द्वितीय स्वरुप माँ ब्रह्मचारिणी Second Form of Goddess Brahmacharini Mata Stuti Mantra



 
दधाना करपद्माभ्यामक्षमाला कमण्डलु !
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्म्चारिन्यनुतमा !!

Dadhana karpadmabhayaamaqshmala kamadalu !
Devi prasidatu mayi brahmchaarinyanutama !!

Meaning (Hindi)-
जिनके हाथों में पद्म (अर्थात कमल का पुष्प) , रुद्राक्ष माला, और कमंडल है, वो उत्तम ब्रह्मचारिणी माता मुझ पर प्रसन्न हों !!

Explanation-
Goddess Brahmchaarini wears white color clothes, she holds rudraksh mala, lotus flower, kamandalu, in her hands. Goddess brahmcharini is the "tapaswini" roop of goddess.. who gives freedom from Kaama, krodha.

दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू । देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ॥
नवरात्र पर्व के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल रहता है। माँ दुर्गाजी का यह दूसरा स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनन्तफल देने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता। माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है।
इस दिन ऐसी कन्याओं का पूजन किया जाता है जिनका विवाह तय हो गया है लेकिन अभी शादी नहीं हुई है। इन्हें अपने घर बुलाकर पूजन के पश्चात भोजन कराकर वस्त्र, पात्र आदि भेंट किए जाते हैं।
प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में द्वितीय दिन इसका जाप करना चाहिए।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और ब्रह्मचारिणी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।


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प्रथम स्वरूप माता शैलपुत्री First Form of Goddess- Shailputri Stuti Mantra



वन्दे वांछितलाभाय चंद्रार्धक्रतशेखराम !
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम !!

Vande Vanchhitalabhay chandrardhakritshekharam !
Vrisharudham Shooldharam Shailputreem Yashasvineem !!

Shailputri Stuti Mantra

Meaning (Hindi) -
शैलपुत्री माता जो यशस्विनी हैं, जिनके मस्तक पे आधा चन्द्र सुशोभित है, जो वृष पे आरुड़ हैं , इच्छित लाभ देने वाली हैं, उनकी हम वंदना करते हैं !!

Explanation-
Shailputri is one of many names of goddess Parvati. She is called Shail-bala or Shail-putri because she was born as Himalaya's Daughter. Himalaya, being a mountain( parvat or Shail), she is called parvati or shail-putri. Navratre's first day is devoted to Shailputri mata. She rides on Vrash (Bull), she has Shool (Trident) in one of her hands, there is half-moon on her crown, she is benefitial for whatever one wishes.


।।  ॐ ऐं ह्री क्लीं चामूण्डायै विच्चे ॐ शैलपुत्री देव्यै नम: ।।
वन्दे वांछितलाभाय चन्दार्धकृतशेखराम। वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्।।

नवरात्रि के पहले दिन मां दुर्गा के प्रथम स्वरूप माता शैलपुत्री का पूजन किया जाता है। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वत राज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री(शैलजा) पड़ा। इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को 'मूलाधर' चक्र में स्थित करते हैं और यहीं से उनकी योग साधना का प्रारंभ भी होता है। वृषभारूढ़ माता शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। अपने पूर्वजन्म में ये प्रजापति दक्ष के घर की कन्या के रूप में उत्पन्न हुईं थीं। तब इनका नाम 'सती' था और इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था। माता सती ने अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और "शैलपुत्री" नाम से विख्यात हुईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद की कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व- भंजन किया था। पूर्वजन्म की भांति ही वे इस बार भी शिवजी की ही अर्धांगिनी बनीं। नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं।











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दुर्गा सप्त श्लोकी (All Mantras With Meaning)



शिव उवाच -
देवी त्वम् भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी । 
कलौ हि कार्यासिद्ध्यार्थमुपायम ब्रूहि यत्नतः ।।
हे देवी ! तुम भक्तों के लिए सुलभ हो और समस्त कर्मों का विधान करने वाली हो ।  कलियुग में कामनाओं की सिद्धि हेतु यदि कोई उपाय हो तो उसे अपनी वाणी द्वारा सम्यक रूप से व्यक्त करो ।

देव्युवाच-
शृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम । 
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते ।। 
हे देव ! आपका मेरे ऊपर बहुत  स्नेह है ! कलियुग में समस्त कामनाओं को सिद्ध करने वाला जो साधन है वह बतलाऊंगी , सुनो ! उसका नाम है ' अम्बास्तुती ' !

ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमंत्रस्य नारायण ऋषि:,
अनुष्टुप छंद:, श्री महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता:,
श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोग: । 
ॐ इस दुर्गासप्तश्लोकी स्तोत्रमन्त्र के नारायण ऋषि हैं, अनुष्टुप छंद है, श्री महाकाली, महालक्ष्मी , और महासरस्वती देवता हैं, श्री दुर्गा की प्रसन्नता के लिए सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ में इसका विनियोग किया जाता है !

ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा !बलादाक्रष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।। 
वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं ।।

दुर्गे स्म्रता हरसि भीतिमशेषजन्तो: स्वस्थे: स्म्रता मतिमतीव शुभाम् ददासि । 
दारिद्र्यदुख:भयहारिणी का त्वदन्या सर्वोपकारकर्नाय  सदार्द्रचित्ता ।। 
माँ दुर्गे ! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिंतन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं ! दुःख दरिद्रता और भय हरने वाली देवी ! आपके सिवा दूसरी कौन है , जिसका चित सबका उपकार करने के लिए सदा ही दयार्द्र रहता हो ।।

सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तु ते ।। 
नारायणी ! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो ! कल्याण दायिनी शिव हो !
सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो ! तुम्हे नमस्कार है !!

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरयाने । सर्वस्यार्तीहरे देवी नारायणी नमोस्तु ते ।। 
शरण में आये हुए दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सबकी पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवी ! तुम्हे नमस्कार है !!

