राज्य सभा - एक परिचय





पृष्ठभूमि
काउंसिल ऑफ स्टेट्स, जिसे राज्य सभा भी कहा जाता है, एक ऐसा नाम है जिसकी घोषणा सभापीठ द्वारा सभा में 23 अगस्त, 1954 को की गई थी। इसकी अपनी खास विशेषताएं हैं। भारत में द्वितीय सदन का प्रारम्भ 1918 के मोन्टेग-चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन से हुआ। भारत सरकार अधिनियम, 1919 में तत्कालीन विधानमंडल के द्वितीय सदन के तौर पर काउंसिल ऑफ स्टेट्स का सृजन करने का उपबंध किया गया जिसका विशेषाधिकार सीमित था और जो वस्तुत: 1921 में अस्तित्व में आया। गवर्नर-जनरल तत्कालीन काउंसिल ऑफ स्टेट्स का पदेन अध्यक्ष होता था। भारत सरकार अधिनियम, 1935 के माध्यम से इसके गठन में शायद ही कोई परिवर्तन किए गए।
संविधान सभा, जिसकी पहली बैठक 9 दिसम्बर 1946 को हुई थी, ने भी 1950 तक केन्द्रीय विधानमंडल के रूप में कार्य किया, फिर इसे 'अनंतिम संसद' के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। इस अवधि के दौरान, केन्द्रीय विधानमंडल जिसे 'संविधान सभा' (विधायी) और आगे चलकर 'अनंतिम संसद' कहा गया, 1952 में पहले चुनाव कराए जाने तक, एक-सदनी रहा।
स्वतंत्र भारत में द्वितीय सदन की उपयोगिता अथवा अनुपयोगिता के संबंध में संविधान सभा में विस्तृत बहस हुई और अन्तत: स्वतंत्र भारत के लिए एक द्विसदनी विधानमंडल बनाने का निर्णय मुख्य रूप से इसलिए किया गया क्योंकि परिसंघीय प्रणाली को अपार विविधताओं वाले इतने विशाल देश के लिए सर्वाधिक सहज स्वरूप की सरकार माना गया। वस्तुत:, एक प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित एकल सभा को स्वतंत्र भारत के समक्ष आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए अपर्याप्त समझा गया। अत:, 'काउंसिल ऑफ स्टेट्स' के रूप में ज्ञात एक ऐसे द्वितीय सदन का सृजन किया गया जिसकी संरचना और निर्वाचन पद्धति प्रत्यक्षत: निर्वाचित लोक सभा से पूर्णत: भिन्न थी। इसे एक ऐसा अन्य सदन समझा गया, जिसकी सदस्य संख्या लोक सभा (हाउस ऑफ पीपुल) से कम है। इसका आशय परिसंघीय सदन अर्थात् एक ऐसी सभा से था जिसका निर्वाचन राज्यों और दो संघ राज्य क्षेत्रों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया गया, जिनमें राज्यों को समान प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। निर्वाचित सदस्यों के अलावा, राष्ट्रपति द्वारा सभा के लिए बारह सदस्यों के नामनिर्देशन का भी उपबंध किया गया। इसकी सदस्यता हेतु न्यूनतम आयु तीस वर्ष नियत की गई जबकि निचले सदन के लिए यह पच्चीस वर्ष है। काउंसिल ऑफ स्टेट्स की सभा में गरिमा और प्रतिष्ठा के अवयव संयोजित किए गए। ऐसा भारत के उपराष्ट्रपति को राज्य सभा का पदेन सभापति बनाकर किया गया, जो इसकी बैठकों का सभापतित्व करते हैं।
राज्य सभा से संबंधित संवैधानिक उपबंध संरचना/संख्या
संविधान के अनुच्छेद 80 में राज्य सभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 निर्धारित की गई है, जिनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित किए जाते हैं और 238 सदस्य राज्यों के और संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि होते हैं। तथापि, राज्य सभा के सदस्यों की वर्तमान संख्या 245 है, जिनमें से 233 सदस्य राज्यों और संघ राज्यक्षेत्र दिल्ली तथा पुडुचेरी के प्रतिनिधि हैं और 12 राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित हैं। राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा जैसे विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है।
स्थानों का आवंटन
संविधान की चौथी अनुसूची में राज्य सभा में राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को स्थानों के आवंटन का उपबंध है। स्थानों का आवंटन प्रत्येक राज्य की जनसंख्या के आधार पर किया जाता है। राज्यों के पुनर्गठन तथा नए राज्यों के गठन के परिणामस्वरूप, राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को आवंटित राज्य सभा में निर्वाचित स्थानों की संख्या वर्ष 1952 से लेकर अब तक समय-समय पर बदलती रही है।
पात्रता अर्हताएं
संविधान के अनुच्छेद 84 में संसद की सदस्यता के लिए अर्हताएं निर्धारित की गई हैं। राज्य सभा की सदस्यता के लिए अर्ह होने के लिए किसी व्यक्ति के पास निम्नलिखित अर्हताएं होनी चाहिए:
(क) उसे भारत का नागरिक होना चाहिए और निर्वाचन आयोग द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार शपथ लेना चाहिए या प्रतिज्ञान करना चाहिए और उस पर अपने हस्ताक्षर करने चाहिए;
(ख) उसे कम से कम तीस वर्ष की आयु का होना चाहिए;
(ग) उसके पास ऐसी अन्य अर्हताएं होनी चाहिए जो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस निमित्त विहित की जाएं।
निरर्हताएं
संविधान के अनुच्छेद 102 में यह निर्धारित किया गया है कि कोई व्यक्ति संसद के किसी सदन का सदस्य चुने जाने के लिए और सदस्य होने के लिए निरर्हित होगा-
(क) यदि वह भारत सरकार के या किसी राजय की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़कर, जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना संसद ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई लाभ का पद धारण करता है;
(ख) यदि वह विकृतचित है और सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है;
(ग) यदि वह अनुन्मोचित दिवालिया है;
(घ) यदि वह भारत का नागरिक नहीं है या उसने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से अर्जित कर ली हे या वह किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा या अनुषक्ति को अभिस्वीकार किए हुए है;
(ड.) यदि वह संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस प्रकार निरर्हित कर दिया जाता है।
स्पष्टीकरण-
इस खंड के प्रयोजनों के लिए, कोई व्यक्ति केवल इस कारण भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है।

इसके अतिरिक्त, संविधान की दसवीं अनुसूची में दल-परिवर्तन के आधार पर सदस्यों की निरर्हता के बारे में उपबंध किया गया है। दसवीं अनुसूची के उपबंधों के अनुसार, कोई सदस्य एक सदस्य के रूप में उस दशा में निरर्हित होगा, यदि वह स्वेच्छा से अपने राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है; या वह ऐसे राजनीतिक दल द्वारा, जिसका वह सदस्य है, दिए गए किसी निदेश के विरुद्ध सदन में मतदान करता है या मतदान करने से विरत रहता है और ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने को उस राजनीतिक दल द्वारा पन्द्रह दिन के भीतर माफ नहीं किया गया है। निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में निर्वाचित सदस्य निरर्हित होगा यदि वह अपने निर्वाचन के पश्चात् किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाता है।

तथापि, राष्ट्रपति द्वारा सदन के किसी नामनिर्देशित सदस्य को किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित होने की अनुमति होगी यदि वह सदन में अपना स्थान ग्रहण करने के पहले छह मास के भीतर ऐसा करता/करती है।

किसी सदस्य को इस आधार पर निरर्हित नहीं किया जाएगा यदि वह राज्य सभा का उप-सभापति निर्वाचित होने के पश्चात् अपने राजनीतिक दल की सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ देता/देती है।
निर्वाचन/नामनिर्देशन की प्रक्रिया निर्वाचक मंडल
राज्य सभा में राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति द्वारा किया जाता है। प्रत्येक राज्य तथा दो संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों का निर्वाचन उस राज्य की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों तथा उस संघ राज्य क्षेत्र के निर्वाचक मंडल के सदस्यों, जैसा भी मामला हो, द्वारा एकल संक्रमणीय मत द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार किया जाता है। दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के निर्वाचक मंडल में दिल्ली विधान सभा के निर्वाचित सदस्य और पुडुचेरी संघ राज्य क्षेत्र के निर्वाचक मंडल में पुडुचेरी विधान सभा के निर्वाचित सदस्य शामिल हैं।
द्वि-वार्षिक/उप-चुनाव
राज्य सभा एक स्थायी सदन है और यह भंग नहीं होता। तथापि, प्रत्येक दो वर्ष बाद राज्य सभा के एक-तिहाई सदस्य सेवा-निवृत्त हो जाते हैं। पूर्णकालिक अवधि के लिए निर्वाचित सदस्य छह वर्षों की अवधि के लिए कार्य करता है। किसी सदस्य के कार्यकाल की समाप्ति पर सेवानिवृत्ति को छोड़कर अन्यथा उत्पन्न हुई रिक्ति को भरने के लिए कराया गया निर्वाचन 'उप-चुनाव' कहलाता है।

उप-चुनाव में निर्वाचित कोई सदस्य उस सदस्य की शेष कार्यावधि तक सदस्य बना रह सकता है जिसने त्यागपत्र दे दिया था या जिसकी मृत्यु हो गई थी या जो दसवीं अनुसूची के अधीन सभा का सदस्य होने के लिए निरर्हित हो गया था।
पीठासीन अधिकारीगण-सभापति और उपसभापति
राज्य सभा के पीठासीन अधिकारियों की यह जिम्मेदारी होती है कि वे सभा की कार्यवाही का संचालन करें। भारत के उपराष्ट्रपति राज्य सभा के पदेन सभापति हैं। राज्य सभा अपने सदस्यों में से एक उपसभापति का भी चयन करती है। राज्य सभा में उपसभाध्यक्षों का एक पैनल भी होता है, जिसके सदस्यों का नामनिर्देशन सभापति, राज्य सभा द्वारा किया जाता है। सभापति और उपसभापति की अनुपस्थिति में, उपसभाध्यक्षों के पैनल से एक सदस्य सभा की कार्यवाही का सभापतित्व करता है।
महासचिव
महासचिव की नियुक्ति राज्य सभा के सभापति द्वारा की जाती है और उनका रैंक संघ के सर्वोच्च सिविल सेवक के समतुल्य होता है। महासचिव गुमनाम रह कर कार्य करते हैं और संसदीय मामलों पर सलाह देने के लिए तत्परता से पीठासीन अधिकारियों को उपलब्ध रहते हैं। महासचिव राज्य सभा सचिवालय के प्रशासनिक प्रमुख और सभा के अभिलेखों के संरक्षक भी हैं। वह राज्य सभा के सभापति के निदेश व नियंत्रणाधीन कार्य करते हैं।
दोनों सभाओं के बीच संबंध
संविधान के अनुच्छेद 75 (3) के अधीन, मंत्री परिषद् सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति जिम्मेदार होती है जिसका आशय यह है कि राज्य सभा सरकार को बना या गिरा नहीं सकती है। तथापि, यह सरकार पर नियंत्रण रख सकती है और यह कार्य विशेष रूप से उस समय बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब सरकार को राज्य सभा में बहुमत प्राप्त नहीं होता है।

