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नरेन्द्र दामोदर दास मोदी का मोदित्व
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मोदी एक मंत्र है
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परम पूज्यनीय बाला साहब देवरस
बाला साहब पूरा नाम मधुकर दत्तात्रेय देवरस था लेकिन सब उसे बालासाहब कह कर पुकारते थे। इसलिए सरसंघचालक बनने के बाद भी वे इसी नाम से जाने जाते रहे। बाला साहब देवरस जी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक थे। श्री बाला साहब देवरस का जन्म 11 दिसम्बर 1915 को नागपुर में हुआ था। उनका परिवार मूलरूप से मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के का रहने वाला था। उनके पिताजी नागपुर आकर बस जाने के कारण वे नागपुर के हो गए थे। उनकी सम्पूर्ण शिक्षा नागपुर में ही हुई। उनकी कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए उनके पिता जी उनको बड़ा अफसर बनाना चाहते थे। उनको अंग्रेजी स्कूल "न्यू इंगलिश स्कूल" मे पढने भेजा। लेकिन जब डा. हेडगेवार जी ने नागपुर में आरएसएस की स्थापना की, तो वे शाखा में जाने लगे किन्तु संघ की शाखा में जाने के बाद उनका अंग्रेजी से मोह भंग हो गया। अब उन्होने अपना लक्ष्य, सरकारी नौकरी के बजाय भारतीय प्राचीन ज्ञान को जन जन तक पहुंचाना बना लिया। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने संस्कृत और दर्शनशास्त्र विषय लेकर पढ़ाई शुरु की और 1935 मे उन्होंने संस्कृत और दर्शन शास्त्र में बी. ए. और 1937 में उन्होंने लॉ की डिग्री हासिल की। विधि स्नातक बनने के बाद बाला साहेब ने दो वर्ष तक एक 'अनाथ विद्यार्थी बस्ती' मे निशुल्क अध्यापन का कार्य किया। वे पढ़ाई करने के साथ साथ संघ से समय समय पर मिलने वाले दायित्वों को पूरी निष्ठा से निभाते रहे। उनकी क्षमताओं को देखते हुए "श्री गुरुजी" उनसे बहुत स्नेह करते थे।
बालासाहब संघ का केवल स्वयंसेवक ही नहीं बने बल्कि उन्होंने स्वयंसेवकत्व को अपने अंदर पूर्णत: आत्मसात् किया। बालासाहब बचपन से ही बहुत कुशाग्र बुद्धि के थे। अपना अधिकांश समय वे खेलकूद में बिताते थे, परन्तु परीक्षा में सदैव प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे। मेधावी होने के कारण उन्होंने कई बार स्वर्ण-पदक प्राप्त किए। लेकिन उन स्वर्ण पदकों से कोई आसक्ति नहीं थी। वे उनका सोना निकलवाकर गुरु दक्षिणा में अर्पित कर देते थे। वे पोस्ट ग्रेजुएट थे और वकालत की शिक्षा भी प्राप्त की थी, परन्तु कभी नौकरी अथवा वकालत नहीं की। हाँ! डॉक्टर जी के कहने पर कुछ समय तक वे एक अनाथ विद्यालय में समाजसेवी के रूप में पढ़ाते रहे। जब वे नागपुर की इतवारी शाखा के कार्यवाह थे, तब उनकी शाखा युवकों के चैतन्य व कर्तृत्व का प्रत्यक्ष प्रमाण थी। उनके नेतृत्व में शाखा में नित नये कार्यक्रमों का आयोजन होता था। शाखा क्षेत्र में रहने वाले प्रत्येक परिवार से संजीव संपर्क रखना, उन्हें संघ से परिचित कराना और वार्षिकोत्सव कर उसमें सबको आमंत्रित करना उन्होंने ही प्रारंभ किया था। इस पद्धति का अनुकरण बाद में नागपुर की अन्य शाखाओं ने भी किया। संघ शाखा में सीखी प्रत्येक बात को वह अपने व्यवहार में भी उतारते थे।
