भरण-पोषण का अधिकार अंतर्गत धारा 125 द.प्र.स. 1973



मानव एक सामाजिक प्राणी है, मानव पशुओं जैसा व्यव्हार तो नहीं करता क्योकि मानव में सोच समझ की शक्ति और बुद्धि है जो कि पशु में नहीं होती। फिर भी सामाजिक प्राणी होने के कारण समाज में रहते हुए किसी पारिवारिक कलह या पति-पत्नी का झगड़ा इस तरह बढ़ता है कि पति पत्नी अलग रहने के लिए बाध्य हो जाते हैं। यही झगड़ा कभी-कभी संबंध विच्छेद की स्थिति तक पहुंचा देता है। आपस के झगड़े में केवल दोनों ही कष्टता की चक्की में नहीं पीसे जाते परन्तु उनके साथ नाबलिग बच्चे भी संकट व कष्ट भोगते है। इसी प्रकार वृद्ध असहाय माता-पिता को उनके पुत्र या पुत्री भूलकर उनकी अवहेलना करते है और ऐसे असहाय वृद्ध रोटी कपड़ों के लिए तरसते रह जाते है। मानव को सम्मान की जिन्दगी बसर करने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की मूलभूत आवश्यकता है। जैसे की पानी तथा वायु की। संसार में जो प्राणी आया है कि उसे अपने को जीवित रखने के लिए भर पेट खाने की आवश्यकता है। कई बार पारिवारिक कलह के कारण पत्नी, नाबालिग बच्चे, वृद्ध, महिला लाचार हो जाते हैं क्योंकि वह अपना भरण-पोषण करने में सामर्थ नहीं रहते हैं।
Alimony and Maintenance Support after Divorce

