आओं खेले प्रश्‍न पहली, मे मेरे उत्‍तर और प्रश्‍न



समीर लाल जी और श्रीश जी ने मुझे यह प्रश्न पत्र दिया था जो मैने हल कर दिया है, तथा नियमानुसार एक प्रश्‍नपत्र तैयार भी कर दिया है। जिनसे मै मिलना चाहता हूँ वे इन प्रश्‍नों के उत्‍तर देने के पात्र है। काफी कुछ समझ बूझ कर लिखा है, किसी को कुछ खराब लगें तो वे अन्यथा न लें।

प्रश्‍नपत्र समीर लाल जी
  1. आपके लिये चिट्ठाकारी के क्या मायने हैं?
    चिट्ठाकारी लेखक या कवि या जो कुछ भी जो अपने आपको जो कुछ समझे, अपनी अभिव्यक्ति का उद्धार करने का माध्यम है। अपनी आवाज को एक मंच प्रदान करने का स्थान है। अपनी कविता के लिये कवि सम्मेलन है। तथा अपने चित्रो के लिये स्वयं आयोजित चित्र प्रदर्शनी है।
  2. क्या चिट्ठाकारी ने आपके जीवन/व्यक्तित्व को प्रभावित किया है?
    जी हां बहुत ज्यादा, सकारात्मक रूप मे भी और नकारात्मक जरूरत से कुछ ज्यादा। मै अगर अपने सकारात्मक पहलू की ओर देखता हूँ तो पाता हूँ कि मैने एक नया परिवार पा लिया है, हर दिन कोई न कोई नया सदस्य जुड़ता है। मुझे एक नई पहचान मिली- महाशक्ति के रूप मे। मेरे सोचने और समझने का दायरा भी बढ़ा। दुनिया के नये रूप से भी परिचय हुआ, तथा मुझसे बड़ों का प्यार तथा समकक्ष के साथियों से सहयोग। ये तो मेरा सकारात्मक पहलू है। अब मै नकारात्मक पहलू पर आता हूँ जिसका जिक्र मैंने पिछली एक पोस्ट मे किया था। और भी बहुत है, क्योंकि बुराई कितनी भी गिनाई जाये उनकी गिनती कभी कम नहीं होती।
  3. आप किन विषयों पर लिखना पसन्द/झिझकते है?
    मै प्रेम, प्यार, इश्क, मोहब्बत, सेक्‍स, पर लिखना कभी नहीं पसंद करता हूँ, हाँ झूठ नहीं बोलूंगा मैंने आपने एक लेख मे सेक्‍स पर चर्चा की थी, जो मेरे हिसाब से सही भी थी, पर मै अब मै इस पर कोई लेख नहीं लिखूँगा जब तक की मेरे स्‍वाभीमान को जगाया जाए और कविताओं मे मै प्रेम, प्यार, इश्क और मोहब्बत आदि श्रृंगार विषयक कविताओं का प्रश्न है मैंने उसे हमेशा परहेज किया है चूंकि मेरा स्वभावत पाठन मे कभी भी श्रृंगार काव्य पसंद नही रहा है और यही कारण है कि मुझे इन कविताओं को लिखने के लिये शब्द व भाव नही मिलते है। जहाँ तक इन विषयों पर मेरी कविताओं का प्रश्न है। तो मैने हिन्‍द युग्‍म के कुछ कवियों से प्रेरित होकर एक दो कविताओं को लिखने का प्रयास जरूर किया। किन्तु जिस बात से हमेशा डरता था इस प्रकार की कविताओं को लिखने में लेखनी मे धार की कमी। अन्‍तत: मेरे एक बहुत ही अच्‍छे मित्र ने मेरी एक इस प्रकार की कविताओं मे कमी बताई, अत: मैने यही निर्णय लिया कि अब इस प्रकार की कविता नही लिखूँगा। मैने उनसे कहा कि आपको उत्‍तर दूँगा पर दिया नही क्‍योकि मेरी खमोशी ही मेरा उत्‍तर थी। वे भी अन्‍यथा नही लेगें। वह लेख यहाँ है तथा कविता यहॉं और यहॉं है।मैने एक दो बार इन विषयों पर जरूर लिखा शायद इस लिये की मुझे इस बात का अफशोस नही की मैने कभी इन विषयों पर नही लिखा। मै अपने परिवारिक कारणों से भी इन विषयों पर लिखना नही पंसद करता हूँ, आप इसे मेरी कमजोरी मान सकते है पर मेरे लिये यह मेरे परिवार के प्रति सर्मपण, शलीनता व मजबूती मानता हूँ।
  4. यदि आप किसी साथी चिट्ठाकार से प्रत्यक्ष में मिलना चाहते हैं तो वो कौन है?किसी से मिलना चाहता हूँ तो मै सर्वप्रथम अपने आलोचकों से मिलना पसंद करूँगा, क्योंकि जो मुझे पसंद करते है, मै चाहे अच्छा करूँ या बुरा सदा मेरी ही प्रशंसा करेंगे और जो आलोचक होते है, वे सदा आईने की भांति सच्‍चा चेहरा दिखाते है।
    आलोचकों के अलावा मै जिनसे मिलना पसंद करूँगा, और क्‍यों
    1. सागर चन्द्र नाहर**** मेरे सबसे बड़े प्रशंसक तथा आलोचक।
    2. उडन तस्‍तरी***** इसलिये हंसमुख लगते है, और भी बहुत कुछ बता दूंगा तो वे अन्यथा तो नहीं लेंगे पर ले लिये तो इसकी कोई गारंटी नही है।
    3. अनूप शुक्ल **** उनकी छोटों के प्रति सहयोग की भावना से प्रेरित होकर, सही का समर्थन करते है, और भी बहुत कुछ कारण है।
    4. जितेन्‍द्र चौधरी **** मेरी तकरार पहले कभी हुई थी(अब वह प्यार मे बदल गया है) कि जितने वाणी से कठोर है क्या उतने दिल से भी। जहां तक मेरा मानना है कि वाणी की कठोरता वाले दिल से काफी नम्र होते है। ये वे ऐसे दूसरे ऐसे व्यक्ति है जिनसे मैंने गूगल वार्ता किया था। और आज तक भी मै समय मिलने पर जीतेन्द्र जी मेरे बीच हुई पहली वार्ता को को सैकडों बार पढ़ चुका हूँ। और जब भी पढ़ता हूँ तो काफी मजा आता है और आपनी कुछ बातों पर खेद भी होता है।
    5. प्रतीक पाडेंय **** ऐसे व्यक्ति जो मुझे सदा सहयोग दिया।
    6. बेगाणी बन्धु, नीरज दीवान, शुऐब भाई आशीष जी कुवारे मंच के, ईस्‍वामी, श्रीश जी, डा0 प्रभात टंडन जी
    7. अनुराग जी जो अक्सर मेरे अदिति फोटो ब्लॉग पर टिप्पणी करते है।
    8. रामचन्द्र मिश्र **** इस लिये कि मेरे और इनके घर की दूरी ½ किमी भी नही होगी।
    9. अफलातू जी **** शायद कभी इनके अनुभवों से कुछ अच्‍छा सीखने के मिले।
    10. और हर किसी से से जो मुझसे मिलना चाहे या जिससे मुझे मिलने की इच्छा हो। 

  5. आपकी पसँद की कोई दो पुस्तकें जो आप बार बार पढते हैं.
    अपनी अर्थशास्‍त्र पाठ्य पुस्‍तकें जो मुझे समझ मे नही आती है। सामान्‍य ज्ञान की कोई भी पुस्‍तकें
प्रश्‍नपत्र श्रीश जी,
  1. कम्प्यूटर पर हिन्दी टाइपिंग के बारे में सबसे पहले आपने कब सुना और कैसे, अपने कम्प्यूटर में हिन्दी में सबसे पहले किस सॉफ्टवेयर में/द्वारा टाइप किया और कब, आपको उसके बारे में पता कैसे चला ?
    मैने सर्व प्रथम हिन्‍दी यूनिकोड टाइपिंग के बारे मे आपे बड़े भैया मानवेन्द्र प्रताप सिंह से सुना था और लगभग आज से 4-5 साल पहले। उन्होंने ही मुझे Microsoft Word पर ही किया था। फिर इंडिक आईएमई मिल गया। कैसे मिला ? इसकी जानकारी मुझे नहीं है।
  2. आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में आगमन कैसे हुआ, इसके बारे में कैसे पता लगा, पहला हिन्दी चिट्ठा/पोस्ट कौन सा पढ़ा/पढ़ी ? अपना चिट्ठा शुरू करने की कैसे सूझी ?
    अनजाने मे, मुझे पता नही है, याद नही है, ठीक तरह से याद नहीं है शायद यह कि मै भी अपनी साइट बना सकता हूँ।
  3. चिट्ठा लिखना सिर्फ छपास पीड़ा शांत करना है क्या ? आप अपने सुख के लिये लिखते हैं कि दूसरों के (दुख के लिये ;-) क्या इससे आप के व्यक्तित्व में कोई परिवर्तन या निखार आया ? टिप्पणी का आपके जीवन में क्या और कितना महत्व है ?
    मेरे लियें ऐसा कुछ नही है, बस लोग मेरे विचारों से सहमत या असहमत हो शुरुआती दिनों मे ब्लॉग लेखन मेरे लिये नशे के समान था जो अब धीरे धीरे उतर कर समाप्ति की ओर अग्रसर है। टिप्पणी के लिये मेरा यही मानना है कि मिले तो ठीक है न मिले तो भी ठीक है। टिप्‍पणी करने वाले केवल यही कहते है कि अच्छा लिखा है। और अगर नही आती है तो मै मान लेता हूँ कि मैंने अच्छा ही लिखा है, शायद इसी लिये टिप्पणी कर्ताओं कों लेख या कविता में टीका टिप्पणी के लिये कुछ मिला ही न हो। और इस प्रश्‍न का उत्‍तर काफी हद तक प्रश्‍न क्रमांक दो में दिया गया है।
  4. अपने जीवन की कोई उल्लेखनीय, खुशनुमा या धमाकेदार घटनाएं बताएं, यदि न सूझे तो बचपन की कोई खास बात जो याद हो बता दें।
    मै यहाँ केवल अपने ब्लॉग जीवन के बातों का ही जिक्र करूँगा। वह है मेरी और जीतू जी के बीच वाद विवाद, जिसका मैंने काफी मजे से इनज्वाय किया। आपको विभिन्न जगहों पर ये कहानी पढ़ने को मिल जायेगी, बस आपको जाना होगा गूगल की शरण मे।
  5. यदि भगवान आपको भारतवर्ष की एक बात बदल देने का वरदान दें, तो आप क्या बदलना चाहेंगे/चाहेंगी?
    राजनीति में परिवारवाद का अंत उसमें से भी सबसे पहले गांधी परिवार का
मेरे प्रश्न
  • आपके चिट्ठा लेखन के प्रति आपके घर के लोगों का रुख कैसा है? 20 अंक
  • क्‍या आपकी कभी नेट पर किसी प्रकार का विवाद हुआ है? उस पर आपका कैसा दृष्टिकोण था? 10+10 अंक
  • क्‍या आप लेख या कविताओं को पूरी तरह पढ़कर टिप्पणी करते है? 20 अंक
  • आपने किस चिठ्ठाकार से सर्वप्रथम वार्ता(chat) की थी? क्‍या अनुभव था? बात की शुरुवात कैसे हुई? संपर्क आपने किया था कि सामने वाले ने सज्जन ने (केवल चिट्ठाकारों से हुई वार्ता का उल्लेख करें, अन्‍य लोगों का जिक्र होने पर अंक काट लिये जायेगें) 5+5+5+5 अंक
  • वे कौन से गीत जो आप गाहे बगाहे गुनगुना ही देते है किन्ही 5 को लिखे। 4+4+4+4+4 अंक
उपरोक्‍त जिनसे मै मिलना चाहता हूँ तथा जो अन्‍य बन्धु भी इच्छुक हो,(कोई अन्यथा न ले कि मैंने उसका नाम नहीं लिया है, मैने उन्ही का नाम लिया है जिनसे कभी न कभी मेरा सम्‍पर्क हुआ है) वे इन प्रश्नों के परीक्षार्थी होने के पात्र है। अगर पूर्व में इसके समकक्ष किसी परीक्षा में सम्मिलित हो चुके है तो उनके लिये छूट का प्रावधान है। और जिन्‍होने परीक्षा नहीं दिया है उनके लिये कोई बहाना और कोई छूट नहीं चलेगी।


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उत्‍तर प्रदेश की राजनीति




हाल के वर्षों में राजनीति इतनी गन्‍दी हो गई है कि राजनीति का नाम लेने मात्र से उल्टी आती है। जैसा कि राजनीति का घिनौना रूप राजनीति की जन्म भूमि उत्तर प्रदेश में देखने को मिलता है, इस कारण राजनीतिक दृष्टि से मुझे यह कहते हुए शर्म आती है कि मैं इस प्रदेश का हूँ।

राजनीति मेरे प्रिय विषयों में रहा है आज भी मुझे याद है कि मैंने अपने रिश्ते के अधिवक्‍ता बड़े भाई को राजनीति प्रश्नोत्तरी में हरा कर आज से 10 साल पहले 100 रुपये की शर्त जीती थी। तब के समय के बहुत पहले से ही मैं राजनीति को निकटता से देखता आया हूँ। मैं अपने आपको भारतीय जनता पार्टी का समर्थक मानता हूँ पर इतना अंध नहीं कि हर गलत निर्णय पर मैं मौन धारण करता रहूँ।

आज के उत्तर प्रदेश के हालत देख कर मेरा मन दुखित होता है कि क्या यही है लाल बहादुर शास्त्री का उत्तर प्रदेश? आज उत्तर प्रदेश की जो दशा है उसके लिए अगर कोई पार्टी सबसे ज्यादा जिम्मेदार है तो वह है भारतीय जनता पार्टी। भारतीय जनता पार्टी में भी अगर कोई व्यक्ति सबसे ज्यादा, ज्यादा ही नहीं पूर्ण रूप से कोई जिम्मेदार है तो वे है प्रदेश विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष केसरी नाथ त्रिपाठी जो इस समय पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष है, और दूसरे माननीय है प्रदेश विधान सभा के पार्टी के नेता लाल जी टंडन।

आज जो कुछ हो रहा है उसके जनक केसरी नाथ त्रिपाठी है, तत्कालीन परिस्थितियों में जब बहुजन समाज पार्टी मे असंवैधानिक विभाजन हुआ तो उसको मान्यता उपरोक्त महोदय ने दिया था। जो आज नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे है, उस समय क्या इनकी नैतिकता घास चरने गई थी? इन्होंने न कि नये दल में रूप में मान्यता दी वरन उनके समाजवादी पार्टी के विलय को भी मान्यता दी............................. बस इतना ही लिखने को बहुत कुछ है पर मन नहीं कर रहा है। बात पूरी न कर पाने के लिये क्षमा प्रार्थी हूँ।

आगे फिर कभी।



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संजय भाई की टिप्पणी






मैंने अपने पिछले पोस्ट में एक चित्र और कविता प्रकाशित किया था तथा इसमें संजय भाई की टिप्पणी ने मुझे आगे यह लिखने के लिये प्रेरित किया। संजय भाई ने क्या कहा आप वही जाकर देखे तो अच्छा होगा। किन्तु मैने उन्होंने जितना कहा और मैने जितना पढ़ा है उससे तो यही प्रतीत हो रहा है कि वे यह कहना चाह रहे है कि हिन्दू धर्म प्राचीन काल से ही अन्य धर्मों को आत्मसात करता आ रहा है, किन्तु अन्य धर्मों में हिंदू धर्म जैसा भाव नहीं है।

संजय भाई ने जो कहा वह सही है, हिन्दू धर्म ने सदैव ही सभी धर्मों के साथ मैत्री का भाव रखा, जो शांतिप्रिय धर्म तथा आक्रमणकारी धर्म आये सभी के साथ समान भाव रखा। यही कारण है कि जब भारत का संविधान बना तो भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की घोषणा की गई।

जब हम हिन्दू धर्म की अन्य धर्मों के साथ तुलना करते है तो लगता है अन्य धर्म हिन्दू धर्म की इस करुणा को उसकी कमजोरी समझते है। हिन्दू धर्म सदैव सभी धर्मों के साथ वसुधैव-कुटुम्बकम् की भावना रखता है। सभी धर्मों की अच्छाइयों को आत्मसात किया है।

जब हम भारत मे इस परिवेश को देखते है तो अत्यंत पीड़ा होती है। अन्य धर्म के अनुयायी धन को लोभ देकर मतान्तरण करवाते है। अभी हाल मे ही एक पादरी द्वारा धन ले-दे कर ईसाई धर्म की मान्यता देने का मामला सामने आया है।

जब हम भारत के आदिवासी इलाकों मे जाते है तो देखने को मिलता है कि ईसाई मिशनरी द्वारा किस प्रकार भोले भाले हिंदुओं के सामने हिन्दू देवी देवताओं को अपमानित कर ईसाई धर्म को श्रेष्ठ बताने को प्रयास करते है, और धन तथा अनय ह‍थगन्‍डों से धर्मान्‍तरण करने के प्रयास बन्‍द होगें। या कि पूर्ण रूप से धर्मांतरण बन्‍द हो, जबकि स्वेच्छा से किया जाये।

हिन्दू धर्म तो सदैव ही कह रहा है वसुधैव-कुटुम्बकम पर ईसाई धर्म कब कहेगा और अपने अनर्गल प्रयास बंद करेगा।

संजय भाई आपका नामोल्लेख बिना पूर्व अनुमति के किया है , अगर आपको खराब लगे तो मै आपका नाम हटाने या पूरा लेख हटाने को तैयार हूँ।


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एक तरफ भगवान श्री कृष्‍ण तो दूसरी तरफ ईसा



आज मै अनत:जाल ( Internet ) पर विचरण कर रहा था, एक चित्र देखने को मिला, और देखते ही देखते एक कविता भी बन गई। चित्र और कविता दोनों आपके सम्मुख है बताईये कैसी लगी? आप कविता की बुराई कर सकते है पर चित्र अपने आप मे अद्वितीय है।


एक तरफ भगवान श्री कृष्‍ण तो दूसरी तरफ ईसा

एक तरफ योगेश्‍वर है,
तो एक तरफ है ईसा।
दोनों मे नही कोई अन्‍तर
दोनों ही पूजे जाते है।
हो सकती है पूजा पद्धति अलग अलग,
पूजते है केवल मानव।
तो क्‍यों सब बन जाते है,
इस ईश्‍वर के कारण दानव।


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कृतिदेव से यूनिकोड एवं चाणक्य फॉण्ट परिवर्तक Krutidev to Unicode Chanakya Font Converter



शीघ्र उपलब्ध होगा


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दीप जो जलता रहा ( श्री श्री गुरूजी जन्‍मशताब्‍दी वर्ष पर विशेष)



एक दिन राधा की खोज करते हुये, एक अन्‍य जगह जाना हुआ जहॉं एक तर्क गुजरात मे युवक युवतियों के पीटाई के सम्‍बन्‍ध मे चर्चा हो रही थी। पर चर्चा तो ठीक थी किन्‍तु चर्चा के बीच संद्य के द्वितीय सरसंद्यचालक श्रीगुरूजी का नाम आना समझ मे न आया की पिटाई मे श्री गुरूजी क्‍या हाथ था और उनका नाम क्‍यों लिया जा रहा।

'' पूरी चर्चा को विस्तार से पढ़ा, सभी ने अपने अपने ढंग से अपनी बात को रखा अच्छा लगा, पर एक महोदय की बातें मन लग गई, यहीं महसूस होता है कि जब इतनी उम्रदराज व्‍यक्ति ऐसी बात करता है तो कुछ ठीक नहीं लगता है, आप वरिष्ठ है और इस कारण हम सब के सम्‍माननीय भी है। प्रत्‍येक व्‍यक्ति को अपने सम्मान की रक्षा करनी चाहिये, आपको विचारों के दोहरे मापदंड की दूरी को मिटना होगा ताकि यह सम्मान आगे भी बरकरार रहे। कुछ कतिपय लोगों ने तो अपने लाभ के लिये समाजवाद की परिभाषा ही बदल दी है। को नंगा कर दिया है, समाजवाद की पूरी परिभाषा ही बदल दी है। एक तरफ लोहिया का समाजवाद था जो कभी स्‍वालाभ के लिये न था तो दूसरी और मुलायम का समाजवाद जो स्‍वालाभ के लिसे ही बना है। हाल मे ही उत्तर प्रदेश मे स्थानीय निकाय के चुनाव मे एक वार्ड था चकिया जो स्थानीय समाजवादी सांसद अतीक अहमद और विधायक गृह वार्ड है इसमे समाजवाद का ऐसा रूप देखने को मिला कि कुल 84 प्रतिशत मतदान हुआ। और सभासद के चुनाव मे समाजवादी पार्टी के अलावा कोई प्रत्‍याशी न खडा हो सका और मेयर के चुनाव मे कुल पडे 10700 वोटो मे 10200 से अधिक वोट प्राप्‍त हुआ, जबकि उसी से सटे लूकरगंज वार्ड मे समाजवाद अपनी जमानत भी बचा सका। और यही विधायक, स्‍व0 विधायक की राजूपाल की हत्‍या के मुख्‍य अरोपी है।यह कैसा समाजवाद है?, कि अपने घर की विधायक की सुरक्षा कर ही नही सकता है उसे गुजराज की लैला-मंजनू की चिन्‍ता सता रही है। अगर समाजवाद का यही रूप देगे तो लोहिया को भी अपने उपर अफशोस होगा कि मै कौन सी पीढी को छोड कर गया हूँ।

बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद, लगता है अपने अपने सिर के बाल तर्जुबे से न पका कर इसी तरीके अनर्गल बातें पढ़कर या सोचकर पकाये है। पूज्य श्री गुरूजी के बारे मे आप क्या जाने है, बस यही न की मे महिला विरोधी है संद्य के है और आपकी तरह समाजवादी नही है। जिस गुरूजी पर आप आक्षेप कर रहे है, उसके वारे मे प्रख्यात कम्‍युनिष्‍ट तथा दुग्ध क्रांति के जनक श्री डॉ॰ वर्गीज कुरियन जो इस समय पूर्व के ऑक्‍सफोर्ड इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलाधिपति है वे अपनी पुस्तक मे कहते है कि मै संघ की विचारधारा का समर्थन नही करता हूँ किन्तु श्रीगुरू जी के बौद्धिक चिंतन का समर्थन करता हूँ।
भारत में श्वेत क्रांति के जनक डॉ वर्गीज कुरियन

जिसे आप महिला कह रहे है उसे श्रीगुरू जी मातृशक्ति कहते है, वे विवाहित न थे किन्तु विवाह विरोधी न थे वे कहते है कि -- '' हम सबके अन्दर एक ही परमतत्‍व है विद्यमान है, जो हमें आपस मे जोड़ने का आधार प्रदान करता है, हमारे दर्शन मे उसे आत्मा कहा गया है। हम एक दूसरे के साथ जो प्रेम और सेवा का व्यवहार करते है वह बाह्य सम्बन्धों पर आधारित नही है।'' याज्ञवल्‍क्‍य ने मैत्रेयी से यही कहा है - ''ओ मैत्रेयि, पत्नी पति से इस लिये प्रेम नही करती है कि वह उसका पति है पर इस लिये करती है कि उसमें भी वही आत्मा है।''

श्री गुरूजी ने मातृशक्ति के योगदान को त्रिविध रूप मे स्वीकार किया है-

1. परिवार के विकास मे,
2. व्‍यक्तिगत हैसियत के रूप मे समाज मे
3. संगठन का अंग बनकर समाज के विकास मे, वही जिसे सब दुर्गा वाहिनी कहते है।

अगर मातृशक्ति के बारे मे श्री गुरु जी के अधिक विचार जानने हो तो एक पुस्तक है ''विचार नवनीत'' उसका अध्ययन करे।

श्री गुरूजी आधुनिकता के सम्‍बन्‍ध मे कहते है कि ज्ञानेश्वरी काव्य कि एक पंक्ति है - 
निज सुकार्य को धर्मनिष्‍ठ करता विनम्रता मण्डित। 
उसी उसी तरह नारी रखती तन बस्‍त्रवेष्ठित।।
यहां पर सती नारी का चित्रण किया गया कि‍ किन्तु आज के दौर मे आधुनिक स्त्री अपने तन को सकी दृष्टि के सामने उघाड़ने मे ही आधुनिकता समझती है कैसा घोर पतन है। (विचार नवनीत पृ.367) 
Madhav Sadashiv Golwalkar


विचार नवनीत पुस्तक के पृ 42 से ''हम यह भी देखते है कि हमारे प्रमुख सांस्कृतिक पुरोधा निर्णयकों के रूप मे मिस इंडिया सौंदर्य प्रतियोगिताओं मे भाग लेते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी संस्कृति के संबंध मे उनकी जो अवधारणा है उसमे हमारे नारीत्व के आदर्श सीता, सावित्री, पद्मिनी व निवेदिता का कोई स्‍थान नही है। उस प्रतियोगिता मे से तो भारत का वास्तविक सौंदर्य ही गायब है।''

लक्ष्मी बाई केलकर के पत्र का उत्तर देते हुऐ श्री गुरूजी कहते है- '' .... रक्षाबंधन के दिन आपका भेजा हुआ पत्र एवं राखी प्राप्त हुई संघ के स्वयंसेवकों को आपकी ओर से राखी प्राप्त होना याने मातृशक्ति का विजयशाली आशीर्वाद प्राप्‍त होना है। इसलिये कृतज्ञता मे मै आपका नमस्कार पूर्वक आपका आभार मानता हूँ।'' (अक्षर प्रतिमा पृष्‍ट 56 मूल मराठी)
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी


गुरु जी अपनी माता के सम्‍बन्‍ध मे कहते है ''एक माँ बहुत बीमार थी, गुरुजी के संघ कार्य से जाना था, उन्होंने मॉं से पूछा मै जा सकता हूँ, तो मॉं न कहा नहीं फिर उसी दिन पूछा जाऊ तो मॉं ने कहा कि जा। वह सोचती होगी की मै एक तरु बीमार हूँ और मेरा एक मात्र पुत्र मेरे पास न हो, नही वो ऐसा नहीं सोचती होगी, वह नही चाहती थी कि मेरे पुत्र ने जो राष्‍ट्र कार्य मेरे पुत्र ने लिया है मेरी बीमारी के कारण उसमें कोई खण्ड पड़े, इसलिए उन्होंने आज्ञा दे दी। माँ न यह भी कहा- किसी व्यक्ति की मृत्यु या जीवन इस पर निर्भर नही करता है कि कोई उसके पास हे कि नही'' यह सुनकर किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि वे योगिनी थी। हॉं वे भक्त जरूर थी और इसी लिये उनके अन्तःकरण मे धैर्य था मै यह संस्मरण इसलिए नहीं बात रहा हूँ कि मै कोई बड़ा मातृभक्त हूँ। पर हाँ मेरी मॉं वास्तविक माँ थी। उसने अपनी बीमारी को भी आड़े नही आने दिया।'' (श्रीगुरूजी समग्र दर्शन हिन्‍दी खण्‍ड 5 पृ 101)


श्रीगुरू जी एक व्‍यक्ति न होकर एक विचारधारा थे, वे एक ऐसी विभूति थे जिन्‍होने चारों पूज्य शंकराचार्यों विभिन्न संतों को एक मंच पर लाया, और संतो से कहलवाया कि हिन्‍दू पतित नही है, अस्पृश्यता उन्मूलन हेतु उसका निदान प्रस्तुत कर ही श्री गुरुजी ने अपने दायित्व को पूर्ण हुआ नहीं मान लिया। उनकी प्रेरणा से विक्रमी संवत् 2021 तदनुसार सन् 1964 में भगवान श्रीकृष्ण के पावन जन्मदिवस पर प्रस्थापित विश्व हिन्दू परिषद ने संवत 2026 (सन् 1969) में कर्नाटक के उडुपी नामक स्थान पर हिन्दू समाज के शैव, वीरशैव, माधव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध, सिख, आर्य समाज आदि समस्त सम्प्रदायों और पंथों के धर्माचार्यों का एक सम्मेलन बुलाया। श्रीगुरुजी उक्त सम्मेलन में उपस्थित थे। समस्त धर्माचार्यों ने हिन्दू समाज के समस्त घटकों से अस्पृश्यता उन्मूलन का आह्वान करते हुए सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें घोषणा की गई थी कि :''समस्त हिन्दू-समाज को अविभाज्य एकात्मता के सूत्र में पिरोकर संगठित करने एवं स्पृश्य-अस्पृश्य की भावना व प्रवृत्ति से प्रेरित विघटन को रोकने के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु विश्व भर के हिन्दुओं को अपने पारस्परिक व्यवहार में एकात्मता एवं समानता की भावना को बरकरार रखना चाहिए।''
 इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रस्ताव को हिन्दू समाज के समस्त मत-पंथों एवं सम्प्रदायों के धार्माचार्यों द्वारा एक स्वर से स्वीकृति दिया जाना इस देश के राष्ट्र-समाज के इतिहास में एक क्रान्तिकारी पग की संज्ञा दी जा सकती है क्योंकि यह घटना-क्रम एक विकृत परम्परा पर सच्ची धर्मभावना की विजय का स्वर्णिम क्षण था।

महात्मा गांधी जी भी संघ तथा श्री गुरु जी के अस्पृश्यता सम्‍बधी कार्यों की प्रशंसा की थी एक बार वर्धा के निकट संघ का शिविर लगा हुआ था जिसमें लगभग 1500 गणवेशधारी स्वयंसेवकों का अत्यन्त अनुशासित शिविर का समाचार जानकर उसे प्रत्यक्ष देखने की उत्कण्ठा और उत्सुकता के साथ गांधीजी उक्त शिविर में पहुंचे। वहाँ उनका समुचित योग्य अतिथि सत्कार किया गया। गांधीजी ने शिविर की आवास, भोजनादि व्यवस्थाओं को देखा और यह जानकारी चाहिए कि 'इस शिविर में कितने 'हरिजन' भाग ले रहे हैं?' इस पर जब उन्हें यह बताया गया कि संघ में किसी भी स्वयंसेवक से उसकी जाति नहीं पूछी जाती तो उनका प्रतिप्रश्न था कि 'स्वयंसेवकों से पूछ कर तो आप यह जानकारी दे सकते हैं?' इस पर जब संघ के वरिष्ठ अधिकारी श्री अप्पाजी जोशी ने इस पर अपनी असमर्थता यह कहकर प्रकट की कि 'हमारे लिए इतना जानना ही पर्याप्त है कि वे सब हिन्दू हैं।' तब गांधीजी ने स्वयंसेवकों से स्वयं यह जानकारी प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। अप्पाजी द्वारा 'हाँ' कहने पर जब गांधीजी ने शिविर में भाग ले रहे स्वयंसेवकों से स्वयं जानकारी प्राप्त की तब उन्हें यह पता चला कि 'इस शिविर में तो हरिजनों सहित सभी जातियों के लोग हैं, जो अपनी जातियों के नाम के बिना पानी पीने से लेकर खेलों तक के शिविर के समस्त कार्यक्रमों में आनन्द एवं मस्ती से भाग ले रहे हैं। यह देखकर गांधीजी दंग रह गए।' इस घटना से गांधीजी इतने प्रभावित थे कि 1946 में दिल्ली में सफाई कर्मचारियों की बस्ती में अपने निवास के दौरान एक दिन संघ के स्वयंसेवकों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने 12 वर्ष पूर्व के उस दृश्य का पुन: उल्लेख किया और कहा कि ''मैं स्वयंसेवकों में अनुशासन, अस्पृश्यता का पूर्ण अभाव तथा कठोर सादगी को देखकर अत्यधिक प्रभावित हुआ।''


गुरूजी एक दूरदर्शी व्यक्तित्व के थे उन्होंने सरकार को चीन की मंशा बता दिया था जब प्रधानमंत्री नेहरू जी चीन के साथ पंचशील समझौता कर रहे थे कि चीन भारत पर आक्रमण कर सकता था तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि चीन लद्दाख की इतनी लम्बी सीमा को पार करके, लद्दाख के निर्जन इलाके मे क्‍या करने आयेगा, जब आया तो दृश्‍य सबके सामने था। संघ की उपस्थिती भारतीय समाज के हर क्षेत्र में महसूस की जा सकती है उदाहरण के तौर पर 1962 के भारत चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संघ की भूमिका से इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने संघ की एक टुकड़ी को गणतंत्र दिवस के 1963 के परेड में सम्मिलित होने का न्योता दिया। सिर्फ़ दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा स्वयंसेवक पूरे परिधान में वहाँ उपस्थित हो गये।

गोवध निषेद्ध पर श्री गुरूजी का मत था ''गाय एक ऐसा प्राणी है, जो जितना खाता है, उससे अनेक गुना अधिक मनुष्य को वापस करता है। दूध के रूप में, उसके द्वारा विसर्जित किये जाने वाले पदार्थों गोबर-गोमूत्र आदि के द्वारा मिलने वाली खाद के रूप में और मृत्यु के बाद चर्म और अस्थि के रूप में वह हमें वापस करती है। उसका यदि हिसाब लगायें तो कहना पड़ेगा कि गाय के ऊपर यदि किसी ने सौ रुपये खर्च किये, तो उसे कम से कम पांच सौ रुपये मिलते हैं। इसे आर्थिक दृष्टि से लाभ कहोगे या हानि?'' ''अत: मनुष्य का खाना-पीना जिस पर निर्भर है, वह कृषि; और कृषि जिस पर निर्भर है, वह गोवंश, सम्पूर्ण दृष्टि से सम्वर्धीत होना आवश्यक है। उनके पोषण की चिन्ता करना और गोवंश की हत्या बन्द हो, इसके लिए सब प्रकार के प्रयत्नों की आवश्यकता है। सरकारी तौर पर कानून बनाकर, उसकी हत्या के लिए कड़े दण्ड का प्रबन्ध करते हुए हत्या बन्द करना नितांत आवश्यक है।'' (श्रीगुरुजी समग्र : खण्ड 3, पृष्ठ-212-13)।  
श्री गुरूजी कहते है कि - ''लोग तर्क देते हैं कि गायों की वृद्धि से मनुष्यों की भोजन-सामग्री घट जायेगी। यह तर्क ठीक नहीं है; क्योंकि गाय मनुष्य का भोजन तो खाती नहीं। वह तो अनाज निकालने के बाद जो भूसा बचता है, वही खाती है।'' (श्रीगुरुजी समग्र : खण्ड 5, पृष्ठ-65)।
कुछ लोगो के यह कहने पर कि मुस्लिमो के साथ समझौता करने के कारण गांधी जी भी गो हत्‍या के सर्मथक थे तो गुरूजी ने गांधी जी का पक्ष लेते हुये कहते है - ''महात्मा गांधी गोरक्षा के पक्ष में थे। वे अपनी प्रार्थना में सबसे पहले गाय और ब्राह्मण की रक्षा का श्लोक कहते थे। गोरक्षा के प्रश्न को वे कितना महत्व देते थे, इसका एक उदाहरण बताता हूँ। अपने देश को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने के प्रयत्न चल रहे थे, तब कांग्रेस ने सोचा कि मुस्लिम लीग से समझौता कर लेने पर स्वराज्य-प्राप्ति में सुगमता होगी। गांधीजी कांग्रेस के सक्रिय सदस्य तो नहीं थे; पर परामर्श अवश्य देते थे। मुस्लिम लीग से समझौते का कागज श्री महादेव देसाई ने जब उन्हें दिखाया, तब उन्होंने उसे पढ़कर लौटा दिया और समझौते को अपनी स्वीकृति दे दी। उस समझौते में एक शर्त यह थी कि स्वराज्य-प्राप्ति के बाद मुसलमानों को गोहत्या का अधिकार रहेगा। इस छोटी-सी बात के कारण गांधीजी को बड़ी बेचैनी हुई। उन्हें रात भर नींद नहीं आयी। रात में ही उन्होंने महादेव देसाई से समझौते का कागज मँगवाया। उसे ठीक से पढ़ने के बाद उन्होंने कहा 'गोहत्या की शर्त मुझे मान्य नहीं। गाय के प्रति हम कृतज्ञ हैं। इसलिए उसकी रक्षा अपना परम कर्तव्य है।' समझौता उसी समय टूट गया।'' (श्रीगुरुजी समग्र : खण्ड 5, पृष्ठ-63)।