1935 की घटना है। उस समय तक संघ की शाखाएँ नागपुर व उसके आसपास, विदर्भ और महाराष्ट्र में कई स्थानों पर लगती थीं। डॉक्टर जी संघ शाखाओं का जाल देशभर में फैला हुआ देखना चाहते थे इसके लिए कार्यकर्ताओं को अलग-अलग प्रांतों के प्रमुख नगरों में जाने की आवश्यकता थी। डॉक्टर जी ने अपनी यह पीड़ा एक बैठक में प्रकट की। बैठक के पश्चात् रात को जब वे घर पहुँचे, तब यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि कई बिस्तरे उनके कमरे में रखे हुए हैं। उन्होंने बाहर बैठे हुए युवकों में से एक को अंदर बुला कर इसका कारण पूछा। तब उसने बताया कि संघ का कार्य करने के लिए अन्य प्रांतों में जाने के लिए वे आए हैं। इस टोली के नायक बालासाहब ही थे। जब वे नागपुर के नगर कार्यवाह थे, तब उन्होंने प्रत्यक्ष संघ कार्य के अतिरिक्त संघ कार्य को कार्यान्वित करने वाली विभिन्न संस्थाओं की ओर भी ध्यान देना प्रारंभ कर दिया था। आगे चल कर उन्हें नागपुर के कार्यवाह की जिम्मेदारी सौंपी गई। अपनी कुशलता के कारण तरुण स्वयंसेवकों को देशकार्य के लिए अपना जीवन समर्पित करने की प्रेरणा देने में वह सिद्धहस्त थे। नागपुर से अधिक से अधिक शिक्षित और योग्य तरुण संघ कार्य के लिए अन्य प्रान्त में जाएँ, इसके लिए वह हमेशा प्रयत्नशील रहा करते थे। यहाँ भी उन्होंने केवल दूसरों को प्रेरणा देने का ही काम नहीं किया। एक दिन वे डॉक्टर जी के सम्मुख उपस्थित हुए और कहा- 'क्या मैं केवल दूसरों को ही प्रचारक के रूप में काम करने के लिए भेजता रहूँगा? मैं भी संघ कार्य की अभिवृद्धि करने के लिए किसी दूसरे प्रांत में प्रचारक के रूप में जाना चाहता हूँ।' डॉक्टर जी ने उन्हें बंगाल प्रांत में जाने के लिऐ कहा। वे सीधे घर गए और पिताजी को प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद माँगा। एक पुत्र मुरलीधर (भाऊराव) पहले ही संघ कार्य के निमित्त लखनऊ जा चुका था। वह न घर आने का नाम लेता था और न ही नौकरी करने का। शादी-विवाह करने को भी तैयार नहीं था। अब दूसरा पुत्र भी बाहर जाने को उद्यत था। पिताजी खूब बिगड़े। उन्होंने संघ और बालासाहब को बहुत भला-बुरा कहा। बालासाहब ने फिर से उन्हें प्रणाम कर केवल इतना ही कहा- 'मेरा निर्णय पक्का है, मैं जा रहा हूँ।'
संघ की आर्थिक स्थिति प्रारंभ से ही कठिनाई में रही। इसलिए कोई भी योजना बनाते समय प्रमुख समस्या धन की रहती थी। संघ में आने वाले स्वयंसेवक भी सामान्य परिवारों से होते थे। अपना गणवेश बनवाना, प्रत्येक कार्यक्रम के लिए शुल्क देना, आने-जाने हेतु किराये की व्यवस्था आदि तो स्वयंसेवक स्वयं ही करता था। कुछ पैसे बचाकर वह गुरु दक्षिणा भी करता था। ऐसे में संघ का घोष खड़ा करना था। प्रश्न धन की व्यवस्था का था। बालासाहब ने उसके लिए भी युक्ति ढूंढ निकाली। नागपुर का बुटी परिवार जाना माना श्रीमंत परिवार था। उनके यहाँ धार्मिक उत्सवों पर ब्राह्मण भोजन हुआ करता था। संघ के स्वयंसेवक भी उस भोजन में शामिल होते थे। भोजन के अतिरिक्त सबको दक्षिणा भी मिलती थी। स्वयंसेवक दक्षिणा को घोष के लिए जमा करने लगे। इस प्रकार एकत्र धन-राशि से नागपुर शाखा के घोष की व्यवस्था की गई। बात उस समय की है जब बालासाहब सरकार्यवाह थे। नागपुर संघ कार्यालय के दूरभाष की घंटी बजने पर उन्होंने स्वयं उसे उठाया। दूसरी तरफ से एक शाखा का प्रमुख बोल रहा था। परन्तु जब उसने सुना कि दूरभाष