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते । भयेभ्यस्त्राहि नो देवी दुर्गे देवी नामोsस्तु ते ।। 
सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवी ! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हे नमस्कार है !!

रोगानशेषानपहंसी तुष्टा  रुष्टा तु कामान सकलानभीष्टान। 
त्वामाश्रितानाम न विपन्नाराणाम त्वामाश्रिता ह्याश्रयताम प्रयान्ति ।। 
देवी ! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो ।
जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपति तो आती ही नहीं, तुम्हारी शरण में गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं ।

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रेलोक्यस्याखिलेश्वरी । 
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम ।। 
सर्वेश्वरी ! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शांत करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।





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ॐ श्री गणेशाय नमः । Shri Ganeshaya Namaha



Shri Ganeshaya Namaha

ॐ श्री गणेशाय नमः । Shri Ganeshaya Namaha
सुमुखश्चैकदंतश्च कपिलो गजकर्णकः ।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो गणाधिपः ।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः ।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ।
विद्यारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा ।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥


श्री सङ्कष्टनाशन गणेश स्तोत्रम्
नारद उवाच।
प्रणम्य शिरसा देवं गौरी पुत्रं विनायाकम्।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यम् आयुष्कामार्थसिद्धये॥१॥
प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम्।
तृतीयं कृष्णपिङ्गाक्षं गजवक्त्रं चतर्थकम्॥२॥
लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम्॥३॥
नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम्।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम्॥४॥
द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं परम्॥५॥
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान् मोक्षार्थी लभते गतिम्॥६॥
जपेद्गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासैः फलं लभेत्।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः॥७॥
अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत्।
तस्य विद्या भवेत् सर्वा गणेशस्य प्रसादतः॥ ८॥
॥इति श्रीनारदपुराणे सङ्कष्टनाशनं नाम गणेशस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥



॥श्री गणेशाय नमः॥
श्री प्रज्ञाविवर्धनाख्यं कार्तिकेय स्तोत्रंम्
स्कन्द उवाच।
योगिश्वरो महासेनः कार्तिकेयोऽग्निनन्दनः।
स्कन्दः कुमारः सेनानीः स्वामी शङ्करसम्भवः॥१॥
गाङ्गेयस्ताम्रचूडश्च ब्रह्मचारी शिखिध्वजः।
तारकारिरुमापुत्रः क्रौञ्चारिश्च षडाननः॥२॥
शब्दब्रह्म समुद्रश्च सिद्धः सारस्वतो गुहः।
सनत्कुमारो भगवान् भोगमोक्षफलप्रदः॥३॥
शरजन्मा गणाधीशपूर्वजो मुक्तिमार्गकृत्।
सर्वागमप्रणेता च वञ्छितार्थप्रदर्शनः॥४॥
अष्टाविंशतिनामानि मदियानीतियः पठेत्।
प्रत्यूषं श्रद्धया युक्तो मूको वाचस्पतिर्भवेत॥५॥
महामन्त्रमयानीति मम नामानुकीर्तनम्।
महाप्रज्ञामवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा॥६॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले प्रज्ञाविवर्धनाख्यं श्रीमत्कार्तिकेयस्तोत्रं सम्पूर्णं॥














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ऐसे थे अपने पंडित दीनदयाल उपाध्याय



