राजस्थान का इतिहास एक परिचय



Rajasthan
राजस्थान का इतिहास एक परिचय

राजस्थान का इतिहास हमारी गौरवमयी धरोहर है, जिसमें विविधता के साथ निरन्तरता है। परम्पराओं और बहुरंगी सांस्कृतिक विशेषताओं से ओत-प्रोत राजस्थान एक ऐसा प्रदेश है, जहाँ की मिट्टी का कण-कण यहाँ के रण बांकुरों की विजय गाथा बयान करता है। यहाँ के शासकों ने मातृभूमि की रक्षा हेतु सहर्ष अपने प्राणों की आहुति दी। कहते हैं राजस्थान के पत्थर भी अपना इतिहास बोलते हैं। यहाँ पुरा सम्पदा का अकूत खजाना है। कहीं पर प्रागैतिहासिक शैल चित्रों की छटा है तो कहीं प्राचीन संस्कृतियों के प्रमाण हैं। कहीं प्रस्तर प्रतिमाओं का शैल्पिक प्रतिमान तो कहीं शिलालेखों के रूप में पाषाणों पर उत्कीर्ण गौरवशाली इतिहास। कहीं समय का ऐतिहासिक बखान करते प्राचीन सिक्के तो कहीं वास्तुकला के उत्कृष्ट प्रतीक। उपासना स्थल, भव्य प्रसाद, अभेद्य दुर्ग एवं जीवंत स्मारकों का संगम आदि राजस्थान के कस्बों, शहरों एवं उजड़ी बस्तियों में देखने को मिलता है। राजस्थान के बारे में यह सोचना गलत होगा कि यहाँ की धरती केवल रणक्षेत्र रही है। सच तो यह है कि यहाँ तलवारों की झंकार के साथ भक्ति और आध्यात्मिकता का मधुर संगीत सुनने को मिलता है। लोकपरक सांस्कृतिक चेतना अत्यन्त गहरी है। मेले एवं त्योहार यहाँ के लोगों के मन में रचे -बसे हैं। लोक नृत्य एवं लोकगीत राजस्थानी संस्कृति के संवाहक हैं। राजस्थानी चित्र शैलियों में श्रृंगार सौन्दर्य के साथ लौकिक जीवन की भी सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।

राजस्थान की यह मरुभूमि प्राचीन सभ्यताओं की जन्म स्थली रही है। यहाँ कालीबंगा, आहड़, बैराठ, बागौर, गणेश्वर जैसी अनेक पाषाण कालीन, सिन्धु कालीन और ताम्र कालीन सभ्यताओं का विकास हुआ, जो राजस्थान के इतिहास की प्राचीनता सिद्ध करती है। इन सभ्यता-स्थलों में विकसित मानव बस्तियों के प्रमाण मिलते हैं। यहाँ बागौर जैसे स्थल मध्य पाषाणकालीन और नवपाषाण कालीन इतिहास की उपस्थिति प्रस्तुत करते हैं। कालीबंगा जैसे विकसित सिंधु कालीन स्थल का विकास यहीं पर हुआ वहीं आहड़, गणेश्वर जैसी प्राचीनतम ताम्र कालीन सभ्यताएँ भी पनपीं।

आर्य और राजस्थान
मरुधरा की सरस्वती और दृशद्वती जैसी नदियाँ आर्यों की प्राचीन बस्तियों की शरणस्थली रही है। ऐसा माना जाता है कि यहीं से आर्य बस्तियाँ कालान्तर में दोआब आदि स्थानों की ओर बढ़ी। इन्द्र और सोम की अर्चना में मंत्रों की रचना, यज्ञ की महत्ता की स्वीकृति और जीवन-मुक्ति का ज्ञान आर्यों को सम्भवतः इन्हीं नदी घाटियों में निवास करते हुए हुआ था। महाभारत तथा पौराणिक गाथाओं से प्रतीत होता है, कि जांगल (बीकानेर), मरुकान्तार (मारवाड़) आदि भागों से बलराम और कृष्ण गुजरे थे, जो आर्यों की यादव शाखा से सम्बन्धित थे।

राजस्थान और प्रस्तर युग
राजस्थान में आदि मानव का प्रादुर्भाव कब और कहाँ हुआ अथवा उसके क्या क्रियाकलाप थे, इससे संबंधित समसामयिक लिखित इतिहास उपलब्ध नहीं है, परन्तु प्राचीन प्रस्‍तर-युग के अवशेष अजमेर, अलवर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, जयपुर, जालौर,पाली, टांक आदि क्षेत्रों की नदियां अथवा उनकी सहायक नदियों के किनारों से प्राप्त हुये हैं। चित्तौड़ और इसके पूर्व की ओर तो औजारों की उपलब्धि इतनी अधिक है कि ऐसा अनुमान किया जाता है कि यह क्षेत्र इस काल के उपकरणों का बनाने का प्रमुख केन्द्र रहा हो। लूनी नदी के तटों में भी प्रारम्भिक कालीन उपकरण प्राप्त हुये हैं। राजस्थान में मानव विकास की दूसरी सीढ़ी मध्य पाषाण एवं नवीन पाषाण युग है। आज से हजारों वर्षों से पर्व लगातार इस युग की संस्कृति विकसित होती रही। इस काल के उपकरणों की उपलब्धि पश्चिमी राजस्थान में लनी तथा उसकी सहायक नदियाँ की घाटियां व दक्षिणी-पर्वी राजस्थान में चित्तौड़ जिले में बेड़च और उसकी सहायक नदियाँ की घाटियों में प्रचुर मात्रा में हुई है। बागौर और तिलवाड़ा के उत्खनन से नवीन पाषाण कालीन तकनीकी उन्नति पर अच्छा प्रकाश पड़ा है। इनके अतिरिक्त अजमेर, नागौर, सीकर, झुंझुनूं, कोटा, टांक आदि स्थानों से भी नवीन पाषाण कालीन उपकरण प्राप्त हुए हैं। नवीन पाषाण युग में कई हजार वर्ष गुजरने के पश्चात मनुष्य का धीरे-धीरे धातुओं का ज्ञान हुआ। आज से लगभग 6000 वर्ष पहले धातुओं के युग को स्थापित किया जाता है, परन्तु समयान्तर में जब ताँबा और पीतल, लोहा आदि का उसे ज्ञान हुआ तो उनका उपयोग औजार बनाने के लिए किया गया। इस प्रकार धातु युग की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि कृषि और शिल्प आदि कार्यों का सम्पादन मानव के लिए अब अधिक सुगम हो गया और धातु से बने उपकरणों से वह अपना कार्य अच्छी तरह से करने लगा।

कालीबंगा - यह सभ्यता स्थल वर्तमान हनुमानगढ़ जिले में सरस्वती-दृशद्वती नदियां के तट पर बसा हुआ था, जो 2400-2250 ई. प. की संस्कृति की उपस्थिति का प्रमाण है। कालीबंगा में मुख्य रूप से नगर योजना के दो टीले प्राप्त हुये हैं। इनमें पूर्वी टीला नगर टीला है, जहाँ से साधारण बस्ती के साक्ष्य मिले हैं। पश्चिमी टीला दुर्ग टीले के रूप में है, जिसके चारों ओर सुरक्षा प्राचीर है। दोनों टीलों के चारों ओर भी सुरक्षा प्राचीर बनी हुई थी। कालीबंगा से पूर्व-हड़प्पा कालीन, हड़प्पा कालीन और उत्तर हड़प्पा कालीन साक्ष्य मिले है। इस पर्व-हड़प्पाकालीन स्थल से जुते हुए खत के साक्ष्य मिले हैं, जो संसार में प्राचीनतम हैं। पत्थर के अभाव के कारण दीवार कच्ची ईंटों से बनती थी और इन्हें मिट्टी से जोड़ा जाता था। व्यक्तिगत और सार्वजनिक नालियाँ तथा कूड़ा डालने के मिट्टी के बर्तन नगर की सफाई की असाधारण व्यवस्था के अंग थे। वर्तमान में यहाँ घग्गर नदी बहती है जो प्राचीन काल में सरस्वती के नाम से जानी जाती थी। यहाँ से धार्मिक प्रमाण के रूप में अग्निवेदियों के साक्ष्य मिले है। यहाँ संभवतः धूप में पकाई गई ईंटों का प्रयोग किया जाता था। यहाँ से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों और मुहरों पर जो लिपि अंकित पाई गई है,वह सैन्धव लिपि से मिलती-जुलती है, जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जो सका है। कालीबंगा से पानी के निकास के लिए लकड़ी व ईंटों की नालियाँ बनी हुई मिली हैं। ताम्र से बन कृषि के कई औजार भी यहाँ की आर्थिक उन्नति के परिचायक हैं। कालीबगा की नगर योजना सिन्धु घाटी की नगर योजना के अनुरूप दिखाई देती है। कालीबंगा के निवासियों की मृतक के प्रति श्रद्धा तथा धार्मिक भावनाओं का व्यक्त करने वाली तीन समाधियाँ मिली हैं। दुर्भाग्यवश ऐसी समृद्ध सभ्यता का ह्रास हो गया, जिसका कारण संभवतः सूखा, नदी मार्ग में परिवर्तन इत्यादि माने जाते हैं।

आहड़ - वर्तमान उदयपुर जिले में स्थित आहड़ दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान का सभ्यता का केन्द्र था। यह सभ्यता बनास नदी सभ्यता का प्रमुख भाग थी। ताम्र सभ्यता के रूप में प्रसिद्ध यह सभ्यता आयड़ नदी के किनारे मौजूद थी। यह ताम्रवती नगरी अथवा धूलकोट के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह सभ्यता आज से लगभग 4000 वर्ष पूर्व बसी थी। विभिन्न उत्खनन के स्तरों से पता चलता है कि बसने से लेकर 18वीं सदी तक यहाँ कई बार बस्ती बसी और उजड़ी। ऐसा लगता है कि आहड़ के आस-पास तांबे की अनेक खाने के होने से सतत रूप से इस स्थान के निवासी इस धातु के उपकरणों का बनाते रहें और उसे एक ताम्रयुगीन कौशल केंद्र बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 500 मीटर लम्बे धलकोट के टीले से ताँबे की कुल्हाड़ियाँ, लोहे के औजार, बांस के टुकड़े, हड्डियां आदि सामग्री प्राप्त हुई हैं। अनुमानित है कि मकानों की योजना में आंगन या गली या खुला स्थान रखने की व्यवस्था थी। एक मकान में 4 से 6 बडे़ चूल्हों का हाना आहड़ में वृहत् परिवार या सामूहिक भोजन बनाने की व्यवस्था पर प्रकाश डालते हैं। आहड़ से खुदाई से प्राप्त बर्तनों तथा उनके खंडित टुकड़ों से हमें उस युग में मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का अच्छा परिचय मिलता है। यहाँ तृतीया ईसा पर्व से प्रथम ईसा पर्व की यूनानी मुद्राएँ मिली हैं। इनसे इतना तो स्पष्ट है कि उस युग में राजस्थान का व्यापार विदेशी बाजारों से था। इस बनास सभ्यता की व्यापकता एव विस्तार गिलूंड, बागौर तथा अन्य आसपास के स्थानों से प्रमाणित है। इसका संपर्क नवदाटाली, हड़प्पा, नागदा, एरन, कायथा आदि भागों की प्राचीन सभ्यता से भी था, जो यहाँ से प्राप्त काले व लाल मिट्टी के बर्तनों के आकार, उत्पादन व कौशल की समानता से निर्दिष्ट होता है।

जनपदों का युग
आर्य संक्रमण के बाद राजस्थान में जनपदों का उदय होता है, जहाँ से हमारे इतिहास की घटनाएं अधिक प्रमाणों पर आधारित की जो सकती हैं। सिकन्दर के अभियानों से आहत तथा अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने को उत्सुक दक्षिण पंजाब की मालव, शिवि तथा अर्जुनायन जातियाँ, जो अपने साहस और शौर्य के लिए प्रसिद्ध थी, अन्य जातियों के साथ राजस्थान में आयीं और सुविधा के अनुसार यहाँ बस गयीं। इनमें भरतपुर का राजन्य जनपद और मत्स्य जनपद, नगरी का शिवि जनपद,अलवर का शाल्व जनपद प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त 300 ई. पू. से 300 ई. के मध्य तक मालव, अर्जुनायन तथा यौधेयों की प्रभुता का काल राजस्थान में मिलता है। मालवों की शक्ति का केन्द्र जयपुर के निकट था, कालान्तर में यह अजमेर, टोंक तथा मेवाड़ के क्षेत्र तक फैल गये। भरतपुर-अलवर प्रान्त के अर्जुनायन अपनी विजयां के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। इसी प्रकार राजस्थान के उत्तरी भाग के यौधय भी एक शक्तिशाली गणतन्त्रीय कबीला था। यौधय संभवतः उत्तरी राजस्थान की कुषाण शक्ति को नष्ट करने में सफल हुए थे जो रुद्रदामन के लेख से स्पष्ट है। ? लगभग दूसरी सदी ईसा पर्व से तीसरी सदी ईस्वी के काल में राजस्थान के केंद्रीय भागों में बौद्ध धर्म का काफी प्रचार था, परन्तु यौधय तथा मालवां के यहां आने से ब्राह्मण धर्म का प्रोत्साहन मिलन लगा और बौद्ध धर्म के ह्रास के चिह्न दिखाई देने लगे। गुप्त राजाओं नइन जनपदीय गणतन्त्रों का समाप्त नहीं किया, परन्तु इन्हें अर्द्ध आश्रित रूप में बनाए रखा। ये गणतंत्र हूण आक्रमण के धक्के को सहन नहीं पाए और अंततः छठी शताब्दी आते-आते यहाँ से सदियों से पनपी गणतंत्रीय व्यवस्था सर्वदा के लिए समाप्त हो गई।

नामकरण
वर्तमान राजस्थान के लिए पहले किसी एक नाम का प्रयोग नहीं मिलता है। इसके भिन्न-भिन्न क्षेत्र अलग-अलग नामों से जाने जाते थे। वर्तमान बीकानेर और जोधपुर का क्षेत्र महाभारत काल में ‘जांगल देश’ कहलाता था। इसी कारण बीकानेर के राजा स्वयं का ‘जांगलधर बादशाह’ कहते थे। जागल देश का निकटवर्ती भाग सपादलक्ष (वर्तमान अजमेर और नागौर का मध्य भाग) कहलाता था, जिस पर चौहानों का अधिकार था। अलवर राज्य का उत्तरी भाग कुरु दश, दक्षिणी और पश्चिमी मत्स्य दश और पर्वी भाग शूरसेन दश के अन्तर्गत था। भरतपुर और धौलपुर राज्य तथा करौली राज्य का अधिकांश भाग शरसेन दश के अन्तर्गत थ। शरसेन राज्य की राजधानी मथुरा, मत्स्य राज्य की विराट नगर और कुरु राज्य की इन्द्रप्रस्थ थी।उदयपुर राज्य का प्राचीन नाम ‘शिव’ था, जिसकी राजधानी ‘मध्यमिका’ थी। आजकल ‘मध्यमिका’ (मज्झमिका) को नगरी कहते हैं। यहाँ पर मेव जाति का अधिकार रहा,जिस कारण इसे मेदपाट अथवा प्राग्वाट भी कहा जान लगा। डूंगरपुर, बांसवाड़ा के प्रदेश का बागड़ कहते थे। जाधपुर के राज्य का मरु अथवा मारवाड़ कहा जाता था। जोधपुर के दक्षिणी भाग का गुर्जरत्रा कहते थे और सिराही के हिस्से को अर्बुद (आब) दश कहा जाता था। जैसलमेर को माड तथा कोटा और बूंदी का हाड़ौती पुकारा जाता था। झालावाड़ का दक्षिणी भाग मालव देश के अंतर्गत गिना जाता था।

इस प्रकार स्पष्ट है कि जिस भू-भाग को आजकल हम राजस्थान कहते है, वह किसी विशेष नाम से कभी प्रसिद्ध नहीं रहा। ऐसी मान्यता है कि 1800 ई. में सर्वप्रथम जॉर्ज थॉमस ने इस प्रान्त के लिए ‘राजपूताना’ नाम का प्रयोग किया था। प्रसिद्ध इतिहास लेखक कर्नल जेम्स टॉड ने 1829 ई. में अपनी पुस्तक ‘एनल्स एण्ड एंटीक्वीटीज ऑफ राजस्थान’ में इस राज्य का नाम ‘रायथान’ अथवा ‘राजस्थान’ रखा। जब भारत स्वतन्त्र हुआ तो इस राज्य का नाम ‘राजस्थान’ स्वीकार कर लिया गया।

प्राचीन राजस्थान (जांगल प्रदेश ) जोधपुर ओर बीकानेर का क्षेत्र महाभारत काल में इसी नाम से जाना जाता था. इसकी राजधानी अहिच्छत्रपुर (वर्तमान नागौर) थी. बीकानेर के राजा इस जांगल प्रदेश के राजा थे. बीकानेर राज्य के चिन्ह में ‘जय जंगलधर बादशाह’ लिखा था। (मत्स्य देश ) अलवर एवं जयपुर तथा कुछ हिस्सा भरतपुर का भी इसमें शामिल था. राजधानी विराटनगर थी जिसको इस समय बैराठ कहते है। शूरसेन ) भरतपुर, करौली, धौलपुर का क्षेत्र इसमें आता था। राजधानी – मथुरा (अर्जुनायन ) अलवर, भरतपुर, आगरा, मथुरा का भाग। (शिवि ) चित्तौड का क्षेत्र, राजधानी – मध्यमिका (वर्तमान – नगरी) मेदपाद (मेवाड) ) उदयपुर, चित्तौड़, भीलवाड़ा, बाँसवाडा, राजसमंद ओर डूंगरपुर का भाग (मारवाड़), मरु, मरु वास, मारवाड़ (जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर) गुर्जरत्रा), जोधपुर का दक्षिणी भाग अर्बुदेश, सिरोही के पास का क्षेत्र माड, जैसलमेर राज्य सपालदक्ष , जांगल देश के पूर्वी भाग को. राजधानी – शाकम्भरी (सांभर) हाड़ौती , कोटा एवं बूंदी का भागढूंढाड़ , जयपुर के आसपास का क्षेत्र राजस्थान को राजपुताना या रजवाड़ा भी कहा जाता है . १२ वीं सदी तक यहाँ गुर्जरों का राज था जिसके कारण इसे गुर्जरत्रा (गुर्जरों से रक्षित देश ) कहा जाता था. गुर्जरों के बाद राजस्थान में राजपूतों की सत्ता का आई तथा ब्रिटिश कल में राजस्थान राजपूताना के नाम से जाना जाने लगा।

पूर्व मध्यकालीन राजस्थान
इस काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना युद्धप्रिय राजपूत जाति का उदय एवं राजस्थान में राजपूत राज्यों की स्थापना है। गुप्तां के पतन के बाद केन्द्रीय शक्ति का अभाव उत्तरी भारत में एक प्रकार से अव्यवस्था का कारण बना। राजस्थान की गणतंत्र जातियां ने उत्तर गुप्तों की कमजोरियों का लाभ उठाकर स्वयं का स्वतंत्र कर लिया। यह वह समय था जब भारत पर हूण आक्रमण हा रह थ। हूण नेता मिहिरकुल ने अपने भयंकर आक्रमण से राजस्थान का बड़ी क्षति पहुँचायी और बिखरी हुई गणतंत्रीय व्यवस्था का जर्जरित कर दिया। परन्तु मालवा के यशोवर्मन ने हूणों का लगभग 532 ई. में परास्त करने में सफलता प्राप्त की। परन्तु इधर राजस्थान में यशोवर्मन के अधिकारी जो राजस्थानी कहलाते थे, अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र हान की चेष्टा कर रहे थ। किसी भी केन्द्रीय शक्ति का ने होना इनकी प्रवृत्ति के लिए सहायक बन गया। लगभग इसी समय उत्तरी भारत में हर्षवर्धन का उदय हुआ। उसके तत्त्वावधान में राजस्थान में व्यवस्था एव शांति की लहर आयी, परतु जो बिखरी हुई अवस्था यहाँ पैदा हो गयी थी, वह सुधर नही सकी। इन राजनीतिक उथल-पुथल के सन्दर्भ में यहाँ के समाज में एक परिवर्तन दिखाई देता है। राजस्थान में दूसरी सदी ईसा पर्व से छठी सदी तक विदेशी जातियाँ आती रहीं और यहाँ के स्थानीय समूह उनका मुकाबला करत रह। परन्तु कालान्तर में इन विदेशी आक्रमणकारियों की पराजय हुई, इनमें कई मार गये और कई यहाँ बस गये। जो शक या हण यहाँ बचे रह उनका यहाँ की शस्त्रापजीवी जातियों के साथ निकट सम्पर्क स्थापित होता गया और अन्ततोगत्वा छठी शताब्दी तक स्थानीय और विदेशी योद्धाओं का भेद जाता रहा।
सांभर के चौहान –चौहानां के मूल स्थान के संबध में मान्यता है कि वे सपादलक्ष एव जांगल प्रदेश के आस पास रहत थे। उनकी राजधानी अहिच्छत्रपुर (नागौर) थी। सपादलक्ष के चौहानां का आदि पुरुष वासुदेव था, जिसका समय 551 ई. के लगभग अनुमानित है। बिजौलिया प्रशस्ति में वासुदेव को साभर झील का निर्माता माना गया है। इस प्रशस्ति में चौहानां का वत्सगोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। प्रारभ में चौहान प्रतिहारों के सामंत थे परन्तु गुवक प्रथम जिसने हर्षनाथ मन्दिर का निर्माण कराया, स्वतंत्र शासक के रूप में उभरा। इसी वंश के चन्दराज की पत्नी रुद्राणी यौगिक क्रिया में निपुण थी। ऐसा माना जाता है कि वह पुष्कर झील में प्रतिदिन एक हजार दीपक जलाकर महादेव की उपासना करती थी।

मारवाड़ के गुर्जर-प्रतिहार - प्रतिहारों द्वारा अपने राज्य की स्थापना सर्वप्रथम राजस्थान में की गई थी, ऐसा अनुमान लगाया जाता है। जाधपुर के शिलालेखां से प्रमाणित हाता है कि प्रतिहारां का अधिवेशन मारवाड़ में लगभग छठी शताब्दी के द्वितीय चरण में हो चुका था। चूँकि उस समय राजस्थान का यह भाग गुर्जरत्रा कहलाता था, इसलिए चीनी यात्री युवानच्वांग ने गुर्जर राज्य की राजधानी का नाम पीला मालो (भीनमाल) या बाड़मेर बताया है। मुँहणात नैणसी ने प्रतिहारों की 26 शाखाओं का उल्लेख किया है, जिनमें मण्डौर के प्रतिहार प्रमुख थ। इस शाखा के प्रतिहारां का हरिशचन्द्र बड़ा प्रतापी शासक था, जिसका समय छठी शताब्दी के आसपास माना जाता है। लगभग 600 वर्शों के अपन काल में मण्डौर के प्रतिहारां ने सांस्कृतिक परम्परा को निभाकर अपन उदात्त स्वातन्त्र्य प्रेम और शौर्य से उज्ज्वल कीर्ति को अर्जित किया। जालौर-उज्जैन-कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारां की नामावली नागभट्ट से आरंभ होती है जो इस वश का प्रवर्तक था। उसे ग्वालियर प्रशस्ति में ‘म्लेच्छां का नाशक’कहा गया है। इस वश में भोज और महेन्द्रपाल को प्रतापी शासकों में गिना जाता है।

राजपूतों की उत्पत्ति
राजपूताना के इतिहास के सन्दर्भ में राजपूतों की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्तों का अध्ययन बड़ा महत्त्व का है। राजपतों का विशुद्ध जाति से उत्पन्न हाने के मत का बल दने के लिए उनको अग्निवशीय बताया गया है। इस मत का प्रथम सूत्रपात चन्दरबदाई के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘पृथ्वीराज रासो’ से होता है। उसके अनुसार राजपतों के चार वश प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान ऋषि वशिष्ठ के यज्ञ कुण्ड से राक्षसां के संहार के लिए उत्पन्न किये गये। इस कथानक का प्रचार 16वीं से 18वीं सदी तक भाटों द्वारा खूब होता रहा। मुहणोत नैणसी और सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस आधार का लेकर उसको और बढ़ावे के साथ लिखा। परन्तु वास्तव में ‘अग्निवंशीय सिद्धान्त’ पर विश्वास करना उचित नही है क्योंकि सम्पूर्ण कथानक बनावटी व अव्यावहारिक है। ऐसा प्रतीत होता है कि चन्दबरदाई ऋषि वशिष्ठ द्वारा अग्नि से इन वंशां की उत्पत्ति से यह अभिव्यक्त करता है कि जब विदेशी सत्ता से संघर्ष करने की आवश्यकता हुई तो इन चार वंशो के राजपूतों ने शत्रुओं से मुकाबला हेतु स्वयं का सजग कर लिया। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, सी.वी.वैद्य, दशरथ शर्मा, ईश्वरी प्रसाद इत्यादि इतिहासकारों ने इस मत को निराधार बताया है। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा राजपूतों को सूर्यवंशी और चंद्रवंशी बताते हैं। अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने कई शिलालेखों और साहित्यिक ग्रंथों के प्रमाण दिए हैं, जिनके आधार पर उनकी मान्यता है कि राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के वंशज हैं।

राजपूतां की उत्पत्ति से सम्बन्धित यही मत सर्वाधिक लाकप्रिय है। राजपूताना के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने राजपतों को शक और सीथियन बताया है। इसके प्रमाण में उनके बहुत से प्रचलित रीति-रिवाजां का, जो शक जाति के रिवाजां से समानता रखते थ, उल्लेख किया है। ऐसे रिवाजों में सूर्य पजा, सती प्रथा प्रचलन, अश्वमेध यज्ञ, मद्यपान,शस्त्रां और घोड़ां की पूजा इत्यादि हैं। टॉड की पुस्तक के सम्पादक विलियम क्रुक ने भी इसी मत का समर्थन किया है परन्तु इस विदेशी वंशीय मत का गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने खण्डन किया है। ओझा का कहना है कि राजपूतों तथा विदेशियों के रस्मों-रिवाजों में जो समानता कर्नल टॉड ने बतायी है, वह समानता विदशियां से राजपतों ने प्राप्त नहीं की है, वरन् उनकी सात्यता वैदिक तथा पौराणिक समाज और संस्कृति से की जो सकती है। अतएव उनका कहना है कि शक, कुषाण या हूणों के जिन-जिन रस्मो-रिवाजों व परम्पराओं का उल्लेख समानता बताने के लिए जेम्स टॉड ने किया है, वे भारतवर्ष में अतीत काल से ही प्रचलित थीं। उनका सम्बन्ध इन विदेशी जातियों से जाड़ना निराधार है। डॉ. डी. आर. भण्डारकर राजपूतों को गुर्जर मानकर उनका संबध श्वेत-हूणां के स्थापित करके विदेशी वशीय उत्पत्ति का और बल देते हैं। इसकी पुष्टि में वे बताते हैं कि पुराणों में गुर्जर और हूणों का वर्णन विदेशियों के सन्दर्भ में मिलता है। इसी प्रकार उनका कहना है कि अग्निवंशी प्रतिहार,परमार, चालुक्य और चौहान भी गुर्जर थे, क्योंकि राजौर अभिलेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है। इनके अतिरिक्त भंडारकर ने बिजोलिया शिलालेख के आधार पर कुछ राजपूत वंश का ब्राह्मणां से उत्पन्न माना है। वे चौहानां का वत्स गोत्रीय ब्राह्मण बताते हैं और गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से जानते हैं। डॉ. ओझा एवं वैद्य ने भंडारकर की मान्यता का अस्वीकृत करते हुए लिखा है कि प्रतिहारों का गुर्जर कहा जाना जाति की संज्ञा नहीं है वरन उनका प्रदेश विशेष गुजरात पर अधिकार होने के कारण है। जहाँ तक राजपूतों की ब्राह्मणां से उत्पत्ति का प्रश्न है, वह भी निराधार है क्योंकि इस मत के समर्थन में उनके साक्ष्य कतिपय शब्दों का प्रयोग राजपूतों के साथ होने मात्र से है। इस प्रकार राजपतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उपर्यु क्त मतों में मतैक्य नहीं है। फिर भी डॉ. ओझा के मत का सामान्यतः मान्यता मिली हुई है। निःसन्दह राजपूतों का भारतीय मानना उचित है। पूर्व मध्यकाल में विभिन्न राजपूत राजवंशों का उदय प्रारम्भिक राजपत कुलों में जिन्होंने राजस्थान में अपने-अपन राज्य स्थापित किये थे उनमें मेवाड़ के गुहिल, मारवाड़ के गुर्जर प्रतिहार और राठौड़, सांभर के चौहान, तथा आब के परमार, आम्बेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी आदि प्रमुख था।

मौर्य और राजस्थान
राजस्थान के कुछ भाग मौर्यों के अधीन या प्रभाव क्षत्र में थे। अशोक का बैराठ का शिलालेख तथा उसके उत्तराधिकारी कुणाल के पुत्र सम्प्रति द्वारा बनवाये गये मन्दिर मौर्यां के प्रभाव की पुश्टि करते हैं। कुमारपाल प्रबन्ध तथा अन्य जैन ग्रंथां से अनुमानित है कि चित्तौड़ का किला व चित्रांग तालाब मौर्य राजा चित्रांग का बनवाया हुआ है। चित्तौड़ से कुछ दूर मानसरोवर नामक तालाब पर राज मान का, जो मौर्यवशी माना जाता है, वि. सं. 770 का शिलालेख कर्नल टॉड को मिला, जिसमें माहेश्वर,भीम, भोज और मान ये चार नाम क्रमशः दिए हैं। कोटा के निकट कणसवा (कंसुआ) के शिवालय से 795 वि. सं. का शिलालेख मिला है, जिसमें मौर्यवंशी राजा धवल का नाम है। इन प्रमाणां से मौर्यों का राजस्थान में अधिकार और प्रभाव स्पष्ट होता है। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत की राजनीतिक एकता पुनः विघटित होने लगी। इस युग में भारत में अनेक नये राजवंशों का अभ्युदय हुआ। राजस्थान में भी अनेक राजपूत वंशो ने अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिये थे, इसमें मारवाड़ के प्रतिहार और राठौड़, मेवाड़ के गुहिल, सांभर के चौहान, आमेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी इत्यादि प्रमुख हैं।

शिलालेखां के आधार पर हम कह सकते हैं कि छठी शताब्दी में मण्डोर के आस पास प्रतिहारां का राज्य था और फिर वही राज्य आगे चलकर राठौड़ा का प्राप्त हुआ। लगभग इसी समय सांभर में चौहान राज्य की स्थापना हुई और धीरे-धीरे वह राज्य बहुत शक्तिशाली बन गया। पांचवीं या छठी शताब्दी में मेवाड़ और आसपास के भू-भाग में गुहिलां का शासन स्थापित हा गया। दसवीं शताब्दी में अर्थूणा तथा आब में परमार शक्तिशाली बन गये। बारहवीं तथा तेरहवीं शताब्दी के आसपास तक जालौर, रणथम्भौर और हाड़ौती में चौहानां ने पुनः अपनी शक्ति का संगठन किया परन्तु उसका कही-कहीं विघटन भी होता रहा।

मेवाड़ के गुहिल – इस वश का आदिपुरुश गुहिल था। इस कारण इस वंश के राजपत जहाँ-जहाँ जाकर बसे उन्होंने स्वयं का गुहिल वशीय कहा। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा गुहिलों का विशुद्ध सूर्यवशीय मानत हैं, जबकि डी. आर.भण्डारकर के अनुसार मेवाड़ के राजा ब्राह्मण थ। गुहिल के बाद मान्य प्राप्त शासकों में बापा का नाम उल्लेखनीय है, जो मेवाड़ के इतिहास में एक महत्त्वपर्ण स्थान रखता है। डॉ. आझा के अनुसार बापा इसका नाम ने होकर कालभोज की उपाधि थी। बापा का एक साने का सिक्का भी मिला है, जो 115 ग्रेन का था। अल्लट, जिसे ख्यातों में आलुरावल कहा गया है, 10वीं सदी के लगभग मेवाड़ का शासक बना। उसन हण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया था तथा उसके समय में आहड़ में वराह मन्दिर का निर्माण कराया गया था। आहड़ से पर्व गुहिल वश की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र नागदा था। गुहिलों ने तेरहवीं सदी के प्रारम्भिक काल तक मेवाड़ में कई उथल-पुथल के बावजूद भी अपन कुल परम्परागत राज्य का बनाये रखा।

आबू के परमार – ‘परमार’ शब्द का अर्थ शत्रु का मारने वाला हाता है। प्रारंभ में परमार आब के आसपास के प्रदशां में रहत थ। परन्तु प्रतिहारों की शक्ति के ह्वास के साथ ही परमारों का राजनीतिक प्रभाव बढ़ता चला गया। धीरे-धीरे इन्होंने मारवाड़,सिन्ध, गुजरात, वागड़, मालवा आदि स्थानां में अपने राज्य स्थापित कर लिये। आब के परमारां का कुल पुरुष धूमराज था परन्तु परमारां की वंशावली उत्पलराज से आरंभ होती है। परमार शासक धधुक के समय गुजरात के भीमदेव ने आब का जीतकर वहाँ विमलशाह का दण्डपति नियुक्त किया। विमलशाह ने आब में 1031 में आदिनाथ का भव्य मन्दिर बनवाया था। धारावर्ष आब के परमारों का सबसे प्रसिद्ध शासक था। धारावर्ष का काल विद्या की उन्नति और अन्य जनापयागी कार्यां के लिए प्रसिद्ध है। इसका छोटा भाई प्रह्लादन देव वीर और विद्वान था। उसने ‘पार्थ-पराक्रम-व्यायोग’ नामक नाटक लिखकर तथा अपने नाम से प्रहलादनपुर (पालनपुर) नामक नगर बसाकर परमारों के साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर को ऊँचा उठाया। धारावर्ष के पुत्र सामसिंह के समय में, जो गुजरात के सालकी राजा भीमदव द्वितीय का सामन्त था, वस्तुपाल के छाट भाई तजपाल ने आब के दलवाड़ा गाँव में लणवसही नामक नमिनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया था। मालवा के भाज परमार ने चित्तौड़ में त्रिभुवन नारायण मन्दिर बनवाकर अपनी कला के प्रति रुचि को व्यक्त किया। वागड़ के परमारों ने बाँसवाड़ा के पास अर्थणा नगर बसा कर और अनेक मंदिरां का निर्माण करवाकर अपनी शिल्पकला के प्रति निष्ठा का परिचय किया।