पर स्वयं बालासाहब हैं, तो वह सकपका गया। उससे कुछ बोलते नहीं बन रहा था। बालासाहब ने उससे दूरभाष करने का कारण पूछा। उसने बड़े संकोच के साथ बताया कि ' आज हमारी शाखा का वनसंचार का कार्यक्रम है, लेकिन अभी तक कोई वक्ता निश्चित नहीं हो सका है।' यह सुनकर उन्होंने पूछा-'यदि मैं तुम्हारे कार्यक्रम में आऊँ तो चलेगा क्या?' यह उत्तर पाकर शाखा प्रमुख तो पानी-पानी हो गया परन्तु उसकी कठिनाई जानकर उन्होंने कहा-'कोई चिंता न करना, मैं तुम्हारे कार्यक्रम में पहुँच रहा हूँ।' सरकार्यवाह होते हुए भी वे एक उपशाखा के वनसंचार कार्यक्रम में शामिल होने के लिए तैयार थे क्योंकि प्रश्न एक शाखा प्रमुख की समस्या व समाधान का था।
यद्यपि श्रीगुरुजी सरसंघचालक बने, किन्तु उनका सदैव यह मानना रहा कि वास्तविक सरसंघचालक तो बालासाहब जी हैं। यह बात वे केवल अपने मन में ही नहीं रखते थे। समय-समय पर वे इस बात को सबके सामने प्रकट भी करते थे। वे कहा करते थे कि ' वे बालासाहब ही हैं जिनके कारण मैं सरसंघचालक जाना जाता हूँ।' श्रीगुरुजी कहा करते थे कि जिन्होंने पू. डॉ. हेडगेवार जी को नहीं देखा है अथवा जो डॉक्टर जी को समझना चाहते हैं, उन्हें बालासाहब की ओर देखना चाहिए। उनमें डॉक्टर जी के गुण पूरे-पूरे उतरे हैं। किसी पद की चाह उन्हें कभी नहीं रही। जब संघ के द्वितीय सरसंघचालक पूजनीय गुरुजी के देहावसान के पश्चात् उन्हें जानकारी मिली कि सरसंघचालक के नाते उन्हें नियुक्त किया गया है, तब उनकी पहली प्रतिक्रिया यह थी– 'श्री गुरुजी को तो मालूम था कि मेरी शारीरिक स्थिति ऐसी नहीं है कि मैं सरसंघचालक का महत्वपूर्ण दायित्व संभाल सकूं। मैं इस लायक कहाँ हूँ?' लेकिन एक बार दायित्व स्वीकार कर लेने के बाद उन्होंने अपने स्वास्थ्य की तनिक भी चिन्ता न करते हुए श्री गुरुजी की तरह ही प्रतिवर्ष दो बार संपूर्ण देश के प्रवास की प्रथा को यथावत् चलाया। वे कहा करते थे- मैं जानता हूँ कि मुझमें पूजनीय डॉक्टर जी और गुरुजी जैसी प्रतिभा नहीं है, लेकिन उन्होंने जिन देव-दुर्लभ कार्यकर्ताओं की टोली खड़ी की है, वह मुझे प्राप्त हुई है। उसके आधार पर मैं यह दायित्व निभा लूंगा।
सरसंघचालक बनने के बाद उन्होंने नये-नये कार्यक्रम चलाए। पंजाब के प्रवास में उन्होंने अनुभव किया कि अलगाव की भावना बढ़ रही है। नागपुर आते ही उन्होंने संस्कृत के विद्वान श्री श्रीधर भास्कर वर्णकर को बुला कर कहा कि-'सिख बंधुओं में अलगाव की भावना बढ़ रही है, एकात्मता की भावना को मजबूत करने के लिए हमें एकात्मता मंत्र की आवश्यकता है।' तब दर्शनों में उद्धृत ‘यं वेदिका मंत्र...' में परिवर्तन कर उसमें सिख गुरुओं, दक्षिण के संतों व अन्य महापुरुषों के नामों का समावेश कर नया मंत्र रचा गया। इसके पीछे मूल कल्पना बाबासाहेब आपटे की रही, पर इसे कार्यान्वित बाबा साहब ने ही करवाया। वही मंत्र आजकल शाखाओं में बोला जाता है। संघ में गीतों की प्रथा उन्होंने ही शुरू की। प्रारंभ में संघ के विजयादशमी व शस्त्र-पूजन उत्सव में तीन गीत गाये गये। उसका परिणाम स्वयंसेवकों व आमंत्रित सज्जनों पर बहुत ही प्रभावी रहा। तब से संघ कार्यक्रमों में गीत गाने का क्रम अनवरत रूप से चल पड़ा। उनका मानना था– गीत गाने में सरल और सुबोध हों ताकि वह सबको कठस्थ हो सके।