किसी सामान्य विधान की दशा में, दोनों सभाओं के बीच गतिरोध दूर करने के लिए, संविधान में दोनों सभाओं की संयुक्त बैठक बुलाने का उपबंध है। वस्तुत:, अतीत में ऐसे तीन अवसर आए हैं जब संसद की सभाओं की उनके बीच मतभेदों को सुलझाने के लिए संयुक्त बैठक हुई थी। संयुक्त बैठक में उठाये जाने वाले मुद्दों का निर्णय दोनों सभाओं में उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की कुल संख्या के बहुमत से किया जाता है। संयुक्त बैठक संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में आयोजित की जाती है जिसकी अध्यक्षता लोकसभाध्यक्ष द्वारा की जाती है। तथापि, धन विधेयक की दशा में, संविधान में दोनों सभाओं की संयुक्त बैठक बुलाने का कोई उपबंध नहीं है, क्योंकि लोक सभा को वित्तीय मामलों में राज्य सभा की तुलना में प्रमुखता हासिल है। संविधान संशोधन विधेयक के संबंध में, संविधान में यह उपबंध किया गया है कि ऐसे विधेयक को दोनों सभाओं द्वारा, संविधान के अनुच्छेद 368 के अधीन विहित रूप में, विशिष्ट बहुमत से पारित किया जाना होता है। अत:, संविधान संशोधन विधेयक के संबंध में दोनों सभाओं के बीच गतिरोध को दूर करने का कोई उपबंध नहीं है।

मंत्री संसद की किसी भी सभा से हो सकते हैं। इस संबंध में संविधान सभाओं के बीच कोई भेद नहीं करता है। प्रत्येक मंत्री को किसी भी सभा में बोलने और उसकी कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार होता है, लेकिन वह उसी सभा में मत देने का हकदार होता है जिसका वह सदस्य होता है।

इसी प्रकार, संसद की सभाओं, उनके सदस्यों और उनकी समितियों की शक्तियों, विशेषाधिकारों और उन्मुक्तियों के संबंध में, दोनों सभाओं को संविधान द्वारा बिल्कुल समान धरातल पर रखा गया है।

जिन अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों के संबंध में दोनों सभाओं को समान शक्तियां प्राप्त हैं वे इस प्रकार हैं:- राष्ट्रपति का निर्वाचन तथा महाभियोग, उपराष्ट्रपति का निर्वाचन, आपातकाल की उद्घोषणा का अनुमोदन, राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता से संबंधित उद्घोषणा और वित्तीय आपातकाल। विभिन्न संवैधानिक प्राधिकरणों आदि से प्रतिवेदन तथा पत्र प्राप्त करने के संबंध में, दोनों सभाओं को समान शक्तियां प्राप्त हैं।

इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि मंत्री-परिषद् की सामूहिक जिम्मेदारी के मामले और कुछ ऐसे वित्तीय मामले, जो सिर्फ लोक सभा के क्षेत्राधिकार में आते हैं, के सिवाए दोनों सभाओं को समान शक्तियां प्राप्त हैं।
राज्य सभा की विशेष शक्तिया
एक परिसंघीय सदन होने के नाते राज्य सभा को संविधान के अधीन कुछ विशेष शक्तियां प्राप्त हैं। विधान से संबंधित सभी विषयों/क्षेत्रों को तीन सूचियों में विभाजित किया गया है-संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। संघ और राज्य सूचियां परस्पर अपवर्जित हैं-कोई भी दूसरे के क्षेत्र में रखे गए विषय पर कानून नहीं बना सकता।
तथापि, यदि राज्य सभा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों के बहुमत द्वारा यह कहते हुए एक संकल्प पारित करती है कि यह "राष्ट्रीय हित में आवश्यक या समीचीन" है कि संसद, राज्य सूची में प्रमाणित किसी विषय पर विधि बनाए, तो संसद भारत के संपूर्ण राज्य-क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए उस संकल्प में विनिर्दिष्ट विषय पर विधि बनाने हेतु अधिकार-संपन्न हो जाती है। ऐसा संकल्प अधिकतम एक वर्ष की अवधि के लिए प्रवृत्त रहेगा परन्तु यह अवधि इसी प्रकार के संकल्प को पारित करके एक वर्ष के लिए पुन: बढ़ायी जा सकती है।
यदि राज्य सभा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों के बहुमत द्वारा यह घोषित करते हुए एक संकल्प पारित करती है कि संघ और राज्यों के लिए सम्मिलित एक या अधिक अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन किया जाना राष्ट्रीय हित में आवश्यक या समीचीन है, तो संसद विधि द्वारा ऐसी सेवाओं का सृजन करने के लिए अधिकार-संपन्न हो जाती है।
संविधान के अधीन, राष्ट्रपति को राष्ट्रीय आपात की स्थिति में, किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने की स्थिति में अथवा वित्तीय आपात की स्थिति में उद्घोषणा जारी करने का अधिकार है। ऐसी प्रत्येक उद्घोषणा को संसद की दोनों सभाओं द्वारा नियत अवधि के भीतर अनुमोदित किया जाना अनिवार्य है। तथापि, कतिपय परिस्थितियों में राज्य सभा के पास इस संबंध में विशेष शक्तियाँ हैं। यदि कोई उद्घोषणा उस समय की जाती है जब लोक सभा का विघटन हो गया है अथवा लोक सभा का विघटन इसके अनुमोदन के लिए अनुज्ञात अवधि के भीतर हो जाता है और यदि इसे अनुमोदित करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा अनुच्छेद 352, 356 और 360 के अधीन संविधान में विनिर्दिष्ट अवधि के भीतर पारित कर दिया जाता है, तब वह उद्घोषणा प्रभावी रहेगी।
वित्तीय मामलों में राज्य सभा
धन विधेयक केवल लोक सभा में पुर:स्थापित किया जा सकता है। इसके उस सभा द्वारा पारित किए जाने के उपरान्त इसे राज्य सभा को उसकी सहमति अथवा सिफारिश के लिए पारेषित किया जाता है। ऐसे विधेयक के संबंध में राज्य सभा की शक्ति सीमित है। राज्य सभा को ऐसे विधेयक की प्राप्ति से चौदह दिन के भीतर उसे लोक सभा को लौटाना पड़ता है। यदि यह उस अवधि के भीतर लोक सभा को नहीं लौटाया जाता है तो विधेयक को उक्त अवधि की समाप्ति पर दोनों सदनों द्वारा उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें इसे लोक सभा द्वारा पारित किया गया था। राज्य सभा धन विधेयक में संशोधन भी नहीं कर सकती; यह केवल संशोधनों की सिफारिश कर सकती है और लोक सभा, राज्य सभा की सभी या किन्हीं सिफारिशों को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकेगी।
धन विधेयक के अलावा, वित्त विधेयकों की कतिपय अन्य श्रेणियों को भी राज्य सभा में पुर:स्थापित नहीं किया जा सकता। तथापि, कुछ अन्य प्रकार के वित्त विधेयक हैं जिनके संबंध में राज्य सभा की शक्तियों पर कोई निर्बंधन नहीं है। ये विधेयक किसी भी सभा में प्रस्तुत किए जा सकते हैं और राज्य सभा को ऐसे वित्त विधेयकों को किसी अन्य विधेयक की तरह ही अस्वीकृत या संशोधित करने का अधिकार है। वस्तुत: ऐसे विधेयक संसद की किसी भी सभा द्वारा तब तक पारित नहीं किए जा सकते, जब तक राष्ट्रपति ने उस पर विचार करने के लिए उस सभा से सिफारिश नहीं की हो।
तथापि, इन सारी बातों से यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि राज्य सभा का वित्त संबंधी मामलों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। भारत सरकार के बजट को प्रतिवर्ष राज्य सभा के समक्ष भी रखा जाता है और इसके सदस्यगण उस पर चर्चा करते हैं। यद्यपि राज्य सभा विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान मांगों पर मतदान नहीं करती - यह मामला अनन्य रूप से लोक सभा के लिए सुरक्षित है फिर भी, भारत की संचित निधि से किसी धन की निकासी तब तक नहीं की जा सकती, जब तक दोनों सभाओं द्वारा विनियोग विधेयक को पारित नहीं कर दिया जाता। इसी प्रकार, वित्त विधेयक को भी राज्य सभा के समक्ष लाया जाता है। इसके अलावा, विभाग-संबंधित संसदीय स्थायी समितियां, जो मंत्रालयों/विभागों की वार्षिक अनुदान मांगों की जांच करती हैं, संयुक्त समितियां हैं जिनमें दस सदस्य राज्य सभा से होते हैं।
सभा के नेता
सभापति और उपसभापति के अलावा, सभा का नेता एक अन्य ऐसा अधिकारी है जो सभा के कुशल और सुचारू संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। राज्य सभा में सभा का नेता सामान्यतया प्रधान मंत्री होता है, यदि वह इसका सदस्य है, अथवा कोई ऐसा मंत्री होता है, जो इस सभा का सदस्य है और जिसे उनके द्वारा इस रूप में कार्य करने के लिए नाम-निर्दिष्ट किया गया हो। उसका प्राथमिक उत्तरदायित्व सभा में सौहार्दपूर्ण और सार्थक वाद-विवाद के लिए सभा के सभी वर्गों के बीच समन्वय बनाए रखना है। इस प्रयोजनार्थ, वह न केवल सरकार के, बल्कि विपक्ष, मंत्रियों और पीठासीन अधिकारी के भी निकट संपर्क में रहता है। वह सभा-कक्ष (चैम्बर) में सभापीठ के दायीं ओर की पहली पंक्ति में पहली सीट पर बैठता है ताकि वह परामर्श हेतु पीठासीन अधिकारी को सहज उपलब्ध रहे। नियमों के तहत, सभापति द्वारा सभा में सरकारी कार्य की व्यवस्था, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा हेतु दिनों के आवंटन अथवा समय के आवंटन, शुक्रवार के अलावा किसी अन्य दिन को गैर-सरकारी सदस्यों के कार्य, अनियत दिन वाले प्रस्तावों पर चर्चा, अल्पकालिक चर्चा और किसी धन विधेयक पर विचार एवं उसे वापस किये जाने के संबंध में सदन के नेता से परामर्श किया जाता है।
महान व्यक्तित्व, राष्ट्रीय नेता अथवा अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित व्यक्ति की मृत्यु होने की स्थिति में उस दिन के लिए सभा के स्थगन अथवा अन्यथा के मामले में सभापति उनसे भी परामर्श कर सकते हैं। गठबंधन सरकारों के युग में उनका कार्य और अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है। वह यह सुनिश्चित करते हैं कि सभा के समक्ष लाये गए किसी भी मामले पर सार्थक चर्चा के लिए सभा में हर संभव तथा उचित सुविधा प्रदान की जाए। वह सभा की राय व्यक्त करने और इसे समारोह अथवा औपचारिक अवसरों पर प्रस्तुत करने में सभा के वक्ता के रूप में कार्य करते हैं। निम्नलिखित सदस्य राज्य सभा में सभा के नेता रहे हैं:
नाम से तक
1. श्री एन. गोपालास्वामी अयंगर मई, 1952 फरवरी, 1953
2. श्री चारू चन्द्र बिश्वास फरवरी, 1953 नवम्बर, 1954
3. श्री लाल बहादुर शास्त्री नवम्बर, 1954 मार्च, 1955
4. पंडित गोविंद बल्लभ पंत मार्च, 1955 फरवरी, 1961
5. हाफीज मोहम्मद इब्राहीम फरवरी, 1961 अगस्त, 1963
6. श्री यशवन्त राव बलवन्तराव अगस्त, 1963 दिसम्बर, 1963
7. श्री जय सुख लाल हाथी फरवरी,1964 मार्च, 1964
8. श्री महोमदाली करीम छागला मार्च, 1964 नवम्बर, 1967
9. श्री जय सुख लाल हाथी नवम्बर, 1967 नवम्बर, 1969
10. श्री कोडारादास कालीदास शाह नवम्बर, 1967 मई, 1971
11. श्री उमा शंकर दीक्षित मई, 1971 दिसम्बर,1975
12. श्री कमलापति त्रिपाठी दिसम्बर,1975 मार्च, 1977
13. श्री लाल कृष्ण आडवाणी मार्च, 1977 अगस्त, 1979
14. श्री कृष्ण चन्द्र पंत अगस्त, 1979 जनवरी, 1980
15. श्री प्रणव मुखर्जी जनवरी, 1980
अगस्त, 1981
जुलाई 1981 और दिसम्बर, 1984
16. श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह दिसम्बर, 1984 अप्रैल, 1987
17. श्री नारायण दत्त तिवारी अप्रैल, 1987 जून, 1988
18. श्री पी. शिव शंकर जुलाई, 1988 दिसम्बर, 1989
19. श्री एम.एस. गुरूपदस्वामी दिसम्बर, 1989 नवम्बर, 1990
20. श्री यशवंत सिन्हा दिसम्बर, 1990 जून, 1991
21. श्री शंकर राव बलवंत राव चव्हाण जुलाई, 1991 अप्रैल, 1996
22. श्री सिकन्दर बख्त 20 मई, 1996 31 मई, 1996
23. श्री इन्द्र कुमार गुजराल जून, 1996 नवम्बर, 1996
24. श्री एच.डी. देवेगौड़ा नवम्बर, 1996 अप्रैल, 1997
25. श्री इन्द्र कुमार गुजराल अप्रैल, 1997 मार्च, 1998
26. श्री सिकन्दर बख्त मार्च, 1998 अक्तूबर, 1999
27. श्री जसवन्त सिंह अक्तूबर, 1999 मई, 2004
28. श्री डा. मनमोहन सिंह 01 जून, 2004 18 मई, 2009
29 मई, 2014 26 मई, 2014
29. श्री अरुण जेटली 02 जून, 2014 अब तक
विपक्ष के नेता
विधायिका में विपक्ष के नेता के पद का अत्यधिक सार्वजनिक महत्व है। इसका महत्व संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष को दी गई मुख्य भूमिका से उद्भूत होता है। विपक्ष के नेता का कार्य वस्तुत: अत्यधिक कठिन है क्योंकि उन्हें आलोचना करनी पड़ती है, गलती इंगित करनी पड़ती है और ऐसे वैकल्पिक प्रस्तावों/नीतियों को प्रस्तुत करना पड़ता है जिन्हें लागू करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। इस प्रकार उन्हें संसद और देश के प्रति एक विशेष सामाजिक जिम्मेवारी निभानी होती है।
राज्य सभा में वर्ष 1969 तक वास्तविक अर्थ में विपक्ष का कोई नेता नहीं होता था। उस समय तक सर्वाधिक सदस्यों वाली विपक्षी पार्टी के नेता को बिना किसी औपचारिक मान्यता, दर्जा या विशेषाधिकार दिए विपक्षी नेता मानने की प्रथा थी। विपक्ष के नेता के पद को संसद में विपक्षी नेता वेतन और भत्ता अधिनियम, 1977 द्वारा अधिकारिक मान्यता प्रदान की गई। इस अधिनियम के द्वारा राज्य सभा में विपक्षी नेता, राज्य सभा का एक ऐसा सदस्य होता है जो कुछ समय के लिए राज्य सभा के सभापति द्वारा यथा मान्य सबसे अधिक सदस्यों वाले दल की सरकार के विपक्ष में होता है। इस प्रकार विपक्ष के नेता को तीन शर्तें पूरी करनी होती हैं, नामश: (i) उसे सभा का सदस्य होना चाहए (ii) सर्वाधिक सदस्यों वाले दल की सरकार के विपक्ष में राज्य सभा का नेता होना चाहिए और (iii) इस आशय से राज्य सभा के सभापति द्वारा उसे मान्यता प्राप्त होनी चाहिए।

