरा नज़र आता है। मैं सारी महल के कमरे में जल रहे दीपक को देखता रहा और इस तरह जागते हुए सारी रात नदी के शीतल जल में गुज़ारी।

तो, इसका मतलब यह हुआ कि तुम महल के दीये की गर्मी लेकर सारी रात पानी में खड़े रहे और ईनाम चाहते हो। सिपाहियों इसे जेल में बन्द कर दो-बादशाह ने क्रोधित होकर कहा।

बीरबल भी दरबार में था। उसे यह देख बुरा लगा कि बादशाह नाहक ही उस गरीब पर ज़ुल्म कर रहे हैं। बीरबल दूसरे दिन दरबार में हाजि़र नहीं हुए, जबिक उस दिन दरबार की एक आवश्यक बैठक थी। बादशाह ने एक खादिम को बीरबल को बुलाने भेजा। खादिम ने लौटकर जवाब दिया, बीरबल खिचड़ी पका रहे हैं और वह खिचड़ी पकते ही उसे खाकर आएँगे।

जब बीरबल बहुत देर बाद भी नहीं आए तो बादशाह को कुछ सन्देह हुआ। वे खुद तफ्तीश करने पहुँचे। बादशाह ने देखा कि एक बहुत लंबे से डंडे पर एक घड़ा बाँधकर उसे बहुत ऊँचा लटका दिया गया है और नीचे ज़रा-सी आग जल रही है। पास में बीरबल आराम से पेड़ की छाँव में लेटे हुए हैं।

बादशाह ने तमककर पूछा, यह क्या तमाशा है? क्या ऐसी भी खिचड़ी पकती है?

बीरबल ने कहा - माफ करें, जहाँपनाह, ज़रूर पकेगी। वैसी ही पकेगी जैसी की धोबी को महल के दीये की गरमी मिली थी।


बादशाह को बात समझ में आ गई। उन्होंने बीरबल को गले लगाया और धोबी को रिहा करने और उसे ईनाम देने का हुक्म दिया।

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शिक्षाप्रद बाल कहानी - गोलू-मोलू और भालू



गोलू-मोलू पक्के दोस्त थे। गोलू जहाँ दुबला-पतला था, वहीं मोलू गोल-मटोल। दोनों एक-दूसरे पर जान देने का दम भरते थे, लेकिन उनकी जोड़ी देखकर लोगों की हँसी आ जाती। एक बार उन्हें किसी दूसरे गाँव में रहने वाले मित्र का निमंत्रण मिला। उसने उन्हें अपनी बहन के विवाह के अवसर पर बुलाया था।

उनके मित्र का गाँव बहुत दूर नहीं था लेकिन वहाँ तक पहुँचने के लिए जंगल से होकर गुज़रना पड़ता था। और उस जंगल में जंगली जानवरों की भरमार थी।
दोनों चल दिए जब वे जंगल से होकर गुज़र रहे थे तो उन्हें सामने से एक भालू आता दिखा। उसे देखकर दोनों भय से थर-थर काँपने लगे। तभी दुबला-पतला गोलू तेज़ी से दौड़कर एक पेड़ पर जा चढ़ा, लेकिन मोटा होने के कारण मोलू उतना तेज़ नहीं दौड़ सकता था। उधर भालू भी निकट आ चुका था, फिर भी मोलू ने साहस नहीं खोया। उसने सुन रखा था कि भालू मृत शरीर को नहीं खाते। वह तुरंत ज़मीन पर लेट गया और साँस रोक ली। ऐसा अभिनय किया कि मानो शरीर में प्राण हैं ही नहीं। भालू घुरघुराता हुआ मोलू के पास आया, उसके चेहरे व शरीर को सूँघा और उसे मृत समझकर आगे बढ़ गया।

जब भालू काफी दूर निकल गया तो गोलू पेड़ से उतरकर मोलू के निकट आया और बोला, ‘‘मित्र, मैंने देखा कि भालू तुमसे कुछ कह रहा था। क्या कहा उसने ?’’

मोलू ने गुस्से में भरकर जवाब दिया, ‘‘मुझे मित्र कहकर न बुलाओ और ऐसा ही कुछ भालू ने भी मुझसे कहा। उसने कहा, गोलू पर विश्वास न करना, वह तुम्हारा मित्र नहीं है।’’

सुनकर गोलू शर्मिन्दा हो गया। उसे ज्ञात हो गया था कि उससे कितनी भारी भूल हो गई थी। उसकी मित्रता भी सदैव के लिए समाप्त हो गई।

शिक्षा-सच्चा मित्र वही है जो संकट के काम आए।

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शिक्षाप्रद बाल कहानी - कौवे की परेशानी



यदि आपको सुखी रहना है तो किसी से अपनी तुलना नहीं करो। ‘आप’ आप ही हो। आप के समान कोई नहीं। फिर क्यों दूसरों से अपनी तुलना करना? आइए इस बात को एक कहानी के माध्यम से समझते हैं -

एक कौआ जंगल में रहता था और अपने जीवन से संतुष्ट था। एक दिन उसने एक हंस को देखा, “यह हंस कितना सफ़ेद है, कितना सुन्दर लगता है।” उसने मन ही मन सोचा।
 

उसे लगा कि यह सुन्दर हंस दुनिया में सबसे सुखी पक्षी होगा, जबकि मैं तो कितना काला हूँ! यह सब सोचकर वह काफी परेशान हो गया और उससे रहा नहीं गया, उसने अपने मनोभाव हंस को बताए ।

हंस ने कहा “वास्तिकता ऐसी है कि पहले मैं खुद को आसपास के सभी पक्षियों में सुखी समझता था। लेकिन जब मैंने तोते को देखा तो पाया कि उसके दो रंग हैं तथा वह बहुत-ही मीठा बोलता है। तब से मुझे लगा कि सभी पक्षियों में तोता ही सुन्दर तथा सुखी है।”

अब कौआ तोते के पास गया।

तोते ने कहा “मैं सुख से जीवन जी रहा था, लेकिन जब मैंने मोर को देखा तब मुझे लगा कि मेरे दो रंग ही हैं, परन्तु मोर तो विविधरंगी है। मुझे तो वही सुखी लगता है।”

फिर कौआ उड़कर प्राणी संग्रहालय गया। जहाँ कई लोग मोर देखने एकत्र हुए थे।

जब सब लोग चले गए तो कौआ उसके पास जाकर बोला “मित्र, तुम तो अति सुन्दर हो। कितने सारे लोग तुम्हें देखने के लिए इकट्ठे होते हैं! प्रतिदिन तुम्हें देखने के लिए हजारों लोग आते हैं! जब कि मुझे देखते ही लोग मुझे उड़ा देते हैं। मुझे लगता है कि पृथ्वी पर तो तुम ही सभी पक्षियों में सबसे सुखी हो।”

मोर ने गहरी साँस लेते हुए कहा “मैं हमेशा सोचता था कि ‘मैं इस पृथ्वी पर अतिसुन्दर हूँ, मैं ही अतिसुखी हूँ।’ परन्तु मेरे सौन्दर्य के कारण ही मैं यहाँ पिंजरे में बंद हूँ। मैंने सारे प्राणी गौर से देखे तो मैं समझा कि ‘कौआ ही ऐसा पक्षी है जिसे पिंजरे में बंद नहीं किया जाता।’ मुझे तो लगता है कि काश
मैं भी तुम्हारी तरह एक कौआ होता तो स्वतंत्रता से सभी जगह घूमता-उड़ता, सुखी रहता!”

हम अनावश्यक ही दूसरों से अपनी तुलना किया करते हैं और दुखी-उदास बनते हैं प्रत्येक दिन को भगवान की भेंट समझ कर आनंद से जीना चाहिए। सुखी होना तो सब चाहते है लेकिन सुखी रहने के लिए दूसरों से तुलना करना छोड़ना होगा।

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शिक्षाप्रद बाल कहानी - राजा की तीन सीखें



बहुत समय पहले की बात है, सुदूर दक्षिण में किसी प्रतापी राजा का राज्य था। राजा के तीन पुत्र थे, एक दिन राजा के मन में आया कि पुत्रों को कुछ ऐसी शिक्षा दी जाये कि समय आने पर वो राज-काज सम्हाल सकें।
इसी विचार के साथ राजा ने सभी पुत्रों को दरबार में बुलाया और बोला, “पुत्रों, हमारे राज्य में नाशपाती का कोई वृक्ष नहीं है, मैं चाहता हूँ तुम सब चार-चार महीने के अंतराल पर इस वृक्ष की तलाश में जाओ और पता लगाओ कि वो कैसा होता है? ” राजा की आज्ञा पाकर तुम्हें पुत्र बारी-बारी से गए और वापस लौट आए।

सभी पुत्रों के लौट आने पर राजा ने पुनः सभी को दरबार में बुलाया और उस पेड़ के बारे में बताने को कहा।