समरसता और समता के सीखे पाठ को उन्होंने अपने जीवन में भी उतारा और उसका प्रारंभ भी अपने घर से किया। उस काल की कल्पना की जा सकती है कि जब लोग सामान्य संबंध भी जाति पूछ कर ही रखा करते थे। बाला साहब के घर जब उनके स्वयंसेवक मित्रों की टोली आती थी, उसमें सब जाति और वर्ग के मित्र हुआ करते थे और बिना किसी भेदभाव के सबके साथ समान व्यवहार होता था। देवरस जी, छुआ-छूत के बहुत खिलाफ थे। वे कहते थे कि - अगर अस्पृश्यता पाप नहीं है तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है। संघ के स्वयंसेवकों को एक दुसरे नाम को पुकारते समय, जाति के बजाय नाम में "जी" लगाकर पुकारने की परम्परा उन्होंने ही शुरू की थी। 1965 में उन्हें सरकार्यवाह का दायित्व सौंपा गया जो 6 जून 1973 तक उनके पास रहा। श्रीगुरूजी के स्वर्गवास के बाद 6 जून 1973 को सरसंघचालक के दायित्व को ग्रहण किया। उनके कार्यकाल में संघ कार्य को नई दिशा मिली। उन्होने सेवाकार्य पर बल दिया परिणाम स्वरूप उत्तर पूर्वाचल के साथ साथ, देश के वनवासी क्षेत्रों के हजारों की संख्या में सेवा कार्य आरम्भ हुए। उनके कार्यकाल में संघ का सर्वाधिक विस्तार हुआ। उन दिनों इंदिरा गांधी का शासन था, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के बजाय स्वयं की मर्जी से शासन चलाने में विशवास रखती थीं। अपनी मर्जी से राज करने तथा विरोधियों का दमन करने के उद्देश्य से 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया। रष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसका बिरोध किया तो इंदिरा गांधी ने संघ पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया। स्वयंसेवको की धर पकड़ शुरु की। उनको निरपराध ही गिरफ्तार कर प्रताड़ित किया जाने लगा। इंदिरा गांधी ने संघ के हजारों स्वयंसेवको को "मीसा" तथा "डी आई आर" जैसे काले कानून के अन्तर्गत जेलों में डाल दिया। तब परम पूज्यनीय बाला साहब देवरस जी ने आपातकाल के विरोध में अखिल भारतीय स्टार विशाल सत्याग्रह प्रारम्भ कर दिया। उनके मार्गदर्शन में लाखों स्वयंसेवक इंदिरागांधी की निरंकुशता का बिरोध करने लगे। देवरस जी ने ही तत्कालीन "भारतीय जनसंघ" को अन्य कांग्रेस बिरोधी दलों को एक मंच पर लाने का निर्देश दिया। सभी कांग्रेस बिरोधी लोगों ने एक मच "जनता पार्टी" बनाकर 1977 में कांग्रेस को पराजित किया और जनता की सरकार बनाई। जनता पार्टी की सरकार बन्ने के बाद संघ से प्रतिबन्ध हटा। आपातकाल का बिरोध बहुत सारे गैर कांग्रेसी दलों ने किया था और सभी दलों के लोग जेल गए थे लेकिन कुल जेल जाने वाले सत्याग्रहियों में आधे से अधिक संख्या केवल अकेले "राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के" स्वयंसेवकों की थी। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेसी मूल के नेता संघ से नफरत करते रहे। जनता पार्टी की सरकार बनवाने ,में महत्वपूर्ण योगदान देने के बावजूद "जनता पार्टी" के कुछ नेता संघ से नफरत करते थे। जनसंघ के नेताओं पर दबाब बनाया जाने लगा कि - वे या तो संघ को छोड़ दें या जनता पार्टी को। जनसंघ के नेताओं ने भी स्पष्ट कर दिया कि - वे सत्ता छोड़ सकते हैं लेकिन संघ को किसी हाल में नहीं छोड़ सकते। इसी बीच चौधरी चरण सिंह जैसे कई नेता तो "जनता पार्टी" से गद्दारी कर इंदिरा गांधी से भी मिल गए थे। इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह को प्रधान मंत्री बनवाने का लालच देकर जनता पार्टी को तोड़ दिया। तब बाला साहब देवरस जी के आशीर्वाद से ही जनसंघ के नेताओं में जनता पार्टी से अलग होकर, भारतीय जनता पार्टी नाम की नई पार्टी का गठन किया।