वामपंथियों की इस बात की पर कि वेदों मे लिखा है कि हिन्दू गो हत्या तथा गौ मांस का भक्षण करते है तो इस पर श्री गुरूजी कटाक्ष करते हुये कहते है - ''कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो गोहत्या समर्थन में वेदों के प्रमाण देते हैं। वे कहते हैं कि वेदों में 'गो-मेधा' यज्ञ का वर्णन आया है। उनका कहना है कि प्राचीन काल में लोग गोहत्या करके यज्ञ करते थे तब गोमांस खाते थे। वस्तुत: ये सब प्रमाण काल्पनिक हैं। शब्दों के अर्थ यथार्थ लगाना चाहिए।

'गो-मेधा' का अर्थ यदि गाय को काटकर यज्ञ करना है, तो 'पितृ-मेधा' का भी अर्थ माता-पिता की आहुति देना हो सकता है। 'गृह-मेधा यज्ञ' भी कहा गया है; पर उसका अर्थ घर को आग लगाना तो है नहीं। इसका अर्थ कुछ और ही है। इसलिए जो वास्तविक अर्थ है, उसको लेना चाहिए। अपना स्वार्थ सिध्द करने के लिए ऐसे पाप का समर्थन करना अनुचित है।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 5 , पृष्ठ-65)।

श्री गुरुजी गोरक्षा के प्रश्न को इतिहास से जोड़ते हुए इसे अपने महान पुरखों की परम्परा बताते हैं। वे कहते : ''स्वातन्त्र्य के लिए लड़ने वाले सब वीरों ने गोहत्या पर रोक लगाने को अपना ध्येय घोषित किया था। उसका अर्थ यह था कि वे अपने राष्ट्रीय जीवन के हर कलंक को मिटाने तथा अपनी पूज्य संस्कृति को पुनरपि वर्ध्दमान करने वाले यहाँ के जनजीवन को उच्चतर एवं पवित्रतर बनाने वाले स्वातन्त्र्य को पुनरपि प्रस्थापित करने पर लगे हुए थे।

''छत्रपति शिवाजी महाराज गोब्राह्मण प्रतिपालक कहलाते थे। श्री गुरु गोविन्दसिंह जी महाराज ने अपनी आर्त प्रार्थना में तुर्कों का नाश करने के लिए तथा गाय को पीड़ा से बचाने के लिए तथा धर्म-संरक्षण के लिए ही सामर्थ्य माँगा है। सन् 1857 के स्वातन्त्र्य युध्द का विस्फोट गो-विषयक स्फुलिंग से ही हुआ। कूकाओं के शस्त्रोद्यत होने के लिए गोभक्ति की ही प्रेरणा थी।

''उत्तर काल में लोकमान्य तिलक तथा महात्मा गांधी जैसे स्वातन्त्र्य युध्द के महान नेताओं ने यही घोषित किया था कि यहाँ से जब हम अंग्रेजों को भगा देंगे, तब स्वतंत्र भारत का पहला कानून गोवंश की हत्या का सम्पूर्ण निषेध करने वाला होगा। महात्मा गांधी जी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि गाय की समस्या का महत्व प्रत्यक्ष स्वराज्य से भी बढ़कर है।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 10, पृष्ठ-274)।

गोवध पर पीडा व्‍यक्‍त करते हुऐ गुरू जी कहते है - ''आश्चर्य की बात है कि परदेशी शासक जाने के बाद बने हुए हमारे शासन ने आज तक यह नहीं पहचाना है कि यह विषय राष्ट्रीयता की दृष्टि से प्रथम श्रेणी का महत्व रखता है। अवस्था का विचार किये बिना गोवंश की हत्या जब तक हम पूर्णत: बंद नहीं करते, तब तक हमारा स्वराज्य अपूर्ण है। इस रूप में पारतंत्र्य के अत्यन्त पीड़ादायक चिन्ह शेष हैं और वे हमारी राष्ट्रीय अस्मिता को बुझाने का काम करते हैं। इस बात को हमारे वर्तमान शासकों ने कभी समझा ही नहीं।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 10, पृष्ठ-274-75)।

श्रीगुरू जी के चिन्‍तन के विषय मे अनेक महत्‍वपूर्ण व्‍यक्ति भी लोहा मानते है, कुछ महत्‍व पूर्ण लोगो के श्री गुरू जी के प्रति निम्‍न विचार थे- ''श्रीगुरुजी न केवल इस देश के सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, अपितु वे देश के भाग्य-विधाता हैं। हिटलर से लेकर नास्सर तक विश्व की बड़ी-बड़ी हस्तियों से मैं मिल चुका हूँ। किन्तु श्रीगुरुजी जैसा प्रसन्नचित, आत्मविश्वासी और प्रभावी व्यक्तित्व अभी तक मेरे देखने में नहीं आया। ईमानदारी के साथ मुझे लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या को सुलझाने के विषय में एकमात्र श्रीगुरुजी ही हैं, जो यथोचित मार्गदर्शन कर सकते हैं।'' यह मानना था डॉ. सैफुद्दीन जिलानी का। उन्होंने १९७१ में श्रीगुरुजी से कोलकाता में साक्षात्कार किया था। मूलत: ईरानी होते हुए भी डा. जिलानी बरसों पूर्व भारत में आ बसे। इस्लामी तत्वज्ञान के सूक्ष्म अध्ययन के साथ ही उन्होंने तौलनिक दृष्टि से भारतीय तत्वज्ञान का भी भरपूर परिचय प्राप्त किया था।
प्रख्‍यात पत्रकार श्री डॉ. सैफुद्दीन जिलानी

प्रख्‍यात पत्रकार श्री डॉ. सैफुद्दीन जिलानी ने जब श्री गुरूजी से भेट किया तो उनके श्री गुरूजी के प्रति यह विचार थे- ''श्रीगुरुजी न केवल इस देश के सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, अपितु वे देश के भाग्य-विधाता हैं। हिटलर से लेकर नास्सर तक विश्व की बड़ी-बड़ी हस्तियों से मैं मिल चुका हूँ। किन्तु श्रीगुरुजी जैसा प्रसन्नचित, आत्मविश्वासी और प्रभावी व्यक्तित्व अभी तक मेरे देखने में नहीं आया। ईमानदारी के साथ मुझे लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या को सुलझाने के विषय में एकमात्र श्रीगुरुजी ही हैं, जो यथोचित मार्गदर्शन कर सकते हैं।'' मुस्लिम बन्धुओं के विषय में सद्भावना रखने वाले हिन्दुओं की संख्या बहुत होने के कारण मुझे अपने प्रयत्नों में कुछ यश अवश्य प्राप्त हुआ। किन्तु वह सन्तोषकारक नहीं माना जा सकता। मेरे मतानुसार इस कार्य में सिवा श्रीगुरुजी के अन्य कोई भी सहायक सिध्द नहीं हो सकता।

वे आगे कहते है- यह बात कहते समय मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपनी आँखों से ओझल नहीं किया है। अनेक वर्षों से संघ का कार्य मैं बहुत नजदीक से देखता आ रहा हूँ। उसके आधार पर मैं असंदिग्ध शब्दों में कह सकता हूँ कि संघ इस देश के लिए बहुत बड़ा सहारा है। किन्तु अपने देश की दृष्टि से संघ कार्य के महत्व का जिन्हें आकलन नहीं हुआ, ऐसे लोग अज्ञानवश या जानबूझकर संघ-विरोधी प्रचार किया करते हैं। सच्चाई तो यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुसलमानों का शत्रु नहीं, अपितु मित्र है। किन्तु यह बात मुसलमानों की समझ में नहीं आती। इसका कारण यह है कि वे स्वयं की बुध्दि से विचार नहीं करते। मानों विचार करने की जिम्मेदारी उन्होंने अपने अनभिज्ञ और षड़यंत्रकारी नेताओं पर सौंप दी है।

उस प्रकार मैं यह भी नहीं भूला हूँ कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में मुसलमानों का प्रवेश निषिद्ध है। हिन्दू समाज में स्वाभिमान जागृत करने के लिए संघ का जन्म हुआ है। यह कार्य पूर्ण होते ही संघ के द्वारा अहिन्दुओं के लिए तत्काल खुल जायेंगे। किसी भी इमारत का निर्माण-कार्य, उसकी नींव से हुआ करता है। भारत के भव्य प्रासाद की आधारशिला हिन्दू है। यह नींव मजबूत होते ही, प्रासाद अभूतपूर्व वैभव से जगमगाने लगेगा। मैंने श्री गुरुजी से पूछा, 'हाल ही के दिनों में किसी प्रमुख मुसलमान ने आपसे जातिवाद की समस्या पर चर्चा की है अथवा नहीं? उन्होंने अनेक नाम बताये। परन्तु इस संदर्भ में मेरे दिमाग में जिन मुस्लिम नेताओं के नाम थे, उनमें से एक भी नाम उनमें नहीं थे। इसलिए मेरे दिमाग में जो नाम थे उनका उल्लेख करते हुए मैंने उनसे सीधा प्रश्न पूछा, ''क्या आप इनसे मिलना चाहेंगे?' उन्होंने तत्काल उत्तर दिया, 'मैं उनसे जरूर मिलना चाहूँगा! इतना ही नहीं, उनसे मिलकर मुझे प्रसन्नता होगी।'

उनके उक्त शब्दों में सदिच्छा एवं प्राथमिकता का स्पष्ट आह्वान था। परन्तु जैसा कि कुरआन में कहा गया है, 'विकृति से चेतनाशून्य हुए कानों में क्या वह प्रविष्ट होगा?'

जिलानी आगे फिर कहते है- मैं समग्र भारतीय जनता का एक नम्र सेवक हूँ परन्तु सच कहूँ तो मेरे दिमाग में सबसे पहले अगर कोई बात आती है तो वह है, भारत के मेरे मुस्लिम भाइयों के बारे में। हिन्दुओं के लिए नेतृत्व की कोई कमी नहीं है। किन्तु मुसलमानों के हालत उन भेड़ों जैसी है, जिनका कोई गड़रिया ही नहीं है। इसलिए मैं मुसलमानों से यही कहना चाहता हूँ कि वे अपनी आँखें और दिमाग खुले रखें। इसी बात को ध्यान में रखकर मैंने श्रीगुरुजी से भेंटवार्ता का अवसर माँगा था। मेरे व श्री गुरूजी विभिन्‍न पहलुओ पर जो संवाद हुआ वह निम्‍न है-

प्रश्न : देश के समक्ष आज जो संकट मुँह बाए खड़े हैं, उन्हें देखते हुए हिन्दू-मुस्लिम समस्या का कोई निश्चित हल ढूँढ़ना, क्या आपको आवश्यक प्रतीत नहीं होता?
उत्तर : देश का विचार करते समय मैं हिन्दू और मुसलमान इस स्वरूप में विचार नहीं करता। परन्तु इस प्रश्न की ओर लोग आज कल सभी लोग राजनीतिक दृष्टिकोण से ही विचार करते दिखाई देते हैं। हर कोई राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर व्यक्तिगत अथवा जातिगत स्वार्थ सिद्ध करने में लिप्त है। इस परिस्थिति को समाप्त करने का केवल एक ही उपाय है। वह है राजनीति की ओर देशहित, और केवल देश हित की ही दृष्टि से देखना। उस स्थिति में, वर्तमान सभी समस्याएं देखते ही देखते हल हो जाएंगी।

हाल ही में मैं दिल्ली गया था। उस समय अनेक लोग मुझ से मिलने आये थे। उनमें भारतीय क्रांति दल, संगठन कांग्रेस आदि दलों के लोग भी थे। संघ को हमने प्रत्यक्ष राजनीति से अलग रखा है। परन्तु मेरे कुछ पुराने मित्र जनसंघ में होने के कारण, कुछ मामलों में मैं मध्यस्थता करूं, इस हेतु वे मुझसे मिलने आये थे। उनसे मैंने एक सामान्य-सा प्रश्न पूछा, 'आप लोग हमेशा अपने दल का और आपके दल के हाथ में सत्ता किस तरह आये इसी का विचार किया करते हो। परन्तु दलीय निष्ठा, दलीय हितों का विचार करते समय, क्या आप सम्पूर्ण देश के हितों का भी कभी विचार करते हो? इस सामान्य से प्रश्न का 'हाँ' में उत्तर देने के लिए कोई सामने नहीं आया। समग्र देश के हितों का विचार सचमुच उनके सामने होता, तो वे वैसा साफ-साफ कह सकते थे। किन्तु उन्होंने नहीं कहा। इसका अर्थ स्पष्ट है कि कोई भी दल, समग्र देश का विचार नहीं करता। मैं समग्र देश का विचार करता हूँ। इसलिए मैं हिन्दुओं के लिये कार्य करता हूँ। परन्तु कल यदि हिन्दू भी देश के हितों के विरुद्ध जाने लगे, तो उनमें मेरी कौन-सी रुचि रह जायेगी?

रही मुसलमानों की बात। मैं यह समझ सकता हूँ कि अन्य लोगों की तरह उनकी भी न्यायोचित माँगे पूरी की जानी चाहिए। परन्तु जब चाहे तब विभिन्न सहूलियतों और विशेषाधिकारों की माँगे करते रहना कतई न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। मैंने सुना है कि प्रत्येक प्रदेश में एक छोटे पाकिस्तान की मांग उठाई गई, जैसा कि प्रकाशित हुआ है। एक मुस्लिम संगठन के अध्यक्ष ने तो लाल किले पर चांद वाला हरे रंग का पाक झण्डा लहराने की बात की। परन्तु भारतीय व सच्चे मुसलमानों के द्वारा इसका खंडन भी नहीं किया गया है। ऐसी बातों से समग्र देश का विचार करने वालों को संतप्त होना आवश्यक है।

उर्दू के आग्रह का ही विचार करें। पचास वर्षों के पूर्व तक विभिन्न प्रान्तों के मुसलमान अपने-अपने प्रांतों की भाषाएं बोला करते, उन्हीं भाषाओं में शिक्षा ग्रहण किया करते थे। उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि उनके धर्म की कोई अलग भाषा है। उर्दू मुसलमानों की धर्म-भाषा नहीं है। मुगलों के समय में एक संकर भाषा के रूप में वह उत्पन्न हुई। इस्लाम के साथ उसका रत्ती भर का भी संबंध नहीं है। पवित्र कुरान अरबी में लिखा है। अत: मुसलमानों की अगर कोई धर्म-भाषा हो तो वह अरबी ही होगी। ऐसा होते हुए भी, आज उर्दू का इतना आग्रह क्यों? इसका कारण यह है कि इस भाषा के सहारे वे मुसलमानों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करना चाहते हैं। यह संभावना नहीं तो एक निश्चित तथ्य है कि इस तरह की राजनीतिक शक्ति देश हितों के विरुद्ध की जायेगी।

कुछ मुसलमान कहते हैं कि उनका राष्ट्र-पुरुष रुस्तम है। सच पूछा जाए, तो मुसलमानों का रुस्तम से क्या संबंधा? रुस्तम तो इस्लाम के उदय पूर्व ही हुआ था। वह कैसे उनका राष्ट्र-पुरुष हो सकता है? और फिर प्रभु रामचंद्र जी क्यों नहीं हो सकते? मैं पूछता हूँ कि आप यह इतिहास स्वीकार क्यों नहीं करते?

पाकिस्तान ने पाणिनि की पांच हजारवीं जयंती मनाई! इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि जो हिस्सा पाकिस्तान के नाम से पहचाना जाता है, वहीं पाणिनि का जन्म हुआ था। यदि पाकिस्तान के लोग गर्व के साथ यह कह सकते हैं कि पाणिनि उनके पूर्वजों में से एक है, तो फिर भारत के 'हिन्दू मुसलमान' भी - मैं उन्हें 'हिन्दू मुसलमान' कहता हूँ - पाणिनि, व्यास, वाल्मीकि, राम, कृष्ण आदि को अभिमान पूर्वक अपने महान पूर्वज क्यों नहीं मानते?

हिन्दुओं में से ऐसे अनेक लोग हैं, जो राम, कृष्ण आदि को ईश्वर के अवतार नहीं मानते। फिर भी वे उन्हें महापुरुष मानते हैं, अनुकरणीय मानते हैं। इसलिए मुसलमान भी यदि उन्हें अवतारी पुरुष न मानें, तो कुछ नहीं बिगड़ने वाला है। परन्तु क्या उन्हें राष्ट्र-पुरुष नहीं माना जाना चाहिए? हमारे धर्म और तत्वज्ञान की शिक्षा के अनुसार हिन्दू और मुसलमान समान ही हैं। ऐसी बात नहीं है कि ईश्वरी सत्य का साक्षात्कार केवल हिन्दू ही कर सकता है। अपने धर्ममत के अनुसार कोई भी साक्षात्कार कर सकता है।

श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य का ही उदाहरण लें। यह उदाहरण वर्तमान शंकराचार्य के गुरु का है। एक अमेरिकी व्यक्ति उनके पास आया और उनसे प्रार्थना की कि उसे हिन्दू बना लिया जाए। इस पर शंकराचार्य जी ने उससे पूछा कि वह हिंदू क्यों बनना चाहता है? उसने उत्तर दिया, कि ईसाई धर्म से उसे शांति प्राप्त नहीं हुई है। आध्यात्मिक तृष्णा अभी अतृप्त ही है।

इस पर शंकराचार्य जी ने उससे कहा, 'क्या तुमने सचमुच पहले ईसाई धर्म का प्रामाणिकता पूर्वक पालन किया है? तुम यदि इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके होंगे कि ईसाई धर्म का पालन करने के बाद भी तुम्हें शांति नहीं मिली, तो मेरे पास अवश्य आओ।'

हमारा दृष्टिकोण इस तरह का है। हमारा धर्म, धर्म -परिवर्तन न करने वाला धर्म है। धर्मान्तरण तो प्राय: राजनीतिक अथवा अन्य हेतु से कराये जाते हैं। इस तरह का धर्म-परिवर्तन हमें स्वीकार नहीं है। हम कहते हैं - 'यह सत्य है! तुम्हें जँचता हो तो स्वीकार करो अन्यथा छोड़ दो।'

दक्षिण की यात्रा के दौरान मदुराई में कुछ लोग मुझसे मिलने के लिये आये। मुस्लिम-समस्या पर वे मुझसे चर्चा करना चाहते थे। मैंने उनसे कहा - ''आप लोग मुझसे मिलने आये, मुझे बड़ा आनन्द हुआ। मुसलमानों के विषय में मेरा दृष्टिकोण उन्होंने जानना चाहा तो मैं उनसे बोला, '' यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि हम सबके पूर्वज एक ही हैं और हम सब उनके वंशज हैं। आप अपने-अपने धर्मों का प्रामाणिकता से पालन करें। परन्तु राष्ट्र के मामले में सबको एक होना चाहिए। राष्ट्रहित के लिए बाधाक सिध्द होने वाले अधिकारों और सहूलियतों की माँग बन्द होनी चाहिए।

हम हिन्दू हैं इसलिए हम विशेष सहूलियतों के अधिकारों की कभी बात नहीं करते। ऐसी स्थिति में कुछ लोग यदि कहने लगें कि 'हमें अलग होना है', 'हमें अलग प्रदेश चाहिए' तो यह कतई सहन नहीं होगा।

ऐसी बात नहीं कि यह प्रश्न केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच ही है। यह समस्या तो हिन्दुओं के बीच भी है। जैसे हिन्दू-समाज में जैन लोग हैं, तथाकथित अनुसूचित जातियाँ हैं। अनुसूचित जातियों में कुछ लोगों ने डा. अम्बेडकर के अनुयायी बन कर बौध्द धर्म ग्रहण किया। अब वे कहते हैं - 'हम अलग हैं।' अपने देश में अल्पसंख्यकों को कुछ विशेष राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं, इसलिए प्रत्येक गुट स्वयं को अल्पसंख्यक बताने का प्रयास कर रहा है तथा उसके आधार पर कुछ विशेष अधिकार और सहूलियतें माँग रहा है। इससे अपने देश के अनेक टुकड़े हो जायेंगे और सर्वनाश होगा। हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। कुछ जैन-मुनि मुझसे मिले। उन्होंने कहा, ''हम हिन्दू नहीं हैं। अगली जनगणना में, हम स्वयं को जैन के नाम दर्ज करायेंगे।'' मैंने कहा, ''आप आत्मघाती सपने देख रहे हो!'' अलगाव का अर्थ है देश का विभाजन और विभाजन का परिणाम होगा आत्मघात! सर्वनाश!!

जब प्रत्येक बात का विचार राजनीतिक स्वार्थ की दृष्टि से ही करने लगते हैं, तो अनेक भीषण समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। किन्तु इस स्वार्थ को अलग रखते ही अपना देश एक संघ बन सकता है। फिर हम सम्पूर्ण विश्व की चुनौती का सामना कर सकते हैं।

इस प्रकार के उत्तर की मैंने कभी अपेक्षा नहीं की थी। श्रीगुरुजी के व्यापक दृष्टिकोण को देख मैं विस्मय से विमुग्ध हो उठा। मेरे द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों में, श्रीगुरुजी ने देश की सभी समस्याओं का समावेश किया। साथ ही किया उसकी दुर्बलताओं का अचूक निर्देश। भारतीय मुसलमानों के बारे में श्रीगुरुजी ने ठीक-ठीक निदान किया और उस पर सुझाया अपना रामबाण उपाय भी।

प्रश्न : भौतिकवाद और विशेषतः मार्क्सवाद से अपने देश के लिए खतरा पैदा हो गया है। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास रखते हैं। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि दोनों मिलकर इस संकट का मुकाबला कर सकते हैं?
उत्तर : यही प्रश्न कश्मीर के एक सज्जन ने मुझसे किया था। उनका नाम सम्भवत: जागिर अली है। अलीगढ़ में मेरे एक मित्र अधिवक्ता श्री मिश्रीलाल के निवास स्थान पर वे मुझसे मिले। उन्होंने मुझसे कहा, ''नास्तिकता और माक्र्सवाद हम सभी पर अतिक्रमण हेतु प्रयत्नशील है। अत: ईश्वर पर विश्वास रखने वाले हम सभी को चाहिए कि हम सामूहिक रूप में इस खतरे का मुकाबला करें।''

मैंने कहा, ''मैं आपसे सहमत हूँ। परन्तु कठिनाई यह है कि हम सबने मानो ईश्वर की प्रतिमा के टुकड़े-टुकड़े कर डाले हैं और हरेक ने एक-एक टुकड़ा उठा लिया है। आप ईश्वर की ओर अलग दृष्टि से देखते हैं, ईसाई अलग दृष्टि से देखते हैं। बौध्द लोग तो कहते हैं कि ईश्वर तो है ही नहीं, जो कुछ है वह निर्वाण ही है, जैन लोग कहते हैं कि सब कुछ शून्याकार ही है। हममें से अनेक लोग राम, कृष्ण, शिव आदि के रूप में ईश्वर की उपासना करते हैं। इन सबको आप यह किस तरह कह सकेंगे कि एक ही सर्वमान्य ईश्वर को माना जाये। इसके लिए आपके पास क्या कोई उपाय है?''

मुझसे चर्चा करने वाले सज्जन सूफी थे। मेरी यह धारणा थी कि सूफी पंथी ईश्वरवादी और विचारशील हुआ करते हैं। मेरे प्रश्न का उन्होंने जो उत्तर दिया, उसे सुनकर आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे; क्योंकि उन्होंने कहा, 'तो फिर आप सब लोग इस्लाम ही क्यों नहीं स्वीकार कर लेते?''

मैंने कहा, ''फिर तो कुछ लोग कहेंगे कि ईसाई क्यों नहीं बन जाते? मेरे धर्म के प्रति मुझमें निष्ठा है इसलिए मैं यदि आपसे कहूँ कि आप हिन्दू क्यों नहीं बन जाते, तो? यानी समस्या जैसी की वैसी रह गयी। वह कभी हल नहीं होगी।''

इस पर उन्होंने मुझसे पूछा, ''तो फिर इस पर आपकी क्या राय है?''

मैं बोला, ''सभी अपने-अपने धर्म का पालन करें। एक ऐसा सर्वभूत तत्वज्ञान है, जो केवल हिंदुओं का या केवल मुसलमानों का ही हो ऐसी बात नहीं। इस तत्वज्ञान को आप अद्वैत कहें या और कुछ। यह तत्वज्ञान कहता है कि एक एकमेवाद्वितीय शक्ति है। वही सत्य है, वही आनन्द है, वही सृजन, रक्षण और संहारकर्ता है। अपनी ईश्वर की कल्पना उसी सत्य का सीमित रूप है। अन्तिम समय का यह मूलभूत रूप किसी धर्म विशेष का नहीं अपितु सर्वमान्य है। तो यही रूप हम सबको एकत्रित कर सकता है। सभी धर्म वस्तुत: ईश्वर की ही ओर उन्मुख करते हैं। अत: यह सत्य आप क्यों स्वीकार नहीं करते कि मुसलमान, ईसाई और हिंदुओं का परमात्मा एक ही है और हम सब उसके भक्त हैं। एक सूफी के रूप में तो आपको इसे स्वीकार करना चाहिए।''

इस पर उन जागिर अली महोदय के पास कोई उत्तर नहीं था। दुर्भाग्य उनसे हमारी बातचीत यहीं समाप्त हो गयी।

प्रश्न : हिन्दू और मुसलमान के बीच आपसी सद्भाव बहुत है, फिर भी समय-समय पर छोटे-बड़े झगड़े होते ही रहते हैं। इन झगड़ों को मिटाने के लिए आपकी राय में क्या किया जाना चाहिए?
उत्तर : अपने लेखों में इन झगड़ों का एक कारण आप हमेशा बताते हैं। वह कारण है - गाय। दुर्भाग्य से अपने लोग और राजनीतिक नेता भी इस कारण का विचार नहीं करते। परिणामत: देश के बहुसंख्यकों में कटुता की भावना उत्पन्न होती है। मेरी समझ में नहीं आता कि गोहत्या के विषय में इतना आग्रह क्यों है? इसके लिए कोई कारण दिखाई नहीं देता। इस्लाम धर्म गोहत्या का आदेश नहीं देता। पुराने जमाने में हिन्दुओं को अपमानित करने का वह एक तरीका रहा होगा। अब वह क्यों चलना चाहिए?

इसी प्रकार की अनेक छोटी-बड़ी बातें हैं। आपस के पर्वों-त्यौहारों में हम क्यों सम्मिलित न हों? होलिकोत्सव समाज के सभी स्तरों के लोगों को अत्यन्त उल्लासयुक्त वातावरण में एकत्रित करने वाला त्यौहार है। मान लीजिए कि इस त्यौहार के समय किसी मुस्लिम बन्धु पर कोई रंग उड़ा देता है, तो इतने मात्र से क्या कुरान की आज्ञाओं का उल्लंघन होता है? इन बातों की ओर एक सामाजिक व्यवहार के रूप में देखा जाना चाहिए। मैं आप पर रंग छिड़कूं, आप मुझ पर छिड़कें। हमारे लोग तो कितने ही वर्षों से मोहर्रम के सभी कार्यक्रमों में सम्मिलित होते आ रहे हैं। इतना ही नहीं तो अजमेर के उर्स जैसे कितने ही उत्सवों-त्यौहारों में मुसलमानों के साथ हमारे लोग भी उत्साहपूर्वक सम्मिलित होते हैं।

किन्तु हमारी सत्यनारायण की पूजा में हम यदि कुछ मुसलमान बंधुओं को आमंत्रित करें तो क्या होगा? आपको विदित होगा कि द्रमुक के लोग अपने मंत्रिमंडल के एक मुस्लिम मंत्री को रामेश्वरम के मंदिर में ले गये। मंदिर के अधिकारियों, पुजारियों और अन्य लोगों ने उक्त मंत्री का यथोचित मान-सम्मान किया किन्तु उसे जब मंदिर का प्रसाद दिया गया, तो उसने वह प्रसाद फेंक दिया। उसने ऐसा क्यों किया? प्रसाद ग्रहण करने मात्र से वह धर्मभ्रष्ट तो होने वाला नहीं था! इसी तरह की छोटी-छोटी बातें हैं। अत: पारस्परिक आदर की भावना उत्पन्न की जानी चाहिए।

हमें जो वृत्ति अर्थ प्रेत है, वह सहिष्णुता मात्र नहीं। अन्य लोग जो कुछ करते हैं उसे सहन करना सहिष्णुता है। परन्तु अन्य लोग जो कुछ करते हैं, उसके प्रति आदर भाव रखना सहिष्णुता से ऊँची बात है। इसी वृत्ति, इसी भावना को प्राधान्य दिया जाना चाहिए। हमें सबके विषय में आदर है। यही मानवता के लिए हितकर है। हमारा वाद सहिष्णुतावाद नहीं, अपितु सम्मानवाद है। दूसरों के मतों का आदर करना हम सीखें, तो सहिष्णुता स्वयमेव चली आएगी।


प्रश्न : हिन्दू और मुसलमान के बीच सामंजस्य स्थापित करने के कार्य के लिए आगे आने की योग्यता किसमें है? राजनीतिक नेता, शिक्षा शास्त्री या धार्मिक नेता में?
उत्तर : इस मामले में राजनीतिज्ञ का क्रम सबसे अंत में लगता है। धार्मिक नेताओं के विषय में भी यही कहना होगा। आज अपने देश में दोनों ही जातियों के धार्मिक नेता अत्यंत संकुचित मनोवृत्ति के हैं। इस काम के लिए नितांत अलग प्रकार के लोगों की आवश्यकता है, जो लोग धार्मिक तो हों किन्तु राजनीतिक नेतागिरी न करते हों और जिनके मन में समग्र राष्ट्र का ही विचार सदैव जागृत रहा हो, ऐसे लोग ही यह कार्य कर सकते हैं। धर्म के अधिष्ठान के बिना कुछ भी हासिल नहीं होगा। धार्मिकता होनी ही चाहिए। रामकृष्ण मिशन को ही लें। यह आश्रम व्यापक और सर्वसमावेशक धर्म-प्रचार का कार्य कर रहा है। अत: आज तो इसी दृष्टिकोण और वृत्ति की आवश्यकता है कि ईश्वरोपासना विषयक विभिन्न श्रद्धा को नष्ट न कर हम उनका आदर करें, उन्हें टिकाए रखें और उन्हें वृद्धि गत होने दें।

राजनीतिक नेताओं के जो खेल चलते हैं, उन्हीं से भेदभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। जातियों, पंथों पर तो वे जोर देते ही हैं, साथ ही भाषा, हिन्दू-मुस्लिम आदि भेद भी वे पैदा करते हैं। परिणामत: अपनी समस्याएँ अधिकाधिक जटिल होती जा रही हैं। जाति संबंधी समस्या के मामले में तो राजनीतिक नेता ही वास्तविक खलनायक हैं। दुर्भाग्य से राजनीतिक नेता ही आज जनता का नेता बन बैठा है, जब कि चाहिए तो यह था कि सच्चे विद्वान, सुशील और ईश्वर के परमभक्त महापुरुष जनता के नेता बनते। परन्तु इस दृष्टि से आज उनका कोई स्थान ही नहीं है। इसके विपरीत नेतृत्व आज राजनीतिक नेताओं के हाथों में है। जिनके हाथों में नेतृत्व है, वे राजनीतिक पशु बन गये हैं। अत: हमें लोगों को जागृत करना चाहिए।

दो दिन पूर्व ही मैंने प्रयाग में कहा कि लोगों को राजनीतिक नेताओं के पीछे नहीं जाना चाहिए, अपितु ऐसे सत्पुरुषों का अनुसरण करें, जो परमात्मा के चरणों में लीन हैं, जिनमें चारित्र्य है और जिनकी दृष्टि विशाल है।

प्रश्न : क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि जातीय सामंजस्य-निर्माण का उत्तरदायित्व, बहुसंख्य समाज के रूप में हिन्दुओं पर है?
उत्तर : हाँ, मुझे यही लगता है। परन्तु, कुछ कठिनाइयों का विचार किया जाना चाहिए। अपने नेतागण सम्पूर्ण दोष हिन्दुओं पर लाद कर मुसलमानों को दोषमुक्त कर देते हैं। इसके कारण जातीय उपद्रव कराने के लिए, अल्पसंख्यक समाज यानी मुस्लिमों को सब प्रकार का प्रोत्साहन मिलता है। इसलिए हमारा कहना है कि इस मामले में दोनों को अपनी जिम्मेदारियों का पालन करना चाहिए।

प्रश्न : आपकी राय में आपसी सामंजस्य की दिशा में तत्काल कौन-से कदम उठाए जाने चाहिए?
उत्तर : इस तरह से एकदम कुछ कहना कठिन है। बहुत ही कठिन है। फिर भी सोचा जा सकता है। व्यापक पैमाने पर धर्म की यथार्थ शिक्षा देना एक उपाय हो सकता है। आज जैसी राजनीतिक नेताओं द्वारा समर्थित धर्महीन शिक्षा नहीं, अपितु सच्चे अर्थ में धर्म-शिक्षा। लोगों को इस्लाम का, हिन्दू धर्म का ज्ञान कराए। सभी धर्म मनुष्य को महान, पवित्र और मंगलमय बनने की शिक्षा देते हैं, यह लोगों को सिखाया जाये।

दूसरा उपाय यह हो सकता है कि जैसा हमारा इतिहास है वैसा ही हम पढ़ाएँ। आज जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह विकृत रूप में पढ़ाया जाता है। मुस्लिमों ने इस देश पर आक्रमण किया हो तो वह हम स्पष्ट रूप से बताएँ। परन्तु साथ में यह भी बताएँ कि यह आक्रमण भूतकालीन है और विदेशियों ने किया है। मुसलमान यह कहें कि वे इस देश के मुसलमान हैं और ये आक्रमण उनकी विरासत नहीं है। परन्तु, जो सही है उसे पढ़ाने के स्थान पर जो असत्य है, विकृत है, वही आज पढ़ाया जाता है। सत्य बहुत दिनों तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। अन्तत: वह सामने आता ही है और उससे लोगों में दुर्भावना निर्माण होती है। इसलिए मैं कहता हूँ कि इतिहास जैसा है वैसा ही पढ़ाया जाये। अफजलखाँ को शिवाजी ने मारा है, तो वैसा ही बताओ। कहो कि एक विदेशी आक्रमक और एक राष्ट्रीय नेता के तनावपूर्ण सम्बन्धों के कारण यह घटना हुई। यह भी बतायें कि हम सब एक ही राष्ट्र हैं, इसलिए हमारी परम्परा अफजलखाँ की नहीं है। परन्तु यह कहने की हिम्मत कोई नहीं करता। इतिहास के विकृतिकरण को मैं अनेक बार धिक्कार चुका हूँ और आज भी ऐसे धिक्कारता हूँ।

प्रश्न : भारतीयकरण पर बहुत चर्चा हुई, भ्रम भी बहुत निर्माण हुए तो क्या आप बता सकेंगे कि ये भ्रम कैसे दूर किये जा सकेंगे?
उत्तर : भारतीयकरण की घोषणा जनसंघ द्वारा की गयी है। किन्तु इस मामले में सम्भ्रम क्यों होना चाहिए? भारतीयकरण का अर्थ सबको हिन्दू बनाना तो है नहीं? हम सभी को यह सत्य समझ लेना चाहिए कि हम इसी भूमि के पुत्र हैं। अत: इस विषय में अपनी निष्ठा अविचल रहना अनिवार्य है। हम सब एक ही मानव-समूह के अंग हैं, हम सबके पूर्वज एक ही हैं, इसलिए हम सबकी आकांक्षाएँ भी एक समान हैं - इसे समझना ही सही अर्थ में भारतीयकरण है।
भारतीयकरण का यह अर्थ नहीं कि कोई अपनी पूजा-पद्धति त्याग दें। यह बात हमने कभी नहीं कही और कभी कहेंगे भी नहीं। हमारी तो यह मान्यता है कि उपासना की एक ही पद्धति, सभी मानव जातियों के लिए सुविधाजनक नहीं।
श्री जिलानी : गुरुजी! आपकी बात सही है। बिलकुल सौ फीसदी सही है। अत: इस स्पष्टीकरण के लिए मैं आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ।
श्री गुरुजी : फिर भी, मुझे संदेह है कि ये बातें मैं सबके समक्ष स्पष्ट कर सकता हूँ या नहीं।
श्री जिलानी : कोई बात नहीं। आपने अपनी ओर से यह बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया है। कोई भी विचारशील और भला आदमी आपसे असहमत नहीं होगा। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि अपने देश का जातीय बेसुरापन समाप्त करने का उपाय ढूँढ़ने में आपको सहयोग दे सकें, ऐसे मुस्लिम नेताओं की और आपकी बैठक आयोजित करने का अब समय आ गया है? ऐसे नेताओं से भेंट करना क्या आप पसन्द करेंगे?