पहला पुत्र बोला, “पिताजी वह पेड़ तो बिलकुल टेढ़ा-मेढ़ा, और सूखा हुआ था।”

“नहीं-नहीं वह तो बिलकुल हरा था, लेकिन शायद उसमें कुछ कमी थी क्योंकि उसपर एक भी फल नहीं लगा था”। दूसरे पुत्र ने पहले को बीच में ही रोकते हुए कहा।

फिर तीसरा पुत्र बोला, “भैया, लगता है आप भी कोई गलत पेड़ देख आए क्योंकि मैंने सचमुच नाशपाती का पेड़ देखा, वो बहुत ही शानदार था और फलों से लदा पेड़ था।”

और तुम्हें पुत्र अपनी-अपनी बात को लेकर आपस में विवाद करने लगे कि तभी राजा अपने सिंहासन से उठे और बोले, “पुत्रों, तुम्हें आपस में बहस करने की कोई आवश्यकता नहीं है, दरअसल तुम तीनों ही वृक्ष का सही वर्णन कर रहे हो। मैंने जानबूझकर तुम्हें अलग-अलग मौसम में वृक्ष खोजने भेजा था और
तुमने जो देखा वो उस मौसम के अनुसार था।

मैं चाहता हूँ कि इस अनुभव के आधार पर तुम तीन बातों को गाँठ बाँध लो- पहली- किसी चीज़ के बारे में सही और पूर्ण जानकारी चाहिए तो तुम्हें उसे लम्बे समय तक देखना-परखना चाहिए। फिर चाहे वो कोई विषय हो, वस्तु हो या फिर कोई व्यक्ति ही क्यों न हो। दूसरी, हर मौसम एक-सा नहीं होता, जिस प्रकार वृक्ष मौसम के अनुसार सूखता, हरा-भरा या फलों से लदा रहता है उसी प्रकार मनुष्य के जीवन में भी उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, अतः अगर तुम कभी भी बुरे दौर से गुजर रहे हो तो अपनी हिम्मत और धैर्य बनाये रखो, समय अवश्य बदलता है और तीसरी बात, अपनी बात को ही सही मान कर उस पर अड़े मत रहो, अपना दिमाग खोलो और दूसरों के विचारों को भी जानो। यह संसार ज्ञान से भरा पड़ा है, चाह कर भी तुम अकेले सारा ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते , इसलिए भ्रम की स्थिति में किसी ज्ञानी व्यक्ति से सलाह लेने में संकोच मत करो।“

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शिक्षाप्रद बाल कहानी-कितने सेब हैं?



 

7  साल  की  लड़की  लक्ष्मी  को गणित  (मैथ्स)  पढ़ा  रहे  शिक्षक   ने  पूछा ,”अगर  मैं  तुम्हे  एक  सेब  दूँ,  फिर  एक  और सेब  दूँ,  और  फिर  एक  और  सेब  दूँ  ,  तो तुम्हारे पास कितने सेब हो जाएँगे?”

 लड़की  ने  कुछ  देर  सोचा  और,  और  अपनी ऊँगली पर जोड़ने लगी। ”चार”, लड़की का उत्तर आया।

शिक्षक   थोड़ा  निराश  हो  गए,  उन्हें  लगा  कि  ये  तो कोई  भी  बता  सकता  था।  “शायद  बच्चे  ने  ठीक  से सुना नहीं, शिक्षक  ने मन ही मन सोचा।

उन्होंने पुनः प्रश्न दोहराया ” ध्यान से सुनो अगर मैं तुम्हें एक सेब दूँ, फिर एक और सेब दूँ , और फिर एक और सेब दूँ , तो तुम्हारे पास कितने सेब हो जाएँगे ?”

लड़की  शिक्षक   का  चेहरा  देखकर  समझ  चुकी  थी  कि  वो  खुश  नहीं  है,  वह  पुनः  अपनी  उँगलियों  पर जोड़ने  लगी,  और  सोचने  लगी  कि  ऐसा  क्या  उत्तर  बताऊँ  जिससे  शिक्षक   खुश  हो  जाए।  अब  उसके दिमाग में ये नहीं था कि उत्तर सही हो, बल्कि ये था कि शिक्षक  खुश हो जाएँ।

पर बहुत सोचने के बाद भी उसने संकोच करते हुए कहा, ”चार“।


शिक्षक  फिर निराश हो गए, उन्हें याद आया कि लक्ष्मी कों स्ट्रॉबेरी बहुत पसंद हैं, हो सकता है सेब पसंद न होने के कारण वो अपना ध्यान खो रही हो।

इस बार उसने बड़े प्यार और जोश के साथ पूछा, ”अगर मैं तुम्हे एक स्ट्रॉबेरी दूँ, फिर एक और स्ट्रॉबेरी दूँ, और फिर एक और स्ट्रॉबेरी दूँ, तो तुम्हारे पास कितने स्ट्रॉबेरी हो जाएँगी ?”

शिक्षक  को खुश देख कर, लक्ष्मी भी खुश हो गई आैर अपनी उँगलियों पर जोड़ने लगी- ण्ण्ण् । अब उसके ऊपर कोई दबाव नहीं था बल्कि शिक्षक  को ही चिंता थी कि उसका नया तरीका काम कर जाए।

उत्तर देते समय लक्ष्मी फिर थोड़ा झिझकी और बोली, ”तीन !!!”

शिक्षक  खुश हो गए, उनका तरीका काम कर गया था। उन्हें लगा कि अब लक्ष्मी समझ चुकी हैं और अब वह इस तरह के किसी भी प्रश्न का उत्तर दे सकती है।

“अच्छा बेटा तो बताओ, अगर मैं तुम्हे एक सेब दूँ, फिर एक और सेब दूँ, और फिर एक और सेब दूँ, तो तुम्हारे पास कितने सेब हो जाएँगे?”

पिछला जवाब सही होने से लक्ष्मी का आत्मविश्वास बढ़ चुका था, उसने बिना समय गँवाए उत्तर दिया, ”चार”।

शिक्षक  क्रोधित हो गए, ”तुम्हारे पास दिमाग नहीं है क्या, जरा मुझे भी समझाओ कि चार सेब कैसे हो जाएँगे”।

लड़की डर गई और टूटते हुए शब्दों में बोली , ”क्योंकि मेरे बैग में पहले से ही एक सेब है”।

कई बार ऐसा होता है कि सामने वाले का जवाब हमारे अनुकूल नहीं होता तो हम अपना गुस्सा करने लगते हैं, पर जरूरत इस बात की है कि हम उसके जवाब के पीछे का कारण समझें। विभिन्न माहौल में पले-बढ़े  होने  के  कारण  एक  ही  चीज़  को  अलग-अलग  तरीकों  से  देख-समझ  सकते  हैं,  इसलिए  जब अगली बार आपको कोई अटपटा जवाब मिले तो एक बार जरूर सोच लीजियेगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आप भी छुपे हुए सेब को नहीं देख पा रहे हैं।

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शिक्षाप्रद बाल कहानी - ईमानदारी





विक्की अपने स्कूल में होने वाले स्वतंत्रता दिवस समारोह को ले कर बहुत उत्साहित था। वह भी परेड में हिस्सा ले रहा था।
दूसरे दिन वह एकदम सुबह जग गया लेकिन घर में अजीब सी शांति थी। वह दादी के कमरे में गया, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ी।
माँ, दादीजी कहाँ हैं? उसने पूछा।
रात को वह बहुत बीमार हो गई थीं। तुम्हारे पिताजी उन्हें अस्पताल ले गए थे, वह अभी वहीं हैं उनकी हालत काफ़ी खराब है। विक्की एकाएक उदास हो गया।
उसकी माँ ने पूछा, क्या तुम मेरे साथ दादी जी को देखने चलोगे? चार बजे मैं अस्पताल जा रही हूँ। विक्की अपनी दादी को बहुत प्यार करता था। उसने तुरंत कहा, हाँ, मैं आपके साथ चलूँगा। वह स्कूल और स्वतंत्रता दिवस के समारोह के बारे में सब कुछ भूल गया।
स्कूल में स्वतंत्रता दिवस समारोह बहुत अच्छी तरह संपन्न हो गया। लेकिन प्राचार्य खुश नहीं थे। उन्होंने ध्यान दिया कि बहुत से छात्र आज अनुपस्थित हैं।
उन्होंने दूसरे दिन सभी अध्यापकों को बुलाया और कहा, मुझे उन विद्यार्थियों के नामों की सूची चाहिए जो समारोह के दिन अनुपस्थित थे।
आधे घंटे के अंदर सभी कक्षाओं के विद्यार्थियों की सूची उन की मेज़ पर थी। कक्षा छह की सूची बहुत लंबी थी। वह पहले उसी तरफ मुड़े।
जैसे ही उन्होंने कक्षा छह में कदम रखे, वहाँ चुप्पी-सी छा गई। उन्होंने कठोरतापूर्वक कहा, मैंने परसों क्या कहा था? यही कि हम सब को स्वतंत्रता दिवस समारोह में उपस्थित होना चाहिए, गोलमटोल उषा ने जवाब दिया।
तब बहुत सारे बच्चे अनुपस्थित क्यों थे? उन्होंने नामों की सूची हवा में हिलाते हुए पूछा।
फिर उन्होंने अनुपस्थित हुए विद्यार्थियों के नाम पुकारे, उन्हें डाँट लगाई।
अगर तुम लोग राष्ट्रीय समारोह के प्रति इतने लापरवाह हाे तो इसका मतलब यही है कि तुम लोगों को अपनी मातृभूमि से प्यार नहीं है। इतना कह कर वह जाने के लिए मुड़े तभी विक्की आ कर उनके सामने खड़ा हो गया।
क्या बात है?
महोदय!‘, विक्की भयभीत पर दृढ़ था, मैं भी स्वतंत्रता दिवस समारोह में अनुपस्थित था, पर आपने मेरा नाम नहीं पुकारा। सारी कक्षा साँस रोक कर उसे देख रही थी।
प्राचार्य कई क्षणों तक उसे देखते रहे। उनका कठोर चेहरा नर्म हो गया और उन के स्वर में क्रोध गायब हो गया।
तुम सज़ा के हकदार नहीं हो, क्योंकि तुममें सच्चाई कहने की हिम्मत है। मैं तुम से कारण नहीं पूछूँगा, लेकिन तुम्हें वचन देना होगा कि अगली बार राष्ट्रीय समारोह को नहीं भूलोगे। अब तुम अपनी सीट पर जाओ। विक्की ने जो कुछ किया, इसकी उसे बहुत खुशी थी।