राज्य सभा में निम्नलिखित सदस्य विपक्ष के नेता रहे हैं:

नाम से तक
1. श्री श्याम नंदन मिश्र दिसम्बर, 1969 मार्च, 1971
2. श्री एम.एस. गुरूपदस्वामी मार्च, 1971 अप्रैल, 1972
3. श्री कमलापति त्रिपाठी 30.3.1977 15.2.1978
4. श्री भोला पासवान शास्त्री 24.2.1978 23.3.1978
5. श्री कमलापति त्रिपाठी 23.3.1978
18.4.1978
2.4.1978 और
8.1.1980
6. श्री लाल कृष्ण आडवाणी 21.1.1980 7.4.1980
7. श्री पी. शिव शंकर 18.12.1989 2.1.1991
8. श्री एम.एस. गुरुपदस्वामी 28.6.1991 21.7.1991
9. श्री एस. जयपाल रेड्डी 22.7.1991 29.6.1992
10. श्री सिकन्दर बख्त 7.7.1992
10.4.1996
10.4.1996 और
23.5.1996
11. श्री शंकर राव बलवन्त राव चव्हाण 23.5.1996 1.6.1996
12. श्री सिकन्दर बख्त 1.6.1996 19.3.1998
13. डा. मनमोहन सिंह 21.3.1998 21.5.2004
14. श्री जसवन्त सिंह 3.6.2004
5.7.2004
4.7.2004
और 16.5.2009
15. श्री अरुण जेटली 3.6.2009 26.5.2014
16. श्री गुलाम नबी आज़ाद 8.6.2014 11.02.2015

हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्य सभा ने रचनात्मक और प्रभावी भूमिका निभाई है। विधायी क्षेत्र और सरकारी नीतियों को प्रभावित करने के मामले में इसका कार्य-निष्पादन काफी अहम रहा है। वस्तुत: राज्य सभा ने संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक लोक सभा के साथ सहयोग की भावना से कार्य किया है। राज्य सभा ने जल्दबाजी में कानून पारित नहीं किया है और संघीय सिद्धांत का प्रतिनिधित्व करते हुए एक आदर्श सभा की तरह कार्य किया है। संघीय सभा होने के नाते इसने देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने का कार्य किया है और संसदीय लोकतंत्र में लोगों की आस्था बढ़ाई है।

राज्य सभा के पीठासीन अधिकारी
1. हामिद अंसारी - सभापति
2. प्रो. पी. जे. कुरियन-उपसभापति
उपाध्यक्षों का पैनल
1. डा. सत्यनारायण जटिया, संसद सदस्य
2. डा. ई.एम. सुदर्शन नाच्चीयप्पन, संसद सदस्य
3. श्री तिरुची शिवा, संसद सदस्य
4. श्री वी. पी. सिंह बदनौर, संसद सदस्य
5. श्री सुखेन्‍दु शेखर राय, संसद सदस्य
6. श्री टी. के. रंगराजन, संसद सदस्य


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हम राम राज्य की कल्पना भी करते हैं और हम कृष्ण राज्य की बात क्यों नहीं करते?




त्रेता के राम और द्वापर के कृष्ण में बहुत अंतर है.. राम ने अपने आप को एक सामान्य पुरुष जैसा जीवन जिया और कभी जाहिर नहीं होने दिया कि वो भगवान है. अपने माता पिता के सम्मुख कभी भगवान रूप में नहीं आये और एक सामान्य पुरुष के रूप में आदर्श प्रस्तुत किया.

जबकि श्रीकृष्ण पल-पल और हर घडी यह दिखते दिखे कि वो भगवान है, बचपन से लेकर महाभारत के युद्ध तक.. यहाँ तक कि विराट रूप भी शामिल है.. कभी उनकी लीला सामान्य पुरुष जैसे थी ही नहीं.

राम जैसा आचरण ही राम राज्य की कल्पना का कारण है..


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वरिष्ठ अधिवक्ता और कनिष्ठ अधिवक्ता के मध्य वर्तमान सम्बन्ध



उच्च न्यायलय में जूनियर द्वारा सीनियरों को सम्मान दिए जाने की परम्परा बहुत पुरानी है. मैंने अपने सीनियरों से सुना था कि जब कभी कोई जूनियर अधिवक्ता किसी सीनियर अधिवक्ता की तौहीनी करता था तो सीनियर अधिवक्ता रौब के साथ उसे बुलाता था और पूछता था कि किसके चम्बर से हो? वहां सीनियरों के साथ कैसे पेश होना है तमीज़ नही सिखाई जाती ?

आज परिस्थितियां काफ़ी बदल गयी है बहुत बार देखने में आया है कि जूनियर्स सीनियर्स के लिए बैठने के लिए अपना स्थान भी नही छोड़ते है. इसके लिए जितने जिम्मेदार जूनियर्स है उतने ही आज के तथाकथित सीनियर्स भी है.

करीब दो साल पहले कोर्ट नंबर 10 में मा. न्यायमूर्ति अरुण टंडन और  मा. न्यायमूर्ति एसपी केसरवानी की कोर्ट का एक वाक्या याद आता है कि स्टेट का 35-40 वर्षीय स्टैंडिंग काउंसिल कोर्ट में गलत बयानी में फंस गया था. माननीय न्यायमूर्ति इस बात से काफ़ी खफा थे. यहाँ तक कि स्टैंडिंग काउंसिल के खिलाफ़ आर्डर में काफ़ी कुछ लिखवा चुके थे और चीफ़ स्टैंडिंग काउंसिल को कोर्ट में अगली डेट में तलब कर लिए थे. कोर्ट के रूख से स्टैंडिंग काउंसिल हैरान परेशान खड़ा माफ़ी मांग रहा था.

किसी का नाम नही लूँगा सबको अच्छी तरह से जनता हूँ कोर्ट रूम में करीब 7-8 Designated Senior Advocate मौजूद थे, किसी ने भी उस जूनियर अधिवाक्ता के बचाव में कोई प्रयास नही किया, जबकि उच्च न्यायालय की परम्परा रही है कि जूनियर अधिक्वाताओं द्वारा बेंच के समक्ष भूल-चूक के संबध में सीनियर्स हमेशा बचाव में आते थे और किसी भी एडवर्स आर्डर से उनको बचाते थे.

तत्कालीन परिस्थितियों में सीनियर्स द्वारा यह मौन निश्चित रूप से जूनियर्स और सीनियर्स के मध्य सम्मान के आदानप्रदान के सम्बन्ध को कमजोर कर रहा है. जब सीनियर्स ही अपना कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रहे है तो जुनिअर्स से कैसे सम्मान की अपेक्षा कर सकते है.

कोर्ट का एक भी एडवर्स आर्डर उस जूनियर अधिवक्ता का कैरियर चौपट कर सकता था. इसी बीच एक अनुभवी किन्तु Non-designated Senior Advocate उठे और कोर्ट के समझ उस अधिवक्ता को माफ़ करने और एक और मौका देने की बात की. काफ़ी चिक-चिक के बाद कोर्ट उन अधिवक्ता महोदय के अनुरोध को स्वीकार करते हुए स्टैंडिंग काउंसिल के खिलाफ लिखाये गए आदेश को कटवा दिया.

निश्चित रूप से उन अधिवक्ता महोदय ने उन सभी Designated Senior Advocates को आइना दिखाने का काम किया और जूनियर अधिवक्ता को कोर्ट के आक्रामक रूख से बचाया और उसके भविष्य को भी.

ऐसे चुनाव सहित बहुत से मौके आते है जब सीनियर्स जूनियर्स के हितों की बात करते नज़र आते है किन्तु बेंच के समक्ष जूनियर्स के प्रति उनका मौन अनेको प्रश्न खड़े कर देता है.