बाला साहब देवरस जी हमेशा जाति पात को छोड़कर हिंदुत्व को मजबूत करने की प्रेरणा देते थे। उन्होंने निर्धन बस्तियों में सेवा कार्य चलाकर धर्मान्त्रण को रोकना का कार्य किया। उन्होंने प्रांत स्तर पर तथा व्यवसाय के स्तर पर अनेकों अनुशागिक संगठन गठित किये, जो स्थानीय उद्देश्यों तथा व्यवसाय हितों को पूरा करते हैं। जब वे सरसंघचालक थे उन्हें कई पुरस्कार मिले। उन्होंने उनसे प्राप्त राशि विभिन्न संस्थाओं को सौंप दी। समाज से प्राप्त सम्मान को भी उन्होंने समाज को ही अर्पित कर दिया। जीजामाता न्यास ने उन्हें 'जीजामाता पुरस्कार' से सम्मानित किया। उन्होंने उसी दिन 'राष्ट्र सेविका समिति' की प्रमुख संचालिका ऊषाताई को बुलवाया और पुरस्कार में मिली राशि यह कहते हुए उन्हें सौंप दी कि इस पर आपका अधिकार है। जब उन्हें तिलक स्मारक संस्था की ओर से 'लोकमान्य तिलक' पुरस्कार मिला, उसे भी उन्होंने अभावग्रस्त किसानों के बीच काम करने वाले न्यास को सौंप दिया। संघ की कार्यपद्धति और कार्यक्रमों की तरह ही संघ में चली आ रही कुछ प्रथाओं को भी उन्होंने एक नई दिशा दी। संघ उत्सवों व कार्यक्रमों में पूर्व के दोनों सरसंघचालकों के चित्र लगाने का चलन था। इसलिए बालासाहब के सरसंघचालक बनने के बाद स्वयंसेवकों की इच्छा थी कि अब उनका चित्र भी रखा जाना चाहिए। परन्तु बालासाहब ने उसे रोक दिया। लम्बी शारीरिक अस्वस्थता और पक्षाघात के बाद उन्हें प्रवास करना तो दूर सामान्य जीवन जीना भी दूभर हो गया था। तब बिना किसी हिचकिचाहट के सरसंघचालक के आजीवन पद पर बने रहने की प्रथा को तोड़ते हुए, उन्होंने अपने स्थान पर अनुभवी व लोकप्रिय सहयोगी श्री रज्जूभैया की नियुक्ति की। उनका कहना था कि संघ का कार्य एक स्थान पर बैठकर अथवा प्रत्यक्ष जाकर देखे बिना करना संभव नहीं है। मेरी आज की शारीरिक अवस्था के कारण वह संभव नहीं है।
मधुमेह के कारण स्वास्थ्य गिर जाने पर उन्होंने स्वयंसेवकों से परामर्श कर, अपने जीवनकाल में ही, अपना दायित्व प्रो। रज्जू भैया को सौंप दिया। 17 जून, 1996 को उन्होंने अंतिम श्वास ली। उनकी इच्छानुसार उनका दाह संस्कार रेशीमबाग की बजाय नागपुर में सामान्य नागरिकों के श्मशान घाट में किया गया। हिंदुत्व के उत्थान में उनका योगदान सदैव याद किया जाता रहेगा। उन्होंने जाति को मिटाकर हिन्दू समाज को संगठित करने का संकल्प लिया था। आपातकाल का विरोध और अयोध्या आंदोलन में उनका बहुत योगदान था।
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आपकी बात बिना काट-छॉंट
क्या कहते है लोग | हॉं या नही |
sumit jin hone mahatma gandhi ji ko rashtrapita swikaar nahi kiya hai unn logo ko india mein bhi rehne ka hukk nahi hai | हॉ |
ankita what type of poll is this?????? in Hrithik's commu???? | नही |
manu some people think that mahatma gandhi was a great person but i dont think so i think he was one of the most corrupted person he never did any good work for country if any person talks about freedom that is only because of our freedom fighters he contributed nothing for country;s freedom | नही |