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शिक्षाप्रद बाल कहानी - अनोखी तरकीब





बहुत पुरानी बात है। एक अमीर व्यापारी के यहाँ चोरी हो गई। बहुत तलाश करने के बावजूद सामान न मिला और न ही चोर का पता चला। तब अमीर व्यापारी शहर के काजी के पास पहुँचा और चोरी के बारे में बताया।

सबकुछ सुनने के बाद काजी ने व्यापारी के सारे नौकरों और मित्रों को बुलाया। जब सब सामने पहुँच गए तो काजी ने सब को एक-एक छड़ी दी। सभी छडि़याँ बराबर थीं। न कोई छोटी न बड़ी।

सबको छड़ी देने के बाद काजी बोला, इन छडि़यों को आप सब अपने-अपने घर ले जाएँ और कल सुबह वापस ले आएँ। इन सभी छडि़यों की खासियत यह है कि चोर के पास जा कर यह एक उँगली के बराबर अपने आप बढ़ जाती है। जो चोर नहीं होता, उस की छड़ी ऐसी की ऐसी रहती है। न बढ़ती है, न घटती है। इस तरह मैं चोर और बेगुनाह की पहचान कर लेता हूँ।

काज़ी की बात सुन कर सभी अपनी-अपनी छड़ी ले कर अपने-अपने घर चल दिए।

उन्हीं में व्यापारी के यहाँ चोरी करने वाला चोर भी था। जब वह अपने घर पहुँचा तो उसने सोचा, अगर कल सुबह काजी के सामने मेरी छड़ी एक उँगली बड़ी निकली तो वह मुझे तुरंत पकड़ लेंगे। फिर न जाने वह सबके सामने कैसी सज़ा दें। इसलिए क्यों न इस विचित्र छड़ी को एक उँगली काट दिया जाए, ताकि काज़ी को कुछ भी पता नहीं चले।

चोर यह सोच बहुत खुश हुआ और फिर उस ने तुरंत छड़ी को एक उँगली के बराबर काट दिया। फिर उसे घिसघिस कर ऐसा कर दिया कि पता ही न चले कि वह काटी गई है।

अपनी इस चालाकी पर चोर बहुत खुश था और खुशी-ख्ाुशी चादर तान कर सो गया। सुबह चोर अपनी
छड़ी ले कर खुशी-खुशी काज़ी के यहाँ पहुँचा। वहाँ पहले से काफी लोग जमा थे।

काज़ी १-१ कर छड़ी देखने लगे। जब चोर की छड़ी देखी तो वह १ उँगली छोटी पाई गई। उसने तुरंत चोर को पकड़ लिया। और फिर उस से व्यापारी का सारा माल निकलवा लिया। चोर को जेल में डाल दिया गया। सभी काज़ी की इस अनोखी तरकीब की प्रशंसा कर रहे थे।

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शिक्षाप्रद बाल कहानी - एक और एक ग्यारह



बनगिरी के घने जंगल में एक हाथी ने भारी उत्पात मचा रखा था। वह अपनी ताकत के नशे में चूर होने के कारण किसी को कुछ नहीं समझता था।

बनगिरी में एक पेड पर एक चिडि़या व चिड़े का छोटा-सा सुखी संसार था। चिडिया अंडों पर बैठी नन्हें-नन्हें प्यारे बच्चों के निकलने के सुनहरे सपने देखती रहती। एक दिन क्रूर हाथी गरजता, चिंघाडता पेडों को तोड़ता-मरोड़ता उसी ओर आया। देखते ही देखते उसने चिडि़या के घोंसले वाला पेड़ भी तोड़ डाला। घोंसला नीचे आ गिरा। अंडे टूट गए और ऊपर से हाथी का पैर उस पर पड़ा।

चिडि़या और चिड़ा चीखने चिल्लाने के सिवा और कुछ न कर सके। हाथी के जाने के बाद चिडि़या रोने लगी। तभी वहाँ कठफोड़वी आई। वह चिडि़या की अच्छी मित्र थी। कठफोड़वी ने उनके रोने का कारण पूछा तो चिडि़या ने अपनी सारी कहानी कह डाली। कठफोड़वी बोली “इस प्रकार दुखी रहने से कुछ नहीं होगा। उस हाथी को सबक सिखाने के लिए हमे कुछ करना होगा।”

 चिडि़या ने निराशा दिखाई “हम छोटे-मोटे जीव उस बलशाली हाथी से कैसे टक्कर ले सकते हैं?”

कठफोड़वी ने समझाया “एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। हम अपनी शक्तियाँ जोड़ेंगे।”

“कैसे?” चिडि़या ने पूछा।

“मेरा एक मित्र भंवरा है। हमें उससे सलाह लेना चाहिए।” चिडि़या और कठफोड़वी भंवरे से मिली। भंवरा
गुनगुनाया “यह तो बहुत बुरा हुआ। मेरा एक मेंढक मित्र है, आओ, उससे सहायता माँगे।”

अब तीनों उस सरोवर के किनारे पहुँचे, जहाँ वह मेढ़क रहता था। भंवरे ने सारी समस्या बताई। मेंढक भर्राए स्वर में बोला “आप लोग धैर्य से ज़रा यहीं मेरी प्रतीक्षा करें। मैं गहरे पानी में बैठकर सोचता हूँ।”

ऐसा कहकर मेंढक जल में कूद गया। आधे घंटे बाद वह पानी से बाहर आया तो उसकी आखें चमक रही थीं। वह बोला “दोस्तों ! उस हाथी को सबक सिखाने के लिए मेरे दिमाग में एक अच्छी योजना आई हैं। उसमें सभी का योगदान होगा।”

मेंढक ने जैसे ही अपनी योजना बताई, सब खुशी से उछल पडे़। योजना सचमुच ही अद्भुत थी। मेंढक थी। मेंढक थी। मेंढक थी। मेंढक ने दोबारा बारी-बारी सबको अपना-अपना कायर समझाया।

कुछ ही दूर वह उन्मत्त हाथी तोड़फोड़ मचा कर व पेट भरकर कोंपलों वाली शाखाएँ खाकर मस्ती में खड़ा झूम रहा था। पहला काम भंवरे का था। वह हाथी के कानों के पास जाकर मधुर राग गुँजाने लगा। राग सुनकर हाथी मस्त होकर आँखें बंद करके झूमने लगा।

तभी कठफोड़वी ने अपना काम कर दिखाया। वह आई और अपनी सुई जैसी नुकीली चोंच से उसने तेज़ी से हाथी की दोनों आँखें बींध डाली। हाथी की आँखें फूट गईं। वह तड़पता हुआ अंधा होकर इधर-उधर भागने लगा। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, हाथी का क्रोध बढ़ता जा रहा था।

चिडि़या कृतज्ञ स्वर में मेढ़क से बोली भैया मैं आजीवन तुम्हारी आभारी रहूँगी। तुमने मेरी इतनी सहायता कर दी। मेंढक ने कहा “आभार मानने की जरुरत नहीं। मित्र ही मित्रों के काम आते हैं।”

 एक तो आँखों में जलन और ऊपर से चिल्लाते-चिंघाड़ते हाथी का गला सूख गया। उसे तेज़ प्यास लगने लगी। अब उसे एक ही चीज़ की तलाश थी, पानी।