मध्यकालीन राजस्थान
मध्यकाल में राजपत शासकां और सामन्तां ने मुस्लिम शक्ति का रोकने की समय-समय पर भरपर काशिश की। राजपतों द्वारा अनवरत तीव्र प्रतिरोध का सिलसिला मध्यकाल में चलता रहा। सत्ता संघर्ष में राजपत निर्णायक लड़ाई नही जीत सके। इसका मुख्य कारण राजपूतों में साधारणतः आपसी सहयोग का अभाव, युद्ध लड़न की कमजार रणनीति तथा सामन्तवाद था। यह साचना उचित नहीं है कि राजपूतां के प्रतिरोध का कोई अर्थ नहीं निकला। राणा कुम्भा एवं राणा सागा के नेतृत्व में सर्वाच्चता की स्थापना राजपतान में ही सम्भव हा सकती थी। यह स्मरण रह कि आगे चलकर राणा प्रताप, चन्द्रसेन और राजसिंह ने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। यद्यपि अकबर की राजपूत नीति के कारण राजपूताना के अधिकांश शासक उसके हितां की रक्षा करने वाले बन गये।

मध्यकालीन राजस्थान का बौद्धिक अधिसृष्टि से पिछड़ा मानना इतिहास के तथ्यां एव अनुभवों के विपरीत होगा। जिस वीर प्रसूता वसुंधरा पर माघ, हरिभद्र सूरी, चन्दबरदाई, सूर्यमल्ल मिश्रण, कवि करणीदास, दुरसा आढ़ा, नैणसी जैसे विद्वान लेखक तथा महाराणा कुम्भा, राजा राय सिंह, राजा सवाई जयसिंह जैसे प्रबुद्ध शासक अवतरित हुए हों, वह ज्ञान के आलोक से कभी वंचित रही हो, स्वीकार्य नहीं। जिस प्रदेश के रणबांकुरों में राणा प्रताप, राव चन्द्रसेन, दुर्गादास जैसे व्यक्तित्व रहे हों, वह धरती यश से वंचित रहे; सोचा भी नहीं जो सकता। धरती धोरां री’ का इतिहास अपने-आप में राजस्थान का ही नहीं अपितु भारतीय इतिहास का उज्ज्वल एवं गौरवशाली पहल है। मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास में गुहिल-सिसोदिया (मेवाड़), कछवाहा (आमेर-जयपुर), चौहान (अजमेर, दिल्ली, जालौर, सिराही, हाड़ौती इत्यादि के चौहान), राठौड़ (जोधपुर और बीकानेर के राठौड़) इत्यादि राजवंश नक्षत्र भांति चमकते हुए दिखाई देते हैं।

1113 ई. में अजयराज चौहान ने तुर्कों के विरुद्ध लड़े गये युद्धां में तराइन का प्रथम युद्ध हिन्द विजय का एक गौरवपूर्ण अध्याय है। परन्तु पृथ्वीराज चौहान द्वारा पराजित तुर्की सेना का पीछा ने किया जाना इस युद्ध में की गयी भल के रूप में भारतीय भ्रम का एक कलकित पृष्ठ है। इस भूल के परिणामस्वरूप 1192 में मुहम्मद गौरी ने तराइन के दूसर युद्ध में पृथ्वीराज चौहान तृतीय का पराजित कर दिया। इस हार का कारण राजपतों का परम्परागत सैन्य संगठन माना जाता है। पृथ्वीराज चौहान अपने राज्यकाल के आरंभ से लेकर अन्त तक युद्ध लड़ता रहा, जो उसके एक अच्छे सैनिक और सेनाध्यक्ष होने का प्रमाणित करता है। सिवाय तराइन के द्वितीय युद्ध के, वह सभी युद्धों में विजेता रहा। वह स्वयं अच्छा गुणी होने के साथ-साथ गुणीजनों का सम्मान करन वाला था। जयानक, विद्यापति गौड़, वागीश्वर, जनार्दन तथा विश्वरूप उसके दरबारी लेखक और कवि थ, जिनकी कृतियाँ उसके समय को अमर बनाये हुए हैं। जयानक ने पृथ्वीराज विजय की रचना की थी। पृथ्वीराज रासो का लेखक चन्दबरदाई भी पृथ्वीराज चौहान का आश्रित कवि था।

राजस्थान में जन जागरण एवं स्वतन्त्रता संग्राम

1857 की क्रांति पृष्ठभूमि
राजस्थान के देशी राज्यों ने अंग्रेजी कम्पनी के साथ संधियाँ (1818 ई.) करके मराठों द्वारा उत्पन्न अराजकता से मुक्ति प्राप्त कर ली तथा राज्य की बाह्य सुरक्षा के बारे में भी निश्चित हो गए, क्योंकि अब कम्पनी ने उनके राज्य की बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा की जिम्मेदारी भी ले ली थी। प्रत्यक्ष में देशी रियासतों पर कोई अधिक आर्थिक भार भी नहीं पड़ा, क्योंकि जो खिराज वे मराठों को चुकाते थे वो ही खिराज अब अंग्रेजों को देना था। अतः राजा खुश हो गए कि अब उनका निरंकुश शासन चलता रहेगा। राजाओं को संधियों की शर्तें इतनी आकर्षक लगीं कि, उन्होंने अंग्रेजी कम्पनी की ईमानदारी पर बिना शंका किए संधियों पर हस्ताक्षर कर दिए। परन्तु संधियों में उल्लिखित शर्तों को कंपनी के अधिकारियों ने जैसे ही क्रियान्वित करना शुरू किया,राजाओं के वंश परंपरागत अधिकारों पर कुठाराघात होंने लगा। कम्पनी ने राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करके देशी नरेशों की प्रभुसत्ता पर भी चोट की एवं उनकी स्थिति कम्पनी के सामन्तों व जागीरदारों जैसी हो गई। कम्पनी की नीतियों से सामन्तों के पद, मर्यादा व अधिकारों को भी आघात लगा। कम्पनी द्वारा अपनाई गई आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप राजा, सामन्त, किसान, व्यापारी,शिल्पी एवं मजदूर सभी वर्ग पीड़ित हुए। कम्पनी के साथ की गई संधियों के कई दुष्परिणाम सामने आए, जिन्होंने 1857 की क्रांति की पृष्ठभूमि बनाई।

राज्यों के आन्तरिक शासन में हस्तक्षेप
राजपूत राजाओं के साथ संधियाँ करते समय अंग्रेजों ने यह स्पष्ट आश्वासन दिया था कि वे राज्यों के आन्तरिक प्रशासन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। मगर अंग्रेजों ने राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप किया। जोधपुर के शासक पर दबाव डालकर 1839 ई. में जोधपुर के किले पर अधिकार कर लिया। 1842-43 ई. में अंग्रेजों ने पुनः जोधपुर के मामलों में हस्तक्षेप करते हुए नाथों की जागीरें जब्त कर उनको कैद में डाल दिया। 1819 ई. में उन्होंने जयपुर के मामलों में हस्तक्षेप किया। अंग्रेजों ने मांगरोल के युद्ध में (1821 ई.) कोटा महाराव के विरुद्ध दीवान जालिम सिंह की सहायता की, जो कि अंग्रेज समर्थक था। मेवाड़ के प्रशासन में भी पोलिटिकल एजेन्ट के बार-बार हस्तक्षेप ने राज्य की आर्थिक स्थिति को दयनीय बना दिया। 1823 ई. में कैप्टन कौब ने समस्त शासन प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया और महाराणा को खर्च के लिए एक हजार रु. दैनिक नियत कर दिया। इस प्रकार संधियों की शर्तों के विपरीत अंग्रेजों ने राज्यों के आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप कर उनकी बाह्य प्रभुसत्ता के साथ -साथ आंतरिक स्वायत्तता भी खत्म कर दी। अब राजा अपने राज्य के संप्रभु स्वामी न रहकर अंग्रेजों की कृपा दृष्टि पर निर्भर हो गए।

राज्यों के उत्तराधिकार मामलों में हस्तक्षेप
अंग्रेजों ने राज्यों से संधियाँ करते समय आश्वासन दिया था कि वह उनके परंपरागत शासन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। परंतु राज्य में शांति व्यवस्था बनाये रखने के बहाने अंग्रेजों ने उत्तराधिकार के मामलों में खुलकर हस्तक्षेप किया। 1826 ई. में अलवर राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर बलवंत सिंह व बनेसिंह के मध्य अलवर राज्य के दो हिस्से करवा दिए। भरतपुर के उत्तराधिकार के प्रश्न पर 1826 ई. में अंग्रेजों ने लोहागढ़ दुर्ग को घेर कर उसे नष्ट कर दिया एवं बालक राजा बलवन्त सिंह को गद्दी पर बिठाकर, पोलिटिकल एजेन्ट के अधीन एक काउन्सिल की नियुक्ति कर दी, जो प्रशासन का संचालन करने लगी। अंग्रेजों ने अपने समर्थक उम्मीदवारों को उत्तराधिकारी बनाकर राज्यों में अप्रत्यक्ष रूप से अपनी राजनीतिक प्रभुता स्थापित की। जिस राज्य का उत्तराधिकारी अल्पवयस्क होता, वहाँ ए.जी.जी., रेजीडेण्ट की अध्यक्षता में अपने समर्थकों की कौंसिल का गठन कर प्रशासन पर नियंत्रण स्थापित कर लेते थे। 1835 ई. में जयपुर में शासन संचालन के लिए पोलिटिकल एजेन्ट के निर्देशन में सरदारों की समिति गठित की गई। 1844 ई. में बाँसवाड़ा में महारावल लक्ष्मणसिंह की नाबालिगी के दौरान प्रशासन पर अंग्रेजी नियंत्रण बना रहा। गोद लेने के प्रश्न पर भी अंग्रेज अपना निर्णय लादने का प्रयास करते थे।

राज्यों की कमजोर वित्तीय स्थिति
संधियों के द्वारा राजपूत राज्यों को मराठों एवं पिण्डारियों की लूटमार एवं बार-बार की आर्थिक माँगों से तो छुटकारा मिल गया, मगर अंग्रेजों ने भी प्रारम्भ से ही खिराज की प्रथा लागू कर आर्थिक शोषण की नीति अपना ली थी। यदि खिराज का भुगतान समय पर नहीं होता तो अंग्रेज कम्पनी उन पर चक्रवृद्धि ब्याज लगाकर खिराज वसूल करती थी। खिराज के अलावा कम्पनी शांति व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर राज्यों से धन वसूल करती थी। युद्ध की परिस्थितियों में भी राजाओं को धन देने के लिए बाध्य किया जाता था। इसके अतिरिक्त राजाओं को अपने खर्च पर कंपनी के लिए सेना रखनी पड़ती थी। यदि राजा उस सैनिक खर्च को वहन करने में असमर्थता दिखाता, तो उसके राज्य का कुछ भाग कम्पनी अपने अधीन कर लेती थी। अंग्रेजों ने जयपुर नरेश को शेखावाटी में राजमाता के समर्थक सामंतों को कुचलने के लिए सैन्य सहायता दी व सैनिक खर्च के रूप में सांभर झील को अपने अधीन (1835 ई.) कर लिया। जोधपुर में शांति व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर 1835 ई. में ‘जोधपुर लीजियन’ का गठन कर उसके खर्च के लिए एक लाख पन्द्रह हजार रुपये वार्षिक जोधपुर राज्य से वसूला जाने लगे। 1841 ई. में ‘ मेवाड़ भील कोर ’ की स्थापना मेवाड़ राज्य के खर्च पर की गई, 1822 ई. में ‘मेरवाड़ा बटालियन’, 1834 ई. में ‘शेखावाटी ब्रिगेड’ की स्थापना कर इसका खर्चा संबंधित राज्यों से वसूला जाने लगा, जबकि इन सैनिक टुकड़ियों पर नियंत्रण एवं निर्देशन अंग्रेजों का था। इसी प्रकार 1825-30 के दौरान भीलों के विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने सैनिक सहायता दी तथा सैनिक खर्च महाराणा के नाम पर ऋण के रूप में लिख दिया और फिर 6 प्रतिशत ब्याज लगाकर वह राशि वसूल की गई।

राज्यों का शिथिल प्रशासन
संधियों के बाद राजपूत राज्यों को बाह्य आक्रमणों का भय न रहा और आन्तरिक विद्रोह के समय भी अंग्रेजी सहायता उपलब्ध रही। प्रशासनिक मामलों में रेजीडेण्ट का दखल अधिकाधिक बढ़ने लगा। धीरे-धीरे राजाओं ने प्रशासन पर अपना नियंत्रण खो दिया, अब वे रेजीडेण्ट की इच्छानुसार शासन संचालन करने वाले रबर की मोहर मात्र रह गए। रेजीडेण्टों ने प्रशासन में अपने समर्थक व्यक्ति नियुक्त कर दिए। बाँसवाड़ा का शासन मुंशी शहामत अलीखाँ (1844-56 ई.) के हाथों में था, अलवर का प्रशासन अहमदबख्श खाँ (1815-26) के नियंत्रण में था तो जयपुर राज्य में 1835 ई. में अंग्रेज समर्थक जेठाराम सर्वे सर्वा बन गया। नरेशों का प्रशासन में महत्त्व नहीं होने से वे प्रशासन के प्रति पूर्णतः उदासीन हो गये। वे अपना समय रंग-रेलियों में, सुरा-सुन्दरी के भोग में गुजारने लगे। कई शासक योरोपीय देशों की यात्राओं में समय व्यतीत करने लगे। उनके प्रासादों में रानियों के स्थान पर वेश्याएँ गौरव पाने लगी। प्रशासन की शिथिलता का दुष्परिणाम जन सामान्य को भुगतना पड़ा। सामन्त और राज्य कर्मचारी जनता को विभिन्न प्रकार से पीड़ित करने लगे, जिसकी परिणति कृषक आन्दोलनों के रूप में हुई।

किसानों एवं जनसाधारण के हितों पर कुठाराघात
अंग्रेजो के साथ संधियाँ करने के पश्चात् राजपूत राज्यों के खर्च में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। अंग्रेजों ने राज्यों से अधिकाधिक खिराज लेने का प्रयास किया तथा अंग्रेज रेजीडेंट व सैनिक बटालियनों के ऊपर भी राजाओं को अधिक खर्च के लिए बाध्य किया गया। इसके साथ ही विकास कार्यों (रेलवे, सिंचाई, सड़क, शिक्षा, चिकित्सा) पर खर्च करने से भी राज्यों के खर्च में वृद्धि हुई, जबकि व्यापार पर अंग्रेजी आधिपत्य स्थापित हो जाने से राज्यों की आय में कमी आई। अतः राज्यों के सारे खर्च की पूर्ति का भार भूमि-कर पर ही आ पड़ा। इसलिए भूमि कर बढ़ाना आवश्यक हो गया। परन्तु अकाल पड़ने या किसी भी कारण से उपज कम होने पर भी किसानों को निर्धारित भूमिकर नकद राशि में देना ही पड़ता था, जिससे किसान साहूकारों के शिकंजे में और अधिक फंसते गए। अब किसानों को भूमि से बेदखल भी किया जाता था, जबकि अंग्रेजों के आगमन से पूर्व किसानों को भूमि से बेदखल नहीं किया जा सकता था। राज्यों ने अपने बढ़ते व्यय की पूर्ति के लिए किसानों पर चराई कर, सिंचाई कर आदि लगा दिए। शासकों ने प्रशासन पर से ध्यान हटाकर यात्राओं एवं मनोरंजन में समय व्यतीत करना शुरू कर दिया और खर्चों की पूर्ति के लिए किसानों पर भूमि कर के साथ अनेक प्रकार की लागतें लगा दी जिससे किसानों की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई। रेलवे के विकास ने लोगों की समृद्धि के स्थान पर उन्हें निर्धन करने में ज्यादा योग दिया। ब्रिटेन निर्मित वस्तुओं से बाजार पट गए, राज्य का कच्चा माल रेलों द्वारा बाहर जाने लगा। यहाँ तक कि अकाल के दौरान भी खाद्यान्नों का निर्यात किया जाने लगा। व्यापार पर अंग्रेजी नियंत्रण स्थापित होने से राज्य के व्यापारी पलायन कर गए। दस्तकार व हस्तशिल्पियों द्वारा निर्मित वस्तुएँ ब्रिटेन की वस्तुओं से महंगी होने के कारण और अब उन्हें शासक वर्ग का संरक्षण न मिलने से उनका जीवन निर्वाह कठिन हो गया, जिससे उन्होंने अपना परम्परागत व्यवसाय छोड़ दिया और श्रमिक बन गए।

इस प्रकार राजपूत राज्यों को अंग्रेजों के साथ (1818 ई.) की गई संधियाँ आकर्षक लगी, मगर इनके परिणाम-स्वरूप शासक शक्तिहीन हो गए, सामन्तों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया तथा किसानों एवं जनसाधारण की दशा दयनीय हो गई। इन संधियों का ही दुष्परिणाम था कि 1857 की क्रांति के दौरान जनसाधारण एवं सामन्त वर्ग ने अंग्रेजो के विरुद्ध विद्रोहियों को सहायता दी व उनका स्वागत किया तथा बाद में भी राज्यों को किसान एवं जनसाधारण के आन्दोलनों का सामना करना पड़ा। राजा और प्रजा के मध्य जो सम्मानजनक सम्बन्ध थे, वे समाप्त होकर शोषक व शोषित में परिणित हो गए।

क्रांति का सूत्रपात एवं विस्तार
1857 की क्रांति प्रारम्भ होने के समय राजपूताना में नसीराबाद, नीमच, देवली, ब्यावर, एरिनपुरा एवं खेरवाड़ा में सैनिक छावनियां थी। इन 6 छावनियों में पाँच हजार सैनिक थे किन्तु सभी सैनिक भारतीय थे। मेरठ में हुए विद्रोह (10 मई,1857) की सूचना राजस्थान के ए.जी.जी. (एजेंट टू गवर्नर जनरल) जॉर्ज पैट्रिक लॉरेन्स को 19 मई, 1857 को प्राप्त हुई। सूचना मिलते ही उसने सभी शासकों को निर्देश दिये कि वे अपने-अपने राज्य में शांति बनाए रखें तथा अपने राज्यों में विद्रोहियों को न घुसने दें। यह भी हिदायत दी कि यदि विद्रोहियों ने प्रवेश कर लिया हो तो उन्हें तत्काल बंदी बना लिया जावे। ए.जी.जी. के सामने उस समय अजमेर की सुरक्षा की समस्या सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि अजमेर शहर में भारी मात्रा में गोला बारूद एवं सरकारी खजाना था। यदि यह सब विद्रोहियों के हाथ में पड़ जाता तो उनकी स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ हो जाती। अजमेर स्थित भारतीय सैनिकों की दो कंपनियां हाल ही में मेरठ से आयी थी और ए.जी.जी. ने सोचा कि सम्भव है यह इन्फेन्ट्री (15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री) मेरठ से विद्रोह की भावना लेकर आयी हो, अतः इस इन्फेन्ट्री को नसीराबाद भेज दिया तथा ब्यावर से दो मेर रेजिमेंट बुला ली गई। तत्पश्चात् उसने डीसा (गुजरात) से एक यूरोपीय सेना भेजने को लिखा। राजस्थान में क्रांति की शुरुआत नसीराबाद से हुई, जिसके निम्न कारण थे - ए.जी.जी. ने 15वीं बंगाल इन्फेन्ट्री जो अजमेर में थी, उसे अविश्वास के कारण नसीराबाद में भेज दिया था। इस अविश्वास के चलते उनमें असंतोष पनपा।

मेरठ में हुए विद्रोह की सूचना के पश्चात् अंग्रेज सैन्य अधिकारियों ने नसीराबाद स्थित सैनिक छावनी की रक्षार्थ फर्स्ट बम्बई लांसर्स के उन सैनिकों से, जो वफादार समझे जाते थे, गश्त लगवाना प्रारम्भ किया। तोपों को तैयार रखा गया। अतः नसीराबाद में जो 15वीं नेटिव इन्फेन्ट्री थी, उसके सैनिकों ने सोचा कि अंग्रेजो ने यह कार्यवाही भी भारतीय सैनिकों को कुचलने के लिए की है तथा गोला-बारूद से भरी तोपें उनके विरुद्ध प्रयोग करने के लिए तैयार की गई है। अतः उनमें विद्रोह की भावना जागृत हुई।

बंगाल और दिल्ली से छद्मधारी साधुओं ने चर्बी वाले कारतूसों के विरुद्ध प्रचार कर विद्रोह का संदेश प्रसारित किया, जिससे अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। वस्तुतः 1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण चर्बी वाले कारतूसों को लेकर था। एनफील्ड राइफलों में प्रयोग में लिए जाने वाले कारतूस की टोपी (केप) को दांतों से हटाना पड़ता था। इन कारतूसों को चिकना करने के लिए गाय तथा सूअर की चर्बी काम में लाई जाती थी। इसका पता चलते ही हिन्दू-मुसलमान सभी सैनिकों में विद्रोह की भावना बलवती हो गई। सैनिकों ने यह समझा कि अंग्रेज उन्हें धर्म भ्रष्ट करना चाहते हैं। यही कारण था कि क्रांति का प्रारम्भ नियत तिथि से पहले हो गया।

राजस्थान में क्रांति का प्रारम्भ 28 मई, 1857 को नसीराबाद छावनी के 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री के सैनिकों द्वारा हुआ। नसीराबाद छावनी के सैनिकों में 28 मई, 1857 को विद्रोह कर छावनी को लूटलिया तथा अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों पर आक्रमण किये। मेजर स्पोटिस वुड एवं न्यूबरी की हत्या के बाद शेष अंग्रेजों ने नसीराबाद छोड़ दिया। छावनी को लूटने के बाद विद्रोही सैनिकों ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। इन सैनिकों ने 18 जून, 1857 को दिल्ली पहुँचकर अंग्रेज पलटन को पराजित किया, जो दिल्ली का घेरा डाले हुए थी। नसीराबाद की क्रांति की सूचना नीमच पहुँचने पर 3 जून, 1857 को नीमच छावनी के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने शस्त्रागार को आग लगा दी तथा अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों पर हमला कर एक अंग्रेज सार्जेन्ट की पत्नी तथा बच्चों का वध कर दिया। नीमच छावनी के सैनिक चित्तौड़, हम्मीरगढ़ तथा बनेड़ा में अंग्रेज बंगलों को लूटते हुए शाहपुरा पहुँचे। यहाँ के सामन्त ने इनको रसद की आपूर्ति की। यहाँ से ये सैनिक निम्बाहेड़ा पहुँचे, जहाँ जनता ने इनका स्वागत किया। इन सैनिकों ने देवली छावनी को घेर लिया, छावनी के सैनिकों ने इनका साथ दिया। छावनी को लूटकर ये क्रांतिकारी टोंक पहुँचे,जहाँ जनता ने नवाब के आदेशों की परवाह न करते हुए इनका स्वागत किया। टोंक से आगरा होते हुये ये सैनिक दिल्ली पहुँच गये। कैप्टन शावर्स ने कोटा, बूँदी तथा मेवाड़ की सेनाओं की सहायता से नीमच पर पुनः अधिकार कर लिया।

1835 ई. में अंग्रेजों ने जोधपुर की सेना के सवारों पर अकुशल होने का आरोप लगाकर जोधपुर लीजियन का गठन किया। इसका केंद्र एरिनपुरा रखा गया। 21 अगस्त, 1857 को जोधपुर लीजियन के सैनिकों ने विद्रोह कर आबू में अंग्रेज सैनिकों पर हमला कर दिया। यहाँ से ये एरिनपुरा आ गये, जहाँ इन्होंने छावनी को लूट लिया तथा जोधपुर लीजियन के शेष सैनिकों को अपनी ओर मिलाकर ”चलो दिल्ली, मारो फिरंगी“ के नारे लगाते हुए दिल्ली की ओर चल पड़े। एरिनपुरा के विद्रोही सैनिकों की भेंट‘खैरवा’ नामक स्थान पर आउवा ठाकुर कुशालसिंह से हुई। कुशालसिंह, जो कि अंग्रेजों एवं जोधपुर महाराजा से नाराज था, इन सैनिकों का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। ठाकुर कुशालसिंह के आह्वान पर आसोप, गूलर, व खेजड़ली के सामन्त अपनी सेना के साथ आउवा पहुँच गये। वहाँ मेवाड़ के सलूम्बर, रूपनगर तथा लसाणी के सामंतों ने अपनी सेनाएँ भेजकर सहायता प्रदान की। ठाकुर कुशालसिंह की सेना ने जोधपुर की राजकीय सेना को 8 सितम्बर, 1857 को बिथोड़ा नामक स्थान पर पराजित किया। जोधपुर की सेना की पराजय की खबर पाकर ए.जी.जी. जार्ज लारेन्स स्वयं एक सेना लेकर आउवा पहुँचा। मगर 18 सितम्बर, 1857 को वह विद्रोहियों से पराजित हुआ। इस संघर्ष के दौरान जोधपुर का पोलिटिकल एजेंट मोक मेसन क्रांतिकारियों के हाथों मारा गया। उसका सिर आउवा के किले के द्वार पर लटका दिया गया। अक्टूबर, 1857 में जोधपुर लीजियन के क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली की ओर कूच कर गये। ब्रिगेडियर होम्स के अधीन एक सेना ने 29 जनवरी, 1858 को आउवा पर आक्रमण कर दिया। विजय की उम्मीद न रहने पर कुशाल सिंह ने किला सलूंबर में शरण ली। उसके बाद ठाकुर पृथ्वी सिंह ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। अंत में, आउवा के किलेदार को रिश्वत देकर अंग्रेजों ने अपनी ओर मिला लिया और किले पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजो ने यहाँ अमानुषिक अत्याचार किए एवं आउवा की महाकाली की मूर्ति (सुगाली माता) को अजमेर ले गये।कोटा में राजकीय सेना तथा आम जनता ने अंग्रेजो के विरुद्ध संघर्ष किया। 14 अक्टूबर, 1857 को कोटा के पोलिटिकल एजेंट मेजर बर्टन ने कोटा महाराव रामसिंह द्वितीय से भेंट कर अंग्रेज विरोधी अधिकारियों को दंडित करने का सुझाव दिया। मगर महाराव ने अधिकारियों के अपने नियंत्रण में न होने की बात कहते हुए बर्टन के सुझाव को मानने से इनकार कर दिया। 15 अक्टूबर, 1857 को कोटा की सेना ने रेजीडेंसी को घेरकर मेजर बर्टन और उसके पुत्रों तथा एक डॉक्टर की हत्या कर दी। मेजर बर्टन का सिर कोटा शहर में घुमाया गया तथा महाराव का महल घेर लिया। विद्रोही सेना का नेतृत्व रिसालदार मेहराबखाँ और लाला जयदयाल कर रहे थे। विद्रोही सेना को कोटा के अधिकांश अधिकारियों व किलेदारों का भी सहयोग व समर्थन प्राप्त हो गया। विद्रोहियों ने राज्य के भण्डारों, राजकीय बंगलों, दुकानों,शस्त्रागारों, कोषागार एवं कोतवाली पर अधिकार कर लिया। कोटा महाराव की स्थिति असहाय हो गयी। वह एक प्रकार से महल का कैदी हो गया। लाला जयदयाल और मेहराबखाँ ने समस्त प्रशासन अपने हाथ में ले लिया और जिला अधिकारियों को राजस्व वसूली के आदेश दिये गये। मेहराबखाँ और जयदयाल ने महाराव को एक परवाने पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया, जिसमें मेजर बर्टन व उसके पुत्रों की हत्या महाराव के आदेश से करने एवं लाला जयदयाल को मुख्य प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त करने की बातों का उल्लेख था। लगभग छः महीने तक विद्रोहियों का प्रशासन पर नियंत्रण रहा। कोटा के जनसामान्य में भी अंग्रेजो के विरुद्ध तीव्र आक्रोश था। उन्होंने विद्रोहियों को अपना समर्थन व सहयोग दिया। जनवरी, 1858 में करौली से सैनिक सहायता मिलने पर महाराव के सैनिकों ने क्रांतिकारियों को गढ़ से खदेड़ दिया। किन्तु कोटा शहर को क्रांतिकारियों से मुक्त कराना अभी शेष था। 22 मार्च, 1858 को जनरल रॉबर्ट के नेतृत्व में एक सेना ने कोटा शहर को विद्रोहियों से मुक्त करवाया।

टोंक का नवाब वजीरुद्दौला अंग्रेज भक्त था। लेकिन टोंक की जनता एवं सेना की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। सेना का एक बड़ा भाग विद्रोहियों से मिल गया तथा इन सैनिकों ने नीमच के सैनिकों के साथ नवाब के किले को घेर लिया। सैनिकों ने नवाब से अपना वेतन वसूल किया और नीमच की सेना के साथ दिल्ली चले गए। नवाब के मामा मीर आलम खाँ ने विद्रोहियों का साथ दिया। 1858 ई. के प्रारम्भ में तात्या टोपे के टोंक पहुँचने पर जनता ने तात्या को सहयोग दिया एवं टोंक का जागीरदार नासिर मुहम्मद खाँ ने भी तांत्या का साथ दिया, जबकि नवाब ने अपने-आपको किले में बंद कर लिया। धौलपुर महाराजा भगवंत सिंह अंग्रेजो का वफादार था। अक्टूबर, 1857 में ग्वालियर तथा इंदौर के क्रांतिकारी सैनिकों ने धौलपुर में प्रवेश किया। धौलपुर राज्य की सेना तथा अधिकारी क्रांतिकारियों से मिल गये। विद्रोहियों ने दो महीने तक राज्य पर अपना अधिकार बनाए रखा। दिसम्बर, 1857 में पटियाला की सेना ने धौलपुर से क्रांतिकारियों को भगा दिया।

1857 में भरतपुर पर पोलिटिकल एजेन्ट का शासन था। अतः भरतपुर की सेना विद्रोहियों को दबाने के लिए भेजी गयी। परन्तु भरतपुर की मेव व गुर्जर जनता ने क्रांतिकारियों का साथ दिया। फलस्वरूप अंग्रेज अधिकारियों ने भरतपुर छोड़ दिया। मगर भरतपुर से विद्रोहियों के गुजरने के कारण वहाँ तनाव का वातावरण बना रहा। करौली के शासक महाराव मदनपाल ने अंग्रेज अधिकारियों का साथ दिया। महाराव ने अपनी सेना अंग्रेजो को सौंप दी तथा कोटा महाराव की सहायता के लिए भी अपनी सेना भेजी। उसने अपनी जनता से विद्रोह में भाग न लेने व विद्रोहियों का साथ न देने की अपील की। अलवर भी क्रांतिकारी भावनाओं से अछूता नहीं था। अलवर के दीवान फैजुल्ला खाँ की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। महाराजा बन्नेसिंह ने अंग्रेजो की सहायतार्थ आगरा सेना भेजी। अलवर राज्य की गुर्जर जनता की सहानुभूति भी क्रांतिकारियों के साथ थी। बीकानेर महाराज सरदारसिंह राजस्थान का अकेला ऐसा शासक था जो सेना लेकर विद्रोहियों को दबाने के लिए राज्य से बाहर भी गया। महाराजा ने पंजाब में विद्रोह को दबाने में अंग्रेजो का सहयोग 8किया। महाराजा ने अंग्रेजों को शरण तथा सुरक्षा भी प्रदान की। अंग्रेज विरोधी भावनाओं पर महाराजा ने कड़ा रूख अपनाकर उन पर नियंत्रण रखा।

