प्रथम हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति महामना पंडित मदनमोहन मालवीय का भाषण



 
मुझको बहुत से लोग जानते है कि मैं वाचाल हूँ लेकिन मुझको जब काम पड़ता है तब मैं देखता हूँ कि मेरी वाणी रूक जाती है। यही दशा मेरी इस समय हो रही है। प्रथम तो जो अनुग्रह और आदर आपलोगों ने मेरा किया है उसके भार से ही मैं दब रहा हूँ, इसके उपरान्त मेरे प्रिय मित्रों और पूज्य विद्वानों ने जिन शब्दों में मेरे सभापतित्व का प्रस्ताव किया है उसने मेरे थोड़े से सामर्थ्य को भी कम कर दिया है। सज्जनों! मैं अपने को बहुत बड़भागी समझता यदि मैं उन प्रशंसा-वाक्यों के सवे हिस्से का भी अपने को पात्र समझता जो इस समय इन सज्जनों ने मेरे विषय में कहे हैं। हाँ, एक अंश में मैं बड़भागी अवश्य हूँ। गुण न रहने पर भी मैं आपकी मंडली में गुणी के समान सम्मान पाता हूँ। इसी के साथ मुझको खेद होता है कि इतने योग्य और विद्वानों के रहते हुए भी मैं इस पद के लिये चुना गया। फिर भी मैं आपके इस सम्मान का धन्यवाद करता हूँ, जो आपने मेरा किया है। मेरा चित्त कहता है कि इस स्थान में उपस्थित होने के लिये हमारे हिन्दी संसार में अनेक विद्वान् थे और हैं जिनमें कुछ यहाँ भी उपस्थित हैं और जिनको यदि आप इस कार्य में संयुक्त करते तो अच्छा होता ओर कार्य में सफलता और शोभा होती। अस्तु, बड़ों से एक उपदेश मैंने सीखा है। वह यह है कि अपनी बुद्धि में जो आवे उसे निवेदन कर देना। मित्रों की आज्ञा, मित्रों की मंडली की आज्ञा पालन करना मैं अपना परम धर्म समझता हूँ। अनुरोध होने पर अंत में मैंने अपने प्यारे मित्रों से प्रेमपूर्वक निवेदन किया कि साहित्य सम्मेलन जिसका सभापति होने का सौभाग्य मुझे प्रदान किया गया है उसके कर्तव्य का पालन मेरा परम धर्म है। मैं आपसे दूर रहता हूँ। सो भी मैं कदाचित् निर्भय कह सकता हूँ कि हिन्दी साहित्य का रस पान करने में मुझको अन्य मित्रों की अपेक्षा कम स्वाद नहीं मिलता। उसके स्वाद लेने में मैं अपने किसी मित्र से पीछे नहीं। किन्तु अनेक कामों में रूका रहने के कारण मैं आपके बाहरी कामों का करने वाला सेवक हूँ। इस काम के लिए मैं अपने को कदापि योग्य नहीं समझता हूँ और इस अवसर में जिसमें आपको पूर्व उन्नति के उद्देश्यों को देखना चाहिए था, जिसमें हिन्दी की भावी उन्नति का पथ प्रशस्त करना चाहिए था, किसी और ही मनुष्य को इस स्थान में बैठना चाहिए था, इसके योग्य मैं किसी प्रकार नहीं। अब यदि मैं इस स्थान में आकर आपकी आज्ञा पालन करने का यत्न न करूँ तो उससे अपराध होता है। केवल इसी कारण मैं इस सम्मान का धन्यवाद देता हूँ और इस समय इस स्थान में आप लोगों की सेवा करने को तैयार हुआ हूँ।

हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के विषय में जो मत भेद हो रहा है, जैसा कि मेरे प्रथम वक्ता महाशय ने कहा, इसमें कोई संदेह नहीं, उसे स्वीकार करना चाहिए। हठधर्मी अच्छी नहीं। अनेक विद्वानों के मत से यह समय सम्मेलन के लिए उपयुक्त नहीं। नवरात्र दुर्गा देवी के पूजन का समय है, नवरात्र में सरस्वती शयन करती हैं। प्राचीन रीति के अनुसार तीन दिन सरस्वती शयन के दिन हैं। यह नियम आर्यजाति ने इसलिये रखा कि तीन सौ सत्तावन दिन संसार के व्यवहार करो, अपने मस्तिष्क को पीड़ा दे लो, किन्तु जाति की रक्षा के लिए उन तीन दिनों में लेखनी मत उठाओ, पत्रा मत पढ़ो, इन दिनों सरस्वती शयन करती है। ऐसे समय में मेरे मित्रों ने आप महाशयों को इधर-उधर से खींचकर बुलाया है और इसके लिये मेरी बुद्धि में आता है कि मुझको आपके सामने उनकी ओर से उत्तर देना चाहिए। इसमें मैं इतना ही कहूँगा कि जितना मतभेद हो उसे आपको स्वीकार करना चाहिए और जिन लोगों का मत नही मिलता उनके मत का आदर करके उनसे यही कहना चािहए कि अब से यह समय उन्नति का होगा। इसके विचार में यह मेरी बुद्धि में आता है कि हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के लिये यह समय बहुत ही उपयुक्त है। हिन्दी की दशा इस समय शोचनीय हो रही है। हिन्दी साहित्य के इस शयन की अवस्था में सरस्वती शयन कैसा? इस ध्यान से हमारे हिन्दी प्रेमियों में बहुत से लोगों का यदि यह विचार है कि सरस्वती शयन कर रही हैं तो इससे क्या होता है? हमलोग इस सम्मेलन में उपयुक्त यत्न कर सरस्वती को जगाएँ। बात भी ऐसी ही है। जहाँ रात होती है वहीं सूर्यनारायण की लालिमा दिखाई देती है। रात के अंधकार के पश्चात् प्रातःकाल होता है तो उसको देखना अच्छा लगता है। ऐसी अवस्था में इस सरस्वती शयन का समय मुझको आशा देता है कि हिन्दी भाषा के शयन के समय में जब साहित्य सम्मेलन होता है तब इस सरस्वतीशयन के समय के उपरान्त जैसे विजयादशमी का दिन आता है वैसे ही, मुझको विश्वास है कि सोई हिन्दी भाषा, हिन्दी साहित्य के जागने का समय निकट है। प्राचीन समय से लोग दुर्गा-अष्टमी में विद्या की वृद्धि के लिये देवी की उपासना करते आते हैं। जिस तरह पहले उसी तरह आज भी हिन्दुस्तान में हिमालय के ऊँचे शिखर और लंका के छोर तक सहस्रों करोड़ों हमारे भाई इस नवरात्र में दुर्गा जी की स्तुति करते हैं। एक ही विद्या है, एक ही तरह नहीं चल रहा है इसलिये यद्यपि कुछ संताेष का विषय है तथापि विशेष रूप से एकत्र होकर इस बात का विचार किया जाता है कि कार्य कैसे चले। मेरी बुद्धि में तो हिन्दी का ऐसा सौभाग्य नहीं है। हमलोग वर्तमान समय में जो मिले हैं वह इस दूसरी श्रेणी का सम्मेलन है। कुछ लोगों के मत में हमारी उन्नित कुछ भी संतोषजनक नहीं है। अन्य लोगों के विचार ऐसे हैं कि यह कहना ठीक-ठीक है। फिर भी प्रत्येक दशा में यह सम्मेलन आवश्यक हो गया है। अब इस सम्मेलन में यदि हम मिले हैं तो दूसरी या तीसरी कक्षा, जिसको ले लीजिये, उसी के अनुसार पहले यह विचार कीजिये कि हमारी अवस्था क्या है। जब कोई वैद्य बुलाया जाता है तब निर्दिष्ट स्थान