श्रीगुरुजी : केवल पसन्द ही नहीं करूँगा, मैं तो ऐसी भेंट का स्वागत करूंगा।

समाजवादी विचारक श्री जयप्रकाश नारायण

अपने बीच स्थित एक समाजवादी विचारक ने श्री गुरूजी के बारे जो कहा वह आप जानते ही है किन्‍तु एक और समाजवादी विचारक श्री जयप्रकाश नारायण जो भारतीय समाजवाद के पुरोधा माने जाते है उनके श्री गुरूजी के प्रति निम्‍न विचार थे, वे कहते है - पूज्य श्रीगुरुजी तपस्वी थे। उनक संपूर्ण जीवन तपोमय था। हमारे यहाँ सब आदर्शों में बड़ा आदर्श है त्याग का आदर्श। वे तो त्याग की साक्षात् मूर्ति ही थे। पूज्य महात्मा जी और उनसे पूर्व जन्मे देश के महापुरुषें की परंपरा में ही पूज्य गुरुजी का भी जीवन था। देश की इतनी बड़ी संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके एकमात्र नेता श्रीगुरुजी। उन्होंने सादगी का आदर्श नहीं छोड़ा, क्योंकि वे जानते थे कि सादगी का आदर्श छोड़ने का स्पष्ट अर्थ है, दूसरे सहस्रों गरीबों के मुँह की रोटी छीन लेना।

मैं अत्यन्त अस्वस्थ हूँ, अभी भी मेरी साँस फूल रही है। मैं कहीं आता-जाता नहीं। फिर भी मेरे मन में पूज्य गुरुजी के लिए जो भावना है, वह ऐसी है कि उसने मुझे इस बात के लिए इजाजत नहीं दी कि मैं यहाँ आने से अपने को रोक सकूँ। गुरुजी के असामान्य व्यक्तित्व का यह प्रमाण है कि आज यहाँ भिन्न-भिन्न दल और वर्गों के लोग उपस्थित हैं। मार्क्सवादी मित्र की बात सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई है। प्रदेश कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टी के किसी प्रतिनिधि का यहाँ नहीं होना, मुझे अखर रहा है। जब राष्ट्रपति श्री गिरि और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सबसे आगे बढ़कर अपना शोक संदेश भेजा था, तब उन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए था।

श्री पूज्य गुरुजी कर्मठता के मूर्तिमान रूप थे। कर्मठता की कमी है देश में। गुरुजी ने अपने जीवन में कर्मठता का जो आदर्श रखा है, वह अनुकरणीय है। समय-समय पर मेरा संघ के स्वयंसेवकों के साथ संबंध आता रहा है। अकाल के समय संघ के स्वयंसेवकों ने जो कार्य किया, वह 'अपूर्व' था। मैं जब भी उसका स्मरण करता हूँ, श्रद्धावनत हो जाता हूँ।

श्रीगुरुजी आध्यात्मिक विभूति थे। यह एक बड़ा बोध है कि हम भारतीय हैं, हमारी हजारों वर्ष पुरानी परंपरा है, भारत का निर्माण भारतीय आधार पर ही होगा। चाहे हम कितने ही 'माडर्न' क्यों न हो जाएँ। हम अमरीकी, फ्रेंच, इंग्लिश, जर्मन नहीं कहला सकते, हम भारतीय ही रहेंगे - यह 'बोध', जिसे सहस्रों नवयुवकों में जगाया था पूज्य गुरुजी ने। मैं आशा करता हूँ कि श्री बाला साहब देवरस पूज्य गुरुजी की परंपरा को निभाएँगे।

वरिष्‍ठ पत्रकार, सहित्‍यकार एवं व्‍यंगकार श्री खुसवंत सिंह

वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं व्यंग्यकार श्री खुशवंत सिंह श्री गुरु के बार मे क्या विचार थे - कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनको बिना समझे ही हम घृणा करने लगते हैं। इस प्रकार के लोगों में गुरु गोलवलकर मेरी सूची में सर्वप्रथम थे। सांप्रदायिक दंगों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की करतूतें, महात्मा गांधी की हत्या, भारत को धर्मनिरपेक्ष से हिन्दू राज्य बनाने के प्रयास आदि अनेक बातें थीं, जो मैंने सुन रखी थीं। फिर भी एक पत्रकार के नाते उनसे मिलने का मोह मैं टाल नहीं सका।

मेरी कल्पना थी कि उनसे मिलते समय मुझे गणवेशधारी स्वयंसेवकों के घेरे में से गुजरना होगा, किंतु ऐसा नहीं हुआ। इतना ही नहीं, मेरी समझ थी मेरी कार का नम्बर नोट करने वाला कोई मुफ्ती गुप्तचर भी वहाँ होगा, पर ऐसा भी कुछ नहीं था। जहां वे रुके थे, वह किसी मध्यम श्रेणी के परिवार का कमरा था। बाहर जूतों-चप्पलों की कतार लगी थी। वातावरण में व्याप्त अगरबत्ती की सुगंध से ऐसा लगता था, मानो कमरे में पूजा हो रही हो। भीतर के कमरों में महिलाओं की हलचलें हो रही थीं। बर्तनो और कप-सासरों की आवाज आ रही थी। मैं कमरे में पहुँचा। महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों की पद्धति के अनुसार शुभ्र-धवल धोती-कुर्ता पहने 10-12 व्यक्ति वहाँ बैठे थे।

65 के लगभग आयु, इकहरी देह, कंधों पर झूलती काली-घुंघराली केशराशि, मुखमुद्रा को आवृत करती उनकी मूँछें, विरल भूरी दाढ़ी, कभी लुप्त न होने वाली मुस्कान और चश्मे के भीतर से झांकते उनके काले चमकीले नेत्र। मुझे लगा कि वे भारतीय होची-मिन्ह ही हैं। उनकी छाती के कर्करोग पर अभी-अभी शल्यक्रिया हुई है, फिर भी वे पूर्ण स्वस्थ एवं प्रसन्नचित दिखाई दे रहे हैं।

गुरु होने के कारण शिष्यवत् चरणस्पर्श की वे मुझसे अपेक्षा करते हों, इस मान्यता से मैं झुका, परंतु उन्होंने मुझे वैसा करने का अवसर ही नहीं दिया। उन्होंने मेरे हाथ पकड़े, मुझे खींचकर अपने निकट बिठा लिया और कहा - 'आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई। बहुत दिनों से आपसे मिलने की इच्छा थी।' उनकी हिन्दी बड़ी शुध्द थी।
'मुझे भी! खासकर, जबसे मैंने आपका 'बंच आफ लेटर्स' पढ़ा', कुछ संकुचाते हुए मैंने कहा।
'बंच ऑफ थॉट्स' कहकर उन्होंने मेरी भूल सुधारी, किन्तु उस ग्रंथ पर मेरी राय जानने की उन्होंने कोई इच्छा व्यक्त नहीं की। मेरी एक हथेली को अपने हाथों में लेकर उसे सहलाते हुए वे मुझसे बोले - 'कहिए।'
मैं समझ नहीं पा रहा था कि प्रारंभ कहाँ से करूँ। मैंने कहा - 'सुना है, आप समाचार-पत्रीय प्रसिद्धि को टालते हैं और आपका संगठन गुप्त है।'
'यह सत्य है कि हमें प्रसिद्धि की चाह नहीं, किंतु गुप्तता की कोई बात ही नहीं। जो चाहे पूछें', उन्होंने उत्तर दिया।
इसी प्रकार विभिन्न विषयों पर परस्पर खुलकर बातचीत हुई।
मैं गुरुजी का आधे घंटे का समय ले चुका था। फिर भी उनमें किसी तरह की बेचैनी के चिन्ह दिखाई नहीं दिए। मै उनसे आज्ञा लेने लगा तो उन्होने हाथ पकडकर पैर छूने से रोक दिया।
'क्या मैं प्रभावित हुआ? मैं स्वीकार करता हूँ कि हाँ। उन्होंने मुझे अपना दृष्टिकोण स्वीकार कराने का कोई प्रयास नहीं किया, अपितु उन्होंने मेरे भीतर यह भावना निर्माण कर दी कि किसी भी बात को समझने-समझाने के लिए उनका हृदय खुला हुआ है। नागपुर आकर वस्तुस्थिति को स्वयं समझने का उनका निमंत्रण मैंने स्वीकार कर लिया है। हो सकता है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य बनाने के लिए मैं उनको मना सकूँगा और यह भी हो सकता है कि मेरी यह धारणा एक भोले-भाले सरदार जी जैसी हो।'  (साभार - श्री गुरुजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.)

श्रीगुरू जी के कार्यों का वर्णन करने के लिये अब मेरे पास न तो इतना समय है और न ही इतना सामर्थ कि मै उनके द्वारा किये गये अनंत कार्यों को वर्णन एवं टंकण कर सकूं। वे एक ऐसी मूर्ति मान व्‍यक्ति है। बस इतना जरूर है कि गुरूजी ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिये अपने प्राणों की तक की परवाह नहीं की।

शेष फिर जब क्योंकि गुरूजी कोई विषय नहीं पूरे के पूरे महाग्रंथ है जिन्ह पर जितना भी लिखा जाएगा वह कम होगा।


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शीर्षक आपके लिए छोड़ रहा हूँ




काफी कुछ सोच रहा हूँ कि क्या लिखूँ पर मन विचार तो बहुत आ रहे है, पर मै उन्‍हे कलम अपनी कलम रूपी चाकू और कागज रूपी पत्थर पर धार नहीं दे पा रहा हूँ। बहुत सी समस्या है, कभी इधर तो कभी उधर मन करता है सोचता हूँ कि मन को स्थिर करूँ पर यह बहुत चंचल मे एकाग्र नहीं हो पाता है।

जब कभी शीशे में अपने चेहरे को देखता हूँ तो लगता है कि क्‍या मै वही हूँ। पर अब मै वो नही हूँ। आज और तब में बहुत अंतर आ गया है। जब मै अपने बारे मे सोचता हूँ तो काफी निराशा होती है। लगता है कि काफी कुछ बदल गया है। पर मै गलत सोचता हूँ कुछ नही बदला मै ही बदल गया हूँ।

यह प्रश्‍न जब मै अपने आप से पूछता हूं कि क्या मै सही जा रहा हूँ तो अंतःकरण की आवाज़ कहती है नहीं तुम गलत दिशा में जा रहे हो। अब तुम वो नही हो जो पहले थे, पहले और अब मै तुममे काफी अंतर है। पहले के मुझमे एक विश्वास ढलकता था कि तुम यह कर सकते हो, पर अब ऐसा नहीं है कि मै ऐसा नही कर सकता हूँ पर करने के प्रति रुचि नहीं दिखता हूँ। जब मै पहले अपने आप को देखता हूँ तो एक विश्वास दिखता था प्रमेन्द्र मे पर अब नही लगता है। जब मै अपने आप को आकलन करता हूँ तो लगता है कि मै गलत दिशा मे जा रहा हूँ। जब से मै चिट्ठाकारी से जुड़ा हूँ तो लगता है कि मेरे जीवन के पिछले 8 माह के ग्राफ में सबसे ज्यादा अपने जीवन मे नही देखा। क्‍या मै वही हूँ जो 1997 में भारत के स्‍वर्ण जयंती पर होने वाली रेस में प्रथम दस मे आया था। क्या मै वही हूँ जो इलाहाबाद की 11 किमी दौड़ प्रतियोगिता में बिना किसी अभ्‍यास के प्रथम 50 में स्थान बनाया था क्या मै वही हूँ जो 12 कक्षा मे अपनी कक्षा में 800 मीटर दौ मे द्वितीय, सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता मे दो बार इलाहाबाद जिले मे प्रथम और सातवें स्थान पाया था, क्‍या मै वही हूँ जिसने पूर्व के ऑक्‍सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 15000 छात्र छात्राओं के मध्य 111वॉं स्थान पाया हुआ था, क्‍या मै वही हूँ जो एक मात्र ऐसा विद्यार्थी जिसने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग की ओर से आयोजित प्रतियोगिता में प्रथम वर्ष तथा द्वितीय वर्ष दोनों में वषों में विजेताओं में अपना स्थान बरकरार रखने में सफल था।

किन्तु अब देखता हूँ तो लगता है कि हाँ मुझमे ही कमी है कि मै अपने लक्ष्य से भटक रहा हूँ। कोई चीज़ एक सीमा तक ठीक लगती है, अति हमेशा हानिकारक होती है। आज तक मेरे घर में मैंने कुछ भी किया कभी किसी मेरे कुछ भी करने पर घर मे किसी ने किसी प्रकार की टोका टोकी नही किया। किन्तु जब मै अब कंप्यूटर पर बैठता हूँ तो लगभग सभी लोग इस पर नाराजगी व्यक्त करते है, हॉं और वे सही करते मै मानता हूँ।

अभी इतना ही अभी बहुत कुछ बाकी है ........................


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निबंध - भारत की वर्तमान दशा और विचार राष्‍ट्रवाद के परिपेक्ष मे



कितना घोर कलयुग आ गया है जिस देश का दिया खाते है, उसकी मान्यताओं को मानने में शर्म करते है। आज कल इस वामपंथियों के पास कोई काम नहीं है। जब चाहते है कांग्रेस के साथ वैलेंटाइन डे की डेट पर चले जाते है जब चुनाव आता है तो तलाक की अर्जी लगा देते है। क्या करे धोबी का कुत्ता न घर का घाट का ? कुत्ता भी इस वामपंथियों से अच्छा है जो कम से कम मालिक के नमक हरामी तो नहीं करता है।

ये वामपंथियों के पास कोई काम धाम नहीं है बस इनकी पूरी टीम आज कल यही देख रही है कि संघ के कार्यक्रमों मे कौन-कौन जा रहा है। अब यह ही देखिये भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान राहुल द्रविड़ ने हाल में ही नागपुर मे संघ द्वारा संचालित सरस्वती विद्या मंदिर के द्वारा आयोजित विद्यालय के सूर्य नमस्कार कार्यक्रम का उद्घाटन किया था। द्रविड़ ने दीप प्रज्वलित करने के बाद बच्चों से प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करते हुए कहा कि ‘सूर्य नमस्कार करने से शरीर पूरी तरह फिट रहता है।‘


इन वामपंथियों की तुच्छ मानसिकता यह है कि ये किसी को संघ के साथ पचा नहीं पाते है। दोष द्रविड़ के बयान में न था दोष उनके संघ के कार्यक्रम में शामिल होने तथा सूर्य नमस्कार के समर्थन करने का। अगर यही द्रविड़ खुले आम किसी वामपंथी सभा में होते तो गलत नहीं होता है अगर संघ की बात आती है तो यह गलत हो जाता है।

आजकल सरकार स्कूलों में भोग शिक्षा (सेक्स एजुकेशन) के कार्यक्रम चलाने जा रही है क्या यह हमारे परिवेश के लिये ठीक है। हाल में ही बाबा राम देव ने स्कूलों में सेक्स एजुकेशन का विरोध किया था। उनका कहना था कि आज पीढी के लिये भोग शिक्षा के अपेक्षा योग शिक्षा पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

क्या वास्तव मे हमारे स्कूलों में सेक्स शिक्षा की जरूरत है? इण्‍टर (12वी) की शिक्षा के पहले इस प्रकार शिक्षा की जरूरत तो मुझे नहीं लगती है क्योंकि हमारे देश वैवाहिक आयु 18-21 वर्ष है तो इससे पहले शिक्षा देने क्या औचित्य है ? आखिर हम बच्चों को इनके बारे में बात कर सिद्ध करना चाहते है। जिस समय पढ़ाई लिखाई और खेलकूद का माहौल होना चाहिए उस अवस्था में हम वयस्क श्रेणी की शिक्षा देने का प्रयास कर रहे है। हम पश्चात परम्पराओं का अनुकरण तो कर रहे है पर उनसे कोई सीख नहीं ले रहे है।

राहुल द्रविड़ के बारे किया गयी वामपंथियों की टिप्पणी उनकी विकृत मानसिकता की ओर इंगित करता है। इन को वामपंथियों भारत के अल्पसंख्यकों पर हो रहा अत्याचार तो दिखता है किन्तु भारत मे ही तथा भारत के बाहर हो रहे हिन्दुओं पर अत्याचार इन्हें नहीं दिखता। विदेशों में ख़ासकर वर्तमान मे कजाकिस्तान में हाल में ही एक हिन्दू मंदिर को तोड़ा गया तथा अब वहाँ रह रहे हिन्दुओं अपने भीषण ठंड में अपने घरों से बाहर निकाला जा रहा है। इस परिपेक्ष मे भारत सरकार की चुप्पी कहां तक उचित है? क्यों चुप है सेक्युलर पार्टियां ?

जब यही घटनाये भारत में होती है तो पूरा विश्व समुदाय हो हल्ला मचाता है, चाहे वह उड़ीसा के ग्राहम स्टेनस का मामला हो या गुजरात की घटनाऐ, भारत सरकार सफाई देती नहीं थकती किन्तु जब विदेशों में भरतवंशी के साथ यह घटनाऐ होती है तो हमारी मौन हो कर तमाशा देखती है। वह क्यों नहीं विश्व समुदाय के सामने अपना विरोध दर्ज करती है।

जब हमारी सरकार तथा वो पार्टियां भारत में ही जिनके वोटों से सत्ता रस का भोग करती है उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकती तो हम भारत के बाहर इन सत्ता के दलालों से क्या अपेक्षा रखे। जब ये हमारे हितों की रक्षा नहीं कर सकते, हमारे मान्यता मर्यादाओं की लाज की रक्षा नहीं कर सकते तो इन्हें सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है।



मै यहां बात हिन्दू और मुसलमानों की नहीं कर रहा हूँ, मैं बात भारतीयता की कर रहा हूँ। चाहे कोई भी हो चाहे हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई-जैन-बौद्ध किसी भी धर्म के व्यक्ति को अपने भारतीय होने पर गर्व होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि कोई हिंदू किसी मुस्लिम से ज्यादा बड़ा देश भक्त है। हमारे सामने कई उदाहरण है जब मुस्लिमों ने देश की रक्षा में अपना अमूल्य योगदान दिया है, और इसी कारण आज हमारा देश गर्व और सम्मान के साथ उन्हें याद भी करता है इस कारण से एनही कि वे मुस्लिम है इस कारण से कि वह जो अपने प्राणों का बलिदान किया वह एक सच्चा भारतीय था।

भारतीय मुस्लिम समाज आज अन्य विश्व के देशों के मुस्लिम राष्ट्रों से काफी पिछड़ा हुआ है। कारण यह नहीं है कि मुस्लिम आगे बढ़ना नहीं चाहते है कारण है कि उन्हें आगे बढ़ने नहीं देना चाहते है। जब पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे मुस्लिम राष्ट्रों के मुस्लिमों की सोच बदल रही है तो भारत के मुस्लिमों में क्यों नहीं। अभी हाल में ही बांग्लादेश में मुल्ला मौलवियों ने पोलियो तथा परिवार नियोजन के बारे लोगों से चर्चा की तो यह भारत में क्यों नहीं संभव है।


हाल के कुछ हफ्ते पहले ही किसी एक विधायक को आगरा के निकट हिन्दू यज्ञ में शामिल होने के कारण मुस्लिम धर्म से निकाल दिया गया। यह सोच कहाँ तक उचित है। तो ये मौलवियों भारत के महामहिम राष्ट्रपति जी को क्यों नहीं निकाल देते है जो हिन्दू पवित्र धर्म ग्रन्थ गीता का नियमित पाठ करते है। वे नहीं कर सकते है क्योंकि किसी साफ व्यक्तित्व को अगर दागदार करेंगे तो उनके ही धर्म के वे राष्ट्रवादी व्यक्ति इसका विरोध करेंगे। आगरा के विधायक की बात दब सकती है पर राष्ट्रपति पर की जाने वाली कार्यवाही, इनके आवाही-तवाही नियम कानून की धज्जियां उडा देंगे।

मैंने कभी बचपन में इस्लामिक राष्ट्र मालदीव के बारे में सुना था कि इस राष्ट्र में आप अपने साथ इस्लाम के अतिरिक्त किसी और धर्म के किसी भी प्रकार के धार्मिक चिन्ह या प्रतीक नहीं ले जा सकते है यह कितना सही है यह मुझे स्पष्ट ज्ञात नहीं अगर आप में से किसी को इस बात की जारी हो तो मेरी इस शंका का निवारण करें। जब मालदीव जैसा छोटा राष्ट्र अपने देश के मानव मूल्यों तथा आस्था को बरकरार रख सकता है। तो क्या भारत में वन्देमातरम, सूर्य नमस्कार, योग, वास्तु शास्त्र सहित वैदिक मान्यताओं का विरोध देश के साथ विश्वासघात नहीं है?


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अंग्रेजी कहावतें हिन्दी भावार्थ सहित English Proverbs with Hindi meanings