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नेत्र रोग-व्याधि निवारण एवं उपचार



  • नेत्र-स्नान- आँखों को स्वच्छ, शीतल और निरोगी रखने के लिए प्रातः बिस्तर से उठकर, भोजन के बाद, दिन में कई बार और सोते समय मुँह में पानी भरकर आँखों पर स्वच्छ, शीतल जल के छींटे मारें। इससे आँखों की ज्योति बढ़ती है। ध्यान रहे कि मुँह का पानी गर्म न होने पाये। गर्म होने पर पानी बदल लें। मुँह में से पानी निकालते समय भी पूरे जोर से मुँह फुलाते हुए वेग से पानी को छोड़ें। इससे ज्यादा लाभ होता है। आँखों के आस-पास झुर्रियाँ नहीं पड़तीं। इसके अलावा अगर पढ़ते समय अथवा आँखों का अन्य कोई बारीक कार्य करते समय आँखों में जरा भी थकान महसूस हो तो इसी विधि से ठंडे पानी से आँखों को धोयें। आँखों के लिए यह रामबाण औषध है।
  • पानी में आँखें खोलें - स्नान करते समय किसी चौड़े मुँहवाले बर्तन में साफ, ताजा पानी लेकर, उसमें आँखों को डुबोकर बार-बार खोलें और बंद करें। यह प्रयोग अगर किसी नदी या सरोवर के शुद्ध जल में डुबकी लगाकर किया जाय तो अपेक्षाकृत अधिक फायदेमंद होता है। इस विधि से नेत्र-स्नान करने से कई प्रकार के नेत्ररोग दूर हो जाते हैं।
  • विश्राम - हम दिन भर आँखों का प्रयोग करते हैं लेकिन उनको आराम देने की ओर कभी ध्यान नहीं देते। आँखों को आराम देने के लिए थोड़े-थोड़े समय के अंतराल के बाद आँखों को बंद करके, मन को शांत करके, अपनी दोनों हथेलियों से आँखों को इस प्रकार ढँक लो कि तनिक भी प्रकाश और हथेलियों का दबाव आपकी पलकों पर न पड़े। साथ ही आप अंधकार का ऐसा ध्यान करो, मानों आप अँधेरे कमरे में बैठे हुए हैं। इससे आँखों को विश्राम मिलता है और मन भी शांत होता है। रोगी-निरोगी, बच्चे, युवान, वृद्ध – सभी को यह विधि दिन में कई बार करना चाहिए।
  • आँखों को गतिशील रखो - 'गति ही जीवन है' इस सिद्धान्त के अनुसार हर अंग को स्वस्थ और क्रियाशील बनाये रखने के लिए उसमें हरकत होते रहना अत्यंत आवश्यक है। पलके झपकाना आँखों की सामान्य गति है। बच्चों की आँखों में सहज रूप से ही निरंतर यह गति होती रहती है। पलकें झपकाकर देखने से आँखों की क्रिया और सफाई सहज में ही हो जाती है। आँखे फाड़-फाड़कर देखने की आदत आँखों का गलत प्रयोग है। इससे आँखों में थकान और जड़ता आ जाती है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि हमें अच्छी तरह देखने के लिए नकली आँखें अर्थात चश्मा लगाने की नौबत आ जाती है। चश्मे से बचने के लिए हमें बार-बार पलकों को झपकाने की आदत को अपनाना चाहिए। पलकें झपकाते रहना आँखों की रक्षा का प्राकृतिक उपाय है।
  • सूर्य की किरणों का सेवन - प्रातः सूर्योदय के समय पूर्व दिशा की ओर मुख करके सूर्योदय के कुछ समय बाद की सफेद किरणें बंद पलकों पर लेनी चाहिए। प्रतिदिन प्रातः और अगर समय मिले तो शाम को भी सूर्य के सामने आँखें बंद करके आराम से इस तरह बैठो कि सूर्य की किरणें बंद पलकों पर सीधी पड़ें। बैठे-बैठे, धीरे-धीरे गर्दन को क्रमशः दायीं तथा बायीं ओर कंधों की सीध में और आगे पीछे तथा दायीं ओर से बायीं ओर व बायीं ओर से दायीं ओर चक्राकार गोलाई में घुमाओ। दस मिनट तक ऐसा करके आंखों को बंद कर दोनों हथेलियों से ढक दो जिससे ऐसा प्रतीत हो, मानों अंधेरा छा गया है। अंत में, धीरे-धीरे आँखों को खोलकर उन पर ठंडे पानी के छींटे मारो। यह प्रयोग आँखों के लिए अत्यंत लाभदायक है और चश्मा छुड़ाने का सामर्थ्य रखता है।
आँखों की सामान्य कसरतें
  • हर रोज प्रातः सायं एक-एक मिनट तक पलकों को तेजी से खोलने तथा बंद करने का अभ्यास करो।
  • आँखों को जोर से बंद करो और दस सेकंड बाद तुरंत खोल दो। यह विधि चार-पाँच बार करो।
  • आँखों को खोलने बंद करने की कसरत जोर देकर क्रमशः करो अर्थात् जब एक आँख खुली हो, उस समय दूसरी आँख बंद रखो। आधा मिनट तक ऐसा करना उपयुक्त है।
  • नेत्रों की पलकों पर हाथ की उंगलियों को नाक से कान की दिशा में ले जाते हुए हलकी-हलकी मालिश करो। पलकों से उँगलियाँ हटाते ही पलकें खोल दो और फिर पलकों पर उंगलियों लाते समय पलकों को बंद कर दो। यह प्रक्रिया आँखों की नस-नाड़ियों का तनाव दूर करने में सक्षम है।
  • विद्यार्थियों को इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि वे आँखों को चौंधिया देने वाले अत्यधिक तीव्र प्रकाश में न देखें। सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के समय सूर्य और चन्द्रमा को न देखें। कम प्रकाश में अथवा लेटे-लेटे पढ़ना भी आँखों के लिए बहुत हानिकारक है। आजकल के विद्यार्थी आमतौर पर इसी पद्धति को अपनाते हैं। बहुत कम रोशनी में अथवा अत्यधिक रोशनी में पढ़ने-लिखने अथवा नेत्रों के अन्य कार्य करने से नेत्रों पर जोर पड़ता है। इससे आँखें कमजोर हो जाती हैं और कम आयु में ही चश्मा लग जाता है। पढ़ते समय आँखों और किताब के बीच 12 इंच अथवा थोड़ी अधिक दूर रखनी चाहिए।
  • उचित आहार-विहार - आपकी आँखों का स्वास्थ्य आपके आहार पर भी निर्भर करता है। कब्ज नेत्ररोगों के अलावा शरीर के कई प्रकार के रोगों की जड़ है। इसलिए पेट हमेशा साफ रखो और कब्ज न होने दो। इससे भी आप अपनी आँखों की रक्षा कर सकते हैं। इसके लिए हमेशा सात्त्विक और सुपाच्य भोजन लेना चाहिए। अधिक नमक, मिर्च, मसाले, खटाई और तले हुए पदार्थों से जहाँ तक हो सके बचने का प्रयत्न करना चाहिए। आँखों को निरोगी रखने के लिए सलाद, हरी सब्जियाँ अधिक मात्रा में खानी चाहिए।
  • योग से रोग मुक्ति - योगासन भी नेत्ररोगों को दूर करने में सहायक सिद्ध होते हैं। सर्वांगासन नेत्र-विकारों को दूर करने का और नेत्र-ज्योति बढ़ाने का सर्वोत्तम आसन है।
नेत्र-रक्षा के उपाय
  • गर्मी और धूप में से आने के बाद गर्म शरीर पर एकदम से ठंडा पानी न डालो। पहले पसीना सुखाकर शरीर को ठंडा कर लो। सिर पर गर्म पानी न डालो और न ज्यादा गर्म पानी से चेहरा धोया करो।
  • बहुत दूर के और बहुत चमकीले पदार्थों को घूरकर न देखा करो।
  • नींद का समय हो जाए और आंखें भारी होने लगे, तब जागना उचित नहीं।
  • सूर्योदय के बाद सोये रहने, दिन में सोने और रात में देर तक जागने से आँखों पर तनाव पड़ता है और धीरे-धीरे आँखें बेनूर, रूखी और तीखी होने लगती हैं।
  • धूल, धुआँ और तेज रोशनी से आँखों को बचाना चाहिए।
  • अधिक खट्टे, नमकीन और लाल मिर्च वाले पदार्थों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए। मल-मूत्र और अधोवायु के वेग को रोकने, ज्यादा देर तक रोने और तेज रफ्तार की सवारी करने से आँखों पर सीधी हवा लगने के कारण आंखें कमजोर होती हैं। इन सभी कारणों से बचना चाहिए।
  • मस्तिष्क को चोट से बचाओ। शोक-संताप व चिंता से बचो। ऋतुचर्या के विपरीत आचरण न करो और आँखों के प्रति लापरवाह न रहो। आँखों से देर तक काम लेने पर सिर में भारीपन का अनुभव हो या दर्द होने लगे तो तुरंत अपनी आँखों की जाँच कराओ।
  • घर पर तैयार किया गया काजल सोते समय आँखों में लगाना चाहिए। सुबह उठकर गीले कपड़े से काजल पोंछकर साफ कर दो।


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सूचना का अधिकार के सम्‍बन्‍ध में सामान्‍य जानकारी



 
भारत शासन,विधि एवं न्‍याय मंत्रालय, ने सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 भारत के राजपत्र असाधारण भाग-2 खण्‍ड 1 के प़ष्‍ठ 9 से 22 में दिनाँक 21 जून, 2005 को प्रकाशित किया है।

इस अधिनियम का मूल मंतव्‍य यह है कि लोकतांत्रिक शासन में सरकार और सरकारी मशीनरी जनता के प्रति जवाबदेह हो तथा सरकारी मशीनरी के क्रियाकलाप में पारदर्शिता हो। अधिनियम के माध्‍यम से भारत के प्रत्‍येक नागरिक को लोक प्राधिकारियों के नियंत्रण में जो काई भी सूचनाएं उनके कार्य-कलापों के संबंध में उपलब्‍ध होती है, उन्‍हें देने की व्‍यवस्‍था की गई है। इसका उददेश्‍य लोक प्राधिकारियों के कार्यकलापों में पारदर्शिता लाना है और जवाबदेह बनाना है। प्रत्‍येक कार्यलय को सूचना देने के लिए जन सूचना अधिकारी का नामांकन किया जाना आवश्‍यक है। उनका दायित्‍व है कि वह सभी विषयों में किसी भी नागरिक के द्वारा आवेदन पर मांगी गई सूचना प्रदान करें, यदि सूचना अधिनियम की धारा 8 (1) के अंतर्गत नहीं आती है तो अधिनियम में यह व्‍यवस्‍था भी की गयी है कि सूचना चाहे जाने पर यदि जन सूचना अधिकारी समय पर संबंधित को जानकारी उपलब्‍ध नहीं करायी जाती है तो ऐसे अधिकारियों को केन्‍द्रीय सूचना आयोग या राज्‍य सरकार द्वारा गठित राज्‍य सूचना आयोग द्वारा दंडित किया जा सकता है। उम्‍मीद यह है कि इस अधिनियम के माध्‍यम से नागरिकों को जो जानकारी कार्यालयों से प्राप्‍त नहीं होती थी, उन्‍हें प्राप्‍त करने में उनको सुलभता होगी । यह अधिनियम जम्‍मू कश्‍मीर राज्‍य को छोड़कर सम्‍पूर्ण भारत में दिनाँक 12 अक्‍टूबर,2005 से लागू हो चुका है।

सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 15 के अंर्तगत उत्‍तर प्रदेश में राज्‍य सूचना आयोग का गठन राज्‍य करकार की अधिसूचना संख्या 856/43-2-2005-15/2 (2)/ 2003 टी सी-4 दिनांक 14-09-2005 द्वारा किया गया है | उत्‍तर प्रदेश में आयेग का गठन होने के उपरान्‍त शासन ने राज्‍य मुख्‍य सूचना आयुक्‍त के पद पर माननीय न्‍यायमूर्ति श्री एम0 ए0 खान को नियुक्‍त किया जिन्‍होंने शपथ ग्रहण कर कार्यभार दिनांक 22-03-2006 को ग्रहण कर कार्य प्रारम्‍भ किया | मुख्‍य सूचना आयुक्‍त तथा राज्‍य सूचना आयुक्‍त नियुक्ति के लिए वही व्‍यक्ति पात्र है जो सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठित/उत्‍कृष्‍ठ है तथा जिन्‍हे जानकारी / ज्ञान विधि विज्ञान तथा सामाजिक सेवा प्रबन्‍धन, पत्रकारिता, मासमीडिया, प्रशासन और शासन के क्षेत्र का व्‍यापक ज्ञान हो अधिनियम की धारा 15(7) के अनुसार राज्‍य सूचना आयोग का मुख्‍यालय ऐसी जगह होगा जिसे सरकार द्वारा राजपत्र में अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्‍ट किया जाए। राज्‍य सरकार की राय से राज्‍य सूचना आयेग राज्‍य के अन्‍य स्‍थानों में अपने कार्यलय स्‍थापित कर सकेगा। राज्‍य सूचना आयोग का मुख्‍यालय एवं कार्यालय इन्दिरा भवन अशोक मार्ग के छठे तल पर स्थित है। आयोग से निम्‍नांकित नंबरों पर टेलिफोन एवं फैक्‍स के माध्‍यम से सम्‍पर्क किया जा सकता है ।