मेढ़क ने अपने बहुत से बंधु-बांधवों को इकट्ठा किया और उन्हें ले जाकर दूर बहुत बड़े गड्ढे के किनारे बैठकर टर्राने के लिए कहा। सारे मेंढक टर्राने लगे।

मेंढक की टर्राहट सुनकर हाथी के कान खड़े हो गए। वह यह जानता था कि मेंढक जल स्त्रोत के निकट ही वास करते हैं। वह उसी दिशा में चल पड़ा।

टर्राहट और तेज़ होती जा रही थी। प्यासा हाथी और तेज़ भागने लगा।

जैसे ही हाथी गड्ढे के निकट पहुँचा, मेढ़कों ने पूरा ज़ोर लगाकर टर्राना शुरु किया। हाथी आगे बढ़ा और विशाल पत्थर की तरह गड्ढे में गिर पड़ा, इस प्रकार उस अहंकार में डूबे हाथी को सबक मिल गया। उसने सभी से क्षमा माँगी और जंगल छोड़कर चला गया।

कहानी से हमें शिक्षा मिलती है

  1. एकता में बल है।
  2. अहंकार का देर या सबेर अंत होता ही है।


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पुराणों में उपलब्ध है अनेक नाग देवताओं का वर्णन



वेद एवं पुराणों के अनुसार नागों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू से हुई है। इसलिए इन्हें ‘काद्रवेया महाबलाः’ भी कहा गया है। ये अदिति देवी के सौतेले पुत्र और आदित्यों के भाई हैं। अतएव सुस्पष्टतः नाग देवताओं में परिगणित हैं। इनका निवास स्थान पाताल कहा गया है। इसे ही नागलोक भी कहा जाता है। नागलोक की राजधानी के रूप में भोगवतीपुरी का उल्लेख मिलता है। कथासरित्सागर का प्रायः एक चतुर्थांश इस नागलोक और वहां के निवासियों की कथाओं से संबद्ध है। नाग कन्याओं का सौन्दर्य देवियों एवं अप्सराओं के समान ही कहा गया है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने बल देकर रावण की स्त्रियों के निर्देशक दोहे का अंत नाग कुमारि पर ही किया है।

Nag Devta

भगवान विष्णु की शैय्या नागराज अनंत की बनी हुई है। भगवान शंकर एवं श्री गणेश जी भी सितसर्पविभूषित हैं। भगवान सूर्य के रथ में बारहों मास बारह नाग बदल-बदलकर उनके रथ का वहन करते हैं। ऐसा प्रायः सभी पुराणों में निर्दिष्ट है। इस प्रकार से देवताओं ने भी सर्प नाग को धारण किया है, जिससे वे देवरूप हैं। सर्प-नाग वायु-पान ‘नीलमतपुराण’ और कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार कश्मीर की संपूर्ण भूमि नीलनाग की ही देन है। अब भी वहां के अनंतनाग आदि शहर इस तथ्य को पुष्ट करते हैं। यहां नाग देवता का सर्वाधिक सम्मान होता है। प्रारंभिक प्रातः स्मरणीय पवित्र नागों की गणना इस प्रकार है-

अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।
शंखपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।।
सायंकाले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः।
तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।

अनंत, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक और कालिय- ये नाग देवता हैं। ये प्रातः सायं नित्य स्मरणीय हैं। इनका स्मरण करने से मनुष्य को नाग विष का भय नहीं रहता और सर्वत्र विजय प्राप्त होती है। भारतीय ऋषि-मुनियों ने नागोपासना पर अनके व्रत-पूजा आदि निबंध ग्रंथों की रचना की है। प्रत्येक ग्राम-नगर में नाग का स्थान होता है। श्रावण मास में नागपंचमी व्रत किया जाता है। संध्या पूजा के उपरांत नागों के नमस्कार करने की परम्परा इस प्रकार है-

जरत्कारुर्जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी।
वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा।।
जरात्कारुप्रियास्तीकमाता विषहरेति च।
महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता।।
द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले तु यः पठेत्।
तस्य नागभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।

उपर्युक्त पौराणिक मंत्र परम उपयोगी एवं उपादेय है। समस्त प्राणियों के कुलकुण्डहर में निवास करने वाली कुण्डलिनी शक्ति को भी सर्पिणी का ही रूप बताया गया है। भारत में शयनकाल के समय नाग देवताओं के स्मरण करने की प्रथा है। इन नाग देवता के उच्चारण मात्र से सर्प और उपसर्प भी घर में नहीं रहते। वे जनमेजय के यज्ञ में आस्तीक मुनि से वचनबद्ध हैं। आज भी इस मंत्र जप से सर्प-नाग देवता चारपाई पर नहीं चढ़ते। उनके मंत्र से सर्प का विष उतर जाता है और मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। मंत्र इस प्रकार है-

सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष।
जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर।।
आस्तीकस्य वचः श्रुत्वा यः सर्पो न निवर्तते।
शतधा भिधते मूर्ध्नी शिंशपावृक्षको यथा ।।

नाग देवता की पूजा का प्रत्यक्ष प्रमाण तथा उसके महत्व के संदर्भ में एक सत्कथा उद्धृत की जाती है- राजस्थान के बाड़मेर जिला के अन्तर्गत बायतु ग्राम है। वहां एक खीमसींग नाम के राजपूत सपत्नीक रहते थे। वहां रहते हुए उन्हें चालीस वर्ष बीत गये। संतान प्राप्ति न होने के कारण वे ग्राम का परित्याग कर अपने खेत में झोंपड़ी बनाकर रहने लगे। एक दिन खीमसींग को अपने घर के पीछे एक श्वेत नाग दिखाई दिया। पहले तो उन्हें कुछ घबराहट हुई, फिर बाद में उनके मन में आया कि यह सफेद नाग कोई देवता है, अतएव इसका स्वागत करना चाहिए। उन्होंने एक दूध भरा कटोरा नाग के समीप रखा। नाग देवता सब दूध पी गये। बाद में अपने बिल में प्रवेश कर गये। दूसरे दिन भी ऐसा हुआ। इस प्रकार पूरा वर्ष बीत गया। एक दिन नाग देवता ने स्वप्न में प्रकट होकर कहा- तुम लोग चिंतित न हो। मेरी उपासना से तुम्हारा उभय लोकों में कल्याण होगा। तत्पश्चात सभी प्रकार से संपन्न खीमसींग विधिवत् नाग देवता की उपासना में लग गये।

इधर तेजोशाह नाम का एक संतानहीन धनवान व्यापारी मैत्री के कारण वहां खीमसींग से मिलने के लिये आया करता था। प्रसंगवशात् संततिहीनता की चर्चा चलने पर खीमसींग ने उसे भी नाग देवता की उपासना करने का परामर्श दिया। तेजोशाह ने नाग के निवास स्थान पर जाकर निवेदन किया कि यदि उसे पुत्र होगा तो वह खीमसींग और उसके अतिथियों के भोजन वस्त्र आदि का आजीवन व्यय करेगा और नाग देवता का एक सुंदर मंदिर भी बनवाएगा। यह बात उसने अपनी पत्नी से कही और उसे नित्य नागदेव को दूध भोग लगाने का निर्देश दिया। वह वैसा ही करने लगी।

एक दिन संयोग से 200 वैरागी वैष्णव खीमसींग की कुटिया पर आये। पूर्वप्रतिज्ञा के अनुसार जब उनके भोजन आदि की व्यवस्था के लिये वे तेजोशाह के पास गये और अन्न आदि की व्यवस्था करने के लिये उचित द्रव्य मांगा, किंतु तेजोशाह ने कुछ कृपणता दिखलायी। निराश होकर खीमसींग अपनी पत्नी सहित आत्महत्या के विचार से नाग से डंसवाने के लिए उसके बिल के पास गये। संयोगवश उन्हें वहां से एक सुवर्णवलय प्राप्त हो गया। उसे लेकर वे पुनः सेठ के पास गये तथा समुचित भोजनोपयोगी अन्न एवं दक्षिणा द्रव्य को लाकर वैष्णवों को पास उपस्थित किया। वैष्णव समुदाय भी भोजन आदि से संतुष्ट हो यथास्थान चला गया। कुछ दिनों के पश्चात ही नाग देवता की कृपा से तेजोशाह को एक पुत्र की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात प्रसन्न होकर उसने नाग देवता के स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया। इस मंदिर में जाने पर अब भी सर्वविष शांत हो जाता है और भक्तों की अभिलाषा पूर्ण होती है।

इस प्रकार की अनेक घटनाएं अन्य देश-प्रदेशों में भी होती रहती हैं। नागों की पूजा प्रायः सभी पर्वतीय क्षेत्रों में विशेष रूप से होती है। इनमें कश्मीर प्रधान है। भारत वर्ष में नागों से संबंधित विस्तृत साहित्य प्राप्त होता है। गरुडपुराण, भविष्यपुराण, आयुर्वेद के चरक, सुश्रुत, भावप्रकाश आदि ग्रंथों में एतत्संबंधी सभी प्रकार के विषयों का संग्रह हुआ है। समग्र भारत में इनकी पूजा एक विशिष्ट देवता के रूप में किये जाने की सुदीर्घ परम्परा है।