आम बोलचाल की भाषा में कहावतों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। आम लोगों के लिए अति उपयोगी तथ्यों को प्रकट करने वाले संक्षिप्त किंतु महत्वपूर्ण कथनों को कहावतें कहा जाता है। कहावतें प्रायः सांकेतिक रूप में होती हैं। थोड़े शब्दों में कहा जाये तो "जीवन के दीर्घकाल के अनुभवों को छोटे वाक्य में कहना ही कहावतें होती हैं।" जिस प्रकार से अलंकार काव्य के सौंदर्य को बढ़ा देता है उसी प्रकार कहावतों का प्रयोग भाषा के सौन्दर्य को बढ़ा देता है। बोलचाल की भाषा में कहावतों के प्रयोग से वक्ता के कथन के प्रभाव में वृद्धि होती है और साहित्यिक भाषा में कहावतों के प्रयोग से साहित्य की श्रीवृद्धि होती है। जिस भाषा में जितनी अधिक कहावतें होती हैं उस भाषा का मान उतना ही अधिक होता है। प्रायः एक भाषा के कहावतों को अन्य भाषाओं के द्वारा मूल या बदले हुए रूप में अपना भी लिया जाता है। कहावतों के मामले में अंग्रेजी भाषा भी अत्यंत सम्पन्न है तथा उनके हिन्दी भावार्थ भी रस प्रदान करते हैं।
कहावतों का प्रयोग हिंदी या अपनी मातृभाषा में आप हर दिन करते होंगे। इनकी खासियत यह होती है कि यह बड़ी-बड़ी से बड़ी बातों को सीधे एक वाक्य में समझा देती हैं और इंग्लिश में भी कई दिलचस्प कहावतें हैं। अगर आप इस भाषा पर अपनी पकड़ बनाना चाहते हैं तो जानें खूब प्रयोग में आने वाली इंग्लिश की कुछ कहावतों के बारे में :
  1. A Picture is Worth a thousand Words.
    चित्र संवेदनाओं को शब्दों से ज्यादा बेहतर तरीके से बता सकता है।
  2. Absence Makes the heart grow fonder.
    कभी-कभी दूरियाँ भी अच्छे रिश्तों के लिए जरूरी होती है। दूरियाँ लोगों को एक-दूसरे के और भी नज़दीक लाती हैं।
  3. Beggars Can't Be Choosers.
    अगर आपको किसी से मदद चाहिए तो उसके लिए आप अपनी शर्तें नहीं रख सकते हैं। आपको उसके कहे अनुसार ही काम करना होगा।
  4. The Grass is always Greener on the other side of the hill.
    लोग उन चीजों को ज्यादा बेहतर मानते हैं जो उनकी पहुंच से बाहर होती हैं।
  5. The Pen is Mightier than the Sword.
    किसी मुद्दे पर पूरी दुनिया को प्रभावित करने के लिए शब्द और विचार शारीरिक शक्ति और हथियारों से ज्यादा प्रभावी होते हैं।
  6. Thers's no Such thing as a Free Lunch.
    दुनिया में कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता। मुफ्त दी जाने वाली चीजों में हमेशा किसी न किसी का स्वार्थ छुपा हुआ रहता है।
  7. Too many Cooks Spoil the Broth.
    जब बहुत सारे लोग किसी एक मुद्दे पर अपनी राय रखने लगते हैं तो मामला और उलझ जाता है।
  8. When the Going gets Tough, the tough get going.
    जो लोग मजबूत इरादों वाले होते हैं वे विपरीत परिस्थितियों में हार नहीं मानते। वे चुनौतियों को स्वीकार करते हैं और कठिन परिश्रम से उनको परास्त भी करते हैं।
  9. You can't judge a book by its cover.
    कुछ चीजें जैसे दिखती हैं, वैसी होती नहीं हैं। इसलिए किसी भी चीज की बाहरी सजावट से उसके गुण व अवगुण नहीं देखे जा सकते हैं।
20 कहावतें
  • A rolling stone gathers no moss.
    लुढ़कते पत्थर का वजन नहीं होता।
  • A son is a son ’till he gets him a wife; a daughter’s a daughter all her life.
    पुत्र तभी तक पुत्र होता है जब तक कि उसका विवाह नहीं हो जाता किंतु पुत्री जीवन भर पुत्री ही रहती है।
  • Ability can take you to the top, but it takes character to keep you there.
    योग्यता आपको सफलता की ऊँचाई तक पहुँचाती है किंतु चरित्र आपको वहाँ बनाये रखती है।
  • Act today only tomorrow is too late.
    आज का काम कल पर नहीं छोड़ना चाहिये। (काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
  • Action is the proper fruit of knowledge.
    कर्म ही ज्ञान का सही प्रतिफल है।
  • Actions speak louder than words.
    शब्दों की अपेक्षा कर्म का अधिक प्रभाव होता है।
  • Advice most needed is least heeded.
    जब सलाह की सबसे अधिक जरूरत होती है तभी सबसे कम सलाह मिलती है।
  • After dinner sit a while, after supper walk a mile.
    मध्याह्न भोजन के बाद कुछ आराम करना चाहिए और रात्रि भोज के बाद एक मील तक टहलना चाहिये।
  • All the world is your country, to do good is your religion.
    सम्पूर्ण संसार आपका देश है और भले कार्य आपका धर्म।
  • All flowers are not in one garden.
    सारे फूल बगीचे में ही नहीं खिलते। (वीराने में भी फूल खिलते हैं।)
  • All roads lead to Rome.
    सभी रास्तों की मंजिल रोम है। (सौ सयानों का एक मत)
  • All’s fair in love and war.
    प्यार और जंग में सब जायज है।
  • All for one and one for all.
    एक के लिये सब और सब के लिये एक।
  • All’s well that ends well.
    अंत भला सो भला।
  • All that glisters is not gold.
    हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती।
  • All things come to him who waits.
    इंतजार का फल मीठा होता है।
  • An Englishman’s home is his castle.
    एक अंग्रेज का घर उसका किला होता है।
  • An empty vessel makes the most noise.
    खाली बर्तन अधिक आवाज करता है।
  • An ounce of prevention is worth a pound of cure.
    दवा से प्रभाव परहेज का होता है।
  • As iron sharpens iron, so one man sharpens another.
    जैसे लोहे में लोहा धार लगाता है वैसे ही मनुष्य ही मनुष्य को ज्ञानवान बनाता है।
  • As soon as a man is born, he begins to die.
    मृत्यु की शुरुआत मनुष्य के जन्म के साथ ही हो जाती है।
  • A journey of a thousand miles begins with one step.
    हजारों मील की यात्रा भी एक कदम से शुरू होती है।
  • A bad penny always turns up.
    खोटा सिक्का खोटा ही होता है।
  • A bean in liberty is better than a comfit in prison.
    सम्पन्नतायुक्त गुलामी से विपन्नता युक्त स्वतंत्रता बेहतर है।
  • A bellyful is one of meat, drink, or sorrow.
    एक पेट मांस-मदिरा से भरा होता है तो एक दुःखों से।
  • A big tree attracts the woodsman’s axe.
    एक बड़ा पेड़ सदा लकड़हारे की कुल्हाड़ी को आकर्षित करता है।
  • An apple a day keeps the doctor away.
    प्रतिदिन एक सेब खाना डॉक्टर से दूरी बनाए रहता है।
  • A bad workman always blames his tools.
    खराब कारीगर हमेशा हथियारों के दोष निकालता है।
  • A banker is someone who lends you an umbrella when the sun is shining, and who asks for it back when it starts to rain.
    बैंकर वो होता है जो कि साधारण धूप रहने के वक्त आपको छाता उधार दे और पानी बरसते वक्त वापस माँग ले।
  • A bird in the hand is worth two in the bush.
    झाड़ पर के दो पक्षियों से हाथ आया एक पक्षी कीमती होता है।
  • A chain is no stronger than its weakest link.
    कोई भी जंजीर अपने कमजोर कड़ी से अधिक मजबूत नहीं होती।
  • A constant guest never welcomes.
    हमेशा आने वाला मेहमान अपना सम्मान खो देता है।
  • A coward dies a thousand times before his death.
    कायर आदमी अपनी मौत से पहले हजारों बार मरता है।
  • A friend in need is a friend indeed.
    समय पर काम आने वाला ही सच्चा मित्र होता है।
  • A friend to all is a friend to none.
    जो सभी का मित्र होता है वह किसी का मित्र नहीं होता।
  • A good beginning makes a good ending.
    एक अच्छी शुरुआत आधी सफलता होती है।
  • A good man in an evil society seems the greatest villain of all.
    खराब समाज में अच्छा आदमी सबसे बड़ा खलनायक होता है।
  • A guilty conscience needs no accuser.
    भले आदमी को किसी पर दोष मढ़ने की आवश्यकता नहीं होती।
  • A half-truth is a whole lie.
    आधा सच पूरे झूठ के बराबर होता है।
  • A jack of all trades is master of none.
    जो सभी धंधों का गुलाम होता है वह किसी धंधे का मालिक नहीं होता।
  • A lie can be halfway around the world before the truth gets its boots on.
    सत्य से पराजित होने के पूर्व झूठ आधी दुनिया की यात्रा कर लेता है।
  • A little knowledge is a dangerous thing.
    अधूरा ज्ञान खतरनाक होता है। (नीम-हकीम खतरा-ए-जान।)
  • A loaded wagon makes no noise.
    अधजल गगरी छलकत जाये।
  • A miss by an inch is a miss by a mile.
    एक इंच की भूल अंततः एक मील की गलती साबित होती है।
  • A paragraph should be like a lady’s skirt: long enough to cover the essentials but short enough to keep it interesting.
    एक पैराग्राफ किसी महिला के स्कर्ट के जैसे होता है, इतना लंबा कि सभी आवश्यक बातें निहित हो जायें और इतना छोटा कि रोचक लगे।
  • A pot of milk is ruined by a drop of poison.
    एक बूंद विष बर्तन भर दूध को नष्ट कर देती है
  • Bad news travels fast.
    खराब समाचार तेजी से फैलता है।
  • Barking dogs seldom bite.
    भौंकने वाले कुत्ते शायद ही काटते हैं।
  • Before criticizing a man, walk a mile in his shoes.
    बगैर जांचे-परखे किसी की आलोचना नहीं करनी चाहिये।
  • Better to have it and not need it than to need it and not have it.
    आवश्यक वस्तुओं का न होना भी अनावश्यक वस्तुओं के होने से अधिक अच्छा है।
  • Better to remain silent and be thought a fool, than to open your mouth and remove all doubt.
    मौन रह कर मूर्ख समझा जाना अधिक अच्छा है बनिस्बत बोलकर समस्त संदेह मिटा देने के।
  • Better late than never.
    दुर्घटना से देर भली।
  • Better safe than sorry.
    बाद में दुखी होने से पहले की सुरक्षा अच्छी।
  • Better the devil you know (than the one you don’t).
    अनजान मित्र से जाना-पहचाना शत्रु अच्छा।
  • Bitter pills may have blessed effects.
    दवा कड़वी होती है पर उसका प्रभाव मीठा होता है।
  • Blood is thicker than water.
    खून पानी से गाढ़ा होता है।
  • Born with a silver spoon in his/her mouth.
  • मुँह में चांदी के चम्मच के साथ पैदा होना। (धनवान परिवार में जन्म होना।)
  • Brain is better than brawn.
    बाहुबल से बुद्धिबल बेहतर होता है।
  • Buy the best and you only cry once.
    सस्ता रोवे बार-बार, महंगा रोये एक बार।
  • Chance favours the prepared mind.
    मानसिक रूप से तैयार व्यक्ति को ही अवसर मिलता है।
  • Charity begins at home.
    चैरिटी की शुरुआत घर से होती है।
  • Clothes don’t make the man.
    कपड़े इंसान नहीं बनाते। (इंसान की पहचान कपड़ों से नहीं होती।)
  • Common sense ain’t common.
    सामान्य विवेक (ज्ञान) सामान्य नहीं होता।
  • Courtesy costs nothing.
    भद्रता की कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती।
  • Discretion is the better part of valor.
    विवेकाधिकार पराक्रम का बेहतर अंग है।
  • Do unto others as you would have done to you.
    दूसरों के लिये वही करो जो स्वयं के लिये करते हो।
  • Does life stop when a pen is out of ink.
    पेन में स्याही खत्म हो जाने से जीवन की गति नहीं रुकती।
  • Don’t bite the hand that feeds you.
    जिस हाथ से खाना खाते हो उसी हाथ को मत काटो। (अपने हाथों अपने पैर पर कुल्हाड़ी मत मारो।
  • Don’t count your chickens before they’re hatched.
    अंडे फूटने के पहले मुर्गियों की गिनती मत करो।
  • Don’t have too many irons in the fire.
    आग में बहुत अधिक लोहा मत डालो। (अपनी कूबत से अधिक जिम्मेदारी मत लो।)
  • Don’t judge a book by its cover.
    किसी पुस्तक का आकलन उसके जिल्द को देख कर मत करो।
  • Don’t put all your eggs in one basket.
    एक ही टोकरी में सारे अंडे मत रखो।
  • Don’t spit into the wind.
    हवा में मत थूको।
  • Don’t take life too seriously; you’ll never get out of it alive.
    जिंदगी को बहुत गंभीरता से मत लो, तुम कभी उससे जीवित नहीं निकल सकते। (ठिकाना पल भर का नहीं, सामान बरसों का।)
  • Dreams are not the ones which come when you sleep, but they are the ones which will not let you sleep.
    सपने वो नहीं होते जिन्हें आप सोते हुये देखते हैं बल्कि सपने वो होते हैं जो आपकी नींद गायब कर देते हैं।
  • Early to bed and early to rise, makes a man healthy, wealthy and wise.
    रात को जल्दी सोना और सुबह जल्दी उठना मनुष्य को स्वस्थ, धनी और बुद्धिमान बनाता है।
  • Enjoy what you don’t know.
    जो आप नहीं जानते, उसका भी आनंद लें। (अपनी अज्ञानता को स्वीकारें।)
  • Even a dog can distinguish between being stumbled over and being kicked.
    ठोकर लगने और लात खाने में क्या अंतर है यह एक कुत्ता भी जानता है।
  • Every dog has its day.
    कुत्ते का भी एक अपना दिन आता है। (घूरे के भी दिन बदलते हैं।)
  • Everyone wants to go to heaven, but no one wants to die.
    सभी स्वर्ग जाना चाहते हैं पर मरना कोई नहीं चाहता।
  • Empty vessels make most noise/sound.
    खाली बर्तन अधिक आवाज करते हैं।
  • Education is a progressive discovering of our own ignorance.
    शिक्षा अपने अज्ञान का क्रमिक खोज है।
  • Education makes machines which act like men and produces men who act like machines.
    शिक्षा ऐसे मशीन बनाती है जो मनुष्य के जैसे कार्य करते हैं और ऐसे मनुष्य बनाती है जो मशीन के जैसे कार्य करते हैं।
  • Every rose has its thorn.
    गुलाब के साथ कांटे भी होते हैं।
  • Everything with time.
    प्रत्येक वस्तु समय से बंधा होता है।
  • Failure is the stepping stone for success.
    असफलता सफलता की पहली कड़ी है।
  • Falling down does not signify failure but staying there does.
    असफलता की पहचान नीचे गिरना नहीं बल्कि नीचे गिरे रहना है।
  • Fine feathers make fine birds.
    पक्षियों की सुंदरता उनके पंखों की सुंदरता से होती है।
  • Fingers were invented before knives and forks.
    चाकू और चिमटी के पहले उंगलियों का आविष्कार हुआ।
  • First come, first served.
    पहले आओ, पहले पाओ।
  • First deserve, then desire.
    पहले योग्य बनो फिर कामना करो।
  • First things first.
    पहला काम पहले।
  • Fool me once, shame on you. Fool me twice, shame on me.
    तुमने यदि मुझे एक बार मूर्ख बनाया तो यह तुम्हारे लिये लज्जाजनक है किंतु तुमने मुझे दो बार मूर्ख बनाया तो वह मेरे लिये लज्जाजनक है।
  • Fortune favors the brave.
    साहसी व्यक्ति का भाग्य भी साथ देता है।
  • There are no facts; only interpretations of facts.
    संसार में सत्य कही नहीं है, केवल सत्य की विवेचना ही है।
  • Go with the flow.
    हवा के बहाव की दिशा में चलो। (जैसी चले बयार पीठ तैसी कर लीजे।)
  • Give and take is fair play.
    इस हाथ दे उस हाथ ले।
  • Give a man a fish and you feed him for a day; teach a man to fish and you feed him for a lifetime.
    यदि आप किसी को एक मछली देते हैं तो उसे एक दिन का खाना देते हैं पर यदि आप किसी को मछली पकड़ना सिखाते हैं तो उसे जीवन भर के लिये खाना देते हैं।
  • Give, and ye shall receive.
    दोगे तो पावोगे। (कुछ पाने के लिये कुछ खोना पड़ता है।)
  • Give him an inch and he’ll take a yard.
    तुम उसे एक ड़ंच दो, वह एक गज ले लेगा। (उंगली पकड़ कर पहुँचा पकड़ना।)
  • Good men are hard to find.
    भले लोग मुश्किल से मिलते हैं।
  • Give respect, take respect.
    सम्मान दो और सम्मान प्राप्त करो। (सम्मान पाने के लिये सम्मान देना भी पड़ता है।)
  • Half a loaf is better than none.
    कुछ भी न होने से आधी रोटी होना अच्छा है। (नहीं मामा से काना मामा अच्छा।)
  • Happy wife, happy life.
    पत्नी खुश तो जीवन खुश।
  • Haste makes waste.
    उतावलेपन से हानि होती है।
  • Health is better than wealth.
    स्वास्थ्य धन से बेहतर होता है।
  • He who fails to study the past is doomed to repeat it.
    जो अपने भूतकाल के अध्ययन में असफल होता है उसे दण्ड भुगतना पड़ता है।
  • He who hesitates is lost.
    दुविधा में रहने वाला कहीं का नहीं रहता। (दुविधा में दोऊ गये माया मिली ना राम।)
  • He who knows does not speak. He who speaks does not know.
    जानने वाला बोलता नहीं। बोलने वाला जानता नहीं।
  • He who will steal an egg will steal an ox.
    जो एक अंडा चुराता है वह एक बैल भी चुराता है।
  • He who lives by the sword dies by the sword.
    तलवार के बल पर जीने वाला तलवार से ही मरता है।
  • History repeats itself.
    इतिहास स्वयं को दुहराता है।
  • Home is where the heart is.
    जहाँ मन रमे वहीं घर है।
  • Honesty is the best policy.
    ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है।
  • Hope is life.
    आशा ही जीवन है।
  • t takes both rain and sunshine to make rainbows.
    इन्द्रधनुष बनने के लिये वर्षा और धूप दोनों का होना आवश्यक है।
  • Idle hands are the devil’s playthings.
    खाली दिमाग शैतान का घर।
  • If a job is worth doing it is worth doing well.
    यदि किसी कार्य को करना है तो उसे भली प्रकार से करो।
  • If at first you don’t succeed, try, try again.
    एक बार में सफलता न मिले तो बार बार प्रयास करो।
  • If it’s too good to be true, then it probably is.
    यदि कोई बात इतनी अच्छी हो कि लगे कि यह सच नहीं है तो वह प्रायः सच बात नहीं होती।
  • If life gives you lemons, make lemonade.
    यदि जीवन तुम्हें नींबू देता है तो तुम उसे शरबत बना लो। (खट्ट को मीठा बना लो।)
  • If the mountain won’t come to Muhammad, Muhammad must go to the mountain.
    कुँआ प्यासे के पास नहीं आता, प्यासे को कुएँ के पास जाना पड़ता है।
  • If wishes were horses, beggars would ride.
    यदि अभिलाषाएँ घोड़े होतीं तो भिखारी सवारी करते। (बिना परिश्रम इच्छाएँ पूरी नहीं हो सकतीं।)
  • If loving her would be a sin, I wish to sin for the rest of my life.
    यदि प्यार करना पाप है तो मैं जीवन भर पाप करना चाहूँगा।
  • If you buy quality, you only cry once.
    सस्ता रोवे बार बार महंगा रोये एक बार।
  • If you can’t beat them, join them.
    किसी से जीत नहीं सकते तो उससे समझौता कर लो।
  • If you can’t be good, be careful.
    यदि अच्छा नहीं बन सकते तो सावधान बनो।
  • If you don’t buy a ticket, you can’t win the raffle.
    यदि तुम टिकट नहीं खरीद सकते तो लाटरी भी नहीं जीत सकते।
  • If you don’t have anything nice to say, don’t say anything at all!
    यदि कुछ अच्छी बात नहीं कह सकते तो बुरी बात भी मत बोलो।
  • If you want a thing done right, do it yourself.
    यदि चाहते हो कि काम सही ढंग से हो तो उसे स्वयं करो।
  • If you want to judge a man’s character, give him power.
    किसी के चरित्र के बारे में जानना है तो उसे अधिकार दे कर देखो।
  • If you’re not part of the solution, you’re part of the problem.
    यदि तुम समस्या के समाधान का अंग नहीं हो तो समस्या का अंग हो।
  • In the land of the blind, the one-eyed man is king.
    अंधों में काना राजा।
  • It’s always darkest before the dawn.
    उषाकाल के पहले अंधेरा गहनतम हो जाता है।
  • Jack is as good as his master.
    दास उतना ही अच्छा होता है जितना कि उसका स्वामी।
  • Jack of all trades; master of none.
    सभी धंधों का गुलाम किसी धंधे का मालिक नहीं होता।
  • Keep your friends close and your enemies closer.
    मित्रों को नजदीक और शत्रुओं को उनसे भी नजदीक रखो।
  • Keep your mouth shut and let others think you are stupid, rather then open your mouth and give evidence of the same.
    मुँह खोल कर अपनी मूर्खता जताने के बजाय मुँह बन्द रख कर लोगों को सोचने दो कि तुम मूर्ख हो या नहीं।
  • Knowledge is power.
    ज्ञान ही शक्ति है।
  • Laughter is the best medicine.
    हँसी सबसे बड़ी औषधि है।
  • Laughter is the shortest distance between two people.
    हँसी दो व्यक्तियों के मध्य न्यूनतम दूरी है।
  • Lead to Success, Follow to Failure.
    सफल होना है तो अग्रणी बनो। असफल होना है तो पीछे चलो।
  • Learn to walk before you run.
    दौड़ने से पहले चलना सीखो।
  • Least said sooner mended.
    कम बोलने वाले जल्दी उन्नति करते हैं।
  • Leave it alone and it will grow on its own.
    किसी को आगे बढ़ाना है तो उसे अकेला छोड़ दो।
  • Let him who is without sin cast the first stone.
    जिसने कभी पाप न किया हो वह पहला पत्थर मारे।
  • Lie down with dogs, wake up with fleas.
    कुत्ते के साथ सोवो, पिस्सू के साथ उठो।
  • Life begins at forty.
    जीवन का आरम्भ चालीसवें वर्ष में होता है।
  • Like father like son.
    जैसा बाप वैसा बेटा।
  • Little enemies and little wounds must not be despised.
    छोटे शत्रु और छोटी आँधी को तुच्छ नहीं समझना चाहिये।
  • Live and let Live.
    जियो और जीने दो।
  • Look on the sunny side of life.
    जीवन के उजले पक्ष को देखो।
  • Love is a bridge between two hearts.
    प्यार दो दिलों के बीच पुल होता है।
  • Love is blind.
    प्यार अंधा होता है।
  • Man is truly himself when he’s alone.
    जब व्यक्ति अकेला होता है तो सही तौर से अपने आप में होता है।
  • Man wasn’t Born to suffer but to carry on.
    मनुष्य की उत्पत्ति कष्ट सहने के लिये नहीं बल्कि आगे बढ़ने के लिये हुई है।
  • Many hands make light work.
    कई हाथ मिलकर काम को आसान बना देते हैं।
  • Measure twice, cut once.
    काटने के पहले दो बार नापो।
  • Mirrors do everything we do, but they cannot think for themselves.
    आईना हर वो काम करता है जो हम करते हैं किंतु वह सोच नहीं सकता।
  • Misery loves company.
    दुर्भाग्य साथ देने को पसंद करता है।
  • Missing the wood for the trees.
    एक पेड़ के लिये पूरा जंगल मत गवाँवो।
  • Money makes the world go around.
    धन पूरी दुनिया को घुमाता है।
  • Money talks.
    धन बोलता है।
  • Money cannot buy happiness.
    धन से खुशी नहीं खरीदी जा सकती।
  • Money cant buy everything, but everything needs money.
    धन से प्रत्येक वस्तु नहीं खरीदी जा सकती किन्तु प्रत्येक वस्तु के लिये धन की आवश्यकता होती है।
  • Nature, time, and patience are three great physicians.
    प्रकृति, समय और धीरज सबसे अच्छे चिकित्सक हैं।
  • Necessity is the mother of all invention.
    आवश्यकता आविष्कार की जननी है।
  • Never judge the book by its cover.
    किसी पुस्तक का आकलन कभी भी उसकी जिल्द देख कर मत करो।
  • Never put off till (until) tomorrow what you can do today.
    आज का काम कल पर मत छोड़ो।
  • Never let the right hand know what the left hand is doing.
    बायां हाथ क्या कर रहा है यह दाया हाथ को कभी मत जानने दो।
  • Never lie to your Doctor.
    अपने डॉक्टर से कभी झूठ मत बोलो।
  • Never lie to your lawyer.
    अपने वकील से कभी झूठ मत बोलो।
  • No money, no justice.
    धन नहीं है तो न्याय भी नहीं है।
  • Once in a lifetime comes often, so be prepared.
    प्रायः अवसर “जीवन में केवल एक बार” अक्सर आते हैं, अतः तैयार रहो।
  • One murder makes a villain, millions a hero.
    एक हत्या खलनायक बनाता है और लाखों हत्या नायक।
  • Only losers say “Winning isn’t everything.
    ”सिर्फ हारने वाले कहते हैं “जीत ही सब कुछ नहीं है”।
  • Only the good die young.
    जवानी में मृत्यु सिर्फ अच्छे लोगों की होती है।
  • Opportunity is waiting you need but to open the door.
    अवसर आपकी प्रतीक्षा में हैं सिर्फ आपको दरवाज़ा खोलना है
  • Opportunity knocks only once.
    अवसर सिर्फ एक बार दरवाजा खटखटाता है।
  • Our greatest glory is not in never falling but in rising everytime we fall.
    कभी भी न गिरना विशेष गौरव की बात नहीं है बल्कि प्रत्येक बार गिर कर संभलना विशेष गौरव की बात है।
  • Our costliest expenditure is time.
    समय खर्च करना सबसे महंगा खर्च करना है।
  • Patience is a virtue.
    धैर्य एक गुण है।
  • (The) pen is mightier than the sword.
    तलवार की ताकत से बड़ी कलम की ताकत होती है।
  • People who live in glass houses shouldn’t throw stones.
    शीशे के घरों में रहने वाले दूसरों के घर में पत्थर नहीं फेंका करते।
  • Practice before you preach.
    उपदेश देने के पहले अभ्यास (उस पर स्वयं अमल) करो। (पर उपदेश कुशल बहुतेरे।)
  • Practice makes perfect.
    अभ्यास पूर्णता देता है। (करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।)
  • practice may make perfect, but nobody’s perfect so why practice.
    अभ्यास पूर्ण बना सकता है किंतु संसार में कोई भी पूर्ण नहीं है तो फिर अभ्यास की क्या आवश्यकता है?
  • Prior preparation prevents poor performance.
    पूर्व तैयारियां खराब कार्य निष्पादन से बचाव करती हैं।
  • Proverbs are long life experiences, told in one short sentence.
    जीवन के दीर्घकाल के अनुभवों को छोटे वाक्य में कहना ही कहावतें होती हैं।
  • Politeness cost nothing and gains everything.
    नम्रता के लिये कुछ भी कीमत नहीं चुकानी पड़ती किंतु उससे सभी वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं।
  • The key to all action lies in belief.
    विश्वास फलदायी होता है। (विश्वासं फलदायकम्।)
  • The only stupid question is the one that is not asked.
    मूर्खतापूर्ण प्रश्न वे होते हैं जो पूछे ही नहीं जाते।
  • The road to hell is paved with good intentions.
    नर्क में ले जाने वाली सड़क इरादाओं के ईंटों से बनी होती है।
  • There are no endings only new beginnings.
    अंत कहीं नहीं है, सिर्फ शुरुआत है।
  • There are no small parts, only small actors.
    चरित्र छोटा नहीं होता, अभिनेता छोटे होते हैं।
  • There’s always a calm before a storm.
    तूफान के पहले हमेशा शांति होती है।
  • There’s no place like home.
    घर जैसा कोई स्थान नहीं होता।
  • There’s no time like the present.
    वर्तमान से अच्छा कोई समय नहीं होता।
  • Think before you speak.
    बोलने के पहले सोचो।
  • Time and tide waits no man.
    समय और ऋतुएँ प्रतीक्षा नहीं करती।
  • To err is human; to forgive, divine.
    मनुष्य गलतियों का पुतला है; क्षमा देवत्व है।
  • Too much of one thing, good for nothing.
    अति किसी बात की अच्छी नहीं होती।
  • Trouble shared is trouble halved.
    दुःख को बाँटने से आधा हो जाता है।
  • Truth will out.
    सत्य हमेशा सामने आ जाता है।
  • Two’s company; three’s a crowd.
    दो का साथ साथ होता है, तीन का साथ भीड़ होती है।
  • Two heads are better than one.
    एक से भले दो।
  • The greatest pleasure in life is doing what people say you cannot do..
    जीवन में सबसे अधिक आनंद तब मिलता है जब आप उस कार्य को करते हैं जिसके विषय में लोग कहते हैं कि आप कर ही नहीं सकते।
  • The whole dignity of man lies in the power of thought.
    मनुष्य का पूर्ण गौरव उसके विचारों की शक्ति में निहित होता है।
  • Someone who gossips to you will gossip about you.
    जो आपके समक्ष किसी अन्य के विषय में अफवाह सुनाता है वह अन्य के समक्ष आपके विषय में भी अफवाह सुनाता है।
  • Same meat, different gravy.
    मांस वही रहता है ग्रेव्ही दूसरी होती है।
  • Same trouble, different day.
    दिन बदल जाता है समस्या वही रहती है।
  • Seek and ye shall find.
    ढूंढोगे तो पाओगे।
  • Say something nice or say nothing at all.
    या कुछ अच्छा कहो या फिर कुछ मत कहो।
  • Self trust is the first secret of success.
    स्वयं पर विश्वास सफलता का पहला रहस्य है।
  • Simple minds think alike.
    सामान्य बुद्धि के लोग एक जैसे सोचते हैं। (सौ सयानों का एक मत।)
  • Smile, and the world smiles with you; cry, and you cry alone.
    मुस्कुराओगे तो तुम्हारे साथ संसार भी मुस्कुराएगा। रोओगे तो तुम्हारे साथ कोई भी नहीं रोयेगा।
  • Speak of the devil and he’s sure to appear.
    शैतान का नाम लो, शैतान हाजिर।
  • Stolen fruit is the sweetest.
    चोरी किया गया फल सबसे मीठा होता है।
  • Strike while the iron is hot.
    चोट तब करो जब लोहा गरम हो।
  • Success is a journey not a destination.
    सफलता एक यात्रा है, मंजिल नहीं।
  • The ball is in your court.
    गेंद आपके पाले में है।
  • The calm comes before the storm.
    तूफान के पहले शांति आती है।
  • The customer is always right.
    ग्राहक हमेशा सही होता है।
  • The weak can never forgive. Forgiveness is the attribute of the strong.
    कमजोर कभी क्षमा नहीं कर सकते. क्षमा शक्तिशाली का धर्म होता है।
  • You can kill two birds with one stone.
    एक तीर से दो शिकार।
  • You are responsible for you.
    अपने लिये तुम स्बयं जिम्मेदार हो।
  • You can lead a horse to water but you can’t make him drink.
    घोड़े को पानी तक ले जा सकते हो पर उसे पानी पीने के लिये विवश नहीं कर सकते।
  • You can’t have it both ways.
    माया और राम दोनों एक साथ नहीं मिलते।
  • You can’t make an omelette without breaking eggs.
    अंडे को तोड़े बिना आमलेट नहीं बनाया जा सकता।
  • You can’t teach an old dog new tricks.
    बूढ़े कुत्ते को नई चालें नहीं सिखा सकते। (बूढ़े तोते को राम राम कहना नहीं सिखा सकते।)
  • You don’t have to be different to be good. You have to be good to be different.
    अच्छा होने के लिए अलग पहचान बनाना नहीं पड़ता बल्कि अलग पहचान बनाने के लिए अच्छा बनना होता है।
  • You have to crawl before you can walk.
    चलना सीखने के पहले घुटनों के बल चलना सीखना पड़ता है।
  • You must never confuse your feelings with your duties.
    कर्तव्य और कामना मे बीच कभी भी भ्रम मत पालो।
  • You need to bait the hook to catch the fish.
    मछली पकड़ना है तो चारा डालना ही पड़ेगा।
  • You win some, you lose some.
    कभी जीत तो कभी हार।
  • We can’t always build the future for our youth, but we can build our youth for the future.
    हम हमेशा अपने बच्चों का भविष्य नहीं बना सकते किंतु हमें अपने बच्चों को भविष्य के लायक बना सकते हैं।
  • Well begun is half done.
    अच्छी शुरुआत आधी सफलता होती है।
  • “Well done” is better than “well said”.
    “अच्छा कहने” से “अच्छा करना” बेहतर है।
  • What goes up must come down.
    जो ऊपर जाता है वह नीचे अवश्य आता है। (उत्थान के बाद पतन और पतन के बाद उत्थान निश्चित है।)
  • When in Rome, do as the Romans do.
    यदि रोम में हो तो रोमनों के जैसे कार्य करो। (जैसा देश वैसा भेष।)
  • When one door closes, another door opens.
    एक दरवाजा बंद होता है तो दूसरा दरवाजा खुलता है।
  • Where there’s a will, there’s a way.
    जहाँ चाह है वहाँ राह है।
  • Why buy the cow when you can get the milk for free?
    यदि दूध मुफ्त में पा सकते हो तो गाय पालने की क्या जरूरत?
  • Winning isn’t everything.
    जीत ही सब कुछ नहीं है।
  • Winning is earning. Losing is learning.
    जीत आमदनी है और हार सबक।
  • We ourselves feel that what we are doing is just a drop in the ocean,but the ocean would be less without that drop.
    हम अनुभव करते हैं कि जो कुछ भी हम कर रहे हैं वह समुद्र में एक बूंद जैसा है किन्तु उस बूंद के बिना समुद्र भी छोटा है।
  • Words uttered only causes confusion. Words written only causes history.
    बोला गया शब्द भ्रम उत्पन्न करता है। लिखा गया शब्द इतिहास बनाता है।
  • Working hard or hardly working?
    “मुश्किल कार्य” या “मुश्किल से कार्य”?
  • Worship the Creator not His creation.
    रचयिता की पूजा करो, रचना की नहीं।


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राजस्थान का इतिहास एक परिचय



Rajasthan
राजस्थान का इतिहास एक परिचय

राजस्थान का इतिहास हमारी गौरवमयी धरोहर है, जिसमें विविधता के साथ निरन्तरता है। परम्पराओं और बहुरंगी सांस्कृतिक विशेषताओं से ओत-प्रोत राजस्थान एक ऐसा प्रदेश है, जहाँ की मिट्टी का कण-कण यहाँ के रण बांकुरों की विजय गाथा बयान करता है। यहाँ के शासकों ने मातृभूमि की रक्षा हेतु सहर्ष अपने प्राणों की आहुति दी। कहते हैं राजस्थान के पत्थर भी अपना इतिहास बोलते हैं। यहाँ पुरा सम्पदा का अकूत खजाना है। कहीं पर प्रागैतिहासिक शैल चित्रों की छटा है तो कहीं प्राचीन संस्कृतियों के प्रमाण हैं। कहीं प्रस्तर प्रतिमाओं का शैल्पिक प्रतिमान तो कहीं शिलालेखों के रूप में पाषाणों पर उत्कीर्ण गौरवशाली इतिहास। कहीं समय का ऐतिहासिक बखान करते प्राचीन सिक्के तो कहीं वास्तुकला के उत्कृष्ट प्रतीक। उपासना स्थल, भव्य प्रसाद, अभेद्य दुर्ग एवं जीवंत स्मारकों का संगम आदि राजस्थान के कस्बों, शहरों एवं उजड़ी बस्तियों में देखने को मिलता है। राजस्थान के बारे में यह सोचना गलत होगा कि यहाँ की धरती केवल रणक्षेत्र रही है। सच तो यह है कि यहाँ तलवारों की झंकार के साथ भक्ति और आध्यात्मिकता का मधुर संगीत सुनने को मिलता है। लोकपरक सांस्कृतिक चेतना अत्यन्त गहरी है। मेले एवं त्योहार यहाँ के लोगों के मन में रचे -बसे हैं। लोक नृत्य एवं लोकगीत राजस्थानी संस्कृति के संवाहक हैं। राजस्थानी चित्र शैलियों में श्रृंगार सौन्दर्य के साथ लौकिक जीवन की भी सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।

राजस्थान की यह मरुभूमि प्राचीन सभ्यताओं की जन्म स्थली रही है। यहाँ कालीबंगा, आहड़, बैराठ, बागौर, गणेश्वर जैसी अनेक पाषाण कालीन, सिन्धु कालीन और ताम्र कालीन सभ्यताओं का विकास हुआ, जो राजस्थान के इतिहास की प्राचीनता सिद्ध करती है। इन सभ्यता-स्थलों में विकसित मानव बस्तियों के प्रमाण मिलते हैं। यहाँ बागौर जैसे स्थल मध्य पाषाणकालीन और नवपाषाण कालीन इतिहास की उपस्थिति प्रस्तुत करते हैं। कालीबंगा जैसे विकसित सिंधु कालीन स्थल का विकास यहीं पर हुआ वहीं आहड़, गणेश्वर जैसी प्राचीनतम ताम्र कालीन सभ्यताएँ भी पनपीं।

आर्य और राजस्थान
मरुधरा की सरस्वती और दृशद्वती जैसी नदियाँ आर्यों की प्राचीन बस्तियों की शरणस्थली रही है। ऐसा माना जाता है कि यहीं से आर्य बस्तियाँ कालान्तर में दोआब आदि स्थानों की ओर बढ़ी। इन्द्र और सोम की अर्चना में मंत्रों की रचना, यज्ञ की महत्ता की स्वीकृति और जीवन-मुक्ति का ज्ञान आर्यों को सम्भवतः इन्हीं नदी घाटियों में निवास करते हुए हुआ था। महाभारत तथा पौराणिक गाथाओं से प्रतीत होता है, कि जांगल (बीकानेर), मरुकान्तार (मारवाड़) आदि भागों से बलराम और कृष्ण गुजरे थे, जो आर्यों की यादव शाखा से सम्बन्धित थे।

राजस्थान और प्रस्तर युग
राजस्थान में आदि मानव का प्रादुर्भाव कब और कहाँ हुआ अथवा उसके क्या क्रियाकलाप थे, इससे संबंधित समसामयिक लिखित इतिहास उपलब्ध नहीं है, परन्तु प्राचीन प्रस्‍तर-युग के अवशेष अजमेर, अलवर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, जयपुर, जालौर,पाली, टांक आदि क्षेत्रों की नदियां अथवा उनकी सहायक नदियों के किनारों से प्राप्त हुये हैं। चित्तौड़ और इसके पूर्व की ओर तो औजारों की उपलब्धि इतनी अधिक है कि ऐसा अनुमान किया जाता है कि यह क्षेत्र इस काल के उपकरणों का बनाने का प्रमुख केन्द्र रहा हो। लूनी नदी के तटों में भी प्रारम्भिक कालीन उपकरण प्राप्त हुये हैं। राजस्थान में मानव विकास की दूसरी सीढ़ी मध्य पाषाण एवं नवीन पाषाण युग है। आज से हजारों वर्षों से पर्व लगातार इस युग की संस्कृति विकसित होती रही। इस काल के उपकरणों की उपलब्धि पश्चिमी राजस्थान में लनी तथा उसकी सहायक नदियाँ की घाटियां व दक्षिणी-पर्वी राजस्थान में चित्तौड़ जिले में बेड़च और उसकी सहायक नदियाँ की घाटियों में प्रचुर मात्रा में हुई है। बागौर और तिलवाड़ा के उत्खनन से नवीन पाषाण कालीन तकनीकी उन्नति पर अच्छा प्रकाश पड़ा है। इनके अतिरिक्त अजमेर, नागौर, सीकर, झुंझुनूं, कोटा, टांक आदि स्थानों से भी नवीन पाषाण कालीन उपकरण प्राप्त हुए हैं। नवीन पाषाण युग में कई हजार वर्ष गुजरने के पश्चात मनुष्य का धीरे-धीरे धातुओं का ज्ञान हुआ। आज से लगभग 6000 वर्ष पहले धातुओं के युग को स्थापित किया जाता है, परन्तु समयान्तर में जब ताँबा और पीतल, लोहा आदि का उसे ज्ञान हुआ तो उनका उपयोग औजार बनाने के लिए किया गया। इस प्रकार धातु युग की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि कृषि और शिल्प आदि कार्यों का सम्पादन मानव के लिए अब अधिक सुगम हो गया और धातु से बने उपकरणों से वह अपना कार्य अच्छी तरह से करने लगा।

कालीबंगा - यह सभ्यता स्थल वर्तमान हनुमानगढ़ जिले में सरस्वती-दृशद्वती नदियां के तट पर बसा हुआ था, जो 2400-2250 ई. प. की संस्कृति की उपस्थिति का प्रमाण है। कालीबंगा में मुख्य रूप से नगर योजना के दो टीले प्राप्त हुये हैं। इनमें पूर्वी टीला नगर टीला है, जहाँ से साधारण बस्ती के साक्ष्य मिले हैं। पश्चिमी टीला दुर्ग टीले के रूप में है, जिसके चारों ओर सुरक्षा प्राचीर है। दोनों टीलों के चारों ओर भी सुरक्षा प्राचीर बनी हुई थी। कालीबंगा से पूर्व-हड़प्पा कालीन, हड़प्पा कालीन और उत्तर हड़प्पा कालीन साक्ष्य मिले है। इस पर्व-हड़प्पाकालीन स्थल से जुते हुए खत के साक्ष्य मिले हैं, जो संसार में प्राचीनतम हैं। पत्थर के अभाव के कारण दीवार कच्ची ईंटों से बनती थी और इन्हें मिट्टी से जोड़ा जाता था। व्यक्तिगत और सार्वजनिक नालियाँ तथा कूड़ा डालने के मिट्टी के बर्तन नगर की सफाई की असाधारण व्यवस्था के अंग थे। वर्तमान में यहाँ घग्गर नदी बहती है जो प्राचीन काल में सरस्वती के नाम से जानी जाती थी। यहाँ से धार्मिक प्रमाण के रूप में अग्निवेदियों के साक्ष्य मिले है। यहाँ संभवतः धूप में पकाई गई ईंटों का प्रयोग किया जाता था। यहाँ से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों और मुहरों पर जो लिपि अंकित पाई गई है,वह सैन्धव लिपि से मिलती-जुलती है, जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जो सका है। कालीबंगा से पानी के निकास के लिए लकड़ी व ईंटों की नालियाँ बनी हुई मिली हैं। ताम्र से बन कृषि के कई औजार भी यहाँ की आर्थिक उन्नति के परिचायक हैं। कालीबगा की नगर योजना सिन्धु घाटी की नगर योजना के अनुरूप दिखाई देती है। कालीबंगा के निवासियों की मृतक के प्रति श्रद्धा तथा धार्मिक भावनाओं का व्यक्त करने वाली तीन समाधियाँ मिली हैं। दुर्भाग्यवश ऐसी समृद्ध सभ्यता का ह्रास हो गया, जिसका कारण संभवतः सूखा, नदी मार्ग में परिवर्तन इत्यादि माने जाते हैं।

आहड़ - वर्तमान उदयपुर जिले में स्थित आहड़ दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान का सभ्यता का केन्द्र था। यह सभ्यता बनास नदी सभ्यता का प्रमुख भाग थी। ताम्र सभ्यता के रूप में प्रसिद्ध यह सभ्यता आयड़ नदी के किनारे मौजूद थी। यह ताम्रवती नगरी अथवा धूलकोट के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह सभ्यता आज से लगभग 4000 वर्ष पूर्व बसी थी। विभिन्न उत्खनन के स्तरों से पता चलता है कि बसने से लेकर 18वीं सदी तक यहाँ कई बार बस्ती बसी और उजड़ी। ऐसा लगता है कि आहड़ के आस-पास तांबे की अनेक खाने के होने से सतत रूप से इस स्थान के निवासी इस धातु के उपकरणों का बनाते रहें और उसे एक ताम्रयुगीन कौशल केंद्र बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 500 मीटर लम्बे धलकोट के टीले से ताँबे की कुल्हाड़ियाँ, लोहे के औजार, बांस के टुकड़े, हड्डियां आदि सामग्री प्राप्त हुई हैं। अनुमानित है कि मकानों की योजना में आंगन या गली या खुला स्थान रखने की व्यवस्था थी। एक मकान में 4 से 6 बडे़ चूल्हों का हाना आहड़ में वृहत् परिवार या सामूहिक भोजन बनाने की व्यवस्था पर प्रकाश डालते हैं। आहड़ से खुदाई से प्राप्त बर्तनों तथा उनके खंडित टुकड़ों से हमें उस युग में मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का अच्छा परिचय मिलता है। यहाँ तृतीया ईसा पर्व से प्रथम ईसा पर्व की यूनानी मुद्राएँ मिली हैं। इनसे इतना तो स्पष्ट है कि उस युग में राजस्थान का व्यापार विदेशी बाजारों से था। इस बनास सभ्यता की व्यापकता एव विस्तार गिलूंड, बागौर तथा अन्य आसपास के स्थानों से प्रमाणित है। इसका संपर्क नवदाटाली, हड़प्पा, नागदा, एरन, कायथा आदि भागों की प्राचीन सभ्यता से भी था, जो यहाँ से प्राप्त काले व लाल मिट्टी के बर्तनों के आकार, उत्पादन व कौशल की समानता से निर्दिष्ट होता है।

जनपदों का युग
आर्य संक्रमण के बाद राजस्थान में जनपदों का उदय होता है, जहाँ से हमारे इतिहास की घटनाएं अधिक प्रमाणों पर आधारित की जो सकती हैं। सिकन्दर के अभियानों से आहत तथा अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने को उत्सुक दक्षिण पंजाब की मालव, शिवि तथा अर्जुनायन जातियाँ, जो अपने साहस और शौर्य के लिए प्रसिद्ध थी, अन्य जातियों के साथ राजस्थान में आयीं और सुविधा के अनुसार यहाँ बस गयीं। इनमें भरतपुर का राजन्य जनपद और मत्स्य जनपद, नगरी का शिवि जनपद,अलवर का शाल्व जनपद प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त 300 ई. पू. से 300 ई. के मध्य तक मालव, अर्जुनायन तथा यौधेयों की प्रभुता का काल राजस्थान में मिलता है। मालवों की शक्ति का केन्द्र जयपुर के निकट था, कालान्तर में यह अजमेर, टोंक तथा मेवाड़ के क्षेत्र तक फैल गये। भरतपुर-अलवर प्रान्त के अर्जुनायन अपनी विजयां के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। इसी प्रकार राजस्थान के उत्तरी भाग के यौधय भी एक शक्तिशाली गणतन्त्रीय कबीला था। यौधय संभवतः उत्तरी राजस्थान की कुषाण शक्ति को नष्ट करने में सफल हुए थे जो रुद्रदामन के लेख से स्पष्ट है। ? लगभग दूसरी सदी ईसा पर्व से तीसरी सदी ईस्वी के काल में राजस्थान के केंद्रीय भागों में बौद्ध धर्म का काफी प्रचार था, परन्तु यौधय तथा मालवां के यहां आने से ब्राह्मण धर्म का प्रोत्साहन मिलन लगा और बौद्ध धर्म के ह्रास के चिह्न दिखाई देने लगे। गुप्त राजाओं नइन जनपदीय गणतन्त्रों का समाप्त नहीं किया, परन्तु इन्हें अर्द्ध आश्रित रूप में बनाए रखा। ये गणतंत्र हूण आक्रमण के धक्के को सहन नहीं पाए और अंततः छठी शताब्दी आते-आते यहाँ से सदियों से पनपी गणतंत्रीय व्यवस्था सर्वदा के लिए समाप्त हो गई।