में पहुँचकर पहले वह यह जानना चाहता है कि रोगी की दशा क्या है, रोग कहाँ तक बढ़ा है, कितनी आशा है, कितना घटा है, रोगी में कितना बल आया है। यह आवश्यक है कि हम पहले हिन्दी की दशा विचारें। किन्तु इससे पहले कि हम इस बात का विचार करें हमारे एक मित्र ने प्रश्न किया है कि पहले यह तो बतलाइए कि हिन्दी है क्या? यह बड़ा टेढ़ा प्रश्न उठा है कि हिन्दी क्या है। ऐसी दशा में पहले मैं इसी को लेता हूँ। मुझको दुःख है कि मैं न संस्कृत का ऐसा विद्वान् हूँ कि इस विषय में प्रमाण के साथ कह सकूँ, न भाषा का ऐसा विद्वान् हूँ कि इस विषय की चर्चा चलाऊँ। किन्तु मैं आपके सम्मुख निवेदन करता हूँ कि जब प्रमाण की रीति से कोई कुछ न कह सके तो उसका धर्म है कि वह अपने विचारों को उपस्थित करके जो प्रमाण दे सकता हो उन्हीं को दे। हिन्दी के विषय में बहुत सा विवाद है। हिन्दी के संबंध में हमारे देश के लिखनेवालों में जो हुए वह तो हुए ही, हमारे यूरोपियन लिखनेवालों में विलायत के डाक्टर ग्रियर्सन एक बड़े शिरोमणि हैं (हर्षध्वनि) । आपने हिन्दी की बड़ी सेवा की है और हिन्दी की उन्नति में बड़ा यत्न किया है। आपने एक स्थान में लिखा है कि हिन्दी यूरोपियन सन् 1803 ई0 के लगभग लल्लूलाल जी से लिखवाई गई। और भी लोगों ने इसी प्रकार की बात कही है। जो विदेशी हिन्दी के विद्वान् हैं, वह तो यही कहते आए हैं कि हिन्दी कोई भाषा नहीं है। इस भाषा का नाम उर्दू है। इसी का नाम हिन्दुस्तानी है। यह लोग यह सब कहेंगे, किन्तु यह न कहेंगे कि यह भाषा हिन्दी है (लज्जा)। लज्जा तो कुछ नहीं है, विचार की बात है सज्जनों! ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित कितने ही अँगरेज अफ्सरों ने मुझसे पूछा था कि हिन्दी क्या है? इस प्रान्त की भाषा तो हिन्दुस्तानी है। मैं यह प्रश्न सुन दंग रह गया। समझाने से जब उन्होंने स्वीकार नहीं किया तब मैंने कहा कि जिस भाषा को आप हिन्दुस्तानी कहते हैं, वही िहन्दी है। अब आप कहेंगे कि इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ यह है कि न हमारी कही आप मानें, न उनकी कही। इसमें न्यायपूर्वक विचार कीजिए। डाक्टर ग्रियर्सन का क्या कहना है। मैं उनका सम्मान करता हूँ किंतु उनकी बात पर न जाकर हमें यह देखना चाहिए कि यथार्थ तत्व क्या है? यहाँ इस मंडली में बड़े-बड़े विद्वान् और विचारवान् पुरूष हैं, वह इसे अच्छी रीति से कह सकेंगे। इसके विचारने में हमको अपने विचारों का दिग्दशर्न करना चाहिए। इसमें बहुत कुछ अंतर हो सकता है। किन्तु मूल में कोई अंतर हो नहीं सकता। हिन्दी भाषा के संबंध में विचार करते हुए सबसे पहले संस्कृत की आकृति एक बार ध्यान में लाइए, हिन्दी भाषा की आकृति को ध्यान में लाइए। इसके पीछे आप विचारिए कि हिन्दी कौन भाषा है और उसकी उत्पत्ति कहाँ से है। संस्कृत की जितनी बेटियाँ हैं इनमें कौन सी बड़ी बेटी है। संस्कृत की बेटियों में