इसलिए हम सभी का सामाजिक कर्तव्य हो जाता है कि इस प्रकार के पारिवारिक कलह से दुखी दम्पती को सही रास्ते पर लाए तथा उनका उचित मार्गदर्शन करें ताकि वह अपने बच्चों का भविष्य सुखमय व सुन्दर बना सकें। इस प्रकार दंपति का भी यह सामाजिक कर्तव्य बनता है कि वह पारिवारिक कलह को भूलकर अपने लिए नही तो बच्चो के भविष्य के लिए सुखमय जीवन व्यतीत कर सामाजिक तथा पारिवारिक शांति को बनाए रखें। कई बार पति-पत्नी का झगड़ा पारिवारिक कलह से बढ़कर पति-पत्नी के अलग रहने से लेकर सम्बन्ध विच्छेद तक की स्थिति तक पंहुचा देता है। इस कलह की चक्की में सन्तान भी पिस जाती है।
कई बार वृद्ध असहाय माता पिता भी पुत्र व पुत्रियों की अवेहलना का शिकार बने, पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो जाते हैं। पति पत्नी, बच्चों व माता-पिता को खर्चा प्राप्त करने सम्बन्धित अधिकार है, आईए इस पर चर्चा करें। पत्नी, नाबालिग बच्चों या बूढ़े मां-बाप, जिनका कोई अपना भरण-पोषण का सहारा नहीं है और जिन्हें उनके पति/पिता ने छोड़ दिया है या बच्चे अपने मां बाप के बुढापें में उनका सहारा नहीं बनते हैं और उनको भरण-पोषण का खर्च नहीं देते हैं तो धारा 125 दण्ड प्राक्रिया संहिता के अन्तर्गत ऐसे व्यक्ति खर्चा गुजारा प्राप्त करने का अधिकार रखते हैं। इस धारा 125 दण्ड प्राक्रिया संहिता, 1973 के तहत पति या पिता का यह कानूनी कर्तव्य है कि वह पत्नी, जायज या नाजायज नाबलिग बच्चों का पालन पोषण करें। अगर ऐसा पति या पिता पत्नी या बच्चों को खर्चा देने से इन्कार करें तो उनके द्वारा प्रार्थना पत्र या दरखास्त देने पर न्यायिक दण्डाधिकारी प्रथम श्रेणी को कानूनी अधिकार है कि वह आवदेक को 500 रूपये खर्च प्रति व्यक्ति की दर से प्रदान करें और यह रकम उस पति से या पिता से अदालत के निर्देश द्वारा जबरन वसूल की जा सकती है।
 भरण-पोषण धारा 125 द.प्र.स. 1973 के प्रावधान
दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 से 128 तक इस सामाजिक समस्या निवारण के लिए बनाए गये कानून हैं। इन धाराओं के अधीन, निश्रित पत्नी, बच्चे व माता-पिता याचिका प्रथम श्रेणी के ज्युडिशियल मैजिस्ट्रेट की अदालत में दायर कर सकते हैं।
खर्चा प्राप्त करने के लिए याचिका ऐसे अधिकार क्षेत्र वाले ज्युडिशियल मैजिस्ट्रेट, प्रथम श्रेणी की अदालत में दी जा सकती है।
जहां पति उस समय रह रहा हो।जहां प्रतिवादी हाल तक आवेदक के साथ रहता रहा हो,
जहां आवेदक रहता हो/जहां प्रतिवादी का स्थाई निवास हो,
जहां पति-पत्नी याचिका से पहले (चाहे अस्थाई रूप से) रह रहे हों।
  1. धारा 125 सी0आर0पी0सी0 की कार्यवाही की प्रणाली
    खर्चे के लिए दी गई याचिका-आरोप पत्र न होकर एक याचिका होती है इसलिए प्रतिपक्षी को अभियुक्त नहीं बल्कि प्रत्यार्थी माना जाता है। यह कार्यवाही पूर्णतया फौजदारी नहीं होती बल्कि अर्ध-फौजदारी होती है। याचिका अदालत में प्रत्यार्थी को सम्मन जारी किये जाते हैं। अगर प्रत्यार्थी सम्मन लेने से जान बूझकर इन्कार करे या सम्मन मिलने के बावजूद अदालत में उपस्थित न हों तो उनके खिलाफ एक तरफा कार्यवाही के आदेश दिये जा सकते हैं। एक तरफा फैसले का आदेश उचित कारण साबित किये जाने पर तीन महीने के अन्दर रद्द करवाया जा सकता है। प्रार्थी या प्रत्यार्थी दोनों पक्षों को अपने आरापों को साबित करने के लिए गवाही देने का अधिकार है। दोनों पक्ष स्वयं अपने गवाह के तौर पर अदालत के समक्ष पेश होने का अधिकार रखते हैं। केस व अनुमान सावित्री बनाम गोबिन्द सिंह रावत,1986(1) सी.एल.आर.पेज नं0 331 में उच्च न्यायालय द्वारा निर्देश दिया गया है कि जब तक 125 सी0आर0पी0सी0 के तहत कारवाई पूरी होने तक गुजारा भता बारे कोई अन्तिम फैसला नहीं होता तब तक अन्तरिम आदेश के तहत 125 सी0आर0पी0सी0 की दरखास्त दायर होते ही गुजारा भता दिया जा सकता है। यहां यह भी बताना उचित होगा कि केस व अनुमान श्रीमती कमला वगैरा बनाम महिमा सिंह, 1989(1) सी.एल.आर.पेज न0 501 में दर्ज, उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले के मुताबिक ऐसी हर दरखास्त जेर धारा 125 सी0आर0पी0सी0 दुबारा चालू हो सकती है जो प्रार्थीय के न आने के कारण खारिज कर दी गई हो। यहां यह भी बताना उचित होगा कि केस व अनुमान पवित्र सिंह बनाम भुपिन्द्र कौर, 1988 एस.एल.जे. पेज न0 164 में दर्ज उच्च न्यायालय के फैसले के मुताबिक ऐसी दरखास्त जेर धारा 125 सी0आर0पी0सी0 जो राजीनामा की वहज से वापिस ले ली गई हो दुबारा चलाई जा सकती है अगर उस केस का राजीनामा टूट जाये।
  2. धारा 125 सी0आर0पी0सी0 के अधीन खर्चा प्राप्त करने की पात्रता हर उस व्यक्ति पर जो साधन सम्पन्न है, यह कानूनी दायित्व है कि वहः
    अपनी पत्नी जो अपना, खर्चा स्वयं वहन न कर सकती हों,
    अपने नाबालिग बच्चों (वैध व अवैध) जो स्वयं अपना खर्चा चलाने में असमर्थ हो,
    अपने बालिग बच्चों (वैध व अवैध) सिवाय विवाहित पुत्री के) जो शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम होने पर अपना खर्चा स्वयं वहन न कर सकते हों,