नामकरण
वर्तमान राजस्थान के लिए पहले किसी एक नाम का प्रयोग नहीं मिलता है। इसके भिन्न-भिन्न क्षेत्र अलग-अलग नामों से जाने जाते थे। वर्तमान बीकानेर और जोधपुर का क्षेत्र महाभारत काल में ‘जांगल देश’ कहलाता था। इसी कारण बीकानेर के राजा स्वयं का ‘जांगलधर बादशाह’ कहते थे। जागल देश का निकटवर्ती भाग सपादलक्ष (वर्तमान अजमेर और नागौर का मध्य भाग) कहलाता था, जिस पर चौहानों का अधिकार था। अलवर राज्य का उत्तरी भाग कुरु दश, दक्षिणी और पश्चिमी मत्स्य दश और पर्वी भाग शूरसेन दश के अन्तर्गत था। भरतपुर और धौलपुर राज्य तथा करौली राज्य का अधिकांश भाग शरसेन दश के अन्तर्गत थ। शरसेन राज्य की राजधानी मथुरा, मत्स्य राज्य की विराट नगर और कुरु राज्य की इन्द्रप्रस्थ थी।उदयपुर राज्य का प्राचीन नाम ‘शिव’ था, जिसकी राजधानी ‘मध्यमिका’ थी। आजकल ‘मध्यमिका’ (मज्झमिका) को नगरी कहते हैं। यहाँ पर मेव जाति का अधिकार रहा,जिस कारण इसे मेदपाट अथवा प्राग्वाट भी कहा जान लगा। डूंगरपुर, बांसवाड़ा के प्रदेश का बागड़ कहते थे। जाधपुर के राज्य का मरु अथवा मारवाड़ कहा जाता था। जोधपुर के दक्षिणी भाग का गुर्जरत्रा कहते थे और सिराही के हिस्से को अर्बुद (आब) दश कहा जाता था। जैसलमेर को माड तथा कोटा और बूंदी का हाड़ौती पुकारा जाता था। झालावाड़ का दक्षिणी भाग मालव देश के अंतर्गत गिना जाता था।

इस प्रकार स्पष्ट है कि जिस भू-भाग को आजकल हम राजस्थान कहते है, वह किसी विशेष नाम से कभी प्रसिद्ध नहीं रहा। ऐसी मान्यता है कि 1800 ई. में सर्वप्रथम जॉर्ज थॉमस ने इस प्रान्त के लिए ‘राजपूताना’ नाम का प्रयोग किया था। प्रसिद्ध इतिहास लेखक कर्नल जेम्स टॉड ने 1829 ई. में अपनी पुस्तक ‘एनल्स एण्ड एंटीक्वीटीज ऑफ राजस्थान’ में इस राज्य का नाम ‘रायथान’ अथवा ‘राजस्थान’ रखा। जब भारत स्वतन्त्र हुआ तो इस राज्य का नाम ‘राजस्थान’ स्वीकार कर लिया गया।

प्राचीन राजस्थान (जांगल प्रदेश ) जोधपुर ओर बीकानेर का क्षेत्र महाभारत काल में इसी नाम से जाना जाता था. इसकी राजधानी अहिच्छत्रपुर (वर्तमान नागौर) थी. बीकानेर के राजा इस जांगल प्रदेश के राजा थे. बीकानेर राज्य के चिन्ह में ‘जय जंगलधर बादशाह’ लिखा था। (मत्स्य देश ) अलवर एवं जयपुर तथा कुछ हिस्सा भरतपुर का भी इसमें शामिल था. राजधानी विराटनगर थी जिसको इस समय बैराठ कहते है। शूरसेन ) भरतपुर, करौली, धौलपुर का क्षेत्र इसमें आता था। राजधानी – मथुरा (अर्जुनायन ) अलवर, भरतपुर, आगरा, मथुरा का भाग। (शिवि ) चित्तौड का क्षेत्र, राजधानी – मध्यमिका (वर्तमान – नगरी) मेदपाद (मेवाड) ) उदयपुर, चित्तौड़, भीलवाड़ा, बाँसवाडा, राजसमंद ओर डूंगरपुर का भाग (मारवाड़), मरु, मरु वास, मारवाड़ (जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर) गुर्जरत्रा), जोधपुर का दक्षिणी भाग अर्बुदेश, सिरोही के पास का क्षेत्र माड, जैसलमेर राज्य सपालदक्ष , जांगल देश के पूर्वी भाग को. राजधानी – शाकम्भरी (सांभर) हाड़ौती , कोटा एवं बूंदी का भागढूंढाड़ , जयपुर के आसपास का क्षेत्र राजस्थान को राजपुताना या रजवाड़ा भी कहा जाता है . १२ वीं सदी तक यहाँ गुर्जरों का राज था जिसके कारण इसे गुर्जरत्रा (गुर्जरों से रक्षित देश ) कहा जाता था. गुर्जरों के बाद राजस्थान में राजपूतों की सत्ता का आई तथा ब्रिटिश कल में राजस्थान राजपूताना के नाम से जाना जाने लगा।

पूर्व मध्यकालीन राजस्थान
इस काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना युद्धप्रिय राजपूत जाति का उदय एवं राजस्थान में राजपूत राज्यों की स्थापना है। गुप्तां के पतन के बाद केन्द्रीय शक्ति का अभाव उत्तरी भारत में एक प्रकार से अव्यवस्था का कारण बना। राजस्थान की गणतंत्र जातियां ने उत्तर गुप्तों की कमजोरियों का लाभ उठाकर स्वयं का स्वतंत्र कर लिया। यह वह समय था जब भारत पर हूण आक्रमण हा रह थ। हूण नेता मिहिरकुल ने अपने भयंकर आक्रमण से राजस्थान का बड़ी क्षति पहुँचायी और बिखरी हुई गणतंत्रीय व्यवस्था का जर्जरित कर दिया। परन्तु मालवा के यशोवर्मन ने हूणों का लगभग 532 ई. में परास्त करने में सफलता प्राप्त की। परन्तु इधर राजस्थान में यशोवर्मन के अधिकारी जो राजस्थानी कहलाते थे, अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र हान की चेष्टा कर रहे थ। किसी भी केन्द्रीय शक्ति का ने होना इनकी प्रवृत्ति के लिए सहायक बन गया। लगभग इसी समय उत्तरी भारत में हर्षवर्धन का उदय हुआ। उसके तत्त्वावधान में राजस्थान में व्यवस्था एव शांति की लहर आयी, परतु जो बिखरी हुई अवस्था यहाँ पैदा हो गयी थी, वह सुधर नही सकी। इन राजनीतिक उथल-पुथल के सन्दर्भ में यहाँ के समाज में एक परिवर्तन दिखाई देता है। राजस्थान में दूसरी सदी ईसा पर्व से छठी सदी तक विदेशी जातियाँ आती रहीं और यहाँ के स्थानीय समूह उनका मुकाबला करत रह। परन्तु कालान्तर में इन विदेशी आक्रमणकारियों की पराजय हुई, इनमें कई मार गये और कई यहाँ बस गये। जो शक या हण यहाँ बचे रह उनका यहाँ की शस्त्रापजीवी जातियों के साथ निकट सम्पर्क स्थापित होता गया और अन्ततोगत्वा छठी शताब्दी तक स्थानीय और विदेशी योद्धाओं का भेद जाता रहा।
सांभर के चौहान –चौहानां के मूल स्थान के संबध में मान्यता है कि वे सपादलक्ष एव जांगल प्रदेश के आस पास रहत थे। उनकी राजधानी अहिच्छत्रपुर (नागौर) थी। सपादलक्ष के चौहानां का आदि पुरुष वासुदेव था, जिसका समय 551 ई. के लगभग अनुमानित है। बिजौलिया प्रशस्ति में वासुदेव को साभर झील का निर्माता माना गया है। इस प्रशस्ति में चौहानां का वत्सगोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। प्रारभ में चौहान प्रतिहारों के सामंत थे परन्तु गुवक प्रथम जिसने हर्षनाथ मन्दिर का निर्माण कराया, स्वतंत्र शासक के रूप में उभरा। इसी वंश के चन्दराज की पत्नी रुद्राणी यौगिक क्रिया में निपुण थी। ऐसा माना जाता है कि वह पुष्कर झील में प्रतिदिन एक हजार दीपक जलाकर महादेव की उपासना करती थी।

मारवाड़ के गुर्जर-प्रतिहार - प्रतिहारों द्वारा अपने राज्य की स्थापना सर्वप्रथम राजस्थान में की गई थी, ऐसा अनुमान लगाया जाता है। जाधपुर के शिलालेखां से प्रमाणित हाता है कि प्रतिहारां का अधिवेशन मारवाड़ में लगभग छठी शताब्दी के द्वितीय चरण में हो चुका था। चूँकि उस समय राजस्थान का यह भाग गुर्जरत्रा कहलाता था, इसलिए चीनी यात्री युवानच्वांग ने गुर्जर राज्य की राजधानी का नाम पीला मालो (भीनमाल) या बाड़मेर बताया है। मुँहणात नैणसी ने प्रतिहारों की 26 शाखाओं का उल्लेख किया है, जिनमें मण्डौर के प्रतिहार प्रमुख थ। इस शाखा के प्रतिहारां का हरिशचन्द्र बड़ा प्रतापी शासक था, जिसका समय छठी शताब्दी के आसपास माना जाता है। लगभग 600 वर्शों के अपन काल में मण्डौर के प्रतिहारां ने सांस्कृतिक परम्परा को निभाकर अपन उदात्त स्वातन्त्र्य प्रेम और शौर्य से उज्ज्वल कीर्ति को अर्जित किया। जालौर-उज्जैन-कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारां की नामावली नागभट्ट से आरंभ होती है जो इस वश का प्रवर्तक था। उसे ग्वालियर प्रशस्ति में ‘म्लेच्छां का नाशक’कहा गया है। इस वश में भोज और महेन्द्रपाल को प्रतापी शासकों में गिना जाता है।

राजपूतों की उत्पत्ति
राजपूताना के इतिहास के सन्दर्भ में राजपूतों की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्तों का अध्ययन बड़ा महत्त्व का है। राजपतों का विशुद्ध जाति से उत्पन्न हाने के मत का बल दने के लिए उनको अग्निवशीय बताया गया है। इस मत का प्रथम सूत्रपात चन्दरबदाई के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘पृथ्वीराज रासो’ से होता है। उसके अनुसार राजपतों के चार वश प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान ऋषि वशिष्ठ के यज्ञ कुण्ड से राक्षसां के संहार के लिए उत्पन्न किये गये। इस कथानक का प्रचार 16वीं से 18वीं सदी तक भाटों द्वारा खूब होता रहा। मुहणोत नैणसी और सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस आधार का लेकर उसको और बढ़ावे के साथ लिखा। परन्तु वास्तव में ‘अग्निवंशीय सिद्धान्त’ पर विश्वास करना उचित नही है क्योंकि सम्पूर्ण कथानक बनावटी व अव्यावहारिक है। ऐसा प्रतीत होता है कि चन्दबरदाई ऋषि वशिष्ठ द्वारा अग्नि से इन वंशां की उत्पत्ति से यह अभिव्यक्त करता है कि जब विदेशी सत्ता से संघर्ष करने की आवश्यकता हुई तो इन चार वंशो के राजपूतों ने शत्रुओं से मुकाबला हेतु स्वयं का सजग कर लिया। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, सी.वी.वैद्य, दशरथ शर्मा, ईश्वरी प्रसाद इत्यादि इतिहासकारों ने इस मत को निराधार बताया है। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा राजपूतों को सूर्यवंशी और चंद्रवंशी बताते हैं। अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने कई शिलालेखों और साहित्यिक ग्रंथों के प्रमाण दिए हैं, जिनके आधार पर उनकी मान्यता है कि राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के वंशज हैं।

राजपूतां की उत्पत्ति से सम्बन्धित यही मत सर्वाधिक लाकप्रिय है। राजपूताना के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने राजपतों को शक और सीथियन बताया है। इसके प्रमाण में उनके बहुत से प्रचलित रीति-रिवाजां का, जो शक जाति के रिवाजां से समानता रखते थ, उल्लेख किया है। ऐसे रिवाजों में सूर्य पजा, सती प्रथा प्रचलन, अश्वमेध यज्ञ, मद्यपान,शस्त्रां और घोड़ां की पूजा इत्यादि हैं। टॉड की पुस्तक के सम्पादक विलियम क्रुक ने भी इसी मत का समर्थन किया है परन्तु इस विदेशी वंशीय मत का गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने खण्डन किया है। ओझा का कहना है कि राजपूतों तथा विदेशियों के रस्मों-रिवाजों में जो समानता कर्नल टॉड ने बतायी है, वह समानता विदशियां से राजपतों ने प्राप्त नहीं की है, वरन् उनकी सात्यता वैदिक तथा पौराणिक समाज और संस्कृति से की जो सकती है। अतएव उनका कहना है कि शक, कुषाण या हूणों के जिन-जिन रस्मो-रिवाजों व परम्पराओं का उल्लेख समानता बताने के लिए जेम्स टॉड ने किया है, वे भारतवर्ष में अतीत काल से ही प्रचलित थीं। उनका सम्बन्ध इन विदेशी जातियों से जाड़ना निराधार है। डॉ. डी. आर. भण्डारकर राजपूतों को गुर्जर मानकर उनका संबध श्वेत-हूणां के स्थापित करके विदेशी वशीय उत्पत्ति का और बल देते हैं। इसकी पुष्टि में वे बताते हैं कि पुराणों में गुर्जर और हूणों का वर्णन विदेशियों के सन्दर्भ में मिलता है। इसी प्रकार उनका कहना है कि अग्निवंशी प्रतिहार,परमार, चालुक्य और चौहान भी गुर्जर थे, क्योंकि राजौर अभिलेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है। इनके अतिरिक्त भंडारकर ने बिजोलिया शिलालेख के आधार पर कुछ राजपूत वंश का ब्राह्मणां से उत्पन्न माना है। वे चौहानां का वत्स गोत्रीय ब्राह्मण बताते हैं और गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से जानते हैं। डॉ. ओझा एवं वैद्य ने भंडारकर की मान्यता का अस्वीकृत करते हुए लिखा है कि प्रतिहारों का गुर्जर कहा जाना जाति की संज्ञा नहीं है वरन उनका प्रदेश विशेष गुजरात पर अधिकार होने के कारण है। जहाँ तक राजपूतों की ब्राह्मणां से उत्पत्ति का प्रश्न है, वह भी निराधार है क्योंकि इस मत के समर्थन में उनके साक्ष्य कतिपय शब्दों का प्रयोग राजपूतों के साथ होने मात्र से है। इस प्रकार राजपतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उपर्यु क्त मतों में मतैक्य नहीं है। फिर भी डॉ. ओझा के मत का सामान्यतः मान्यता मिली हुई है। निःसन्दह राजपूतों का भारतीय मानना उचित है। पूर्व मध्यकाल में विभिन्न राजपूत राजवंशों का उदय प्रारम्भिक राजपत कुलों में जिन्होंने राजस्थान में अपने-अपन राज्य स्थापित किये थे उनमें मेवाड़ के गुहिल, मारवाड़ के गुर्जर प्रतिहार और राठौड़, सांभर के चौहान, तथा आब के परमार, आम्बेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी आदि प्रमुख था।

मौर्य और राजस्थान
राजस्थान के कुछ भाग मौर्यों के अधीन या प्रभाव क्षत्र में थे। अशोक का बैराठ का शिलालेख तथा उसके उत्तराधिकारी कुणाल के पुत्र सम्प्रति द्वारा बनवाये गये मन्दिर मौर्यां के प्रभाव की पुश्टि करते हैं। कुमारपाल प्रबन्ध तथा अन्य जैन ग्रंथां से अनुमानित है कि चित्तौड़ का किला व चित्रांग तालाब मौर्य राजा चित्रांग का बनवाया हुआ है। चित्तौड़ से कुछ दूर मानसरोवर नामक तालाब पर राज मान का, जो मौर्यवशी माना जाता है, वि. सं. 770 का शिलालेख कर्नल टॉड को मिला, जिसमें माहेश्वर,भीम, भोज और मान ये चार नाम क्रमशः दिए हैं। कोटा के निकट कणसवा (कंसुआ) के शिवालय से 795 वि. सं. का शिलालेख मिला है, जिसमें मौर्यवंशी राजा धवल का नाम है। इन प्रमाणां से मौर्यों का राजस्थान में अधिकार और प्रभाव स्पष्ट होता है। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत की राजनीतिक एकता पुनः विघटित होने लगी। इस युग में भारत में अनेक नये राजवंशों का अभ्युदय हुआ। राजस्थान में भी अनेक राजपूत वंशो ने अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिये थे, इसमें मारवाड़ के प्रतिहार और राठौड़, मेवाड़ के गुहिल, सांभर के चौहान, आमेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी इत्यादि प्रमुख हैं।

शिलालेखां के आधार पर हम कह सकते हैं कि छठी शताब्दी में मण्डोर के आस पास प्रतिहारां का राज्य था और फिर वही राज्य आगे चलकर राठौड़ा का प्राप्त हुआ। लगभग इसी समय सांभर में चौहान राज्य की स्थापना हुई और धीरे-धीरे वह राज्य बहुत शक्तिशाली बन गया। पांचवीं या छठी शताब्दी में मेवाड़ और आसपास के भू-भाग में गुहिलां का शासन स्थापित हा गया। दसवीं शताब्दी में अर्थूणा तथा आब में परमार शक्तिशाली बन गये। बारहवीं तथा तेरहवीं शताब्दी के आसपास तक जालौर, रणथम्भौर और हाड़ौती में चौहानां ने पुनः अपनी शक्ति का संगठन किया परन्तु उसका कही-कहीं विघटन भी होता रहा।

मेवाड़ के गुहिल – इस वश का आदिपुरुश गुहिल था। इस कारण इस वंश के राजपत जहाँ-जहाँ जाकर बसे उन्होंने स्वयं का गुहिल वशीय कहा। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा गुहिलों का विशुद्ध सूर्यवशीय मानत हैं, जबकि डी. आर.भण्डारकर के अनुसार मेवाड़ के राजा ब्राह्मण थ। गुहिल के बाद मान्य प्राप्त शासकों में बापा का नाम उल्लेखनीय है, जो मेवाड़ के इतिहास में एक महत्त्वपर्ण स्थान रखता है। डॉ. आझा के अनुसार बापा इसका नाम ने होकर कालभोज की उपाधि थी। बापा का एक साने का सिक्का भी मिला है, जो 115 ग्रेन का था। अल्लट, जिसे ख्यातों में आलुरावल कहा गया है, 10वीं सदी के लगभग मेवाड़ का शासक बना। उसन हण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया था तथा उसके समय में आहड़ में वराह मन्दिर का निर्माण कराया गया था। आहड़ से पर्व गुहिल वश की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र नागदा था। गुहिलों ने तेरहवीं सदी के प्रारम्भिक काल तक मेवाड़ में कई उथल-पुथल के बावजूद भी अपन कुल परम्परागत राज्य का बनाये रखा।

आबू के परमार – ‘परमार’ शब्द का अर्थ शत्रु का मारने वाला हाता है। प्रारंभ में परमार आब के आसपास के प्रदशां में रहत थ। परन्तु प्रतिहारों की शक्ति के ह्वास के साथ ही परमारों का राजनीतिक प्रभाव बढ़ता चला गया। धीरे-धीरे इन्होंने मारवाड़,सिन्ध, गुजरात, वागड़, मालवा आदि स्थानां में अपने राज्य स्थापित कर लिये। आब के परमारां का कुल पुरुष धूमराज था परन्तु परमारां की वंशावली उत्पलराज से आरंभ होती है। परमार शासक धधुक के समय गुजरात के भीमदेव ने आब का जीतकर वहाँ विमलशाह का दण्डपति नियुक्त किया। विमलशाह ने आब में 1031 में आदिनाथ का भव्य मन्दिर बनवाया था। धारावर्ष आब के परमारों का सबसे प्रसिद्ध शासक था। धारावर्ष का काल विद्या की उन्नति और अन्य जनापयागी कार्यां के लिए प्रसिद्ध है। इसका छोटा भाई प्रह्लादन देव वीर और विद्वान था। उसने ‘पार्थ-पराक्रम-व्यायोग’ नामक नाटक लिखकर तथा अपने नाम से प्रहलादनपुर (पालनपुर) नामक नगर बसाकर परमारों के साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर को ऊँचा उठाया। धारावर्ष के पुत्र सामसिंह के समय में, जो गुजरात के सालकी राजा भीमदव द्वितीय का सामन्त था, वस्तुपाल के छाट भाई तजपाल ने आब के दलवाड़ा गाँव में लणवसही नामक नमिनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया था। मालवा के भाज परमार ने चित्तौड़ में त्रिभुवन नारायण मन्दिर बनवाकर अपनी कला के प्रति रुचि को व्यक्त किया। वागड़ के परमारों ने बाँसवाड़ा के पास अर्थणा नगर बसा कर और अनेक मंदिरां का निर्माण करवाकर अपनी शिल्पकला के प्रति निष्ठा का परिचय किया।

मध्यकालीन राजस्थान
मध्यकाल में राजपत शासकां और सामन्तां ने मुस्लिम शक्ति का रोकने की समय-समय पर भरपर काशिश की। राजपतों द्वारा अनवरत तीव्र प्रतिरोध का सिलसिला मध्यकाल में चलता रहा। सत्ता संघर्ष में राजपत निर्णायक लड़ाई नही जीत सके। इसका मुख्य कारण राजपूतों में साधारणतः आपसी सहयोग का अभाव, युद्ध लड़न की कमजार रणनीति तथा सामन्तवाद था। यह साचना उचित नहीं है कि राजपूतां के प्रतिरोध का कोई अर्थ नहीं निकला। राणा कुम्भा एवं राणा सागा के नेतृत्व में सर्वाच्चता की स्थापना राजपतान में ही सम्भव हा सकती थी। यह स्मरण रह कि आगे चलकर राणा प्रताप, चन्द्रसेन और राजसिंह ने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। यद्यपि अकबर की राजपूत नीति के कारण राजपूताना के अधिकांश शासक उसके हितां की रक्षा करने वाले बन गये।

मध्यकालीन राजस्थान का बौद्धिक अधिसृष्टि से पिछड़ा मानना इतिहास के तथ्यां एव अनुभवों के विपरीत होगा। जिस वीर प्रसूता वसुंधरा पर माघ, हरिभद्र सूरी, चन्दबरदाई, सूर्यमल्ल मिश्रण, कवि करणीदास, दुरसा आढ़ा, नैणसी जैसे विद्वान लेखक तथा महाराणा कुम्भा, राजा राय सिंह, राजा सवाई जयसिंह जैसे प्रबुद्ध शासक अवतरित हुए हों, वह ज्ञान के आलोक से कभी वंचित रही हो, स्वीकार्य नहीं। जिस प्रदेश के रणबांकुरों में राणा प्रताप, राव चन्द्रसेन, दुर्गादास जैसे व्यक्तित्व रहे हों, वह धरती यश से वंचित रहे; सोचा भी नहीं जो सकता। धरती धोरां री’ का इतिहास अपने-आप में राजस्थान का ही नहीं अपितु भारतीय इतिहास का उज्ज्वल एवं गौरवशाली पहल है। मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास में गुहिल-सिसोदिया (मेवाड़), कछवाहा (आमेर-जयपुर), चौहान (अजमेर, दिल्ली, जालौर, सिराही, हाड़ौती इत्यादि के चौहान), राठौड़ (जोधपुर और बीकानेर के राठौड़) इत्यादि राजवंश नक्षत्र भांति चमकते हुए दिखाई देते हैं।

1113 ई. में अजयराज चौहान ने तुर्कों के विरुद्ध लड़े गये युद्धां में तराइन का प्रथम युद्ध हिन्द विजय का एक गौरवपूर्ण अध्याय है। परन्तु पृथ्वीराज चौहान द्वारा पराजित तुर्की सेना का पीछा ने किया जाना इस युद्ध में की गयी भल के रूप में भारतीय भ्रम का एक कलकित पृष्ठ है। इस भूल के परिणामस्वरूप 1192 में मुहम्मद गौरी ने तराइन के दूसर युद्ध में पृथ्वीराज चौहान तृतीय का पराजित कर दिया। इस हार का कारण राजपतों का परम्परागत सैन्य संगठन माना जाता है। पृथ्वीराज चौहान अपने राज्यकाल के आरंभ से लेकर अन्त तक युद्ध लड़ता रहा, जो उसके एक अच्छे सैनिक और सेनाध्यक्ष होने का प्रमाणित करता है। सिवाय तराइन के द्वितीय युद्ध के, वह सभी युद्धों में विजेता रहा। वह स्वयं अच्छा गुणी होने के साथ-साथ गुणीजनों का सम्मान करन वाला था। जयानक, विद्यापति गौड़, वागीश्वर, जनार्दन तथा विश्वरूप उसके दरबारी लेखक और कवि थ, जिनकी कृतियाँ उसके समय को अमर बनाये हुए हैं। जयानक ने पृथ्वीराज विजय की रचना की थी। पृथ्वीराज रासो का लेखक चन्दबरदाई भी पृथ्वीराज चौहान का आश्रित कवि था।

राजस्थान में जन जागरण एवं स्वतन्त्रता संग्राम

1857 की क्रांति पृष्ठभूमि
राजस्थान के देशी राज्यों ने अंग्रेजी कम्पनी के साथ संधियाँ (1818 ई.) करके मराठों द्वारा उत्पन्न अराजकता से मुक्ति प्राप्त कर ली तथा राज्य की बाह्य सुरक्षा के बारे में भी निश्चित हो गए, क्योंकि अब कम्पनी ने उनके राज्य की बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा की जिम्मेदारी भी ले ली थी। प्रत्यक्ष में देशी रियासतों पर कोई अधिक आर्थिक भार भी नहीं पड़ा, क्योंकि जो खिराज वे मराठों को चुकाते थे वो ही खिराज अब अंग्रेजों को देना था। अतः राजा खुश हो गए कि अब उनका निरंकुश शासन चलता रहेगा। राजाओं को संधियों की शर्तें इतनी आकर्षक लगीं कि, उन्होंने अंग्रेजी कम्पनी की ईमानदारी पर बिना शंका किए संधियों पर हस्ताक्षर कर दिए। परन्तु संधियों में उल्लिखित शर्तों को कंपनी के अधिकारियों ने जैसे ही क्रियान्वित करना शुरू किया,राजाओं के वंश परंपरागत अधिकारों पर कुठाराघात होंने लगा। कम्पनी ने राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करके देशी नरेशों की प्रभुसत्ता पर भी चोट की एवं उनकी स्थिति कम्पनी के सामन्तों व जागीरदारों जैसी हो गई। कम्पनी की नीतियों से सामन्तों के पद, मर्यादा व अधिकारों को भी आघात लगा। कम्पनी द्वारा अपनाई गई आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप राजा, सामन्त, किसान, व्यापारी,शिल्पी एवं मजदूर सभी वर्ग पीड़ित हुए। कम्पनी के साथ की गई संधियों के कई दुष्परिणाम सामने आए, जिन्होंने 1857 की क्रांति की पृष्ठभूमि बनाई।

राज्यों के आन्तरिक शासन में हस्तक्षेप
राजपूत राजाओं के साथ संधियाँ करते समय अंग्रेजों ने यह स्पष्ट आश्वासन दिया था कि वे राज्यों के आन्तरिक प्रशासन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। मगर अंग्रेजों ने राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप किया। जोधपुर के शासक पर दबाव डालकर 1839 ई. में जोधपुर के किले पर अधिकार कर लिया। 1842-43 ई. में अंग्रेजों ने पुनः जोधपुर के मामलों में हस्तक्षेप करते हुए नाथों की जागीरें जब्त कर उनको कैद में डाल दिया। 1819 ई. में उन्होंने जयपुर के मामलों में हस्तक्षेप किया। अंग्रेजों ने मांगरोल के युद्ध में (1821 ई.) कोटा महाराव के विरुद्ध दीवान जालिम सिंह की सहायता की, जो कि अंग्रेज समर्थक था। मेवाड़ के प्रशासन में भी पोलिटिकल एजेन्ट के बार-बार हस्तक्षेप ने राज्य की आर्थिक स्थिति को दयनीय बना दिया। 1823 ई. में कैप्टन कौब ने समस्त शासन प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया और महाराणा को खर्च के लिए एक हजार रु. दैनिक नियत कर दिया। इस प्रकार संधियों की शर्तों के विपरीत अंग्रेजों ने राज्यों के आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप कर उनकी बाह्य प्रभुसत्ता के साथ -साथ आंतरिक स्वायत्तता भी खत्म कर दी। अब राजा अपने राज्य के संप्रभु स्वामी न रहकर अंग्रेजों की कृपा दृष्टि पर निर्भर हो गए।

राज्यों के उत्तराधिकार मामलों में हस्तक्षेप
अंग्रेजों ने राज्यों से संधियाँ करते समय आश्वासन दिया था कि वह उनके परंपरागत शासन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। परंतु राज्य में शांति व्यवस्था बनाये रखने के बहाने अंग्रेजों ने उत्तराधिकार के मामलों में खुलकर हस्तक्षेप किया। 1826 ई. में अलवर राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर बलवंत सिंह व बनेसिंह के मध्य अलवर राज्य के दो हिस्से करवा दिए। भरतपुर के उत्तराधिकार के प्रश्न पर 1826 ई. में अंग्रेजों ने लोहागढ़ दुर्ग को घेर कर उसे नष्ट कर दिया एवं बालक राजा बलवन्त सिंह को गद्दी पर बिठाकर, पोलिटिकल एजेन्ट के अधीन एक काउन्सिल की नियुक्ति कर दी, जो प्रशासन का संचालन करने लगी। अंग्रेजों ने अपने समर्थक उम्मीदवारों को उत्तराधिकारी बनाकर राज्यों में अप्रत्यक्ष रूप से अपनी राजनीतिक प्रभुता स्थापित की। जिस राज्य का उत्तराधिकारी अल्पवयस्क होता, वहाँ ए.जी.जी., रेजीडेण्ट की अध्यक्षता में अपने समर्थकों की कौंसिल का गठन कर प्रशासन पर नियंत्रण स्थापित कर लेते थे। 1835 ई. में जयपुर में शासन संचालन के लिए पोलिटिकल एजेन्ट के निर्देशन में सरदारों की समिति गठित की गई। 1844 ई. में बाँसवाड़ा में महारावल लक्ष्मणसिंह की नाबालिगी के दौरान प्रशासन पर अंग्रेजी नियंत्रण बना रहा। गोद लेने के प्रश्न पर भी अंग्रेज अपना निर्णय लादने का प्रयास करते थे।

राज्यों की कमजोर वित्तीय स्थिति
संधियों के द्वारा राजपूत राज्यों को मराठों एवं पिण्डारियों की लूटमार एवं बार-बार की आर्थिक माँगों से तो छुटकारा मिल गया, मगर अंग्रेजों ने भी प्रारम्भ से ही खिराज की प्रथा लागू कर आर्थिक शोषण की नीति अपना ली थी। यदि खिराज का भुगतान समय पर नहीं होता तो अंग्रेज कम्पनी उन पर चक्रवृद्धि ब्याज लगाकर खिराज वसूल करती थी। खिराज के अलावा कम्पनी शांति व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर राज्यों से धन वसूल करती थी। युद्ध की परिस्थितियों में भी राजाओं को धन देने के लिए बाध्य किया जाता था। इसके अतिरिक्त राजाओं को अपने खर्च पर कंपनी के लिए सेना रखनी पड़ती थी। यदि राजा उस सैनिक खर्च को वहन करने में असमर्थता दिखाता, तो उसके राज्य का कुछ भाग कम्पनी अपने अधीन कर लेती थी। अंग्रेजों ने जयपुर नरेश को शेखावाटी में राजमाता के समर्थक सामंतों को कुचलने के लिए सैन्य सहायता दी व सैनिक खर्च के रूप में सांभर झील को अपने अधीन (1835 ई.) कर लिया। जोधपुर में शांति व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर 1835 ई. में ‘जोधपुर लीजियन’ का गठन कर उसके खर्च के लिए एक लाख पन्द्रह हजार रुपये वार्षिक जोधपुर राज्य से वसूला जाने लगे। 1841 ई. में ‘ मेवाड़ भील कोर ’ की स्थापना मेवाड़ राज्य के खर्च पर की गई, 1822 ई. में ‘मेरवाड़ा बटालियन’, 1834 ई. में ‘शेखावाटी ब्रिगेड’ की स्थापना कर इसका खर्चा संबंधित राज्यों से वसूला जाने लगा, जबकि इन सैनिक टुकड़ियों पर नियंत्रण एवं निर्देशन अंग्रेजों का था। इसी प्रकार 1825-30 के दौरान भीलों के विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने सैनिक सहायता दी तथा सैनिक खर्च महाराणा के नाम पर ऋण के रूप में लिख दिया और फिर 6 प्रतिशत ब्याज लगाकर वह राशि वसूल की गई।

राज्यों का शिथिल प्रशासन
संधियों के बाद राजपूत राज्यों को बाह्य आक्रमणों का भय न रहा और आन्तरिक विद्रोह के समय भी अंग्रेजी सहायता उपलब्ध रही। प्रशासनिक मामलों में रेजीडेण्ट का दखल अधिकाधिक बढ़ने लगा। धीरे-धीरे राजाओं ने प्रशासन पर अपना नियंत्रण खो दिया, अब वे रेजीडेण्ट की इच्छानुसार शासन संचालन करने वाले रबर की मोहर मात्र रह गए। रेजीडेण्टों ने प्रशासन में अपने समर्थक व्यक्ति नियुक्त कर दिए। बाँसवाड़ा का शासन मुंशी शहामत अलीखाँ (1844-56 ई.) के हाथों में था, अलवर का प्रशासन अहमदबख्श खाँ (1815-26) के नियंत्रण में था तो जयपुर राज्य में 1835 ई. में अंग्रेज समर्थक जेठाराम सर्वे सर्वा बन गया। नरेशों का प्रशासन में महत्त्व नहीं होने से वे प्रशासन के प्रति पूर्णतः उदासीन हो गये। वे अपना समय रंग-रेलियों में, सुरा-सुन्दरी के भोग में गुजारने लगे। कई शासक योरोपीय देशों की यात्राओं में समय व्यतीत करने लगे। उनके प्रासादों में रानियों के स्थान पर वेश्याएँ गौरव पाने लगी। प्रशासन की शिथिलता का दुष्परिणाम जन सामान्य को भुगतना पड़ा। सामन्त और राज्य कर्मचारी जनता को विभिन्न प्रकार से पीड़ित करने लगे, जिसकी परिणति कृषक आन्दोलनों के रूप में हुई।