मेवाड़ महाराणा स्वरूपसिंह ने अपनी सेना विद्रोहियों को दबाने के लिए अंग्रेजो की सहायतार्थ भेजी। उधर महाराणा के सम्बन्ध न तो अपने सरदारों से अच्छे थे और न कम्पनी सरकार से। महाराणा अपने सामंतों को प्रभावहीन करना चाहता था। इस समय महाराणा और कम्पनी सरकार दोनों को ही एक-दूसरे की आवश्यकता थी। मेरठ विद्रोह की सूचना आने पर मेवाड़ में भी विद्रोही गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए आवश्यक कदम उठाये गये। नीमच के क्रांतिकारी नीमच छावनी में आग लगाने के बाद मार्ग के सैनिक खजानों को लूटते हुए शाहपुरा पहुँचे। शाहपुरा मेवाड़ का ही ठिकाना था। शाहपुरा के शासक ने क्रांतिकारियों को सहयोग प्रदान किया। मेवाड़ की सेना क्रांतिकारियों का पीछा करते हुए शाहपुरा पहुँची तथा स्वयं कप्तान भी शाहपुरा आ गया परन्तु शाहपुरा के शासक ने किले के दरवाजे नहीं खोले। महाराणा ने अनेक अंग्रेजों को शरण तथा सुरक्षा भी प्रदान की। यद्यपि राज्य की जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध रोष विद्यमान था। जनता ने विद्रोह के दौरान रेजिडेंट को गालियाँ निकालकर अपने गुस्से का इजहार किया। मेवाड़ के सलूम्बर व कोठारिया के सामन्तों ने क्रांतिकारियों का सहयोग दिया। इन सामन्तों ने ठाकुर कुशालसिंह व तांत्या टोपे की सहायता की। बाँसवाड़ा का शासक महारावल लक्ष्मण सिंह भी विद्रोह के दौरान अंग्रेजो का सहयोगी बना रहा। 11 दिसम्बर, 1857 को तांत्या टोपे ने बाँसवाड़ा पर अधिकार कर लिया। महारावल राजधानी छोड़कर भाग गया। राज्य के सरदारों ने विद्रोहियों का साथ दिया। डूँगरपुर, जैसलमेर, सिरोही और बूँदी के शासकों ने भी विद्रोह के दौरान अंग्रेजों की सहायता की।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि राजपूताने में नसीराबाद, आउवा, कोटा, एरिनपुरा तथा देवली सैनिक विद्रोह एवं क्रांति के प्रमुख केन्द्र थे। इनमें भी कोटा सर्वाधिक प्रभावित स्थान रहा। कोटा की क्रांति की यह भी उल्लेखनीय बात रही कि इसमें राज्याधिकारी भी क्रांतिकारियों के साथ थे तथा उन्हें जनता का प्रबल समर्थन था। वे चाहते थे कोटा का महाराव अंग्रेजो के विरुद्ध हो जाये तो वे महाराव का नेतृत्व स्वीकार कर लेंगे किन्तु महाराव इस बात पर सहमत नहीं हुए। आउवा का ठाकुर कुशालसिंह को मारवाड़ के साथ मेवाड़ के कुछ सामंतों एवं जनसाधारण का समर्थन एवं सहयोग प्राप्त होना असाधारण बात थी। एरिनपुरा छावनी के पूर्बिया सैनिकों ने भी उसके अंग्रेज विरोधी संघर्ष में साथ दिया था। जोधपुर लीजन के क्रांतिकारी सैनिकों ने आउवा के ठाकुर के नेतृत्व में लेफ्टिनेंट हेथकोट को हराया था। आउवा के विद्रोह को ब्रिटिश सर्वोच्चता के विरुद्ध जन संग्राम के रूप में देखने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिये। जयपुर, भरतपुर, टोंक में जनसाधारण ने अपने शासकों की नीति के विरुद्ध विद्रोहियों का साथ दिया। धौलपुर में क्रांतिकारियों ने राज्य प्रशासन अपने हाथों में ले लिया था।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राजस्थान की जनता एवं जागीरदारों ने विद्रोहियों को सहयोग एवं समर्थन दिया। तात्या टोपे को भी राजस्थान की जनता एवं कई सामंतों ने सहायता प्रदान की। कोटा, टोंक, बांसवाड़ा और भरतपुर राज्यों पर कुछ समय तक विद्रोहियों का अधिकार रहा, जिसे जन समर्थन प्राप्त था। राजस्थान की जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा का खुला प्रदर्शन किया। उदयपुर में कप्तान शावर्स को गालियां दी गई, जबकि जोधपुर में कप्तान सदरलैण्ड के स्मारक पर पत्थर बरसाए। फिर भी विद्रोहियों में किसी सर्वमान्य नेतृत्व का न होना, आपसी समन्वय एवं रणनीति की कमी, शासकों का असहयोग तथा साधनों एवं शस्त्रास्त्रों की कमी के कारण यह क्रांति असफल रही।

क्रांति का समापन
क्रांति का अन्त सर्वप्रथम दिल्ली में हुआ, जहाँ 21 सितम्बर, 1857 को मुगल बादशाह को परिवार सहित बन्दी बना लिया। जून, 1858 तक अंग्रेजो ने अधिकांश स्थानों पर पुनः अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया। किंतु तांत्या टोपे ने संघर्ष जारी रखा। अंग्रेजों ने उसे पकड़ने में सारी शक्ति लगा दी। यह स्मरण रहे कि तांत्या टोपे ने राजस्थान के सामन्तों तथा जन साधारण में उत्तेजना का संचार किया था। परन्तु राजपूताना के सहयोग के अभाव में तांत्या टोपे को स्थान-स्थान पर भटकना पड़ा। अंत में,उसे पकड़ लिया गया और फांसी पर चढ़ा दिया। क्रांति के दमन के पश्चात् कोटा के प्रमुख नेता जयदयाल तथा मेहराब खाँ को एजेन्सी के निकट नीम के पेड़ पर सरे आम फांसी दे दी गई। क्रांति से सम्बन्धित अन्य नेताओं को भी मौत के घाट उतार दिया अथवा जेल में डाल दिया। अंग्रेजों द्वारा गठित जांच आयोग ने मेजर बर्टन तथा उसके पुत्रों की हत्या के सम्बन्ध में महाराव रामसिंह द्वितीय को निरपराध किंतु उत्तरदायी घोषित किया। इसके दण्डस्वरूप उसकी तोपों की सलामी 15 तोपों से घटाकर 11 तोपें कर दी गई। जहाँ तक आउवा ठाकुर का प्रश्न है, उसने नीमच में अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण (8 अगस्त, 1860) कर दिया था। उस पर मुकदमा चलाया गया, किंतु बरी कर दिया गया।

परिणाम
यद्यपि 1857 की क्रांति असफल रही किंतु उसके परिणाम व्यापक सिद्ध हुए। दुर्भाग्य से राजस्थान के नरेशों ने अंग्रेजो का साथ देकर क्रांति के प्रवाह को कमजोर कर दिया। क्रांति के पश्चात् यहाँ के नरेशों को ब्रिटिश सरकार द्वारा पुरस्कृत किया गया। क्योंकि राजपूताना के शासक उनके लिए उपयोगी साबित हुए थे। अब ब्रिटिश नीति में परिवर्तन किया गया। शासकों को संतुष्ट करने हेतु ‘गोद निषेध’ का सिद्धांत समाप्त कर दिया गया। राजकुमारों को अंग्रेजी शिक्षा का प्रबन्धक किया जाने लगा। अब राज्य कम्पनी शासन के स्थान पर ब्रिटिश नियंत्रण में सीधे आ गये। साम्राज्ञी विक्टोरिया की ओर से की गई घोषणा (1858) द्वारा देशी राज्यों को यह आश्वासन दिया गया कि देशी राज्यों का अस्तित्व बना रहेगा। क्रांति के पश्चात् नरेशों एवं उच्चाधिकारियों की जीवन शैली में पाश्चात्य प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता हैं। अंग्रेजी साम्राज्य की सेवा कर उनकी प्रशंसा तथा आदर प्राप्त करने में ही अब राजस्थानी नरेश गौरव का अनुभव करने लगे। जहाँ तक सामन्तों का प्रश्न है, उसने खुले रूप में ब्रिटिश सत्ता का विरोध किया था। अतः क्रांति के पश्चात् अंग्रेजो की नीति सामन्त वर्ग को अस्तित्वहीन बनाने की रही। जागीर क्षेत्र की जनता की दृष्टि में सामन्तों की प्रतिष्ठा कम करने का प्रयास किया गया। सामन्तों को बाध्य किया गया कि से सैनिकों को नगद वेतन देवें। सामन्तों के न्यायिक अधिकारों की सीमित करने का प्रयास किया। उनके विशेषाधिकारों पर कुठाराघात किया गया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सामन्तों का सामान्य जनता पर जो प्रभाव था, ब्रिटिश नीतियों के कारण कम करने का प्रयास किया गया।

क्रांति के पश्चात् आवागमन के साधनों का, सेना के त्वरित गति से पहुँचने के लिए, विकास किया गया। रेलवे का विकास इनमें प्रमुख है। छावनियों को जोड़ने वाली सड़कें बनाई गयीं। आधुनिक शिक्षा का प्रसार कर मध्यम वर्ग को अपने लिए उपयोगी बनाने की कवायद शुरू की गई। अपने आर्थिक हितों के संवर्धन के लिए वैश्य समुदाय को संरक्षण देने की नीति अपनाई गयी। फलतः क्रांति के पश्चात् वैश्य समुदाय राजस्थान में अधिक ताकतवर बन सका। 1857 की क्रांति ने अंग्रेजो की इस धारणा को निराधार सिद्ध कर दिया कि मुगलों एवं मराठों की लूट से त्रस्त राजस्थान की जनता ब्रिटिश शासन की समर्थक है। परन्तु यह भी सच है कि भारत विदेशी जुये को उखाड़ फेंकने के प्रथम बड़े प्रयास में असफल रहा। राजस्थान में फैली क्रांति की ज्वाला ने अर्ध शताब्दी के पश्चात् भी स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान लोगों को संघर्ष करने की प्रेरणा दी, यही क्रांति का महत्व समझना चाहिए।

क्रांति का स्वरूप 1857 की अत्यधिक महत्वपूर्ण घटना को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी लम्बे समय तक सैनिक विद्रोह अथवा विप्लव के नाम से सम्बोधित किया गया। परन्तु जब इस घटना के विभिन्न पहलुओं पर विद्वानों,इतिहासकारों एवं विशेष रूप से घटना के प्रत्यक्षदर्शियों के विचार मंथन सामने आने लगे तो क्रांति के सैनिक विद्रोह के स्वरूप को नहीं नकारने की कोई वजह नहीं बची। फिर भी घटना के स्वरूप के मत-मतान्तरों के कारण कोई सर्वमान्य विचार नहीं बन सका। वैसे भी इतिहास की घटनाओं पर न्यायाधीश की तरह अन्तिम टिप्पणी नहीं की जा सकती है। सामाजिक अध्ययन में ऐसा होना कोई अनुचित भी नहीं है। विभिन्न विचारों के प्रकटीकरण एवं सम्भावनाओं की तलाश से ही ज्ञान की गहराई का अभिज्ञान होता है अन्यथा ज्ञान कुंठित एवं सड़ान्धयुक्त हो जायेगा।

निःसन्देह 1857 का वर्ष राजस्थान सहित भारत के लिए यादगार वर्ष रहा, क्योंकि ऐसी महान घटना भारतीय इतिहास की पहली घटना थी। भावी स्वतन्त्रता संग्राम में देशभक्तों और विशेष रूप से क्रांतिकारियों पर इस घटना का असाधारण प्रभाव पड़ा। यह घटना उनके लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनी। सम्पूर्ण राष्ट्र द्वारा 1857 की 150 वीं जयन्ती वर्ष 2007 में उत्साहपूर्वक मनाना ही घटना के महत्व एवं 11प्रभाव को दर्शाती है। वास्तविक अर्थो में विद्रोह के स्वरूप के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि किसी क्रांति का स्वरूप केवल उस क्रांति के प्रारम्भ करने वालों के लक्ष्यों से निर्धारित नहीं हो सकता, बल्कि इससे निर्धारित होता है कि उस क्रांति ने अपनी क्या छाप छोड़ी।

1857 की महान घटना के स्वरूप को लेकर जो मत सामने आये हैं, उनमें इसे सैनिक विद्रोह (सर जॉन सीले, लारेन्स, पी.ई. राबटर्स आदि के मत), शासकों के विरुद्ध सामन्ती प्रतिक्रिया (मेलिसन का मत), अशक्त वर्गों द्वारा अपनी खोई हुई सत्ता को पुनः प्राप्त करने का अन्तिम प्रयास (ताराचन्द का मत), प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम (विनायक दामोदर सावरकर, पट्टाभि सीतारमैया का मत) आदि प्रमुख मत हैं। सुरेन्द्रनाथ सेन ने अपनी पुस्तक ‘1857’ में लिखा है, ”आन्दोलन एक सैनिक विद्रोह की भाँति आरम्भ हुआ, किंतु केवल सेना तक सीमित नहीं रहा।“ आर.सी. मजूमदार ने भी यह स्वीकार किया है कि कुछ क्षेत्रों में जनसाधारण ने इसका समर्थन किया था। अशोक मेहता ने इसे राष्ट्रीय विद्रोह कहा है। कई विद्वानों ने यह मत प्रकट किया है कि इस संग्राम में हिन्दू और मुसलमानों ने कन्धे से कन्धा मिलाकर समान रूप से भाग लिया और इन्हें जनसाधारण की सहानुभूति प्राप्त थी। वी.डी. सावरकर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा से अभिहित किया है। वर्तमान में इस मत की ही सर्वाधिक स्वीकार्यता है।यहाँ हमारे लिए यह उचित होगा कि हम राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में इस घटना की समीक्षा करें।मारवाड़ के ख्यात लेखक बांकीदास, बूँदी के साहित्यकार सूर्यमल्ल मीसण ने अपनी कृतियों अथवा पत्रों के माध्यम से गुलामी करने वाले राजपूत शासकों को धिक्कारा है। सूर्यमल्ल मीसण ने पीपल्या के ठाकुर फूल सिंह को लिखे एक पत्र में राजपूत शासकों को गुलामी करने की मनोवृत्ति की कटु आलोचना की थी। आउवा व अन्य कुछ ठाकुरों ने जिनमें सलूम्बर भी शामिल है, अपने क्षेत्रों में चारणों द्वारा ऐसे गीत रचवाये, जिनमें उनकी छवि अंग्रेज विरोधी मालूम होती है।

राजस्थान में क्रांति की शुरुआत 1857 से हुई, जब यहाँ के ब्रिटिश अधिकारी भागकर ब्यावर की ओर गये, तब रास्ते में ग्रामीण उन पर आक्रमण करने के लिए खड़े थे। कप्तान प्रिचार्ड ने स्वीकार किया है कि यदि बम्बई लॉन्सर के सैनिक उनके साथ न होते तो उनका बचे रहना आसान नहीं था। उसके अनुसार मार्ग में किसी भी भारतीय ने उनके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित नहीं की। उसने आगे लिखा है कि इस घटना के 24 घण्टे पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। इन अंग्रेजो के घरेलू नौकरों में उनके प्रति उपेक्षा का भाव देखा गया। मेवाड़ का पोलीटिकल एजेन्ट कप्तान शावर्स जब उदयपुर शहर के मार्ग से गुजरता हुआ राजमहल की ओर जा रहा था, तब रास्ते में जनता की भीड़ ने उसे धिक्कारा। इसके विपरीत, क्रांतिकारी जिस मार्ग से भी गुजरे, लोगों ने उनका हार्दिक स्वागत किया। मध्य भारत का लोकप्रिय नेता तात्या टोपे जहाँ भी गया, जनता ने उसका अभिनन्दन किया तथा उसे रसद आदि प्रदान की। जोधपुर के सरकारी रिकॉर्ड में यह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि जब ए.जी.जी. जॉर्ज लॉरेन्स ने आउवा पर चढ़ाई की तब सर्वप्रथम गांव वालों की तरफ से आक्रमण हुआ था। मारवाड़ में ऐसी परम्परा थी कि जब किसी बड़े अधिकारी की मृत्यु होती थी तब राजकीय शोक मनाते हुए किले में नौबत बजाना बन्द हो जाता था। किंतु कप्तान मॉक मेसन की मृत्यु के बाद ऐसा नहीं किया गया, जबकि किलेदार अनाड़सिंह की मृत्यु होने पर किले में नौबत बजाना बन्द रख गया। आउवा ठाकुर कुशाल सिंह द्वारा ब्रिटिश सेनाओं की टक्कर लेने से घटना को समसामयिक साहित्य में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है।

राजस्थान के संदर्भ में 1857 की क्रांति का अध्ययन और विश्लेषण करने से यह विदित होता है कि राजस्थान में यह महान् घटना किसी संयोग का परिणाम नहीं थी, अपितु यह तो ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सर्वव्यापी रोष का परिणाम थी। यही कारण है कि आउवा की जनता सैनिकों के जाने के बाद भी लड़ती रही। नसीराबाद, नीमच और एरिनपुरा की घटनाएं निःसन्देह भारतव्यापी क्रांति का अंग थी, लेकिन कोटा और आउवा की घटनाएँ स्थानीय परिस्थितियों का परिणाम थी और उनमें ब्रिटिश विरोधी भावना निर्विवाद रूप से विद्यमान थी। टोंक और कोटा की जनता ने तो विद्रोहियों से मिलकर संघर्ष में भाग लिया था।

जन आक्रोश के कारण ही भरतपुर के शासक ने मोरीसन को राज्य छोड़ने का परामर्श दिया था। कोटा के महाराव ने भी मेजर बर्टन को कोटा नहीं आने के लिए कहा था। जन आक्रोश के कारण ही मजबूरीवश टोंक के नवाब ने अंग्रेजो को अपने राज्य की सीमा से नहीं गुजरने के लिए कहा था। अंत में यह कहा जा सकता है कि राजस्थान की जनता अंग्रेजों को फिरंगी कहती थे और अपने धर्म को बनाये रखने के लिए उनसे मुक्ति चाहती थी। कुछ स्थानों पर स्थानीय जनता ने भी इस संघर्ष में भाग लिया था, तो अन्य स्थानों पर जनता का नैतिक समर्थन प्राप्त था। यह कहने में हमें संकोच नहीं करना चाहिए कि 1857 का यह संघर्ष विदेशी शासन से मुक्त होने का प्रथम प्रयास था। इस क्रांति को यदि राजस्थान का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा जाये तो सम्भवतः अनुचित नहीं होगा।

राजस्थान में जन जागरण एवं स्वतन्त्रता संग्राम

राजनीतिक जागरण एवं स्वतन्त्रता आन्दोलन में विभिन्न तत्वों का योगदान
1857 की क्रांति की भूमिका यद्यपि राजस्थान में कतिपय स्थानों पर अत्यधिक प्रभावी रही थी किंतु अधिकांश राज्य इससे अछूते रहे। 1857 की क्रांति की असफलता के कारण देश के अनुरूप राजस्थान में भी अंग्रेजों का वर्चस्व स्थापित हो गया (राजस्थान के अधिकांश शासक अंग्रेजो के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति प्रदर्शन की दौड़ में शामिल हो गये। ऐसा करके वे स्वयं को गौरवान्वित समझने लगे। ऐसी परिस्थितियों में राज्य की प्रजा में भी अंग्रेजों की अजेयता की भावना का घर करना स्वाभाविक नहीं था। राजकीय कार्यों एवं जन कल्याण की भावना के प्रति शासकों की उदासीनता ने प्रजा के कष्टों को असहनीय बना दिया। सामन्तों की शोषण प्रवृत्ति यथावत बनी। परन्तु सदैव एक स्थिति बनी नहीं रह सकती है। स्थिति में बदलाव के संकेत बाहर से नहीं, अन्दर से ही आने थे। राज्य की जनता ही बदलाव की अपवाहक बनी। देरी से ही सही,राजस्थान में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ। राष्ट्र के सोच में परिवर्तन के साथ देशी रियासतों में भी राष्ट्रवादी भावनाओं ने जन्म लिया। जन आन्दोलनों ने भी स्थानीय स्तर पर अपनी जगह बनाकर माहौल को उत्तेजित कर दिया। राज्य की दमनात्मक नीतियों एवं ब्रिटिश सरकार के कठोर दृष्टिकोण के बावजूद जनता ने अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ी। शासन में सुधार एवं भागीदारी के लिए आवाज उठाई। आजादी की अन्तिम लड़ाई के दौरान राष्ट्र के बड़े नेताओं को इस बात का अहसास हो गया था कि अब देशी रियासतों को पराधीन बनाकर अधिक समय तक नहीं रखा जा सकता। आखिर, राष्ट्र की स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् राजस्थान की देशी रियासतों का भी भारतीय संघ में विलीनीकरण हो गया।

यह कहने आवश्यकता नहीं है कि राजस्थान में स्वतन्त्रता से पूर्व जनजागरण लाने का कार्य जिन नेताओं ने किया, उनमें देशभक्ति का जलवा था। वे समकालीन समाज एवं राजनीति को लेकर चिन्तित एवं व्यथित थे। वे क्रांतिकारी विचारों से युक्त थे। उनके नजरिये में स्वतन्त्रता आन्दोलन से तात्पर्य केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने से नहीं था। वे सामाजिक समस्याओं एवं कुरीतियों के निराकरण, स्त्रियों की दुर्दशा सुधारने तथा कृषकों का शोषण, निरक्षरता, बेगारी आदि के उन्मूलन के लिए भी कृत संकल्प थे। वे चरखा, खादी, ग्राम-स्वावलंबन, सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के पक्ष में थे। देशी रियासतों में 1934 और विशेष रूप से 1938 के बाद चला संघर्ष भी इसी स्वतंत्रता संघर्ष का हिस्सा था। राजनीतिक जागरण एवं स्वतन्त्रता आन्दोलन में जिन मुख्य तत्वों का योगदान रहा, उनका संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है -

जनजातीय एवं किसान आन्दोलन
राजस्थान में राजनीतिक चेतना का श्रीगणेश कर यहाँ की जनजातियों एवं किसानों ने इतिहास रच दिया। राजस्थान के आदिवासी क्षेत्रों में भील, मीणा, गरासिया आदि जनजातियाँ प्राचीन काल से रहती आयी हैं। अपने परंपरागत अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में इन्होंने अपना विरोध प्रकट किया, चाहे वह फिर अंग्रेजों के विरुद्ध हो या फिर शासक के विरुद्ध । यहाँ के किसानों ने भी अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों, शोषण एवं आर्थिक मार के विरोध में अपना विरोध जताकर राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती दे डाली। अंग्रेजों का आतंक, रियासतों की अव्यवस्था, जागीरदारों का शोषण, कृषकों के परम्परागत अधिकारों का उल्लंघन आदि कारणों से कृषकों में असंतोष पनपा। जागीरी क्षेत्र में कृषकों का असंतोष जागीरदारों के जुल्मों के विरुद्ध था। जागीरदारों को कृषकों के हितों की कोई चिन्ता नहीं थी। जागीरदार अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र रहने के कारण उसे शासकों अथवा अंग्रेज सरकार से संरक्षण प्राप्त था।

राजस्थान में स्वतन्त्रता आन्दोलन एवं आदिवासियों में जनजागृति का शंखनाद फूंकने का योगदान देने वालों में मोतीलाल तेजावत (1888-1963) का विशिष्ट स्थान है। तेजावत का जन्म उदयपुर जिले में 14एक सामान्य ओसवाल परिवार में हुआ था। तेजावत अपने बलबूते पर एक बड़ा आन्दोलन ”एकी आन्दोलन“ (1921-22) खड़ा करने में सफल रहा। उसने जिस प्रकार आदिवासियों का विश्वास प्राप्त किया, वह एकदम अकल्पनीय लगता है। तेजावत से पहले गोविन्द गुरू (1858-1931) ने बागड़ प्रदेश में आदिवासी भीलों के उद्धार के लिए ‘भगत आन्देालन’ (1921-1929) चलाया था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु ने 1883 में‘सम्प सभा’ की स्थापना कर इसके माध्यम से भीलों में सामाजिक एवं राजनीतिक जागृति पैदा कर उन्हें संगठित किया।

गोविन्द गुरु ने मेवाड़, डूँगरपुर, ईडर, मालवा आदि क्षेत्रों में बसे भीलों एवं गरासियों को ‘सम्प सभा’ के माध्यम से संगठित किया। उन्होंने एक ओर तो इन आदिवासी जातियों में व्याप्त सामाजिक बुराइयों और कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न किया तो दूसरी ओर, उनको अपने मूलभूत अधिकारों का अहसास कराया। गोविन्द गुरु ने सम्प सभा का प्रथम अधिवेशन 1903 में गुजरात में स्थित मानगढ़ की पहाड़ी पर किया। इस अधिवेशन में गोविंद गुरु के प्रवचनों से प्रभावित होकर हजारों भील-गरासियों ने शराब छोड़ने, बच्चों को पढ़ाने और आपसी झगड़ों को अपनी पंचायत में ही सुलझाने की शपथ ली। गोविन्द गुरु ने उन्हें बैठ-बेगार और गैर वाजिब लागतें नहीं देने के लिए आह्वान किया। इस अधिवेशन के पश्चात् हर वर्ष आश्विन शुक्ला पूर्णिमा को मानगढ़ की पहाड़ी पर सम्प सभा का अधिवेशन होने लगा। भीलों में बढ़ती जागृति से पड़ोसी राज्य सावधान हो गये। अतः उन्होंने ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना की कि भीलों के इस संगठन को सख्ती से दबा दिया जावे। हर वर्ष की भाँति जब 1908 में मानगढ़ की पहाड़ी पर सम्प सभा का विराट् अधिवेशन हो रहा था, तब ब्रिटिश सेना ने मानगढ़ की पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया। उसने भीड़ पर गोलियों की बौछार कर दी। फलस्वरूप 1500 आदिवासी घटना स्थल पर ही शहीद हो गये। गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। परन्तु भीलों में प्रतिक्रिया होने के डर से उनकी यह सजा 20 वर्षों के कारावास में तब्दील कर दी। अंत में वे 10 वर्ष में ही रिहा हो गये। गोविन्द गुरु अहिंसा के पक्षधर थे व उनकी श्वेत ध्वजा शांति की प्रतीक थी। आज भी भील समाज में गोविन्द गुरु का पूजनीय स्थान है।

राजस्थान के आदिवासियों में गोविन्द गुरु के पश्चात् सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है, मोतीलाल तेजावत का। आदिवासियों पर ढाये जाने वाले जुल्मों से उद्वेलित होकर उन्होंने ठिकाने की नौकरी छोड़ दी। उन्होंने 1921 में भीलों को जागीरदारों द्वारा ली जाने वाली बैठ-बेगार और लाग बागों के प्रश्न को लेकर संगठित करना प्रारम्भ किया। शनैः शनैः यह आन्दोलन सिरोही, ईडर,पालनपुर, विजयनगर आदि राज्यों में भी विस्तार पाने लगा। तेजावत ने अपनी मांगों को लेकर भीलों का एक विराट् सम्मेलन विजयनगर राज्य के नीमड़ा गाँव में आयोजित किया। मेवाड़ एवं अन्य पड़ोसी राज्यों की सरकारें भीलों के संगठित होने से चिंतित होने लगी। अतः इन राज्यों की सेनाएँ भीलों के आंदोलन को दबाने के लिए नीमड़ा पहुँच गयी। सेना द्वारा सम्मेलन स्थल को घेर लेने और गोलियां चलने के कारण 1200 भील मारे गये और कई घायल हो गये। मोतीलाल तेजावत पैर में गोली लगने से घायल हो गये। लोग उन्हें सुरक्षित स्थान ले गये, जहाँ उनका इलाज किया गया। मोतीलाल तेजावत भूमिगत हो गये, इस कारण मेवाड़,सिरोही आदि राज्यों की पुलिस उनको पकड़ने में नाकामयाब रहीं। अंत में, 8 वर्ष पश्चात 1929 में गांधी जी की सलाह पर तेजावत ने अपने आपको ईडर पुलिस के सुपुर्द कर दिया। 1936 में उन्हें रिहा कर दिया गया। इसके पश्चात् भी नजरबन्द एवं जेल का लुका-छिपी खेल चलता रहा किन्तु उन्होंने सामाजिक सरोकारों से कभी मुंह नहीं मोड़ा।

भील-गरासियों के हितों के लिए देश की आजादी में अन्य जिन जन नेताओं का योगदान रहा, उनमें प्रमुख थे - माणिक्यलाल वर्मा, भोगीलाल पण्ड्या, मामा बालेश्वर दयाल, बलवंत सिंह मेहता, हरिदेव जोशी, गौरीशंकर उपाध्याय आदि। इन्होंने भील क्षेत्रों में शिक्षण संस्थाएँ, प्रौढ़ शालाएँ, हॉस्टल आदि स्थापित किये। साथ ही, उन आदिवासियों को कुप्रवृत्तियों को छौड़ने के लिए प्रेरित किया।

राजपूताना में कई राज्यों में मीणा जनजाति शताब्दियों से निवास करती आ रही है। कुछ स्थानों पर मीणा शासकों का प्राचीन काल में आधिपत्य रहा था। मीणाओं का मुख्य क्षेत्र ढूँढाड़ था। समय पाकर मीणाओं के दो मुख्य भेद हो गये। जो मीणा खेती करते थे, वे खेतिहर मीणा तथा जो चौकीदारी करते थे, वे चौकीदार मीणा कहलाने लगे। कई बार चौकीदार मीणाओं को चोरी और डकैती के लिए जिम्मेदार ठहराया जाने लगा और किसी चोरी का माल बरामद न होने की स्थिति में उस माल की कीमत इनसे वसूली जाने लगी। इन परिस्थितियों में जयपुर राज्य ने भारत, सरकार द्वारा पारित ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ (1924) का लाभ उठाते हुए मीणाओं की जीविका को जरायम पेशा मानते हुए हर मीणा परिवार के बालिग स्त्री-पुरुष ही नहीं, 12 वर्ष से बड़े बच्चों का भी निकटस्थ पुलिस थाने में नाम दर्ज करवाना और दैनिक हाजरी देना आवश्यक कर लिया। इस प्रकार शताब्दियों से स्वच्छन्द विचरण करने वाली बहादुर मीणा जाति साधारण मानवाधिकारों से वंचित कर दी गई। सरकार की इस कार्यवाही का विरोध होने लगा। मीणा समाज में असंतोष का स्वर उस समय और तेज हो गया जब जयपुर पुलिस ने जरायम पेशा कानून (1930) के अंतर्गत कठोरता से हाजिरी का पालन करना प्रारम्भ कर दिया। 1933 में मीणा क्षत्रिय महासभा की स्थापना हुई। इस सभा ने जयपुर सरकार से जरायम पेशा कानून रद्द करने की मांग की परन्तु राज्य ने इसके विपरीत कठोरता से मीणाओं को दबाना प्रारम्भ किया। अप्रैल, 1944 में जैन मुनि मगन सागर जी की अध्यक्षता में नीमकाथाना में मीणों का एक वृहद सम्मेलन हुआ, जिसमें जयपुर राज्य मीणा सुधार समिति’ का गठन हुआ। इस समिति के अध्यक्ष बंशीधर शर्मा, मंत्री राजेन्द्र कुमार एवं संयुक्त मंत्री लक्ष्मीनारायण झरवाल बनाये गये। 1945 में जरायम पेशा कानून को रद्द करने के लिए प्रांतीय स्तर पर आंदोलन किया गया। अखिल भारतीय देशी राज्य परिषद ने भी मीणाओं की मांग का समर्थन किया। इसके परिणामस्वरूप थानों में अनिवार्य उपस्थिति की बाध्यताओं को समाप्त किया गया। परन्तु अभी जरायम पेशा अधिनियम यथावत था, जो आजादी के बाद 1952 में ही समाप्त हो सका।

राजस्थान के देशी रियासतों के इतिहास में बिजौलिया किसान आन्दोलन (1897-1941) का विशिष्ट स्थान है। दीर्घ काल तक चलने वाले इस आन्दोलन में किसान वर्ग ठिकाने और मेवाड़ राज्य की 16सम्मिलित शक्ति से जूझता रहा। इस आन्दोलन में केवल पुरुषों ने ही भाग नहीं लिया, बल्कि स्त्रियों व बालकों ने भी सक्रियता दिखायी। यह आन्दोलन पूर्णतया स्वावलम्बी एवं अहिंसात्मक था। यह आन्दोलन प्रारम्भ में विजयसिंह पथिक के नेतृत्व में चला। इस आन्दोलन में कृषक वर्ग ने अभूतपूर्व साहस, धैर्य और बलिदान का परिचय दिया, चाहे यह अपने मंतव्य में सफल नहीं हो सका। यह आन्दोलन सामंती व्यवस्था के विरुद्ध भयंकर प्रहार था। यह आन्दोलन मेवाड़ राज्य की सीमा तक ही सीमित नहीं रहा। इस आन्दोलन ने कालान्तर में माणिक्यलाल वर्मा जैसे तेजस्वी नेता को जन्म दिया, जो बाद में मेवाड़ राज्य में उत्तरदायी सरकार की स्थापना हेतु अनेक आन्दोलनों का प्रणेता बना। हमें यह जान लेना चाहिए कि राजस्थान में कृषक आन्दोलन स्वस्फूर्त था और इसका नेतृत्व पूर्णतः गैर पेशेवर नेताओं एवं अत्यन्त साधारण किसान वर्ग ने किया था, चाहे उनका आधार जातिगत रहा। बिजौलिया आन्दोलन में धाकड़ जाति की महती भूमिका रही। सीकर और शेखावटी आन्दोलनों में जाट जाति का वर्चस्व रहा। मेवाड़ और सिरोही राज्यों के किसान आन्दोलनों के पीछे भील और गरासिया जातियों की शक्ति रही। इसी प्रकार अलवर और भरतपुर राज्यों में मेवों की मुख्य भूमिका रही। इस प्रकार इन आंदोलनों को सुनियोजित रूप से संचालित करने का श्रेय जाति पंचायतों एवं जाति संगठनों को दिया जा सकता है।

राजस्थान के किसान आंदोलन में बरड़ (बूँदी) किसान आन्दोलन (1921-43), नीमराणा (अलवर) किसान आंदोलन (1923-25), बेगू (चित्तौड़गढ़), किसान आंदोलन (1922-25), शेखावाटी किसान आंदोलन (1924-47), मारवाड़ किसान आंदोलन (1924-47) प्रमुख है। यह स्मरणीय है कि इन किसान आन्दोलनों में स्त्रियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। राजस्थान के ये किसान आन्दोलन सामन्त विरोधी स्वरूप लिए हुए थे और इन्होंने कालान्तर में जागीरदारी उन्मूलन की भूमिका तैयार की। राजस्थान के किसान आंदोलन में जबरदस्त उत्साह देखा जा सकता है। यह आन्दोलन सामान्यतः अहिंसात्मक रहे। इन आन्दोलनों ने प्रजामण्डल के जमीन तैयार कर दी थी।


राजस्थान में जन जागरण एवं स्वतन्त्रता संग्राम

दलित आन्दोलन
स्वतन्त्रतापूर्व राजस्थान में दलितों में भी क्रियाशील जागरण दिखाई देता है। दलितों की स्वतन्त्रता आन्दोलन में भूमिका उनके सामाजिक एवं राजनीतिक जागृति का प्रतीक थीं। यह ध्यातव्य है कि दलितों ने राजस्थान में प्रजामण्डल आन्दोलनों में सक्रिय भाग लेकर राजस्थान में आजादी के आन्दोलन को विस्तृत सामाजिक आधार प्रदान किया। 1920 और 1934 के समय दलितों ने अजमेर-मेरवाड़ा के राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया। राजपूताना के दलित जातियों में सामाजिक और राजनीतिक जागृति के चिह्न दिखाई देते हैं। इसका विशेष कारण यह था कि कोटा, जयपुर, धौलपुर और भरतपुर की रियासतों में दलितों का बाहुल्य था। अतः इन राज्यों में दलितों में, सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलनों में सक्रिय भूमिका प्रदर्शित की। इसी कारण इन राज्यों ने इनकी मांगों की ओर ध्यान दिया। 1945-46 में उणियारा में बैरवा जाति ने नागरिक असमानता विरोधी आन्दोलन चलाकर अपनी सक्रियता का परिचय दिया।