Madhu if he was selfish in his approach just for the sake of his revenge against the british then it was for the good of our country. so it was accpetable. it's not that im a fan of him, i hate him for allowing Bhagath Singh die, but on the other hand he did so much good that we cant deny him as RASHTRA PITA.. | han |
The countdown All those people who think no, and have some stupid reason to back it up should realise that it is because of him that they are able to sit in comfort and post stupid comments like that. Perhaps you should spend less time on the computers and read some real history. What i dont understand is when the whole world accepts his greatness, why do some 'Indians' have a problem with him? | हॉ |
SUSHANT i cant say about gandhi ji i RESPECT SARDAR BHAGAT SINGH AND SWAMI VIVEKANAND | नही |
abhilasha yes he deserves 2 be our father....this is a really stupid thinking......he was a gr8 man.....what he did 4r our country noone can do 4r anyone......i respect bhagat singh also...but that doesnt stop me frm respecting the greatest man on earth mahatama gandhi,,,,,,, and u r absolutel right sumit...all those people hve no rights in stay in india...... | हॉ |
manu gandhi did nothing fr country what he did was only 4 himself he was selfish | nahi |
Ăρσجắℓÿþ§€ saala khud chala gaya aur jagte jagte DRY DAY karwa gaya haramkhor...... | नही |
Đэשı₤ Đě§ρεЯаđΏ i thinks this guy(Āρσجắℓÿþ§€) is right..!!! | नही |
ήДMяДŦД no ways.... he's the one who ruined ur country n is no way responsible for our freedom......... he's a bloody show of........ pakka polititian | नही |
anil He is responsible for what is happening in J & K WHY DID HE SAY " Jisko jana ha jaye... Jisko rehna hai rehey" partition (1947) should have been perfect. Bloody Hell!!! | नही |
Brajesh with we should not comment like this on a national leader like this he was a visionary he was alegend first collect some information and then post ur comments | हॉ |
Harshad आपाका कहना पूरी तरा सही नहीं हें. उनका सोचनेका तरीका थोडा गलत था. सामनेवाला मारे तो 1 बार चुप रहो पर वो 2 रिबार मारे तो उसे पलट के ऐसा मारो की दुबारा न मारे. | नही |
¸¸.•*´`*♥ॐAKashॐ Gandhi was a diplomat . but he was not so evil as written in the poll . One cannot ruin his whole life just for gaining popularity . yes he was a bit shrewd . but his ideas were great and they inspired the pple for struggle so he can be called The father of the nation proudly . | |
ÇrªŠŠ•™ he was a diplomat who was simply lucky,........... | नही |