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अनुलोम विलोम प्राणायामः एक संपूर्ण व्यायाम



प्राणायाम का अर्थ है प्राणों का विस्तार, प्राण शक्ति का विस्तार। प्राणायाम कई प्रकार के हैं और प्रत्येक प्रकार के प्राणायाम का अपना विशेष कार्य क्षेत्र है। परन्तु सभी प्रकार के प्राणायाम का आधार है - गहरे लम्बे श्वास प्रश्वास (Deep Breathing)। दो मिनट के लिए आंखों को बन्द करते हुए अपनी सांसों को देखें। आपका सारा मानसिक तनाव दूर हो जाता है। आनन्द की अनूभूति होती है। साधारण  श्वास लेते समय हमारी श्वास केवल हृदय से कण्ठ तक ही आती जाती है। परन्तु जब आप गहरी लम्बी श्वास लेते है, तो पूरे फेफड़े वायु से भर जाते हैं, छाती फूल जाती है और जब श्वास छोड़ते हैं तो फेफड़ों व छाती का संकोचन होता है। ऐसा क्यों होता है इसे जानने के लिए फेफड़ो की संरचना को समझ लेना आवश्यक है।

अनुलोम विलोम प्राणायामः एक संपूर्ण व्यायाम

फेफड़ों की संरचना
हमारे शरीर में दो फेफड़ें हैं छाती की दायीं और बायीं ओर और इन दोनों के बीच है हृदय - थोड़ा सा बायीं ओर। फेफड़ो में 75 करोड़ कोशिकाएं हैं और इनके बीच में है खाली स्थान। नालिकाओं से श्वास श्वास-नली के द्वारा फेफड़े में जाते हैं। ये कोशिकाएं अंगूर के गुच्छों की भांति श्वास नली के साथ उल्टी लटकी रहती हैं, जिन्हें Alveoli कहते हैं। जब हम साधारण श्वास लेते व छोड़ते है तो केवल एक तिहाई कोशिकाएं ही प्रभावित होती है, शेष दो तिहाई निष्क्रिय ही पड़ी रहती हैं। श्वासों की दो क्रियाएं हैं - श्वास भरते हुए वायु के साथ आक्सीजन फेफड़ो में पहुंचती है और श्वास छोड़ते हुए कार्बन डायक्सायड बाहर निकालते हैं। साधारण श्वास प्रश्वास की प्रक्रिया में न तो आक्सीजन पूरे फेफड़ो में पहुंचती है और न ही पूरी कार्बन डायक्सायड बाहर निकलती है। इस प्रकार धीरे-धीरे आयु के बढ़ने के साथ फेफड़ो के निचले भाग में कार्बन डायक्सायड एकत्रित होती रहती है और वहां आक्सीजन न पहुंचने के कारण फेफड़ो की वायु व आक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता कम होती जाती है। फेफड़ो की वायु व आक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता को VITAL LUNG-CAPACITY (VLC)कहते हैं। साधारण श्वास लेते समय हम एक मिनट में 18 सांस भरते-छोड़ते हैं और प्रत्येक सांस में आधा लीटर वायु अन्दर भरते हैं, अर्थात् एक मिनट में नौ लीटर वायु। जब हम चलते हैं, तो हमारी वायु भरने की क्षमता 16 लीटर हो जाती है। तेज चलते समय 27 लीटर प्रति मिनट और दौड़ते समय 45 लीटर। गहरे लम्बे श्वास भरते हुए भी हम 45 से 50 लीटर वायु ग्रहण करते हैं। इसी लिए प्राणायाम करते समय हमारी फेफड़ो की वायु ग्रहण क्षमता बहुत अधिक होती है और हम अधिक से अधिक आक्सीजन भी ग्रहण करते हैं।

अनुलोम विलोम प्राणायाम
जब दोनों नासिकाओं से बारी बारी गहरी लम्बी श्वास भरते व छोड़ते हैं, तो उसे अनुलोम विलोम कहते हैं। इसमें बायीं नासिका से श्वास भरते हैं और दायीं से बाहर करते है। पिफर दायीं से भरते हैं और बायीं से निकालते हैं। इसकी विधि को पहले ठीक से समझ लें। दाएं हाथ के अंगूठे से दायीं नासिका बन्द करते हुए बायीं नासिका से सर्वप्रथम श्वास बाहर निकालते हैं। अब बायीं नासिका से ही श्वास भरते हैं, अनामिका अंगुली से बायीं नासिका बन्द करते हुए दायीं नासिका से अंगूठे को हटाकर श्वास बाहर करते हैं। अब दायीं नासिका से श्वास भरकर अंगूठे से दायीं नासिका बन्द करते हुए बायीं नासिका से अनामिका को हटाकर श्वास बाहर करते हैं यह अनुलोम विलोम की एक आवृत्ति है। इस क्रिया को आंखें बन्द रखते हुए शांत मन से दोहराते जाते हैं। इसमें विशेष बात यह है कि जितनी गिनती व गति से श्वास भरते हैं, उसी गिनती व गति से दूसरी नासिका से श्वास बाहर करते हैं। इसे धीरे-धीरे करते हैं ताकि आपको स्वयं भी श्वास भरने व छोड़ने की आवाज न आए। यह इतनी सरल विधि है कि इसे छोटे बच्चे से लेकर 90-100 वर्ष की आयु के लोग भी आराम से कर सकते हैं। वैसे तो अनुलोम विलोम खुली हवा में बैठकर आसन बिछाकर पद्मासन व सुखासन में बैठकर करना ही सर्वोत्तम है, परन्तु जो लोग विस्तर के साथ लगे हुए हैं, वे लेटे लेटे भी कर सकते हैं, कुर्सी पर बैठकर भी कर सकते हैं, परन्तु रीढ़ गर्दन सीधी रखते हुए। अनुलोम विलोम की कई और भी विधियां हैं जिनमें श्वास को रोका भी जाता है, श्वास भरने व छोड़ने की गति में अन्तर भी होता है, परन्तु सभी लोग उन्हें नहीं कर सकते। इसीलिए इस सरल विधि से अनुलोम विलोम करना सभी के लिए आसान है। अनुलोग विलोम को हम असानी से ऐसे समक्ष सकते है - सबसे पहले किसी अनुकूल और हवादार जगह पर पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएँ और इसके बाद अपने दाहिने नासिकाछिद्र को बंद कर लें और बाएँ छिद्र से साँस अन्दर की ओर भरें। फिर वाम नासिका छिद्र को अपनी अनामिका और कनिष्ठा अंगुली से बंद करके दाहिने छिद्र से साँस बाहर छोड़ दें। अब साँस दाहिनी नासिका से पुनः लें,और इसे छोड़े वाम छिद्र से,यह प्रक्रिया दोहराते जाएँ। साँसों को धीरे-धीरे आराम से 8 की गिनती में छोड़ें। शुरुआत में इसे 3 मिनट से ज्यादा न करें पर अभ्यास के साथ इसे 10 मिनट तक किया जा सकता है। इसे सुबह-सुबह खुली हवा में और योग प्रशिक्षक के निर्देश में किया जाए तो बेहतर है। ध्‍यान देने वाली बात यह है कि एनीमिया से पीड़ित रोगी इसे बिना उचित सलाह के न करें और साँस को सहजता से छोड़े व ग्रहण करें,ध्यान रखें जल्दबाजी में या तेजी से साँस लेने छोड़ने से कोई फायदा नहीं होगा।

अनुलोम विलोम का महत्व
हमारे शरीर में 72864 सूक्ष्म नस नाडि़यों का जाल पफैला हुआ है, जिनके द्वारा प्राण शक्ति का संचार पूरे शरीर में होता है। इनमें तीन प्रमुख नाडि़यां है - सूर्य (पिंगला) नाड़ी, चन्द्र (ईड़ा) नाड़ी और सुष्मना नाड़ी। ये तीनों नाडि़यां रीढ़ के सबसे निचले भाग से आरम्भ होती हैं। सूर्य नाड़ी दायीं ओर से आरम्भ होकर सुष्मना के इर्द-गिर्द घूमती हुई दायीं नासिका पर आती है। चन्द्र नाड़ी बायीं ओर से आरम्भ होकर सुष्मना के इर्द-गिर्द घूमती हुई बायीं नासिका पर आती है। अर्थात् सुष्मना नाड़ी तो सीधी है, परन्तु शेष दोनों नाडि़या टेढ़ी मेढ़ी हैं। सूर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी एक दूसरे की विपरीत दिशा में घूमती हैं और पांच स्‍थानों पर एक दूसरे को क्रास करती हैं। जहां-जहां ये मिलती हैं, वहीं पर चक्र है - मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,  मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र  और आज्ञा चक्र। सातवां चक्र है सहस्रार चक्र जहां केवल सुष्मना नाड़ी जाती है। शरीर की सभी 72864 सूक्ष्म नाडि़यां इन्हीं चक्रों के साथ जुड़ी हुई हैं। ये तीनों नाडि़यां हमारी स्नायु प्रणाली का आधार हैं।