आर्य समाज की भूमिका
राजस्थान में राजनीतिक चेतना जागृत करने एवं शिक्षा प्रसार में स्वामी दयानंद सरस्वती एवं आर्यसमाज ने महत्वपूर्ण कार्य किया। स्वामी दयानंद राजस्थान में सर्वप्रथम 1865 ई. में करौली के राजकीय अतिथि के रूप में आए। उन्होंने किशनगढ़,जयपुर,, पुष्कर एवं अजमेर में अपने उपदेश दिए। स्वामी जी का राजस्थान में दूसरी बार आगमन 1881 ई. में भरतपुर में हुआ। वहाँ से स्वामीजी जयपुर, अजमेर, ब्यावर, मसूदा एवं बनेड़ा होते हुए चित्तौड़ पहुँचे, जहाँ कविराज श्यामलदास ने उनका स्वागत किया। महाराणा सज्जन सिंह (1874-1884 ई.) के अनुरोध पर स्वामीजी उदयपुर पहुँचे, वहाँ महाराणा ने उनका आदर-सत्कार किया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने उदयपुर में आर्य धर्म का प्रचार किया। उनके उपदेशों को सुनने के लिए मेवाड़ के अनेक सरदार नित्य उनकी सभा में आया करते थे।

अगस्त, 1882 को स्वामी दयानन्द दुबारा उदयपुर पहुँचे। उदयपुर में स्वामी जी ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के द्वितीय संस्करण की भूमिका लिखी। यहीं फरवरी, 1883 ई. में स्वामी जी के सानिध्य में ‘परोपकारिणी सभा’ की स्थापना हुई। कालान्तर में मेवाड़ में विष्णु लाल पंड्या ने आर्य समाज की स्थापना की। 1883 ई. में ही स्वामीजी जोधपुर गए। जोधपुर महाराजा जसवन्तसिंह, सर प्रतापसिंह तथा रावराजा तेजसिंह पर स्वामीजी के उपदेशों का काफी प्रभाव पड़ा। अपने व्याख्यानों में स्वामीजी क्षत्रिय नरेशों के चरित्र संशोधन और गौरक्षा पर विशेष बल दिया करते थे। भरी सभा में उन्होने वेश्यागमन के दोष बतलाये और महाराजा जसवन्तसिंह की ‘नन्हीजान’ के प्रति आसक्ति पर उन्हें भी फटकार लगाई। कहा जाता है कि नन्हींजान ने स्वामीजी को विष दिलवा दिया, जिससे उनकी तबीयत बिगड़ गई। स्वामीजी को अजमेर ले जाया गया। काफी चिकित्सा के उपरान्त भी वह स्वस्थ नहीं हुए और अजमेर में ही 1883 ई. में इनका देहान्त हो गया।

दयानन्द सरस्वती ने स्वधर्म, स्वराज्य, स्वदेशी और स्वभाषा पर जोर दिया। उन्होंने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को उदयपुर में हिन्दी भाषा में लिखा। अजमेर में ‘आर्य समाज’ की स्थापना की गई। स्वामी दयानंद सरस्वती एवं आर्य समाज ने राजस्थान में स्वतंत्र विचारों के लिए पृष्ठभूमि तैयार की। आर्य समाज ने हिन्दी भाषा, वैदिक धर्म, स्वदेशी एवं स्वदेशाभिमान की भावना पैदा की। राजस्थान में राजनीतिक जागृति पैदा करने एवं शिक्षा प्रसार के लिए भी आर्य समाज ने सराहनीय कार्य किया। आर्य समाज की शिक्षण संस्थानों में हिन्दी, अंग्रेजी भाषा के साथ ही वैदिक धर्म एवं संस्कृत की शिक्षा भी दी जाने लगी। आर्य समाज ने सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया। अजमेर में हरविलास शारदा व चान्दकरण शारदा ने सामाजिक कुरीतियों के विरोध में आवाज उठायी। आर्य समाज ने खादी प्रचार, हरिजन उद्धार, शिक्षा के प्रचार-प्रसार को अपना मिशन बनाया। भरतपुर में जनजागृति पैदा करने वाले मास्टर आदित्येन्द्र व जुगल किशोर चतुर्वेदी आर्य समाज के ही कार्यकर्ता थे।

समाचार पत्रों का योगदान
अत्याचार और शोषण की ज्वाला अज्ञानता में ही पनपती है। अज्ञानता को मिटाने और जन चेतना के प्रसार में प्रेस की भूमिका निर्णायक होती है। राजस्थान में समाचार पत्रों ने जन जागरण में जो योगदान दिया, उसका प्रमाण बिजौलिया किसान आन्दोलन में देखने को मिला। जब बिजोलिया के अत्याचारों का वर्णन ‘प्रताप’ नामक समाचार पत्र में छपा तो पूरे देश में इस पर चर्चा होने लगी। राजस्थान के राज्यों के आंतरिक मामलों का ज्ञान समाचार पत्रों के माध्यम से जनता में पहुंचने लगा। विजय सिंह पथिक, रामनारायण चौधरी, जयनारायण व्यास आदि नेताओं ने राज्य की समस्याओं के विषय में समाचार पत्रों के माध्यम से चर्चा प्रारम्भ की। ‘राजपूताना गजट’ (1885) और ‘राजस्थान समाचार’ (1889) बहुत थोड़े समय के पश्चात् ही बन्द हो गये। 1920 में पथिक ने ‘राजस्थान केसरी’ का प्रकाशन पहले वर्धा से और फिर अजमेर से प्रारम्भ किया। 1922 में राजस्थान सेवा संघ ने नवीन राजस्थान’ प्रारम्भ किया जिसमें आदिवासी एवं किसान आन्दोलनों का समर्थन किया गया। 1923 में वह बन्द हो गया परन्तु ‘तरूण राजस्थान’ के नाम से इसका प्रकाशन पुनः प्रारम्भ किया गया। इसमें भी कृषक आन्दोलनों एवं अत्याचारों पर व्यापक चर्चा हुई। इस पत्र के सम्पादन में शोभालाल गुप्त, रामनारायण चौधरी, जयनारायण व्यास आदि नेताओं ने सराहनीय योगदान दिया। जोधपुर, सिरोही तथा अन्य राज्यों के निरंकुश शासकों के विरुद्ध इस पत्र में आवाज उठाई गई। 1923 में ऋषिदत्त मेहता ने ब्यावर से राजस्थान नाम का साप्ताहिक अखबार निकालना प्रारम्भ किया। 1930 के बाद समाचार पत्रों की संख्या बढ़ी। आगे के वर्षों में ‘नवज्योति’ ‘नवजीवन’, ‘जयपुर समाचार,’ ‘त्याग भूमि’, ‘लोकवाणी’ आदि पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ होने लगा। ‘त्याग भूमि’ (1927) में गांधीवादी विचारधारा का प्रतिपादन होता था और इसका सम्पादन हरिभाऊ उपाध्यक्ष ने किया। इसमें गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम पर अधिक बल दिया गया। देशभक्ति, समाज सुधार, स्त्रियों के उत्थान सम्बन्धी लेख इसमें सामान्यतः होते थे।

समाचार पत्रों ने राष्ट्रीय स्तर पर राजस्थान की समस्याओं का खुलासा किया। विभिन्न मुद्दों पर राष्ट्रीय सहमति बनाने में योगदान दिया। रियासत से जुड़े आंदोलन पर प्रकाश डालकर उन्हें बहस का हिस्सा बनाया। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से शोषण एवं अत्याचार का पर्दाफाश हुआ, उन पर चर्चा होने लगी। रचनात्मक कार्यक्रमों को अपनाने की प्रेस की अपील का अच्छा असर हुआ। शिक्षित वर्ग चाहे कम था, परन्तु लोग अखबार को दूसरों से सुनने में बड़ी रुचि लेने लगे। पढ़े-लिखे लोगों में भी पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने में रुचि तेजी से बढ़ी।

शासकों की भूमिका
मेवाड़ के महाराणा फतहसिंह, अलवर के महाराजा जयसिंह और भरतपुर के महाराजा कृष्ण सिंह बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में राजस्थान के ऐसे शासक थे, जो अपनी प्रगतिशील और राष्ट्रीय विचारधारा और अंग्रेजों को राज्य के अंदरूनी मामलों में दखल देने से रोकने के कारण ब्रिटिश सरकार के कोपभाजन 19बने। अंग्रेजी शिकंजे से परेशान एवं अपदस्थ मेवाड़ के महाराणा के बारे में ‘तरुण राजस्थान’ ने अपने 10 जनवरी, 1924 के अंक में लिखा, ”यदि महाराणा गोरी सरकार के अन्ध भक्त होते तो शायद मेवाड़ के प्राचीन गौरव का नाश करने वाला यह अत्याचार पूर्ण हस्तक्षेप न हुआ होता।“ यह भी उल्लेखनीय है कि अलवर के शासक जयसिंह ने 1903 के आस-पास बाल-विवाह, अनमेल विवाह और मृत्यु भोज पर रोक लगा दी। रियासत की राजभाषा हिन्दी घोषित कर दी। राज्य में पंचायतों का जाल बिछा दिया। महाराजा ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एवं सनातन धर्म कॉलेज, लाहौर को उदारतापूर्वक वित्तीय सहायता दी। ऐसे प्रगतिशील शासक से ब्रिटिश सरकार का असन्तुष्ट होना स्वाभाविक था। अन्त में, अलवर महाराजा को निर्वासित होना पड़ा। इस प्रकार, राजस्थान के केवल कतिपय शासकों ने ही यहाँ के जन आन्दोलनों के प्रति सहानुभूति रखने एवं प्रगतिशील विचारों के प्रकटीकरण की हिम्मत जुटाई, परन्तु अपवाद स्वयं बेमिसाल होते हैं।

व्यापारी वर्ग की भूमिका
सत्ता के निरंकुश प्रयोग के विरुद्ध आवाज उठाने में व्यापारी वर्ग भी पीछे नहीं रहा। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् इस वर्ग की धारणा एवं विचारधारा सत्ता वर्ग के विरुद्ध होने लगी। कलकत्ता में एक प्रभावशाली मारवाड़ी मण्डल विकसित हो रहा था,जिसने राष्ट्रीय विचारधारा को प्रोत्साहित करने का निश्चय किया। रियासतों में व्यापारी वर्ग को ठिकानेदारों की अहमन्यता खटकती थी। वे राजनीतिक जागरूकता लाने के लिए अपने धन का प्रयोग करना चाहते थे, जिससे सामन्ती अनुत्तरदायी व्यवहार नियंत्रित हो सके। रियासतों में राजनीतिक चेतना जागृत करने वालों में कतिपय व्यापारी वर्ग की भूमिका सराहनीय रही, उदाहरणार्थ- बीकानेर में खूब राम सर्राफ तथा सत्यनारायण सर्राफ, जोधपुर में आनंद राज सुराणा, चांदमल सुराणा, भंवरलाल सर्राफ, प्रयागराम भंडारी तथा जयपुर में टीकाराम पालीवाल, गुलाबचंद कासलीवाल आदि।

ब्यावर के सेठ दामोदर दास राठी एक कुशल उद्योगपति थे किन्तु उनका राजनीतिक कार्यक्षेत्र अर्जुन लाल सेठी, केसरी सिंह बारहठ, राव गोपाल सिंह खरवा और विजय सिंह पथिक के साथ ही था। क्रांति के मार्ग पर ये पाँचों राष्ट्रवादी नेता एक-दूसरे के पूरक थे। दुर्भिक्ष, बाढ़ या भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं से त्रस्त जनता की उन्होंने सदैव सेवा की। सेठ राठी हिन्दी भाषा के भारी प्रशंसक थे। उन्होंने 1914 में अपनी कृष्णा मिल के बही खातों का तथा अपना संपूर्ण कार्य हिन्दी में ही करने का संकल्प लेकर अत्यंत प्रशंसनीय कार्य किया। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष अमृतलाल चक्रवर्ती की प्रेरणा से राठी ने ब्यावर में ‘ नागरी प्रचारिणी सभा ’ की स्थापना की और अजमेर-मेरवाड़ा की अदालतों में नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के प्रयोग के लिए आंदोलन चलाया। इससे प्रभावित होकर अंग्रेज कमिश्नर ने राजकीय कार्य नागरी लिपि और हिन्दी भाषा में करना स्वीकार कर लिया था। इस प्रकार एक व्यवसायी एवं उद्योगपति होने के बावजूद सेठ राठी ने स्वभाषा के प्रयोग सहित स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोगों को बढ़ावा देकर राष्ट्र प्रेम की भावना को पोषित किया।

खादी का प्रयोग
राजस्थान के राज्यों में खादी के प्रचार ने स्वतंत्रता की भावना को लोकप्रिय तथा व्यापक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा लोगों को इस आंदोलन की ओर आकृष्ट किया। गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम का प्रचार ऐसा आवरण था, जिस पर किसी निरंकुश शासक को भी आपत्ति करने का औचित्य दिखाई नहीं पड़ता था। खादी का प्रयोग गाँव की निर्धन जनता के लिए एक रोजगार का साधन हो सकता था, इसलिए इस कार्यक्रम को रोकने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी। समय के व्यतीत होने के साथ-साथ गाँधी टोपी पहनना, खादी का प्रयोग करना स्वतन्त्रता आन्दोलन के हिस्से बन गये। जमनालाल बजाज पर इस आंदोलन की देखभाल का जिम्मा था। गोकुल भाई भट्ट तथा अन्य खादी कार्यकर्ताओं के सम्मानार्थ प्रकाशित ग्रंथों से इन शांत तथा जनप्रिय चर्चित चेहरों के योगदान पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। खादी को प्रश्रय प्रदान करना, छुआछूत समाप्त करना अथवा हरिजनोद्धार इस युग के नये मूल्यों को प्रोत्साहन देने वाले कार्यक्रम थे, जिनसे जनजागरण प्रभावी हो सका।

महिलाओं की भूमिका
राजस्थान में राजनीतिक चेतना और नागरिक अधिकारों के लिए अनवरत चले आन्दोलनों में महिलाओं की भूमिका भी सीमित रहीं। इसमें अजमेर की प्रकाशवती सिन्हा का नाम विशेष उल्लेखनीय है। 1930 से 1947 तक अनेक महिलाएँ जेल गई। इनका नेतृत्व करने वाली साधारण गृहणियाँ ही थीं, जिनकी गिनती अपने कार्यों तथा उपलब्धियों से असाधारण श्रेणी में की जाती है। इनमें अंजना देवी (पत्नी-राम नारायण चौधरी), नारायण देवी (पत्नी माणिक्य लाल वर्मा), रतन शास्त्री (पत्नी हीरालाल शास्त्री) आदि थीं। 1942 की अगस्त क्रांति में छात्राओं ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया। कोटा शहर में तो रामपुरा पुलिस कोतवाली पर अधिकार करने वालों में छात्राएँ भी शामिल थीं। रमादेवी पाण्डे, सुमित्रा देवी भार्गव, इन्दिरा देवी शास्त्री, विद्या देवी, गौतमी देवी भार्गव, मनोरमा पण्डित, मनोरमा टण्डन, प्रियवंदा चतुर्वेदी और विजयाबाई का योगदान उल्लेखनीय रहा। डूँगरपुर की एक भील बाला कालीबाई 19 जून, 1947 को रास्तापाल सत्याग्रह में अपने शिक्षक सेंगाभाई को बचाते हुए शहीद हुई।

क्रांतिकारियों की भूमिका
भारतीय परिप्रेक्ष्य के अनुरूप ही राजपूताना में क्रांतिकारियों की गतिविधियां देखने को मिलती है। यहाँ भी शासक वर्ग ने ब्रिटिश सत्ता के समान ही सामान्यतः राष्ट्रवादी गतिविधियों पर अपना शिकंजा कस दिया। ऐसी परिस्थितियों में क्रांतिकारी गतिविधियों को अपनी जगह बनाने का मौका मिला। बंगाल में सक्रिय क्रांतिकारियों ने राजपूताना में भी सम्पर्क स्थापित करके अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार किया। राजपूताना में क्रांतिकारी गतिविधियों से सम्बद्ध रहने वालों में विजय सिंह पथिक, अर्जुन लाल सेठी, केसरी सिंह बारहठ, प्रताप सिंह बारहठ, राव गोपाल सिंह खरवा के नाम गिनाये जा सकते हैं। यद्यपि क्रांतिकारियों का आंदोलन जन साधारण में अपनी जमीन तैयार न कर सका फिर भी सामंती समाज की बदहाली, शासकों की उदासीनता व अंग्रेजो के दमन की भूमिका अविस्मरणीय रही। राजस्थान में भी पूरे राष्ट्र के समान सामान्यतः गांधीवादी तौर-तरीके ही लोकप्रिय रहे।

अंग्रेज सरकार क्रांतिकारी गतिविधियों को समाप्त करने पर आमादा थी। इसी सिलसिले में वायसराय लार्ड मिंटो ने अगस्त 1909 में राजस्थान में राजाओं को अपने-अपने राज्यों में क्रांतिकारी साहित्य व समाचार पत्रों पर रोक लगाने तथा क्रांतिकारी गतिविधियों को कुचलने के निर्देश दिये। फलतः राज्यों ने समाचार पत्रों पर रोक लगाने के साथ ही क्रांतिकारियों के आपसी व्यवहार एवं व्याख्यान देने पर रोक लगा दी। परन्तु राज्यों के ये प्रतिबंध कारगर नहीं हुए और दृढ़ प्रतिज्ञ एवं निष्ठावान देशभक्त हिंसात्मक गतिविधियों की ओर प्रवृत्त हुए। राजस्थान के क्रांतिकारियों का जनक शाहपुरा का बारहठ परिवार था। इनमें ठाकुर केसरी सिंह बारहठ राष्ट्रीय परिस्थितियों से भली-भांति अवगत थे और ब्रिटिश सरकार की नीतियों के खिलाफ इनमें तीव्र आक्रोश था। 1903 में केसरी सिंह ने ‘चेतावनी का चूंगटया“ नामक सोरठा मेवाड़ महाराणा फतहसिंह को लिखकर भेजे, जिसके कारण उन्होंने दिल्ली दरबार में भाग नहीं लिया। क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाने के लिए उन्होंने कुछ लोगों को साथ मिलकर कोटा के महन्त साधु प्यारेलाल की हत्या कर दी। इस केस में इन्हें बीस वर्ष की सजा दी गई और बिहार की हजारी बाग जेल में रखा गया, परन्तु 1919 में वे शीघ्र जेल से मुक्त हो गये। कोटा पहुँचने पर उन्हें अपने पुत्र प्रताप सिंह की शहादत का समाचार मिला, परन्तु उन्होंने धैर्य रखा। बाद में गांधीजी के संपर्क के कारण केसरी सिंह बारहठ अहिंसा के विचारों के पोषक हो गये।

जयपुर में क्रांतिकारियों की पौध तैयार करने वाले अर्जुन लाल सेठी ने राजकीय नौकरी को ठोकर मारकर देश सेवा का कठिन मार्ग चुना। उनके द्वारा स्थापित वर्धमान पाठशाला क्रांतिकारियों की नर्सरी थी। प्रतापसिंह बारहठ जैसे व्यक्ति इस पाठशाला के छात्र थे। इन्हें एक महंत की हत्या के झूठे आरोप में जेल डाल दिया। जेल से 6 वर्ष बाद मुक्त (1920) होने के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया। खरवा ठाकुर गोपाल सिंह ने रासबिहारी बोस एवं बंगाल के क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आने के कारण सशस्त्र बल पर स्वतन्त्रता प्राप्ति का मन बनाया। 21 फरवरी, 1915 को सशस्त्र क्रांति की शुरुआत करने या राजस्थान में उत्तरदायित्व खरवा ठाकुर ने लिया। मगर योजना असफल होने पर उन्हें टाडगढ़ में नजरबंद रख गया। जहाँ से वे फरार हो गये, मगर पुनः बंदी बनाकर अजमेर जेल में रखा गया। जेल से मुक्त (1920) होने के पश्चात् वे शांतिपूर्ण राजनीतिक गतिविधियों में संलग्न हो गये।कुछ अंतराल के बाद 1931 में भगतसिंह को फांसी देने से उग्रवादी पुनः सक्रिय हो उठे। अजमेर, और पुष्कर की दीवारों पर ‘भगतसिंह जिन्दाबाद’ के नारे लिखे गये। चिरंजीलाल ने क्रांतिकारी दल की स्थापना की। ज्वालाप्रसाद शर्मा, रमेशचन्द्र व्यास जैसे लोग क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े।

राजस्थान में जन जागरण एवं स्वतन्त्रता संग्राम

कवियों का योगदान
राजस्थान की स्वातन्त्र्य चेतना में कवियों ने लोकगीतों के माध्यम से जनता को जाग्रत किया। ये लोक गीत राज्य की सभी क्षेत्रीय भाषाओं में वहाँ के स्थानीय कवियों तथा गीतकारों द्वारा रचे गये थे। इन गीत एवं कविताओं से परतंत्रता काल में अशिक्षित ओर अर्द्धशिक्षित जन समूह प्रेरणा एवं प्रोत्साहन प्राप्त करता रहा था। भरतपुर राज्य के निवासी हुलासी का नाम सर्वप्रथम आता है, जिन्होंने वीर रस के गीतों के माध्यम से अंग्रेजों के विरोध करने का आह्वान उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही कर दिया था। इस ब्राह्मण कवि ने अपनी वीर रस की कविताओं में राजस्थान के तत्कालीन राज्यों की तुलना में भरतपुर के वीरों द्वारा अंग्रेजों का अंतिम दम तक विरोध करने का ओजस्वी वर्णन किया है। भरतपुर राज्य के राजनीतिक आन्दोलनों से सम्बन्धित वर्तमान काल में जितनी भी काव्य रचनाएँ हुई हैं, उनमें सबसे अधिक योगदान पूर्ण सिंह की रचनाओं का रहा है। ग्रामीण कवि होने के साथ-साथ पूर्णसिंह कर्मठ कार्यकर्ता भी था। उसने 1939 से 1947 तक राज्य में जितने भी आंदोलन हुए, उनमें सक्रियता का प्रदर्शन किया। समय-समय पर आयोजित सम्मेलनों में इसके गीतों की धूम रहती थी। राजस्थान में जन जागरण का हुंकार फूंकने वालों में बूँदी के सूर्यमल्ल मीसण (1815-1868) तथा मारवाड़ के शंकरदान सामौर (1824-1878) का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

प्रजामण्डल आन्दोलन
राजस्थान की रियासतों में प्रजामण्डलों के नेतृत्व में उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए नेताओं को कठोर संघर्ष करना पड़ा। यातनाएं झेलनी पड़ी। कारावास में रहना पड़ा। उनके परिवारों को भारी संकट का सामना करना पड़ा। यहाँ तक कि अपने जीवन को भी दाव पर लगाना पड़ा। प्रजामण्डलों के मार्गदर्शन में ही राजस्थान की विभिन्न रियासतों में राष्ट्रीय आन्दोलन की हलचल हुई। दुर्भाग्य की बात यह रही कि राजस्थान की जनता को तीन शक्तियों यथा-राजा, ठिकानेदार और ब्रिटिश सरकार का सामना करना पड़ा। ये तीनों शक्तियां मिलकर जनता के संघर्ष का दमन करती रहीं। परन्तु राजस्थान की रियासतों में होने वाले आंदोलनों ने यह प्रमाणित कर दिया कि इन राज्यों की जनता भी ब्रिटिश भारत की जनता के साथ कंधा मिलाकर भारत को स्वतंत्र कराना चाहती है। जयपुर में प्रजामंडल का नेतृत्व जमनालाल बजाज, हीरालाल शास्त्री जैसे दिग्गज नेताओं ने किया जबकि जोधपुर में जयनारायण व्यास के मार्गदर्शन में उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए संघर्ष चला, वहीं सिरोही में गोकुल भाई भट्ट के शीर्ष नेतृत्व में।

राजस्थान में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की पहली पीढ़ी में चार प्रमुख नेताओं का नाम उल्लेखनीय है, यथा-अर्जु नलाल सेठी (1880-1941) केसरी सिंह बारहठ (1872-1941), स्वामी गोपालदास (1882-1939) एवं राव गोपालसिंह (1872-1956)। अर्जुनलाल सेठी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी और अपना कार्य चौंमू के ठाकुर देवी सिंह के निजी सचिव के रूप में प्रारम्भ किया लेकिन शीघ्र ही अपना यह पद त्याग दिया। कुछ समय तक मथुरा के एक जैन स्कूल में अध्यापक रहे और फिर 1906 में जयपुर आ गये। इसके पश्चात् वे युवकों को भावी क्रान्ति के लिए तैयार करने में लग गये।केसरी सिंह बारहठ मेवाड़ में शाहपुरा में पैदा हुए। वे चारण तथा राजपूतों में कुछ सुधार लाना चाहते थे उन्होंने राजपूतों में शिक्षा प्रसार पर बल दिया और सामाजिक कुरीतियों से बचने की सलाह दी।

स्वामी गोपाल दास का जन्म चूरू के समीप हुआ था। उनका जीवन इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि निरंकुश शासन में सार्वजनिक हित में कार्य करने वाले को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बीकानेर के प्रसिद्ध शासक गंगासिंह ने स्वामी गोपाल दास को परेशान करने में कोई कमी नहीं की, जबकि उनका दोष यह था कि वे बीकानेर की वास्तविक स्थिति से लोगों को अवगत करा रहे थे। सच तो यह है कि उन्होंने कई रचनात्मक कार्य किये, जैसे चूरू में लड़कियों के लिए स्कूल खोला, तालाबों की मरम्मत कराई और कुएँ खुदवाए। खरवा का ठाकुर राव गोपाल सिंह ने सामंत परिवार में जन्म लेकर भी देश के भविष्य के लिए अपनी वंश परंपरागत जागीर को देश की आजादी के लिए दांव पर लगा दिया। उनके बारे में ठाकुर केसरी सिंह ने लिखा था, ''जिस प्रकार पंजाब को लाला लाजपत राय पर और महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक पर गर्व है, उसी प्रकार राजस्थान को राव गोपाल सिंह खरवा पर गर्व है।'

इन उक्त नेताओं की कार्य प्रणाली पर विचार करें तो कहा जा सकता है कि इन नेताओं की योजनाएं तथा गतिविधियाँ सामाजिक कार्य करने, शिक्षा को प्रोत्साहित करने तथा देशप्रेम की भावना फैलाने की थी। यह उल्लेखनीय है कि उस समय अप्रगतिशील रूढ़िवादी घटनाओं पर टीका-टिप्पणी आपराधिक श्रेणी में गिनी जाती थी। समाचार पत्रों का बाहर से मंगवाया, एक टाइप मशीन अथवा चक्र मुद्रण यंत्र का किसी व्यक्ति के पास होना एक अपराध माना जाता था। प्रचलित व्यवस्था के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखना संदिग्ध माना जाता था। पुरानी मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर जाँचनें तथा राजनीतिक एवं प्रशासनिक नीतियों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखने को क्रांतिकारी समझा जाता था। रास बिहारी घोष, महर्षि अरविन्द,शचीन्द्र सान्याल से मिल लेना ही क्रांतिकारी माने जाने के लिए पर्याप्त समझा जाता था। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि जो कार्य सेठी, बारहट, खरवा राव, स्वामी गोपाल दास आदि ने किया, उसमें से उन्हें सफलता मिली या असफलता तथा वे संस्थागत रूप धारण कर सके अथवा धराशायी हो गये, अपितु महत्वपूर्ण यह है कि वे लोगों को कितना प्रभावित कर पाये। इस मायने में वे सफल रहे। इन नेताओं ने अपने बलिदान से पुराने सामंती ढांचे के अन्यायपूर्ण आचरण का पर्दाफाश किया।
कोटा राज्य में जन-जागृति के जनक पं. नयनूराम शर्मा थे। उन्होंने थानेदार के पद से इस्तीफा देकर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया था। वे विजय सिंह पथिक द्वारा स्थापित राजस्थान सेवा संघ के सक्रिय सदस्य बन गये। उन्होंने कोटा राज्य में बेगार विरोधी आंदोलन चलाया, जिसके फलस्वरूप बेगार प्रथा की प्रताड़ना में कमी आई। 1939 में पं. नयनूराम शर्मा और पं. अभिन्न हरि ने कोटा राज्य में उत्तरदायी शासन स्थापित करने के उद्देश्य को लेकर कोटा राज्य प्रजामण्डल की स्थापना की। प्रजामंडल का पहला अधिवेशन शर्मा की अध्यक्षता में मांगरोल (बारां) में सम्पन्न हुआ।

अजमेर में जमनालाल बजाज की अध्यक्षता में ‘राजपूताना मध्य भारत सभा’ का आयोजन (1920) किया गया, जिसमें अर्जुन लाल सेठी, केसरी सिंह बारहठ, राव गोपाल सिंह खरवा, विजय सिंह पथिक आदि ने भाग लिया। इसी वर्ष देश में खिलाफत आन्दोलन चला। अजमेर में खिलाफत समिति की बैठक हुई, जिसमें डॉ. अन्सारी, शेख अब्बास अली, चांद करण शारदा आदि ने भाग लिया। अक्टूबर, 1920 में ‘राजस्थान सेवा संघ’ को वर्धा से लाकर अजमेर में स्थापित किया गया, उसका उद्देश्य राजस्थान की रियासतों में चलने वाले आन्दोलनों को गति देना था। उसी समय रामनारायण चौधरी वर्धा से लौटकर अपना कार्य क्षेत्र अजमेर बना चुके थे। अजमेर में 15 मार्च, 1921 को द्वितीय राजनीतिक कांफ्रेंस का आयोजन हुआ, जिसमें मोतीलाल नेहरू उपस्थित थे। मौलाना शौकत अली ने सभा की अध्यक्षता की थी। सभा में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का आह्वान किया गया। पंडित गौरीशंकर भार्गव ने अजमेर में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार की अगुवाई कर प्रथम गांधीवादी बनने का सौभाग्य प्राप्त किया। जब ‘प्रिंस ऑफ वेल्स का अजमेर आगमन (28 नवम्बर, 1921) हुआ, तो उसका स्वागत के स्थान पर बहिष्कार किया गया, हड़ताल की गई तथा दुकानें बंद की गई। प्रिंस की यात्रा की व्यापक प्रतिक्रिया हुई।

जैसलमेर रेगिस्तान के धोरों के मध्य एक पिछड़ी हुई छोटी रियासत थी। यहाँ के सागरमल गोपा ने जैसलमेर की जनता को महारावल जवाहर सिंह के निरंकुश और दमनकारी शासन के विरुद्ध जागृत किया। सागरमल गोपा ने 1940 में ‘जैसलमेर में गुण्डाराज’ नामक पुस्तक छपाकर वितरित करवा दी। अतः महारावल ने शीघ्र ही उसे राज्य से निर्वासित कर दिया। गोपा नागपुर चला गया और वहाँ से जैसलमेर के दमनकारी शासन के विरुद्ध प्रचार करता रहा। मार्च, 1941 में उसके पिता का देहांत हो गया, तब ब्रिटिश रेजीडेण्ट की स्वीकृति के पश्चात् ही वह जैसलमेर पहुंच सका। रेजिडेंट ने आश्वासन दिया था कि उसके विरुद्ध राज्य सरकार का कोई आरोप नहीं है, अतः वह जैसलमेर आ सकता है तथा उसे किसी प्रकार के दुर्व्यवहार का भय नहीं होना चाहिए। इस प्रकार गोपा जैसलमेर पहुँचा। जैसलमेर जाकर वह लगभग दो माह पश्चात लौट रहा था, जब उसे अचानक बन्दी (22 मई, 1941) बना लिया गया। बन्दी अवस्था में उसे गंभीर एवं अमानवीय यातनाएँ दी गई। अन्ततः उसे राजद्रोह के अपराध में 6 वर्ष की कठोर कारावास की सजा दी गई। जेल में थानेदार गुमानसिंह यातनाएँ देता रहा, जिससे उसका जीवन नारकीय हो गया था। गोपा द्वारा जयनारायण व्यास आदि को यातनाओं के सम्बन्धों में पत्र लिखे गये। जयनारायण व्यास ने रेजीडेण्ट को पत्र लिखकर वास्तविक स्थिति का पता लगाने का आग्रह किया। रेजीडेण्ट ने 6 अप्रैल, 1946 को जैसलमेर जाने का कार्यक्रम बनाया, उधर 3 अप्रैल, 1946 को ही जेल में गोपा पर मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया। यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गयी किन्तु शासन ने गोपा के रिश्तेदारों तक को नहीं मिलने दिया। लगभग 20 घण्टे तड़पने के बाद 4 अप्रैल को वे चल बसे। पूरा नगर ‘सागरमल गोपा जिन्दाबाद’ के नारों से गूंज उठा। पण्डित नेहरू तथा जयनारायण व्यास सहित अनेक शीर्ष नेताओं ने इस काण्ड की भर्त्सना की। राजस्थान जब कभी भी स्वतन्त्रता सेनानियों को याद करेगा, गोपा का नाम प्रथम पंक्ति में अमर रहेगा।

भरतपुर में जन-जागृति पैदा करने वालों में जगन्नाथ दास अधिकारी और गंगा प्रसाद शास्त्री प्रमुख थे। इन्होंने 1912 में ‘हिन्दी साहित्य समिति’ की स्थापना की, जिसने शीघ्र ही लोकप्रियता प्राप्त कर एक विशाल पुस्तकालय का रूप धारण कर लिया। भरतपुर के तत्कालीन महाराजा किशन सिंह अन्य शासकों की तुलना में जागरूक थे। उन्होंने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया। गांवों और नगरों में स्वायत्तशासी संस्थाओं को विकसित किया और राज्य में एक अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन क अधिवेशन किया। वह राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना के पक्ष में था। परन्तु अंग्रेज सरकार ने उसके प्रगतिशील विचारों के दूरगामी परिणामों को सोचकर उसे गद्दी छोड़ने के लिए विवश किया। नये शासक ने सभाओं एवं प्रकाशनों पर प्रतिबंध लगा दिया। इतना ही नहीं राष्ट्रीय नेताओं के चित्र रखना अपराध मान लिया गया। फिर भी, भरतपुर में जन-जागरण का कार्य चोरी-छिपे चलता रहा। गोपीलाल यादव, मास्टर आदित्येन्द्र, जुगल किशोर चतुर्वेदी आदि के नेतृत्व में भरतपुर राज्य प्रजामण्डल अपनी गतिविधियां चलाता रहा।