    अपने वृद्ध व लाचार माता पिता जो स्वयं अपना खर्चा उठाने में असमर्थ हो, कि वह उनका खर्चा व पालन पोषण का व्यय उठाएं।
    ध्यान रहे कि केवल कानूनन व्याहिता पत्नी ही खर्चा लेने की अधिकारिणी है।
    दूसरी (पत्नी जो विवाह कानून द्वारा मान्य नहीं है, या रखैल, खर्चा प्राप्त करने की हकदार नहीं है लेकिन वैध या अवैध सन्तानें इस धारा के अन्तर्गत खर्चा लेने की हकदार है।)
  3. खर्चा प्राप्त करने हेतू साक्ष्य
    खर्चा प्राप्त करने के लिए प्रार्थी को निम्नलिखित बातें साबित करना आवश्यक हैः-
    1. कि प्रार्थी के पास खर्चा देने के पर्याप्त साधन हैं।
    2. वह जानबूझकर भरण-पोषण देने में आनाकानी या इन्कार कर रहा है।
    3. आवेदक प्रत्यार्थी के साथ न रहने के लिए मजबूर है, अगर पति के खिलाफ व्यभिचार (परस्त्रीगमन) निर्दयता (शारीरिक व मानसिक) दूसरी शादी या अन्य ऐसे कोई आरोप साबित हो तो पत्नी द्वारा अलग रह कर खर्चा प्राप्त करने का अधिकार मान्य होगा।
  4. आवदेक के पास स्वयं अपना खर्चा चलाने के लिए कोई साधन उपलब्ध न है।
    1. लेकिन अगर पत्नी स्वयं व्यभिचारणी का जीवन बिता रही है। या
    2. पत्नी बिना किसी उचित कारण के पति के साथ रहने से मना करती हो
    3. पति-पत्नी स्वयं रजाबन्दी से अलग रह रहे हों, तो खर्चा प्राप्त करने की याचिका रद्द की जा सकती है। अदालत द्वारा प्रति माह व्यक्ति (आवेदक) 500 रूपये से अधिक खर्चे का आदेश नहीं दिया जा सकता। यह आदेश अदालत द्वारा दोनों पक्षों की आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों, उनकी जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए निर्धारित किया जाता है। किसी भी पक्ष की परिस्थितियों में फेर बदल होने पर खर्च के आदेश को रद्द या कम या ज्यादा किया जा सकता है।
  5. धारा 127 सी0आर0पी0सी0 के तहत खर्चे मे तबदीली
    अगर खर्चा प्राप्त करने वाले व्यक्ति का समय व्यतीत हो जाने के उपरान्त अदालत द्वारा प्रदान किये हुए खर्चे से गुजारा नहीं होता या जिस व्यक्ति के विरूद्ध खर्चा लगवाया गया है उसकी आर्थिक स्थिति में खर्चे के निर्देश उपरान्त तबदीली आती है तो खर्चा प्राप्त करने वाले व्यक्ति को अधिकार है कि वहा न्यायिक दण्डाधिकारी प्रथम श्रेणी की अदालत में खर्चा बढ़ाने के लिए आवेदन धारा 127 दण्ड प्राक्रिया संहिता के तहत दे सकता है। 2001 के अधिनियम 50 ने तबदीली लाई है कि खर्चे की रकम अदालत हालत के मुताबिक तय करेगी और इसकी कोई सीमा न होगी। अगर इस प्रकार के आवेदन पर पत्नी, बच्चों या माता पिता के खर्चा तबदीली करने की सुनवाई करता है तो अदालत किसी दिवानी दावे में हुए फैसले को भी मद्देनजर रखेगी। इस प्रकार अगर किसी पत्नी ने तलाक लिया है या पति ने उसे तलाक दिया है और ऐसी पत्नी तलाक लेने के उपरान्त दूसरी शादी कर लेती है तो अदालत को अधिकार है कि वह पति के आवेदन पर ऐसी पत्नी के खर्चा गुजारे के आदेश को उसके द्वारा शादी करने की तारीख से रद्द कर सकती है।
  6. धारा 128 सी0आर0पी0सी0 के अधीन आदेश कैसे लागू किया जाता है
    अगर प्रत्यार्थी बिना किसी उचित कारण के आदेश का उलंघन करता है तो खर्चे की रकम के बारे में वारन्ट जारी किया जा सकता है। वारन्ट जारी होने के बावजूद मासिक खर्चे के भुगतान होने की स्थिति में प्रत्यार्थी को एक माह तक की कैद हो सकती है। खर्चे के आदेश को लागू करने की याचिका, देय तिथि के एक साल के भीतर दिया जाना अनिवार्य है। हमारे उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले के मुताबिक प्रत्यार्थी को उतने महीने तक लगातार जेल में बन्द रखा जा सकता है जितने महीने तक का गुजारा भता उसने नहीं अदा किया हो। यहां यह भी कहना उचित है कि किसी भी पत्नी को अपने पति से देय गुजारा वसूल करने के लिये अदालत में कोई पैसा जमा करवाने की जरूरत नहीं होती हैं।  एमपरर बनाम सरदार मोहम्मद, ए.आई.आर. 1935, लाहौर, पेज 758
हिन्‍दू विवाहित स्त्री, हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा-24 के तहत गुजारा भत्ता ले सकती है और तो और पति की मृत्यु के पश्चात यदि स्त्री दूसरा विवाह नहीं करती तो उसे सास-ससुर से भी गुजारा भत्ता लेने का अधिकार है। हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार पत्नी अपने बच्चों की शिक्षा, सुरक्षा और भरण-पोषण के लिए आवेदन कर सकती है। इसके लिये उसे यह साबित करना होता है कि जीवन यापन के लिए उसके पास आय का कोई स्थायी स्रोत नहीं है और वह वित्तीय तौर पर अपना गुजारा नहीं कर सकती। फैमिली कोर्ट ने एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि बिना कारण पति का घर छोड़ने से पत्नी को भरण-पोषण पाने का अधिकार नहीं है। इसी के साथ अदालत ने युवती द्वारा पति के खिलाफ लगाया गया भरण-पोषण का आवेदन खारिज कर दिया। फैमिली कोर्ट ने एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि बिना कारण पति का घर छोड़ने से पत्नी को भरण-पोषण पाने का अधिकार नहीं है। इसी के साथ अदालत ने युवती द्वारा पति के खिलाफ लगाया गया भरण-पोषण का आवेदन खारिज कर दिया।