हिन्दी का कौन सा पद है। इसका संस्कृत से क्या संबंध है। संस्कृत, जैसा कि शब्द कहता है, नियमों से बाँध दी गई है। जो व्यर्थ बातें थी, वह निकाली गई, अच्छी-अच्छी बातें रखी गई, नियमों और सूत्रों से बँधे शब्द रखे गए, जो शब्द नियमविरूद्ध थे उनके लिये कह दिया गया कि यह नियम से बाहर है। नियमबद्ध शब्दों का व्याकरण में उल्लेख हो गया। आप जानते हैं कि संस्कृत से प्राकृत हुई। जो लोग यह कहते हैं कि संस्कृत कभी बोली नहीं जाती थी, वह संस्कृत को नहीं जानते। वे थोड़ी, प्राकृत पढ़े तो उनको मालूम हो जायेगा कि प्राकृत तो बोली जा नहीं सकती। संस्कृत के बोले जाने में कोई संदेह नहीं। संस्कृत से प्राकृत हुई। उसके पीछे सौरसेनी, मागधी और महाराष्ट्री। कदाचित् आपके ध्यान में होगा कि दंडी 8वीं शताब्दी में थे। अपने समय में उन्होंने यह लिखा था कि भारत में चार भाषाएँ हैं, महाराष्ट्री, सौरसेनी, मागधी और भाषा । यही चार भाषाएँ चली आई हैं।

अब आपको मालूम हो गया होगा कि जो महाराष्ट्री भाषा थी, मागधी भाषा थी, इनके बीच में बहुत भेद था। मेरे शब्दों पर ध्यान दीजिए इन भाषाओं में संस्कृत भाषा के शब्दों के रूप का अनुरूप आपको मिलता है। यह जितना हिन्दी भाषा में मिलता है, उतना दूसरा किसी भाषा में नहीं मिलता। संस्कृत के शब्दो को ले लीजिए। अब देखिए कि हिन्दी में यह बात कहाँ से आई। संस्कृत से इन भाषाअों का क्या संबंध था। शंकुतला में ‘तुक मणि दबे बलीयममणाणि’ कहाँ से आया होगा। एक शब्द को आप लीजिए। उसको देखिए कि प्राकृत में उसका क्या रूप है और भाषा में क्या हुआ। इस प्राकृत को देखने से आपको मालूम होगा कि संस्कृत शब्दों का प्राकृत रूप क्या से क्या हो गया। भाषा के कितने ही रूप आपको मिल सकते हैं। परन्तु यह बात मेरे कहने से न मानिए। मेरे सामने इस समय चंद कवि के रासों में बहुत से रूप ऐसे हैं जिनको इस मंडली में पंडित सुधाकर जी और दो तीन को छोड़कर बहुत कम लोग जानते हैं। मैं तो इसका चैथाई भी समझ नहीं सकता। मैं जो देखता हूँ वह आपके सामने उपस्थित करता हूँ। आप ही देखकर यह कहंे कि कौन ठीक है। संस्कृत से पाली, पाली से प्राकृत और प्राकृत से तीसरा रूप हिन्दी दिखाई दिया। अब आप थोड़े से शब्दों पर विचार करें। अग्नि का आग और योग का याग हो गया। चंद के काव्य में तुलसीदास की एक चैपाई को बीच में यदि मैं रख दूँ तो बहुत सज्जनों को यह न मालूम होगा कि दोनांे के बीच कितना अंतर है। संवत् 1125 में चंद कवि ने इसको लिखा। उनकी भाषा में जितने रूप देखते हैं वह रूप इस भारतवर्ष की किसी दूसरी भाषा के रूप से नहीं मिलते। मिलते हैं, हिन्दी से और उतने ही जितनी आज की अंग्रेजी चैसर की अंग्रेजी से मिलती है। ऐसी दशा में यह कहना कि हिन्दी भाषा क्या है, इसका उत्तर यह है कि हिन्दी भाषा वह है जिसमें चंद कवि से लेकर आज तक हिन्दी के ग्रन्थ लिखे गये। यह सही है कि पहले इसका नाम भाषा था, हिन्दी भाषा या सूरसेनी।