किसानों एवं जनसाधारण के हितों पर कुठाराघात
अंग्रेजो के साथ संधियाँ करने के पश्चात् राजपूत राज्यों के खर्च में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। अंग्रेजों ने राज्यों से अधिकाधिक खिराज लेने का प्रयास किया तथा अंग्रेज रेजीडेंट व सैनिक बटालियनों के ऊपर भी राजाओं को अधिक खर्च के लिए बाध्य किया गया। इसके साथ ही विकास कार्यों (रेलवे, सिंचाई, सड़क, शिक्षा, चिकित्सा) पर खर्च करने से भी राज्यों के खर्च में वृद्धि हुई, जबकि व्यापार पर अंग्रेजी आधिपत्य स्थापित हो जाने से राज्यों की आय में कमी आई। अतः राज्यों के सारे खर्च की पूर्ति का भार भूमि-कर पर ही आ पड़ा। इसलिए भूमि कर बढ़ाना आवश्यक हो गया। परन्तु अकाल पड़ने या किसी भी कारण से उपज कम होने पर भी किसानों को निर्धारित भूमिकर नकद राशि में देना ही पड़ता था, जिससे किसान साहूकारों के शिकंजे में और अधिक फंसते गए। अब किसानों को भूमि से बेदखल भी किया जाता था, जबकि अंग्रेजों के आगमन से पूर्व किसानों को भूमि से बेदखल नहीं किया जा सकता था। राज्यों ने अपने बढ़ते व्यय की पूर्ति के लिए किसानों पर चराई कर, सिंचाई कर आदि लगा दिए। शासकों ने प्रशासन पर से ध्यान हटाकर यात्राओं एवं मनोरंजन में समय व्यतीत करना शुरू कर दिया और खर्चों की पूर्ति के लिए किसानों पर भूमि कर के साथ अनेक प्रकार की लागतें लगा दी जिससे किसानों की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई। रेलवे के विकास ने लोगों की समृद्धि के स्थान पर उन्हें निर्धन करने में ज्यादा योग दिया। ब्रिटेन निर्मित वस्तुओं से बाजार पट गए, राज्य का कच्चा माल रेलों द्वारा बाहर जाने लगा। यहाँ तक कि अकाल के दौरान भी खाद्यान्नों का निर्यात किया जाने लगा। व्यापार पर अंग्रेजी नियंत्रण स्थापित होने से राज्य के व्यापारी पलायन कर गए। दस्तकार व हस्तशिल्पियों द्वारा निर्मित वस्तुएँ ब्रिटेन की वस्तुओं से महंगी होने के कारण और अब उन्हें शासक वर्ग का संरक्षण न मिलने से उनका जीवन निर्वाह कठिन हो गया, जिससे उन्होंने अपना परम्परागत व्यवसाय छोड़ दिया और श्रमिक बन गए।

इस प्रकार राजपूत राज्यों को अंग्रेजों के साथ (1818 ई.) की गई संधियाँ आकर्षक लगी, मगर इनके परिणाम-स्वरूप शासक शक्तिहीन हो गए, सामन्तों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया तथा किसानों एवं जनसाधारण की दशा दयनीय हो गई। इन संधियों का ही दुष्परिणाम था कि 1857 की क्रांति के दौरान जनसाधारण एवं सामन्त वर्ग ने अंग्रेजो के विरुद्ध विद्रोहियों को सहायता दी व उनका स्वागत किया तथा बाद में भी राज्यों को किसान एवं जनसाधारण के आन्दोलनों का सामना करना पड़ा। राजा और प्रजा के मध्य जो सम्मानजनक सम्बन्ध थे, वे समाप्त होकर शोषक व शोषित में परिणित हो गए।

क्रांति का सूत्रपात एवं विस्तार
1857 की क्रांति प्रारम्भ होने के समय राजपूताना में नसीराबाद, नीमच, देवली, ब्यावर, एरिनपुरा एवं खेरवाड़ा में सैनिक छावनियां थी। इन 6 छावनियों में पाँच हजार सैनिक थे किन्तु सभी सैनिक भारतीय थे। मेरठ में हुए विद्रोह (10 मई,1857) की सूचना राजस्थान के ए.जी.जी. (एजेंट टू गवर्नर जनरल) जॉर्ज पैट्रिक लॉरेन्स को 19 मई, 1857 को प्राप्त हुई। सूचना मिलते ही उसने सभी शासकों को निर्देश दिये कि वे अपने-अपने राज्य में शांति बनाए रखें तथा अपने राज्यों में विद्रोहियों को न घुसने दें। यह भी हिदायत दी कि यदि विद्रोहियों ने प्रवेश कर लिया हो तो उन्हें तत्काल बंदी बना लिया जावे। ए.जी.जी. के सामने उस समय अजमेर की सुरक्षा की समस्या सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि अजमेर शहर में भारी मात्रा में गोला बारूद एवं सरकारी खजाना था। यदि यह सब विद्रोहियों के हाथ में पड़ जाता तो उनकी स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ हो जाती। अजमेर स्थित भारतीय सैनिकों की दो कंपनियां हाल ही में मेरठ से आयी थी और ए.जी.जी. ने सोचा कि सम्भव है यह इन्फेन्ट्री (15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री) मेरठ से विद्रोह की भावना लेकर आयी हो, अतः इस इन्फेन्ट्री को नसीराबाद भेज दिया तथा ब्यावर से दो मेर रेजिमेंट बुला ली गई। तत्पश्चात् उसने डीसा (गुजरात) से एक यूरोपीय सेना भेजने को लिखा। राजस्थान में क्रांति की शुरुआत नसीराबाद से हुई, जिसके निम्न कारण थे - ए.जी.जी. ने 15वीं बंगाल इन्फेन्ट्री जो अजमेर में थी, उसे अविश्वास के कारण नसीराबाद में भेज दिया था। इस अविश्वास के चलते उनमें असंतोष पनपा।

मेरठ में हुए विद्रोह की सूचना के पश्चात् अंग्रेज सैन्य अधिकारियों ने नसीराबाद स्थित सैनिक छावनी की रक्षार्थ फर्स्ट बम्बई लांसर्स के उन सैनिकों से, जो वफादार समझे जाते थे, गश्त लगवाना प्रारम्भ किया। तोपों को तैयार रखा गया। अतः नसीराबाद में जो 15वीं नेटिव इन्फेन्ट्री थी, उसके सैनिकों ने सोचा कि अंग्रेजो ने यह कार्यवाही भी भारतीय सैनिकों को कुचलने के लिए की है तथा गोला-बारूद से भरी तोपें उनके विरुद्ध प्रयोग करने के लिए तैयार की गई है। अतः उनमें विद्रोह की भावना जागृत हुई।

बंगाल और दिल्ली से छद्मधारी साधुओं ने चर्बी वाले कारतूसों के विरुद्ध प्रचार कर विद्रोह का संदेश प्रसारित किया, जिससे अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। वस्तुतः 1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण चर्बी वाले कारतूसों को लेकर था। एनफील्ड राइफलों में प्रयोग में लिए जाने वाले कारतूस की टोपी (केप) को दांतों से हटाना पड़ता था। इन कारतूसों को चिकना करने के लिए गाय तथा सूअर की चर्बी काम में लाई जाती थी। इसका पता चलते ही हिन्दू-मुसलमान सभी सैनिकों में विद्रोह की भावना बलवती हो गई। सैनिकों ने यह समझा कि अंग्रेज उन्हें धर्म भ्रष्ट करना चाहते हैं। यही कारण था कि क्रांति का प्रारम्भ नियत तिथि से पहले हो गया।

राजस्थान में क्रांति का प्रारम्भ 28 मई, 1857 को नसीराबाद छावनी के 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री के सैनिकों द्वारा हुआ। नसीराबाद छावनी के सैनिकों में 28 मई, 1857 को विद्रोह कर छावनी को लूटलिया तथा अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों पर आक्रमण किये। मेजर स्पोटिस वुड एवं न्यूबरी की हत्या के बाद शेष अंग्रेजों ने नसीराबाद छोड़ दिया। छावनी को लूटने के बाद विद्रोही सैनिकों ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। इन सैनिकों ने 18 जून, 1857 को दिल्ली पहुँचकर अंग्रेज पलटन को पराजित किया, जो दिल्ली का घेरा डाले हुए थी। नसीराबाद की क्रांति की सूचना नीमच पहुँचने पर 3 जून, 1857 को नीमच छावनी के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने शस्त्रागार को आग लगा दी तथा अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों पर हमला कर एक अंग्रेज सार्जेन्ट की पत्नी तथा बच्चों का वध कर दिया। नीमच छावनी के सैनिक चित्तौड़, हम्मीरगढ़ तथा बनेड़ा में अंग्रेज बंगलों को लूटते हुए शाहपुरा पहुँचे। यहाँ के सामन्त ने इनको रसद की आपूर्ति की। यहाँ से ये सैनिक निम्बाहेड़ा पहुँचे, जहाँ जनता ने इनका स्वागत किया। इन सैनिकों ने देवली छावनी को घेर लिया, छावनी के सैनिकों ने इनका साथ दिया। छावनी को लूटकर ये क्रांतिकारी टोंक पहुँचे,जहाँ जनता ने नवाब के आदेशों की परवाह न करते हुए इनका स्वागत किया। टोंक से आगरा होते हुये ये सैनिक दिल्ली पहुँच गये। कैप्टन शावर्स ने कोटा, बूँदी तथा मेवाड़ की सेनाओं की सहायता से नीमच पर पुनः अधिकार कर लिया।

1835 ई. में अंग्रेजों ने जोधपुर की सेना के सवारों पर अकुशल होने का आरोप लगाकर जोधपुर लीजियन का गठन किया। इसका केंद्र एरिनपुरा रखा गया। 21 अगस्त, 1857 को जोधपुर लीजियन के सैनिकों ने विद्रोह कर आबू में अंग्रेज सैनिकों पर हमला कर दिया। यहाँ से ये एरिनपुरा आ गये, जहाँ इन्होंने छावनी को लूट लिया तथा जोधपुर लीजियन के शेष सैनिकों को अपनी ओर मिलाकर ”चलो दिल्ली, मारो फिरंगी“ के नारे लगाते हुए दिल्ली की ओर चल पड़े। एरिनपुरा के विद्रोही सैनिकों की भेंट‘खैरवा’ नामक स्थान पर आउवा ठाकुर कुशालसिंह से हुई। कुशालसिंह, जो कि अंग्रेजों एवं जोधपुर महाराजा से नाराज था, इन सैनिकों का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। ठाकुर कुशालसिंह के आह्वान पर आसोप, गूलर, व खेजड़ली के सामन्त अपनी सेना के साथ आउवा पहुँच गये। वहाँ मेवाड़ के सलूम्बर, रूपनगर तथा लसाणी के सामंतों ने अपनी सेनाएँ भेजकर सहायता प्रदान की। ठाकुर कुशालसिंह की सेना ने जोधपुर की राजकीय सेना को 8 सितम्बर, 1857 को बिथोड़ा नामक स्थान पर पराजित किया। जोधपुर की सेना की पराजय की खबर पाकर ए.जी.जी. जार्ज लारेन्स स्वयं एक सेना लेकर आउवा पहुँचा। मगर 18 सितम्बर, 1857 को वह विद्रोहियों से पराजित हुआ। इस संघर्ष के दौरान जोधपुर का पोलिटिकल एजेंट मोक मेसन क्रांतिकारियों के हाथों मारा गया। उसका सिर आउवा के किले के द्वार पर लटका दिया गया। अक्टूबर, 1857 में जोधपुर लीजियन के क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली की ओर कूच कर गये। ब्रिगेडियर होम्स के अधीन एक सेना ने 29 जनवरी, 1858 को आउवा पर आक्रमण कर दिया। विजय की उम्मीद न रहने पर कुशाल सिंह ने किला सलूंबर में शरण ली। उसके बाद ठाकुर पृथ्वी सिंह ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। अंत में, आउवा के किलेदार को रिश्वत देकर अंग्रेजों ने अपनी ओर मिला लिया और किले पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजो ने यहाँ अमानुषिक अत्याचार किए एवं आउवा की महाकाली की मूर्ति (सुगाली माता) को अजमेर ले गये।कोटा में राजकीय सेना तथा आम जनता ने अंग्रेजो के विरुद्ध संघर्ष किया। 14 अक्टूबर, 1857 को कोटा के पोलिटिकल एजेंट मेजर बर्टन ने कोटा महाराव रामसिंह द्वितीय से भेंट कर अंग्रेज विरोधी अधिकारियों को दंडित करने का सुझाव दिया। मगर महाराव ने अधिकारियों के अपने नियंत्रण में न होने की बात कहते हुए बर्टन के सुझाव को मानने से इनकार कर दिया। 15 अक्टूबर, 1857 को कोटा की सेना ने रेजीडेंसी को घेरकर मेजर बर्टन और उसके पुत्रों तथा एक डॉक्टर की हत्या कर दी। मेजर बर्टन का सिर कोटा शहर में घुमाया गया तथा महाराव का महल घेर लिया। विद्रोही सेना का नेतृत्व रिसालदार मेहराबखाँ और लाला जयदयाल कर रहे थे। विद्रोही सेना को कोटा के अधिकांश अधिकारियों व किलेदारों का भी सहयोग व समर्थन प्राप्त हो गया। विद्रोहियों ने राज्य के भण्डारों, राजकीय बंगलों, दुकानों,शस्त्रागारों, कोषागार एवं कोतवाली पर अधिकार कर लिया। कोटा महाराव की स्थिति असहाय हो गयी। वह एक प्रकार से महल का कैदी हो गया। लाला जयदयाल और मेहराबखाँ ने समस्त प्रशासन अपने हाथ में ले लिया और जिला अधिकारियों को राजस्व वसूली के आदेश दिये गये। मेहराबखाँ और जयदयाल ने महाराव को एक परवाने पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया, जिसमें मेजर बर्टन व उसके पुत्रों की हत्या महाराव के आदेश से करने एवं लाला जयदयाल को मुख्य प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त करने की बातों का उल्लेख था। लगभग छः महीने तक विद्रोहियों का प्रशासन पर नियंत्रण रहा। कोटा के जनसामान्य में भी अंग्रेजो के विरुद्ध तीव्र आक्रोश था। उन्होंने विद्रोहियों को अपना समर्थन व सहयोग दिया। जनवरी, 1858 में करौली से सैनिक सहायता मिलने पर महाराव के सैनिकों ने क्रांतिकारियों को गढ़ से खदेड़ दिया। किन्तु कोटा शहर को क्रांतिकारियों से मुक्त कराना अभी शेष था। 22 मार्च, 1858 को जनरल रॉबर्ट के नेतृत्व में एक सेना ने कोटा शहर को विद्रोहियों से मुक्त करवाया।

टोंक का नवाब वजीरुद्दौला अंग्रेज भक्त था। लेकिन टोंक की जनता एवं सेना की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। सेना का एक बड़ा भाग विद्रोहियों से मिल गया तथा इन सैनिकों ने नीमच के सैनिकों के साथ नवाब के किले को घेर लिया। सैनिकों ने नवाब से अपना वेतन वसूल किया और नीमच की सेना के साथ दिल्ली चले गए। नवाब के मामा मीर आलम खाँ ने विद्रोहियों का साथ दिया। 1858 ई. के प्रारम्भ में तात्या टोपे के टोंक पहुँचने पर जनता ने तात्या को सहयोग दिया एवं टोंक का जागीरदार नासिर मुहम्मद खाँ ने भी तांत्या का साथ दिया, जबकि नवाब ने अपने-आपको किले में बंद कर लिया। धौलपुर महाराजा भगवंत सिंह अंग्रेजो का वफादार था। अक्टूबर, 1857 में ग्वालियर तथा इंदौर के क्रांतिकारी सैनिकों ने धौलपुर में प्रवेश किया। धौलपुर राज्य की सेना तथा अधिकारी क्रांतिकारियों से मिल गये। विद्रोहियों ने दो महीने तक राज्य पर अपना अधिकार बनाए रखा। दिसम्बर, 1857 में पटियाला की सेना ने धौलपुर से क्रांतिकारियों को भगा दिया।

1857 में भरतपुर पर पोलिटिकल एजेन्ट का शासन था। अतः भरतपुर की सेना विद्रोहियों को दबाने के लिए भेजी गयी। परन्तु भरतपुर की मेव व गुर्जर जनता ने क्रांतिकारियों का साथ दिया। फलस्वरूप अंग्रेज अधिकारियों ने भरतपुर छोड़ दिया। मगर भरतपुर से विद्रोहियों के गुजरने के कारण वहाँ तनाव का वातावरण बना रहा। करौली के शासक महाराव मदनपाल ने अंग्रेज अधिकारियों का साथ दिया। महाराव ने अपनी सेना अंग्रेजो को सौंप दी तथा कोटा महाराव की सहायता के लिए भी अपनी सेना भेजी। उसने अपनी जनता से विद्रोह में भाग न लेने व विद्रोहियों का साथ न देने की अपील की। अलवर भी क्रांतिकारी भावनाओं से अछूता नहीं था। अलवर के दीवान फैजुल्ला खाँ की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। महाराजा बन्नेसिंह ने अंग्रेजो की सहायतार्थ आगरा सेना भेजी। अलवर राज्य की गुर्जर जनता की सहानुभूति भी क्रांतिकारियों के साथ थी। बीकानेर महाराज सरदारसिंह राजस्थान का अकेला ऐसा शासक था जो सेना लेकर विद्रोहियों को दबाने के लिए राज्य से बाहर भी गया। महाराजा ने पंजाब में विद्रोह को दबाने में अंग्रेजो का सहयोग 8किया। महाराजा ने अंग्रेजों को शरण तथा सुरक्षा भी प्रदान की। अंग्रेज विरोधी भावनाओं पर महाराजा ने कड़ा रूख अपनाकर उन पर नियंत्रण रखा।

मेवाड़ महाराणा स्वरूपसिंह ने अपनी सेना विद्रोहियों को दबाने के लिए अंग्रेजो की सहायतार्थ भेजी। उधर महाराणा के सम्बन्ध न तो अपने सरदारों से अच्छे थे और न कम्पनी सरकार से। महाराणा अपने सामंतों को प्रभावहीन करना चाहता था। इस समय महाराणा और कम्पनी सरकार दोनों को ही एक-दूसरे की आवश्यकता थी। मेरठ विद्रोह की सूचना आने पर मेवाड़ में भी विद्रोही गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए आवश्यक कदम उठाये गये। नीमच के क्रांतिकारी नीमच छावनी में आग लगाने के बाद मार्ग के सैनिक खजानों को लूटते हुए शाहपुरा पहुँचे। शाहपुरा मेवाड़ का ही ठिकाना था। शाहपुरा के शासक ने क्रांतिकारियों को सहयोग प्रदान किया। मेवाड़ की सेना क्रांतिकारियों का पीछा करते हुए शाहपुरा पहुँची तथा स्वयं कप्तान भी शाहपुरा आ गया परन्तु शाहपुरा के शासक ने किले के दरवाजे नहीं खोले। महाराणा ने अनेक अंग्रेजों को शरण तथा सुरक्षा भी प्रदान की। यद्यपि राज्य की जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध रोष विद्यमान था। जनता ने विद्रोह के दौरान रेजिडेंट को गालियाँ निकालकर अपने गुस्से का इजहार किया। मेवाड़ के सलूम्बर व कोठारिया के सामन्तों ने क्रांतिकारियों का सहयोग दिया। इन सामन्तों ने ठाकुर कुशालसिंह व तांत्या टोपे की सहायता की। बाँसवाड़ा का शासक महारावल लक्ष्मण सिंह भी विद्रोह के दौरान अंग्रेजो का सहयोगी बना रहा। 11 दिसम्बर, 1857 को तांत्या टोपे ने बाँसवाड़ा पर अधिकार कर लिया। महारावल राजधानी छोड़कर भाग गया। राज्य के सरदारों ने विद्रोहियों का साथ दिया। डूँगरपुर, जैसलमेर, सिरोही और बूँदी के शासकों ने भी विद्रोह के दौरान अंग्रेजों की सहायता की।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि राजपूताने में नसीराबाद, आउवा, कोटा, एरिनपुरा तथा देवली सैनिक विद्रोह एवं क्रांति के प्रमुख केन्द्र थे। इनमें भी कोटा सर्वाधिक प्रभावित स्थान रहा। कोटा की क्रांति की यह भी उल्लेखनीय बात रही कि इसमें राज्याधिकारी भी क्रांतिकारियों के साथ थे तथा उन्हें जनता का प्रबल समर्थन था। वे चाहते थे कोटा का महाराव अंग्रेजो के विरुद्ध हो जाये तो वे महाराव का नेतृत्व स्वीकार कर लेंगे किन्तु महाराव इस बात पर सहमत नहीं हुए। आउवा का ठाकुर कुशालसिंह को मारवाड़ के साथ मेवाड़ के कुछ सामंतों एवं जनसाधारण का समर्थन एवं सहयोग प्राप्त होना असाधारण बात थी। एरिनपुरा छावनी के पूर्बिया सैनिकों ने भी उसके अंग्रेज विरोधी संघर्ष में साथ दिया था। जोधपुर लीजन के क्रांतिकारी सैनिकों ने आउवा के ठाकुर के नेतृत्व में लेफ्टिनेंट हेथकोट को हराया था। आउवा के विद्रोह को ब्रिटिश सर्वोच्चता के विरुद्ध जन संग्राम के रूप में देखने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिये। जयपुर, भरतपुर, टोंक में जनसाधारण ने अपने शासकों की नीति के विरुद्ध विद्रोहियों का साथ दिया। धौलपुर में क्रांतिकारियों ने राज्य प्रशासन अपने हाथों में ले लिया था।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राजस्थान की जनता एवं जागीरदारों ने विद्रोहियों को सहयोग एवं समर्थन दिया। तात्या टोपे को भी राजस्थान की जनता एवं कई सामंतों ने सहायता प्रदान की। कोटा, टोंक, बांसवाड़ा और भरतपुर राज्यों पर कुछ समय तक विद्रोहियों का अधिकार रहा, जिसे जन समर्थन प्राप्त था। राजस्थान की जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा का खुला प्रदर्शन किया। उदयपुर में कप्तान शावर्स को गालियां दी गई, जबकि जोधपुर में कप्तान सदरलैण्ड के स्मारक पर पत्थर बरसाए। फिर भी विद्रोहियों में किसी सर्वमान्य नेतृत्व का न होना, आपसी समन्वय एवं रणनीति की कमी, शासकों का असहयोग तथा साधनों एवं शस्त्रास्त्रों की कमी के कारण यह क्रांति असफल रही।

क्रांति का समापन
क्रांति का अन्त सर्वप्रथम दिल्ली में हुआ, जहाँ 21 सितम्बर, 1857 को मुगल बादशाह को परिवार सहित बन्दी बना लिया। जून, 1858 तक अंग्रेजो ने अधिकांश स्थानों पर पुनः अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया। किंतु तांत्या टोपे ने संघर्ष जारी रखा। अंग्रेजों ने उसे पकड़ने में सारी शक्ति लगा दी। यह स्मरण रहे कि तांत्या टोपे ने राजस्थान के सामन्तों तथा जन साधारण में उत्तेजना का संचार किया था। परन्तु राजपूताना के सहयोग के अभाव में तांत्या टोपे को स्थान-स्थान पर भटकना पड़ा। अंत में,उसे पकड़ लिया गया और फांसी पर चढ़ा दिया। क्रांति के दमन के पश्चात् कोटा के प्रमुख नेता जयदयाल तथा मेहराब खाँ को एजेन्सी के निकट नीम के पेड़ पर सरे आम फांसी दे दी गई। क्रांति से सम्बन्धित अन्य नेताओं को भी मौत के घाट उतार दिया अथवा जेल में डाल दिया। अंग्रेजों द्वारा गठित जांच आयोग ने मेजर बर्टन तथा उसके पुत्रों की हत्या के सम्बन्ध में महाराव रामसिंह द्वितीय को निरपराध किंतु उत्तरदायी घोषित किया। इसके दण्डस्वरूप उसकी तोपों की सलामी 15 तोपों से घटाकर 11 तोपें कर दी गई। जहाँ तक आउवा ठाकुर का प्रश्न है, उसने नीमच में अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण (8 अगस्त, 1860) कर दिया था। उस पर मुकदमा चलाया गया, किंतु बरी कर दिया गया।

परिणाम
यद्यपि 1857 की क्रांति असफल रही किंतु उसके परिणाम व्यापक सिद्ध हुए। दुर्भाग्य से राजस्थान के नरेशों ने अंग्रेजो का साथ देकर क्रांति के प्रवाह को कमजोर कर दिया। क्रांति के पश्चात् यहाँ के नरेशों को ब्रिटिश सरकार द्वारा पुरस्कृत किया गया। क्योंकि राजपूताना के शासक उनके लिए उपयोगी साबित हुए थे। अब ब्रिटिश नीति में परिवर्तन किया गया। शासकों को संतुष्ट करने हेतु ‘गोद निषेध’ का सिद्धांत समाप्त कर दिया गया। राजकुमारों को अंग्रेजी शिक्षा का प्रबन्धक किया जाने लगा। अब राज्य कम्पनी शासन के स्थान पर ब्रिटिश नियंत्रण में सीधे आ गये। साम्राज्ञी विक्टोरिया की ओर से की गई घोषणा (1858) द्वारा देशी राज्यों को यह आश्वासन दिया गया कि देशी राज्यों का अस्तित्व बना रहेगा। क्रांति के पश्चात् नरेशों एवं उच्चाधिकारियों की जीवन शैली में पाश्चात्य प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता हैं। अंग्रेजी साम्राज्य की सेवा कर उनकी प्रशंसा तथा आदर प्राप्त करने में ही अब राजस्थानी नरेश गौरव का अनुभव करने लगे। जहाँ तक सामन्तों का प्रश्न है, उसने खुले रूप में ब्रिटिश सत्ता का विरोध किया था। अतः क्रांति के पश्चात् अंग्रेजो की नीति सामन्त वर्ग को अस्तित्वहीन बनाने की रही। जागीर क्षेत्र की जनता की दृष्टि में सामन्तों की प्रतिष्ठा कम करने का प्रयास किया गया। सामन्तों को बाध्य किया गया कि से सैनिकों को नगद वेतन देवें। सामन्तों के न्यायिक अधिकारों की सीमित करने का प्रयास किया। उनके विशेषाधिकारों पर कुठाराघात किया गया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सामन्तों का सामान्य जनता पर जो प्रभाव था, ब्रिटिश नीतियों के कारण कम करने का प्रयास किया गया।

क्रांति के पश्चात् आवागमन के साधनों का, सेना के त्वरित गति से पहुँचने के लिए, विकास किया गया। रेलवे का विकास इनमें प्रमुख है। छावनियों को जोड़ने वाली सड़कें बनाई गयीं। आधुनिक शिक्षा का प्रसार कर मध्यम वर्ग को अपने लिए उपयोगी बनाने की कवायद शुरू की गई। अपने आर्थिक हितों के संवर्धन के लिए वैश्य समुदाय को संरक्षण देने की नीति अपनाई गयी। फलतः क्रांति के पश्चात् वैश्य समुदाय राजस्थान में अधिक ताकतवर बन सका। 1857 की क्रांति ने अंग्रेजो की इस धारणा को निराधार सिद्ध कर दिया कि मुगलों एवं मराठों की लूट से त्रस्त राजस्थान की जनता ब्रिटिश शासन की समर्थक है। परन्तु यह भी सच है कि भारत विदेशी जुये को उखाड़ फेंकने के प्रथम बड़े प्रयास में असफल रहा। राजस्थान में फैली क्रांति की ज्वाला ने अर्ध शताब्दी के पश्चात् भी स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान लोगों को संघर्ष करने की प्रेरणा दी, यही क्रांति का महत्व समझना चाहिए।

क्रांति का स्वरूप 1857 की अत्यधिक महत्वपूर्ण घटना को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी लम्बे समय तक सैनिक विद्रोह अथवा विप्लव के नाम से सम्बोधित किया गया। परन्तु जब इस घटना के विभिन्न पहलुओं पर विद्वानों,इतिहासकारों एवं विशेष रूप से घटना के प्रत्यक्षदर्शियों के विचार मंथन सामने आने लगे तो क्रांति के सैनिक विद्रोह के स्वरूप को नहीं नकारने की कोई वजह नहीं बची। फिर भी घटना के स्वरूप के मत-मतान्तरों के कारण कोई सर्वमान्य विचार नहीं बन सका। वैसे भी इतिहास की घटनाओं पर न्यायाधीश की तरह अन्तिम टिप्पणी नहीं की जा सकती है। सामाजिक अध्ययन में ऐसा होना कोई अनुचित भी नहीं है। विभिन्न विचारों के प्रकटीकरण एवं सम्भावनाओं की तलाश से ही ज्ञान की गहराई का अभिज्ञान होता है अन्यथा ज्ञान कुंठित एवं सड़ान्धयुक्त हो जायेगा।

निःसन्देह 1857 का वर्ष राजस्थान सहित भारत के लिए यादगार वर्ष रहा, क्योंकि ऐसी महान घटना भारतीय इतिहास की पहली घटना थी। भावी स्वतन्त्रता संग्राम में देशभक्तों और विशेष रूप से क्रांतिकारियों पर इस घटना का असाधारण प्रभाव पड़ा। यह घटना उनके लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनी। सम्पूर्ण राष्ट्र द्वारा 1857 की 150 वीं जयन्ती वर्ष 2007 में उत्साहपूर्वक मनाना ही घटना के महत्व एवं 11प्रभाव को दर्शाती है। वास्तविक अर्थो में विद्रोह के स्वरूप के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि किसी क्रांति का स्वरूप केवल उस क्रांति के प्रारम्भ करने वालों के लक्ष्यों से निर्धारित नहीं हो सकता, बल्कि इससे निर्धारित होता है कि उस क्रांति ने अपनी क्या छाप छोड़ी।

1857 की महान घटना के स्वरूप को लेकर जो मत सामने आये हैं, उनमें इसे सैनिक विद्रोह (सर जॉन सीले, लारेन्स, पी.ई. राबटर्स आदि के मत), शासकों के विरुद्ध सामन्ती प्रतिक्रिया (मेलिसन का मत), अशक्त वर्गों द्वारा अपनी खोई हुई सत्ता को पुनः प्राप्त करने का अन्तिम प्रयास (ताराचन्द का मत), प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम (विनायक दामोदर सावरकर, पट्टाभि सीतारमैया का मत) आदि प्रमुख मत हैं। सुरेन्द्रनाथ सेन ने अपनी पुस्तक ‘1857’ में लिखा है, ”आन्दोलन एक सैनिक विद्रोह की भाँति आरम्भ हुआ, किंतु केवल सेना तक सीमित नहीं रहा।“ आर.सी. मजूमदार ने भी यह स्वीकार किया है कि कुछ क्षेत्रों में जनसाधारण ने इसका समर्थन किया था। अशोक मेहता ने इसे राष्ट्रीय विद्रोह कहा है। कई विद्वानों ने यह मत प्रकट किया है कि इस संग्राम में हिन्दू और मुसलमानों ने कन्धे से कन्धा मिलाकर समान रूप से भाग लिया और इन्हें जनसाधारण की सहानुभूति प्राप्त थी। वी.डी. सावरकर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा से अभिहित किया है। वर्तमान में इस मत की ही सर्वाधिक स्वीकार्यता है।यहाँ हमारे लिए यह उचित होगा कि हम राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में इस घटना की समीक्षा करें।मारवाड़ के ख्यात लेखक बांकीदास, बूँदी के साहित्यकार सूर्यमल्ल मीसण ने अपनी कृतियों अथवा पत्रों के माध्यम से गुलामी करने वाले राजपूत शासकों को धिक्कारा है। सूर्यमल्ल मीसण ने पीपल्या के ठाकुर फूल सिंह को लिखे एक पत्र में राजपूत शासकों को गुलामी करने की मनोवृत्ति की कटु आलोचना की थी। आउवा व अन्य कुछ ठाकुरों ने जिनमें सलूम्बर भी शामिल है, अपने क्षेत्रों में चारणों द्वारा ऐसे गीत रचवाये, जिनमें उनकी छवि अंग्रेज विरोधी मालूम होती है।

राजस्थान में क्रांति की शुरुआत 1857 से हुई, जब यहाँ के ब्रिटिश अधिकारी भागकर ब्यावर की ओर गये, तब रास्ते में ग्रामीण उन पर आक्रमण करने के लिए खड़े थे। कप्तान प्रिचार्ड ने स्वीकार किया है कि यदि बम्बई लॉन्सर के सैनिक उनके साथ न होते तो उनका बचे रहना आसान नहीं था। उसके अनुसार मार्ग में किसी भी भारतीय ने उनके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित नहीं की। उसने आगे लिखा है कि इस घटना के 24 घण्टे पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। इन अंग्रेजो के घरेलू नौकरों में उनके प्रति उपेक्षा का भाव देखा गया। मेवाड़ का पोलीटिकल एजेन्ट कप्तान शावर्स जब उदयपुर शहर के मार्ग से गुजरता हुआ राजमहल की ओर जा रहा था, तब रास्ते में जनता की भीड़ ने उसे धिक्कारा। इसके विपरीत, क्रांतिकारी जिस मार्ग से भी गुजरे, लोगों ने उनका हार्दिक स्वागत किया। मध्य भारत का लोकप्रिय नेता तात्या टोपे जहाँ भी गया, जनता ने उसका अभिनन्दन किया तथा उसे रसद आदि प्रदान की। जोधपुर के सरकारी रिकॉर्ड में यह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि जब ए.जी.जी. जॉर्ज लॉरेन्स ने आउवा पर चढ़ाई की तब सर्वप्रथम गांव वालों की तरफ से आक्रमण हुआ था। मारवाड़ में ऐसी परम्परा थी कि जब किसी बड़े अधिकारी की मृत्यु होती थी तब राजकीय शोक मनाते हुए किले में नौबत बजाना बन्द हो जाता था। किंतु कप्तान मॉक मेसन की मृत्यु के बाद ऐसा नहीं किया गया, जबकि किलेदार अनाड़सिंह की मृत्यु होने पर किले में नौबत बजाना बन्द रख गया। आउवा ठाकुर कुशाल सिंह द्वारा ब्रिटिश सेनाओं की टक्कर लेने से घटना को समसामयिक साहित्य में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है।

राजस्थान के संदर्भ में 1857 की क्रांति का अध्ययन और विश्लेषण करने से यह विदित होता है कि राजस्थान में यह महान् घटना किसी संयोग का परिणाम नहीं थी, अपितु यह तो ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सर्वव्यापी रोष का परिणाम थी। यही कारण है कि आउवा की जनता सैनिकों के जाने के बाद भी लड़ती रही। नसीराबाद, नीमच और एरिनपुरा की घटनाएं निःसन्देह भारतव्यापी क्रांति का अंग थी, लेकिन कोटा और आउवा की घटनाएँ स्थानीय परिस्थितियों का परिणाम थी और उनमें ब्रिटिश विरोधी भावना निर्विवाद रूप से विद्यमान थी। टोंक और कोटा की जनता ने तो विद्रोहियों से मिलकर संघर्ष में भाग लिया था।

जन आक्रोश के कारण ही भरतपुर के शासक ने मोरीसन को राज्य छोड़ने का परामर्श दिया था। कोटा के महाराव ने भी मेजर बर्टन को कोटा नहीं आने के लिए कहा था। जन आक्रोश के कारण ही मजबूरीवश टोंक के नवाब ने अंग्रेजो को अपने राज्य की सीमा से नहीं गुजरने के लिए कहा था। अंत में यह कहा जा सकता है कि राजस्थान की जनता अंग्रेजों को फिरंगी कहती थे और अपने धर्म को बनाये रखने के लिए उनसे मुक्ति चाहती थी। कुछ स्थानों पर स्थानीय जनता ने भी इस संघर्ष में भाग लिया था, तो अन्य स्थानों पर जनता का नैतिक समर्थन प्राप्त था। यह कहने में हमें संकोच नहीं करना चाहिए कि 1857 का यह संघर्ष विदेशी शासन से मुक्त होने का प्रथम प्रयास था। इस क्रांति को यदि राजस्थान का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा जाये तो सम्भवतः अनुचित नहीं होगा।