भरण पोषण से सम्‍बन्धि कुछ महत्‍वपूर्ण वाद

प्रकरण - एक 
जहांगीराबाद के आकाश ने भोपाल निवासी सपना से आर्य समाज मंदिर में विवाह कर लिया। शादी के चार माह के पश्चात ही दोनों में विवाद होने लगे। सपना ने आकाश पर मारपीट, धमकी देने और घरेलू हिंसा के झूठे आरोप लगाकर दहेज प्रताडऩा का मामला दायर किया। मामला कोर्ट में चला, पति ने साबित कर दिया कि उसे दहेज प्रताडऩा के झूठे प्रकरण में फंसाया गया है। कोर्ट ने पति के पक्ष में निर्णय दिया। पति केस तो जीत गया लेकिन इस दौरान उसका कारोबार चौपट हो गया। इसके बाद पति ने अपनी पत्नी से क्षतिपूर्ति वसूलने का प्रकरण दायर किया। पत्नी ने झूठे प्रकरण दर्ज करने के मामले मे कार्यवाही करने के लिए कोर्ट में इस्तगासा लगाया। कोर्ट के आदेश के बाद पत्नी ने पति को क्षतिपूर्ति के रूप में कुछ राशि दी। यही नहीं पति ने पत्नी से भरण-पोषण की भी मांग की। पति को क्षतिपूर्ति की राशि मिली। हिन्दू मैरिज एक्ट के तहत उसे भरण-पोषण का लाभ भी मिल सकता है।
प्रकरण - दो 
फैमिली कोर्ट ने एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि बिना कारण पति का घर छोड़ने से पत्नी को भरण-पोषण पाने का अधिकार नहीं है। इसी के साथ अदालत ने युवती द्वारा पति के खिलाफ लगाया गया भरण-पोषण का आवेदन खारिज कर दिया। मनीषा धनारे निवासी द्वारकापुरी ने फैमिली कोर्ट में पति शैलेंद्र धनारे निवासी गंगा नगर सनावद रोड खरगोन के खिलाफ भरण-पोषण का प्रकरण दायर किया था। उसमें युवती ने इस आधार पर भरण-पोषण की मांग की थी कि वह कम पढ़ी हुई है और कोई हुनर नहीं जानती। पति इंजीनियर है और उसकी कमाई ज्यादा है। पति का घर का मकान होने के साथ कई एकड़ जमीन है। शैलेंद्र की ओर से अधिवक्ता समीर वर्मा ने जवाब पेश कर कहा कि युवती ने पति के खिलाफ दहेज प्रताड़ना, घरेलू हिंसा, भरण-पोषण के साथ तलाक के लिए भी केस लगा रखा है। इन प्रकरणों के कारण उसे (पति को) बार-बार अदालत में आना पड़ रहा है। इस कारण उसकी आय प्रभावित रही है। उस पर वृद्ध माता-पिता की देखभाल का भी जिम्मा है। अधिवक्ता ने कोर्ट को यह भी बताया कि युवती ने महिला थाना इंदौर में भी दहेज प्रताड़ना की शिकायत की थी। उसमें उसने कहा कि पति उसे खरगोन स्थित ससुराल में रखना चाहता है, जबकि वह इंदौर में पति के साथ रहना चाहती है।

प्रकरण - तीन
कुछ प्रकरणों में माननीय न्यायालय ने पत्नी को गुजारा भत्ता देने से इंकार भी कर दिया है। एक प्रकरण में पत्नी ने शादी के डेढ़ साल बाद ही पति का घर छोड़ दिया था। पति ने उसे इसके लिए कभी उकसाया नहीं था। पति ने उसे घर वापस बुलाने के लिए नोटिस भेजा। कोई जवाब नहीं मिला तो उसने फैमिली कोर्ट में वैवाहिक अधिकारों को लेकर याचिका दायर की। इस बीच पत्नी ने गुजारा भत्ता पाने के लिए याचिका दायर कर दी। फैमिली कोर्ट ने पति की याचिका स्वीकार कर पत्नी की याचिका खारिज कर दी। पत्नी ने ट्रायल कोर्ट में गुजारा भत्ता के लिए याचिका दायर की तो पति ने इस मुकदमे पर चल रही सुनवाई को उच्च न्यायालय में चुनौती दी। माननीय न्यायाधीश महोदय ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि यदि पत्नी ने बिना किसी ठोस कारण के पति का घर छोड़ा है तो उसे गुजारा भत्ता पाने का कोई हक नहीं है। 

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वाहन दुर्घटना के अन्तर्गत मुआवजा



सड़कों पर दिनों दिन बढ़ती भीड़ व बढ़ते हुए यातायात के कारण मोटर दुर्घटनाओ की संख्या में वृद्वि हो रही है। दुर्घटना की षिकार व्यक्ति को आर्थिक सहायता की आवश्यकता होती है। भारत देश कल्याणकारी देश होने के नाते इस प्रकार की सहायता देने के लिए वचनबद्व है। सबसे प्रमुख कार्य दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को प्रातिकार या हर्जाना दिलाना होता है। मोटर गाडि़यों से सम्बन्धित कानून को अधिक कल्याणकारी और व्यापक बनाने के लिए मोटरयान अधिनियम 1988 (59 ऑफ़ 1988) नया मोटरयान अधिनियम सड़क यातायात तकनीकी ज्ञान, व्यक्ति तथा माल की यातायात सहूलियत के बारे में व्याख्या करता है। इसमें मोटर दुर्घटनाओं के लिए प्रतिकार दिलाने की व्यवस्था है। इस कानून के अन्तर्गत मोटरयान का तात्पर्य सड़क पर चलने योग्य बनाया गया प्रत्येक वाहन जैसे ट्रक, बस, कार, स्कूटर, मोटर साईकिल, मोपेड़ व सड़क कूटने का इंजन इत्यादि से है। इनसे होने वाला प्रत्येक दुर्घटना मोटर दुर्घटना मानी जाती है और उसके लिए प्रतिकार दिलाया जाता है।