1 दूरभाष , राज्‍य सूचना आयेग (0522) 2288599
2 फैक्‍स, राज्‍य सूचना आयोग (0522) 2288600


अधिनियम की धारा 16 के अनुसार राज्‍य मुख्‍य सूचना आयुक्‍त पांच वर्षो की पदा‍वधि के लिए पद धारण करेंगे। उन्‍हें पुनर्नियुक्ति की पात्रता नही होगी। यदि राज्‍य मुख्‍य सूचना आयुक्‍त अपने कार्यकाल के दौरान 65 वर्ष की आयु प्राप्‍त कर लेते है, उसके पश्‍चात पद धारण नहीं कर सकेंगे। राज्‍य सूचना आयुक्‍त का कार्यकाल में भी 5 वष्र से अधिक नहीं होगा। राज्‍य सूचना आयुक्‍त मुख्‍य सूचना आयुक्‍त पद पर नियुक्ति की पात्रता रखेंगे, परन्‍तु उनका कार्यकाल दोंनो पदों को मिलाकर केवल पांच वर्ष ही रहेगा। राज्‍य मुख्‍य सूचना आयुकत का दर्जा केन्‍द्रीय निर्वाचन आयोग के निर्वाचन आयुक्‍त के समकक्ष रखा गया है, उन्‍हें देय वेतन एवं भत्‍ते तथा सेवा की अन्‍य निबंधन और शर्ते निर्वाचन आयुक्‍त के समान प्राप्‍त होगी, जहॉ तक राज्‍य सूचना आयुक्‍त का सवाल हे, उन्‍हे राज्‍य सरकार के मुख्‍य सचिव के समकक्ष वेतन, भत्‍ते एवं अन्‍य सेवा शर्ते प्राप्‍त होंगी। यहॉ यह भी उल्‍लेखनीय है कि राज्‍य मुख्‍य सूचना आयुक्‍त का पद माननीय उच्‍चतम न्‍यायालय के न्‍यायाधीश के समकक्ष है। मुख्‍य सूचना आयुक्‍त तथा अन्‍य आयुक्‍त किसी भी समय त्‍याग- पत्र देकर अपना पद छोड़ सकते है विशेष परिस्थितियों में धारा 17 के अन्‍तर्गत राज्‍यपाल द्वारा माननीय उच्‍चतम न्‍यायालय को किये गये रिफरेंस पर जांच के बाद राज्‍यपाल के आदेश द्वारा राज्‍य मुख्‍य सूचना आयुक्‍त या राज्‍य सूचना आयुक्‍त को प्रमाणित/सिद्ध. दुर्व्‍यवहार तथा असमर्थता (अक्षमता) के आधार पर हटाया जा सकता है।

राज्‍य सूचना आयोग के कर्तव्‍यों और दायित्‍वों का उल्‍लेख सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा 18 से 20 में किया गया है। वस्‍तुत: राज्‍य सूचना आयोग के समक्ष द्वितीय अपील एवं शिकायतें ही की जा सकती है। राज्‍य सूचना आयोग दोषी अधिकारियों पर शास्ति भी आरोपित कर सकता है और राज्‍य शासन को अनुशासनात्‍मक कार्यवाही करने के लिए अनुशंसा भी कर सकता है।

सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 6 के अन्‍तर्गत सूचना प्राप्‍त करने के लिए सर्वप्रथम जन सूचना अधिकारी के समक्ष आवेदन प्रस्‍तुत किया जाना चाहिये। प्रत्‍येक लोक प्राधिकारी का दायित्‍व है कि वह अपने प्रत्‍येक कार्यालय में अधिनियम की धारा 5 के अनुसार जन सूचना अधिकारी नामांकित करें। उप जिला या उप संभाग स्‍तरीय कार्यालयों में सहायक जन सूचना अधिकारी नामांकित किये जाने का प्रावधान है। सहायक जन सूचना अधिकारी को सूचना प्राप्‍त करने संबंधी आवेदन / ज्ञापन प्राप्‍त करने के लिए अधिकृत किया गया है।

सूचना का अधिकार अधिनियम को प्रभावशाली करने की दृष्टि से अधिनियम की धारा 20 में राज्‍य सूचना आयोग को यह अधिकार दिया गया है कि यदि कोई जन सूचना अधिकारी बिना किसी यथोचित कारण के किसी सूचना के लिए प्रस्‍तुत किए गये सूचना के आवेदन को लेने से इन्‍कार करता है अथवा निर्धारित समयावधि में सूचना नहीं देता है या किसी दुराग्रह से मांगी गई सूचना नहीं देता है या जान बूझकर गलत, अपूर्ण या भ्रामक सूचना प्रदान करता है या जो सूचना उसे प्रदान करनी है उसे प्रदान नहीं करता है तो उस पर 350 रूपये प्रतिदिन की दर से दण्‍ड लगाया जा सकता है। यह दण्‍ड अधिकतम रूपये 25,000/- तक हो सकता है। राज्‍य सूचना आयोग को यह भी अधिकार दिया गया है कि वह इस प्रकार के व्‍यक्ति पर अनुशासनात्‍मक कार्यवाही करने के लिए अनुशंसा कर सकता है। यह कार्यवाही राज्‍य सूचना आयोग तभी कर सकता है जबकि उसे किसी शिकायत या अपील में सुनवाई के दौरान यह बात सामने आती है कि उसमें कार्यवाही की जानी आवश्‍यक है।

यहां यह उल्‍लेख करना आवश्‍यक है कि इस संबंध में कार्यवाही राज्‍य सूचना आयोग को स्‍वयं अपील अथवा शिकायत की सुनवाई के दौरान जो तथ्‍य या आचरण सामने आता है उसके आधार पर दण्‍ड लगाने का अधिकार है। राज्‍य सूचना आयोग को किसी प्रकार का दण्‍ड अधिरोपित करने के पूर्व संबंधित जन सूचना अधिकारी को अपना पक्ष प्रस्‍तुत करने के लिए अलग से अवसर प्रदान करना आवश्‍यक है।

भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख


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जीवनी एवं निबंध भारत के सर्वश्रेष्ट प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी



माननीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने शपथ ली में किया गया है भारत के प्रधानमंत्री के रूप में. राष्ट्रपति श्री के.आर. नारायणन ने 13 अक्टूबर 1999 को नई दिल्ली में राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में एक भव्य समारोह में पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई. श्री वाजपेयी ने तीसरी बार भारत के प्रधानमंत्री के अगस्त में पद ग्रहण किया है। 27 मार्च, 2015 को  भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया
सर्वश्रेष्ट प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी

इससे पहले श्री वाजपेयी आज तक 19 मार्च 1998 से 16-31 मई, 1996 और दूसरी बार भारत के प्रधानमंत्री थे. प्रधानमंत्री के रूप में अपने तीसरे शपथ ग्रहण के साथ, वह लगातार तीन जनादेशों के जरिए भारत के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित करने के लिए जवाहर लाल नेहरू के बाद से ही प्रधानमंत्री बन जाता है. श्री वाजपेयी ने भी श्रीमती बाद ऐसे पहले प्रधानमंत्री है. इंदिरा गांधी के बाद एक चुनाव में जीत के लिए अपनी पार्टी का नेतृत्व करने के लिए।
जीवनी एवं निबंध भारत के सर्वश्रेष्ट प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी


श्री वाजपेयी ने उसके साथ चार दशकों से अधिक का एक लम्बा संसदीय अनुभव है. उन्होंने कहा कि 1957 के बाद से संसद के एक सदस्य रहे हैं. वह 1962 और 1986 में, 5 वीं 6 और 7 वीं लोकसभा के लिए और फिर से, 10 वीं, 11 वीं और 12 वीं लोकसभा के लिए और राज्य सभा के लिए चुने गए थे. वह फिर से लगातार चौथी बार उत्तर प्रदेश में लखनऊ से संसद के लिए निर्वाचित किया गया है. उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश और दिल्ली - वह अर्थात् अलग अलग समय पर चार विभिन्न राज्यों से निर्वाचित हुए हैं।
 'मेरी इक्यावन कविताएँ' अटल जी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह
देश और जो के विभिन्न क्षेत्रों से राजनीतिक दलों के एक साथ आने के एक पूर्व चुनाव है जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के निर्वाचित नेता पूर्ण समर्थन और 13 वीं लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों का समर्थन प्राप्त है, श्री वाजपेयी पहले का नेता चुना गया अपने ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) भी फिर से 13 वीं लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है जिसमें संसदीय दल के रूप में 12 वीं लोकसभा में मामला था।

विक्टोरिया (अब लक्ष्मीबाई) कॉलेज, ग्वालियर और डी.ए.वी. कॉलेज, कानपुर, उत्तर प्रदेश, श्री वाजपेयी ने एम.ए. (राजनीति विज्ञान) की डिग्री रखती है और अपने क्रेडिट करने के लिए कई साहित्यिक, कलात्मक और वैज्ञानिक उपलब्धियां है पर शिक्षित. उन्होंने राष्ट्रधर्म (हिन्दी मासिक), पांचजन्य (हिन्दी साप्ताहिक) और दैनिक समाचार पत्रों स्वदेश संपादित किया और अर्जुन वीर. उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं "मेरी संसदीय यात्रा" (चार खंडों में), "मेरी इक्क्यावन कवितायेँ", "संकल्प काल", "शक्ति-एसई शांति", "संसद में चार दशक" (तीन खंडों में भाषण), 1957-95 में शामिल , "लोकसभा में अटलजी" (भाषणों का एक संग्रह); मृत्यु हां हत्या "," अमर बलिदान "," कैदी कविराज की कुण्डलियाँ" (आपातकाल के दौरान जेल में लिखी कविताओं का एक संग्रह)," भारत की विदेश नीति के नये आयाम " (1977-79 के दौरान विदेश मंत्री के रूप में दिए गए भाषणों का एक संग्रह); "जनसंघ मैं और मुसलमान", "संसद में किशोर दस्तक" (हिन्दी) (संसद में भाषण - 1957-1992 - तीन खंडों, और "अमर आग है ' (कविताओं का एक संग्रह) 1994।

श्री वाजपेयी ने विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लिया. उन्होंने कहा कि 1961 के बाद से राष्ट्रीय एकता परिषद के सदस्य रहे हैं. वे कुछ अन्य संगठनों में से कुछ में शामिल हैं - (i) के अध्यक्ष, ऑल इंडिया स्टेशन मास्टर्स और सहायक स्टेशन मास्टर्स एसोसिएशन (1965-70), (ii) पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्मारक समिति (1968-84), (iii) दीन दयाल धाम, फराह, उत्तर प्रदेश के मथुरा, और (iv) जन्मभूमि स्मारक समिति, 1969 से।

तत्कालीन जनसंघ (1951), अध्यक्ष, भारतीय जनसंघ (1968-1973), जनसंघ संसदीय दल (1955-1977) के नेता और जनता पार्टी (1977-1980) के एक संस्थापक सदस्य के संस्थापक सदस्य श्री वाजपेयी 1980-1984, 1986 और 1993-1996 के दौरान राष्ट्रपति ने भारतीय जनता पार्टी (1980-1986) और भारतीय जनता पार्टी के संसदीय दल का नेता था. उन्होंने कहा कि 11 वीं लोकसभा के कार्यकाल के दौरान विपक्ष के नेता रहे. इससे पहले वे 24 मार्च 1977 से 28 जुलाई 1979 तक मोरारजी देसाई सरकार में भारत के विदेश मंत्री रहे।