राजस्थान में जन जागरण एवं स्वतन्त्रता संग्राम

राजनीतिक जागरण एवं स्वतन्त्रता आन्दोलन में विभिन्न तत्वों का योगदान
1857 की क्रांति की भूमिका यद्यपि राजस्थान में कतिपय स्थानों पर अत्यधिक प्रभावी रही थी किंतु अधिकांश राज्य इससे अछूते रहे। 1857 की क्रांति की असफलता के कारण देश के अनुरूप राजस्थान में भी अंग्रेजों का वर्चस्व स्थापित हो गया (राजस्थान के अधिकांश शासक अंग्रेजो के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति प्रदर्शन की दौड़ में शामिल हो गये। ऐसा करके वे स्वयं को गौरवान्वित समझने लगे। ऐसी परिस्थितियों में राज्य की प्रजा में भी अंग्रेजों की अजेयता की भावना का घर करना स्वाभाविक नहीं था। राजकीय कार्यों एवं जन कल्याण की भावना के प्रति शासकों की उदासीनता ने प्रजा के कष्टों को असहनीय बना दिया। सामन्तों की शोषण प्रवृत्ति यथावत बनी। परन्तु सदैव एक स्थिति बनी नहीं रह सकती है। स्थिति में बदलाव के संकेत बाहर से नहीं, अन्दर से ही आने थे। राज्य की जनता ही बदलाव की अपवाहक बनी। देरी से ही सही,राजस्थान में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ। राष्ट्र के सोच में परिवर्तन के साथ देशी रियासतों में भी राष्ट्रवादी भावनाओं ने जन्म लिया। जन आन्दोलनों ने भी स्थानीय स्तर पर अपनी जगह बनाकर माहौल को उत्तेजित कर दिया। राज्य की दमनात्मक नीतियों एवं ब्रिटिश सरकार के कठोर दृष्टिकोण के बावजूद जनता ने अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ी। शासन में सुधार एवं भागीदारी के लिए आवाज उठाई। आजादी की अन्तिम लड़ाई के दौरान राष्ट्र के बड़े नेताओं को इस बात का अहसास हो गया था कि अब देशी रियासतों को पराधीन बनाकर अधिक समय तक नहीं रखा जा सकता। आखिर, राष्ट्र की स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् राजस्थान की देशी रियासतों का भी भारतीय संघ में विलीनीकरण हो गया।

यह कहने आवश्यकता नहीं है कि राजस्थान में स्वतन्त्रता से पूर्व जनजागरण लाने का कार्य जिन नेताओं ने किया, उनमें देशभक्ति का जलवा था। वे समकालीन समाज एवं राजनीति को लेकर चिन्तित एवं व्यथित थे। वे क्रांतिकारी विचारों से युक्त थे। उनके नजरिये में स्वतन्त्रता आन्दोलन से तात्पर्य केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने से नहीं था। वे सामाजिक समस्याओं एवं कुरीतियों के निराकरण, स्त्रियों की दुर्दशा सुधारने तथा कृषकों का शोषण, निरक्षरता, बेगारी आदि के उन्मूलन के लिए भी कृत संकल्प थे। वे चरखा, खादी, ग्राम-स्वावलंबन, सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के पक्ष में थे। देशी रियासतों में 1934 और विशेष रूप से 1938 के बाद चला संघर्ष भी इसी स्वतंत्रता संघर्ष का हिस्सा था। राजनीतिक जागरण एवं स्वतन्त्रता आन्दोलन में जिन मुख्य तत्वों का योगदान रहा, उनका संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है -

जनजातीय एवं किसान आन्दोलन
राजस्थान में राजनीतिक चेतना का श्रीगणेश कर यहाँ की जनजातियों एवं किसानों ने इतिहास रच दिया। राजस्थान के आदिवासी क्षेत्रों में भील, मीणा, गरासिया आदि जनजातियाँ प्राचीन काल से रहती आयी हैं। अपने परंपरागत अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में इन्होंने अपना विरोध प्रकट किया, चाहे वह फिर अंग्रेजों के विरुद्ध हो या फिर शासक के विरुद्ध । यहाँ के किसानों ने भी अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों, शोषण एवं आर्थिक मार के विरोध में अपना विरोध जताकर राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती दे डाली। अंग्रेजों का आतंक, रियासतों की अव्यवस्था, जागीरदारों का शोषण, कृषकों के परम्परागत अधिकारों का उल्लंघन आदि कारणों से कृषकों में असंतोष पनपा। जागीरी क्षेत्र में कृषकों का असंतोष जागीरदारों के जुल्मों के विरुद्ध था। जागीरदारों को कृषकों के हितों की कोई चिन्ता नहीं थी। जागीरदार अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र रहने के कारण उसे शासकों अथवा अंग्रेज सरकार से संरक्षण प्राप्त था।

राजस्थान में स्वतन्त्रता आन्दोलन एवं आदिवासियों में जनजागृति का शंखनाद फूंकने का योगदान देने वालों में मोतीलाल तेजावत (1888-1963) का विशिष्ट स्थान है। तेजावत का जन्म उदयपुर जिले में 14एक सामान्य ओसवाल परिवार में हुआ था। तेजावत अपने बलबूते पर एक बड़ा आन्दोलन ”एकी आन्दोलन“ (1921-22) खड़ा करने में सफल रहा। उसने जिस प्रकार आदिवासियों का विश्वास प्राप्त किया, वह एकदम अकल्पनीय लगता है। तेजावत से पहले गोविन्द गुरू (1858-1931) ने बागड़ प्रदेश में आदिवासी भीलों के उद्धार के लिए ‘भगत आन्देालन’ (1921-1929) चलाया था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु ने 1883 में‘सम्प सभा’ की स्थापना कर इसके माध्यम से भीलों में सामाजिक एवं राजनीतिक जागृति पैदा कर उन्हें संगठित किया।

गोविन्द गुरु ने मेवाड़, डूँगरपुर, ईडर, मालवा आदि क्षेत्रों में बसे भीलों एवं गरासियों को ‘सम्प सभा’ के माध्यम से संगठित किया। उन्होंने एक ओर तो इन आदिवासी जातियों में व्याप्त सामाजिक बुराइयों और कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न किया तो दूसरी ओर, उनको अपने मूलभूत अधिकारों का अहसास कराया। गोविन्द गुरु ने सम्प सभा का प्रथम अधिवेशन 1903 में गुजरात में स्थित मानगढ़ की पहाड़ी पर किया। इस अधिवेशन में गोविंद गुरु के प्रवचनों से प्रभावित होकर हजारों भील-गरासियों ने शराब छोड़ने, बच्चों को पढ़ाने और आपसी झगड़ों को अपनी पंचायत में ही सुलझाने की शपथ ली। गोविन्द गुरु ने उन्हें बैठ-बेगार और गैर वाजिब लागतें नहीं देने के लिए आह्वान किया। इस अधिवेशन के पश्चात् हर वर्ष आश्विन शुक्ला पूर्णिमा को मानगढ़ की पहाड़ी पर सम्प सभा का अधिवेशन होने लगा। भीलों में बढ़ती जागृति से पड़ोसी राज्य सावधान हो गये। अतः उन्होंने ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना की कि भीलों के इस संगठन को सख्ती से दबा दिया जावे। हर वर्ष की भाँति जब 1908 में मानगढ़ की पहाड़ी पर सम्प सभा का विराट् अधिवेशन हो रहा था, तब ब्रिटिश सेना ने मानगढ़ की पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया। उसने भीड़ पर गोलियों की बौछार कर दी। फलस्वरूप 1500 आदिवासी घटना स्थल पर ही शहीद हो गये। गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। परन्तु भीलों में प्रतिक्रिया होने के डर से उनकी यह सजा 20 वर्षों के कारावास में तब्दील कर दी। अंत में वे 10 वर्ष में ही रिहा हो गये। गोविन्द गुरु अहिंसा के पक्षधर थे व उनकी श्वेत ध्वजा शांति की प्रतीक थी। आज भी भील समाज में गोविन्द गुरु का पूजनीय स्थान है।

राजस्थान के आदिवासियों में गोविन्द गुरु के पश्चात् सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है, मोतीलाल तेजावत का। आदिवासियों पर ढाये जाने वाले जुल्मों से उद्वेलित होकर उन्होंने ठिकाने की नौकरी छोड़ दी। उन्होंने 1921 में भीलों को जागीरदारों द्वारा ली जाने वाली बैठ-बेगार और लाग बागों के प्रश्न को लेकर संगठित करना प्रारम्भ किया। शनैः शनैः यह आन्दोलन सिरोही, ईडर,पालनपुर, विजयनगर आदि राज्यों में भी विस्तार पाने लगा। तेजावत ने अपनी मांगों को लेकर भीलों का एक विराट् सम्मेलन विजयनगर राज्य के नीमड़ा गाँव में आयोजित किया। मेवाड़ एवं अन्य पड़ोसी राज्यों की सरकारें भीलों के संगठित होने से चिंतित होने लगी। अतः इन राज्यों की सेनाएँ भीलों के आंदोलन को दबाने के लिए नीमड़ा पहुँच गयी। सेना द्वारा सम्मेलन स्थल को घेर लेने और गोलियां चलने के कारण 1200 भील मारे गये और कई घायल हो गये। मोतीलाल तेजावत पैर में गोली लगने से घायल हो गये। लोग उन्हें सुरक्षित स्थान ले गये, जहाँ उनका इलाज किया गया। मोतीलाल तेजावत भूमिगत हो गये, इस कारण मेवाड़,सिरोही आदि राज्यों की पुलिस उनको पकड़ने में नाकामयाब रहीं। अंत में, 8 वर्ष पश्चात 1929 में गांधी जी की सलाह पर तेजावत ने अपने आपको ईडर पुलिस के सुपुर्द कर दिया। 1936 में उन्हें रिहा कर दिया गया। इसके पश्चात् भी नजरबन्द एवं जेल का लुका-छिपी खेल चलता रहा किन्तु उन्होंने सामाजिक सरोकारों से कभी मुंह नहीं मोड़ा।

भील-गरासियों के हितों के लिए देश की आजादी में अन्य जिन जन नेताओं का योगदान रहा, उनमें प्रमुख थे - माणिक्यलाल वर्मा, भोगीलाल पण्ड्या, मामा बालेश्वर दयाल, बलवंत सिंह मेहता, हरिदेव जोशी, गौरीशंकर उपाध्याय आदि। इन्होंने भील क्षेत्रों में शिक्षण संस्थाएँ, प्रौढ़ शालाएँ, हॉस्टल आदि स्थापित किये। साथ ही, उन आदिवासियों को कुप्रवृत्तियों को छौड़ने के लिए प्रेरित किया।

राजपूताना में कई राज्यों में मीणा जनजाति शताब्दियों से निवास करती आ रही है। कुछ स्थानों पर मीणा शासकों का प्राचीन काल में आधिपत्य रहा था। मीणाओं का मुख्य क्षेत्र ढूँढाड़ था। समय पाकर मीणाओं के दो मुख्य भेद हो गये। जो मीणा खेती करते थे, वे खेतिहर मीणा तथा जो चौकीदारी करते थे, वे चौकीदार मीणा कहलाने लगे। कई बार चौकीदार मीणाओं को चोरी और डकैती के लिए जिम्मेदार ठहराया जाने लगा और किसी चोरी का माल बरामद न होने की स्थिति में उस माल की कीमत इनसे वसूली जाने लगी। इन परिस्थितियों में जयपुर राज्य ने भारत, सरकार द्वारा पारित ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ (1924) का लाभ उठाते हुए मीणाओं की जीविका को जरायम पेशा मानते हुए हर मीणा परिवार के बालिग स्त्री-पुरुष ही नहीं, 12 वर्ष से बड़े बच्चों का भी निकटस्थ पुलिस थाने में नाम दर्ज करवाना और दैनिक हाजरी देना आवश्यक कर लिया। इस प्रकार शताब्दियों से स्वच्छन्द विचरण करने वाली बहादुर मीणा जाति साधारण मानवाधिकारों से वंचित कर दी गई। सरकार की इस कार्यवाही का विरोध होने लगा। मीणा समाज में असंतोष का स्वर उस समय और तेज हो गया जब जयपुर पुलिस ने जरायम पेशा कानून (1930) के अंतर्गत कठोरता से हाजिरी का पालन करना प्रारम्भ कर दिया। 1933 में मीणा क्षत्रिय महासभा की स्थापना हुई। इस सभा ने जयपुर सरकार से जरायम पेशा कानून रद्द करने की मांग की परन्तु राज्य ने इसके विपरीत कठोरता से मीणाओं को दबाना प्रारम्भ किया। अप्रैल, 1944 में जैन मुनि मगन सागर जी की अध्यक्षता में नीमकाथाना में मीणों का एक वृहद सम्मेलन हुआ, जिसमें जयपुर राज्य मीणा सुधार समिति’ का गठन हुआ। इस समिति के अध्यक्ष बंशीधर शर्मा, मंत्री राजेन्द्र कुमार एवं संयुक्त मंत्री लक्ष्मीनारायण झरवाल बनाये गये। 1945 में जरायम पेशा कानून को रद्द करने के लिए प्रांतीय स्तर पर आंदोलन किया गया। अखिल भारतीय देशी राज्य परिषद ने भी मीणाओं की मांग का समर्थन किया। इसके परिणामस्वरूप थानों में अनिवार्य उपस्थिति की बाध्यताओं को समाप्त किया गया। परन्तु अभी जरायम पेशा अधिनियम यथावत था, जो आजादी के बाद 1952 में ही समाप्त हो सका।

राजस्थान के देशी रियासतों के इतिहास में बिजौलिया किसान आन्दोलन (1897-1941) का विशिष्ट स्थान है। दीर्घ काल तक चलने वाले इस आन्दोलन में किसान वर्ग ठिकाने और मेवाड़ राज्य की 16सम्मिलित शक्ति से जूझता रहा। इस आन्दोलन में केवल पुरुषों ने ही भाग नहीं लिया, बल्कि स्त्रियों व बालकों ने भी सक्रियता दिखायी। यह आन्दोलन पूर्णतया स्वावलम्बी एवं अहिंसात्मक था। यह आन्दोलन प्रारम्भ में विजयसिंह पथिक के नेतृत्व में चला। इस आन्दोलन में कृषक वर्ग ने अभूतपूर्व साहस, धैर्य और बलिदान का परिचय दिया, चाहे यह अपने मंतव्य में सफल नहीं हो सका। यह आन्दोलन सामंती व्यवस्था के विरुद्ध भयंकर प्रहार था। यह आन्दोलन मेवाड़ राज्य की सीमा तक ही सीमित नहीं रहा। इस आन्दोलन ने कालान्तर में माणिक्यलाल वर्मा जैसे तेजस्वी नेता को जन्म दिया, जो बाद में मेवाड़ राज्य में उत्तरदायी सरकार की स्थापना हेतु अनेक आन्दोलनों का प्रणेता बना। हमें यह जान लेना चाहिए कि राजस्थान में कृषक आन्दोलन स्वस्फूर्त था और इसका नेतृत्व पूर्णतः गैर पेशेवर नेताओं एवं अत्यन्त साधारण किसान वर्ग ने किया था, चाहे उनका आधार जातिगत रहा। बिजौलिया आन्दोलन में धाकड़ जाति की महती भूमिका रही। सीकर और शेखावटी आन्दोलनों में जाट जाति का वर्चस्व रहा। मेवाड़ और सिरोही राज्यों के किसान आन्दोलनों के पीछे भील और गरासिया जातियों की शक्ति रही। इसी प्रकार अलवर और भरतपुर राज्यों में मेवों की मुख्य भूमिका रही। इस प्रकार इन आंदोलनों को सुनियोजित रूप से संचालित करने का श्रेय जाति पंचायतों एवं जाति संगठनों को दिया जा सकता है।

राजस्थान के किसान आंदोलन में बरड़ (बूँदी) किसान आन्दोलन (1921-43), नीमराणा (अलवर) किसान आंदोलन (1923-25), बेगू (चित्तौड़गढ़), किसान आंदोलन (1922-25), शेखावाटी किसान आंदोलन (1924-47), मारवाड़ किसान आंदोलन (1924-47) प्रमुख है। यह स्मरणीय है कि इन किसान आन्दोलनों में स्त्रियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। राजस्थान के ये किसान आन्दोलन सामन्त विरोधी स्वरूप लिए हुए थे और इन्होंने कालान्तर में जागीरदारी उन्मूलन की भूमिका तैयार की। राजस्थान के किसान आंदोलन में जबरदस्त उत्साह देखा जा सकता है। यह आन्दोलन सामान्यतः अहिंसात्मक रहे। इन आन्दोलनों ने प्रजामण्डल के जमीन तैयार कर दी थी।


राजस्थान में जन जागरण एवं स्वतन्त्रता संग्राम

दलित आन्दोलन
स्वतन्त्रतापूर्व राजस्थान में दलितों में भी क्रियाशील जागरण दिखाई देता है। दलितों की स्वतन्त्रता आन्दोलन में भूमिका उनके सामाजिक एवं राजनीतिक जागृति का प्रतीक थीं। यह ध्यातव्य है कि दलितों ने राजस्थान में प्रजामण्डल आन्दोलनों में सक्रिय भाग लेकर राजस्थान में आजादी के आन्दोलन को विस्तृत सामाजिक आधार प्रदान किया। 1920 और 1934 के समय दलितों ने अजमेर-मेरवाड़ा के राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया। राजपूताना के दलित जातियों में सामाजिक और राजनीतिक जागृति के चिह्न दिखाई देते हैं। इसका विशेष कारण यह था कि कोटा, जयपुर, धौलपुर और भरतपुर की रियासतों में दलितों का बाहुल्य था। अतः इन राज्यों में दलितों में, सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलनों में सक्रिय भूमिका प्रदर्शित की। इसी कारण इन राज्यों ने इनकी मांगों की ओर ध्यान दिया। 1945-46 में उणियारा में बैरवा जाति ने नागरिक असमानता विरोधी आन्दोलन चलाकर अपनी सक्रियता का परिचय दिया।

आर्य समाज की भूमिका
राजस्थान में राजनीतिक चेतना जागृत करने एवं शिक्षा प्रसार में स्वामी दयानंद सरस्वती एवं आर्यसमाज ने महत्वपूर्ण कार्य किया। स्वामी दयानंद राजस्थान में सर्वप्रथम 1865 ई. में करौली के राजकीय अतिथि के रूप में आए। उन्होंने किशनगढ़,जयपुर,, पुष्कर एवं अजमेर में अपने उपदेश दिए। स्वामी जी का राजस्थान में दूसरी बार आगमन 1881 ई. में भरतपुर में हुआ। वहाँ से स्वामीजी जयपुर, अजमेर, ब्यावर, मसूदा एवं बनेड़ा होते हुए चित्तौड़ पहुँचे, जहाँ कविराज श्यामलदास ने उनका स्वागत किया। महाराणा सज्जन सिंह (1874-1884 ई.) के अनुरोध पर स्वामीजी उदयपुर पहुँचे, वहाँ महाराणा ने उनका आदर-सत्कार किया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने उदयपुर में आर्य धर्म का प्रचार किया। उनके उपदेशों को सुनने के लिए मेवाड़ के अनेक सरदार नित्य उनकी सभा में आया करते थे।

अगस्त, 1882 को स्वामी दयानन्द दुबारा उदयपुर पहुँचे। उदयपुर में स्वामी जी ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के द्वितीय संस्करण की भूमिका लिखी। यहीं फरवरी, 1883 ई. में स्वामी जी के सानिध्य में ‘परोपकारिणी सभा’ की स्थापना हुई। कालान्तर में मेवाड़ में विष्णु लाल पंड्या ने आर्य समाज की स्थापना की। 1883 ई. में ही स्वामीजी जोधपुर गए। जोधपुर महाराजा जसवन्तसिंह, सर प्रतापसिंह तथा रावराजा तेजसिंह पर स्वामीजी के उपदेशों का काफी प्रभाव पड़ा। अपने व्याख्यानों में स्वामीजी क्षत्रिय नरेशों के चरित्र संशोधन और गौरक्षा पर विशेष बल दिया करते थे। भरी सभा में उन्होने वेश्यागमन के दोष बतलाये और महाराजा जसवन्तसिंह की ‘नन्हीजान’ के प्रति आसक्ति पर उन्हें भी फटकार लगाई। कहा जाता है कि नन्हींजान ने स्वामीजी को विष दिलवा दिया, जिससे उनकी तबीयत बिगड़ गई। स्वामीजी को अजमेर ले जाया गया। काफी चिकित्सा के उपरान्त भी वह स्वस्थ नहीं हुए और अजमेर में ही 1883 ई. में इनका देहान्त हो गया।

दयानन्द सरस्वती ने स्वधर्म, स्वराज्य, स्वदेशी और स्वभाषा पर जोर दिया। उन्होंने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को उदयपुर में हिन्दी भाषा में लिखा। अजमेर में ‘आर्य समाज’ की स्थापना की गई। स्वामी दयानंद सरस्वती एवं आर्य समाज ने राजस्थान में स्वतंत्र विचारों के लिए पृष्ठभूमि तैयार की। आर्य समाज ने हिन्दी भाषा, वैदिक धर्म, स्वदेशी एवं स्वदेशाभिमान की भावना पैदा की। राजस्थान में राजनीतिक जागृति पैदा करने एवं शिक्षा प्रसार के लिए भी आर्य समाज ने सराहनीय कार्य किया। आर्य समाज की शिक्षण संस्थानों में हिन्दी, अंग्रेजी भाषा के साथ ही वैदिक धर्म एवं संस्कृत की शिक्षा भी दी जाने लगी। आर्य समाज ने सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया। अजमेर में हरविलास शारदा व चान्दकरण शारदा ने सामाजिक कुरीतियों के विरोध में आवाज उठायी। आर्य समाज ने खादी प्रचार, हरिजन उद्धार, शिक्षा के प्रचार-प्रसार को अपना मिशन बनाया। भरतपुर में जनजागृति पैदा करने वाले मास्टर आदित्येन्द्र व जुगल किशोर चतुर्वेदी आर्य समाज के ही कार्यकर्ता थे।

समाचार पत्रों का योगदान
अत्याचार और शोषण की ज्वाला अज्ञानता में ही पनपती है। अज्ञानता को मिटाने और जन चेतना के प्रसार में प्रेस की भूमिका निर्णायक होती है। राजस्थान में समाचार पत्रों ने जन जागरण में जो योगदान दिया, उसका प्रमाण बिजौलिया किसान आन्दोलन में देखने को मिला। जब बिजोलिया के अत्याचारों का वर्णन ‘प्रताप’ नामक समाचार पत्र में छपा तो पूरे देश में इस पर चर्चा होने लगी। राजस्थान के राज्यों के आंतरिक मामलों का ज्ञान समाचार पत्रों के माध्यम से जनता में पहुंचने लगा। विजय सिंह पथिक, रामनारायण चौधरी, जयनारायण व्यास आदि नेताओं ने राज्य की समस्याओं के विषय में समाचार पत्रों के माध्यम से चर्चा प्रारम्भ की। ‘राजपूताना गजट’ (1885) और ‘राजस्थान समाचार’ (1889) बहुत थोड़े समय के पश्चात् ही बन्द हो गये। 1920 में पथिक ने ‘राजस्थान केसरी’ का प्रकाशन पहले वर्धा से और फिर अजमेर से प्रारम्भ किया। 1922 में राजस्थान सेवा संघ ने नवीन राजस्थान’ प्रारम्भ किया जिसमें आदिवासी एवं किसान आन्दोलनों का समर्थन किया गया। 1923 में वह बन्द हो गया परन्तु ‘तरूण राजस्थान’ के नाम से इसका प्रकाशन पुनः प्रारम्भ किया गया। इसमें भी कृषक आन्दोलनों एवं अत्याचारों पर व्यापक चर्चा हुई। इस पत्र के सम्पादन में शोभालाल गुप्त, रामनारायण चौधरी, जयनारायण व्यास आदि नेताओं ने सराहनीय योगदान दिया। जोधपुर, सिरोही तथा अन्य राज्यों के निरंकुश शासकों के विरुद्ध इस पत्र में आवाज उठाई गई। 1923 में ऋषिदत्त मेहता ने ब्यावर से राजस्थान नाम का साप्ताहिक अखबार निकालना प्रारम्भ किया। 1930 के बाद समाचार पत्रों की संख्या बढ़ी। आगे के वर्षों में ‘नवज्योति’ ‘नवजीवन’, ‘जयपुर समाचार,’ ‘त्याग भूमि’, ‘लोकवाणी’ आदि पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ होने लगा। ‘त्याग भूमि’ (1927) में गांधीवादी विचारधारा का प्रतिपादन होता था और इसका सम्पादन हरिभाऊ उपाध्यक्ष ने किया। इसमें गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम पर अधिक बल दिया गया। देशभक्ति, समाज सुधार, स्त्रियों के उत्थान सम्बन्धी लेख इसमें सामान्यतः होते थे।

समाचार पत्रों ने राष्ट्रीय स्तर पर राजस्थान की समस्याओं का खुलासा किया। विभिन्न मुद्दों पर राष्ट्रीय सहमति बनाने में योगदान दिया। रियासत से जुड़े आंदोलन पर प्रकाश डालकर उन्हें बहस का हिस्सा बनाया। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से शोषण एवं अत्याचार का पर्दाफाश हुआ, उन पर चर्चा होने लगी। रचनात्मक कार्यक्रमों को अपनाने की प्रेस की अपील का अच्छा असर हुआ। शिक्षित वर्ग चाहे कम था, परन्तु लोग अखबार को दूसरों से सुनने में बड़ी रुचि लेने लगे। पढ़े-लिखे लोगों में भी पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने में रुचि तेजी से बढ़ी।

शासकों की भूमिका
मेवाड़ के महाराणा फतहसिंह, अलवर के महाराजा जयसिंह और भरतपुर के महाराजा कृष्ण सिंह बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में राजस्थान के ऐसे शासक थे, जो अपनी प्रगतिशील और राष्ट्रीय विचारधारा और अंग्रेजों को राज्य के अंदरूनी मामलों में दखल देने से रोकने के कारण ब्रिटिश सरकार के कोपभाजन 19बने। अंग्रेजी शिकंजे से परेशान एवं अपदस्थ मेवाड़ के महाराणा के बारे में ‘तरुण राजस्थान’ ने अपने 10 जनवरी, 1924 के अंक में लिखा, ”यदि महाराणा गोरी सरकार के अन्ध भक्त होते तो शायद मेवाड़ के प्राचीन गौरव का नाश करने वाला यह अत्याचार पूर्ण हस्तक्षेप न हुआ होता।“ यह भी उल्लेखनीय है कि अलवर के शासक जयसिंह ने 1903 के आस-पास बाल-विवाह, अनमेल विवाह और मृत्यु भोज पर रोक लगा दी। रियासत की राजभाषा हिन्दी घोषित कर दी। राज्य में पंचायतों का जाल बिछा दिया। महाराजा ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एवं सनातन धर्म कॉलेज, लाहौर को उदारतापूर्वक वित्तीय सहायता दी। ऐसे प्रगतिशील शासक से ब्रिटिश सरकार का असन्तुष्ट होना स्वाभाविक था। अन्त में, अलवर महाराजा को निर्वासित होना पड़ा। इस प्रकार, राजस्थान के केवल कतिपय शासकों ने ही यहाँ के जन आन्दोलनों के प्रति सहानुभूति रखने एवं प्रगतिशील विचारों के प्रकटीकरण की हिम्मत जुटाई, परन्तु अपवाद स्वयं बेमिसाल होते हैं।

व्यापारी वर्ग की भूमिका
सत्ता के निरंकुश प्रयोग के विरुद्ध आवाज उठाने में व्यापारी वर्ग भी पीछे नहीं रहा। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् इस वर्ग की धारणा एवं विचारधारा सत्ता वर्ग के विरुद्ध होने लगी। कलकत्ता में एक प्रभावशाली मारवाड़ी मण्डल विकसित हो रहा था,जिसने राष्ट्रीय विचारधारा को प्रोत्साहित करने का निश्चय किया। रियासतों में व्यापारी वर्ग को ठिकानेदारों की अहमन्यता खटकती थी। वे राजनीतिक जागरूकता लाने के लिए अपने धन का प्रयोग करना चाहते थे, जिससे सामन्ती अनुत्तरदायी व्यवहार नियंत्रित हो सके। रियासतों में राजनीतिक चेतना जागृत करने वालों में कतिपय व्यापारी वर्ग की भूमिका सराहनीय रही, उदाहरणार्थ- बीकानेर में खूब राम सर्राफ तथा सत्यनारायण सर्राफ, जोधपुर में आनंद राज सुराणा, चांदमल सुराणा, भंवरलाल सर्राफ, प्रयागराम भंडारी तथा जयपुर में टीकाराम पालीवाल, गुलाबचंद कासलीवाल आदि।

ब्यावर के सेठ दामोदर दास राठी एक कुशल उद्योगपति थे किन्तु उनका राजनीतिक कार्यक्षेत्र अर्जुन लाल सेठी, केसरी सिंह बारहठ, राव गोपाल सिंह खरवा और विजय सिंह पथिक के साथ ही था। क्रांति के मार्ग पर ये पाँचों राष्ट्रवादी नेता एक-दूसरे के पूरक थे। दुर्भिक्ष, बाढ़ या भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं से त्रस्त जनता की उन्होंने सदैव सेवा की। सेठ राठी हिन्दी भाषा के भारी प्रशंसक थे। उन्होंने 1914 में अपनी कृष्णा मिल के बही खातों का तथा अपना संपूर्ण कार्य हिन्दी में ही करने का संकल्प लेकर अत्यंत प्रशंसनीय कार्य किया। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष अमृतलाल चक्रवर्ती की प्रेरणा से राठी ने ब्यावर में ‘ नागरी प्रचारिणी सभा ’ की स्थापना की और अजमेर-मेरवाड़ा की अदालतों में नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के प्रयोग के लिए आंदोलन चलाया। इससे प्रभावित होकर अंग्रेज कमिश्नर ने राजकीय कार्य नागरी लिपि और हिन्दी भाषा में करना स्वीकार कर लिया था। इस प्रकार एक व्यवसायी एवं उद्योगपति होने के बावजूद सेठ राठी ने स्वभाषा के प्रयोग सहित स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोगों को बढ़ावा देकर राष्ट्र प्रेम की भावना को पोषित किया।

खादी का प्रयोग
राजस्थान के राज्यों में खादी के प्रचार ने स्वतंत्रता की भावना को लोकप्रिय तथा व्यापक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा लोगों को इस आंदोलन की ओर आकृष्ट किया। गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम का प्रचार ऐसा आवरण था, जिस पर किसी निरंकुश शासक को भी आपत्ति करने का औचित्य दिखाई नहीं पड़ता था। खादी का प्रयोग गाँव की निर्धन जनता के लिए एक रोजगार का साधन हो सकता था, इसलिए इस कार्यक्रम को रोकने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी। समय के व्यतीत होने के साथ-साथ गाँधी टोपी पहनना, खादी का प्रयोग करना स्वतन्त्रता आन्दोलन के हिस्से बन गये। जमनालाल बजाज पर इस आंदोलन की देखभाल का जिम्मा था। गोकुल भाई भट्ट तथा अन्य खादी कार्यकर्ताओं के सम्मानार्थ प्रकाशित ग्रंथों से इन शांत तथा जनप्रिय चर्चित चेहरों के योगदान पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। खादी को प्रश्रय प्रदान करना, छुआछूत समाप्त करना अथवा हरिजनोद्धार इस युग के नये मूल्यों को प्रोत्साहन देने वाले कार्यक्रम थे, जिनसे जनजागरण प्रभावी हो सका।

महिलाओं की भूमिका
राजस्थान में राजनीतिक चेतना और नागरिक अधिकारों के लिए अनवरत चले आन्दोलनों में महिलाओं की भूमिका भी सीमित रहीं। इसमें अजमेर की प्रकाशवती सिन्हा का नाम विशेष उल्लेखनीय है। 1930 से 1947 तक अनेक महिलाएँ जेल गई। इनका नेतृत्व करने वाली साधारण गृहणियाँ ही थीं, जिनकी गिनती अपने कार्यों तथा उपलब्धियों से असाधारण श्रेणी में की जाती है। इनमें अंजना देवी (पत्नी-राम नारायण चौधरी), नारायण देवी (पत्नी माणिक्य लाल वर्मा), रतन शास्त्री (पत्नी हीरालाल शास्त्री) आदि थीं। 1942 की अगस्त क्रांति में छात्राओं ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया। कोटा शहर में तो रामपुरा पुलिस कोतवाली पर अधिकार करने वालों में छात्राएँ भी शामिल थीं। रमादेवी पाण्डे, सुमित्रा देवी भार्गव, इन्दिरा देवी शास्त्री, विद्या देवी, गौतमी देवी भार्गव, मनोरमा पण्डित, मनोरमा टण्डन, प्रियवंदा चतुर्वेदी और विजयाबाई का योगदान उल्लेखनीय रहा। डूँगरपुर की एक भील बाला कालीबाई 19 जून, 1947 को रास्तापाल सत्याग्रह में अपने शिक्षक सेंगाभाई को बचाते हुए शहीद हुई।

क्रांतिकारियों की भूमिका
भारतीय परिप्रेक्ष्य के अनुरूप ही राजपूताना में क्रांतिकारियों की गतिविधियां देखने को मिलती है। यहाँ भी शासक वर्ग ने ब्रिटिश सत्ता के समान ही सामान्यतः राष्ट्रवादी गतिविधियों पर अपना शिकंजा कस दिया। ऐसी परिस्थितियों में क्रांतिकारी गतिविधियों को अपनी जगह बनाने का मौका मिला। बंगाल में सक्रिय क्रांतिकारियों ने राजपूताना में भी सम्पर्क स्थापित करके अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार किया। राजपूताना में क्रांतिकारी गतिविधियों से सम्बद्ध रहने वालों में विजय सिंह पथिक, अर्जुन लाल सेठी, केसरी सिंह बारहठ, प्रताप सिंह बारहठ, राव गोपाल सिंह खरवा के नाम गिनाये जा सकते हैं। यद्यपि क्रांतिकारियों का आंदोलन जन साधारण में अपनी जमीन तैयार न कर सका फिर भी सामंती समाज की बदहाली, शासकों की उदासीनता व अंग्रेजो के दमन की भूमिका अविस्मरणीय रही। राजस्थान में भी पूरे राष्ट्र के समान सामान्यतः गांधीवादी तौर-तरीके ही लोकप्रिय रहे।

अंग्रेज सरकार क्रांतिकारी गतिविधियों को समाप्त करने पर आमादा थी। इसी सिलसिले में वायसराय लार्ड मिंटो ने अगस्त 1909 में राजस्थान में राजाओं को अपने-अपने राज्यों में क्रांतिकारी साहित्य व समाचार पत्रों पर रोक लगाने तथा क्रांतिकारी गतिविधियों को कुचलने के निर्देश दिये। फलतः राज्यों ने समाचार पत्रों पर रोक लगाने के साथ ही क्रांतिकारियों के आपसी व्यवहार एवं व्याख्यान देने पर रोक लगा दी। परन्तु राज्यों के ये प्रतिबंध कारगर नहीं हुए और दृढ़ प्रतिज्ञ एवं निष्ठावान देशभक्त हिंसात्मक गतिविधियों की ओर प्रवृत्त हुए। राजस्थान के क्रांतिकारियों का जनक शाहपुरा का बारहठ परिवार था। इनमें ठाकुर केसरी सिंह बारहठ राष्ट्रीय परिस्थितियों से भली-भांति अवगत थे और ब्रिटिश सरकार की नीतियों के खिलाफ इनमें तीव्र आक्रोश था। 1903 में केसरी सिंह ने ‘चेतावनी का चूंगटया“ नामक सोरठा मेवाड़ महाराणा फतहसिंह को लिखकर भेजे, जिसके कारण उन्होंने दिल्ली दरबार में भाग नहीं लिया। क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाने के लिए उन्होंने कुछ लोगों को साथ मिलकर कोटा के महन्त साधु प्यारेलाल की हत्या कर दी। इस केस में इन्हें बीस वर्ष की सजा दी गई और बिहार की हजारी बाग जेल में रखा गया, परन्तु 1919 में वे शीघ्र जेल से मुक्त हो गये। कोटा पहुँचने पर उन्हें अपने पुत्र प्रताप सिंह की शहादत का समाचार मिला, परन्तु उन्होंने धैर्य रखा। बाद में गांधीजी के संपर्क के कारण केसरी सिंह बारहठ अहिंसा के विचारों के पोषक हो गये।