motor accident claim
motor accident claim

धारा 166 (ज्ञात मोटरयान से दुर्घटना जब गलती मोटर वाले की हो) : यदि दुर्घटना मोटर के स्वामी या चालाक की गलती से होती है तो उसके लिए प्रतिकर मांगने का आवेदन, उस इलाका के दुर्घटना दावा अधिकरण (मोटर दुर्घटना अध्यर्थना न्यायाधिकरण) जो कि जिला न्यायाधीश होता है को दिया जाता है वहां दुर्घटना होती है या जिस स्थान का आवेदक रहने वाला है या जहां प्रतिवादी रहता है उस अधिकरण के पास आवेदन आवेदक की इच्छानुसार स्थान का चयन करते हुए दायर किया जा सकता है। आवेदन घायल व्यक्ति स्वयं, विधिक प्रतिनिधि या एजेंट द्वारा दे सकता है। मृत्यु की दशा में मृतक का कोई विधिक प्रतिनिधि या उसका एजेंट आवेदन दे सकता है। जो छपे फार्म पर दिया जाता है। अगर छपा फार्म उपलब्ध न हो तो फार्म की नकल सादे कागज पर करके आवेदन दिया जा सकता है। एक आवेदन में मोटर के मालिक व चालक को तो पक्षकार बनाया ही जाता है बल्कि बीमा कम्पनी को भी पक्षकार बनाना चाहिए क्योंकि कोई भी मोटर गाड़ी बीमा करवाए बिना नहीं चलाई जा सकती। मोटरयान कर स्वामी इस बात के लिए आवद्ध है कि वह बीमा कम्पनी का नाम बताएं। दावा अधिकारी मुकद्दमें की सुनवाई करता है जो कि प्रायः संक्षिप्त होती है। दावा में यह साबित करना होता है कि:-

  1. दुर्घटना उस मोटर गाड़ी से हुई।
  2. मोटर वाले की गलती के कारण हुई
  3. दुर्घटना से क्या हानि हुई

यदि दुर्घटना से मृत्यु होती है तो दावेदारों को यह भी साबित करना होता है कि मृतक के दावेदारों को क्या लाभ होता था व क्या लाभ भविष्य में होने की आशा थी। इसके आधार पर प्रतिकर की राशि नियत की जाती है, सम्पति की हानि भी साबित करनी होगी व 6000 रूपये तक मुआवजा अधिकरण दे सकता है। अगर किसी वाहन की बीमा राशि में अतिरिक्त बढ़ौतरी बाबत असीमित नुक्सान की जिम्मेवारी जमा कराया गया हो तो उस सूरत में बीमा कम्पनी 6000 रूपये से अधिक रक़म की सम्पति नुकसान की भी भरपाई करने की जिम्मेवार होगी अन्यथा इससे अधिक की राशि के लिए दिवानी दावा करना आवश्यक है। यदि किसी व्यक्ति को दुर्घटना से चोट लगी है तो उसके इलाज पर होने वाल व्यय, काम न कर पाने के कारण होने वाली हानि, आदि के विषय में प्रतिकर देय है। यदि कोई गम्भीर चोट आती है जिसका स्थाई प्रभाव हो जैसे की कोई लंगड़ा या काना हो जाए तो उसे शेष जीवन, उससे होने वाली असुविधा व हानि का भी प्रतिकर देय होगा। राशि बीमा कम्पनी द्वारा ही चुकाई जाती है। परन्तु तात्पर्य यह नहीं कि वह मोटर वाले से वसूल नहीं की जा सकती है। राशि जितनी दिलाई जाए वह चाहे कम्पनी चाहे मालिक या फिर दोनों से ही दिलाई जा सकती है। यह भी हो सकता है कि मोटर चालक या स्वामी का दोष साबित न हो पाये। उस सूरत में चाहिए कि आवेदन में ही यह मांग भी की गई हो कि गलती न होने पर मिलने वाले प्रतिकर तो दिलाया ही जाए। इस प्रकार यदि मोटर वाले की गलती साबित हो तो पूरा, अगर न साबित हो तो नियम प्रतिकर मिल जायेगा।