व्यापक रूप से पंडित की शैली के राजनेता के रूप में देश के भीतर और विदेश में सम्मान किया. जवाहर लाल नेहरू, प्रधानमंत्री के रूप में श्री वाजपेयी के 1998-99 के कार्यकाल के 'दृढ़ विश्वास के साहस की एक वर्ष' के रूप में बताया गया है. भारत ने मई 1998 में पोखरण में सफल परमाणु परीक्षण की एक श्रृंखला के राष्ट्रों के एक समूह का चयन प्रवेश किया है कि इस अवधि के दौरान किया गया था. फरवरी 1999 में पाकिस्तान की बस यात्रा का उपमहाद्वीप की बाकी समस्याओं के समाधान हेतु बातचीत के एक नए युग की शुरुआत करने के लिए व्यापक स्वागत हुआ. भारत की निष्ठा और ईमानदारी ने विश्व समुदाय पर गहरा प्रभाव डाला. बाद में जब मित्रता के इस प्रयास को कारगिल में विश्वासघात में हो गया, जब श्री वाजपेयी ने भी भारत की धरती से घुसपैठियों को वापिस खदेड़ने में स्थिति को सफलतापूर्वक सम्भालने के लिए स्वागत किया गया. यह एक वैश्विक मंदी के बावजूद भारत में पिछले वर्ष की तुलना में अधिक था, जो 5.8 प्रतिशत की जीडीपी विकास दर हासिल की है कि श्री वाजपेयी के 1998-99 के कार्यकाल के दौरान किया गया. इस अवधि के दौरान उच्च कृषि उत्पादन और विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि से लोगों की जरुरतों के अनुकूल अग्रगामी अर्थव्यवस्था की सूचक थी. "हम तेजी से विकास करना होगा. और कोई दूसरा विकल्प नहीं है" वाजपेयीजी का नारा विशेषकर गरीब ग्रामीण लोगों के आर्थिक सशक्तिकरण पर ध्यान केंद्रित किया गया है. , ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए एक मजबूत बुनियादी ढांचे के निर्माण और मानव विकास कार्यक्रमों को पुन: जीवित करने के लिए उनकी सरकार द्वारा उठाए गए साहसिक फैसले को पूरी तरह से भारत एक आर्थिक शक्ति बनाने के लिए अगले सहस्राब्दी की चुनौतियों का सामना करने के लिए एक मजबूत और आत्मनिर्भर राष्ट्र के लिए अपनी सरकार की प्रतिबद्धता का प्रदर्शन 21 वीं सदी में. ": भूख और भय के भारत मुक्त, निरक्षरता का भारत स्वतंत्र है और चाहते हैं कि मैं भारत का एक सपना है." 52 वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से बोलते हुए उन्होंने कहा था।

श्री वाजपेयी ने संसद की कई महत्वपूर्ण समितियों में कार्य किया है. उन्होंने कहा कि अध्यक्ष, सरकारी आश्वासनों (1966-67) पर समिति, अध्यक्ष, लोक लेखा समिति (1967-70), सदस्य, सामान्य प्रयोजन समिति (1986), सदस्य, सदन समिति और सदस्य, व्यापार सलाहकार समिति, राज्य सभा (1988 - 90), अध्यक्ष, याचिका समिति, राज्य सभा (1990-91), अध्यक्ष, लोक लेखा समिति, लोकसभा (1991-93), अध्यक्ष, विदेश मामलों संबंधी स्थायी समिति (1993-96)।

श्री वाजपेयी ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और 1942 में जेल चला गया. उन्हें 1975-77 में आपातकाल के दौरान हिरासत में लिया गया था।

व्यापक रूप से श्री वाजपेयी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति, महिलाओं और बच्चों के कल्याण के उत्थान के अंतरराष्ट्रीय मामलों में एक गहरी रुचि ले रहा है, यात्रा की. ऑस्ट्रेलिया, 1967 को संसदीय प्रतिनिधिमंडल, यूरोपीय संसद, 1983, कनाडा, 1987, कनाडा, 1966 में आयोजित राष्ट्रमंडल संसदीय संघ की बैठकों में भाग लेने हेतु भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य, पूर्वी अफ्रीका, 1965 को संसदीय सद्भावना मिशन - विदेश में अपनी यात्रा से कुछ इस तरह के रूप में दौरा भी शामिल है 1994, जाम्बिया, 1980, मैन 1984, अंतर संसदीय संघ सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल, जापान, 1974 के आइल, श्रीलंका, 1975, स्विट्जरलैंड, 1984, संयुक्त राष्ट्र महासभा के लिए भारतीय प्रतिनिधिमंडल, 1988, 1990, 1991, 1992, 1993 और 1994; मानवाधिकार आयोग सम्मेलन, जेनेवा, 1993 को नेता, भारतीय प्रतिनिधिमंडल।

श्री वाजपेयी को उनकी राष्ट्र की उत्कृष्ट सेवाओं के लिए वर्ष 1992 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था. उन्होंने यह भी लोकमान्य तिलक पुरस्कार और भारत रत्न पंडित प्रदान किया गया. सर्वोत्तम सांसद के लिए गोविंद बल्लभ पंत पुरस्कार, 1994 में दोनों. इससे पहले, कानपुर विश्वविद्यालय से 1993 में दर्शनशास्त्र की मानद डाक्टरेट उपाधि से सम्मानित किया।

प्रसिद्ध और सम्मान कविता के लिए अपने प्यार के लिए और एक सुवक्ता वक्ता के रूप में श्री वाजपेयी ने एक पेटू पाठक होने के लिए जाना जाता है. उन्होंने कहा कि भारतीय संगीत और नृत्य के शौकीन है।
वाजपेयी के पुराने दोस्‍तों के अनुसार वाजपेयी ने एक बेटी गोद ली है जिसका नाम नमिता है और उसने भारतीय संगीत और नृत्‍य भी सीखा है। 1992 में वाजपेयी को पद्मविभूषण, 1993 में कानपुर विश्‍वविद्यालय से डीलिट की उपाधि, 1994 में लोकमान्‍य तिलक अवॉर्ड, 1994 में बेस्‍ट संसद का अवॉर्ड, 1994 में भारतरत्‍न व पंडित गोविंद वल्‍लभ पंत अवॉर्ड से सम्‍मानित किया जा चुका है। 

वाजपेयी के 2003 में 'ट्वेंटी-वन कविताएं', 1999 में 'क्‍या खोया क्‍या पाया', 1995 में 'मेरी इक्‍यावन कविताएं' (हिन्‍दी), 1997 में 'श्रेष्‍ठ कविताएं' तथा 1999 और 2002 में जगजीत सिंह के साथ दो एलबम 'नई दिशा' और 'संवेदना' शामिल हैं। 

अटल बिहारी वाजपेयी के सम्बन्ध में रोचक तथ्य : 
  • वाजपेयी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वालों में से एक है और 1968 से 1973 तक वह उसके अध्यक्ष भी रहे थे। राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ वाजपेयी एक अच्छे कवि और संपादक भी थे। वाजपेयी ने लंबे समय तक राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर-अर्जुन आदि पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया।
  • अटल बिहारी वाजपेयी का 25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालिया में हुआ था। अटल बिहारी वाजपेयी की पढ़ाई-लिखाई कानपुर में हुई। वे अपने कॉलेज के समय से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बन गए थे। वाजपेयी ने राजनीति शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन कानपुर के एक कॉलेज से किया। एलएलबी बीच में ही छोड़कर वाजपेयी राजनीति में पूरी तरह सक्रीय हो गए। राजनीति में उनका पहला कदम अगस्त 1942 में रखा गया, जब उन्हें और बड़े भाई प्रेम को भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 23 दिन के लिए गिरफ्तार किया गया।
  • 1951 में वाजपेयी भारतीय जन संघ के संस्थापक सदस्य थे। उन्होंने 1955 में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए। 1957 में जन संघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया। लखनऊ में वो चुनाव हार गए, मथुरा में उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई लेकिन बलरामपुर (जिला गोण्डा, उत्तर प्रदेश) से चुनाव जीतकर वे लोकसभा पहुंचे।
  • 1957 से 1977 तक (जनता पार्टी की स्थापना तक) जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे। 1968 से 1973 तक वे भारतीय जनसंघ के राष्टीय अध्यक्ष पद पर आसीन रहे।
  • 1977 में पहली बार वाजपेयी गैर कांग्रेसी विदेश मंत्री बने। मोरारजी देसाई की सरकार में वह 1977 से 1979 तक विदेश मंत्री रहे. इस दौरान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने हिंदी में भाषण दिया। अटल ही पहले विदेश मंत्री थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण देकर भारत को गौरवान्वित किया था।
  • 1980 में जनता पार्टी से असंतुष्ट होकर इन्होंने जनता पार्टी छोड़ दी और भारतीय जनता पार्टी की स्थापना में मदद की। 1980 से 1986 तक वो बीजेपी के अध्यक्ष रहे और इस दौरान वो बीजेपी संसदीय दल के नेता भी रहे। दो बार राज्यसभा के लिए भी निर्वाचित हुए।16 मई 1996 को वो पहली बार प्रधानमंत्री बने. लेकिन लोकसभा में बहुमत साबित न कर पाने की वजह से 31 मई 1996 को उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद 1998 तक वो लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे।
  • अटल बिहारी वाजपेयी अब तक नौ बार लोकसभा के लिए चुने गए हैं. वे सबसे लम्बे समय तक सांसद रहे हैं और जवाहरलाल नेहरू व इंदिरा गांधी के बाद सबसे लम्बे समय तक गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री भी।
  • परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों की संभावित नाराजगी से विचलित हुए बिना उन्होंने अग्नि-दो और परमाणु परीक्षण कर देश की सुरक्षा के लिये साहसी कदम भी उठाये. 1998 में राजस्थान के पोखरण में भारत का द्वितीय परमाणु परीक्षण किया।
  • अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक कवि भी हैं. 'मेरी इक्यावन कविताएँ' अटल जी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। वाजपेयी जी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद के गुण विरासत में मिले हैं. उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे।
  • अटल बिहारी वाजपेयी 1992 में पद्म विभूषण सम्मान, 1994 में लोकमान्य तिलक पुरस्कार, 1994 में श्रेष्ठ सासंद पुरस्कार और 1994 में ही गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार से सम्मानित किए जा चुके हैं। (संकलन)
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भारतीय जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी पर जीवनी एवं निबंध