क्या आप भाषा की उत्पत्ति पूछते हैं। कितने ही लोगों को अपनी माँ का नाम नहीं मालूम । बहुत सी औरतें ऐसी हैं जिनको अपने लड़कों का नाम नहीं मालूम। प्रयाग और बनारस के कितने ही बालकों का नाम सिर्फ बच्चा है। पिता और दादा के नाम का पता लगाना और भी कठिन है। नाम रखते हैं किन्तु उसको याद नहीं रखते। अस्तु, देखना चाहिए कि चंद के समय से जो भाषा लिखी जाती है वह एक है, उसी को हम हिन्दी भाषा कहते हैं। कभी-कभी लोग उसका नाम बदल देते हैं। भीष्म को लीजिए देवव्रत उनका नाम था। जब उन्होंने पिता की प्रसन्नता के लिये राज्यत्याग किया, ब्रह्मचर्य अंगीकार कर कहा कि हम विवाह न करेंगे, केवल इसलिये कि पिता प्रसन्न होंगे, तब उस दिन से उनका नाम भीष्म हुआ, छठी के समय नहीं हुआ था। इसी तरह भाषा का भी नाम बदलता है। पहले कुछ था, अब कुछ है। भाषा का नाम पहले आैर था पर अब तो हिन्दी कह के इसे पूजते हैं, प्रेम करते हैं। इस हिन्दी भाषा का दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होगा कि हिन्दी भाषा की और भाषाओं के साथ तुलना करने से क्या पता लगता है। इसमें भी मैं इतना कहूँगा कि हिन्दी सब बहनों में माँ की बड़ी और सुघर बेटी है। संस्कृत के वंश की बेटियों के 22 करोड़ बोलने वाले हैं, उनमें पाँच या छः करोड़ मद्रास में तामिल और तेलगू बोलते हैं। उनकी भाषा में संस्कृत का भण्डार भरा हुआ है, उनके वाक्यों में संस्कृत की लड़ी आती रूप आपको मिल सकते हैं। परन्तु यह बात मेरे कहने से न मानिए। मेरे सामने इस समय चंद कवि के रासों में बहुत से रूप ऐसे हैं जिनको इस मंडली में पंडित सुधाकर जी और दो तीन को छोड़कर बहुत कम लोग जानते हैं। मैं तो इसका चैथाई भी समझ नहीं सकता। मैं जो देखता हूँ वह आपके सामने उपस्थित करता हूँ। आप ही देखकर यह कहंे कि कौन ठीक है। संस्कृत से पाली, पाली से प्राकृत और प्राकृत से तीसरा रूप हिन्दी दिखाई दिया। अब आप थोड़े से शब्दों पर विचार करें। अग्नि का आग और योग का याग हो गया। चंद के काव्य में तुलसीदास की एक चैपाई को बीच में यदि मैं रख दूँ तो बहुत सज्जनों को यह न मालूम होगा कि दोनांे के बीच कितना अंतर है। संवत् 1125 में चंद कवि ने इसको लिखा। उनकी भाषा में जितने रूप देखते हैं वह रूप इस भारतवर्ष की किसी दूसरी भाषा के रूप से नहीं मिलते। मिलते हैं, हिन्दी से और उतने ही जितनी आज की अंग्रेजी चैसर की अंग्रेजी से मिलती है। ऐसी दशा में यह कहना कि हिन्दी भाषा क्या है, इसका उत्तर यह है कि हिन्दी भाषा वह है जिसमें चंद कवि से लेकर आज तक हिन्दी के ग्रन्थ लिखे गये। यह सही है कि पहले इसका नाम भाषा था, हिन्दी भाषा या सूरसेनी।