ऐसे थे अपने पंडित दीनदयाल उपाध्याय
ऐसे थे अपने पंडित दीन दयाल उपाध्याय

आज के समय में जब राजनीति में भ्रष्टाचार चरम पर है और इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनसमुदाय एकत्र हुआ है। आज की घोटालों की राजनीति में कोई नेता लूट में पीछे नहीं है हर किसी की मनसा यह है की जितना लूट करो लूट लो ऐसे में अतीत की राजनीति के कुछ नेता गण मिसाल हुआ करते थे उनमे से एक थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय, वाकई यह व्यक्तित्व आज के लोगों के लिए सीख का विषय होना चाहिए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय 1953 से 1968 तक भारतीय जनसंघ के नेता रहे। वे एक प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा एक ऐसे नेता थे जिन्होंने जीवन पर्यन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा के उच्चतम मानकों को अक्षुण्ण रखा। वे भारतीय जनता पार्टी के जन्म से ही पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। उनकी पुस्तक ''एकात्म मानववाद'' (इंटीगरल ह्यूमेनिज्म) जिसमें साम्यवाद और पूंजीवाद, दोनों की समालोचना की गई है, में मानव जाति की मूलभूत आवश्यकताओं और सृजन कानूनों के अनुरूप राजनीतिक कार्रवाई हेतु एक वैकल्पिक सन्दर्भ दिया गया है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म सोमवार, दिनांक 25 सितम्बर 1916 को बृज के पवित्र क्षेत्र मथुरा जिले के नंगला चंद्रभान गांव में हुआ था। उनके पिताजी एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। वे एक ऐसे ज्योतिषी थे जिन्होंने उनकी जन्म कुंडली देखकर यह भविष्यवाणी कर दी थी कि यह लड़का एक महान शिक्षा-शास्त्री एवं विचारक, निस्वार्थ कार्यकर्ता और एक अग्रणी राजनेता बनेगा लेकिन वह अविवाहित रहेगा। जब भरतपुर में एक त्रासदी से उनका परिवार प्रभावित हुआ, तो सन् 1934 में बीमारी के कारण उनके भाई का देहांत हो गया। बाद में वे हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करने के लिए सीकर चले गए। सीकर के महाराजा ने पं उपाध्याय को एक स्वर्ण पदक, पुस्तकों के लिए 250 रुपये तथा प्रतिमास 10 रुपये की छात्रवृति दी।
पंडित उपाध्याय ने पिलानी में विशिष्टता (Distinction) के साथ इंटरमीडिएट परीक्षा पास की और बी.ए. करने के लिए कानपुर चले गए। वहां पर उन्होंने सनातन धर्म कालेज में दाखिला लिया। अपने मित्र श्री बलवंत महाशब्दे के कहने पर वे सन् 1937 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आए। उन्होंने सन् 1937 में प्रथम श्रेणी में बी.ए. परीक्षा पास की। पंडित जी एम.ए. करने के लिए आगरा चले गये।
वे यहां पर श्री नानाजी देशमुख और श्री भाऊ जुगाडे के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। इसी बीच दीनदयाल जी की चचेरी बहन रमा देवी बीमार पड़ गई और वे इलाज कराने के लिए आगरा चली गई, जहां उनकी मृत्यु हो गयी। दीनदयाल जी इस घटना से बहुत उदास रहने लगे और एम.ए. की परीक्षा नहीं दे सके। सीकर के महाराजा और श्री बिड़ला से मिलने वाली छात्रवृति बंद कर दी गई।
उन्होंने अपनी चाची के कहने पर धोती तथा कुर्ते में और अपने सिर पर टोपी लगाकर सरकार द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा दी जबकि दूसरे उम्मीदवार पश्चिमी सूट पहने हुए थे। उम्मीदवारों ने मजाक में उन्हें 'पंडित जी' कहकर पुकारा-यह एक उपनाम था जिसे लाखों लोग बाद के वर्षों में उनके लिए सम्मान और प्यार से इस्तेमाल किया करते थे। इस परीक्षा में वे चयनित उम्मीदवारों में सबसे ऊपर रहे। वे अपने चाचा की अनुमति लेकर बेसिक ट्रेनिंग (बी.टी.) करने के लिए प्रयाग चले गए और प्रयाग में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेना जारी रखा। बेसिक ट्रेनिंग (बी.टी.) पूरी करने के बाद वे पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों में जुट गए और प्रचारक के रूप में जिला लखीमपुर (उत्तर प्रदेश) चले गए। सन् 1955 में वे उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांतीय प्रचारक बन गए।
उन्होंने लखनऊ में ''राष्ट्र धर्म प्रकाशन'' नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका ''राष्ट्र धर्म'' शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) तथा 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरूआत की। सन् 1950 में केन्द्र में पूर्व मंत्री डा0 श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने नेहरू-लियाकत समझौते का विरोध किया और मंत्रिमंडल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए वे विरोधी पक्ष में शामिल हो गए। डा0 मुकर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओ को संगठित करने में श्री गुरूजी से मदद मांगी। एक बार श्री गुरुजी एवं पं. दीनदयाल जी एक ही रेलगाड़ी के अलग-अलग डिब्बों में यात्रा कर रहे थे। श्रीगुरुजी प्रथम श्रेणी में एवं दीनदयाल उपाध्याय जी द्वितीय श्रेणी में थे। यात्रा के मध्य में ही दीनदयाल जी को जब श्रीगुरुजी से मंत्रणा करने की आवश्यकता हुई तो वे उनके प्रथम श्रेणी डिब्बे में चले गये। मंत्रणा पूर्ण होने के पूर्व ही गाड़ी चल दी, दीनदयाल जी अपने डिब्बे में नहीं जा पाये। अगले स्टेशन पर उतरकर टिकट निरीक्षक को खोजकर उनसे कहा कि मैंने अमुक स्टेशन से इस स्टेशन तक प्रथम श्रेणी में यात्रा की है, अत: मेरे से यात्रा का यथोचित मूल्य ले लें। दीनदयाल जी के बहुत आग्रह करने के बाद ही उसने मूल्य लिया, तब जाकर दीनदयाल जी को संतोष हुआ और वे अपने द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में वापस बैठ गये।
इसी प्रकार गलती से सब्जी बेचने वाली महिला को खोटी अठन्नी दे देने पर वे व्यग्र होकर कार्यालय से वापस आए। और फिर जब तक उपरोक्त महिला की पोटली में से खोटी अठन्नी खोजकर सही अठन्नी नहीं दी तब तक संतुष्टि नहीं मिली। क्या आज के समय में ऐसा नैतिक आचरण देखने को मिलेगा? पंक्ति में खड़े होकर टिकट लेना हो या सरकारी कार्यालय में अपना कार्य निकलवाना हो, ऐसे स्थानों पर नैतिकता की परीक्षा होती है। यद्यपि यह बहुत कठिन नहीं है तो भी व्यक्ति द्वारा होने वाले छोटे-छोटे कार्य ही और उनके प्रति उसका आग्रही स्वभाव ही व्यक्ति को बड़ा बनाता है।
1967 में जौनपुर के उपचुनाव के समय दीनदयाल जी जनसंघ के प्रत्याशी थे। निर्वाचन के लिए योजना बैठक में जीतने के लिए चर्चा चल रही थी। सामाजिक समीकरण की दृष्टि से जौनपुर विधानसभा क्षेत्र ब्राह्मण बहुल है। चर्चा के मध्य एक कार्यकर्ता ने एक अचूक सूत्र की बात कही, कि दीनदयाल जी अगर आप अपने नाम के आगे "पण्डित" शब्द लगा लें तो उपचुनाव जीतना आसान हो जायेगा। दीनदयाल जी ने प्रति उत्तर दिया कि इस सूत्र से दीनदयाल तो जीत जाएगा लेकिन जन संघ हार जाएगा। यहां पर उनकी दृष्टि का अनुभव होता है कि व्यक्ति बड़ा नहीं बल्कि संगठन बड़ा है।
स्वतंत्रता के पश्चात जब पंचवर्षीय योजनाएं एवं बड़े-बड़े कारखानों की स्थापना विकास का आधार बन रही थीं, ऐसे में दीनदयाल जी का मौलिक चिंतन काम आया कि ग्राम आधारित व कृषि प्रधान देश में जब तक सामान्य व्यक्ति का विकास नहीं होगा, वह परंपरागत कार्यों में कुशलता प्राप्त नहीं करेगा और कार्यों में अधिक व्यक्तियों की सहभागिता नहीं होगी, तब तक विकास का कोई अर्थ नहीं है। इसी को व्यावहारिक आकार देते हुए "एकात्म मानव दर्शन" जैसे मूलगामी विचार का प्रतिपादन किया। आज आवश्यकता है एकात्म मानव दर्शन के सिद्धांत का अनुसरण कर परंपरागत कार्यों में नयी तकनीकी का विकास करते हुए अधिकाधिक लोगों को लाभ पहुंचाया जाए।
विज्ञान के विकास के साथ-साथ जैसे कुछ व्यक्ति दौड़ में आगे निकलते दिखायी दे रहे हैं, वहीं बहुत बड़ी संख्या में आज गरीबी रेखा के नीचे हैं, चाहे वह आर्थिक क्षेत्र हो या साक्षरता का है। यहां दीनदयाल जी का "मैं" व "हम" विचार प्रासंगिक है। कोई भी विकास जब तक सामाजिक दृष्टि से परिपूर्ण नहीं होता तब तक वह "मैं" के परिक्षेत्र में है और जब वह सामाजिक रूप धारण कर लेता है तब वह "हम" के परिक्षेत्र में पहुंच जाता है। आज की आवश्यकता है कि हम अपनी व्यापकता का विकास कर उसको सामाजिक आयाम दें। केवल कुछ व्यक्तियों के विकास ही नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज की उन्नति में सहायक हों। सामाजिक कार्यों में पद्धति का विकास व पद्धति के पालन का आग्रह ही हम सभी को छोटे-छोटे पहलुओं से आगे बढ़ाकर विकसित समाज के समकक्ष खड़ा कर सकता है और इसलिए दीनदयाल जी का स्मरण आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके जीवन काल में था।
पंडित दीनदयालजी ने 21 सितंबर, 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और नई पार्टी की राज्य इकाई, भारतीय जनसंघ की नींव डाली। पंडित दीनदयाल जी इसके पीछे की सक्रिय शक्ति थे और डा0 मुखर्जी ने 21 अक्तूबर, 1951 को आयोजित पहले अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की। पंडित दीनदयाल जी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। आखिर में जनसंघ के इतिहास में चिरस्मरणीय दिन आ गया जब पार्टी के इस अत्यधिक सरल तथा विनीत नेता को सन् 1968 में पार्टी के सर्वोच्च अध्यक्ष पद पर बिठाया गया। दीनदयाल जी इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को संभालने के पश्चात जनसंघ का संदेश लेकर दक्षिण भारत गए। 11 फरवरी, 1968 की काली रात ने दीनदयाल जी को अकस्मात् मौत के मुंह में दबा लिया।