भाजपा ने 1977 में जनता पार्टी में ही मिला दिया जो जनसंघ की उत्तराधिकारी पार्टी है। भाजपा ने 1979 में यह सरकार के पतन के परिणामस्वरूप जनता पार्टी में आंतरिक मतभेद के बाद 1980 में एक अलग पार्टी के रूप में गठन किया गया था।
एक संक्षिप्त जीवन-वर्णन -डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी (6 जुलाई 1901 - 23 जून 1953) उद्योग के लिए मंत्री और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में आपूर्ति के रूप में काम करने वाले एक भारतीय राजनीतिज्ञ था। प्रधानमंत्री के साथ बाहर गिरने के बाद मुखर्जी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और 1951 में राष्ट्रवादी भारतीय जनसंघ पार्टी की स्थापना की।
मुखर्जी ने कोलकाता में जुलाई 1901 6 पर एक बंगाली हिंदू परिवार (कोलकाता) में हुआ था। उनके पिता कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने जो सर आशुतोष मुखर्जी, बंगाल में एक अच्छी तरह का सम्मान वकील था, और उसकी माँ लेडी जोगमाया देवी मुकर्जी था, उसकी ओर से किसी और उसे भावनात्मक समर्थन देने की जरूरत है जो, श्यामा प्रसाद 'भी एक भावुक व्यक्ति एक अंतर्मुखी, बल्कि द्वीपीय, एक चिंतनशील व्यक्ति "होने के लिए बड़ा हुआ। वह गंभीर रूप से अपनी पत्नी सुधा देवी की जल्दी मौत से प्रभावित हैं और दोबारा शादी या दु: ख में डूब कभी नहीं किया गया था। मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से डिग्री प्राप्त की। उन्होंने 1921 में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान हासिल करने अंग्रेजी में स्नातक की उपाधि प्राप्त है और यह भी 1924 में 1923 और बीएल में एमए किया था। उन्होंने कहा कि 1923 में सीनेट के एक साथी बन गया। अपने पिता शीघ्र ही पटना उच्च न्यायालय में सैयद हसन इमाम को खोने के बाद निधन हो गया था के बाद वह 1924 में कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक वकील के रूप में दाखिला लिया। इसके बाद वह 'लिंकन्स इन' में अध्ययन करने के लिए 1926 में इंग्लैंड के लिए छोड़ दिया और 1927 में बैरिस्टर बन गए। 33 की उम्र में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय (1934) के सबसे कम उम्र के कुलपति बने, और 1938 तक इस पद पर कार्य किया। वह शादीशुदा जीवन का केवल ग्यारह साल का आनंद लिया और पांच बच्चों की थी - पिछले एक, एक चार महीने का बेटा, डिप्थीरिया से मौत हो गई। उसकी पत्नी इस के बाद दिल टूट गया था और शीघ्र ही बाद में निमोनिया से मौत हो गई।
श्यामा प्रसाद उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करते हुए कांग्रेसी उम्मीदवार के रूप में बंगाल विधान परिषद में प्रवेश किया जब 1929 में एक छोटे रास्ते में अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत की। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने वाले एक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में, बंगाल विधान परिषद के सदस्य के रूप में निर्वाचित लेकिन कांग्रेस विधानमंडल का बहिष्कार करने का फैसला किया है, जब अगले साल इस्तीफा दे दिया था। बाद में, वह एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और निर्वाचित हुए। उन्होंने कहा कि 1941-42 के दौरान बंगाल प्रांत के वित्त मंत्री थे। उन्होंने कहा कि विपक्ष के नेता बने जब ​​कृषक प्रजा पार्टी - मुस्लिम लीग गठबंधन सत्ता 1937-41 में किया गया था और एक वित्त मंत्री के रूप में और इस्तीफा दे दिया एक वर्ष से भी कम समय के भीतर Fazlul हक की अध्यक्षता प्रगतिशील गठबंधन मंत्रालय में शामिल हो गए। वे हिन्दुओं के प्रवक्ता के रूप में उभरे और शीघ्र ही हिन्दू महासभा में शामिल हो गए और 1944 में वह अध्यक्ष बने। वे हिन्दुओं के प्रवक्ता के रूप में उभरे और शीघ्र ही हिन्दू महासभा में शामिल हो गए और 1944 में वह अध्यक्ष बने। मुखर्जी अतिरंजित मुस्लिम अधिकार या पाकिस्तान के एक मुस्लिम राज्य या तो मांग कर रहे थे, जो मोहम्मद अली जिन्ना की सांप्रदायिक और अलगाववादी मुस्लिम लीग प्रतिक्रिया की जरूरत महसूस हुई, जो एक राजनीतिक नेता था। मुखर्जी ने कहा कि वह सांप्रदायिक प्रचार और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी एजेंडे को माना जा रहा है के खिलाफ हिंदुओं की रक्षा के लिए कारणों को अपनाया। मुखर्जी और उनके भविष्य के अनुयायियों हमेशा सहिष्णुता और पहली जगह में देश में एक स्वस्थ, समृद्ध और सुरक्षित मुस्लिम आबादी के लिए कारण के रूप में सांप्रदायिक सम्मान के निहित हिंदू प्रथाओं का हवाला देते होगा। अपने विचार दृढ़ता से मुस्लिम लीग से संबंधित भीड़ बड़ी संख्या में हिंदुओं की हत्या जहां ईस्ट बंगाल, में नोआखली नरसंहार से प्रभावित थे। Dr।Mookerjee शुरू में भारत के विभाजन के एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी था, लेकिन 1946-47 के सांप्रदायिक दंगों के बाद मुखर्जी ने दृढ़ता से हिंदुओं के एक मुस्लिम बहुल राज्य में और मुस्लिम लीग द्वारा नियंत्रित एक सरकार के तहत जीने के लिए जारी रखने disfavored। 11 फ़रवरी 1941 सपा मुखर्जी मुसलमानों को पाकिस्तान में जीना चाहता था अगर वे " की तरह वे जहां भी उनके बैग और सामान पैक और भारत छोड़।।। (से) " होना चाहिए कि एक हिंदू रैली बताया। Dr।Mookerjee एक मुस्लिम बहुल पूर्वी पाकिस्तान में अपने हिन्दू बहुल क्षेत्रों के शामिल किए जाने को रोकने के लिए 1946 में बंगाल के विभाजन का समर्थन किया है, वह भी एक संयुक्त लेकिन स्वतंत्र बंगाल के लिए एक असफल बोली का विरोध शरत बोस के भाई द्वारा 1947 में किए गए सुभाष चंद्र बोस और Huseyn शहीद सुहरावर्दी, एक बंगाली मुस्लिम राजनीतिज्ञ। उन्होंने कहा कि जनता की सेवा के लिए अराजनैतिक शरीर के रूप में हिंदुओं अकेले या काम के लिए प्रतिबंधित किया जा नहीं हिंदू महासभा चाहता था। नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद, महासभा के जघन्य कृत्य के लिए मुख्य तौर पर दोषी ठहराया और गहरा अलोकप्रिय हो गया था। खुद हत्या की निंदा मुखर्जी।
डा. श्यामा प्रसाद मई 1953 11 पर कश्मीर में प्रवेश करने पर गिरफ्तार किया गया था। इसके बाद, वह एक जीर्ण शीर्ण घर में जेल में बंद था। डा. श्यामा प्रसाद शुष्क परिफुफ्फुसशोथ और कोरोनरी परेशानियों से सामना करना पड़ा था, और उसी से उत्पन्न होने वाली जटिलताओं के कारण उनकी गिरफ्तारी के बाद अस्पताल में डेढ़ महीने के लिए लिया गया था। [ प्रशस्ति पत्र की जरूरत ] वह डॉक्टर में सूचित करने के बावजूद एक प्रकार की दवा दिलाई पेनिसिलिन के लिए अपने एलर्जी का आरोप है, और वह जून 1953 23 पर मृत्यु हो गई। यह दृढ़ता से वह हिरासत में जहर था कि अफवाह थी और शेख अब्दुल्ला और नेहरू भी ऐसा ही करने की साजिश रची थी। कोई पोस्टमार्टम शासन की कुल उपेक्षा का आदेश दिया गया था। कार्यवाहक प्रधानमंत्री ( लंदन में निधन हो गया था जो नेहरू की अनुपस्थिति में ) था जो मौलाना आजाद, शरीर दिल्ली लाया जाए और मृत शरीर सीधे कोलकाता के लिए भेजा गया था की अनुमति नहीं थी। हिरासत में उसकी मौत देश भर में व्यापक संदेह उठाया और स्वतंत्र जांच के लिए मांग के जवाहर लाल नेहरू को उनकी मां, जोगमाया देवी से बयाना अनुरोध सहित, उठाए गए थे। नेहरू वह तथ्यों की जानकारी होती थे और, उसके अनुसार जो व्यक्तियों के एक नंबर से पूछा था कि घोषित, डॉ। मुखर्जी की मौत के पीछे कोई रहस्य नहीं थी। जोगमाया देवी लाल नेहरू के जवाब को स्वीकार करने और एक निष्पक्ष जांच की स्थापना के लिए अनुरोध नहीं किया था। नेहरू हालांकि पत्र को नजरअंदाज कर दिया और कोई जांच आयोग का गठन किया गया था। मुखर्जी की मौत इसलिए कुछ विवाद का विषय बनी हुई है। अटल बिहारी वाजपेयी मुखर्जी की मौत एक " नेहरू षड्यंत्र " था कि 2004 में दावा किया है। हालांकि, यह बाद में परमिट सिस्टम, सदर ए रियासत की और जम्मू एवं कश्मीर के प्रधानमंत्री के पद को दूर करने, नेहरू मजबूर जो मुखर्जी की शहादत हुई थी। (संकलन)


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जीवनी एवं निबंध - पंडित दीनदयाल उपाध्याय



पंडित दीनदयाल उपाध्याय 1953 से 1968 तक भारतीय जनसंघ के नेता थे। एक गहन दार्शनिक, आयोजक ख़ासकर और व्यक्तिगत निष्ठा के उच्चतम मानकों को बनाए रखा है जो एक नेता, वह अपनी स्थापना के बाद से भाजपा के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा की स्रोत रहा है। साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों की आलोचना है जो अपने ग्रंथ एकात्म मानववाद, राजनीतिक कार्रवाई के लिए एक समग्र वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है और निर्माण की कानून और मानव जाति के सार्वभौमिक जरूरतों के अनुरूप शासन कला।
Pandit Deendayal Upadhyaya (1916-68),
RSS Pracharak & Bharatiya Jana Sangh Ex-President