स्नायु प्रणाली के दो भाग हैं - मस्तिष्क व रीढ़। इन दोनों को जोड़ने के लिए गर्दन में है  Medulla Oblongata रीढ़ में 33 गोटियां होती हैं। इनमें 31 जोड़ हैं - 16 जोड़ मस्तिष्क को संदेश देते हैं, जिन्हें अनुकम्पी स्नायु प्रणाली (Sympathetic Nervous System) कहते हैं और 15 जोड़ों द्वारा मस्तिष्क शरीर  को आदेश देता है। इसे सह अनुकायी प्रणाली (Para Sympathetic Nervous System) कहते है

जब हम अनुलोम विलोम करते हैं तो रीढ़ की सभी 33 गोटियां, 31 जोड़, Medulla Oblongata व मस्तिष्क प्रभावित होते हैं। इससे समूचे शरीर की प्रत्येक कोशिका तक आक्सीजन पहुंचती है तो पूरा शरीर स्वस्थ रहता है और कहीं भी कोई रोग नहीं होता है। अनुकम्पी व सह अनुकम्पी स्नायु प्रणालियां ठीक से काम करती है।

सूर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी का संतुलन ही हमें स्वास्थ्य प्रदान करता है, इससे शरीर का तापमान सदैव ठीक रहता है। अधिकांश लोगों को यह मालूम नहीं है कि ये दोनों नाडि़यां साथ-साथ नहीं चलतीं। एक घण्टा सूर्य नाड़ी चलती है और एक घण्टा चन्द्र नाड़ी। पूरे दिन में 12 घण्टे सूर्य नाड़ी चलती है और 12 घण्टे चन्द्र नाड़ी। जब हमें सर्दी जुकाम लग जाता है अथवा ज्वर हो जाता है व अन्य कोई भी रोग हो जाता है, तो यह सन्तुलन बिगड़ जाता है। सूर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी का सम चलने व रहने से ही हम स्वस्थ रहते है। जब हम रोगी हो जाते हैं, तो थोड़ी सी उत्तेजना से ही यह सन्तुलन बिगड़ जाता है। दोनों नासिकाओं की गति में अवरोध  उत्पन्न हो जाता है। अनुलोम विलोम से हम इस सन्तुलन को बनाए रखते हैं। केवल 15 मिनट सुबह और 15 मिनट सायं अनुलोम विलोम कर लेने से दिन भर के लिए हमारी सूर्य व चन्द्र नाड़ी सम भाव से चलती रहती है। और हम अनेकों रोगों से बच जाते हैं।

सूर्य नाड़ी मस्तिष्क के दाएं भाग को और चन्द्र नाड़ी मस्तिष्क के बाएं भाग को संचालित करती है। दायां मस्तिष्क हमें शांति प्रदान करता है, हमारी भावनाओं पर नियंत्राण रखता है, तनाव को दूर करता है। बायां मस्तिष्क हमें दैनिक कार्यों को सम्पन्न करने में सक्षम बनाता है। अनुलोम विलोम से मस्तिष्क के दाएं व बाएं भाग में संतुलन बना रहता है। तन, मन व बुद्धि का समन्वय होता है। इसीलिए यह मानसिक रोगों, क्रोध, ईष्‍या, द्वेष अवसाद, उच्च व निम्न रक्तचाप, माईग्रेन, सिर दर्द आदि से बचने का सर्वश्रेष्ठ व सुलभ साधन है। यहां तक कि अनुलोम विलोम से मस्तिष्क के अर्बुद (Tumour) से भी बचा जा सकता है। अनुलोम विलोम केवल रक्षात्मक नहीं है अपितु उपर्युक्त सभी रोगों को दूर भी करता है। वास्तव में अनुलोम विलोम से पूरी स्नायु प्रणाली व रीढ़ प्रभावित होती है।
शरीर में सभी रोगों को दूर करने में भी यह सक्षम है।

अनुलोम विलोम शरीर के सातों चक्रों को भी ठीक रखता है। जब हम बारी-बारी से दोनों नासिकाओं से गहरी लम्बी श्वास भरते हैं, तो पहले मूलाधार चक्र, पिफर स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र व सहस्रार चक्रों पर प्रभाव पड़ता है। इन सभी चक्रों में आक्सीजन व शुद्ध रक्त का संचार भरपूर होता है। जब हम गहरी लम्बी श्वास छोड़ते हैं, तो इन सभी चक्रों में से कार्बन डायक्सायड के रूप में सारी गन्दगी भी बाहर निकल जाती है। सातों चक्रों के शुद्ध होने से इनमें जुड़ी सभी प्राणिक नस नाडि़यां भी शुद्ध हो जाती हैं। उनमें कहीं भी कोई अवरोध नहीं रहता। नस-नाडि़यों व रक्त वाहिनियां लचीली बनी रहती है। हृदय भी स्वस्थ रहता है और समूचे शरीर में शक्ति का संचार होता है। इसीलिए इसे नाड़ी शोधन प्राणायाम भी कहते हैं। अनुलोम विलोम के निरन्तर अभ्यास से कुण्डलिनी जागरण भी होता है। सुष्मना नाड़ी जो मूलाधार में सुप्त रहती है, जागृत होती है और प्राण शक्ति को मूलाधार से सहस्रार तक ले जाती है। इसीलिए आध्यात्मिक उत्त्थान के लिए भी अनुलोम विलोम अनिवार्य है। हमारा शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल। जब तक इनका संतुलन बना रहता है, हम स्वस्थ रहते हैं। इनमें जरा सा भी असंतुलन होने से हम रोग ग्रस्त हो जाते हैं। हाथों की मुद्राओं द्वारा हम पांचो  तत्वों का संतुलन कर सकते हैं। यही कार्य अनुलोम विलोम भी करता है। जब अनुलोम विलोम द्वारा श्वास इन पांचो  चक्रों में पहुंचाते हैं, तो पाँचों तत्वों का संतुलन भी बनता है। मुद्रा चिकित्सा के साथ यदि अनुलोम विलोम भी जोड़ लें, तो आश्चर्यजनक लाभ होता है। इसलिए अनुलोम विलोम एक संजीवनी बूटी है -रामवाण है। इससे मस्तिष्क के दायें बायें भाग का समन्वय, पांचों तत्वों का संतुलन, सातों चक्रों का जागरण होता है, रक्त की शुद्ध होती है, शरीर की प्रत्येक कोशिका प्रभावित होती है तथा इससे शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है।

अनुलोम-विलोम से होने वाले लाभ– 
  • अनुलोम-विलोम प्राणायाम के अभ्यास से हम अतिरिक्त शुद्ध वायु भीतर लेते हैं और कार्बन डाईऑक्साइड यानी दूषित वायु बाहर निकाल देते हैं. इससे रक्त की शुद्धि होती है।  
  • शुद्ध रक्त हृदय के माध्यम से शरीर के सभी अंगों तक पहुँच जाता है और उन्हें पोषण प्रदान करता है।
  • फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ती है और प्राणशक्ति का स्तर बढ़ता है।
  • मस्तिष्क की विचार क्षमता गहरी होती है और एकाग्रता बढ़ती है और मानसिक तनाव का स्तर घटता है। इसलिए हृदय रोगी और जिनका रक्तचाप बढ़ा हुआ है और उन्हें अनुलोम-विलोम का अभ्यास नियमित रूप से करना चाहिए।
  • अनुलोम-विलोम को 'नाड़ी शोधक प्राणायाम' भी कहा जाता है और इससे गठिया, जोड़ों का दर्द व सूजन आदि शिकायतें दूर होती हैं।
  • रोजाना अनुलोम-विलोम करने से फेफड़े शक्तिशाली बनते हैं और शरीर में वात, कफ, पित्त आदि के विकार दूर होते हैं।
  • अनुलोम-विलोम प्राणायाम त्रिदोष नाशक है,अर्थात वात-पित्त-कफ सभी दोषों का शमन करता है।
  • इसे ‘नाड़ी शोधक’ प्राणायाम है, क्योंकि इससे नाड़ियाँ सिद्ध होती है जिससे शरीर स्वस्थ और कान्तियुक्त हो जाता है।
  • अनुलोम विलोम करते समय जब हम शुद्ध हवा भीतर की ओर खींचते हैं तब हमारे रक्त से की दूषित और विषाक्त तत्वों को बाहर निकाल देती है।
  • नियमित रूप से यह प्राणायाम करने से,फेफड़े शक्तिशाली होते हैं और जुकाम और दमे की बीमारी से पूर्ण मुक्ति मिलती है।
  • यह मोटापे और उच्च-रक्तचाप से पीड़ित रोगियों के लिए लाभप्रद है। यह कोलेस्ट्राल को कम करने का सबसे कारगर तरीका है।
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आदि शंकराचार्य का जीवन और दर्शन