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नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रम संवत २०६९ मंगलमय हो



नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रम संवत २०६९ मंगलमय हो

सृष्टि उत्पत्ति एवं सम्राट विक्रमादित्य द्वारा शको को परास्त कर विक्रम संवत के प्रथम दिन से प्रारंभ होने वाले, नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रम संवत २०६९ (२३ मार्च २०१२), आप, आपके परिवार एवं मित्रों के लिए मंगलमय हो, ऐसी ईश्वर से प्रार्थना है।
नववर्ष हम सबके जीवन में सुख समृधि बिखेरे एवं सुसंस्कृत बनाये, पुरातन राष्ट्र को उसका वैभव वापस दिलाने, शांति एवं सद्भाव बढ़ाने में सहायक हो ऐसी ईश्वर से प्रार्थना है।
नववर्ष मंगलमय हो।


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भाजपा को अब चेतने की जरूरत




जय श्रीराम मित्रों.


आज भाजपा की वर्तमान जरूरत बंजर में कमल खिलाने की है, चारों ओर कांग्रेस विरोधी लहर है किन्तु क्या भाजपा इसे भुना पाने में सक्षम है? उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद स्पष्ट है की भाजपा का जना धार बढ़ाने के लिए बहुत मेहनत की जरूरत है..
केवल कांग्रेस के हर में भाजपा की जीत नहीं निहित है.. जैसा की हमने यूपी में सोचा था.. २०१४ से पहले कभी भी चुनाव हो सकते है हमें सशक्त विकल्प के रूप में आने के लिए जनता के बीच जाना होगा..
तभी केंद्र में सरकार संभव है.. अन्यथा हिन्दुवाद विरोध की जो मुहिम चल रही है.. भाजपा को सत्ता से दूर करने के लिए कोई भी पार्टी कांग्रेस को समर्थन देने से परहेज नहीं करेगी..
भारत माता की जय


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भारतीय सविधान के अनुसार राज्यपाल की स्थिति - अनुच्‍छेद 153