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा - वे उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में नगला चंद्रभान के गांव में पैदा हुआ था। उनके पिता , भगवती प्रसाद , एक प्रसिद्ध ज्योतिषी था और उसकी मां श्रीमती राम प्यारी एक धार्मिक विचारधारा वाले महिला थी। वह आठ था इससे पहले कि वह कम से कम तीन साल पुरानी है और उसकी माँ थी जब वह अपने पिता को खो दिया। वह तो अपने मामा द्वारा लाया गया था। वह अपने बचपन के दौरान अपने माता पिता को खो दिया है, वह अकादमिक उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। बाद में उन्होंने सीकर में हाई स्कूल के पास गया। यह वह मैट्रिक पास है कि सीकर से था। उन्होंने कहा कि बोर्ड परीक्षा में प्रथम स्थान पर रहा और उसके बाद शासक , सीकर के महाराजा कल्याण सिंह , उसकी योग्यता की मान्यता के रूप में , एक स्वर्ण पदक , 10 रुपए और अपनी पुस्तकों के प्रति एक अतिरिक्त 250 रुपए की मासिक छात्रवृत्ति के साथ उसे प्रस्तुत किया। पिलानी में जी।डी। बिड़ला से 1937 में इंटरमीडिएट बोर्ड परीक्षा। बाद में उन्होंने प्रौद्योगिकी और विज्ञान की प्रतिष्ठित बिरला इंस्टीट्यूट बन जाएगा जो पिलानी में बिरला कॉलेज में अपने मध्यवर्ती पूरा किया। उन्होंने 1939 में सनातन धर्म कॉलेज , कानपुर से प्रथम श्रेणी में स्नातक और अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करने के लिए सेंट जॉन्स कॉलेज, आगरा में शामिल हो गए। पहले वर्ष में, वह प्रथम श्रेणी अंक प्राप्त है, लेकिन एक चचेरे भाई की बीमारी के कारण अंतिम वर्ष की परीक्षा के लिए प्रदर्शित करने में असमर्थ था। अपने मामा वह बीत चुका है और वह एक साक्षात्कार के बाद चयनित किया गया था , जो प्रांतीय सेवा परीक्षा के लिए बैठने के लिए उसे राजी कर लिया। वह आम आदमी के साथ काम करने के विचार के साथ मोहित हो गया था , क्योंकि वह प्रांतीय सेवाओं में शामिल होने के लिए नहीं चुना है। उपाध्याय , इसलिए , एक बीटी पीछा करने के लिए प्रयाग के लिए छोड़ दिया वह सार्वजनिक सेवा में प्रवेश के बाद पढ़ाई के लिए उनका प्यार कई गुना वृद्धि हुई है। अपने हित के विशेष क्षेत्रों में , अपने छात्र जीवन के दौरान बोए गए , जिनमें से बीज समाजशास्त्र और दर्शन थे।
आरएसएस और जनसंघ - वह 1937 में सनातन धर्म कॉलेज , कानपुर में एक छात्र था , जबकि वह अपने सहपाठी बालूजीमहाशब्दे के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस ) के साथ संपर्क में आया। यह वह आरएसएस , डा। हेडगेवार के संस्थापक मिलना होगा कि वहाँ था। हेडगेवार छात्रावास में बाबा साहेब आप्टे और दादाराव परमार्थ के साथ रहने के लिए प्रयोग किया जाता है। डा। हेडगेवार शाखाओं में से एक पर एक बौद्धिक चर्चा के लिए उन्हें आमंत्रित किया। सुंदर सिंह भंडारी भी कानपुर में अपने सहपाठियों से एक था। यह अपने सार्वजनिक जीवन को बढ़ावा दिया। वह 1942 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक काम करने के लिए खुद को समर्पित किया। अपने अध्यापन स्नातक अर्जित होने हालांकि प्रयाग से , वह एक नौकरी में प्रवेश नहीं करने का फैसला किया है। उन्होंने कहा कि वह संघ शिक्षा में प्रशिक्षण लिया था जहां नागपुर में 40 दिन की गर्मी की छुट्टी आरएसएस शिविर में भाग लिया था। दीनदयाल , तथापि , अपने शैक्षिक क्षेत्र में बाहर खड़े हालांकि , प्रशिक्षण की शारीरिक कठोरता सहन नहीं कर सके। उनकी शिक्षा और आरएसएस शिक्षा विंग में द्वितीय वर्ष के प्रशिक्षण पूरा करने के बाद , पंडित दीनदयाल उपाध्याय आरएसएस के एक आजीवन प्रचारक बन गए। दीनदयाल उपाध्याय 
बढ़ते आदर्शवाद का एक आदमी था और संगठन के लिए एक जबरदस्त क्षमता थी और एक सामाजिक विचारक के विभिन्न पहलुओं को प्रतिबिंबित, अर्थशास्त्री, शिक्षाशास्री, राजनीतिज्ञ, लेखक, पत्रकार, वक्ता, आयोजक आदि वह 1940 में लखनऊ से एक मासिक राष्ट्र धर्म शुरू कर दिया। प्रकाशन राष्ट्रवाद की विचारधारा के प्रसार के लिए चाहिए था। वह अपने नाम के इस प्रकाशन के मुद्दों में से किसी में संपादक के रूप में मुद्रित नहीं था लेकिन उसकी विचारोत्तेजक लेखन के कारण उसकी लंबे समय से स्थायी छाप नहीं था जो किसी भी मुद्दे पर शायद ही वहाँ था। बाद में वह एक साप्ताहिक पांचजन्य और एक दैनिक स्वदेश शुरू कर दिया।
 
1951 में डॉ। श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय जनसंघ की स्थापना की, दीनदयाल अपने उत्तर प्रदेश शाखा के पहले महासचिव बने। इसके बाद, वह अखिल भारतीय महासचिव के रूप में चुना गया था। दीनदयाल ने दिखाया कौशल और सूक्ष्मता गहरा डा। श्यामा प्रसाद मुखर्जी प्रभावित और अपने प्रसिद्ध टिप्पणी हासिल। "यदि मैं दो दीनदयाल है होता, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता" 1953 में डॉ। मुखर्जी की मृत्यु के बाद अनाथ संगठन पोषण और एक देशव्यापी आंदोलन के रूप में यह इमारत का पूरा बोझ दीनदयाल के युवा कंधों पर गिर गया। 15 साल के लिए, वह संगठन के महासचिव बने और ईंट से ईंट, इसे बनाया। वह आदर्शवाद के साथ समर्पित कार्यकर्ताओं की एक बैंड उठाया और संगठन के पूरे वैचारिक ढांचे प्रदान की। उन्होंने यह भी कहा कि उत्तर प्रदेश से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ा, लेकिन असफल रहा।
Stamp on Deendayal UpadhyayaStamp on Deendayal Upadhyaya 
दर्शन और सामाजिक सोच - भारतीय जनता पार्टी के मार्गदर्शक दर्शन - उपाध्याय राजनीतिक दर्शन एकात्म मानववाद की कल्पना की। एकात्म मानववाद के दर्शन शरीर, मन और बुद्धि और हर इंसान की आत्मा का एक साथ और एकीकृत कार्यक्रम की वकालत। सामग्री की एक संश्लेषण और आध्यात्मिक, व्यक्तिगत और सामूहिक है जो एकात्म मानववाद, का उनका दर्शन करने के लिए इस सुवक्ता गवाही देता है। राजनीति और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में, वह व्यावहारिक और पृथ्वी के नीचे था। उन्होंने कहा कि भारत के लिए आधार के रूप में गांव के साथ एक विकेन्द्रित राजनीति और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था कल्पना।
दीनदयाल उपाध्याय एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत व्यक्तिवाद, लोकतंत्र, समाजवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद आदि जैसे पश्चिमी अवधारणाओं पर भरोसा नहीं कर सकते विश्वास है कि और वह आजादी के बाद भारतीय राजनीति में इन सतही पश्चिमी नींव पर उठाया गया है कि देखने का था और निहित नहीं था हमारी प्राचीन संस्कृति के कालातीत परंपराओं में। उन्होंने कहा कि भारतीय मेधा पश्चिमी सिद्धांतों और विचारधाराओं से घुटन और फलस्वरूप वृद्धि और मूल भारतीय सोचा के विस्तार पर एक बड़ी अंधी गली वहां गया हो रही थी कि देखने का था। वह एक ताजा हवा के लिए एक तत्काल सार्वजनिक ज़रूरत नहीं थी।
उन्होंने कहा कि आधुनिक तकनीक का स्वागत किया लेकिन यह भारतीय आवश्यकताओं के अनुरूप करने के लिए अनुकूलित किया जाना चाहता था। दीनदयाल एक रचनात्मक दृष्टिकोण में विश्वास करते थे। उन्होंने कहा कि यह सही था जब उसके अनुयायियों की सरकार के साथ सहयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया और यह गलती जब निडर होकर विरोध करते हैं। उन्होंने कहा कि सब कुछ ऊपर राष्ट्र का हित रखा। उन्होंने कहा कि अप्रत्याशित परिस्थितियों में मृत्यु हो गई और मुगल सराय रेलवे यार्ड में 11 फ़रवरी 1968 को मृत पाया गया था। निम्नलिखित गर्मजोशी कॉल वह उनके कानों में अभी भी बजता है, कालीकट सत्र में प्रतिनिधियों के हजारों करने के लिए दिया।
हम नहीं किसी विशेष समुदाय या वर्ग का नहीं बल्कि पूरे देश की सेवा करने का वादा कर रहे हैं। हर ग्रामवासी हमारे शरीर के हमारे रक्त और मांस का खून है। हम उनमें से हर एक वे भारतमाता के बच्चे हैं कि गर्व की भावना को दे सकते हैं जब तक हम आराम नहीं करेगा। हम इन शब्दों के वास्तविक अर्थ में भारत माता सुजला, सुफला (पानी के साथ बह निकला और फलों से लदे) करेगा। दशप्रहरण धरणीं दुर्गा (उसे 10 हथियारों के साथ मां दुर्गा) के रूप में वह बुराई जीतना करने में सक्षम हो जाएगा, लक्ष्मी के रूप में वह सब कुछ खत्म हो और सरस्वती के रूप में वह अज्ञान की उदासी दूर होगी समृद्धि चुकाना करने में सक्षम हो और चारों ओर ज्ञान की चमक फैल जाएगा उसे। परम जीत में विश्वास के साथ, हमें इस कार्य को करने के लिए खुद को समर्पित करते हैं।
पंडित उपाध्याय पांचजन्य (साप्ताहिक) और लखनऊ से स्वदेश (दैनिक) संपादित। हिंदी में उन्होंने एक नाटक चंद्रगुप्त मौर्य लिखा है, और बाद में शंकराचार्य की जीवनी लिखी गई है। उन्होंने कहा कि डा। केबी हेडगेवार, आरएसएस के संस्थापक के एक मराठी जीवनी का अनुवाद किया।
मृत्यु - एक ट्रेन में यात्रा करते समय दीनदयाल उपाध्याय, 11 फरवरी, 1968 के शुरुआती घंटों में मृत पाया गया था।


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डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी फिल्म समीक्षा (मूवी रिव्यू)



कल मैंने पहली बार किसी मूवी का फर्स्ट डे/फर्स्ट शो देखा. यह भी है कि यह किसी भी सिनेमा हाल में Dhobi Ghat के बाद पहली फिल्म थी. इस फिल्म को देखने की भूमिका मेरे साथ Vivek Mishra ने बनायीं और उनका साथ दिया Sonu Sadhwani ने, जो कि बेहद मस्ती भरा और रोमांचक था.
डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी फिल्म समीक्षा (मूवी रिव्यू)
कल भाई Varun Singh जहाँ तक डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी अपना मत देना होगा तो मैं इसे बहुत अच्छी फिल्म नहीं कहूँगा. फिल्म में सस्पेंस काफी है जो बहुत हद तक दूर नहीं हुआ. तत्कालीन परिवेश के अनुसार संवाद में जल्दबाजी फिल्म के संवाद को समझने नही देते है और कब क्या हो जाता है आप पिछली बात समझने की कोशिश करते है तब तक वर्तमान संवाद आगे बढ़ चूका होता है.
फिल्म के सीन काफी डार्क है जो आख फाड़ने पर मजबूर करती है और एकाएक इतने पात्र भी प्रकट हुए है कि कौन किसका दोस्त और कौन किसका शत्रु है. फिल्म में एक चुंबन दृश्य है जो सर्वथा अप्रासंगिक और निरर्थक है क्योंकि 40 के दशक का एक डिटेक्टिव से ऐसे दृश्य की अपेक्षा करना कठिन है. फिल्मों को समझने के लिए अगर आप आराम की मुद्रा में बैठ आकर फिल्म देख रहे है तो आप गलत कर रहे है कही कही कमजोर संबाद यह कहने पर मजबूर कर देते है बायलूम तेज कर या चेयर से उठ कर आप मूवी को इंजॉय करे पर यह घर नहीं है थिएटर है जहाँ यह संभव नहीं है.
धारावाहिक ब्योमकेश बक्शी के समक्ष फिल्म डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी दूर दूर तक समकक्ष नहीं दिखती है. सुशांत अपनी ऐतिहासिक भूमिका में बिलकुल भी सफल नहीं रहे है. उनमे एक डिटेक्टिव की अपेक्षा लवर बॉय की झलक ज्यादा नज़र आ रही थी. जहाँ तक मुझे लगता है कि डिटेक्टिव की भूमिका में नसीरुद्दीन शाह या के के मेनन ज्यादा अच्छा परफॉर्म कर पाते.
जहाँ तक आपको फिल्म देखने लिए कहूँ कि नहीं तो मैं कहूँगा कि यदि आप थिलर और सस्पेंसियल मूवीज देखने के शौक़ीन है तो आपको यह देखनी चाहिए क्योकि भारत में ऐसी मूवीज कम ही बनती है. अगर आप धारावाहिक ब्योमकेश बख्शी की छवि लेकर मूवी देखने जा रहे है तो आपको यह फिल्म बेहद निराशा देगी.
फिल्म का अंत यह इंगित करता है कि डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी की कई सीरीज आ सकती है, आगे के पार्ट यदि ऐसे ही रहे तो निर्मता के लिए यह घाटा का सौदा तो होगा ही साथ ही साथ ब्योमकेश बख्शी के मुरीद दर्शकों के साथ अन्याय होगा.


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