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Life and Philosophy of Adi Shankaracharya

आदि गुरु शंकराचार्य जी का जीवन परिचय
आदि शंकराचार्य (788 ईसवी - 820 ईसवी) का जन्म दक्षिण-भारत के केरल राज्य के कालड़ी ग्राम में हुआ था। केरल की पुण्य भूमि पर एक से एक महान मनीषियों, संतो, तपस्वियों ने जन्म लेकर मानव मात्र को सद्जीवन जीने के लिए प्रेरित किया है। वेदोक्त सनातन, शाश्वत जीवन दर्शन एवं धर्म के आचार्यों में भगवान श्री आद्य शंकराचार्य का स्थान निश्चित रूप से सर्वोपरि है। उनके द्वारा प्रदत्त उदार जीवन दर्शन एवं उनके द्वारा किए गए अथक प्रयासों से, विविध विघटित संप्रदायों को सत्य के एक सूत्र में पिरोया गया था। शंकराचार्य जी को हम भगवान के अवतार की तरह इसलिए स्वीकार करते है, क्योंकि, जो महान कार्य उन्होंने अत्यंत अल्पायु में किए-वो एक साधारण मानव के लिए असंभव प्रतीत होते है। ये अद्वैत वेदांत के प्रणेता, संस्कृत के विद्वान, उपनिषद व्याख्याता और हिन्दू धर्म प्रचारक थे। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार इनको भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिक भाग उत्तर भारत में बीता। चार पीठों (मठ) की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा जो आज भी मौजूद है।

Adi Shankaracharya
आदि शंकराचार्य (Adi Shankaracharya) की कहानी

भारत की पवित्र भूमि पर सनातन धर्म का अद्वैतवाद का प्रचार यानि आत्मा और परमात्मा की एक ही है, प्राचीन काल से ही था। किंतु कालान्तर में जब भारत में बौद्ध और जैन धर्म के प्रसार और हिन्दू कर्मकांडों में आई विकृतियों के विरोध के कारण सनातन धर्म अपनी पहचान खोने लगा। इस के चलते हिंदू धर्म में भी वेदों के ज्ञान को नकारा जाने लगा। सनातन धर्म के अस्तित्व पर आए संकटकाल में ही आदि शंकराचार्य संकटमोचक के रुप में अवतरित हुए। वैशाख शुक्ल पंचमी यानि मई के शुभ दिन ही ऐसे ही कर्मयोगी आदि शंकराचार्य का आविर्भाव यानि जन्म दिवस मनाया जाता है।
आदि शंकराचार्य ने अल्पायु में ही अपने अलौकिक वैदिक ज्ञान और वेदान्त दर्शन से बौद्ध, मीमांसा, सांख्य और चार्वाक अनुयायियों की वेद विरोधी भावनाओं को सफल नहीं होने दिया। आदि शंकराचार्य ने ज्ञान मार्ग के द्वारा ही न केवल बौद्ध धर्म और अन्य संप्रदायों के विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर वेद धर्म का मान बढ़ाया बल्कि उन धर्म और संप्रदायों के अनुयायियों ने भी वैदिक दर्शन को स्वीकार कर लिया। ऐसा कर उन्होंने हिन्दू धर्म का पुनर्जागरण के साथ ही सनातन धर्म और वेदों को फिर से स्थापित और प्रतिष्ठित करने में अहम योगदान दिया। यही कारण है शंकराचार्य प्राचीन अद्वैत मत के प्रवर्तक कहलाए और उनके वैदिक दर्शन और अद्वैत मत शाङ्कर दर्शन या शाङ्कर मत कहलाया।
आदि शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन के अनुसार ब्रह्म और जीव या आत्मा और परमात्मा एक रूप हैं। किंतु ज्ञान के अभाव में ही दोनों अलग-अलग दिखाई देते हैं। आदि शंकराचार्य ने परमात्मा के साकार और निराकार दोनों ही रुपों को मान्यता दी। उन्होनें सगुण धारा की मूर्तिपूजा और निरगुण धारा के ईश्वर दर्शन की अपने ज्ञान और तर्क के माध्यम से सार्थकता सिद्ध की। इस प्रकार सनातन धर्म के संरक्षण के प्रयासों को देखकर ही जनसामान्य ने उनको भगवान शंकर का ही अवतार माना। यही कारण है कि उनके नाम के साथ भगवान शब्द जोड़ा गया और वह भगवान आदि शंकराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।

Adi Shankaracharya

आदि शंकराचार्य वेदों के परम विद्वान थे, प्रखर भविष्यदृष्टा थे। उन्होंने सनातन धर्म की अपने ज्ञान से तत्कालिन समय में ही रक्षा नहीं की वरन सनातन धर्म और वेदों का अस्तित्व और प्रतिष्ठा अनंत काल तक बनाए रखने की दृष्टि के साथ अपने जीवनकाल में ही जगह-जगह घूमकर वेदान्त दर्शन का प्रचार-प्रसार किया । इसी उद्देश्य से उन्होंने देश की चारों दिशाओं में चार धाम, चार पीठ, बारह ज्योर्तिंलिंगों और अखाड़ों की स्थापना की। इनके व्यापक प्रभाव से बाद में अनेक संप्रदाय और पंथ स्थापित हुए। उनके द्वारा इन सब देवस्थानों और धर्म पीठों के स्थानों का चयन उनकी अद्भुत दूरदर्शिता का प्रमाण है। जहां बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ ज्योतिर्लिंग हिमालय पर्वत की श्रृंखलाओं में हैं, वहीं शेष सागर के तटों पर अन्य तीन दिशाओं में हैं। इस प्रकार आदि शंकराचार्य ने पूरे देश को सदियों पूर्व ही एक धर्म सूत्र में बांध दिया था, जो आज भी कायम है।

आदि शंकराचार्य की विद्वानता के कारण ही कहा जाता है कि उनकी जीभ पर माता सरस्वती का वास था। यही कारण है कि अपने ३२ वर्ष के संपूर्ण जीवनकाल में ही आदि शंकराचार्य ने अनेक महान धर्म ग्रंथ रच दिये। जो उनकी अलौकिक प्रतिभा को साबित करते हैं। आदि शंकराचार्य कर्मयोगी, वेदों की प्रति गहन विचारशीलता, ईश्वरीय प्रेम, त्याग, पाण्डित्य से भरे अद्भुत गुणों की मूर्ति थे। आदि शंकराचार्य ने प्रखर ज्ञान और बुद्धि बल से ही आठ वर्ष की उम्र में चारों वेद और वेदांगों का ज्ञान प्राप्त किया। 12 वर्ष की उम्र में हिन्दू धर्म शास्त्रों की गूढ़ता में दक्ष बने और 16 वर्ष की अल्पायु में ब्रह्मसूत्र पर भाष्य रच दिया। यही कारण है कि आज भी हर सनातन धर्मावलंबी आदि शंकराचार्य को स्मरण कर स्वयं को धन्य मानता है। साथ ही उनके द्वारा स्थापित वैदिक धर्म का अनुसरण और पालन करते हैं।

काशी में मिला ज्ञान
अद्वैत वेदांत के प्रणोता आद्य शंकराचार्य ने दुनिया को ज्ञान दिया, इसकी अजस्त्र धारा उनमें देवाधिदेव की नगरी काशी में ही फूटी। काशी विश्वनाथ के दरस परस के निमित्त महादेव की नगरी में आगमन की राह से इसकी शुरुआत हुई। दो घटनाक्रमों से देश को दिशा देने वाली इन महाविभूति का प्राकट्य हुआ। इसका बड़ा स्रोत बनीं महामाया लीला जिन्होंने सत्य से उनका साक्षात्कार कराया। अद्वैत ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष ब्रह्म को सत्य मानते थे। ब्रह्म मुहूर्त में शिष्यों संग स्नान के लिए मणिकर्णिका घाट जाते आचार्य का राह में बैठी विलाप करती युवती से सामना हुआ। युवती मृत पति का सिर गोद में लिए बैठी करुण क्रंदन कर रही थी। शिष्यों ने उससे शव हटाकर आचार्य शंकर को रास्ता देने का आग्रह किया। दुखित युवती के अनसुना करने पर आचार्य ने खुद विनम्र अनुरोध किया। इस पर युवती के शब्द थे कि हे संन्यासी, आप मुझसे बार-बार शव हटाने को कह रहे हैं। इसकी बजाय आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते। आचार्य ने दुखी युवती की पीड़ा को महसूस करते हुए कहा कि देवी! आप शोक में शायद यह भी भूल गई हैं कि शव में स्वयं हटने की शक्ति नहीं होती। स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- महात्मन् आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता। एक सामान्य महिला के ऐसे गंभीर, ज्ञानमय व रहस्यपूर्ण शब्द सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए। समाधि लग गई और अंत:चक्षु में उन्होंने देखा कि सर्वत्र आद्या शक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया। मुख से मातृ वंदना की शब्द धारा फूट चली। इसके साथ आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार भक्ति धाराएं एक साथ हिलोरें लेने लगीं। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है वही द्वैत भूमि पर सगुण साकार रूप हैं। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुंचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन धरती पर उन्होंने यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है।  