क्या आप भाषा की उत्पत्ति पूछते हैं। कितने ही लोगों को अपनी माँ का नाम नहीं मालूम । बहुत सी औरतें ऐसी हैं जिनको अपने लड़कों का नाम नहीं मालूम। प्रयाग और बनारस के कितने ही बालकों का नाम सिर्फ बच्चा है। पिता और दादा के नाम का पता लगाना और भी कठिन है। नाम रखते हैं किन्तु उसको याद नहीं रखते। अस्तु, देखना चाहिए कि चंद के समय से जो भाषा लिखी जाती है वह एक है, उसी को हम हिन्दी भाषा कहते हैं। कभी-कभी लोग उसका नाम बदल देते हैं। भीष्म को लीजिए देवव्रत उनका नाम था। जब उन्होंने पिता की प्रसन्नता के लिये राज्यत्याग किया, ब्रह्मचर्य अंगीकार कर कहा कि हम विवाह न करेंगे, केवल इसलिये कि पिता प्रसन्न होंगे, तब उस दिन से उनका नाम भीष्म हुआ, छठी के समय नहीं हुआ था। इसी तरह भाषा का भी नाम बदलता है। पहले कुछ था, अब कुछ है। भाषा का नाम पहले आैर था पर अब तो हिन्दी कह के इसे पूजते हैं, प्रेम करते हैं। इस हिन्दी भाषा का दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होगा कि हिन्दी भाषा की और भाषाओं के साथ तुलना करने से क्या पता लगता है। इसमें भी मैं इतना कहूँगा कि हिन्दी सब बहनों में माँ की बड़ी और सुघर बेटी है। संस्कृत के वंश की बेटियों के 22 करोड़ बोलने वाले हैं, उनमें पाँच या छः करोड़ मद्रास में तामिल और तेलगू बोलते हैं। उनकी भाषा में संस्कृत का भण्डार भरा हुआ है, उनके वाक्यों में संस्कृत की लड़ी आती है। फलतः संस्कृत की महिमा इस देश में गाज रही है और बहुत दिन तक गाजेगी। अब रहा कि इस बहनों में कौन बड़ी और कौन छाेटी है। यह पक्षपात है कि हमारी भाषा हिन्दी है और हम हिन्दू है, हिन्दी का पक्ष करें या हमारा यह विचार है कि (छोटे मुँह बड़ी बात है, मगर चित्त में जो कुछ है कह देंगे) दंडी कवि ने भी उसमें पक्षपात किया है। किन्तु हिन्दी भाषा को यदि मैं आपके सामने यह कहूँ कि यही सब बहनों में माँ की अच्छी पहली पुत्री है, अपने पिता और माता की होनहार मूतिर् है, तो अत्युक्ति न होगी। सौरसेनी में शब्द बंधे हुए हैं, फलते नहीं, महाराष्ट्री में उखड़ते पुखड़ते नाचते कूदते जाते हैं। आपको अनेक शब्द हिन्दी भाषा में मिलते हैं जिनके सात-सात रूप हैं। भारतीय सभी भाषाओं में हिन्दी शब्दों की न्यूनाधिक झोली की झोली भरी पड़ी है। हाँ, यह मानना पड़ेगा कि इनके रूप में बड़ा परिवर्तन है। जैसे कि बनारस से नीचे बंगाल में चलिए तो आगे चलकर बिहार में बिहारी मिलेंगी, बंगाल में जाइये तो लकारों का संगीत पाया जाता है। हरिद्वार से जब गंगा चलीं और उनके संग में जो पत्थर के टुकड़े बहते हुए चलें तो हरिद्वार से काशी आते-आते रगड़ते झगड़ते कोमल और चिकने हो गए। इसी प्रकार यह बिहार में गाजीपुर और बनारस से नीचे रगड़कर प्रिय कोमल स्वराें के हो गए। जब आप बंगाल में पहुँचे तब आपको कोमलता का घर मिला। वहाँ आप की भाषा भी अधिक कोमल दिखाई दी। यहाँ की भाषा का रूप देख हमारे यूरोपियन विद्वान् आैर देशी विद्वान् भी भ्रम में पड़ गए हैं कि क्या हिन्दी महाराष्ट्री और सौरसेनी, पंजाबी आैर बंगला, सब वस्तुतः एक हैं। हमें भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि इनके बीच बड़ा अंतर हो गया है। संस्कृत शब्दों का हिन्दी ही में कितना परिवर्तन हो गया है। जो कर्ण था वह कान, नासिका थी वह नाक है, जो हस्त था वह हाथ है। पानीय का पानी है। यह परिवर्तन सभी जगह दिखाई देता है। लक्ष्मी को भाषावालों ने लिखा लच्छमी या लक्खी। लच्छमी कहने में जो प्रेम आया वह लक्ष्मी कहने में नहीं। जैसे-जैसे भाषा बंगाल की ओर बढ़ी वैसे-वैसे कहा गया कि इसमें जितना कर्कशपन है उसे काट दो। अब बेटियों में बड़ा रूपांतर हुआ। यहाँ तक यह कह दिया कि भाषा की उत्पत्ति क्या है। सिवाय इसके यह निवेदन करता हूँ कि जितने और प्रमाण हैं जिनसे भाषा की अवस्था को जान सकते हैं, अब उसको जाँचना चाहिए। भाषा के रूप की शब्दमाला क्या है? इन दोनों के विचारों से हिन्दी भाषा ही प्राचीन है। डाॅक्टर ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि हिन्दी संस्कृत की बेटियों में सबसे अच्छी और शिरोमणि है। आप कहेंगे कि इसमें कौन फूहड़ मालूम होती है। यह मेरा कहना आवश्यक भी नहीं है। यह समझा जा सकता है कि मैं हिन्दू हूँ और पक्षपात से कहता हूँ।

आज मैं अपने बंगाली हिन्दुस्थानी गुजराती भाइयों से पुकार कर कहता हूँ कि भाषा एक चली आई और संस्कृत भी एक है। जब प्राकृत हुई तब अंग की प्राकृत हो गई किन्तु मूल में एक ही रही। जितनी भाषाएँ हैं, हमारी हैं। बंगाली हमारी भाषा, पंजाबी हमारी भाषाऔर गुजराती हमारी भाषा है। अब इसके विचार से कौन किसको कहे कि कौन बुरी है।

हिन्दी अपनी बहनों में सबसे प्राचीनतमऔर बड़ी बहन है और माता की रूप आकृति इससे बहुत मिलती-जुलती है। यह सब जो बड़ी-छोटी बातें मैं आपसे निवेदनकरता हूँ इसका दूसरा प्रमाण मिलना चाहिए। शब्दमाला, शब्दों की रचना यह तो हो गया। दूसरा प्रमाण है ग्रन्थमाला। अधिक हिन्दी ग्रन्थमाला का, भाषाओं की ग्रन्थमाला का शिवसिंह जी ने जैसा कि मालूम होगा, इन बातों को दिखाया है। प्रथम हिन्दी भाषा का काव्य 770 में हुआ। भाषा के ग्रन्थों में राजा मान की सहायता और आदेश से दूसरा जो हमें मिलता है, वह पूज्य कवि 802 में हुआ और तीसरा लेख जो मिलता है, वह राव खुमान सिंह ने एक ग्रन्थ हिन्दी में लिखा। 900 में खुमानरासो, पृथ्वीराजरासो प्रसिद्ध किया। चैथा ग्रन्थ, जैसा कि मैं अभी आपसे निवेदन कर चुका हूँ, चंद कवि कृत रासो है। जो भाषा के विद्वान् हैं और जो भाषा की रूपरचना जानते हैं, वह बिना शंका के यही कह देंगे कि जिस भाषा में चंद कवि ने ग्रन्थ लिखा है वह भाषा बहुत पहले से हुई है। यह नहीं हो सकता कि जिसकी भाषा प्रिय होने लगी उसी में ग्रन्थ लिख डाला। चंद कवि से पहले अनेक कवि हो चुके थे। उन्होंने उर्दू में लिखा, हिन्दी में नहीं। हिन्दुओं में ब्राह्मण और कायस्थ उर्दू अधिक पढ़ने वाले थे। पर हमारे क्षत्रिय भाईयों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। उनमें पढ़ने का प्रचार कम हुआ। वह इसके बदले जमींदारी