मुआवजा लेने सम्बन्धित कार्यवाई : मोटर दुर्घटना की रिपोर्ट थाने में करनी चाहिए। रिर्पोट घायल व्यक्ति स्वयं या उसका कोई साथी लिखवा सकता है। रिपोर्ट में दुर्घटना का समय, स्थान, वाहन का नम्बर, दुर्घटना का कारण इत्यादि लिखवाने चाहिए। चोट के बारे में शीघ्रातिषीघ्र डाक्टरी जांच करवानी चाहिए। सम्पति हानि का विवरण भी देना चाहिए। गवाहों के नाम भी लिखवाने चाहिए। यदि बहुत घायल हुए हों तो प्रत्येक को अलग रिर्पोट लिखवाने की आवश्यकता नहीं, परन्तु यह देख लेना चाहिए कि रिर्पोट में पूरी बात आ गई है या नहीं ज्यादा घायल होने पर रिर्पोट अस्पताल में पुहंचने के बाद भी लिखवाई जा सकती है। डाक्टरी परीक्षा की नकल प्राप्त कर लेनी चाहिए और इलाज के कागज सावधानी से रख लेने चाहिए ताकि प्रतिकर लेते वक्त हानि साबित करने में सुविधा रहे।
मृत्यु होने की दशा में शव परीक्षा पुलिस करवाती है लेकिन दुर्घटना में लम्बी चोटों के कारण मृत्यु कुछ दिन बाद होती है तो भी शव परीक्षा की आवश्यकता होती है क्योंकि यह मृत्यु भी दुर्घटना में घायल होने के कारण ही मानी जाती है। पुलिस को की गई रिर्पोट को भी मोटर दुर्घटना अध्यर्थना न्यायाधिकरण हर्जाने के लिए स्वीकार कर सकती है।

धारा 173 के अधीन अपील : दावा अधिकरण के निर्णय से असन्तुष्ट कोई भी व्यक्ति निर्णय की तारीख के 90 दिन के भीतर उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है। उचित कारण बताए जाने पर, उच्च न्यायालय 90 दिन के अविध के बाद भी अपील की सुनवाई कर सकता है अगर प्रतिकर की रक़म 10000 रूपये से कम हो तो अपील नहीं की जा सकती है और अगर प्रतिकर की रक़म ज्यादा हो तो अपील करने से पहले 25000 रूपये या प्रतिकर का 50 प्रतिशत जो भी कम हो, उच्च न्यायालय में जमा करवाना पड़ता है।

अधिकरण द्वारा दिलाई गई रक़म प्राप्त करने की विधि :- यह रकम निर्णय के 30 दिन के अन्दर देय होती है अधिकरण द्वारा दिलाई गई रक़म की वसूली के लिए एक प्रमाण-पत्र जिला कलैक्टर के नाम भी प्राप्त किया जा सकता है। जिला कलैक्टर इस रक़म को मालगुजारी की बकाया रक़म की तरह-कुर्की गिरफतारी आदि से वसूल करवा सकता है। अन्यथा मोटर दुर्घटना अध्यर्थना न्यायाधिकरण खुद भी इजराए के जरिए मुआवजे की रक़म उत्तरवादियों से वसूल कर सकता है।

कानूनी सहातया कार्यक्रमों के अंतर्गत लोक अदालत द्वारा दुर्घटनाओं में प्रतिकर सम्बन्धी वादों के निर्णय की विधि : मोटर दुर्घटना के प्रतिकर सम्बन्धी वादों के लोक अदालतों में संधिकर्ताओं की मद्द से तय कराने का प्रयास किया जाता हैं जो आवेदक अपना निर्णय, लोक अदालत के माध्यम से करवाने के इच्छुक हैं वह छपे फार्म में दी गई सूचनाओं के साथ प्रार्थना-पत्र सम्बन्धित अधिकरण को दे सकता है जिसमें वह यह अनुरोध कर सकता है कि उसका निर्णय लोक अदालत के माध्यम से शीघ्र करवाया जाए। इस आवेदन पर मोटर मालिक व बीमा कम्पनी को सूचना भेज कर निष्चित समय पर बुलाया जाएगा व प्रतिकर के बारे समझौते द्वारा निर्णय करवाने की कोषिष की जाएगी। ऐसी दशा में बीमा कम्पनी या मालिक से आवेदक की धन राशि बिना किसी विलम्ब के दिलाने का प्रयास किया जायेगा। 

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धारा 50 सी.आर.पी.सी. के अधीन हिरासत व जमानत सम्बन्धित अधिकार