जोधपुर के प्रजामंडल के इतिहास में बालमुकुन्द बिस्सा का नाम स्मरणीय रहेगा। मारवाड़ के एक छोटे से ग्राम पीलवा,तहसील डीडवाना में जन्मे बालमुकुन्द बिस्सा ने 1934 में जोधपुर में गांधी जी से प्रेरित होकर खादी भण्डार खोला और तब से राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भाग लेने लगा। उसका जवाहर खादी भण्डार शीघ्र ही राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। 1942 में जोधपुर में उत्तरदायी शासन के लिए जो आंदोलन चला, उसमें उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जहाँ भूख हड़ताल एवं यातनाओं के कारण वह शहीद हो गया परन्तु उससे प्रेरित होकर कई युवा प्रजामण्डल-आन्दोलन में कूद पड़े।मेवाड़ में प्रजामण्डल की स्थापना बिजौलिया आन्दोलन के कर्मठ नेता माणिक्यलाल वर्मा द्वारा मार्च, 1938 में की गई। इस हेतु वे साइकिल पर सवार होकर निकल पड़े। वे जब शाहपुरा होकर गुजरे तो वहाँ उन्हें रमेश चन्द्र ओझा और लादूराम व्यास जैसे उत्साही व्यक्ति मिल गये। वर्मा की प्रेरणा से इन नवयुवकों ने 1938 में शाहपुरा राज्य में प्रजामण्डल की स्थापना की। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि शाहपुरा राज्य ने प्रजामण्डल की गतिविधियों में अनावश्यक दखल नहीं दिया।

डूँगरपुर में 1935 में भोगीलाल पण्ड़या ने हरिजन सेवा समिति की स्थापना की। उसी वर्ष शोभालाल गुप्त ने राजस्थान सेवक मण्डल की ओर से हरिजनों और भीलों के हितार्थ सागवाड़ा में एक आश्रम स्थापित किया। इसी बीच बिजोलिया आन्दोलन के प्रमुख सूत्रधार माणिक्यलाल वर्मा जनजातियों में काम करने के उद्देश्य से डूँगरपुर आये। उन्होंने ‘बागड़ सेवा मंदिर’ की स्थापना द्वारा भीलों में साक्षरता का प्रचार किया तथा सामाजिक कुरीतियों के निवारणार्थ उल्लेखनीय कार्य किया। इससे भीलों में नवजीवन का संचार हुआ। परन्तु राज्य सरकार ने शीघ्र ही बागड़ सेवा मंदिर की रचनात्मक प्रवृत्तियों को नियंत्रित कर दिया। 1944 में डूंगरपुर प्रजामण्डल की स्थापना हरिदेव जोशी, भोगीलाल पण्ड्या, गौरीशंकर आचार्य आदि ने मिलकर की। डूंगरपुर के भोगीलाल पण्ड्या पर जेल में किये जाने वाले अमानुषिक व्यवहार का गोकुल भाई भट्ट, माणिक्यलाल वर्मा, हीरालाल शास्त्री, रमेश चंद्र व्यास आदि ने मिलकर जमकर विरोध किया। फलस्वरूप डूंगरपुर महारावल को पण्ड्या सहित अनेक कार्यकर्ताओं को छोड़ना पड़ा।

राजस्थान में जन जागरण एवं स्वतन्त्रता संग्राम

भारत छोड़ो आंदोलन और राजस्थान
भारत छोड़ो आंदोलन (प्रस्ताव 8 अगस्त, शुरुआत 9 अगस्त, 1942) के ‘करो या मरो’ की घोषणा के साथ ही राजस्थान में भी गांधीजी की गिरफ्तारी का विरोध होने लगा। जगह-जगह जुलूस, सभाओं और हड़तालों का आयोजन होने लगा। विद्यार्थी अपनी शिक्षण संस्थानों से बाहर आ गये और आंदोलन में कूद पड़े। स्थान-स्थान पर रेल की पटरियां उखाड़ दी, तार और टेलीफोन के तार काट दिये। स्थानीय जनता ने समानांतर सरकारें स्थापित कर लीं। उधर जवाब में ब्रिटिश सरकार ने भारी दमनचक्र चलाया। जगह-जगह पुलिस ने गोलियां चलाई। कई मारे गये, हजारों गिरफ्तार किये गये। देश की आजादी की इस बड़ी लड़ाई में राजस्थान ने भी कंधे से कंधा मिलाकर योगदान दिया।

जोधपुर राज्य में सत्याग्रह का दौर चल पड़ा। जेल जाने वालों में मथुरादास माथुर, देवनारायण व्यास, गणेशीलाल व्यास,सुमनेश जोशी, अचलेश्वर प्रसाद शर्मा, छगनराज चौपासनीवाला, स्वामी कृष्णानंद, द्वारका प्रसाद पुरोहित आदि थे। जोधपुर में विद्यार्थियों ने बम बनाकर सरकारी सम्पत्ति को नष्ट किया। किन्तु राज्य सरकार के दमन के कारण आन्दोलन कुछ समय के लिए शिथिल पड़ गया। अनेक लोगों ने जयनारायण व्यास पर आंदोलन समाप्त करने का दवाब डाला, परन्तु वे अडिग रहे। राजस्थान में 1942 के आन्दोलन में जोधपुर राज्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस आंदोलन में लगभग 400 व्यक्ति जेल में गए। महिलाओं में श्रीमती गोरजा देवी जोशी, श्रीमती सावित्री देवी भाटी, श्रीमती सिरेकंवल व्यास, श्रीमती राजकौर व्यास आदि ने अपनी गिरफ्तारियां दी।

माणिक्यलाल वर्मा रियासती नेताओं की बैठक में भाग लेकर इंदौर आये तो उनसे पूछा गया कि भारत छोड़ो आन्दोलन के सन्दर्भ में मेवाड़ की क्या भूमिका रहेगी, तो उन्होंने उत्तर दिया, ”भाई हम तो मेवाड़ी हैं, हर बार हर-हर महादेव बोलते आये हैं,इस बार भी बोलेंगे।“ स्पष्ट था कि भारत छोड़ो आन्दोलन के प्रति मेवाड़ का क्या रूख था। बम्बई से लौटकर उन्होंने मेवाड़ के महाराणा को ब्रिटिश सरकार से सम्बन्ध विच्छेद करने का 20 अगस्त, 1942 को अल्टीमेटम दिया। परन्तु महाराणा ने इसे महत्व नहीं दिया। दूसरे दिन माणिक्यलाल गिरफ्तार कर लिये गये। उदयपुर में कामकाज ठप हो गया। इसके साथ ही प्रजामण्डल के कार्यकर्ता और सहयोगियों की गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ। उदयपुर के भूरेलाल बया, बलवन्त सिंह मेहता, मोहनलाल सुखाड़िया, मोतीलाल तेजावत, शिवचरण माथुर, हीरालाल कोठारी, प्यार चंद विश्नोई, रोशनलाल बोर्दिया आदि गिरफ्तार हुए। उदयपुर में महिलाएं भी पीछे नहीं रहीं। माणिक्यलाल वर्मा की पत्नी नारायणदेवी वर्मा अपने 6 माह के पुत्र को गोद में लिये जेल में गयी। प्यारचंद विश्नोई की धर्मपत्नी भगवती देवी भी जेल गयी। आन्दोलन के दौरान उदयपुर में महाराणा कॉलेज और अन्य शिक्षण संस्थाएँ कई दिनों तक बन्द रहीं। लगभग 600 छात्र गिरफ्तार किये गये। मेवाड़ के संघर्ष का दूसरा महत्वपूर्ण केन्द्र नाथद्वारा था। नाथद्वारा में हड़ताले और जुलूसों की धूम मच गयी। नाथद्वारा के अतिरिक्त भीलवाड़ा, चित्तौड़ भी संघर्ष के केन्द्र थे। भीलवाड़ा के रमेश चन्द्र व्यास, जो मेवाड़ प्रजामण्डल के प्रथम सत्याग्रही थे, को आन्दोलन प्रारम्भ होते ही गिरफ्तार कर लिया। मेवाड़ में आन्दोलन को रोका नहीं जा सका, इसका प्रशासन को खेद रहा।

जयपुर राज्य की 1942 के भारत छोड़ों आन्दोलन में भूमिका विवादास्पद रही। जयपुर प्रजामण्डल का एक वर्ग भारत छोड़ो आन्दोलन से अलग नहीं रहना चाहता था। इनमें बाबा हरिश्चन्द, रामकरण जोशी, दौलतमल भण्डारी आदि थे। ये लोग पं0 हीरालाल शास्त्री से मिले। हीरालाल शास्त्री ने 17 अगस्त, 1942 की शाम को जयपुर में आयोजित सार्वजनिक सभा में आंदोलन की घोषणा का आश्वासन दिया। यद्यपि पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार सभा हुई, परन्तु हीरालाल शास्त्री ने आंदोलन की घोषणा करने के स्थान पर सरकार के साथ हुई समझौता वार्ता पर प्रकाश डाला। हीरालाल शास्त्री ने ऐसा सम्भवतः इसलिए किया कि उनके जयपुर के तत्कालीन प्रधानमंत्री मिर्जा इस्माइल से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे तथा जयपुर महाराजा के रवैये एवं आश्वासन से जयपुर प्रजामण्डल संतुष्ट था। जयपुर राज्य के भीतर और बाहर हीरालाल शास्त्री की आलोचना की गई। बाबा हरिश्चंद्र और उनके सहयोगियों ने एक नया संगठन ‘ आजाद मोर्चा ’ की स्थापना कर आन्दोलन चलाया। इस मोर्चे का कार्यालय गुलाब चंद कासलीवाल के घर स्थित था। जयपुर के छात्रों ने शिक्षण संस्थाओं में हड़ताल करवा दी।

कोटा राज्य प्रजामंडल के नेता पं. अभिन्न हरि को बम्बई से लौटते ही 13 अगस्त को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रजामंडल के अध्यक्ष मोतीलाल जैन ने महाराज को 17 अगस्त को अल्टीमेटम दिया कि वे शीघ्र ही अंग्रेजों से सम्बन्ध विच्छेद कर दें। फलस्वरूप सरकार ने प्रजामण्डल के कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया। इनमें शम्भूदयाल सक्सेना, बेनी माधव शर्मा,मोतीलाल जैन, हीरालाल जैन आदि थे। उक्त कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के बाद नाथूलाल जैन ने आन्दोलन की बागडोर सम्भाली। इस आंदोलन में कोटा के विद्यार्थियों का उत्साह देखते ही बनता था। विद्यार्थियों ने पुलिस को बैरकों में बन्द कर रामपुरा शहर कोतवाली पर अधिकार (14-16 अगस्त,1942) कर उस पर तिरंगा फहरा दिया। जनता ने नगर का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। लगभग 2 सप्ताह बाद जनता ने महाराव के इस आश्वासन पर कि सरकार दमन सहारा नहीं लेगी, शासन पुनः महाराव को सौंप दिया। गिरफ्तार कार्यकर्त्ता रिहा कर दिये गये।

भरतपुर में भी भारत छोड़ो आन्दोलन की चिंगारी फैल गई। भरतपुर राज्य प्रजा परिषद् के कार्यकर्ता मास्टर आदित्येन्द्र,युगलकिशोर चतुर्वे दी, जगपतिसिंह, रेवतीशरण, हुक्मचन्द, गौरीशंकर मित्तल, रमेश शर्मा आदि नेता गिरफ्तार कर लिये गये। इसी समय दो युवकों ने डाकखानों और रेलवे स्टेशनों को 28 तोड़-फोड़ की योजना बनाई, परन्तु वे पकड़े गये। आन्दोलन की प्रगति के दौरान ही राज्य में बाढ़ आ गयी। अतः प्रजा परिषद ने इस प्राकृतिक विपदा को ध्यान में रखते हुए अपना आन्दोलन स्थगित कर राहत कार्यों मे लगाने का निर्णय लिया। शीघ्र ही सरकार से आन्दोलनकारियों की समझौता वार्ता प्रारम्भ हुई। वार्ता के आधार पर राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया गया। सरकार ने निर्वाचित सदस्यों के बहुमत वाली विधानसभा बनाना स्वीकार कर लिया।

शाहपुरा राज्य प्रजामंडल ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने के साथ ही राज्य को अल्टीमेटम दिया कि वे अंग्रेजों से सम्बन्ध विच्छेद कर दें। फलस्वरूप प्रजामण्डल के कार्यकर्ता रमेश चन्द्र ओझा, लादूराम व्यास, लक्ष्मीनारायण कौटिया गिरफ्तार कर लिये गये। शाहपुरा के गोकुल लाल असावा पहले ही अजमेर में गिरफ्तार कर लिये गये थे।

अजमेर में कांग्रेस के आह्वान के फलस्वरूप भारत छोड़ो आन्दोलन का प्रभाव पड़ा। कई व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया। इनमें बालकृष्ण कौल, हरिभाऊ उपाध्यक्ष, रामनारायण चौधरी, मुकुट बिहारी भार्गव, अम्बालाल माथुर, मौलाना अब्दुल गफूर,शोभालाल गुप्त आदि थे। प्रकाश चंद ने इस आंदोलन के संदर्भ में अनेक गीतों को रचकर प्रजा को नैतिक बल दिया। जेलों के कुप्रबन्ध के विरोध में बालकृष्ण कौल ने भूख हड़ताल कर दी।

बीकानेर में भारत छोड़ो आंदोलन का विशेष प्रभाव देखने को नहीं मिलता है। बीकानेर राज्य प्रजा परिषद् के नेता रघुवर दयाल गोयल को पहले से ही राज्य से निर्वासित कर रखा था। बाद में गोयल के साथी गंगादास कौशिक ओर दाऊदयाल आचार्य को गिरफ्तार कर लिया गया। इन्हीं दिनों नेमीचन्द आँचलिया ने अजमेर से प्रकाशित एक साप्ताहिक में लेख लिखा, जिसमें बीकानेर राज्य में चल रहे दमन कार्यों की निंदा की गई। राज्य सरकार ने आँचलिया को 7 वर्ष का कठोर कारावास का दण्ड दिया। राज्य में तिरंगा झण्डा फहराना अपराध माना जाता था। अतः राज्य में कार्यकर्ताओं ने झण्डा सत्याग्रह शुरू कर भारत छोड़ो आंदोलन में अपना योगदान दिया। अलवर, डूँगरपुर, प्रतापगढ़, सिरोही, झालावाड़ आदि राज्यों में भी भारत छोड़ो आंदोलन की आग फैली। सार्वजनिक सभाएं कर देश में अंग्रेजी शासन का विरोध किया गया। कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारियां हुई। हड़तालें हुई। जुलुस निकाले गये।

सिंहावलोकन

रियासतों में जन आन्दोलनों के दौरान लोगों को अनेक प्रकार के जुल्मों एवं यातनाओं का शिकार होना पड़ा। किसान आन्दोलनों,जनजातीय आन्दोलनों आदि ने राष्ट्रीय जागृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ये स्व स्फूर्त आन्दोलन थे। इनसे सामन्ती व्यवस्था की कमजोरियां उजागर हुईं। यद्यपि इन आंदोलनों का लक्ष्य राजनीतिक नहीं था, परन्तु निरंकुश सत्ता के विरुद्ध आवाज के स्वर बहुत तेज हो गये,जिससे तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था को आलोचना का शिकार होना पड़ा। यदि आजादी के पश्चात् राजतन्त्र तथा सामन्त प्रथा का अवसान हुआ, तो इसमें इन आंदोलनों की भूमिका को ओझल नहीं किया जा सकता है। अनेक देशभक्तों को प्राणों की आहुति देनी पड़ी। शहीद बालमुकुन्द बिस्सा, सागरमल गोपा आदि का बलिदान प्रेरणा के स्रोत बने। प्रजामण्डल आन्दोलनों से राष्ट्रीय आन्दोलन को सम्बल मिला। प्रजामण्डलों ने अपने रचनात्मक कार्यों के अर्न्तगत सामाजिक सुधार, शिक्षा का प्रसार, बेगार प्रथा के उन्मूलन एवं अन्य आर्थिक समस्याओं का समाधान करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाये। यह कहना उचित नहीं है कि राजस्थान में जन-आन्दोलन केवल संवैधानिक अधिकारों तथा उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए था, स्वतन्त्रता के लिए नहीं। डॉ. एम.एस. जैन ने उचित ही लिखा है, ”स्वतंत्रता संघर्ष केवल बाह्य नियंत्रण के विरुद्ध ही नहीं होता, बल्कि निरंकुश सत्ता के विरुद्ध संघर्ष भी इसी श्रेणी में आते हैं।“ चूंकि रियासती जनता दोहरी गुलामी झेल रही थी, अतः उसके लिए संवैधानिक अधिकारों की प्राप्ति तथा उत्तरदायी शासन की स्थापना से बढ़कर कोई बात नहीं हो सकती थी।

रियासतों में शासकों का रवैया इतना दमनकारी था कि खादी प्रचार, स्वदेशी शिक्षण संस्थाओं जैसे रचनात्मक कार्यों को भी अनेक रियासतों में प्रतिबन्धित कर दिया गया। सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध होने के कारण जन चेतना के व्यापक प्रसार में अड़चने आयी। ऐसी कठिन परिस्थितियों में लोक संस्थाओं की भागीदारी कठिन थी। जब तक कांग्रेस ने अपने हरिपुरा अधिवेशन (1938) में देशी रियासतों में चल रहे आन्दोलनों को समर्थन नहीं दिया, तब तक राजस्थान की रियासतों में जन आन्दोलन को व्यापक समर्थन नहीं मिल सका। हरिपुरा अधिवेशन के पश्चात् रियासती आन्दोलन राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ गया।

धीरे-धीरे राजस्थान आजादी के संघर्ष के अंतिम सोपान की ओर बढ़ रहा था। आजादी से पूर्व राजस्थान विभिन्न छोटी-छोटी रियासतों में बँटा हुआ था। 19 देशी रियासतों, 2 चीफ़शिपों एवं एक ब्रिटिश शासित प्रदेश में विभक्त था। इसमें सबसे बड़ी रियासत जोधपुर थीं और सबसे छोटी लावा चीफशिप थी। राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया समस्त भारतीय राज्यों के एकीकरण का हिस्सा थी। एकीकरण में सरदार वल्लभ भाई पटेल, वी.पी. मेनन सहित स्थानीय शासक, रियासतों के जननेता, जिनमें जयनारायण व्यास, माणिक्यलाल वर्मा, पं. हीरालाल शास्त्री, प्रेम नारायण माथुर, गोकुल भाई भट्ट आदि शामिल थे, की अहम् भूमिका रही। जनता रियासतों के प्रभाव से मुक्त होना चाहती थी क्योंकि वह उनके आतंक एवं अलोकतांत्रिक शासन से नाखुश थी। साथ ही, वह स्वयं को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ना चाहती थी। राजस्थान में संचालित राष्ट्रवादी गतिविधियों एवं विभिन्न कारकों ने मिलकर राजस्थान में एकता का सूत्रपात किया। फलतः 18 मार्च, 1948 से 1 नवम्बर, 1956 तक सात चरणों में राजस्थान का एकीकरण सम्पन्न हुआ। 30 मार्च, 1949 को वृहत राजस्थान का निर्माण हुआ, जिसकी राजधानी जयपुर बनायी गयी ओर पं. हीरालाल शास्त्री को नवनिर्मित राज्य का प्रथम मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया।

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हाईकू प्रयास



मैने पहली बार हाईकू करने का प्रयास किया है पता नही कितना सफ़ल हूँ, यह तो आपकी प्रतिक्रियाओ से ही पता चलेगा। :)

गंगा की धार
करती है प्रहार
कि मै गंगा हूं ।


गंगा का पानी,
है कहनी कहानी
मै पावन हू।


शब्‍दो की भाषा
लाती है नई आशा

कि उठ जाओ।


माता का प्यार
दिलाता है दुलार
कि मै पुत्र हूँ


पिता का डांट
देता है एहसास
कि वे पिता है।


दीदी की राखी
एहसास दिलाती
कि मै भाई हूँ।


भाई का साथ
दिलाता है विश्वास
कि मै साथ हूँ


मेरा अनुज
दिलाता एह्सास
कि मै बड़ा हूँ।


पत्नी का प्यार
कहता है कि अब
तुम मेरे हो।


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सास को लेकर भागा दामाद बेटी(पत्नी) पहुची कानून के पास



कहते हैं इश्क पर कोई जोर नहीं चलता। यह कभी भी, कहीं भी और किसी से भी हो सकता है। इस बात को सच साबित कर दिखाया मध्य प्रदेश के एक दामाद और उसकी सास ने। इनके बीच ऐसा जबर्दस्त चक्कर चला कि सामाजिक मर्यादा को तिलांजलि दे दोनों घर से भाग निकले। यह दिलचस्प वाकया राज्य के सीहोर जिले में हुआ। कालापीपल गांव के निवासी पप्पू मालवीय की शादी पास के एक गांव की लड़की से हुई। शादी के बाद पप्पू अपने ससुराल में ही रहने लगा। इस बीच पप्पू और उसकी सास की आंखें चार हुई और कुछ ही दिनों के बाद दोनों भाग गए। फिलहाल, दोनों भोपाल में रह रहे हैं। लेकिन इस सबसे के बीच पप्पू की पत्नी की जिंदगी तबाह हो गई। वह अपने पति को वापस पाने के लिए दर दर की ठोकरें खा रही है। उसने इस मामले में जिले के परिवार परामर्श केंद्र का दरवाजा भी खटखटाया है। केंद्र के पहले बुलावे को तो पप्पू और उसकी सास ने नजरअंदाज कर दिया। दोनों दूसरे बुलावे पर बड़ी मुश्किल से पहुंचे, लेकिन उन्होंने एक दूसरे का साथ छोड़ने से साफ इनकार कर दिया। हालांकि, उन्होंने इस मुद्दे पर विचार के लिए कुछ समय मांगा है। केंद्र ने मामले की सुनवाई के लिए चार फरवरी की तिथि तय की है।


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हँसना भी जरूरी - भाग दो



यमराज जी एक आदमी को नरक में लेकर गए। आदमी ने देखा कि एक महात्मा जी अप्सरा के साथ डांस कर रहे थे।
आदमी ने यमराज जी से पुछा - इस महात्मा की सजा इतनी मजेदार क्यों है?
यमराज जी आदमी से कहा - यह महात्मा की नहीं अप्सरा की सजा है।

मिनी जोर-जोर से भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि हे भगवान मास्को को चीन की राजधानी बना दो।
उसके पापा ने जब यह सुना तब वह बोले- मिनी, यह क्या अनाप-शनाप प्रार्थना कर रही हो?
मिनी ने जवाब दिया- क्या बताऊं पापा,आज भूगोल के पेपर में गलती से मैंने मास्को को चीन की राजधानी लिख दिया है।

भिखारी ने एक आदमी से - साहब एक रुपया दे दो, कुछ खा लूंगा।
साहब, भिखारी से कहा - तुम्हें शर्म नहीं आती, सड़क पर खड़े होकर भीख मांग रहे हो।
भिखारी (खिसियाता हुआ)- तो क्या करूं साहब, भीख मांगने के लिए दफ्तर खोल लूं!
पुलिस की नौकरी के लिए सुधीर इंटरव्यू देने गया।
कप्तान (सुधीर से)- अगर बिना लाठी या गोली चलाए तुम्हे भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कहा जाए तो क्या करोगे?
सुधीर (कप्तान से)- मैं झोली फैलाकर चंदा मांगने लगूंगा।

नौकरानी (मालकिन से)- आप उदास क्यों हैं?
मालकिन (नौकरानी से)- तुम्हारे साहब अपने ऑफिस की टाइपिस्ट से प्यार करने लगे हैं।
नौकरानी- नहीं ऐसा नहीं हो सकता है यह बात आप मुझे जलाने के लिए कह रही हैं।
अध्यापक (एक छात्र के पिता से)- जी आपका बेटा कक्षा में सबसे कमजोर है।
पिता (अध्यापक से)- भगवान की दया से घर में दो-दो गाय हैं, घी दूध की भी कमी नहीं है। मालूम नहीं फिर भी यह क्यों कमजोर है।

पत्रकार नेता से)- अगर कोई आपकी पार्टी का आदमी किसी दूसरी पार्टी में चला जाए तो आप उसे क्या कहेंगे?
नेता पत्रकार से - हम उसे गद्दार कहेंगे।
पत्रकार नेता से - और अगर कोई दूसरी पार्टी का आदमी आपकी पार्टी में आ जाए तो?
नेता - हृदय परिवर्तन।

जेलर (कैदी से)- तुम किस अपराध के कारण जेल आए हो?
कैदी (जेलर से)- सरकार से कम्पटीशन हो गया था।
जेलर (कैदी से)- किस बात का?
कैदी (जेलर से)- नोट छापने का।

एक रिर्पोटर महोदय एक निशानेबाज का इंटरव्यू लेने पहुंचे। घर में घुसते ही वे चकित हो गए। दीवारों पर पेंसिल के छोटे-छोटे घेरे थे और उनके बीचों बीच गोलियों के निशान थे।
यह देखकर गदगद भाव से रिपोर्टर ने निशानेबाज से पूछा -आप महान हैं। आपका निशाना अचूक है। बताइए यह सब कैसे संभव हुआ?
इस पर निशानेबाज ने कहा- बहुत आसानी से साहब! पहले मैं दीवार पर गोली चलाता हूं। उसके बाद निशाने के इर्द गिर्द पेंसिल से घेरा बना देता हूं।

पति-पत्नी डेंटिस्ट के पास पहुंचे। पत्नी ने कहा, डॉक्टर साहब दांत निकलवाना हैं। जरा जल्दी में हूं। इसलिए बिना किसी पेन किलर का प्रयोग किए दांत को जल्द से जल्द उखाड़ डालिए।
डॉक्टर- अरे वाह ! आप तो बहुत बहादुर महिला हैं, दिखाइए तो जरा, कौन सा दांत निकलवाना है।
पत्नी-(पास बैठे पति से)- ए जी, जरा मुंह खोलो और डॉक्टर साहब को दांत दिखाओ।

पत्नी (गुस्से में)- आज तक तुमने अपनी जिंदगी में किया ही क्या है?
पति (गर्व से)- मैंने अपना जीवन खुद बनाया है।
पत्नी- लो, और मैं हूं कि अब तक ईश्वर को दोष दे रही थी।


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प्रेरक प्रसंग - एक वेश्या ने स्वामी विवेकानंद को कराया संन्यासी एहसास



आज स्वामी विवेकानंद की जयंती है, स्वामी विवेकानंद एक ऐसे व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे जिन्होंने मात्र 39 वर्ष के जीवन काल में देश के युवाओं तथा जन मानस में एक ऐसी मंत्र दीक्षा दी, कि पूरा देश आज उनका अनुसरण कर रहा है। स्वामी विवेकानन्द कोई दिव्यात्मा नहीं थे, किन्तु उन्होंने अपने गुणों के बल पर अपने आपको दिव्यात्मा की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। स्वामी विवेकानंद एक ऐसे संन्यासी का नाम जिनके अनुयायी देश ही नहीं, बल्कि दुनिया के हर कोने में नजर आते हैं और एक ऐसा संन्यासी जिनका एक वक्तव्य पूरी दुनिया को अपना कायल बनाने के लिए काफी होता था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि अपने ज्ञान के बल पर दुनिया का दिल जीतने वाले वही स्वामी विवेकानंद को एक बार एक वेश्या के आगे हार गए थे। एक वाक्या यह भी है कि स्वामी विवेकानंद का घर एक वेश्या मोहल्ले में था जिसके कारण विवेकानंद दो मील का चक्कर लगाकर घर पहुंचते थे।
स्वामी विवेकानंद, स्‍वामी विवेकानंद,बात उस समय की है जब स्वामी विवेकानंद जयपुर के पास एक छोटी-सी रियासत के मेहमान बने। कुछ दिन वहां रहने के बाद जब स्वामी जी के विदा लेने का समय आया तो रियासत के राजा ने उनके लिए एक स्वागत समारोह रखा। उस समारोह के लिए उसने बनारस से एक प्रसिद्ध वेश्या को बुलाया। वेश्या के भजन गाते समय उसके आंखों से आंसू बह रहे थे। उस वेश्या के भजन सुनकर स्वामी विवेकानंद बाहर से अंदर आ गए। जैसे ही स्वामी विवेकाकंद को इस बात की जानकारी मिली कि राजा ने स्वागत समारोह में एक वेश्या को बुलाया है तो वे संशय में पड़ गए। आखिर एक संन्यासी का वेश्या के समारोह में क्या काम, यह सोचकर उन्होंने समारोह में जाने से इनकार कर दिया और अपने कक्ष में बैठे रहे। जब यह खबर वेश्या तक पहुंची कि राजा ने जिस महान विभूति के स्वागत समारोह के लिए उसे बुलाया है, उसकी वजह से वह इस कार्यक्रम में भाग लेना ही नहीं चाहते तो वह काफी आहत हुई और उसने सूरदास का एक भजन, 'प्रभु जी मेरे अवगुण चित न धरो...' गाना शुरू किया।
स्वामी विवेकानंद, स्‍वामी विवेकानंद,

वेश्या ने जो भजन गाया, उसके भाव थे कि एक पारस पत्थर तो लोहे के हर टुकड़े को अपने स्पर्श से सोना बनाता है फिर चाहे वह लोहे का टुकड़ा पूजा घर में रखा हो या फिर कसाई के दरवाजे पर पड़ा हो। और अगर वह पारस ऐसा नहीं करता अर्थात पूजा घर वाले लोहे के टुकड़े और कसाई के दरवाजे पर पड़े लोहे के टुकड़े में फर्क कर सिर्फ पूजा घर वाले लोहे के टुकड़े को छूकर सोना बना दे और कसाई के दरवाजे पर पड़े लोहे के टुकड़े को नहीं तो वह पारस पत्थर असली नहीं है।स्वामी विवेकानंद ने वह भजन सुना और उस जगह पहुंच गए जहां वेश्या भजन गा रही थी। उन्होंने देखा कि वेश्या कि आंखों से झर झर आंसू बह रहे हैं। स्वामी विवेकानंद ने अपने एक संस्मरण में इस बात का उल्लेख किया है कि उस दिन उन्होंने पहली बार वेश्या को देखा था, लेकिन उनके मन में उसके लिए न कोई आकर्षण था और न ही विकर्षण। वास्तव में उन्हें तब पहली बार यह अनुभव हुआ था कि वे पूर्ण रूप से संन्यासी बन चुके हैं।

स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद, स्‍वामी विवेकानंद,अपने संस्मरण में उन्होंने यह भी लिखा है कि इसके पहले जब वे अपने घर से निकलते थे या कहीं से वापस अपने घर जाना होता था तो उन्हें दो मील का चक्कर लगाना पड़ता था, क्योंकि उनके घर के रास्ते में वेश्याओं का एक मोहल्ला पड़ता था और संन्यासी होने के कारण वहां से गुजरना वे अपने संन्यास धर्म के विरुद्ध समझते थे। लेकिन उस दिन राजा के स्वागत समारोह में उन्हें एहसास हुआ कि एक असली संन्यासी वही है जो वेश्याओं के मोहल्ले से भी गुजर जाए तो उसे कोई फर्क न पड़े।
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Thus Spake Swami Vivekananda


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आस्‍था की नगरी मे मौत का नर्तन



दिनांक 10/1/2007 को इलाहाबाद के दिल कहे जाने वाले सिविल लाइंस इलाके में बहुमंजिला इमारत ढह गई। इमारत के गिरते ही आस-पास के माहौल में हड़कंप मच गया। कुछ का कहना कि शायद कोई विमान आ कर गिरा है तो कोई सोच रहा था कि भूकंप आया है, तो कुछ व्यक्ति सोच रहे थे कि अर्ध कुम्भ के दौरान आतंकवादियों ने हमला कर दिया है। जितने मुँह उतनी बातें हो रही थी। पर बात कोई और थी, सिविल लाइन्‍स क्षेत्र की करोड़ों की जमीन का मामला था पांच मंजिले सिर्फ 1 माह में बनकर तैयार कर दी गई थी। प्रत्येक आठ दिनों में एक मंजिल का लेंटर डाला जा रहा था।

मामला पूरा का पूरा राजनीति व स्थानीय अधिकारियों की शह पर हो रहा था, इस जमीन पर निर्माण करने करने वाला बिल्‍डर जमील अहमद स्थानीय अधिकारियों के बीच जाना माना नाम है जिसके नाम से अधिकारी भी खौफ खाते है। वह पिछले एक दशक से इस प्रकार का अवैध कार्य कर रहा है, परंतु अधिकारियों के कान पर जूँ तक नहीं रेंग रही थी और जिसका परिणाम था कि इस बिल्डिंग का धराशाई होना। यह बिल्डर होने के साथ ही साथ सपा का नेता भी है, और अन्य दलों के नेताओं से भी मधुर सम्बन्ध भी है।

इस निर्माण के साथ साथ कई अन्य निर्माण भी वह करा रहा है, और वह करेली मोहल्ले मे लगभग 400 बीधे की कालोनी का भी निर्माण करा रहा था। पर आश्चर्य करने की बात यह है कि इलाहाबाद विकास प्राधिकरण (ADA) को इस कालोनी के निर्माण की जानकारी भी नहीं है।