भारत के प्रत्येक राज्य में राज्यपाल पद की संवैधानिक व्यवस्था है, राज्यपाल अपने पद को भारत के संविधान की अनुच्छेद 153 के अन्‍तर्गत किया गया है। यह राज्य कार्य पालिका का सर्वोच्च अंग होता है जिसकी नियुक्ति भारत के महामहीम राष्ट्रपति द्वारा की जाती है जो केन्द्रीय सरकार द्वारा नामित व्यक्ति होता है।
राज्यपाल की योग्यता संविधान के अनुच्छेद 157 में उल्लेख किया गया है और पद को धारण करने के लिये शर्तो का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 158 में उल्लिखित है। सामान्य रूप से राज्यपाल का कार्यकाल 5 वर्ष के लिये होता है किन्तु संविधान के अनुच्‍छेद 156 के अधीन राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्‍त अपना पद धारण कर सकता है। राज्यपाल को उसके पद और गोपनीयता की शपथ उस राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अथवा उनकी अनुपस्थिति में वरिष्ठतम न्यायाधीश दिलाता है।
संविधान के अनुसार राज्यपाल के तीन रूप देखते को मिलते है प्रथम राज्‍य मंत्रिमंडल के सालाह पर चलने वाला, द्वितीय कि केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप मे कार्य करने वाल और तृतीय कि स्‍वाविवेक से कार्य करना जिसमे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को मानना आवश्यक नहीं है।
राज्यपाल को अपने पद धारण करने पर निम्‍म शक्तियाँ प्राप्त होती है -
  1. कार्यपा‍लकीय शक्तियाँ - राज्य की कार्य पालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होती है, और राज्य के समस्त कार्यपालकीय कार्य राज्यपाल के नाम पर ही सम्‍पादित किये जाते है।
  2. वित्तीय शक्तियाँ - राज्यपाल के सिफारिश के बिना कोई भी धन विधेयक विधानसभा में पेश नहीं किया जा सकता है। (अनुच्छेद 166-1), राज्यपाल की संस्तुति के बिना कोई भी अनुदान मांग प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। (अनुच्छेद 203-3), राज्य का साधारण बजट राज्यपाल द्वारा ही प्रस्तुत किया जाता है। (अनुच्छेद 202)
  3. विधायी शक्तियाँ - राज्यपाल ही विधान मंडल के सदनों की बैठकों को आहूत करता है, वह दोनों सदनों का सत्रावसान व भंग करने की शक्ति रखता है। (अनुच्‍छेद 174-1,2)
  4. न्यायिक शक्तियाँ- मृत्युदंड को छोड़कर राष्ट्रपति के समान ही क्षमादान की शक्ति निहित है
  5. अध्‍यादेश जारी करने की शक्ति - राज्यपाल को भी राष्ट्रपति के भांति अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्राप्त है (अनुच्छेद 202)
त्रिपुरा के राज्यपाल का राजभवन