जयपुर में क्रांतिकारियों की पौध तैयार करने वाले अर्जुन लाल सेठी ने राजकीय नौकरी को ठोकर मारकर देश सेवा का कठिन मार्ग चुना। उनके द्वारा स्थापित वर्धमान पाठशाला क्रांतिकारियों की नर्सरी थी। प्रतापसिंह बारहठ जैसे व्यक्ति इस पाठशाला के छात्र थे। इन्हें एक महंत की हत्या के झूठे आरोप में जेल डाल दिया। जेल से 6 वर्ष बाद मुक्त (1920) होने के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया। खरवा ठाकुर गोपाल सिंह ने रासबिहारी बोस एवं बंगाल के क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आने के कारण सशस्त्र बल पर स्वतन्त्रता प्राप्ति का मन बनाया। 21 फरवरी, 1915 को सशस्त्र क्रांति की शुरुआत करने या राजस्थान में उत्तरदायित्व खरवा ठाकुर ने लिया। मगर योजना असफल होने पर उन्हें टाडगढ़ में नजरबंद रख गया। जहाँ से वे फरार हो गये, मगर पुनः बंदी बनाकर अजमेर जेल में रखा गया। जेल से मुक्त (1920) होने के पश्चात् वे शांतिपूर्ण राजनीतिक गतिविधियों में संलग्न हो गये।कुछ अंतराल के बाद 1931 में भगतसिंह को फांसी देने से उग्रवादी पुनः सक्रिय हो उठे। अजमेर, और पुष्कर की दीवारों पर ‘भगतसिंह जिन्दाबाद’ के नारे लिखे गये। चिरंजीलाल ने क्रांतिकारी दल की स्थापना की। ज्वालाप्रसाद शर्मा, रमेशचन्द्र व्यास जैसे लोग क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े।

राजस्थान में जन जागरण एवं स्वतन्त्रता संग्राम

कवियों का योगदान
राजस्थान की स्वातन्त्र्य चेतना में कवियों ने लोकगीतों के माध्यम से जनता को जाग्रत किया। ये लोक गीत राज्य की सभी क्षेत्रीय भाषाओं में वहाँ के स्थानीय कवियों तथा गीतकारों द्वारा रचे गये थे। इन गीत एवं कविताओं से परतंत्रता काल में अशिक्षित ओर अर्द्धशिक्षित जन समूह प्रेरणा एवं प्रोत्साहन प्राप्त करता रहा था। भरतपुर राज्य के निवासी हुलासी का नाम सर्वप्रथम आता है, जिन्होंने वीर रस के गीतों के माध्यम से अंग्रेजों के विरोध करने का आह्वान उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही कर दिया था। इस ब्राह्मण कवि ने अपनी वीर रस की कविताओं में राजस्थान के तत्कालीन राज्यों की तुलना में भरतपुर के वीरों द्वारा अंग्रेजों का अंतिम दम तक विरोध करने का ओजस्वी वर्णन किया है। भरतपुर राज्य के राजनीतिक आन्दोलनों से सम्बन्धित वर्तमान काल में जितनी भी काव्य रचनाएँ हुई हैं, उनमें सबसे अधिक योगदान पूर्ण सिंह की रचनाओं का रहा है। ग्रामीण कवि होने के साथ-साथ पूर्णसिंह कर्मठ कार्यकर्ता भी था। उसने 1939 से 1947 तक राज्य में जितने भी आंदोलन हुए, उनमें सक्रियता का प्रदर्शन किया। समय-समय पर आयोजित सम्मेलनों में इसके गीतों की धूम रहती थी। राजस्थान में जन जागरण का हुंकार फूंकने वालों में बूँदी के सूर्यमल्ल मीसण (1815-1868) तथा मारवाड़ के शंकरदान सामौर (1824-1878) का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

प्रजामण्डल आन्दोलन
राजस्थान की रियासतों में प्रजामण्डलों के नेतृत्व में उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए नेताओं को कठोर संघर्ष करना पड़ा। यातनाएं झेलनी पड़ी। कारावास में रहना पड़ा। उनके परिवारों को भारी संकट का सामना करना पड़ा। यहाँ तक कि अपने जीवन को भी दाव पर लगाना पड़ा। प्रजामण्डलों के मार्गदर्शन में ही राजस्थान की विभिन्न रियासतों में राष्ट्रीय आन्दोलन की हलचल हुई। दुर्भाग्य की बात यह रही कि राजस्थान की जनता को तीन शक्तियों यथा-राजा, ठिकानेदार और ब्रिटिश सरकार का सामना करना पड़ा। ये तीनों शक्तियां मिलकर जनता के संघर्ष का दमन करती रहीं। परन्तु राजस्थान की रियासतों में होने वाले आंदोलनों ने यह प्रमाणित कर दिया कि इन राज्यों की जनता भी ब्रिटिश भारत की जनता के साथ कंधा मिलाकर भारत को स्वतंत्र कराना चाहती है। जयपुर में प्रजामंडल का नेतृत्व जमनालाल बजाज, हीरालाल शास्त्री जैसे दिग्गज नेताओं ने किया जबकि जोधपुर में जयनारायण व्यास के मार्गदर्शन में उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए संघर्ष चला, वहीं सिरोही में गोकुल भाई भट्ट के शीर्ष नेतृत्व में।

राजस्थान में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की पहली पीढ़ी में चार प्रमुख नेताओं का नाम उल्लेखनीय है, यथा-अर्जु नलाल सेठी (1880-1941) केसरी सिंह बारहठ (1872-1941), स्वामी गोपालदास (1882-1939) एवं राव गोपालसिंह (1872-1956)। अर्जुनलाल सेठी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी और अपना कार्य चौंमू के ठाकुर देवी सिंह के निजी सचिव के रूप में प्रारम्भ किया लेकिन शीघ्र ही अपना यह पद त्याग दिया। कुछ समय तक मथुरा के एक जैन स्कूल में अध्यापक रहे और फिर 1906 में जयपुर आ गये। इसके पश्चात् वे युवकों को भावी क्रान्ति के लिए तैयार करने में लग गये।केसरी सिंह बारहठ मेवाड़ में शाहपुरा में पैदा हुए। वे चारण तथा राजपूतों में कुछ सुधार लाना चाहते थे उन्होंने राजपूतों में शिक्षा प्रसार पर बल दिया और सामाजिक कुरीतियों से बचने की सलाह दी।

स्वामी गोपाल दास का जन्म चूरू के समीप हुआ था। उनका जीवन इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि निरंकुश शासन में सार्वजनिक हित में कार्य करने वाले को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बीकानेर के प्रसिद्ध शासक गंगासिंह ने स्वामी गोपाल दास को परेशान करने में कोई कमी नहीं की, जबकि उनका दोष यह था कि वे बीकानेर की वास्तविक स्थिति से लोगों को अवगत करा रहे थे। सच तो यह है कि उन्होंने कई रचनात्मक कार्य किये, जैसे चूरू में लड़कियों के लिए स्कूल खोला, तालाबों की मरम्मत कराई और कुएँ खुदवाए। खरवा का ठाकुर राव गोपाल सिंह ने सामंत परिवार में जन्म लेकर भी देश के भविष्य के लिए अपनी वंश परंपरागत जागीर को देश की आजादी के लिए दांव पर लगा दिया। उनके बारे में ठाकुर केसरी सिंह ने लिखा था, ''जिस प्रकार पंजाब को लाला लाजपत राय पर और महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक पर गर्व है, उसी प्रकार राजस्थान को राव गोपाल सिंह खरवा पर गर्व है।'

इन उक्त नेताओं की कार्य प्रणाली पर विचार करें तो कहा जा सकता है कि इन नेताओं की योजनाएं तथा गतिविधियाँ सामाजिक कार्य करने, शिक्षा को प्रोत्साहित करने तथा देशप्रेम की भावना फैलाने की थी। यह उल्लेखनीय है कि उस समय अप्रगतिशील रूढ़िवादी घटनाओं पर टीका-टिप्पणी आपराधिक श्रेणी में गिनी जाती थी। समाचार पत्रों का बाहर से मंगवाया, एक टाइप मशीन अथवा चक्र मुद्रण यंत्र का किसी व्यक्ति के पास होना एक अपराध माना जाता था। प्रचलित व्यवस्था के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखना संदिग्ध माना जाता था। पुरानी मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर जाँचनें तथा राजनीतिक एवं प्रशासनिक नीतियों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखने को क्रांतिकारी समझा जाता था। रास बिहारी घोष, महर्षि अरविन्द,शचीन्द्र सान्याल से मिल लेना ही क्रांतिकारी माने जाने के लिए पर्याप्त समझा जाता था। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि जो कार्य सेठी, बारहट, खरवा राव, स्वामी गोपाल दास आदि ने किया, उसमें से उन्हें सफलता मिली या असफलता तथा वे संस्थागत रूप धारण कर सके अथवा धराशायी हो गये, अपितु महत्वपूर्ण यह है कि वे लोगों को कितना प्रभावित कर पाये। इस मायने में वे सफल रहे। इन नेताओं ने अपने बलिदान से पुराने सामंती ढांचे के अन्यायपूर्ण आचरण का पर्दाफाश किया।
कोटा राज्य में जन-जागृति के जनक पं. नयनूराम शर्मा थे। उन्होंने थानेदार के पद से इस्तीफा देकर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया था। वे विजय सिंह पथिक द्वारा स्थापित राजस्थान सेवा संघ के सक्रिय सदस्य बन गये। उन्होंने कोटा राज्य में बेगार विरोधी आंदोलन चलाया, जिसके फलस्वरूप बेगार प्रथा की प्रताड़ना में कमी आई। 1939 में पं. नयनूराम शर्मा और पं. अभिन्न हरि ने कोटा राज्य में उत्तरदायी शासन स्थापित करने के उद्देश्य को लेकर कोटा राज्य प्रजामण्डल की स्थापना की। प्रजामंडल का पहला अधिवेशन शर्मा की अध्यक्षता में मांगरोल (बारां) में सम्पन्न हुआ।

अजमेर में जमनालाल बजाज की अध्यक्षता में ‘राजपूताना मध्य भारत सभा’ का आयोजन (1920) किया गया, जिसमें अर्जुन लाल सेठी, केसरी सिंह बारहठ, राव गोपाल सिंह खरवा, विजय सिंह पथिक आदि ने भाग लिया। इसी वर्ष देश में खिलाफत आन्दोलन चला। अजमेर में खिलाफत समिति की बैठक हुई, जिसमें डॉ. अन्सारी, शेख अब्बास अली, चांद करण शारदा आदि ने भाग लिया। अक्टूबर, 1920 में ‘राजस्थान सेवा संघ’ को वर्धा से लाकर अजमेर में स्थापित किया गया, उसका उद्देश्य राजस्थान की रियासतों में चलने वाले आन्दोलनों को गति देना था। उसी समय रामनारायण चौधरी वर्धा से लौटकर अपना कार्य क्षेत्र अजमेर बना चुके थे। अजमेर में 15 मार्च, 1921 को द्वितीय राजनीतिक कांफ्रेंस का आयोजन हुआ, जिसमें मोतीलाल नेहरू उपस्थित थे। मौलाना शौकत अली ने सभा की अध्यक्षता की थी। सभा में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का आह्वान किया गया। पंडित गौरीशंकर भार्गव ने अजमेर में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार की अगुवाई कर प्रथम गांधीवादी बनने का सौभाग्य प्राप्त किया। जब ‘प्रिंस ऑफ वेल्स का अजमेर आगमन (28 नवम्बर, 1921) हुआ, तो उसका स्वागत के स्थान पर बहिष्कार किया गया, हड़ताल की गई तथा दुकानें बंद की गई। प्रिंस की यात्रा की व्यापक प्रतिक्रिया हुई।

जैसलमेर रेगिस्तान के धोरों के मध्य एक पिछड़ी हुई छोटी रियासत थी। यहाँ के सागरमल गोपा ने जैसलमेर की जनता को महारावल जवाहर सिंह के निरंकुश और दमनकारी शासन के विरुद्ध जागृत किया। सागरमल गोपा ने 1940 में ‘जैसलमेर में गुण्डाराज’ नामक पुस्तक छपाकर वितरित करवा दी। अतः महारावल ने शीघ्र ही उसे राज्य से निर्वासित कर दिया। गोपा नागपुर चला गया और वहाँ से जैसलमेर के दमनकारी शासन के विरुद्ध प्रचार करता रहा। मार्च, 1941 में उसके पिता का देहांत हो गया, तब ब्रिटिश रेजीडेण्ट की स्वीकृति के पश्चात् ही वह जैसलमेर पहुंच सका। रेजिडेंट ने आश्वासन दिया था कि उसके विरुद्ध राज्य सरकार का कोई आरोप नहीं है, अतः वह जैसलमेर आ सकता है तथा उसे किसी प्रकार के दुर्व्यवहार का भय नहीं होना चाहिए। इस प्रकार गोपा जैसलमेर पहुँचा। जैसलमेर जाकर वह लगभग दो माह पश्चात लौट रहा था, जब उसे अचानक बन्दी (22 मई, 1941) बना लिया गया। बन्दी अवस्था में उसे गंभीर एवं अमानवीय यातनाएँ दी गई। अन्ततः उसे राजद्रोह के अपराध में 6 वर्ष की कठोर कारावास की सजा दी गई। जेल में थानेदार गुमानसिंह यातनाएँ देता रहा, जिससे उसका जीवन नारकीय हो गया था। गोपा द्वारा जयनारायण व्यास आदि को यातनाओं के सम्बन्धों में पत्र लिखे गये। जयनारायण व्यास ने रेजीडेण्ट को पत्र लिखकर वास्तविक स्थिति का पता लगाने का आग्रह किया। रेजीडेण्ट ने 6 अप्रैल, 1946 को जैसलमेर जाने का कार्यक्रम बनाया, उधर 3 अप्रैल, 1946 को ही जेल में गोपा पर मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया। यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गयी किन्तु शासन ने गोपा के रिश्तेदारों तक को नहीं मिलने दिया। लगभग 20 घण्टे तड़पने के बाद 4 अप्रैल को वे चल बसे। पूरा नगर ‘सागरमल गोपा जिन्दाबाद’ के नारों से गूंज उठा। पण्डित नेहरू तथा जयनारायण व्यास सहित अनेक शीर्ष नेताओं ने इस काण्ड की भर्त्सना की। राजस्थान जब कभी भी स्वतन्त्रता सेनानियों को याद करेगा, गोपा का नाम प्रथम पंक्ति में अमर रहेगा।

भरतपुर में जन-जागृति पैदा करने वालों में जगन्नाथ दास अधिकारी और गंगा प्रसाद शास्त्री प्रमुख थे। इन्होंने 1912 में ‘हिन्दी साहित्य समिति’ की स्थापना की, जिसने शीघ्र ही लोकप्रियता प्राप्त कर एक विशाल पुस्तकालय का रूप धारण कर लिया। भरतपुर के तत्कालीन महाराजा किशन सिंह अन्य शासकों की तुलना में जागरूक थे। उन्होंने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया। गांवों और नगरों में स्वायत्तशासी संस्थाओं को विकसित किया और राज्य में एक अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन क अधिवेशन किया। वह राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना के पक्ष में था। परन्तु अंग्रेज सरकार ने उसके प्रगतिशील विचारों के दूरगामी परिणामों को सोचकर उसे गद्दी छोड़ने के लिए विवश किया। नये शासक ने सभाओं एवं प्रकाशनों पर प्रतिबंध लगा दिया। इतना ही नहीं राष्ट्रीय नेताओं के चित्र रखना अपराध मान लिया गया। फिर भी, भरतपुर में जन-जागरण का कार्य चोरी-छिपे चलता रहा। गोपीलाल यादव, मास्टर आदित्येन्द्र, जुगल किशोर चतुर्वेदी आदि के नेतृत्व में भरतपुर राज्य प्रजामण्डल अपनी गतिविधियां चलाता रहा।

जोधपुर के प्रजामंडल के इतिहास में बालमुकुन्द बिस्सा का नाम स्मरणीय रहेगा। मारवाड़ के एक छोटे से ग्राम पीलवा,तहसील डीडवाना में जन्मे बालमुकुन्द बिस्सा ने 1934 में जोधपुर में गांधी जी से प्रेरित होकर खादी भण्डार खोला और तब से राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भाग लेने लगा। उसका जवाहर खादी भण्डार शीघ्र ही राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। 1942 में जोधपुर में उत्तरदायी शासन के लिए जो आंदोलन चला, उसमें उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जहाँ भूख हड़ताल एवं यातनाओं के कारण वह शहीद हो गया परन्तु उससे प्रेरित होकर कई युवा प्रजामण्डल-आन्दोलन में कूद पड़े।मेवाड़ में प्रजामण्डल की स्थापना बिजौलिया आन्दोलन के कर्मठ नेता माणिक्यलाल वर्मा द्वारा मार्च, 1938 में की गई। इस हेतु वे साइकिल पर सवार होकर निकल पड़े। वे जब शाहपुरा होकर गुजरे तो वहाँ उन्हें रमेश चन्द्र ओझा और लादूराम व्यास जैसे उत्साही व्यक्ति मिल गये। वर्मा की प्रेरणा से इन नवयुवकों ने 1938 में शाहपुरा राज्य में प्रजामण्डल की स्थापना की। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि शाहपुरा राज्य ने प्रजामण्डल की गतिविधियों में अनावश्यक दखल नहीं दिया।

डूँगरपुर में 1935 में भोगीलाल पण्ड़या ने हरिजन सेवा समिति की स्थापना की। उसी वर्ष शोभालाल गुप्त ने राजस्थान सेवक मण्डल की ओर से हरिजनों और भीलों के हितार्थ सागवाड़ा में एक आश्रम स्थापित किया। इसी बीच बिजोलिया आन्दोलन के प्रमुख सूत्रधार माणिक्यलाल वर्मा जनजातियों में काम करने के उद्देश्य से डूँगरपुर आये। उन्होंने ‘बागड़ सेवा मंदिर’ की स्थापना द्वारा भीलों में साक्षरता का प्रचार किया तथा सामाजिक कुरीतियों के निवारणार्थ उल्लेखनीय कार्य किया। इससे भीलों में नवजीवन का संचार हुआ। परन्तु राज्य सरकार ने शीघ्र ही बागड़ सेवा मंदिर की रचनात्मक प्रवृत्तियों को नियंत्रित कर दिया। 1944 में डूंगरपुर प्रजामण्डल की स्थापना हरिदेव जोशी, भोगीलाल पण्ड्या, गौरीशंकर आचार्य आदि ने मिलकर की। डूंगरपुर के भोगीलाल पण्ड्या पर जेल में किये जाने वाले अमानुषिक व्यवहार का गोकुल भाई भट्ट, माणिक्यलाल वर्मा, हीरालाल शास्त्री, रमेश चंद्र व्यास आदि ने मिलकर जमकर विरोध किया। फलस्वरूप डूंगरपुर महारावल को पण्ड्या सहित अनेक कार्यकर्ताओं को छोड़ना पड़ा।

राजस्थान में जन जागरण एवं स्वतन्त्रता संग्राम

भारत छोड़ो आंदोलन और राजस्थान
भारत छोड़ो आंदोलन (प्रस्ताव 8 अगस्त, शुरुआत 9 अगस्त, 1942) के ‘करो या मरो’ की घोषणा के साथ ही राजस्थान में भी गांधीजी की गिरफ्तारी का विरोध होने लगा। जगह-जगह जुलूस, सभाओं और हड़तालों का आयोजन होने लगा। विद्यार्थी अपनी शिक्षण संस्थानों से बाहर आ गये और आंदोलन में कूद पड़े। स्थान-स्थान पर रेल की पटरियां उखाड़ दी, तार और टेलीफोन के तार काट दिये। स्थानीय जनता ने समानांतर सरकारें स्थापित कर लीं। उधर जवाब में ब्रिटिश सरकार ने भारी दमनचक्र चलाया। जगह-जगह पुलिस ने गोलियां चलाई। कई मारे गये, हजारों गिरफ्तार किये गये। देश की आजादी की इस बड़ी लड़ाई में राजस्थान ने भी कंधे से कंधा मिलाकर योगदान दिया।

जोधपुर राज्य में सत्याग्रह का दौर चल पड़ा। जेल जाने वालों में मथुरादास माथुर, देवनारायण व्यास, गणेशीलाल व्यास,सुमनेश जोशी, अचलेश्वर प्रसाद शर्मा, छगनराज चौपासनीवाला, स्वामी कृष्णानंद, द्वारका प्रसाद पुरोहित आदि थे। जोधपुर में विद्यार्थियों ने बम बनाकर सरकारी सम्पत्ति को नष्ट किया। किन्तु राज्य सरकार के दमन के कारण आन्दोलन कुछ समय के लिए शिथिल पड़ गया। अनेक लोगों ने जयनारायण व्यास पर आंदोलन समाप्त करने का दवाब डाला, परन्तु वे अडिग रहे। राजस्थान में 1942 के आन्दोलन में जोधपुर राज्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस आंदोलन में लगभग 400 व्यक्ति जेल में गए। महिलाओं में श्रीमती गोरजा देवी जोशी, श्रीमती सावित्री देवी भाटी, श्रीमती सिरेकंवल व्यास, श्रीमती राजकौर व्यास आदि ने अपनी गिरफ्तारियां दी।

माणिक्यलाल वर्मा रियासती नेताओं की बैठक में भाग लेकर इंदौर आये तो उनसे पूछा गया कि भारत छोड़ो आन्दोलन के सन्दर्भ में मेवाड़ की क्या भूमिका रहेगी, तो उन्होंने उत्तर दिया, ”भाई हम तो मेवाड़ी हैं, हर बार हर-हर महादेव बोलते आये हैं,इस बार भी बोलेंगे।“ स्पष्ट था कि भारत छोड़ो आन्दोलन के प्रति मेवाड़ का क्या रूख था। बम्बई से लौटकर उन्होंने मेवाड़ के महाराणा को ब्रिटिश सरकार से सम्बन्ध विच्छेद करने का 20 अगस्त, 1942 को अल्टीमेटम दिया। परन्तु महाराणा ने इसे महत्व नहीं दिया। दूसरे दिन माणिक्यलाल गिरफ्तार कर लिये गये। उदयपुर में कामकाज ठप हो गया। इसके साथ ही प्रजामण्डल के कार्यकर्ता और सहयोगियों की गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ। उदयपुर के भूरेलाल बया, बलवन्त सिंह मेहता, मोहनलाल सुखाड़िया, मोतीलाल तेजावत, शिवचरण माथुर, हीरालाल कोठारी, प्यार चंद विश्नोई, रोशनलाल बोर्दिया आदि गिरफ्तार हुए। उदयपुर में महिलाएं भी पीछे नहीं रहीं। माणिक्यलाल वर्मा की पत्नी नारायणदेवी वर्मा अपने 6 माह के पुत्र को गोद में लिये जेल में गयी। प्यारचंद विश्नोई की धर्मपत्नी भगवती देवी भी जेल गयी। आन्दोलन के दौरान उदयपुर में महाराणा कॉलेज और अन्य शिक्षण संस्थाएँ कई दिनों तक बन्द रहीं। लगभग 600 छात्र गिरफ्तार किये गये। मेवाड़ के संघर्ष का दूसरा महत्वपूर्ण केन्द्र नाथद्वारा था। नाथद्वारा में हड़ताले और जुलूसों की धूम मच गयी। नाथद्वारा के अतिरिक्त भीलवाड़ा, चित्तौड़ भी संघर्ष के केन्द्र थे। भीलवाड़ा के रमेश चन्द्र व्यास, जो मेवाड़ प्रजामण्डल के प्रथम सत्याग्रही थे, को आन्दोलन प्रारम्भ होते ही गिरफ्तार कर लिया। मेवाड़ में आन्दोलन को रोका नहीं जा सका, इसका प्रशासन को खेद रहा।

जयपुर राज्य की 1942 के भारत छोड़ों आन्दोलन में भूमिका विवादास्पद रही। जयपुर प्रजामण्डल का एक वर्ग भारत छोड़ो आन्दोलन से अलग नहीं रहना चाहता था। इनमें बाबा हरिश्चन्द, रामकरण जोशी, दौलतमल भण्डारी आदि थे। ये लोग पं0 हीरालाल शास्त्री से मिले। हीरालाल शास्त्री ने 17 अगस्त, 1942 की शाम को जयपुर में आयोजित सार्वजनिक सभा में आंदोलन की घोषणा का आश्वासन दिया। यद्यपि पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार सभा हुई, परन्तु हीरालाल शास्त्री ने आंदोलन की घोषणा करने के स्थान पर सरकार के साथ हुई समझौता वार्ता पर प्रकाश डाला। हीरालाल शास्त्री ने ऐसा सम्भवतः इसलिए किया कि उनके जयपुर के तत्कालीन प्रधानमंत्री मिर्जा इस्माइल से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे तथा जयपुर महाराजा के रवैये एवं आश्वासन से जयपुर प्रजामण्डल संतुष्ट था। जयपुर राज्य के भीतर और बाहर हीरालाल शास्त्री की आलोचना की गई। बाबा हरिश्चंद्र और उनके सहयोगियों ने एक नया संगठन ‘ आजाद मोर्चा ’ की स्थापना कर आन्दोलन चलाया। इस मोर्चे का कार्यालय गुलाब चंद कासलीवाल के घर स्थित था। जयपुर के छात्रों ने शिक्षण संस्थाओं में हड़ताल करवा दी।

कोटा राज्य प्रजामंडल के नेता पं. अभिन्न हरि को बम्बई से लौटते ही 13 अगस्त को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रजामंडल के अध्यक्ष मोतीलाल जैन ने महाराज को 17 अगस्त को अल्टीमेटम दिया कि वे शीघ्र ही अंग्रेजों से सम्बन्ध विच्छेद कर दें। फलस्वरूप सरकार ने प्रजामण्डल के कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया। इनमें शम्भूदयाल सक्सेना, बेनी माधव शर्मा,मोतीलाल जैन, हीरालाल जैन आदि थे। उक्त कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के बाद नाथूलाल जैन ने आन्दोलन की बागडोर सम्भाली। इस आंदोलन में कोटा के विद्यार्थियों का उत्साह देखते ही बनता था। विद्यार्थियों ने पुलिस को बैरकों में बन्द कर रामपुरा शहर कोतवाली पर अधिकार (14-16 अगस्त,1942) कर उस पर तिरंगा फहरा दिया। जनता ने नगर का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। लगभग 2 सप्ताह बाद जनता ने महाराव के इस आश्वासन पर कि सरकार दमन सहारा नहीं लेगी, शासन पुनः महाराव को सौंप दिया। गिरफ्तार कार्यकर्त्ता रिहा कर दिये गये।

भरतपुर में भी भारत छोड़ो आन्दोलन की चिंगारी फैल गई। भरतपुर राज्य प्रजा परिषद् के कार्यकर्ता मास्टर आदित्येन्द्र,युगलकिशोर चतुर्वे दी, जगपतिसिंह, रेवतीशरण, हुक्मचन्द, गौरीशंकर मित्तल, रमेश शर्मा आदि नेता गिरफ्तार कर लिये गये। इसी समय दो युवकों ने डाकखानों और रेलवे स्टेशनों को 28 तोड़-फोड़ की योजना बनाई, परन्तु वे पकड़े गये। आन्दोलन की प्रगति के दौरान ही राज्य में बाढ़ आ गयी। अतः प्रजा परिषद ने इस प्राकृतिक विपदा को ध्यान में रखते हुए अपना आन्दोलन स्थगित कर राहत कार्यों मे लगाने का निर्णय लिया। शीघ्र ही सरकार से आन्दोलनकारियों की समझौता वार्ता प्रारम्भ हुई। वार्ता के आधार पर राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया गया। सरकार ने निर्वाचित सदस्यों के बहुमत वाली विधानसभा बनाना स्वीकार कर लिया।

शाहपुरा राज्य प्रजामंडल ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने के साथ ही राज्य को अल्टीमेटम दिया कि वे अंग्रेजों से सम्बन्ध विच्छेद कर दें। फलस्वरूप प्रजामण्डल के कार्यकर्ता रमेश चन्द्र ओझा, लादूराम व्यास, लक्ष्मीनारायण कौटिया गिरफ्तार कर लिये गये। शाहपुरा के गोकुल लाल असावा पहले ही अजमेर में गिरफ्तार कर लिये गये थे।

अजमेर में कांग्रेस के आह्वान के फलस्वरूप भारत छोड़ो आन्दोलन का प्रभाव पड़ा। कई व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया। इनमें बालकृष्ण कौल, हरिभाऊ उपाध्यक्ष, रामनारायण चौधरी, मुकुट बिहारी भार्गव, अम्बालाल माथुर, मौलाना अब्दुल गफूर,शोभालाल गुप्त आदि थे। प्रकाश चंद ने इस आंदोलन के संदर्भ में अनेक गीतों को रचकर प्रजा को नैतिक बल दिया। जेलों के कुप्रबन्ध के विरोध में बालकृष्ण कौल ने भूख हड़ताल कर दी।

बीकानेर में भारत छोड़ो आंदोलन का विशेष प्रभाव देखने को नहीं मिलता है। बीकानेर राज्य प्रजा परिषद् के नेता रघुवर दयाल गोयल को पहले से ही राज्य से निर्वासित कर रखा था। बाद में गोयल के साथी गंगादास कौशिक ओर दाऊदयाल आचार्य को गिरफ्तार कर लिया गया। इन्हीं दिनों नेमीचन्द आँचलिया ने अजमेर से प्रकाशित एक साप्ताहिक में लेख लिखा, जिसमें बीकानेर राज्य में चल रहे दमन कार्यों की निंदा की गई। राज्य सरकार ने आँचलिया को 7 वर्ष का कठोर कारावास का दण्ड दिया। राज्य में तिरंगा झण्डा फहराना अपराध माना जाता था। अतः राज्य में कार्यकर्ताओं ने झण्डा सत्याग्रह शुरू कर भारत छोड़ो आंदोलन में अपना योगदान दिया। अलवर, डूँगरपुर, प्रतापगढ़, सिरोही, झालावाड़ आदि राज्यों में भी भारत छोड़ो आंदोलन की आग फैली। सार्वजनिक सभाएं कर देश में अंग्रेजी शासन का विरोध किया गया। कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारियां हुई। हड़तालें हुई। जुलुस निकाले गये।

सिंहावलोकन

रियासतों में जन आन्दोलनों के दौरान लोगों को अनेक प्रकार के जुल्मों एवं यातनाओं का शिकार होना पड़ा। किसान आन्दोलनों,जनजातीय आन्दोलनों आदि ने राष्ट्रीय जागृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ये स्व स्फूर्त आन्दोलन थे। इनसे सामन्ती व्यवस्था की कमजोरियां उजागर हुईं। यद्यपि इन आंदोलनों का लक्ष्य राजनीतिक नहीं था, परन्तु निरंकुश सत्ता के विरुद्ध आवाज के स्वर बहुत तेज हो गये,जिससे तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था को आलोचना का शिकार होना पड़ा। यदि आजादी के पश्चात् राजतन्त्र तथा सामन्त प्रथा का अवसान हुआ, तो इसमें इन आंदोलनों की भूमिका को ओझल नहीं किया जा सकता है। अनेक देशभक्तों को प्राणों की आहुति देनी पड़ी। शहीद बालमुकुन्द बिस्सा, सागरमल गोपा आदि का बलिदान प्रेरणा के स्रोत बने। प्रजामण्डल आन्दोलनों से राष्ट्रीय आन्दोलन को सम्बल मिला। प्रजामण्डलों ने अपने रचनात्मक कार्यों के अर्न्तगत सामाजिक सुधार, शिक्षा का प्रसार, बेगार प्रथा के उन्मूलन एवं अन्य आर्थिक समस्याओं का समाधान करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाये। यह कहना उचित नहीं है कि राजस्थान में जन-आन्दोलन केवल संवैधानिक अधिकारों तथा उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए था, स्वतन्त्रता के लिए नहीं। डॉ. एम.एस. जैन ने उचित ही लिखा है, ”स्वतंत्रता संघर्ष केवल बाह्य नियंत्रण के विरुद्ध ही नहीं होता, बल्कि निरंकुश सत्ता के विरुद्ध संघर्ष भी इसी श्रेणी में आते हैं।“ चूंकि रियासती जनता दोहरी गुलामी झेल रही थी, अतः उसके लिए संवैधानिक अधिकारों की प्राप्ति तथा उत्तरदायी शासन की स्थापना से बढ़कर कोई बात नहीं हो सकती थी।

रियासतों में शासकों का रवैया इतना दमनकारी था कि खादी प्रचार, स्वदेशी शिक्षण संस्थाओं जैसे रचनात्मक कार्यों को भी अनेक रियासतों में प्रतिबन्धित कर दिया गया। सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध होने के कारण जन चेतना के व्यापक प्रसार में अड़चने आयी। ऐसी कठिन परिस्थितियों में लोक संस्थाओं की भागीदारी कठिन थी। जब तक कांग्रेस ने अपने हरिपुरा अधिवेशन (1938) में देशी रियासतों में चल रहे आन्दोलनों को समर्थन नहीं दिया, तब तक राजस्थान की रियासतों में जन आन्दोलन को व्यापक समर्थन नहीं मिल सका। हरिपुरा अधिवेशन के पश्चात् रियासती आन्दोलन राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ गया।

धीरे-धीरे राजस्थान आजादी के संघर्ष के अंतिम सोपान की ओर बढ़ रहा था। आजादी से पूर्व राजस्थान विभिन्न छोटी-छोटी रियासतों में बँटा हुआ था। 19 देशी रियासतों, 2 चीफ़शिपों एवं एक ब्रिटिश शासित प्रदेश में विभक्त था। इसमें सबसे बड़ी रियासत जोधपुर थीं और सबसे छोटी लावा चीफशिप थी। राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया समस्त भारतीय राज्यों के एकीकरण का हिस्सा थी। एकीकरण में सरदार वल्लभ भाई पटेल, वी.पी. मेनन सहित स्थानीय शासक, रियासतों के जननेता, जिनमें जयनारायण व्यास, माणिक्यलाल वर्मा, पं. हीरालाल शास्त्री, प्रेम नारायण माथुर, गोकुल भाई भट्ट आदि शामिल थे, की अहम् भूमिका रही। जनता रियासतों के प्रभाव से मुक्त होना चाहती थी क्योंकि वह उनके आतंक एवं अलोकतांत्रिक शासन से नाखुश थी। साथ ही, वह स्वयं को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ना चाहती थी। राजस्थान में संचालित राष्ट्रवादी गतिविधियों एवं विभिन्न कारकों ने मिलकर राजस्थान में एकता का सूत्रपात किया। फलतः 18 मार्च, 1948 से 1 नवम्बर, 1956 तक सात चरणों में राजस्थान का एकीकरण सम्पन्न हुआ। 30 मार्च, 1949 को वृहत राजस्थान का निर्माण हुआ, जिसकी राजधानी जयपुर बनायी गयी ओर पं. हीरालाल शास्त्री को नवनिर्मित राज्य का प्रथम मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया।

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