वेदोक्त ज्ञान का प्रसार
वेद वे प्रामाणिक ग्रंथ हैं जो जीवन की जटिल पहेली का हमें प्रामाणिक उत्तर प्रदान करते हैं। परम्परा अनुसार वेदों का ज्ञान सदैव किसी श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ से ही प्राप्त करना चाहिए। विश्व भर में जहाँ भी किसी सामाजिक क्रांति का आविर्भाव हुआ है, वहाँ सत्य को ही उद्घाटित कर प्रचलित मोह को समाप्त किया गया था। आचार्य शंकर के समय भी इस जटि़ल जीवन की पहेली को न बूझ पाने का कारण दो प्रकार की अतियाँ विशेष रूप से प्रचलित हो गई थी, जिनको भगवत्पाद ने अपने ज्ञान के प्रकाश से दूर कर एक अत्यंत दूरगामी सामाजिक क्रांति का शुभारम्भ किया था। एक तरफ वेदों में आस्था रखने वाले वेदों के समग्र ज्ञान से अनभिज्ञ होने के कारण कर्मकांड को ही मोक्ष प्रतिपादक भाग समझ बैठे थे, तो दूसरी तरफ कर्मकांड का उचित स्थान तथा प्रयोजन न जानने के कारण एवं कर्मकांड से प्रचलित कुछ कुरीतियों के कारण बौद्धों ने प्रतिक्रिया स्वरूप वेदों का ही खंडन करना प्रारंभ कर दिया था। ये दोनों आतियाँ त्याज्य थी,जिन्हें भगवत्पाद ने अपने दिव्य ज्ञान के प्रकाश से इन्हें दूर कर वेदोक्त दिव्य ज्ञान की सुगंध पूरे देश में फैला दी थी। आचार्य शंकर का अपना कोई पृथक् दर्शन नहीं था, वे तो वेद का ही वास्तविक रहस्य उद्घाटित कर वेदों की प्रमाणिकता एवं मर्यादा की पुनःस्थापना करने के प्रति समर्पित थे। उनका जीवन ऐसे लोगों को पुनर्विचार के लिए प्रेरित करता है जो थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त कर उस ज्ञान को अपने नाम से जोड़कर अपने संप्रदाय बनाने में ज्यादा इच्छुक होते हैं। वेदों का संदेश जीवन में ‘एकमेव अद्वितीय’ दिव्य सत्ता का संदेश है। अतः उनका हेतु किसी दर्शन का खंडन करना मात्र नहीं था और न ही वे किसी अन्य दर्शन के प्रतिस्पर्धी की तरह खड़े हुए। उन्होंने समस्त दर्शनों का जीवन के इस परम लक्ष्य ‘अद्वैत साक्षात्कार’ में स्थान बताया और एक समन्वित दृष्टिकोण प्रदान किया। उनके समस्त भाष्य, काव्य, स्तोत्र या अन्यान्य रचनाओं में एक अद्भुत समन्वय दिखाई पड़ता है। ये समस्त रचनाएँ न केवल उनके सर्वात्मभाव को उद्घाटित करती है, बल्कि एक पूर्ण विकसित मानव का हमारे समक्ष जीवंत दृष्टान्त प्रस्तुत करती हैं।  

आचार्य का संदेश
प्रत्येक मनुष्य का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह शाश्वत,दिव्य, कालातीत सत्ता को अपनी आत्मा की तरह से जानकर मोक्षानंद का पान करें। इस अन्तः जागृति के लिए केवल ज्ञान मात्र की अपेक्षा होती है, लेकिन ईश्वर से ऐक्य का ज्ञान तभी संभव होता है जब ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ भक्ति-भाव विद्यमान हो। ऐसी भक्ति एकदेशीय न होकर सार्वकालिक होनी चाहिए, अतः भक्त के प्रत्येक कर्म उत्साह से युक्त, निष्काम एवं सुंदर होने अवश्यंभावी है। इस तरह से समस्त ज्ञान, भक्ति एवं कर्म प्रधान साधनाओं का सुंदर समन्वय हो जाता है। जो भी मनुष्य ऐसी दृष्टि का आश्रय लेता है वह अपने धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष रूपी समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि कर परम कल्याण को प्राप्त होता है।

आज भगवत्पाद की पुनः आवश्यकता
आचार्य शंकर के आगमन के समय देश जिन विकट परिस्थितियों के दौर से गुजर रहा था वही समस्याएँ आज भी नज़र आती हैं। धर्म के नाम पर संप्रदाय विघटित होते जा रहे हैं। भिन्न-भिन्न मतावलम्बी अपने-अपने संप्रदायों के प्रति आस्था रखे हुए अपनी अलग पहचान बनाने के लिए आतुर है। धर्म के नाम पर सत्य की खोज एवं उसमें जागृति गौण हो गई है, तथा अन्य प्रयोजन प्रधान हो गए हैं। आज जहाँ एक तरफ विज्ञान एवं उन्नत प्रोद्यौगिकी लोगों की दूरी को कम कर रही है, वहीं दूसरी तरफ धर्म के नाम पर कट्टरता मनुष्यों के बीच के फासले एवं विद्वेष बढ़ाती जा रही है। आत्मीयता-स्वरूप जो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की दृष्टि प्राप्त होनी चाहिए, उसके बजाए विपरीतपरिणामदेखें जा रहे हैं। सत्य की खोज के नाम पर तो ऐसासम्भव नहीं। ऐसी विषम परिस्थितियों में हमें भगवान आदि शंकराचार्य के अद्भुत, उदात्त, समन्वयात्मक एवं सत्यपरक संदेश की पुनः अत्यंत आवश्यकता है। आज उनके द्वारा प्रदत्त संदेश को जनमानस तक पहुँचाने की अत्यंत आवश्यकता है। 

आदि शंकराचार्य के अनमोल विचार 

  1. एक सच यह भी है की लोग आपको उसी वक़्त ताक याद करते है जैब ताक सांसें चलती हैं। सांसों के रुकते ही सबसे क़रीबी रिश्तेदार, दोस्त, यहां तक की पत्नी भी दूर चली जाती है।
  2. मंदिर वही पहुंचता है जो धन्यवाद देने जाता हैं, मांगने नहीं।
  3. सत्य की कोई भाषा नहीं है। भाषा सिर्फ मनुष्य का निर्माण है। लेकिन सत्य मनुष्य का निर्माण नहीं, आविष्कार है। सत्य को बनाना या प्रमाणित नहिं करना पड़ता, सिर्फ़ उघाड़ना पड़ता है।
  4. मोह से भरा हुआ इंसान एक सपने कि तरह हैं, यह तब तक ही सच लगता है जब तक आप अज्ञान की नींद में सो रहे होते है। जब नींद खुलती है तो इसकी कोई सत्ता नही रह जाती है।
  5. आत्मसंयम क्या है ? आंखो को दुनियावी चीज़ों कि ओर आकर्षित न होने देना और बाहरी ताकतों को खुद से दूर रखना।
  6. जिस तरह एक प्रज्वलित दिपक को चमकने के लीए दूसरे दीपक की ज़रुरत नहीं होती है। उसी तरह आत्मा जो खुद ज्ञान स्वरूप है उसे और क़िसी ज्ञान कि आवश्यकता नही होती है, अपने खुद के ज्ञान के लिए।
  7. तीर्थ करने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है। सबसे अच्छा और बड़ा तीर्थ आपका अपना मन है, जिसे विशेष रूप से शुद्ध किया गया हो।
  8. सच की जिज्ञासा - जब मन में सच जानने की जिज्ञासा पैदा हो जाए तो दुनियावी चीज़े अर्थहीन लगती हैं।
  9. हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि आत्मा एक राज़ा की समान होती है जो शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि से बिल्कुल अलग होती है। आत्मा इन सबका साक्षी स्वरुप है।
  10. सत्य की परिभाषा क्या है ? सत्य की इतनी ही परिभाषा है की जो सदा था, जो सदा है और जो सदा रहेगा।
  11. अज्ञान के कारण आत्मा सीमित लगती है, लेकिन जब अज्ञान का अंधेरा मिट जाता है, तब आत्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाता है, जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देने लगता है।
  12. धर्म की किताबे पढ़ने का उस वक़्त तक कोई मतलब नहीं, जब तक आप सच का पता न लगा पाए। उसी तरह से अगर आप सच जानते है तो धर्मग्रंथ पढ़ने कि कोइ जरूरत नहीं हैं। सत्य की राह पर चले।
  13. आनंद तभी मिलता है जब आनंद कि तालाश नही कर रहे होते है।

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