भारतीय संविधान के अनुसार भारत के किसी राज्य के राज्यपाल की निम्न अधिकार एवं कर्तव्य है-
153. राज्यों के राज्यपाल
प्रत्येक राज्य के लिये एक राज्यपाल होगा : परन्तु इस अनुच्छेद की कोई बात ही एक व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों के लिये राज्यपाल नियुक्त किये जाने से निवारित नहीं करेगी।
154. राज्य की कार्यपालिका शक्ति-
(1) राज्य की कार्य पालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा।
(2) इस अनुच्छेद की कोई बात
(क) किसी विद्यमान विधि द्वारा किसी अन्य प्राधिकारी के प्रदान किये गये कृत्य राज्यपाल को अंतरित करने वाली नहीं समझी जायेगी, या
(ख) राज्यपाल के अधीनस्थ किसी प्राधिकारी को विधि द्वारा कृत्य प्रदान करने से संसद या राज्य के विधान मंडल को निवारित नहीं करेगी।
155. राज्यपाल की नियुक्ति
राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा।
156. राज्यपाल की पदावधि-
(1) राज्यपाल, राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त पद धारण करेगा। (2) राज्यपाल, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा।(3) इस अनुच्छेद के पूर्वगामी उपबंधों के अधीन रहते हुये राज्यपाल अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगा।परन्तु राज्यपाल, अपने पद की अवधि समाप्त हो जाने पर भी तब तक पद धारण करता रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है।
157. राज्यपाल नियुक्त होने के लिये अर्हताएं
कोई व्यक्ति राज्यपाल होने का पात्र तभी होगा जब वह भारत का नागरिक है और पैंतीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका है।
158. राज्‍यपाल के पद के लिए शर्तें
(1) राज्यपाल संसद के किसी सदन या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य के विधान मंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा और यदि संसद के किसी सदन का या ऐसे किसी राज्य के विधान मंडल के किसी सदन का कोई सदस्य राज्यपाल नियुक्त हो जाता है तो यह समझा जायेगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान राज्यपाल के रूप में अपने पद ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।
(2) राज्यपाल अन्य कोई लाभ का पद धारण नहीं करेगा।
(3) राज्यपाल, बिना किराया दिये, अपने शासकीय निवासों के उपयोग का हकदार होगा और ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का भी जो संसद विधि द्वारा अवधारित करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं , हकदार होगा।
(3d)जहां एक ही व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जाता है वहां उस राज्यपाल को संदेय उपलब्धियां और भत्ते उन राज्यों के बीच ऐसे अनुपात में आवंटित किये जाएंगे जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा अवधारित करे।
(4) राज्यपाल की उपलब्धियां और भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम नहीं किये जायेगे।
159- राज्यपाल द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान
प्रत्येक राज्यपाल और व्यक्ति जो राज्यपाल कें कृत्यों का निर्वहन कर रहा है, अपना पद ग्रहण करने से पहले उस राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति या उसकी अनुपस्थिति में उस न्यायालय के उपलब्ध ज्येष्ठतम न्यायाधीश के समक्ष लिखित प्रारूप में शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा।
160- कुछ आकस्मिकताओं में राज्यपाल के कृत्यों का निर्वहन
राष्ट्रपति ऐसी किसी आकस्मिकता में, जो इस अध्याय में उपबंधित नहीं है राज्य के राज्यपाल के कृत्यों के निर्वहन के लिये ऐसा उपबंध कर सकेगा जो वह ठीक समझता है।
161- क्षमा आदि की और कुछ मामलों में दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति होगी।
162. राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार
इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार उन विषयों पर होगा जिनके संबंध में उस राज्य के विधान मंडल को विधि बनाने की शक्ति है: परन्तु जिस विषय के संबंध में राज्य के विधान-मंडल और संसद को विधि बनाने की शक्ति है उसमें राज्य की कार्यपालिका शक्ति इस संविधान द्वारा, या संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा, संघ या उसके प्राधिकारों को अभिव्यक्त रूप से प्रदत्त कार्यपालिका शक्ति के अधीन और परिसीमित होगी।
163- राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिये मंत्रि परिषद:
(1) जिन बातों में इस संविधान द्वारा या उसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कृत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिये एक मंत्रि परिषद होगी जिसका प्रधान, मुख्यमंत्री होगा।
(2) यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधि मान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जायेगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिये था या नहीं।
(3) इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच नहीं की जायेगी क्या मंत्रियों ने राज्यपाल को कोई सलाह दी , और यदि दी तो क्या दी।
164. मंत्रियों के बारें में अन्य उपबन्ध
(1) मंख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति, राज्यपाल, मुख्यमंत्री की सलाह पर करेगा तथा मंत्री, राज्यपाल के प्रसादपर्यन्त अपने पद धारण करेंगे।
परन्तु बिहार,मध्यप्रदेश और उड़ीसा राज्यों में जनजातियों के कल्याण का भारसाधक एक मंत्री होगा जो साथ ही अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के कल्याण का या किसी अन्य कार्य का भी भारसाधक होगा।
(2) मंत्रि परिषद की विधान सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी।
(3) किसी मंत्री द्वारा अपना पद ग्रहण करने से पहले राज्यपाल तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिये दिये गये प्रारूपों के अनुसार उसको पद ओर गोपनीयता की शपथ दिलाएगा।
(4) कोई मंत्री, जो निरंतर छह मास तक की किसी अवधि तक राज्य के विधानमंडल का सदस्य नहीं है उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री नहीं रहेगा।
(5) मंत्रियों के वेतन और भत्ते ऐसे होगे जो उस राज्य का विधानमंडल, विधि द्वारा समय समय पर अवधारित करे और जब तक उस राज्य का विधानमंडल इस प्रकार अवधारित नहीं करता है तब तक ऐसे होगे जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हें।
165- राज्य का महाधिवक्ता
(1) प्रत्येक राज्य का राज्यपाल, उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिये अर्हित किसी व्यक्ति को राज्य का महाधिवक्ता नियुक्त करेगा।
(2) महाधिवक्ता का यह कर्तव्य होगा कि वह उस राज्य की सरकार को विधि संबंधी ऐसे विषयों पर सलाह दे और विधिक स्वरूप के ऐसे अन्य कर्तव्यों का पालन करे जो राज्यपाल उनको समय समय पर निर्देशित करे या सौंपे और उन कृत्यों का निर्वहन करे जो उसको इस संविधान अथवा तत्समय प्रवत्त्त किसी अन्य विधि द्वारा या उसके अधीन प्रदान किये गये हों।
(3) महाधिवक्ता, राज्यपाल के प्रसादपर्यन्त पद धारण करेगा और ऐसा पारिश्रमिक प्राप्त करेगा जो राज्यपाल अवधारित करे।
166. राज्य सरकार के कार्य का संचालन
(1) किसी राज्य की सरकार की समस्त कार्यपालिका कार्रवाई राज्यपाल के नाम से की हुई कही जायेगी।
(2) राज्यपाल के नाम से किये गये और निष्पादित आदेशों और अन्य लिखित को ऐसी रीति से अधिप्रमाणित किया जायेगा जो राज्यपाल द्वारा बनाए जाने वाले नियमों में विनिर्दिष्ट की जाए और इस प्रकार अधिप्रमाणित आदेश या लिखत की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जायेगी कि वह राज्यपाल द्वारा किया गया निष्पादित आदेश या लिखत नहीं है।
(3) राज्यपाल, राज्य सरकार का कार्य अधिक सुविधापूर्वक किये जाने के लिये और जहां तक वह कार्य ऐसा नहीं है जिसके विषय में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह विवेकानुसार कार्य करे वहां तक मंत्रियों में उक्त कार्य के आवंटन के लिये नियम बनाएगा।
167. राज्यपाल को जानकारी देने आदि के संबंध में मुख्यमंत्री के कर्तव्य
प्रत्येक राज्य के मुख्यमंत्री का यह कर्तव्य होगा कि वह-
(क) राज्य के कार्यों के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी मंत्रि परिषद के सभी विनिश्चय राज्यपाल को संसूचित करे,
(ख) राज्य के कार्यों के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी जो जानकारी राज्यपाल मांगे वह दे, और
(ग) किसी विषय को जिस पर किसी मंत्री ने विनिश्चय कर दिया है किन्तु मंत्रि परिषद ने विचार नहीं किया है राज्यपाल द्वारा अपेक्षा किये जाने पर परिषद के समक्ष विचार के लिये रखे।
168. राज्यों के विधान मंडलों का गठन
(1) प्रत्येक राजय के लिये एक विधान मंडल होगा जो राज्यपाल और-(क)बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश राज्यों में एक सदनों से, (ख) अन्य राज्यों में एक सदन से मिलकर बनेगा।
(2) जहां किसी राज्य के विधान मंडल के दो सदन हैं वहां एक का नाम विधान परिषद और दूसरे का नाम विधान सभा होगा और जहां केवल एक सदन है वहां उसका नाम विधान सभा होगा।
169.राज्यों में विधान परिषदों का उत्सादन या सृजन-
(1) अनुच्छेद 168 में किसी बात के होते हुये भी संसद विधि द्वारा किसी विधान परिषद वाले राज्य में विधान परिषद के उत्सादन के लिये या ऐसे राज्य में जिसमें विधान परिषद नहीं है विधान परिषद के सृजन के लिए उपबंध कर सकेगी यदि उस राज्य की विधान सभा ने इस आशय का संकल्प विधान सभा की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की संख्या के कम से कम दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया है।