इस हासदे की खबर पूरे महानगर मे महामारी की तरह फैल गई, स्‍थानीय लोग, संद्य के स्वयंसेवक, सेना तथा स्थानीय प्रशासन ने मौके पर फंसे लोगों को सुरक्षित निकालने का प्रयास किया। हर जुबान पर इस हादसे की चर्चा हो रही थी और बत्‍दुआ निकल रही थी कि इन दोषियों को नर्क भी न नसीब हो। स्‍थानीय प्रशासन ने मामले को भरसक दबाने का प्रयास किया कारण उत्तर प्रदेश के चुनाव भी हो सकते है। प्रशासन ने मात्र तीन लोगों की मरने की घोषणा कि जबकि प्रत्यक्ष दर्शी मजदूरों का कहना था कि लगभग 150 लोग कार्य कर रहे थे लगभग 80 के दबे होने की संभावना है। जिले के सबसे बड़े अस्पताल स्वरूपरानी मेडिकल कालेज मे न तो दवा उपलब्ध थी न तो पट्टी।

मजदूरों का कहना था कि रात 8 बजे से ही बिल्डिंग से चर्र चर्र की आवाज आ रही थी पर किसी ने ध्यान नही दिया जिसका परिणाम आज हमारे सामने है। अब प्रश्न उठता है कि क्या दस दोषियों को सजा मिल पाएगी या फिर सरकार इन्‍हे मौत के तांडव का लाइसेंस देती रहेगी। सम्बन्धित लेख के चित्र के लिये चूहे का खटका चापें करे अदिति पर जाइये


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कृपया पक्ष मे टिप्‍पड़ी करे अन्‍यथा न करें



नववर्ष के दिन मैने अमित जी के ब्लॉग एक लेख देखा, जिस पर उन्होंने कुछ बातो का उल्लेख किया था। मैने भी उनके इस लेख पर अपनी एक टिप्पणी प्रस्तुत की थी किन्तु वह माडरेशन की शिकार हो गई। कुछ अटपटा सा लगा कि मैंने ऐसा क्या लिख दिया कि वह पठनीय नही था। मैने उस टिप्पणी की कोई प्रति अपने पास सुरक्षित नहीं रखी थी, पर मुझे जहां तक याद है मै अक्षरस: बताने का प्रयास करूँगा।
 
मैंने जो कुछ भी टिप्पणी में लिखा वह निम्न है ----- 
 ‘अमित जी आपके दोस्त को पूरा ध्यान पूर्वक पढ़ लगा कि दिव्याभ जी ने जिन शब्दो का प्रयोग किया वह कदापि उचित नही था और मै इन शब्दों के प्रयोग की कढ़ी शब्‍दो मे निंदा करता हूँ। पर ध्यान देने योग्य यह भी है कि जैसा आपने कहा कि मै चिठ्ठाकार को ईमेल भेज रहे थे वह उनके पास गया तो गलती तो अपकी थी अगर आपने इसकी माफी मॉंग ली होती कि भूल से चला गया है तो बात वही खत्म हो जाती। और एक बात जब बात द्विपक्षीय हो रही हो तो उसे बहुपक्षीय बनने से स्थिति और खराब होती है। आपने जिस प्रकार दिव्याभ जी के ईमेल को सार्वजनिक किया वह ठीक नहीं था। कोशिश करनी चाहिये कि इस प्रकार के झंझटो से बचा जाय। मै एक बार फिर से किसी चिठ्ठाकार या किसी के प्रति इन प्रकार के शब्दों की निंदा करता हूँ।‘
मेरी पूरी टिप्पणी मेरे विवेकानुसार जो मैने लिखा था वह यही है, और इसमे क्या माडरेशन वाली बात थी जिसे माडरेशन का कोप भाजन का होना पड़ा और इसे प्रकाशित नहीं किया गया मुझे नही समझ मे आया, अगर अपने मन की ही टिप्पणी की इच्छा हो तो इस पर लिख दिया जाए कि केवल पक्ष में बोलने वाले ही टिप्पणी करे विपक्ष में लिखने वालों की टिप्पणियों को प्रकाशित नहीं किया जायेगा। तो मैं टिप्पणी करता न ही इस पोस्ट को लिखता। अब तो मै सोचने पर मजबूर हूँ कि माडरेशन वाली ब्लॉगों पर टिप्पणी करूँ भी कि नहीं। क्योंकि आधे घंटे-पन्द्रह मिनट बैठ कर टाइप करों और किसी को पसंद न आया तो टिप्पणी को कोप का भाजन बनना पड़े, आप सभी से माडरेशन वालों से निवेदन है कि आप अपने ब्लॉग पर नोटिस चस्पा कर दे कि आपको किस प्रकार की टिप्पणी की जाए ताकि भूलवश कोई आपके मन के विपरीत टिप्पणी न करे और टिप्पणीकार की करनी का परिणाम उसकी टिप्पणी को न भुगतना पडे।


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पर्यायवाची, विलोम या विपरीतार्थक अथवा प्रतिलोम शब्द एवं अनेकार्थक शब्द



पर्यायवाची, विलोम या विपरीतार्थक अथवा प्रतिलोम शब्द एवं अनेकार्थी शब्द
Synonyms, Antonyms or Antonyms or Antonyms and Synonyms