Vishuganhiji ke baare main itna kuch likha gaya hain ki shayad unki asli tasveer kahin chup gayi hain- unhe ek mashia ka darja diya gaya hain. in sab baton se hat ker agar dekhe to mera man a hain ki wo ek adarsh insaan the- unki sadgi, unka vyabhar- sab acha tha- isliyein mere hisaab se wo ek mahan aadmi the.lekin aga hum politically dekhe to kehna mushkil hain ki kya sahi hain kysa galat- log kehte hain - unhone jo bhi decision liya wo galat tha- kya sare decission unhi ke the???? unke kai decission aise bhi the jinhe mana nahin gaya-jaise- 1. wo chate the ki indipendence ke baad congress natinal party na reh ker state party reh jaye- matlab national party ki jagah ab wo area party ban ker kaam kare. lekin aisa nahin hua. 2. wo chate the ki patel first PM bane- lekin nehru bane. agar aaj patel humare pehle PM hote to hum pata nahin kahan hote- shayad duniyan main america humse darta (jaise chaina se) unki sirf yahi kami thi ki wo soft heart the- wo koi hard decission nahin le sakte the. lekin unhone kabhi | हॉं |
m@ni$h:*styleya obviously ... he gave us freedom ..... so in return we have 2 give him the position of a .... father of nation | हॉं |
UKF योगेश Yogeshagar woo us waqat waha na hotey to azadi hummey jald hi mil jati aaur itna khoon bhi baha na hota.....................to the hell with the father of the nation.................. | नही |
jayIts very unfortunate who are against our father of nation they didn't ponder that whenever you want a cure the only method of cure is ahimsa the only way if he hadn't started his march with ahmisa we would have not got this freedom so early .....He deserves to be our father of nation and being a national i salute him with proud to him........ | हॉं |
SanjeevGandhi ek esa inshaan tha jo har us jagah tha jahan khoon kharaba hua. baki duniya mari par ek akela wo har baar bach gaya. mere khayal se gandhi to angrejo ka mideator tha.. uske pehle marne se sayad hum log pehle aajad ho jate.... jai natu ram godse | |
UKF Abhishekuchiit hai yarbapu hai hamre wo | हॉं |
vipingandhi was the man of great potential and grit,i think it is appropriate to call him bapu | हॉं |
जमशेदपुर मेगान्धी जी कि जीवनी जानने के बाद नही | नही |
varunalet us all not get so offended by whatever is written about gandhi ji.everybody has his own perception nd after all gandhi ji was a human so it is very much possible for him to work for his own benifits. which he certainly did. whatever were his ideas can all be found in different religious books. nd we are some where ignoring the fact that he had cared the least for his followers. he had also made mistakes in his life nd learned through some of them. some mistakes which may be we had not or will not in our lives. | नही |
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इलाहाबाद उच्च न्यायालय में तोड़ फोड़