(2) खंड (1) में निर्दिष्ट किसी विधि में इस संविधान के संशोधन के लिए ऐसे उपबंध अंतर्विष्ट होंगे जो उस विधि के उपबंधों को प्रभावी करने के लिये आवश्यक हों तथा ऐसे अनुपूरक, आनुषंगिक और पारिमामिक उपबंध भी अंतविर्षट हो सकेंगे जिन्हें संसद आवश्यक समझे।
(3) पूर्वोक्त प्रकार की कोई विधि अनुच्छेद 368 के प्रायोजनों के लिये इस संविधान का संशोधन नहीं समझी जायेगी।
170. विधान सभाओं की संरचना -
(1) अनुच्छेद 333 के अधीन रहते हुये, प्रत्येक राज्य की विधान सभा उस राज्य में प्रादेशिक निर्वाच्न क्षेत्र से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने हुये पांच सौ से अनधिक और साठ से अन्यून सदस्यों से मिलकर बनेगी।
(2) खंड (1) के प्रयोजनों के लिये, प्रत्येक राज्य की प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र में ऐसी रीति से विभाजित किया जायेगा कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनता का उसको आवंटित स्थानों की संख्या से अनुपात समस्त राज्य में यथासाध्य एक ही हो।
स्पष्टीकरण- इस खंड में ''जनसंख्या'' पद से ऐसी अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना में अभिनिश्चित की गई जनसंख्या अभिप्रेत है जिसके आंकड़े प्रकाशित हो गये हैं।
परन्तु इस स्प्ष्टीकरण में अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना के प्रति जिसके सुसंगत आंकड़े प्रकाशित हो गये हैं , निर्देश का, जब तक सन् 2000 के पश्चात की गई पहली जनगणना के सुसंगत आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हें, यह अर्थ लगाया जायेगा कि वह 1971 की जनगणना के प्रति निर्देश हैं।
(3) प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर प्रत्येक राज्य की विधान सभा में स्थानों की कुल संख्या और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन का उसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से पुन: समायोजन किया जायेगा जो संसद विधि द्वारा अवधारित करे।
परन्तु ऐसे पुन: समायोजन से विधान सभा में प्रतिनिधत्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जब तक उस समय विद्यमान विधान सभा का विघटन नहीं हो जाता है।
परन्तु यह और कि ऐसा पुन: समायोजन उस तारीख से प्रभावी होगा जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे और ऐसे पुन: समायोजन के प्रभावी होने तक विधान सभा के लिये कोई निर्वाचन उन प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों के आधार पर हो सकेगा जो ऐसे पुन: समायोजन के पहले विद्यमान हैं।परन्तु यह ओर भी कि जब तक सन् 2000 के पश्चात की गई पहली जनगणना के सुसंगत आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं तब तक प्रत्येक राज्य की विधान सभा में स्थानों की कुल संख्या का और इस खंड के अधीन ऐसे राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन का पुन: समायोजन आवश्यक नहीं होगा।
171-विधान परिषदों की संरचना-
(1) विधान परिषद वाले राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या के (एक तिहाई) से अधिक नहीं होगी। परन्तु किसी राज्य की विधानपरिषद के सदस्यों की कुल संख्या किसी भी दशा में चालीस से कम नहीं होगी।
(2) जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे जब तक किसी राज्य की विधान परिषद की संरचना खंड (3) में उपबंधित रीति से होगी।
(3) किसी राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या का-
(क) यथाशक्य निकटतम एक तिहाई भाग उस राज्य की नगरपालिकाओं, जिला बोर्डों और अन्य ऐसे स्थानीय प्राधिकारियों के, जो संसद विधि द्वारा विनिर्दिष्ट करे, सदस्यों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा।
(ख) यथाशक्य निकटतम बारहवां भाग उस राज्य में निवास करने वाले ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक-मंडलों द्वारा होगा, जो भारत के राजक्षेत्र में किसी विश्वविद्यालय के कम से कम तीन वर्ष से स्नातक हैं या जिनके पास कम से कम तीन वर्षों से ऐसी अर्हताएं हें जो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि या उसके अधीन ऐसे किसी विश्वविद्यालय के स्नातक की अर्हताओं के समतुल्य विहित की गई हों,
(ग) यथाशक्य निकटतम बारहवां भाग ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा जो राज्य के भीतर माध्यमिक पाठशालाओं से अनिम्न स्तर की ऐसी शिक्षा संस्थाओं में, जो संसद द्वारा बनार्इ्र गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जायें, पढ़ाने के काम से कम से कम तीन वर्ष से लगे हुयें हैं।
(घ) यथाशक्य निकटतम एक तिहाई भाग राज्य की विधान सभा के सदस्यों द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से निर्वाचित होगा जो विधान सभा के सदस्य नहीं हैं।
(ड.) शेष सदस्य राज्यपाल द्वारा खंड (5) के उपबंधों के अनुसार नामनिर्देशित किये जायेगे।
(4) खंड (3) के उपखंड (क), उपखंड (ख) और उपखंड (ग)के अधीन निर्वाचित होने वाले सदस्य ऐसे प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में चुने जायेंगे, जो संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन विहित किये जाएं तथा उक्त उपखंडों के और उक्त खंड के उपखंड (घ) के अधीन निर्वाचन आनुपातिक प्रातिनिधत्व पध्दति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होंगे।
(5) राज्यपाल द्वारा खंड (3) के उपखंड (ड.) के अधीन नाम निर्देशित किये जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होगे जिन्हें निम्नलिखित विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है, अर्थात- साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आंदोलन और समाज सेवा।
172- राज्यों के विधान मंडलो की अवधि-
(1) प्रत्येक राज्य की प्रत्येक विधान सभा, यदि पहले ही विघटित नहीं कर दी जाती है तो, अपने प्रथम अधिवेशन के लिये नियत तारीख से (पांच वर्ष)तक बनी रहेगी, इससे अधिक नहीं और (पांच वर्ष) की उक्त अवधि समाप्ति का परिणाम विधान सभा का विघटन होगा।
परन्तु उक्त अवधि को, जब आपात कीउदघोषणा प्रवर्तन में है, तब संसद विधि द्वारा ऐसी अवधि के लिये बढ़ा सकेगी, जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगी और उदघोषणा के प्रवर्तन में न रह जाने के पश्चात किसी दशा में उसका विस्तार छह मास की अवधि से अधिक नहीं होगा।
(2) राज्य की विधान परिषद का विघटन नहीं होगा, किन्तु उसके सदस्यों में से यथासंभव निकटतम एक तिहाई सदस्य संसद द्वारा विधि द्वारा इस समय निमित्त बनाए गये उपबंधों के अनुसार, प्रत्येक द्वितीय वर्ष की समाप्ति पर यथाशक्य शीघ्र निवृत्त हो जायेंगे।
173- राज्य के विधान मंडल की सदस्यता के लिये अर्हताएं-
कोई व्यक्ति किसी राज्य के विधान मंडल के लिये किसी स्थान को भरने के लिये चुने जाने के लिये अर्हित तभी होगा जब-
(क) वह भारत का नागरिक है और निर्वाचन आयोग द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रायोजन के लिये दिये गये प्रारूप के अनुसार शपथ लेता है या प्रतिज्ञान करता है और उस पर अपने हस्ताक्षर करता है।
(ख) वह विधान सभा के स्थान के लिये कम से कम पच्चीस वर्ष की आयु का और विधान परिषद के स्थान के लिये कम से कम तीस वर्ष की आयु का है, और,
(ग) उसके पास ऐसी अन्य अर्हताएं है जो इस निमित्त संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जायें।
174- राज्य के विधान मंडल के सत्र, सत्रावसान और विघटन-
(1) राज्यपाल समय समय पर राज्य के विधान मंडल के सदन या प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर जो वह ठीक समझे, अधिवेशन के लिये आहूत करेगा किन्तु उसके एक सत्र की अंतिम बैठक सत्र की प्रथम बैठक के लिये नियत तारीख के बीच छह मास का अन्तर नहीं होगा।
(2) राज्यपाल समय समय पर- (क) सदन या किसी सदन का सत्रावसान कर सकेगा , (ख) विधान सभा का विघटन कर सकेगा ,
175 - सदन या सदनों में अभिभाषण का और उनको संदेश भेजने का राज्यपाल का अधिकार-
(1) राज्यपाल, विधान सभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में उस राज्य के विधान मंडल के किसी सदन में या एक साथ समवेत दोनों सदनों में, अभिभाषण कर सकेगा और इस प्रयोजन के लिये सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकेगा।
(2) राज्यपाल, राज्य के विधान मंडल में उस समय लंबित किसी विधेयक के सम्बन्ध में संदेश या कोई अन्य संदेश, उस राज्य के विधान मंडल के सदन या सदनों को भेज सकेगा और जिस सदन को कोई संदेश इस प्रकार भेजा गया है वह सदन उस संदेश द्वारा विचार करने के लिये अपेक्षित विषय पर सुविधानुसार शीघ्रता से विचार करेगा।
176- राज्यपाल का विशेष अभिभाषण-
(1) राज्यपाल, 40 (विधान सभा के लिए प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात् प्रथम सत्र के आरंभ में और प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र के आरंभ में) विधान सभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में एक साथ समवेत दोनों सदनों में अभिभाषण करेगा और विधान मंडल को उसके आहवान के कारण बतायेगा।(2) सदन या प्रत्येक सदन की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों द्वारा ऐसे अभिभाषण में निर्दिष्ट विषयों की चर्चा के लिये समय नियत करने के लिये 41 उपबंध किया जायेगा।
177- सदनों के बारें में मंत्रियों ओर महाधिवक्ता के अधिकार-
प्रत्येक मंत्री और राज्य के महाधिवक्ता को यह अधिकार होगा कि वह उस राज्य की विधान सभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में दोनों सदनों में बोले और उनकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग ले और विधान मंडल की किसी समिति में , जिसमें उसका नाम सदस्य के रूप में दिया गया है, बोले और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग ले, किन्तु इस अनुच्छेद के आधार पर वह मत देने का हकदार नहीं होगा।