पर्यायवाची शब्द
जो शब्द अर्थ की दृष्टि से समान होते हैँ, वे पर्यायवाची शब्द कहलाते हैँ। हिन्दी भाषा मेँ प्रयुक्त होने वाले सभी शब्द अपना स्वतंत्र अर्थ रखते हैँ तथा कोई भी शब्द पूरी तरह से दूसरे शब्द का पर्याय नही होता, फिर भी कुछ समानता के आधार पर इन्हें पर्यायवाची मान लिया जाता है। परन्तु स्मरणीय बात यह है कि अर्थ मेँ समानता होते हुए भी पर्यायवाची शब्द प्रयोग मेँ सर्वथा एक–दूसरे का स्थान नहीं ले सकते। जैसे– मृतात्माओं के तर्पण के लिए जल शब्द का प्रयोग उपयुक्त है, पानी का नही। प्रत्येक पर्यायवाची शब्द का वाक्य प्रयोग के अनुसार ही उचित अर्थ बैठता है। अतः भावानुसार इन शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। पर्यायवाची शब्द गद्य या पद्य साहित्य को पुनरुक्ति दोष से ग्रसित होने से बचाते है।महत्वपूर्ण पर्यायवाची शब्द–
  1. अंधकार - तम, तिमिर, अँधेरा, अँधियारा, ध्वांत, तमिस्र, तमस।
  2. अंधा - नेत्रहीन, चक्षुहीन, विवेकशून्य, दृष्टिहीन।
  3. अहंकार - दर्प, दम्भ, अभिमान, घमण्ड, गर्व, मद।
  4. अतिथि - मेहमान, पाहुना, आगंतुक, अभ्यागत, बटाऊ।
  5. अग्नि - आग, अनल, पावक, वह्नि, ज्वाला, कृशानु, वैश्वानर, धनंजय, दहन, सर्वभक्षी, जातवेद, हुताशन, हव्यवान, ज्वलन, शिखा, वैसन्दर, रोहिताश्व, कृपीटयोनि, तनूनपात, शोचिष्केनश, उषर्बुध, आश्रयाश, वृहदभानु, वायुसख, चित्रभानु, विभावस्, शुचि, अप्पिन्त।
  6. अकाल - सूखा, दुर्भिक्ष, भुखमरी, कमी, काळ (राजस्थानी)।
  7. अध्यापक - गुरु, आचार्य, शिक्षक, प्रवक्ता, उपाध्याय।
  8. अमृत - सुधा, पीयूष, अमिय, सोम, सुरभोग, जीवनोदक, अमी, मधु, दिव्य पदार्थ।
  9. अनुपम - अनूप, अपूर्व, अतुल, अनोखा, अद्भुत, अनन्य, अद्वितीय, बेजोड़, बेमिसाल, अनूठा, निराला, अभूतपूर्व, विलक्षण।
  10. असुर - दैत्य, दानव, राक्षस, निशाचर, रजनीचर, दनुज, रात्रिचर, जातुधान, तमीचर, मायावी, सुरारि, निश्चिर, मनुजाद।
  11. अचल - अटल, अडिग, अविचल, स्थिर, दृढ़।
  12. अनाथ - यतीम, नाथहीन, बेसहारा, दीन, निराश्रित।
  13. अपमान - अनादर, बेइज्जती, अवमानना, निरादर, तिरस्कार।
  14. अभिजात - संभ्रान्त, कुलीन, श्रेष्ठ, योग्य।
  15. अभिप्राय - आशय, तात्पर्य, मतलब, अर्थ, मंशा, व्याख्या, भाष्य, टीकापिप्पणी।
  16. अरण्य - जंगल, अटवी, विपिन, कानन, वन, कान्तार, दावा, गहन, बीहड़, विटप।
  17. अजेय - अदम्य, अपराजेय, अपराजित, अजित।
  18. अन्य - पर, भिन्न, पृथक, और, दूसरा, अलग।
  19. अनुचर - भृत्य, किँकर, दास, परिचारक, सेवक।
  20. अनार - शुकप्रिय, रामबीज, दाड़िम।
  21. अर्जुन - पार्थ, धनंजय, सव्यसाची, गाण्डीवधारी।
  22. अक्षर - हरफ, ब्रह्म, अ आदि वर्ण, अविनाशी।
  23. अनाज - अन्न, धान्य, खाद्यान्न, शस्य, गल्ला।
  24. अधिकार - हक, स्वामित्व, स्वत्व, कब्जा, आधिपत्य।
  25. अनुमान - अंदाज, तखमीना, अटकल, कयास।
  26. अनुमति - इजाजत, आज्ञा, अनुज्ञा, मंजूरी, स्वीकृति।
  27. अप्सरा - देवांगना, सुरांगना, देवकन्या, सुखनिता, अरुणप्रिया।
  28. अवनति - अपकर्ष, ह्रास, गिराव, उतार।
  29. अशुद्ध - दूषित, अपवित्र, मलिन, गंदा, गलत।
  30. अस्त - ओझल, गायब, छिपना, तिरोहित।
  31. आँख - नेत्र, नयन, चक्षु, दृग, लोचन, अक्षि, नजर, दृष्टि, विलोचन।
  32. आँसू - अश्रु, नयनजल, नेत्रनीर, नैत्रज, दृगजल, दृगम्बु।
  33. आँधी - तूफान, चक्रवात, झंझावत, बवंडर।
  34. आँगन - अंगना, प्रांगण, बाखर, बगर, अजिर, बाड़ा।
  35. आकाश - नभ, अंबर, व्योम, गगन, अनंत, शून्य, तारापथ, अन्तरिक्ष, दुष्कर, आसमान, महानील, द्यौ, शून्यरव, दिव, अभ्र, सुखर्त्यन्, क्यित, विहायस, नाक, द्युस्।
  36. आम - आम्र, रसाल, सहकार, अमृतफल, अम्बु, सौरभ, मादक।
  37. आनन्द - आमोद, प्रमोद, प्रसन्नता, हर्ष, उल्लास, आह्लाद, मोद, मुद, खुशी, मजा, सुख, चैन, विहार।
  38. आन - प्रण, प्रतिज्ञा, हठ, शपथ, घोषणा, मर्यादा।
  39. आभूषण - जेवर, गहना, भूषण, आभरण, मंडन, अलंकार।
  40. आत्मा - चैतन्य, विभु, जीव, सर्वज्ञ, सर्वव्याप्त, देव, चेतनतत्त्व, अन्तःकरण।
  41. आज्ञा - आदेश, निदेश, हुक्म।
  42. आयु - उम्र, वय, अवस्था, जीवनकाल।
  43. आदर्श - मानक, प्रतिमान, नमूना, प्रतिरूप।
  44. आदि - प्रथम, आरम्भिक, पहला, अथ।
  45. आपत्ति - विपत्ति, आपदा, संकट, मुसीबत।
  46. आश्रय - अवलंब, सहारा, आधार, प्रश्रय, आसरा।
  47. आश्रम - कुटी, विहार, मठ, संघ, अखाड़ा।
  48. आचरण - व्यवहार, चाल–चलन, बरताव।
  49. आयुष्मान - चिरायु, दीर्घायु, चिरंजीव।
  50. इन्द्र - महेन्द्र, देवराज, देवेश, सुरपति, शचिपति, वासव, पुरन्दर, सुरेन्द्र, सुरेश, देवेन्द्र, मघवा, शक्र, पुरहूत, देवपति, उर्वशीनाथ, सुनासीर, वज्री, वृत्रहा, नाकपति, सलस्राक्ष।
  51. इच्छा - अभिलाषा, आकांक्षा, कामना, चाह, ईप्सा, मनोरथ, ईहा, स्पृहा, उत्कंठा, लालसा, वांछा, लिप्सा, काम, चाव।
  52. ईश्वर - परमात्मा, प्रभु, ईश, जगदीश, भगवान, परमेश्वर, जगदीश्वर, विधाता, दीनबन्धु, जगन्नाथ, हरि, राम, विश्वम्भर।
  53. ईर्ष्या - जलन, डाह, द्वेष, खार, रश्क, कुढ़न।
  54. ईनाम - उपहार, पुरस्कार, पारितोषिक, बख्शीश।
  55. ईमानदारी - सदाशयता, निष्कपटता, दयानतदारी।
  56. उपहास - मजाक, खिल्ली, परिहास, मखौल, हास, प्रहसन्न, हँसी, लास।
  57. उपवन - बाग, बगीचा, उद्यान, वाटिका, फुलवारी, गुलशन।
  58. उत्तम - श्रेष्ठ, उत्कृष्ट, प्रवर, प्रकृष्ट, बेहतरीन, अच्छा।
  59. उत्थान - उत्कर्ष, आरोह, चढ़ाव, उत्क्रमण, उन्नति, प्रगति, उन्नयन।
  60. उदाहरण - दृष्टांत, मिसाल, नजीर, नमूना।
  61. उपकार - भलाई, नेकी, हितसाधन, कल्याण, मदद, परोपकार।
  62. उत्सव - समारोह, पर्व, त्यौहार, जलसा, जश्न।
  63. उदय - प्रकट होना, आरोहण, चढ़ना।
  64. उदास - दुखी, रंजीदा, विरक्त, अनमना, अन्यमनस्क।
  65. उद्देश्य - लक्ष्य, ध्येय, हेतु, प्रयोजन।
  66. उद्यम - साहस, उद्योग, परिश्रम, व्यवसाय, धंधा, कार्य, व्यापार, कर्म, क्रिया।
  67. उपमा - तुलना, मिलान, सादृश्य, समानता।
  68. उदर - पेट, कुक्ष, जठर।
  69. ऊँट - उष्ट्र, क्रमलेक, मरुयान, लम्बोष्ठ, महाग्रीव।
  70. एकान्त - सूना, निर्जन, जनशून्य।
  71. ऐश्वर्य - वैभव, सम्पन्नता, समृद्धि, प्रभुत्व, ठाठ–बाट।
  72. ओझल - गायब, लुप्त, अदृश्य, अंतर्धान, तिरोभूत।
  73. ओस - तुषार, हिमकण, शबनम, हिमबिँदु।
  74. ओष्ठ - अधर, रदच्छद, लब, किनारा, होठ, ओँठ।
  75. कमल - नलिन, अरविन्द, उत्पल, राजीव, पद्म, पंकज, नीरज, सरोज, जलज, जलजात, वारिज, शतदल, अम्बुज, पुण्डरिक, अब्ज, सरसिज, इंदीवर, ताम्ररस, कंज, वनज, अम्भोज, सहस्रदल, पुष्कर, कुवलय, पङ्करुह, सरसीरुह, कोकनद।
  76. कल्पवृक्ष - देवदारु, सुरतरु, मन्दार, पारिजात, कल्पद्रुम, देववृक्ष, सुरद्रुम, कल्पतरु।
  77. कबूतर - कपोत, हारीत, परेवा, पारावत, रक्तलोचन।
  78. कर्ण - अंगराज, सूतपुत्र, सूर्यपुत्र, राधेय, कौन्तेय।
  79. करुणा - दया, प्रसाद, अनुग्रह, अनुकंपा, कृपा, मेहरबानी।
  80. कर्ज - ऋण, उधार, देनदारी, देयता।
  81. कलंक - लांछन, दोष, दाग, तोहमत, धब्बा, कालिख पोतना।
  82. कमर - कटि, श्रोणि, लंक, मध्यांग।
  83. कस्तूरी - मृगनाभि, मृगमद, मदलता।
  84. कवि - कल्पक, सृष्टा, काव्यकार, रचनाकार।
  85. कलश - घट, घड़ा, गागर, गगरी, मटका, घटिका, कुंभ, कुट।
  86. कपड़ा - वस्त्र, चीर, वसन, अंबर, पट, कर्पट, दुकूल, परिधान।
  87. कष्ट - दुःख, दर्द, पीड़ा, मुसीबत, व्यथा, कठिनाई, व्याधि, कलेश, विषाद, संताप, वेदना, यातना, यंत्रणा, पीर, भीर, संकट, शोक, श्वेद, क्षोम, उत्पीड़न।
  88. कामदेव - काम, अनंग, मदन, मनोज, मन्मथ, कन्दर्प, स्मर, रतिपति, पुष्पधन्वी, मयन, मीनकेतु, पंचशर, मकरध्वज, मनसिज, पुष्पशायक, पंचबाण, मनोभव, कुसुमायुध, मार, सारंग, दर्पक, शम्बरारि।
  89. कान - कर्ण, श्रवण, श्रवणेन्द्रिय, श्रोत, श्रुतिपुट, श्रुतिपटल।
  90. कान्ति - चमक, आभा, प्रभा, सुषमा, द्युति।
  91. किरण - रश्मि, कर, मरीचि, मयूख, अंशु, दीधिति, वसु, ज्योति, दीप्ति।
  92. किताब - पोथी, ग्रन्थ, पुस्तक, गुटका।
  93. किनारा - तट, तीर, कूल, पुलिन, पर्यंत, बेलातट।
  94. कुबेर - यक्षराज, धनाधिप, धनद, धनपति।
  95. कुत्ता - श्वान, शुनक, गंडक, कूकर, श्वजन।
  96. क्रूर - निष्ठुर, निर्मोही, बर्बर, नृशंस, निर्दयी।
  97. कृष्ण - श्याम, कन्हैया, वासुदेव, मोहन, राधास्वामी, नंदलाल, मुरलीधर, बनवारी, माधव, मधुसूदन, गिरिधर, गोपाल, गोपीवल्लभ, विश्वंभर, नटवर, गिरधारी, चतुर्भुज, नारायण, जनार्दन, पुरुषोत्तम, अच्युत, गरुड़ध्वज, कैटमारि, घनश्याम, चक्रपाणि, पद्मनाभ, राधापति, मुकुन्द, गोविन्द, केशव।
  98. कृतज्ञ - आभारी, उपकृत, अनुगृहीत, कृतार्थ, ऋणी।
  99. कृषक - किसान, हलवाहा, भूमिसुत, खेतिहर, कृषिजीवी, हलधर, अन्नदाता, भूमिपुत्र।
  100. क्रोध - गुस्सा, रीस, अमर्ष, रोष, शेष, कोप, कोह, प्रतिघात।
  101. केला - कदली, भानुफल, रंभा, गजवसा, कुंजरासरा, मोचा।
  102. केश - बाल, शिरोरुह, कच, कुंतल, पश्म, चिकुर, अलक।
  103. कोयल - पिक, कलकंठ, कोकिला, श्यामा, काकपाली, बसंतदूत, सारिका, कुहुकिनी, वनप्रिया, सारंग, कलापी, कोकिल, परभृत।
  104. कौआ - काक, वायस, पिशुन, करटक, काग।
  105. क्षमा - माफी, सहनशीलता, सहिष्णुता।
  106. खंभा - यूप, स्तंभ, खंभ, स्तूप।
  107. खल - अधम, दुष्ट, दुर्जन, धूर्त, कुटिल, नीच, पामर, पिशुन, निकृष्ट, शठ।
  108. खिड़की - गवाक्ष, झरोखा, बारी, वातायन, दरीचा।
  109. गंगा - देवनदी, मंदाकिनी, भगीरथी, विष्णुपदी, देवपगा, ध्रुवनंदा, सुरसरिता, देवनदी, जाह्नवी, त्रिपथगा, देवगंगा, सुरापगा, विपथगा, स्वर्गापगा, आपगा, सुरधनी, विवुधनदी, विवुधा, पुण्यतीया, नदीश्वरी, भीष्मसू।
  110. गणेश - विनायक, गजानन, गौरीनंदन, गणपति, गणनायक, शंकरसुवन, लम्बोदर, महाकाय, एकदन्त, गजवदन, मूषकवाहन, वक्रतुण्ड, विघ्ननाशक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, गणराज, भालचन्द्र, पार्वतीनंदन, सिद्धिसदन।
  111. गरुड़ - वैनतेय, खगकेतु, हरिवाहन, खगेश, पक्षिराज, उरगरिपु।
  112. गधा - गदहा, खर, गर्दभ, रासभ, वेशर, चक्रीवान, वैशाखनन्दन।
  113. गला - कण्ठ, ग्रीवा, शिरोधरा।
  114. गाय - गौ, गऊ, गैया, धेनु, सुरभी, गौरी, पयस्विनी, दौग्धी, भ्रदा, ऋषिभि, सुरभिवच्छा, माहेयी।
  115. ग्रीष्म - घाम, निदाघ, ताप, ऊष्मा, गर्मी, उष्ण।
  116. गीदड़ - शृगाल, सियार, जंबूक।
  117. गुलाब - शतपत्र, पाटल, वृत्तपुष्प, स्थलकमल।
  118. गुरु - शिक्षक, अध्यापक, आचार्य, अवबोधक।
  119. घर - गृह, सदन, गेह, भवन, धाम, निकेतन, निवास, आलय, आवास, निलय, मंदिर, मकान, आगार, निकेत, अयन, आयतन, शाला, ओक, सौध, केत।
  120. घृत - घी, नवनीत, अमृत, आज्य, हव्य, सर्पि।
  121. घोड़ा - घोटक, अश्व, तुरंग, हय, वाजि, सैन्धव, तुरंगम, बाजी, वाह, तरंग, रविपुत्र।
  122. घोड़ी - अश्विनी, वामी, प्रसू, प्रसूका।
  123. चंदन - मलय, मंगल्य, गंधराज।
  124. चन्द्रमा - चाँद, हिमांशु, इंदु, विधु, तारापति, चन्द्र, शशि, हिमकर, राकेश, रजनीश, निशानाथ, सोम, मयंक, सारंग, सुधाकर, कलानिधि, सुधांशु, निशाकर, शशांक, राकापति, मृगांक, औषधीश, द्विजराज, रजनीपति, क्षयनाथ, विश्व विलोचन, राकेन्दु, चन्द्रिकाकान्त, दधिसुत, हियभानु, हियवान, हियकर, मरीचिमाली, क्षयाकर, नक्षत्रेश।
  125. चतुर - कुशल, प्रवीण, निपुण, योग्य, पटु, नागर, होशियार, दक्ष, चालाक।
  126. चरण - पद, पग, पाँव, पैर, पाँव।
  127. चाँदनी - चन्द्रिका, कौमुदी, ज्योत्स्ना, चन्द्रमरीचि, उजियारी, अमला, जुन्हाई।
  128. चाँदी - रजत, रूपक, रूपा, रौप्य, कलधौत, जातरूप।
  129. चोर - धनक, रजनीचर, तस्कर, मौषक, कुंभिल।
  130. छल - कपट, छद्म, धोखा, व्याज, वंचना, प्रवंचना, ठगी।
  131. छिपकली - गोधिका, विषतूलिका, माणिक्य।
  132. जंगल - विपिन, कानन, वन, अरण्य, गहन, कांतार, बीहड़, विटप।।
  133. जल - नीर, सलिल, उदक, अम्बु, तोय, जीवन, वारि, पय, मेघपुष्प, पानी, वन जीवम, पुष्कर, सारंग, रस, पात, क्षीर, धनरस, वसु, अम्भ, शम्बर, अमृत, पानीय, अप।
  134. जन्म - उद्भव, उत्पति, आविर्भाव, पैदाइश।
  135. जहर - विष, गरल, हलाहल, कालकूट, गर।
  136. जवान - युवा, युवक, तरुण, किशोर।
  137. जीभ - जिह्वा, रसना, रसज्ञा, रसिका।
  138. जीव - प्राणी, प्राण, चैतन्य, जान।
  139. झरना - प्रपात, निर्झर, उत्स, स्रोता।
  140. झूठ - असत्य, मिथ्या, मृषा, अनृत।
  141. झोँपड़ी - कुंज, कुटिया, पर्णकुटी।
  142. तलवार - असि, चन्द्रहास, खड़्ग, कृपाण, करवाल, खंग।
  143. तरकस - तूणीर, निषंग।
  144. त्वचा - चर्म, चमड़ी, खाल, चाम।
  145. तालाब - सरोवर, जलाशय, सर, पुष्कर, पोखरा, जलवान, सरसी, तड़ाग, पद्माकर, हृद, कासार, पल्वल, पुष्पकरण, सरस, सरक, सरस्वत, सत्र, सारंग।
  146. तारा - उडु, नखत, नक्षत्र, तारक, तारिका, ऋक्ष, सितारा।
  147. तोता - शुक, कीर, सुआ, वक्रतुण्ड, दाड़िमप्रिय।
  148. थोड़ा - कम, जरा, स्वल्प, तनिक, न्यून, अल्प, किँचित, मामूली।
  149. दर्पण - शीशा, आरसी, आईना, मुकुर।
  150. दल - समूह, झुण्ड, झल, निकर, गण, तोम, वृन्द, पुंज।
  151. दरिद्र - गरीब, विपन्न, धनहीन, निर्धन, कंगाल।
  152. दाँत - दन्त, रद, दशन, रदन, द्विज, मुखक्षुर।
  153. दिन - वासर, वासक, दिवस, दिवा, अह्न, आह्न, अर्हि, अहः, वार।
  154. दुःख - पीड़ा, क्लेश, वेदना, यातना, खेद, कष्ट, व्यथा, शोक, यन्त्रणा, सन्ताप, संकट, श्वेद, क्षोभ, विषाद, उत्पीड़न, पीर, लेश।
  155. दुर्गा - चंडिका, भवानी, कुमारी, कल्याणी, महागौरी, कालिका, शिवा, चामुण्डा, चण्डी, सुभद्रा, कामाक्षी, काली, अम्बा, शेरावाली, ज्वाला, गौरी।
  156. दूध - क्षीर, पय, दुग्ध, गोरस, सरस।
  157. देवता - सुर, अजर, अमर, देव, विवुध, गोर्वाण, निर्जर, वसु, आदित्य, लेख, वृन्दारक, अजय, सुमना, अमर्त्य, त्रिदश, ऋभु, सुपर्वा, दिदिवेश, त्रिवौकस, आदितेय।
  158. देश - वतन, स्थान, मुल्क, क्षेत्र, झर्झरीक।
  159. दिव्य - अलौकिक, लोकोत्तर, लोकातीत।
  160. द्रौपदी - कृष्णा, पांचाली, याज्ञसेनी।
  161. धन - अर्थ, वित्त, सम्पत्ति, द्रव्य, सम्पदा, दौलत, मुद्रा, लक्ष्मी, श्री।
  162. धनुष - कोदण्ड, चाप, शरासन, कमान, धनु, विशिखासन।
  163. ध्वजा - ध्वज, निशान, केतु, पताका, झण्डा, वैजयन्ती।
  164. ध्वनि - आवाज, स्वर, शब्द, नाद, रव।
  165. धरती - पृथ्वी, उर्वि, वसुन्धरा, अचला, क्ष्मा, कु, भू, क्षोणी, विपुला, जगती, पुहिम, धरा, धरणी, रसा, मही, वसुमति, मेदिनी, गह्वरी, धात्री, क्षिति, भूमि, अनन्ता, अवनि, तृणधरी, धरित्र, रत्नगर्भा।
  166. नर - व्यक्ति, जन, मनुष्य, मनुज, आदमी, पुरुष, मानव, काम्य, सौम्य, नृ।
  167. नदी - निम्नगा, कूलकंषा, सरिता, सरि, धुनि, आपगा, सरित, नोचगा, तटिनी, प्रवाहिनी, शर्करी, निर्झरिणी, फूलंकषा, जलमाला, नद, तरंगिणी, रजवती, स्रोतस्विनी, शैवालिनी।
  168. नकुल - नेवला, महादेव, वंशरहित, युधिष्ठिर का भाई।
  169. नया - नूतन, नव, नवीन, नव्य।
  170. नश्वर - नाशवान, क्षणी, क्षणभंगुर, क्षणिक।
  171. नारद - ब्रह्मर्षि, देवर्षि, ब्रह्मापुत्र।
  172. नारी - महिला, वनिता, ललना, रमणी, स्त्री, कामिनी, औरत, अबला, तिय, भामा, काम्या, सोम्या, भामिनी, अंगना, कलत्र, तरुणी, त्रिया, प्रमदा, भात्रिनी, बारा, तन्वंगी।
  173. नाश - विनाश, ध्वंस, क्षय, तबाही, संहार, नष्ट।
  174. नाव - नौका, तरणी, जलयान, तरी, डोँगी, पोत, पतंग, नैया।
  175. निँदा - बुराई, अपयश, बदनामी, चुगली।
  176. नियति - प्रारब्ध, भाग्य, होनी, भावी, दैत्य, होनहार।
  177. निर्मल - स्वच्छ, शुद्ध, साफ, उज्ज्वल, पवित्र, पावन।
  178. नौकर - अनुचर, सेवक, किँकर, चाकर, भृत्य, परिचारक, दास।
  179. पंडित - विद्वान, कोविद, सुधी, मनीषी, बुध, प्राज्ञ, धीर, विचक्षण।
  180. पहाड़ - पर्वत, अचल, गिरि, नग, भूधर, महीधर, शैल, अद्रि, मेरु, धराधर, नाग, गोत्र, शिखरी, तुंग।
  181. पक्षी - द्विज, शकुनि, पतंग, अंडज, शकुन्त, चिड़िया, विहंगम, विहग, खग, नभचर, खेचर, पंछी, पखेरू, परिन्दा।
  182. पवन - अनिल, वात, वायु, बयार, समीर, हवा, मरुत, मारुत, प्रभंजन।
  183. पति - भर्ता, वल्लभ, स्वामी, बालम, अधिपति, भरतार, अधिईश, कान्त, नाथ, आर्यपुत्र, वर, प्राणाधार, प्राणेश, प्राणप्रिय।
  184. पत्नी - भार्या, दारा, सहधर्मिणी, वधु, गृहिणी, बहू, कलम, प्राणप्रिया, प्राणवल्लभा, तिय, वामा, वामांगीत्रिया, अर्द्धांगिनी, गृहिणी, कलत्र, कान्ता, अंगना।
  185. पथ - राह, रास्ता, मार्ग, बाट, पंथ।
  186. पराग - रज, पुष्परज, केशर, कुसुमरज।
  187. पत्ता - पर्ण, पल्लव, दल, किसलय, पत्र।
  188. प्रकाश - रोशनी, आलोक, उजाला, प्रभा, दीप्ति, छवि, ज्योति, चमक, विकास।
  189. पत्थर - पाषाण, शिला, पाहन, प्रस्तर, उपल।
  190. प्रातः - प्रभात, सुबह, अरुणोदय, उषाकाल, अहर्मुख, सवेरा।
  191. पान - ताम्बूल, नागरबेल, मुखमंडन, मुखभूषण।
  192. पाला - हिम, तुषार, नीहार, प्रालेय।
  193. पाप - अघ, पातक, दुष्कृत्य, अधर्म, अनाचार, अपकर्म, जुल्म, अनीत।
  194. पार्वती - गिरिजा, शैलजा, उमा, भवानी, शिवा, शिवानी, दुर्गा, अम्बिका, रुद्राणी, कात्यायिनी, गौरी, शंकरी, अपर्णा, गिरितनया, आर्या, मैनादुलारी।
  195. प्रेम - प्यार, प्रीति, अनुराग, राग, हेत, स्नेह, प्रणय।
  196. पिता - जनक, तात, पितृ, बाप, प्रसवी, पितु, पालक, बप्पा।
  197. पुत्र - बेटा, आत्मज, सुत, वत्स, तनुज, तनय, नंदन, लाल, लड़का, पूत, सुवन।
  198. पुत्री - बेटी, आत्मजा, तनुजा, सुता, तनया, दुहिता, नन्दिनी, लड़की।
  199. पेड़ - विटप, द्रुम, तरु, वृक्ष, पादप, रूख, शारणी, भूरुह, शाखी।
  200. प्यास - पिपासा, तृषा, तृष्णा, तिषा, तिष, पिष।
  201. प्रसन्न - खुश, हर्षित, प्रसादपूर्ण, आनन्दित।
  202. फूल - कुसुम, सुमन, पुष्प, मंजरी, प्रसून, फलपिता, पुहुप, लतांत, प्रसूमन।
  203. बलराम - हलधर, मूसली, रेवतीरमण, हली।
  204. बसंत - ऋतुराज, माधव, कुसुमाकर, मधुऋतु, मधुमास, मधु।
  205. बहिन - सहोदरा, भगिनी, सहगर्भिणी, बान्धवी।
  206. ब्रह्मा - अज, विधि, विधाता, सृष्टा, प्रजापति, चतुरानन, चतुर्मुख, नाभिज, सदानन्द, विरंचि, आत्मभू, स्वयंभू, पद्मयोनि, हिरण्यगर्भ, लोकेश, सृष्टा, अब्जयोनी, कमलासन, गिरापति, रजोमूर्ति, हंसवाहन, धाता।
  207. बन्दर - वानर, मर्कट, शाखामृग, हरि, लंगूर, कपि, कीश।
  208. बर्फ - तुषार, हिम, तुहिन, नीहार।
  209. ब्राह्मण - द्विज, विप्र, अग्रजन्मा।
  210. ब्याह - शादी, विवाह, परिणय, पाणिग्रहण।
  211. बाघ - व्याघ्र, शार्दूल, चित्रक, चीता।
  212. बाज - श्येन, शशदिन, कपोतारि।
  213. बाण - तीर, शायक, शिलीमुख, नाराच, शर, विशिख, कलाप, आशुग।
  214. बालू - रेत, बालुका, सैकत।
  215. बादल - पयोद, वारिद, जलद, नीरद, तोयद, अम्बुद, मेघ, पयोधर, जलधर, अब्द, बलाहक, कन्द, अभ्र, घन, पर्जन्य, वारिवाह, तड़ित्वान, सारंग, जीयूत, घुख।
  216. बालक - शिशु, बच्चा, शावक।
  217. बिजली - शम्पा, शतह्रदा, ह्रादिनी, ऐरावती, क्षणप्रिया, तड़ित, सौदामिनी, विद्युत, चंचला, चपला, दामिनी, बिज्जु, बिजुरी, अशनि, क्षणप्रभा।
  218. बिल्ली - मार्जारी, विलास, विड़ाल।
  219. बुद्धि - मति, मेधा, धी, मनीषा, प्रज्ञा, अक्ल, विवेक।
  220. बैल - वृषभ, वृष, ऋषभ, नंदी, शिखी।
  221. भय - त्रास, डर, आतंक, भीति।
  222. भैँस - महिषी, कासरी, सैरिभी, लुलापा।
  223. भ्राता - भाई, बान्धव, सगर्भा, सहोदर, भातृ, तात, बन्धु।
  224. भाग्य - ललाट, तकदीर, भाग, अंक, भाल, किस्मत।
  225. भालू - रीछ, जंबू, ऋक्ष्य।
  226. भिखारी - भिक्षुक, याचक, मँगता, मँगन, भिक्षोपजीवी।
  227. भौँरा - मधुप, भ्रमर, अलि, मधुकर, षटपद, भृंग, चंचरीक, शिलीमुख, मिलिँद, मारिन्द, मधुलोभी, मकरन्द, द्विरेफ, मधुवत, मधुसिँह।
  228. मक्खन - नवनीत, लौनी, माखन, दधिसार।
  229. मछली - मकर, शफरी, मीन, मत्स्य, झख, पाठीन, झष।
  230. मदिरा - दारू, शराब, सुरा, मद्य, मधु, वारुणी, कादम्बरी, माधव, हाला।
  231. मांस - आमिष, गोश्त, पलल, पिशित।
  232. माता - माँ, जननी, अम्बा, धात्री, प्रसू, अम्बिका, प्रसूता, प्रसविनी, प्रसवित्री, मैया, मात, अम्मा, जन्मदायिनी।
  233. मित्र - संगी, साथी, सहचर, दोस्त, सखा, सुहृद, मीत, मितवा, यार।
  234. मुख - मुँह, चेहरा, वदन, आनन।
  235. मुनि - साधु, महात्मा, संत, बैरागी, तापस, तपस्वी, संन्यासी।
  236. मुर्गा - कुक्कुट, ताम्रचूड़, उपाकर, अरुणशिखा।
  237. मूर्ख - मूढ़, अज्ञ, अज्ञानी, वालिश।
  238. मेँढक - मंडूक, दादुर, वर्षाभू, शातुर, दुर्दर, मण्डूक।
  239. मैना - सारिका, चित्रलोचना, कहहप्रिया, मधुरालय, सारी।
  240. मोती - मुक्ता, मौक्तिक, सीपज, शशिप्रभा।
  241. मोर - मयूर, केकी, शिखी, वर्हि, कलाधर, कलापी, कलकंठ, नीलकंठ, सारंग, भुजंगभुक्, शिखाबल, चन्द्रकी, मेघानन्दी, शिखण्डी, क्षितिपति, अधिपति।
  242. मृत्यु - मौत, निधन, देहान्त, प्राणान्त, मरना, निऋति, स्वर्गवास।
  243. मोक्ष - मुक्ति, निर्वाण, कैवल्य, अपवर्ग, अमृतपद।
  244. यमराज - यम, धर्मराज, हरि, जीवनपति, सूर्यपुत्र।
  245. यमुना - कृष्णा, कालिँदी, सूर्यजा, तरणिजा, तनूजा, अर्कजा, रवितनया, जमुना, श्यामा।
  246. युद्ध - रण, संग्राम, समर, लड़ाई, विग्रह, आहव, संख्य, संयुग, संगर।
  247. युवती - किशोरी, तरुणी, श्यामा।
  248. रक्त - खून, लहू, रुधिर, लोहित, शोणित।
  249. राम - रघुपति, सीतापति, रघुवर, राघव, दशरथनंदन, दशरथसुत, रघुकुलमणि, सियावर, जानकीवल्लभ, रघुकुलतिलक।
  250. रावण - दशानन, लंकापति, लंकेश, दशकंध, दशासन।
  251. राजा - नृप, महीप, नरेश, भूप, नरेन्द्र, भूपति, नृपति, अहिपति, महीपति, भूपाल, राव, अवनिपति, महीश, पार्थिव, महिपाल, अवनीश, क्षोणीव, क्षितिपति, अधिपति।
  252. राधा - वृषभानुजा, ब्रजरानी, कृष्णप्रिया, राधिका।
  253. रात्रि - रात, रजनी, निशा, क्षपा, वामा, रैन, यामिनी, शर्बरी, यामा, त्रिभामा, विभावरी, तमी, क्षणदा, तमिसा, राका, सारंग।
  254. रोगी - बीमार, अस्वस्थ, रुग्ण, व्याधिग्रस्त, रोगग्रस्त।
  255. लक्ष्मी - कमला, पद्मा, रमा, हरिप्रिया, श्री, इन्दिरा, पद्मासना, पद्मानना, लोकमाता, क्षारोदा, क्षीरोदतनया, समुद्रजा, भार्गवी, विष्णुवल्लभा, सिन्धुजा, विष्णुप्रिया, चपला, सिन्धुसुता।
  256. लक्ष्मण - लखन, सौमित्र, रामानुज, लषन, शेषावतार, मेघनादारि।
  257. लता - वेलि, वल्लरी, वीरुध, बेल।
  258. लहर - तरंग, ऊर्मि, वीचि।
  259. लोहा - अयस, लौह, सार।
  260. वर्ष - साल, बरस, अब्द, वत्सर।
  261. वर्षा - बरसात, पावस, बारिश, वर्षण, बरखा।
  262. वरुण - अम्बुपति, सागरेश, प्रचेता, समुद्रेश, पाशी।
  263. वात्सल्य - स्नेह, लाड प्यार, ममता, लालन, शिशु–प्रेम।
  264. विधवा - पतिहीना, अनाथा, राँड।
  265. विष्णु - नारायण, केशव, उपेन्द्र, माधव, अच्युत, गरुड़ध्वज, हरि, चक्रपाणि, दामोदर, रमेश, मुरारी, जनार्दन, विश्वम्भर, मुकुन्द, ऋषिकेश, लक्ष्मीपति, विधु, विश्वरूप, जलशायी, सारंगाणि, बनमाली, पीताम्बर, चतुर्भुज, अधोक्षज, पुरुषोत्तम, श्रीपति, वासुदेव, मधुसूदन, मधुरिपु, पद्मनाभ, पुराणपुरुष, दैत्यारि, सनातन, शेषशायी।
  266. वियोग - बिछोह, विरह, जुदाई, विप्रलंब।
  267. वीर्य - शुक्र, बीज, जीवन।
  268. शब्द - ध्वनि, रव, नाद, निनाद, स्वर।
  269. शत्रु - रिपु, बैरी, विपक्षी, अरि, अराति, दुश्मन, विरोधी, द्वेषी, अमित्र।
  270. शरीर - देह, तन, काया, कलेवर, वपु, गात, विग्रह, तनु, घट, बदन, अवयव, अंगी, गति, काय।
  271. शहद - मधु, मकरंद, पुष्परस, पुष्पासव।
  272. शत्रुघ्न - रिपुसूदन, शत्रुहन, शत्रुहन्ता।
  273. श्वेत - शुभ्र, ध्वल, सफेद, शुक्ल, वलक्ष, अमल, दीप्त, उज्ज्वल, सित।
  274. शिकार - आखेट, मृगया, अहेर।
  275. शिकारी - बहेलिया, अहेरी, व्याध, लुब्धक।
  276. शिष्ट - सभ्य, सुशील, सुसंस्कृत, विनीत।
  277. शिव - रुद्र, नीलकंठ, अग्निकेतु, शम्भु, शम्भू, ईश, चन्द्रशेखर, शूली, महेश्वरी, शर्व, शव, भूतेश, पिनाकी, उग्र, कपर्दी, श्रीकंठ, शितिकंठ, वामदेव, विरुपाक्ष, विलोचन, कृशानुरेत, सर्वज्ञ, धूजर्टि, उमापति, पंचानन, ऋतुध्वंसी, स्मरहर, मदनारि, अहिर्बूध्न्य, महानट, गौरीपति, कापालिक, दिगम्बर, गुड़ाकेश, चन्द्रापीड़, श्मशानेश्वर, वृषांक, अंगीरागुरु, अंतक, अंडधर, अंबरीश, अकंप, अक्षतवीर्य, अक्षमाली, अघोर, अचलेश्वर, अजातारि, अज्ञेय, अतीन्द्रिय, अत्रि, अनघ, अनिरुद्ध, अनेकलोचन, अपानिधि, अभिराम, अभीरु, अभदन, अमृतेश्वर, अमोघ, अरिदम, अरिष्टनेमि, अर्धेश्वर, अर्धनारीश्वर, अर्हत, अष्टमूर्ति, अस्थिमाली, आत्रेय, आशुतोष, इंदुभूषण, इंदुशेखर, इकंग, ईशान, ईश्वर, उन्मत्तवेष, उमाकांत, उमानाथ, उमेश, उमापति, उरगभूषण, ऊर्ध्वरेता, ऋतुध्वज, एकनयन, एकपाद, एकलिंग, एकाक्ष, कपालपाणि, कमंडलुधर, कलाधर, कल्पवृक्ष, कामरिपु, कामारि, कामेश्वर, कालकंठ, कालभैरव, काशीनाथ, कृत्तिवासा, केदारनाथ, कैलाशनाथ, क्रतुध्वसी, क्षमाचार, गंगाधर, गणनाथ, गणेश्वर, गरलधर, गिरिजापति, गिरीश, गोनर्द, चंद्रेश्वर, चंद्रमौलि, चीरवासा, जगदीश, जटाधर, जटाशंकर, जमदग्नि, ज्योतिर्मय, तरस्वी, तारकेश्वर, तीव्रानंद, त्रिचक्षु, त्रिधामा, त्रिपुरारि, त्रियंबक, त्रिलोकेश, त्र्यंबक, दक्षारि, नंदिकेश्वर, नंदीश्वर, नटराज, नटेश्वर, नागभूषण, निरंजन, नीलकंठ, नीरज, परमेश्वर, पूर्णेश्वर, पिनाकपाणि, पिंगलाक्ष, पुरंदर, पशुपतिनाथ, प्रथमेश्वर, प्रभाकर, प्रलयंकर, भोलेनाथ, बैजनाथ, भगाली, भद्र, भस्मशायी, भालचंद्र, भुवनेश, भूतनाथ, भूतमहेश्वर, भोलानाथ, मंगलेश, महाकांत, महाकाल, महादेव, महारुद्र, महार्णव, महालिंग, महेश, महेश्वर, मृत्युंजय, यजंत, योगेश्वर, लोहिताश्व, विधेश, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, विषकंठ, विषपायी, वृषकेतु, वैद्यनाथ, शशांक, शेखर, शशिधर, शारंगपाणि, शिवशंभु, सतीश, सर्वलोकेश्वर, सर्वेश्वर, सहस्रभुज, साँब, सारंग, सिद्धनाथ, सिद्धीश्वर, सुदर्शन, सुरर्षभ, सुरेश, सोम, सृत्वा, हर-हर महादेव, हरिशर, हिरण्य, हुत।
  278. शेषनाग - अहीश, धरणीधर, सहस्रासन, फणीश।
  279. षडयंत्र - कुचक्र, दुरभिसंधि, अभिसंधि, साजिश, जाल।
  280. संध्या - सायंकाल, गोधूलि, निशारंभ, दिनांत, दिवावसान, पितृप्रसू, प्रदोष, सायम्।
  281. संसार - जग, जगत्, भव, विश्व, जगती, दुनिया, लोक, संसृति।
  282. समुद्र - जलधि, सिंधु, सागर, रत्नाकर, उदधि, नदीश, पारावार, वारिधि, पयोधि, अर्णव, नीरनिधि, तोयधि, वननिधि, वारीश, कंपति।
  283. स्वर्ग - सुरलोक, देवलोक, परमधाम, त्रिदिव, दयुलोक, बैकुंठ, गोलोक, परलोक, नाक, द्यौ, इन्द्रलोक, दिव।
  284. सरस्वती - भाषा, वाणी, वागीश्वरी, इला, विधात्री, भारती, शारदा, वीणाधारिणी, वाक्, गिरा, वीणापाणि, वाग्देवी, वीणावादिनी, ब्राह्मी, वाचा, गिरा, वागीश, महाश्वेता, श्री, ईश्वरी, संध्येश्वरी।
  285. सखी - सहेली, सजनी, आली, सैरन्ध्री।
  286. स्तन - उरोज, थन, कुच, वक्षोज, पयोधर।
  287. स्वामी - ईश, पति, नाथ, साँई, अधिप, प्रभु।
  288. साँप - सर्प, नाग, अहि, व्याल, भुजंग, विषधर, उरग, पन्नग, फणी, चक्षुश्रुवा, श्वसनोत्सुक, पवनासन, फणधर।
  289. सिँह - केसरी, शेर, महावीर, हरि, मृगपति, वनराज, शार्दूल, नाहर, सारंग, मृगराज, मृगेन्द्र, पंचमुख, हर्यक्ष, पञ्चास्य, पारीन्द्र, श्वेतपिंगल, कण्ठीरख, पंचशिख, भीमविक्रम, केशी, मृगारि, कव्याद, नखी, विक्रान्त, दीप्तपिँगल, पुण्डरिक, पंचानन।
  290. सीता - जानकी, भूमिजा, वैदेही, रामप्रिया, अयोनिज, जनकसुता, जनकदुलारी, सिया।
  291. सुगन्ध - खुशबू, सुरभि, सौरभ, सुवास, तर्पण, सुगन्धि, मदगंध, सुवास, महक।
  292. सुन्दर - रुचिर, चारु, सुहावन, सौम्य, मोहक, रमणीय, ललित, चित्ताकर्षक, ललाम, कमनीय, रम्य, कलित, मंजुल, मनोज, मनभावन।
  293. सुन्दरता - लावण्य, सौम्यता, रमणीयता, शोभा, स्त्री, कमनीयता, चारुता, रुचिरता, छवि, कांति, रम्यता, सौन्दर्य, छटा, सुषमा।
  294. सूर्य - रवि, सूरज, दिनकर, प्रभाकर, आदित्य, दिनेश, भास्कर, दिवाकर, मार्तण्ड, अंशुमाली, दिननाथ, अर्क, तमरि, भूषण, तरणि, पतंग, मित्र, भानू, सविता, छायानाथ, मरीची, दिवसाधिप, विवस्वान, विभावसु, अम्बर, मणि, खग, गभास्तिमान, हिरण्यगर्भ, नक्षमाधिपति, सूर, वीरोचन, पूषण, अर्यमा, चक्रबन्धु, कमलबन्धु, हरि, सप्ताश्व, द्वादशात्मा, ऊष्मरश्मि, असुर, विकर्तन, गृहपति, सहस्रांशु, पद्माक्ष, तेजोराशि, महातेज, तमिस्रहा, जगच्चक्षु, प्रद्योतन, खद्योत, सारंग, मित्र।
  295. सेना - कटक, सैन्यदल, फौज, वाहिनी।
  296. सोना - हाटक, कनक, सुवर्ण, कंचन, हेम, कुन्दन, हिरण्य, स्वर्ण, चामीकर, तामरस।
  297. हंस - मराल, चक्रंग, सूर्य, आत्मा, मानसौक, कलकंठ, मितपक्ष, कारण्डव।
  298. हनुमान - कपीश, अंजनि पुत्र, पवनसुत, मारुति नंदन, मारुत, बजरंगबली, महावीर।
  299. हरिण - मृग, कुरंग, चमरी, सारंग, कृष्णसार, तृनजीवी।
  300. हाथ - कर, हस्त, पाणि, बाहु, भुजा, भुज।
  301. हाथी - गज, हस्ती, द्विप, वारण, वसुन्दर, करी, कुन्जर, दंती, कुम्भी, वितुण्डा, मतंग, नाग, द्विरद, सिन्धुर, गयन्द, कलभ, सारंग, मतगंज, मातंग, हरि, वज्रदन्ती, शुण्डाल।
  302. हिमालय - हिमगिरी, हिमाचल, गिरिराज, पर्वतराज, नगेश, नगाधिराज, हिमवान, हिमाद्रि, शैलराट।
  303. हृदय - छाती, वक्ष, वक्ष स्थल, हिय, उर, सीना।
  304. त्रुटि - गलती, कसर, कमी, भूल, संशय, अंगहीनता, प्रतिज्ञा–भंग।
विलोम शब्द या विपरीतार्थक अथवा प्रतिलोम शब्द
जो शब्द परस्पर विपरीत या विरोधी अर्थ प्रकट करते हैँ, उन्हें विलोम शब्द या विपरीतार्थक अथवा प्रतिलोम शब्द कहते हैँ। विलोम शब्दों के लिए निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिए –
  1. शब्द जिस स्तर का हो, उसका विलोम भी उसी स्तर का होना अति आवश्यक है। यदि शब्द तत्सम है तो विलोम भी तत्सम होगा, जैसे – हस्ति - हस्तिनी। यदि शब्द तद्भव है तो विलोम भी तद्भव होगा, जैसे – हाथी - हथिनी।
  2. संज्ञा का विपरीतार्थी शब्द संज्ञा तथा विशेषण के लिए विशेषण शब्द ही विलोम होगा। जैसे – अधिक - न्यून। अधिक का विलोम ‘कम’ नहीं होगा क्योंकि ‘कम’ शब्द उर्दू का है। कम का विलोम ज्यादा होगा।
महत्त्वपूर्ण विलोम शब्द :
  1. शब्द - विलोम शब्द
  2. अंत - आदि
  3. अंश - पूर्ण
  4. अंतर्मुखी - बहिर्मुखी
  5. अंतरंग - बहिरंग
  6. अति - अल्प
  7. अपना - पराया
  8. अपराजित - पराजित
  9. अर्वाचीन - प्राचीन
  10. अकाल - सुकाल
  11. अभिज्ञ - अनभिज्ञ
  12. अनन्त - अन्त, सान्त
  13. अज्ञ - विज्ञ
  14. अधिमूल्यन - अवमूल्यन
  15. अपराधी - निरपराधी
  16. अथ (प्रारम्भ) - इति (समाप्ति)
  17. अकर्मक - सकर्मक
  18. अमृत - विष
  19. अथाह - छिछला
  20. अवर - प्रवर
  21. अवतल - उत्तल
  22. अतिथि - आतिथेय
  23. अतिवृष्टि - अनावृष्टि
  24. अधोगति - ऊर्ध्वगति
  25. अघोष - सघोष
  26. अभियुक्त - अभियोगी
  27. अग्र - पश्च
  28. अत्यधिक - स्वल्प
  29. अनुकूल - प्रतिकूल
  30. अनुराग - विराग
  31. अनुरक्त - विरक्त
  32. अनुरूप - प्रतिरूप
  33. अनाहूत - आहूत
  34. अग्रज - अनुज
  35. अधम - उत्तम
  36. अपेक्षा - उपेक्षा
  37. अल्पज्ञ - बहुज्ञ
  38. अल्पायु - चिरायु/दीर्घायु
  39. अवनि - अंबर
  40. असीम - ससीम
  41. अनुनासिक - निरानुनासिक
  42. अभिजात - अकुलीन
  43. अनिवार्य - ऐच्छिक/वैकल्पिक
  44. अधुनातन - पुरातन
  45. अस्त्रीकरण - निरस्त्रीकरण
  46. आदि - अंत
  47. आविर्भाव - तिरोभाव
  48. आरोह - अवरोह
  49. आगमन - निर्गमन
  50. आस्तिक - नास्तिक
  51. आग्रह - दुराग्रह
  52. आधुनिक - प्राचीन
  53. आविर्भूत - तिरोभूत/तिरोहित
  54. आवर्तक - अनावर्तक
  55. आगामी - विगत
  56. आज्ञा - अवज्ञा
  57. आर्द्र - शुष्क
  58. आलस्य - उद्यम
  59. आकाश - पाताल
  60. आचार - अनाचार
  61. आत्मनिर्भर - परजीवी
  62. आद्य - अंत्य
  63. आध्यात्मिक - सांसारिक
  64. आनन्द - शोक
  65. आह्लाद - विषाद
  66. आभ्यंतर - बाह्य
  67. आकुंचन - प्रसारण
  68. आह्वान - विसर्जन
  69. आलोचना - प्रशंसा
  70. आकर्षण - विकर्षण
  71. आमिष - निरामिष
  72. आसक्त - अनासक्त
  73. आशीर्वाद - अभिशाप
  74. आशा - निराशा
  75. आर - पार
  76. आवृत्त - अनावृत्त
  77. आस्था - अनास्था
  78. आयात - निर्यात
  79. आदान - प्रदान
  80. आया - गया
  81. आय - व्यय
  82. आश्रित - अनाश्रित
  83. इहलोक - परलोक
  84. इष्ट - अनिष्ट
  85. इच्छा - अनिच्छा
  86. ईश्वर - अनीश्वर
  87. उत्थान - पतन
  88. उद्धत - विनीत
  89. उपस्थित - अनुपस्थित
  90. उत्कृष्ट - निकृष्ट
  91. उपकार - अपकार
  92. उत्कर्ष - अपकर्ष
  93. उन्मीलन (खिलना) - निमीलन
  94. उन्नति - अवनति
  95. उद्घाटन - समापन
  96. उन्मूलन - स्थापन/रोपण
  97. उन्मुख - विमुख
  98. उपमान - उपमेय
  99. उर्वर - ऊसर/अनुर्वर
  100. उत्पति - विनाश
  101. उत्तरायण - दक्षिणायन
  102. उत्तरार्द्ध - पूर्वार्ध
  103. उदयाचल - अस्ताचल
  104. उपमेय - अनुपमेय
  105. उपचार - अपचार
  106. उषा - संध्या
  107. उच्छ्वास - निःश्वास
  108. उज्ज्वल - धूमिल
  109. उत्तीर्ण - अनुत्तीर्ण
  110. उपार्जित - अनुपार्जित
  111. उल्लास - विषाद
  112. उपसर्ग - प्रत्यय
  113. उदार - अनुदार
  114. उद्भव - अवसान
  115. उपजाऊ - अनुपजाऊ
  116. उर्ध्व - अधर
  117. उधार - नकद
  118. उत्पादक - अनुत्पादक
  119. उपयोग - अनुपयोग/दुर्पयोग
  120. ऊपर - नीचे
  121. ऊँच - नीच
  122. ऋत - अनृत
  123. ऋण - उऋण
  124. ऋणी - धनी
  125. ऋजु - वक्र
  126. एक - अनेक
  127. एडी - चोटी
  128. एकता - अनेकता
  129. एकान्त - अनेकान्त
  130. एकाकी - समग्र
  131. एकार्थक - अनेकार्थक
  132. एकाधिकार - सर्वाधिकार
  133. ऐहिक - पारलौकिक
  134. ऐक्य - अनेक्य
  135. ऐश्वर्य - अनैश्वर्य
  136. औजस्वी - निस्तेज
  137. औचित्य - अनौचित्य
  138. औदार्य - अनौदार्य
  139. उपत्यका (पहाड़ के नीचे की समतल भूमि) - अधित्यका (पहाड़ के ऊपर की समतल भूमि)
  140. कटु - मधुर
  141. कदाचार - सदाचार
  142. कापुरुष - पुरुषार्थी
  143. कनिष्ठ - वरिष्ठ/ज्येष्ठ
  144. कठोर - मुलायम
  145. क्रय - विक्रय
  146. कल्याण - अकल्याण
  147. कायर - वीर
  148. कडुवा - मीठा
  149. कपूत - सपूत
  150. कपटी - निष्कपट
  151. कमजोर - बलवान
  152. कमी - वृद्धि, बेशी
  153. कर्कश - मधुर
  154. कलंकित - निष्कलंक
  155. कल्पित - यथार्थ
  156. कलुषित - निष्कलंक
  157. कसूरवार - बेकसूर
  158. कटुभाषी - मृदुभाषी
  159. काला - गोरा
  160. कुलदीप - कुलांगार
  161. कुमारी - विवाहिता
  162. क्रोध - शान्ति
  163. कोलाहल - नीरवता
  164. कर्मण्य - अकर्मण्य
  165. करणीय - अकरणीय
  166. कार्य - अकार्य
  167. कुपथ - सुपथ
  168. कुगति - सुगति
  169. कुमार्ग - सुमार्ग
  170. कुमति - सुमति
  171. कुरूप - सुरूप
  172. कृत्रिम - नैसर्गिक
  173. कृष्ण - शुक्ल
  174. कुलटा - पतिव्रता
  175. कृपा - कोप
  176. कृश - पुष्ट/स्थूल
  177. क्रिया - प्रतिक्रिया
  178. कीर्ति - अपकीर्ति
  179. कुख्यात - विख्यात
  180. कृपण - उदार
  181. कृतज्ञ - कृतघ्न
  182. कुटिल - सरल
  183. कोमल - कठोर
  184. क्षुण्ण - अक्षुण्ण
  185. क्षुद्र - विराट
  186. खंडन - मंडन
  187. खरा - खोटा
  188. खगोल - भूगोल
  189. खीझना - रीझना
  190. खुशी - गम
  191. खुशकिस्मत - बदकिस्मत
  192. खुशबू - बदबू
  193. खेद - प्रसन्नता
  194. गणतंत्र - राजतंत्र
  195. गंभीर - वाचाल/चंचल, चपल
  196. गरल - सुधा
  197. गरिमा - लघिमा
  198. गहरा - उथला
  199. गृहस्थ - संन्यासी
  200. ग्राम - नगर
  201. ग्राह्य - अग्राह्य/त्याज्य
  202. गुप्त - प्रकट
  203. गुरु - लघु
  204. गोचर - अगोचर
  205. गौरव - लाघव
  206. गौण - मुख्य
  207. गुण - अवगुण/दोष
  208. गर्मी - सर्दी
  209. गमन - आगमन
  210. घना - छितरा
  211. घात - प्रतिघात
  212. घृणा - प्रेम
  213. चंचल - स्थिर
  214. चपल - गंभीर
  215. चर - अचर
  216. चतुर - मूर्ख
  217. चढ़ाव - उतार
  218. चिँतित - निश्चिँत
  219. चिर - स्थिर
  220. चेतन - अचेतन/जड़
  221. चेतना - मूर्च्छा
  222. छली - निश्छल
  223. छाया - धूप
  224. जंगम - स्थावर
  225. जय - पराजय
  226. जन्म - मृत्यु
  227. जागरण - सुषुप्ति/निद्रा
  228. जाग्रत - सुषुप्त
  229. जटिल - सरल
  230. जल - थल
  231. जीत - हार
  232. जीवित - मृत
  233. जीव - जड़
  234. ज्योति - तम
  235. जीर्ण - अजीर्ण
  236. ज्येष्ठ - लघु
  237. ज्ञात - अज्ञात
  238. ज्ञान - अज्ञान
  239. ज्ञेय - अज्ञेय
  240. झूँठ - साँच
  241. झूठा - सच्चा
  242. झोँपड़ी - महल
  243. ठोस - द्रव/तरल
  244. ढ़ाल - चढ़ाई
  245. तटस्थ - पक्षपाती
  246. तर - शुष्क
  247. तरुण - वृद्ध
  248. तप्त - शीतल
  249. त्यक्त - गृहीत
  250. त्याज्य - ग्राह्य
  251. तामसिक - सात्विक
  252. तारीफ - बुराई
  253. तिमिर - प्रकाश
  254. तीव्र - मंद/मन्थर
  255. तुच्छ - महान
  256. तृष्णा - वितृष्णा
  257. तृषा - तृप्ति
  258. त्याग - भोग
  259. तीक्ष्ण - सरल
  260. थाह - अथाह
  261. थोक - खुदरा
  262. थोड़ा - बहुत
  263. दरिद्र - धनी
  264. दया - क्रूरता
  265. दक्षिण - उत्तर
  266. दाता - गृहीता, कृपण
  267. दिन - रात
  268. दिवा - रात्रि
  269. दीर्घ - लघु
  270. दीर्घकाय - लघुकाय
  271. दुर्गन्ध - सुगन्ध
  272. दृश्य - अदृश्य
  273. दुराचार - सदाचार
  274. दुर्जन - सज्जन
  275. दुरुपयोग - सदुपयोग
  276. दुराचारी - सदाचारी
  277. दुष्कर - सुकर
  278. दुष्प्राप्य - सुप्राप्य
  279. द्रुत - मंथर
  280. दूर - पास
  281. देव - दानव
  282. देनदार - लेनदार
  283. देशभक्त - देशद्रोही
  284. द्वेष - सद्भावना
  285. द्वैत - अद्वैत
  286. दिव्य - अदिव्य
  287. द्वन्द्व - निर्द्वन्द्व
  288. दुरात्मा - महात्मा
  289. दुःख - सुख
  290. दुर्गम - सुगम
  291. धर्म - अधर्म
  292. ध्वंस - निर्माण
  293. ध्वल - श्याम
  294. धरा - गगन
  295. धनात्मक - ऋणात्मक
  296. धीर - अधीर
  297. धीरज - उतावलापन
  298. धृष्ट - विनम्र
  299. धूप - छाँव
  300. नया - पुराना
  301. नश्वर - शाश्वत
  302. न्यून - अधिक
  303. नगर - ग्राम
  304. नवीन - प्राचीन
  305. नत - उन्नत
  306. नराधम - नरपुंगव
  307. नम्र - अनम्र
  308. नमकहराम - नमकहलाल
  309. निर्भीक - भीरु
  310. निरुद्देश्य - सोद्देश्य
  311. निर्मल - मलिन
  312. निषिद्ध - विहित
  313. निर्बल - सबल
  314. निर्लज्ज - सलज्ज
  315. निरर्थक - सार्थक
  316. निर्गुण - सगुण
  317. निराधार - साधार
  318. निराकार - साकार
  319. निँद्य - वंद्य
  320. निष्क्रिय - सक्रिय
  321. निन्दा - स्तुति
  322. निरपेक्ष - सापेक्ष
  323. निश्चल - चंचल
  324. निस्वार्थ - स्वार्थी
  325. नीरस - सरस
  326. नूतन - पुरातन
  327. नेकी - बदी
  328. नैतिक - अनैतिक
  329. निष्काम - सकाम
  330. नर - नारी
  331. निरक्षर - साक्षर
  332. पठित - अपठित
  333. परमार्थ - स्वार्थ
  334. पण्डित - मूर्ख
  335. परतंत्र - स्वतंत्र
  336. पवित्र - अपवित्र
  337. पराधीन - स्वाधीन
  338. परकीय - स्वकीय
  339. पहले - पीछे
  340. प्रधान - गौण
  341. प्रशंसा - निंदा
  342. प्रवृत्ति - निवृत्ति
  343. प्राकृतिक - अप्राकृतिक
  344. प्रत्यक्ष - परोक्ष/अप्रत्यक्ष
  345. परितोष - दंड
  346. पाश्चात्य - पौर्वात्य/पौरस्त्य
  347. प्रसारण - संकुचन
  348. पदोन्नत - पदावनत
  349. पाप - पुण्य
  350. पावन - अपावन
  351. पात्र - अपात्र
  352. पेय - अपेय
  353. पुरुष - स्त्री
  354. पूर्ण - अपूर्ण
  355. पाठ्य - अपाठ्य
  356. पदस्थ - अपदस्थ
  357. पक्ष - विपक्ष
  358. पल्लवन - संक्षेपण
  359. परिश्रम - विश्राम
  360. प्रलय - सृष्टि
  361. प्रश्न - उत्तर
  362. प्रगति - अवनति
  363. प्रथम - अंतिम
  364. प्रवेश - निकास
  365. प्रतीची - प्राची
  366. प्रफुल्ल - ग्लान
  367. प्रसाद - विषाद
  368. प्रज्ञ - मूढ़
  369. प्रारंभिक - अंतिम
  370. पार्थिव - अपार्थिव
  371. पालक - घालक/संहारक
  372. पापी - निष्पाप
  373. प्रीति - द्वेष
  374. पुरस्कृत - दंडित
  375. पुरोगामी - पश्चगामी
  376. पुष्ट - क्षीण
  377. पूर्णिमा - अमावस्या
  378. पूर्ववर्ती - परवर्ती
  379. प्रेम - घृणा
  380. प्रेषक - प्रापक
  381. पैना - भौथरा
  382. प्रोत्साहित - हतोत्साहित
  383. फूल - काँटा
  384. बहिष्कार - स्वीकार
  385. बद्ध - मुक्त
  386. बंधन - मुक्ति/मोक्ष
  387. बढ़िया - घटिया
  388. बलवान - कमजोर
  389. बंजर - उर्वर
  390. बलिष्ठ - दुर्बल
  391. बसंत - पतझड़
  392. बहादुर - डरपोक
  393. बर्बर - सभ्य
  394. बाढ़ - सूखा
  395. बाह्य - आंतरिक
  396. भद्र - अभद्र
  397. भलाई - बुराई
  398. भारी - हल्का
  399. भूत - भविष्य
  400. भोगी - योगी
  401. भ्रान्त - निभ्रांत
  402. भला - बुरा
  403. भौतिक - आध्यात्मिक
  404. भेद - अभेद
  405. भेद्य - अभेद्य
  406. ममत्व - परत्व
  407. मग्न - दुखी/ऊपर
  408. मंगल - अमंगल
  409. मसृण - रुक्ष
  410. मनुज - दनुज
  411. ममता - निष्ठुरता
  412. महीन - मोटा
  413. मत - विमत
  414. मति - कुमति
  415. मनुष्यता - पशुता
  416. मान - अपमान
  417. मित्र - शत्रु
  418. मितव्यय - अपव्यय
  419. मिलन - बिछोह
  420. मिथ्या - सत्य
  421. मुनाफा - घाटा
  422. मुख्य - गौण
  423. मूढ़ - ज्ञानी
  424. मूक - वाचाल
  425. मेहमान - मेज़बान
  426. मौखिक - लिखित
  427. मौन - मुखर, वाचाल
  428. मानवीय - अमानवीय
  429. मूल्यवान - मूल्यहीन
  430. यश - अपयश
  431. युगल - एकल
  432. युद्ध - शांति
  433. योग - वियोग
  434. यौवन - वार्धक्य
  435. रत - विरत
  436. रक्षण - भक्षण
  437. रक्षक - भक्षक
  438. रद्द - बहाल
  439. रचनात्मक - ध्वंसात्मक
  440. रसीला - नीरस
  441. रति - विरति
  442. राग - द्वेष, विराग
  443. राजा - रंक
  444. रिक्त - पूर्ण
  445. रीता - भरा
  446. रुचि - अरुचि
  447. रुग्ण - स्वस्थ
  448. रुदन - हास्य
  449. ललित - कुरूप
  450. लघु - विशाल/गुरु/दीर्घ
  451. लाभ - हानि
  452. लिप्त - निर्लिप्त
  453. लिखित - अलिखित
  454. लुप्त - व्यक्त
  455. लुभावना - घिनौना
  456. लोक - परलोक
  457. लोभ - त्याग
  458. लौकिक - अलौकिक
  459. वक्र - सरल
  460. वक्ता - श्रोता
  461. वर - वधू
  462. वफादार - बेवफा
  463. वरदान - अभिशाप
  464. व्यक्ति - समाज
  465. व्यक्तिगत - सामूहिक/समष्टिगत
  466. व्यष्टि - समष्टि
  467. व्यभिचारी - सदाचारी
  468. व्यर्थ - अव्यर्थ
  469. वन्य - पालतु
  470. वादी - प्रतिवादी
  471. वाकिफ - नावाकिफ
  472. व्यवस्था - अव्यवस्था
  473. विधवा - सधवा
  474. विभव - पराभव
  475. विश्लेषण - संश्लेषण
  476. विपदा - सम्पदा
  477. विधि - निषेध
  478. विस्तार - संक्षेप
  479. विकल - अविकल
  480. विज्ञ - अविज्ञ
  481. विजयी - परास्त
  482. विनीत - उद्धत
  483. विपति - सम्पत्ति
  484. विशेष/विशिष्ट - साधारण
  485. विराट - क्षुद्र
  486. विस्तृत - संक्षिप्त
  487. विरह - मिलन
  488. विकल्प - संकल्प
  489. विद्वान - मूर्ख
  490. विवादित - निर्विवाद
  491. विजेता - विजित
  492. वियोग - संयोग
  493. विदाई - स्वागत
  494. विपुल - अल्प
  495. विलास - तपस्या
  496. वेदना - आनन्द
  497. वैमनस्य - सौमनस्य
  498. वैतनिक - अवैतनिक
  499. शकुन - अपशकुन
  500. श्लील - अश्लील
  501. शत्रुता - मित्रता
  502. शयन - जागरण
  503. शर्मदार - बेशर्म
  504. शहरी - देहाती
  505. श्लाघा - निँदा
  506. श्वेत - श्याम
  507. शायद - अवश्य
  508. शासक - शासित
  509. शालीन - धृष्ट
  510. शान्त - अशान्त
  511. शिव - अशिव
  512. शीत - उष्ण
  513. शीर्ष - तल
  514. शिष्ट - अशिष्ट
  515. श्रीगणेश - इतिश्री
  516. शुभ - अशुभ
  517. शूरता - भीरुता
  518. शृंखलित - विशृंखलित
  519. शोहरत - बदनामी
  520. शोक - हर्ष
  521. शोषक - पोषक
  522. समर्थ - असमर्थ
  523. सूम - उदार
  524. सुबोध - दुर्बोध
  525. सन्देह - विश्वास
  526. सौभाग्य - दुर्भाग्य
  527. सम्पन्नता - विपन्नता
  528. सन्धि - विग्रह
  529. सम्भोग - विप्रलम्भ
  530. समास - व्यास
  531. स्थूल - सूक्ष्म
  532. सक्षम - अक्षम
  533. सजीव - निर्जीव
  534. सत्याग्रह - दुराग्रह
  535. सभ्य - असभ्य
  536. संघठन - विघटन
  537. सजल - निर्जल
  538. सत्य - असत्य
  539. संतोष - असंतोष
  540. सफलता - असफलता
  541. संकीर्ण - विस्तृत/विस्तीर्ण
  542. संन्यासी - गृहस्थ
  543. संयुक्त - वियुक्त
  544. संध्या - प्रातः
  545. सदाशय - दुराशय
  546. सत्कार - तिरस्कार
  547. समूल - निर्मूल
  548. सहज - कठिन
  549. सम - विषम
  550. सचेष्ट - निश्चेष्ट
  551. सघन - विरल
  552. स्मरण - विस्मरण
  553. स्मृत - विस्मृत
  554. स्वदेश - परदेश/विदेश
  555. साधर्म्य - वैधर्म्य
  556. साहचर्य - पृथक्करण
  557. सार - निस्सार
  558. सित - असित
  559. सुपुत्र - कुपुत्र
  560. सुखांत - दुखांत
  561. सुरीला - बेसुरा
  562. सृजन - संहार
  563. हरा - सूखा
  564. हर्ष - विषाद
  565. हृस्व - दीर्घ
  566. ह्रास - वृद्धि
  567. हिँसा - अहिंसा
  568. हित - अहित
  569. हेय - प्रेय
  570. होनी - अनहोनी
  571. क्षणिक - शाश्वत।