एशिया के सबसे बड़े उच्च न्यायालय में भारतीय न्याय व्यवस्था पुन: शर्मसार हो गई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दोपहर माननीय न्यायमूर्तियों और एक महिला वकील के मध्य विवाद हुआ, और बाद में कुछ तोड़ फोड़ हुई। जिसके कारण न्यायालय ने काफी देर तक अपना कामकाज स्थगित कर दिया। जिसके बाद न्यायालय परिसर भारी मात्रा में पुलिस के हवाले कर दिया गया। वर्तमान समय में न्यायालय काम कर रही है। उक्त महिला अधिवक्ता को काफी अधिवक्ता घेर कर बैटे है। कुछ देर में पुन: अपडेट लेकर आऊँगा।
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नये ब्लाग- नये ब्लागर पपप
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औरत की यह मजबूरी है
तसलीमा से यह प्रश्न कि तसलीमा तुमने क्या किया ? हम और आप कौन है ? सेक्यूलर वाद की आड़ में गाहे वगाहे संप्रग & कम्पनी तमाशे का ढोल बजाती है। यह प्रश्न उनसे पूछना चाहिए कि "तुमने क्यों मजबूर किया" आदलती आदेश के बावजूद सरकार तस्लीमा देश में नही रह सकती उनकी किताब बेच नही सकती। मुझे कहने में हिचक नही है यह जो तंत्र चल रहा है वह किन्नरों का तंत्र है जिसका मुखिया अव्वल छक्का है। जो सरकार एक महिला के सम्मान की रक्षा नही कर सकती है। उस सरकार बने रहने का कोई अधिकार नही है।
एक मुस्लिम महिला से हम अपेक्षा ही क्या कर सकते है? जिसकी रक्षा सरकार भी नही कर सकती है। शाहबानों प्रकरण ने शिद्ध कर दिया। राजीव गांधी ने जिस प्रकार एक 62 वर्षीय महिला के पेट पर लात मारी वैसा कोई मुस्लमान ही कर सकता है। सच तो यही है कि राजीव गांधी भी तो असल औलाद मुसलमान की था। और आज भी उसी के वंशजों का ही शासन है। आज जो सरकार एक महिला अपना नेता बता कर सबसे बड़ा महिला हितचिंतक बनती है, वही तसलीमा और शाहबानों के नाम सेक्यूलर गुन्ड़ो के द्वारा आंतकित करती है। डायन भी सात घर छोड़कर बच्चो को खाती है किन्तु कुछ डायनों ने वोट की राजनीति के कारण अपने शिद्धान्त बदल दिये है।
तस्लीमा ने अपने किताब के जो पन्ने फाड़े है, वो पन्ने नही है बल्कि, भरें समाज में धर्मनिर्पेक्ष राष्ट्र के नेतृत्वकर्ताओं का बलात्कार किया है। और राष्ट्रीय शर्म की बात तो यह कि ये सेक्यूलर लोग अपने बलात्कार से खुश है। वैसे बलात्कार से खुश शायद ही कोई खुश होता हो ? मेरे विचार से शायद वेश्या भी नही। किन्तु आज एक महिला ने धर्मनिपेक्ष नपुंसकों का बलात्कार कर दिया। और ये खुश भी है। इन्हे किसकी संज्ञा दी जानी चाहिऐं।
महाशक्ति समूह पर - अस्तित्व की खोज
Timeloss : समय नष्ट करने का एक भ्रष्ट साधन पर - तस्वीरों में हरिवंश राय बच्चन
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अब कहे जाने योग्य कुछ नही है
मेरी इस पोस्ट में प्रथम से लेकर अंत तक जितनी भी टिप्पणी रही, मैने हर टिप्पणी के पीछे अपने लेख को दो दो बार पढ़ा और टिप्पणी के भाव को समझने की कोशिस की, किन्तु मै असफल रहा।
मै बात को ज्यादा विस्तार नहीं दूंगा, अब कहे जाने योग्य कुछ नही है। किन्तु इतना जरूर प्रण करता हूँ कि अब मै किसी ब्लागर के बारे में कभी नहीं लिखूँगा। इस कड़ी मे यह मेरी अंतिम पोस्ट है।
पिछले सभी संबंधित पोस्टों में से, मै दिये गये नाम हटा रहा हूँ।मित्रवत व्यवहार तक नामों का उल्लेख संभव रहेगा, किन्तु अब ब्लॉगर के रूप में मेरी पोस्ट में किसी का नाम नहीं आएगा।
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