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प्रेरक प्रसंग - अनुभवी की सला‍ह




एक बार की बात है ब्रह्मा जी मनुष्यों की हरकतों से काफी परेशान थे और एक दिन उन्होंने अपनी इस समस्या के निराकरण के लिये देवताओं की एक बैठक बुलाई और अपनी समस्या रखते हुए कहा कि मैं मनुष्यों की रचना कर के मुसीबत में पड़ गया हूँ। यह जाति हर समय शिकायत करती रहती है। मैं न तो चैन से सो सकता हूँ न कि चैन से किसी स्थान पर रह सकता हूँ। इसलिये मैं किसी ऐसे गुप्त स्थान पर जाना चाहता हूँ जहाँ मनुष्यों की पहुँच न हो।
ब्रह्म देव की भावनाओं का समादर करते हुए एक देव ने निवेदन किया कि आप हिमालय पर गौरी शंकर की चोटी पर चले जायें। इस पर ब्रह्मा जी ने कहा कि वहाँ भी मुझे चैन नहीं मिलेगा उस स्थान पर भी तेन सिंह नोर्क और एडमंड हिलेरी आदि पहुँच चुके है। किसी अन्य देवता ने सलाह दिया कि आप प्रशान्‍त महासागर में चले जाइये तो किसी ने कहा कि चन्द्रमा पर तो ब्रह्मदेव ने कहा कि वैज्ञानिक वहाँ भी पहुँच गये है। फिर किसी ने कहा कि अन्तरिक्ष में चले जाये तो फिर ब्रह्मदेव बोले अगले 6 माह तक सुनीता वहां निवास करेंगी। तभी देवताओं कि पंक्ति में सबसे बुर्जुग आदमी ने कहा कि आप मनुष्य के हृदय में बैठ जाइये।
ब्रह्मा जी को अनुभवी की बात जंच गई और सलाह मान लिया उस दिन से मनुष्य शिकायत के लिये ब्रह्म देव को यहां वहां सब जगह खोजता फिर रहा है किन्तु ब्रह्म देव नहीं मिल रहे है क्योंकि व्यक्ति अपने अन्दर ब्रह्म देव को नहीं पुकार रहा है। उस दिन से ब्रह्मा जी चैन की बंसी बजा रहे है।


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