अनेकार्थक शब्द
‘अनेकार्थक’ शब्द का अभिप्राय है, किसी शब्द के एक से अधिक अर्थ होना। बहुत से शब्द ऐसे हैँ, जिनके एक से अधिक अर्थ होते हैँ। ऐसे शब्दोँ का अर्थ भिन्न–भिन्न प्रयोग के आधार पर या प्रसंगानुसार ही स्पष्ट होता है। भाषा सौष्ठव की दृष्टि से इनका बड़ा महत्त्व है। प्रमुख अनेकार्थक शब्द :
  1. अंक - संख्या के अंक, नाटक के अंक, गोद, अध्याय, परिच्छेद, चिह्न, भाग्य, स्थान, पत्रिका का नंबर।
  2. अंग - शरीर, शरीर का कोई अवयव, अंश, शाखा।
  3. अंचल - सिरा, प्रदेश, साड़ी का पल्लू।
  4. अंत - सिरा, समाप्ति, मृत्यु, भेद, रहस्य।
  5. अंबर - आकाश, वस्त्र, बादल, विशेष सुगंधित द्रव जो जलाया जाता है।
  6. अक्षर - नष्ट न होने वाला, अ, आ आदि वर्ण, ईश्वर, शिव, मोक्ष, ब्रह्म, धर्म, गगन, सत्य, जीव।
  7. अर्क - सूर्य, आक का पौधा, औषधियोँ का रस, काढ़ा, इन्द्र, स्फटिक, शराब।
  8. अकाल - दुर्भिक्ष, अभाव, असमय।
  9. अज - ब्रह्मा, बकरा, शिव, मेष राशि, जिसका जन्म न हो (ईश्वर)।
  10. अर्थ - धन, ऐश्वर्य, प्रयोजन, कारण, मतलब, अभिप्रा, हेतु (लिए)।
  11. अक्ष - धुरी, आँख, सूर्य, सर्प, रथ, मण्डल, ज्ञान, पहिया, कील।
  12. अजीत - अजेय, विष्णु, शिव, बुद्ध, एक विषैला मूषक, जैनियों के दूसरे तीर्थंकर।
  13. अतिथि - मेहमान, साधु, यात्री, अपरिचित व्यक्ति, अग्नि।
  14. अधर - निराधार, शून्य, निचला ओष्ठ, स्वर्ग, पाताल, मध्य, नीचा, पृथ्वी व आकाश के बीच का भाग।
  15. अध्यक्ष - विभाग का मुखिया, सभापति, इंचार्ज।
  16. अपवाद - निंदा, कलंक, नियम के बाहर।
  17. अपेक्षा - तुलना में, आशा, आवश्यकता, इच्छा।
  18. अमृत - जल, दूध, पारा, स्वर्ण, सुधा, मुक्ति, मृत्युरहित।
  19. अरुण - लाल, सूर्य, सूर्य का सारथी, सिँदूर, सोना।
  20. अरुणा - ऊषा, मजीठ, धुँधली, अतिविषा, इन्द्र, वारुणी।
  21. अनन्त - सीमारहित, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, शेषनाग, लक्ष्मण, बलराम, बाँह का आभूषण, आकाश, अन्तहीन।
  22. अग्र - आगे का, श्रेष्ठ, सिरा, पहले।
  23. अब्ज - शंख, कपूर, कमल, चन्द्रमा, पद्य, जल मेँ उत्पन्न।
  24. अमल - मलरहित, कार्यान्वयन, नशा-पानी।
  25. अवस्था - उम्र, दशा, स्थिति।
  26. आकर - खान, कोष, स्रोत।
  27. अशोक - शोकरहित, एक वृक्ष, सम्राट अशोक।
  28. आराम - बगीचा, विश्राम, सुविधा, राहत, रोग का दूर होना।
  29. आदर्श - योग्य, नमूना, उदाहरण।
  30. आम - सामान्य, एक फल, मामूली, सर्वसाधारण।
  31. आत्मा - बुद्धि, जीवात्मा, ब्रह्म, देह, पुत्र, वायु।
  32. आली - सखी, पंक्ति, रेखा।
  33. आतुर - विकल, रोगी, उत्सुक, अशक्त।
  34. इन्दु - चन्द्रमा, कपूर।
  35. ईश्वर - प्रभु, समर्थ, स्वामी, धनिक।
  36. उग्र - क्रूर, भयानक, कष्टदायक, तीव्र।
  37. उत्तर - जवाब, एक दिशा, बदला, पश्चाताप।
  38. उत्सर्ग - त्याग, दान, समाप्ति।
  39. उत्पात - शरारत, दंगा, हो-हल्ला।
  40. उपचार - उपाय, सेवा, इलाज, निदान।
  41. ऋण - कर्ज, दायित्व, उपकार, घटाना, एकता, घटाने का बूटी वाला पत्ता।
  42. कंटक - काँटा, विघ्न, कीलक।
  43. कंचन - सोना, काँच, निर्मल, धन-दौलत।
  44. कनक - स्वर्ण, धतूरा, गेहूँ, वृक्ष, पलाश (टेसू)।
  45. कन्या - कुमारी लड़की, पुत्री, एक राशि।
  46. कला - अंश, एक विषय, कुशलता, शोभा, तेज, युक्ति, गुण, ब्याज, चातुर्य, चाँद का सोलहवाँ अंश।
  47. कर - किरण, हाथ, सूंड, कार्यादेश, टैक्स।
  48. कल - मशीन, आराम, सुख, पुर्जा, मधुर ध्वनि, शान्ति, बीता हुआ दिन, आने वाला दिन।
  49. कक्ष - कांख, कमरा, कछौटा, सूखी घास, सूर्य की कक्षा।
  50. कर्त्ता - स्वामी, करने वाला, बनाने वाला, ग्रन्थ निर्माता, ईश्वर, पहला कारक, परिवार का मुखिया।
  51. कलम - लेखनी, कूँची, पेड़-पौधोँ की हरी लकड़ी, कनपटी के बाल।
  52. कलि - कलड, दुःख, पाप, चार युगों में चौथा युग।
  53. कशिपु - चटाई, बिछोना, तकिया, अन्न, वस्त्र, शंख।
  54. काल - समय, मृत्यु, यमराज, अकाल, मुहूर्त, अवसर, शिव, युग।
  55. काम - कार्य, नौकरी, सिलाई आदि धंधा, वासना, कामदेव, मतलब, कृति।
  56. किनारा - तट, सिरा, पार्श्व, हाशिया।
  57. कुल - वंश, जोड़, जाति, घर, गोत्र, सारा।
  58. कुशल - चतुर, सुखी, निपुण, सुरक्षित।
  59. कुंजर - हाथी, बाल।
  60. कूट - नीति, शिखर, श्रेणी, धनुष का सिरा।
  61. कोटि - करोड़, श्रेणी, धनुष का सिरा।
  62. कोष - खजाना, फूल का भीतरी भाग।
  63. क्षुद्र - नीच, कंजूस, छोटा, थोड़ा।
  64. खंड - टुकड़े करना, हिस्सोँ मेँ बाँटना, प्रत्याख्यान, विरोध।
  65. खग - पक्षी, बाण, देवता, चन्द्रमा, सूर्य, बादल।
  66. खर - गधा, तिनका, दुष्ट, एक राक्षस, तीक्ष्ण, धतूरा, दवा कूटने की खरल।
  67. खत - पत्र, लिखाई, कनपटी के बाल।
  68. खल - दुष्ट, चुगलखोर, खरल, तलछट, धतूरा।
  69. खेचर - पक्षी, देवता, ग्रह।
  70. गंदा - मैला, अश्लील, बुरा।
  71. गड - ओट, घेरा, टीला, अन्तर, खाई।
  72. गण - समूह, मनुष्य, भूत प्रेत, शिव के अनुचर, दूत, सेना।
  73. गति - चाल, हालत, मोक्ष, रफ्तार।
  74. गद्दी - छोटा गद्दा, महाजन की बैठकी, शिष्य परम्परा, सिंहासन।
  75. गहन - गहरा, घना, दुर्गम, जटिल।
  76. ग्रहण - लेना, सूर्य व चन्द ग्रहण।
  77. गुण - कौशल, शील, रस्सी, स्वभाव, विशेषता, हुनर, महत्त्व, तीन गुण (सत, तम व रज), प्रत्यंचा (धनुष की डोरी)।
  78. गुरु - शिक्षक, बड़ा, भारी, श्रेष्ठ, बृहस्पति, द्विमात्रिक अक्षर, पूज्य, आचार्य, अपने से बड़े।
  79. गौ - गाय, बैल, इन्द्रिय, भूमि, दिशा, बाण, वज्र, सरस्वती, आँख, स्वर्ग, सूर्य।
  80. घट - घड़ा, हृदय, कम, शरीर, कलश, कुंभ राशि।
  81. घर - मकान, कुल, कार्यालय, अंदर समाना।
  82. घन - बादल, भारी हथौड़ा, घना, छः सतही रेखागणितीय आकृति।
  83. घोड़ा - एक प्रसिद्ध चौपाया, बंदूक का खटका, शतरंज का एक मोहरा।
  84. चक्र - पहिया, भ्रम, कुम्हार का चाक, चकवा पक्षी, गोल घेरा।
  85. चपला - लक्ष्मी, बिजली, चंचल स्त्री।
  86. चश्मा - ऐनक, झरना, स्रोत।
  87. चीर - वस्त्र, रेखा, पट्टी, चीरना।
  88. छन्द - पद, विशेष, जल, अभिप्राय, वेद।
  89. छाप - छापे का चिन्ह, अँगूठी, प्रभाव।
  90. छावा - बच्चा, बेटा, हाथी का पट्ठा।
  91. जलज - कमल, मोती, मछली, चंद्रमा, शंख, शैवाल, काई, जलजीव।
  92. जलद - बादल, कपूर।
  93. जलधर - बादल, समुद्र, जलाशय।
  94. जवान - सैनिक, योद्धा, वीर, युवा।
  95. जनक - पिता, मिथिला के राजा, उत्पन्न करने वाला।
  96. जड़ - अचेतन, मूर्ख, वृक्ष का मूल, निर्जीव, मूल कारण।
  97. जीवन - जल, प्राण, आजीविका, पुत्र, वायु, जिन्दगी।
  98. टंक - तोल, छेनी, कुल्हाड़ी, तलवार, म्यान, पहाड़ी, ढाल, क्रोध, दर्प, सिक्का, दरार।
  99. ठस - बहुत कड़ा, भारी, घनी बुनावट वाला, कंजूस, आलसी, हठी।
  100. ठोकना - मारना, पीटना, प्रहार द्वारा भीतर धँसाना, मुकदमा दायर करना।
  101. डहकना - वंचना, छलना, धोखा खाना, फूट-फूटकर रोना, चिँघाड़ना, फैलना, छाना।
  102. ढर्रा - रूप, पद्धति, उपाय, व्यवहार।
  103. तंग - सँकरा, पहनने मेँ छोटा, परेशान।
  104. तंतु - सूत, धागा, रेशा, ग्राह, संतान, परमेश्वर।
  105. तट - किनारा, प्रदेश, खेत।
  106. तप - साधना, गर्मी, अग्नि, धूप।
  107. तम - अंधकार, पाप, अज्ञान, गुण, तमाल वृक्ष।
  108. तरंग - स्वर लहरी, लहर, उमंग।
  109. तरी - नौका, कपड़े का छोर, शोरबा, तर होने की अवस्था।
  110. तरणि - सूर्य, उद्धार।
  111. तात - पिता, भाई, बड़ा, पूज्य, प्यारा, मित्र, श्रद्धेय, गुरु।
  112. तारा - नक्षत्र, आँख की पुतली, बालि की पत्नी का नाम।
  113. तीर - किनारा, बाण, समीप, नदी तट।
  114. थाप - थप्पड़, आदर, सम्मान, मर्यादा, गौरव, चिह्न, तबले पर हथेली का आघात।
  115. दंड - सजा, डंडा, जहाज का मस्तूल, एक प्रकार की कसरत।
  116. दक्षिण - दाहिना, एक दिशा, उदार, सरल।
  117. दर्शन - देखना, नेत्र, आकृति, दर्पण, दर्शन शास्त्र।
  118. दल - समूह, सेना, पत्ता, हिस्सा, पक्ष, भाग, चिड़ी।
  119. दाम - धन, मूल्य, रस्सी।
  120. द्विज - पक्षी, ब्राह्मण, दाँत, चन्द्रमा, नख, केश, वैश्य, क्षत्रिय।
  121. धन - सम्पत्ति, स्त्री, भूमि, नायिका, जोड़ मिलाना।
  122. धर्म - स्वभाव, प्राकृतिक गुण, कर्तव्य, संप्रदाय।
  123. धनंजय - वृक्ष, अर्जुन, अग्नि, वायु।
  124. ध्रुव - अटल सत्य, ध्रुव भक्त, ध्रुव तारा।
  125. धारणा - विचार, बुद्धि, समझ, विश्वास, मन की स्थिरता।
  126. नग - पर्वत, नगीना, वृक्ष, संख्या।
  127. नाग - सर्प, हाथी, नागकेशर, एक जाति विशेष।
  128. नायक - नेता, मार्गदर्शक, सेनापति, एक जाति, नाटक या महाकाव्य का मुख्य पात्र।
  129. निऋति - विपत्ति, मृत्यु, क्षय, नाश।
  130. निर्वाण - मोक्ष, मृत्यु, शून्य, संयम।
  131. निशाचर - राक्षस, उल्लू, प्रेत।
  132. निशान - ध्वजा, चिह्न।
  133. पक्ष - पंख, पांख, सहाय, ओर, शरीर का अर्द्ध भाग।
  134. पट - वस्त्र, पर्दा, दरवाजा, स्थान, चित्र का आधार।
  135. पत्र - चिट्ठी, पत्ता, रथ, बाण, शंख, पुस्तक का पृष्ठ।
  136. पद्म - कमल, सर्प विशेष, एक संख्या।
  137. पद - पाँव, चिन्ह, विशेष, छन्द का चतुर्थाँश, विभक्ति युक्त शब्द, उपाधि, स्थान, ओहदा, कदम।
  138. पतंग - पतिँगा, सूर्य, पक्षी, नाव, उड़ाने का पतंग।
  139. पय - दूध, अन्न, जल।
  140. पयोधर - बादल, स्तन, पर्वत, गन्ना, तालाब।
  141. पानी - जल, मान, चमक, जीवन, लज्जा, वर्षा, स्वाभिमान।
  142. पुष्कर - तालाब, कमल, हाथी की सूँड, एक तीर्थ, पानी मद।
  143. पृष्ठ - पीठ, पीछे का भाग, पुस्तक का पेज।
  144. प्रत्यक्ष - आँखो के सामने, सीधा, साफ।
  145. प्रकृति - स्वभाव, वातावरण, मूलावस्था, कुदरत, धर्म, राज्य, खजाना, स्वामी, मित्र।
  146. प्रसाद - कृपा, अनुग्रह, हर्ष, नैवेद्य।
  147. प्राण - जीव, प्राणवायु, ईश्वर, ब्रह्म।
  148. फल - लाभ, खाने का फल, सेवा, नतीजा, लब्धि, पदार्थ, संतान, भाले की नोक।
  149. फेर - घुमाव, भ्रम, बदलना, गीदड़।
  150. बंधन - कैद, बाँध, पुल, बांधने की चीज।
  151. बट्टा - पत्थर का टुकड़ा, तौल का बाट, काट।
  152. बल - सेना, ताकत, बलराम, सहारा, चक्कर, मरोड़।
  153. बलि - बलिदान, उपहार, दानवीर राजा बलि, चढ़ावा, कर।
  154. बाजि - घोड़ा, बाण, पक्षी, चलने वाला।
  155. बाल - बालक, केश, बाला, दानेयुक्त डंठल (गेहूं की बाल)।
  156. बिजली - विद्युत, तड़ति, कान का एक गहना।
  157. बैठक - बैठने का कमरा, बैठने की मुद्रा, अधिवेशन, एक कसरत।
  158. भव - संसार, उत्पति, शंकर।
  159. भाग - हिस्सा, दौड़, बाँटना, एक गणितीय संक्रिया।
  160. भुजंग - सर्प, लम्पट, नाग।
  161. भुवन - संसार, जल, लोग, चौदह की संख्या।
  162. भृति - नौकरी, मजदूरी, वेतन, मूल्य, वृत्ति।
  163. भेद - रहस्य, प्रकार, भिन्नता, फूट, तात्पर्य, छेदन।
  164. मत - सम्मति, धर्म, वोट, नहीं, विचार, पंथ।
  165. मदार - मस्त हाथी, सुअर, कामुक।
  166. मधु - शहद, मदिरा, चैत्र मास, एक दैत्य, बसंत ऋतु, पराग, मीठा।
  167. मान - सम्मान, घमंड, रूठना, माप।
  168. मित्र - सूर्य, दोस्त, वरुण, अनुकूल, सहयोगी।
  169. मूक - गूँगा, चुप, विवश।
  170. मूल - जड़, कंद, पूँजी, एक नक्षत्र।
  171. मोह - प्यार, ममता, आसक्ति, मूर्च्छा, अज्ञान।
  172. यंत्र - उपकरण, बंदूक, बाजा, ताला।
  173. युक्त - जुड़ा हुआ, मिश्रित, नियुक्त, उचित।
  174. योग - मेल, लगाव, मन की साधना, ध्यान, शुभकाल, कुल जोड़।
  175. रंग - वर्ण, नाच-गान, शोभा, मनोविनोद, ढंग, रोब, युद्धक्षेत्र, प्रेम, चाल, दशा, रंगने की सामग्री, नृत्य या अभिनय का स्थान।
  176. रस - स्वाद, सार, अच्छा देखने से प्राप्त आनंद, प्रेम, सुख, पानी, शरबत।
  177. राग - प्रेम रंग, लाल रंग, संगीत की ध्वनि (राग)।
  178. राशि - समूह, मेष, कर्क, वृश्चिक आदि राशियाँ।
  179. रेणुका - धूल, पृथ्वी, परशुराम की माता।
  180. लक्ष्य - निशाना, उद्देश्य, लक्षणार्थ।
  181. लय - तान, लीन होना।
  182. लहर - तरंग, उमंग, झोंका, झूमना।
  183. लाल - बेटा, एक रंग, बहुमूल्य पत्थर, एक गोत्र।
  184. लावा - एक पक्षी, खील, लावा।
  185. वन - जंगल, जल, फूलों का गुच्छा।
  186. वर - अच्छा, वरदान, श्रेष्ठ, उत्तम, पति (दुल्हा)।
  187. वर्ण - अक्षर, रंग, रूप, भेद, चातुर्वर्ण्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र), जाति।
  188. वार - दिन, आक्रमण, प्रहार।
  189. वृत्ति - कार्य, स्वभाव, नीयत, व्यापार, जीविका, छात्रवृत्ति।
  190. विचार - ध्यान, राय, सलाह, मान्यता।
  191. विधि - तरीका, विधाता, कानून, व्यवस्था, युक्ति, राख, महिमामय, पुरुष।
  192. विवेचन - तर्क-वितर्क, परीक्षण, सत्-असत् विचार, निरुपण।
  193. व्योम - आकाश, बादल, जल।
  194. शक्ति - ताकत, अर्थवत्ता, अधिकार, प्रकृति, माया, दुर्गा।
  195. शिव - भाग्यशाली, महादेव, शृगाल, देव, मंगल।
  196. श्री - लक्ष्मी, सरस्वती, सम्पत्ति, शोभा, कान्ति, कोयल, आदर सूचक शब्द।
  197. संधि - जोड़, पारस्परिक, युगोँ का मिलन, निश्चित, सेँध, नाटक के कथांश, व्याकरण मेँ अक्षरोँ का मेल।
  198. संस्कार - परिशोधन, सफाई, धार्मिक कृत्य, आचार-व्यवहार, मन पर पड़ने वाले प्रभाव।
  199. सम्बन्ध - रिश्ता, जोड़, व्याकरण मेँ अक्षरोँ का मेल-जोल, छठा कारक।
  200. सर - अमृत, दूध, पानी, तालाब, गंगा, मधु, पृथ्वी।
  201. सरल - सीधा, ईमानदार, खरा, आसान।
  202. साधन - उपाय, उपकरण, सामान, पालन, कारण।
  203. सारंग - एक राग, मोर की बोली, चातक, मोर, सर्प, बादल, हिरन, पपीहा, राजहंस, हाथी, कोयल, कामदेव, सिंह, धनुष, भौंरा, मधुमक्खी, कमल, स्त्री, दीपक, वस्त्र, हवा, आँचल, घड़ा, कामदेव, पानी, राजसिँह, कपूर, वर्ण, भूषण, पुष्प, छत्र, शोभा, रात्रि, शंख, चन्दन।
  204. सार - तत्त्व, निष्कर्ष, रस, रसा, लाभ, धैर्य।
  205. सिरा - चोटी, अंत, समाप्ति।
  206. सुधा - अमृत, जल, दुग्ध।
  207. सुरभि - सुगंध, गौ, बसंत ऋतु।
  208. सूत - धागा, सारथी, गढ़ई।
  209. सूत्र - सूत, जनेऊ, गूढ़ अर्थ भरा संक्षिप्त वाक्य, संकेत, पता, नियम।
  210. सूर - सूर्य, वीर, अंधा, सूरदास।
  211. सैँधव - घोड़ा, नमक, सिन्धुवासी।
  212. हंस - जीव, सूर्य, श्वेत, योगी, मुक्त पुरुष, ईश्वर, सरोवर का पक्षी (मराल पक्षी)।
  213. हँसाई - हँसी, निन्दा, बदनामी, उपहास।
  214. हय - घोड़ा, इन्द्र।
  215. हरि - हाथी, विष्णु, इंद्र, पहाड़, सिंह, घोड़ा, सर्प, वानर, मेढक, यमराज, ब्रह्मा, शिव, कोयल, किरण, हंस, इन्द्र, वानर, कृष्ण, कामदेव, हवा, चन्द्रमा।
  216. हल - समाधान, खेत जोतने का यंत्र, व्यंजन वर्ण।
  217. हस्ती - हाथी, अस्तित्व, हैसियत।
  218. हित - भलाई, लोभ।
  219. हीन - दीन, रहित, निकृष्ट, थोड़ा।
  220. क्षेत्र - तीर्थ, खेत, शरीर, सदाव्रत देने का स्थान।
  221. त्रुटि - भूल, कमी, कसर, छोटी इलाइची का पौधा, संशय, काल का एक सूक्ष्म विभाग, अंगहीनता, प्रतिज्ञा-भंग, स्कंद की एक माता।


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स्‍वाकलन - 2006,



 पुराना वर्ष कैसे बीत चला पता ही नही चला, पुराने वर्ष मे जिन्दगी की वास्तविक हकीकत से रूबरू होने का मौका मिला। काफी कुछ सीखने का मित्र जैसे ब्लॉग बनाना, गुस्से मे कमी करना, संयम बनाये रखना और विवादों मे पढना किन्तु संयम व्यवहार के साथ। आज काफी कुद वास्तविकता को जाना क्‍या है वास्तविकता? जब आप अपने घर मे सबसे छोटे होते है तो निश्चित ही आपके व्यवहार मे बचकाना पन होना स्वाभाविक होता है, जैसा कि मै अदिति के जन्म के पहले मै 19 साल तक सबसे छोटे का अनुभव रहा है।

बीते साल मे की 31 तारीख को मैने कुछ और भी सीखा, हमेशा अडे़ रहने मे बडाई नही है। लोच का होना भी जरूरी होता है। संसार की कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो कठोर के साथ मजबूत भी हो और बिना लचीलेपन के कोई भी वस्‍तु की मजबूती क्षणिक होती है। यह मेरे लिये साल की कुछ उपलब्धियों मे एक है, सन 2006 ने मुझे स्नातक होने का रुतबा दिला दिया, अब मै भी गर्व से कह सकता हूँ कि मै ग्रेजुएट हूँ।

अपने विवेक के तराजू मे मै अपने आप को तौलता हूँ तो वर्ष 2006 मे मैने कुछ पाने के साथ कुछ खोया भी है, पहला कि मेरी बहुत इच्‍छा थी कि मै 2006 से ही विधि स्नातक मे प्रवेश लूँ किन्तु यह दिवा स्वप्न की भांति ही रह गया। इस बीते वर्ष ने एक और सीख दी कि अति आत्‍मविश्‍वास होना ठीक नहीं है। मुझे अपने आप पर पूरा भरोसा कि मै विधि प्रवेश परीक्षा पास कर लूँगा, इलाहाबाद मे विश्वविद्यालय के अतिरिक्त दो महाविद्यालय है जिसमें मैंने केवल विवि और एक महाविद्यालय मे ही परीक्षा दी थी, और पूरा विश्वास था कि मै क्वालीफाई कर जाएगा किंतु अपना सोचा कुछ होत नही हरि सोचा सब होय और ए‍डीसी महाविद्यालय की प्रवेश परीक्षा मे केवल 4 अंकों से चूक गया, अगर मैने सीएमपी मे भी पर्चा भर दिया होता तो ठीक होता किन्तु प्रवेश हो ही जायेगा, असत्‍य साबित हुआ। आरक्षण की मार भी लगी, एससी/एसटी के छात्रों का प्रवेश 105 अंक पर ही होगा। मेरा सोचना भी गलत न था क्योंकि जब 2003 मे स्नातक प्रवेश परीक्षा मे मेरा 15000 छात्रों मे 111वॉं स्थान था। कुछ मित्रों ने कहा कि एलएलबी की करनी है तो कही से भी कर लो पर मन नही मान रहा था कि जब संगम के तट पर (इलाहाबाद विश्‍वविघालय) हूँ तो स्‍नान के लिये कुनदी के तट पर जाऊँ। सो अब 2007 मे लक्ष्‍य है कि अपने लक्ष्‍य की प्राप्ति करूँ, जहॉं कमी रख गई है वह पूरी करूँ।

साल 2006 मे कुछ स्वभाव वश गलतियां हुई पर साल के अंतिम दिन तक मैने सुधार करने की कोशिश की और सफल रहा। एक विवाद जो लम्बे समय तक चला और चलता रहता किन्तु उसका भी अंत करके सुखद अहसास हो रहा है।

मैने व्यक्तिगत कारणों से दो बार न लिख पाने मे असमर्थता जाहिर किन्तु आज तक लिख रहा हूँ। एक चुनाव का मौसम भी आया, मै जान रहा था कि मेरी कोई सम्भावना नही है, कईयों श्रेष्ठों के बीच में अन्तिमवॉं स्थान दिया जाना तो वह भी मेरे लिये बहुत अधिक होता। संजय भैया ने चुनाव रिजल्ट की घोषणा कि मुझे मालूम था कि मेरा नाम न होगा। किंतु एक बार मन मे विश्वास तो था कि शायद कि मेरा नाम हो सकता है पर नहीं था, थोड़ा अटपटा सा लगा,मन मे कई विचार आये कि मेरे सभी चिट्ठी पर विचार नहीं किया गया होगा क्योंकि कविता अलग लिखता हूँ फोटो ब्लॉग अलग है और अब तो कविता भी शैलेश जी के कवि मित्र पर जा रही है, पर यह सब केवल मन को तसल्ली देने तक ही ठीक था क्योकि मै क्‍या था वह मै जानता था, पर जब बंधु गिरिराज न थे तो मै क्‍या हस्‍ती था जो आता। गिरिराज के नाम न होने से कुछ दुख तो जरूर हुआ क्योंकि उन्होंने कम समय जो भी लिखा वह कि ग्रन्‍थ से कम न था।

एक बार मन मे था कि चुनाव मे भाग ही न लिया जाये पर अपने आप को परखने के लिये यह जरूरी था पर यह कोई प्रतियोगिता थोड़े ही थी कि हम हार गये, हम सभी हार के भी जीत का का स्वाद ले रहे है। कोई भी जितेगा अपना ही जीतेगा और अपने वोट से जीतेगा। तो इसमें किस प्रकार का शोक करना। मुझे किसी से कोई शिकायत कभी नही रही है। हमेशा प्‍यार ही मिला प्‍यास के अलावा कुछ और न मिला, नहीं और कुछ भी मिला कोई मित्र मिला, तो काई भाई तो कोई अभिभावक तुल्य श्रेष्ठ जन तो कोई बहन। जब इतने लोग साथ हो तो कोई हार भी सकता है? आपके दिल मे सदा जगह बनी रहे यही मेरी वास्तविक जीत होगी।

आप सभी का स्नेह मुझे लगातार मिलता रहे यही अभिलाषा है। अपना नववर्ष तो विक्रमी संवत होता है किन्तु लोग यही मना रहे है, कोई गलत नहीं है पर अपने नव वर्ष को भी भूलना नहीं चाहिए। आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं



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