एक बार गुरु नानक सुल्तानपुर पहुंचे। वहां उनके प्रति लोगों की श्रद्धा देख वहां के काजी को ईर्ष्या हुई। उसने सूबेदार दौलत खां के खूब कान भरे और शिकायत की कि "यह कोई पाखण्डी है, इसलिए आज तक नमाज पढ़ने कभी नहीं आया।''
सूबेदार ने नानकदेव को बुलावा भेजा किन्तु उन्होंने उस ओर ध्यान नहीं दिया। जब सिपाही दोबारा बुलाने आया, तो वे उसके पास गये। उन्हें देखते ही सूबेदार ने डांटते हुए पूछा, ´´पहली बार बुलाने पर क्यों नहीं आये?’’
´मैं खुदा का बंदा हूं, तुम्हारा नहीं' - नानक देव ने शान्ति पूर्वक उत्तर दिया।
´´अच्छा! तो तुम खुद को ´खुदा का बंदा' भी कहते हो मगर क्या तुम्हें यह मालूम है कि किसी व्यक्ति से मिलने पर पहले उसे सलाम किया जाता है?"
´´मैं खुदा के अलावा और किसी को सलाम नहीं करता।" ´´तब फिर खुदा के बन्दे! मेरे साथ नमाज पढ़ने चल" - क्रोधित सूबेदार बोला और नानक देव उसके साथ मस्जिद गये। सूबेदार और काजी तो नीचे बैठ कर नमाज पढ़ने लगे मगर गुरु नानक वैसे ही खड़े रहे। नमाज पढ़ते-पढ़ते काजी सोचने लगा कि आखिर उसने इस दम्भी (नानक देव) को झुका ही दिया जबकि सूबेदार का ध्यान घर की ओर लगा हुआ था। बात यह थी कि उस दिन अरब का एक व्यापारी बढ़िया घोड़े लेकर उसके पास आने वाला था। वह सोचने लगा कि शायद व्यापारी उसका इन्तजार करता होगा इसलिए नमाज जल्दी खत्म हो, तो वह घर जाकर सौदा तय करे।
नमाज खत्म होने पर वे दोनों जब उठ खड़े हुए, तो उन्होंने नानकदेव को चुपचाप खड़े पाया। सूबेदार को गुस्सा आया। बोला, ´´तुम सचमुच ढोंगी हो। खुदा का नाम लेते हो, मगर नमाज नहीं पढ़ते।´´नमाज पढ़ता भी तो किसके साथ’’ - नानक देव बोले, ´´क्या आप लोगों के साथ, जिनका ध्यान खुदा की तरफ था ही नहीं’’ अब आप ही सोचिए, क्या आपका ध्यान उस समय बढ़िया घोड़े खरीदने की तरफ था या नहीं? और ये काजीजी तो उस समय मन ही मन खुश हो रहे थे कि उन्होंने मुझे मस्जिद में लाकर बड़ा तीर मार लिया है। यह सुनते ही दोनों झेंप गए और गुरु नानक के चरणों पर गिरकर क्षमा मांगी।
शिक्षा - इस प्रेरक प्रसंग से यह शिक्षा मिलती है कि खुदा या भगवान किसी मस्जिद या मंदिर मे नही विराजते है वे विराजते है सच्चे भक्तों के हृदय में जैसे गुरु नानक के हृदय मे थे। सच्चे मन से एक बार लिया गया नाम भी भगवान एक बार में सुन लेते है तथा अनमने मन से 24x7 घंटे का भजन भी व्यर्थ है। जो भी काम करो मन लगाकर करो। ईश्वर सब मे खुश रहता है।
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