समाज में न्याय व्यवस्था रखना राज्य सरकार का संवैधानिक तथा कानूनी कर्तव्य है। भारत का संविधान भारत के लोगों को समान अधिकार और जीवित रहने का अधिकार प्रदान करता है तथा संविधान के तहत लोगों का यह मूलभूत अधिकार है कि बिना किसी अभियोग के किसी भी व्यक्ति को सजा न दी जाए औरदोषी व्यक्ति को केवल उतनी ही सजा दी जाए जितनी का कानून में प्रावधान है। किसी ऐसे दोषी व्यक्ति को दो बार किसी एक विशेष अभियोग में सजा नहीं दी जा सकती है।
धारा 50 सी.आर.पी.सी. के अधीन हिरासत व जमानत सम्बन्धित अधिकार
धारा 50  सीआरपीसी के अधीन हिरासत व जमानत सम्बन्धित अधिकार
सामाजिक अव्यवस्था तथा अपराधिक व असामाजिक तत्वों से जनता की सुरक्षा के लिए पुलिस विभाग की रचना की गई है। पुलिस विभाग का मुख्य कर्तव्य जनता की सुरक्षा व सहयोग देना है परन्तु कई बार कानून प्रदत्त इन शक्तियों का पुलिस विभाग के कुछ कर्मियों द्वारा दुरूपयोग किया जाता है और कई बार जनता से पुलिस विभाग का अपना कर्तव्य पालन करने के लिए समुचित सहयोग प्राप्त नहीं होता। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि हर व्यक्ति यह जान सके कि उसके अधिकार और कर्तव्य मुख्यतः बन्दी बनाए जाने पर व जमानत करवाने सम्बन्धी क्या है।
पुलिस विभाग को बन्दी बनाने का अधिकार कानून प्रदत्त है परन्तु यह अधिकार असीमित नहीं है। कानून में यह व्यवस्था है कि समुचित कारण होने पर या अपराध जघन्न होने पर ही, पुलिस किसी व्यक्ति को बन्दी बना सकती है। मुख्यतः अपराध दो श्रेणियों में बांटे जा सकते है:-
  • संज्ञेय अपराध - इस प्रकार के अपराधों के लिए पुलिस बिना किसी वारंट के संदिगध अपराधी को गिरफ्तार कर सकती है। सामान्यतः गम्भीर अपराधों के लिए ही बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार है। गम्भीर या जघन्य अपराधों की श्रेणी में मुख्यतः निम्नलिखित अपराध आते हैंः-
    1. अगर वह हत्या, बलात्कार, अपहारण जैसे अपराधों का दोषी हो
    2. अगर उस पर चोरी-डकैती इत्यादि का अभियोग हो, या उसके पास चोरी का सामान इत्यादि बरामद हो।
    3. अगर वह इश्तहारशुदा भगोड़ा हो।
    4. अगर वह जेल से फरार हुआ हो।
    5. अगर व किसी भी सेना से भागा हुआ हो।
    6. गंभीर चोट पहुंचाना, बिना अधिकार प्रवेष करना, नाजायज शराब खरीद करना व रखना, इन्यादि भी संज्ञेय अपराध की परिभाषा में आते हैं।
  • असंज्ञेय अपराध इस प्रकार के अपराधों में छोटे-मोटे और व्यक्तिगत अपराध जैसे कि किसी पर बिना चोट पहुंचाए हमला करना, किसी की मान हानि करना या किसी को गाली गलौच देना गैर-कानूनी तौर पर दूसरी शादी करना आदि आते हैं। असंज्ञेय अपराध बारे जब पुलिस में सूचना दी जाती है, तो वैसी सूचना रोजनामचा में दर्ज की जाती है और सूचना देने वाला व्यक्ति पुलिस को बाध्य नहीं कर सकता कि वह प्रथम सूचना रिर्पोट (एफ0आई0आर0) दर्ज करें। इस प्रकार के असंज्ञेय अपराधों को पुलिस अनुवेषण या तहकीकात बिना इलाका मैजिस्ट्रेट से आदेश प्राप्त किए बिना नहीं कर सकता है।

गिरफ्तार होने पर अपराधी के अधिकार है कि उसे यह जानकारी मिलें :- 
  1. कि वह किस अपराध में हिरासत में लिया जा रहा है।
  2. अगर वह वारंट के आधार पर गिरफ्तार किया गया है तो वह उस वारंट को देखे और पढ़े।
  3. किसी वकील को बुलाकर सलाह ले सके।
  4. अदालत के समय 24 घंटे के भीतर पेश किया जाए।
  5. उसे यह जानकारी दी जाए कि वह जमानत ले सकता है कि नहीं।
  6. अगर अदालत द्वारा उसे पुलिस हिरासत में रखने का आदेश हो तो वह अपना डाक्टरी मुआयना किसी सरकारी अस्पलात से करवाए।
  7. उसे किसी ऐसे बयान को देने के लिए बाध्य न किया जाए जो अदालत में उसके अपने खिलाफ साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता हो।
  8. अगर 24 घंटों के दौरान उसके साथ कोई अत्याचार या जोर जबरदस्ती की गई तो वह इलाका मैजिस्ट्रेट को इस बारे में बताए व उचित आदेश प्राप्त कर सके।
  9. उच्चतम न्यायालय के दिषा निर्देषानुसार हथकड़ी लगाए जाने सम्बन्धी अधिकार उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्देष जारी किए गये हैं कि अपराधी को हथकड़ी सामान्यतः नहीं लगाई जाएगी बल्कि उचित कारणों पर ही लगाई जा सकती है जैसे (अपराधी द्वारा भागने की कोषिष या अपराधी के हिंसक होने की स्थिति या अन्य किसी ऐसे उचित कारण होने पर, व लिखित रूप से आदेश प्राप्त करने पर ही अपराधी को हथकड़ी लगाई जा सकती है।

जमानत के अधिकार को आधार मानकर, अपराधों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है:-
  1. धारा 436 सी0आर0पी0सी0 :- जमानत योग्य अपराध जिनमें जमानत प्राप्त करना अधिकार है। इस श्रेणी में आने वाले केसों में अपराधी जमानत करवाने का अधिकार रखता है और अगर वह मैजिस्ट्रेट या पुलिस द्वारा मांगी गई जमानत देता है तो उसे जमानत पर रिहा करना आवश्यक है।
  2. धारा 437 सी0आर0पी0सी0 :- बिना जमानत योग्य अपराध जिनमें जमानत देना या ना देना अदालत की इच्छा पर निर्भर करता है। इन अपराधों में जमानत सिर्फ अदालतों द्वारा दी जाती है और अदालत द्वारा अपराध की गम्भीरता, साक्ष्य को सुरिक्षत रखना इत्यादि बातों को ध्यान में रखते हुए, जमानत दरखास्त मंजूर या नामंजूर की जा सकती है।
महिला अपराधी के अधिकार कुछ अतिरिक्त विशेषाधिकार प्राप्त है :-
  1. महिला अपराधी को किसी महिला पुलिस की ही हिरासत में रखा जा सकता है।
  2. किसी महिला को किसी अपराध की पूछताछ के लिए सूर्यास्त के बाद या सूर्योदय से पहले किसी भी पुलिस स्टेशन व चौकी में नहीं बुलाया जा सकता औा पूछताछ के वक्त महिला आरक्षी का उपस्थित रहना आवश्यक है।
  3. किसी भी महिला अपराधी की डाक्टरी जांच महिला डाक्टर द्वारा ही करवाई जा सकती है।
  4. किसी गिरफतार महिला की तलाशी केवल महिला ही ले सकती है।
  5. घर की तलाशी लेते वक्त महिला को अधिकार है कि वह तलाशी लेने वाली महिला अधिकारी/अधिकारी उस महिला को घर से बाहर आने का समय दें।
धारा 53-54 सी0आर0पी0सी0 के अधीन अपराधी की डाक्टरी जांच
पुलिस अधिकारी अदालत में दरखास्त देकर अपराधी का डाक्टरी मुआयना करवा सकता है ताकि उस डाक्टरी सर्टीफिकेट को वह साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल कर सके। जैसे बलात्कार के अपराध में वह शराब पीने का साक्ष्य प्राप्त करने के लिए भी डाक्टरी जांच का आदेश अदालत से हासिल कर सकता है।
अपराधी स्वयं भी अपनी डाक्टरी जांच की लिए अदालत को प्रार्थना पत्र दे सकता है। ताकि यह साबित कर सके कि उस पर पुलिस द्वारा जयादती या मार-पीट की गई है। बलात्कार इत्यादि अपराधों की षिकार महिलाएं अपनी डाक्टरी जांच करवाने मे पुलिस से आमतौर पर सहयोग नहीं करती। उन्हें ऐसी जांच के लिए बाध्य तो नहीं किया जा सकता लेकिन परिणामस्वरूप आवश्यक साक्ष्य की कमी रह जाने के कारण अपराधी कानून के षिकंजे से छूटने में सफल हो जाता है और समाज में असामाजिक तत्वों को बढ़ावा मिलता है। इसलिए यह आवश्यक है कि पुलिस को जनता का सम्पूर्ण सहयोग प्राप्त हो।

धारा 438 सी0आर0पी0सी0 के अधीन अग्रिम जमानत
गैर जमानती अपराधों मे अग्रिम जमानत का भी प्रावधान है। इस कानून की धारा के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति जिसके विरूद्ध गैर जमानती अपराध का मुकदमा दर्ज किया गया हो सेशन अदालत या उच्च न्यायालय में अग्रिम जमानत करवाने हेतू प्रार्थना-पत्र दे सकता है। अदालत मुकद्दमें के विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, शर्तो पर या बिना शर्त के अग्रिम जमानत मन्जूर या नामन्जूर कर सकती है।
अगर कोई अपराधी स्वयं वकील का खर्च वहन करने में असमर्थ है तो उसे सरकारी खर्चे पर वकील अदालत द्वारा दिलाया जा सकता है। बल्कि अदालत स्वयं भी इस बात के लिए बाध्य है कि अगर किसी अपराधी के पास वकील न हो तो स्वयं उसे सरकारी खर्चे पर वकील देने की आज्ञा दें।

जमानत
इस शब्द का अभिप्राय यह है कि जहाँ कोई व्यक्ति किसी फौजदारी मुकद्दमें में अभियुक्त हो और अदालत उसके केस की सुनवाई के दौरान उसे जेल में बन्द रखने के बजाय उसे ‘‘जमानत’’ पर छोडे़ जाने के आदेश देती है तो उस सूरत में जो व्यक्ति उस अभियुक्त की उस अदालत में समय-समय पर हाजिर रहने की जिम्मेदारी लेता है, वह व्यक्ति उस अभियुक्त का जमानती कहलाता है और अगर वह व्यक्ति इस जिम्मेदार को निभाने में असफल रहता है तो वह अपने द्धारा ज़मानतनामें में लिखी रक्म (या उससे कम रक्म) अदालत के आदेश अनुसार देने का बाध्य रहता है। जब तक अभियुक्त या उसके ज़मानती पर अदालत द्वारा कोई जुर्माना अभियुक्त की किसी गैर हाजरी बारे नहीं लगाया जाता तब तक कोई भी रक्म दोषी या उसके जमानती द्वारा किसी भी व्यक्ति या अधिकारी को देने की कोई जरूरत न है। जब कभी ऐसी कोई रक्म कोई अदा करता है तो वह उस अदायगी की सरकारी रसीद पाने का हकदार है।

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