और खेतीबारी में रहे और उसी से प्रेम रहा और विद्या को कम पढ़ा। वैश्य जो हमारे भाई हैं, उन्होंने कहा, कि जिसको नौकरी करना हो वह पढ़ने जाय, उन्हें इतनी फुरसत कहाँ। वह दूसरी ओर उन्नति करते रहे। आप को उर्दू के ज्ञाता मिलेंगे- ब्राह्मण और कायस्थ। ब्राह्मणों में काश्मीरी ब्राह्मण बुद्धि में प्रखर, भाषा के विशेष योग्य थे। इनका प्रेम उर्दू की ओर बढ़ गया और वे इसी तरफ झुके। कायस्थ भाइयों का भी यही हाल हुआ कि सरकारी दफ्तरों में उर्दू गाज रही थी, हिन्दी सभ्य भाषा भी नहीं समझी जाती थी। हमारे पंडित मथुराप्रसाद, राजा शिवप्रसाद कह गए हैं कि हिन्दी भाषा को यह कहना कि हिन्दी कोई भाषा ही नहीं अनुचित है। यह दशा थी। इसी कारण से हिन्दी की उन्नति न हुई। अब क्या होता है। इस बीच में और और प्रान्तो में उन्नति हुई। बंगाल में जैसा कि मैं आपसे निवेदन कर चुका हूँ, भाषा का बड़ा सुधार हुआ। एक अंश में सर माइकल मधुसूदन को लीजिए। हेमचन्द्र बंकिमचन्द्र इत्यादि बंगाली बड़े-बड़े कवि हुए हैं। उन्हाेंने उपन्यास, इतिहास, और काव्य से अपनी भाषा को बनाया, सजाया। इसके उपरांत कबीरदास हुए, 1540 में मलिक मुहम्मद जायसी हुए। गोस्वामी तुलसीदासजी, श्री केशवदासजी, दादूदयालजी, गुरू गोविन्द सिंहजी, बिहारीलाल को ही देखिए। हर एक की भाषा में हिन्दी के पुष्ट रूप दिखलाई पड़ रहे हैं। यह सिद्ध है कि भाषाओं में मरहटी भाषा में, जो सबसे पुष्ट है, नामदेव 13वीं सदी में थे। बंगला भाषा में, जिसे आज देखकर आनंदित होते हैं और यदि सच कहूँ तो ईष्र्या भी होती है, चंडीदासजी बड़े प्रसिद्ध 14वीं सदी में हुए। चंद के समय तक मराठी में, न बंगला में, न गुजराती, में तीनों में इतना बड़ा काव्य नहीं था जितना बड़ा काव्य चंद कवि का हिन्दी में मिलता है। इस प्रकार से हिन्दी भाषा आरम्भहुई। यदि यह जानना चाहते हैं कि किसका भण्डार किसका रूप और कौन अधिक थी, तो इसके देखने के लिए मैं आपके सम्मुख कुछ बातें उपस्थित करता हूँ। यह जो सन् 1857 ई0 में विप्लव हुआ, उस समय से भाषाओं की और उन्नति हुई। 1835 ई0 में बंगाल में, पंजाब में फारसी भाषा दफ्तरों में थी। अँगरेजीगवर्मेण्ट ने इसको मिटाकर मराठी, गुजराती, बंगाजी और उर्दू को इनके स्थान में किया। वहाँ से देशी भाषाओं की उन्नति की रेखा बँधी। अब इस बात का विचार कीजिए कि सन् 1835 के पूर्व और 1858 के उपरान्त इन सब भाषाओं का कैसा भाण्डार था, इनमें ग्रन्थमाला कैसी थी? 770 से लेकर आप केवल बड़े-बड़े कवियों को लीजिए। उनके ग्रन्थ आज तक हिन्दी भाषा का भाण्डार भर रहे हैं। चंद कवि के रासो काे ले लीजिए। लल्लूजी, कबीरदास, गुरू नानक जी, मलिक मुहम्मद जायसी, भीमदेव, तुलसीदास, सूरदास, अष्टछाप, केशवदास, दादूदास, गुरू गोविंदसिंह जी, बिहारीलाल, किस किसके नाम गिनाऊँ। मुझे सब गिनाना भी नहीं। बिहारीलाल को ले लीजिए। इन्होंने 1650 के लगभग ग्रन्थ लिखा है। बहुत वृक्ष वाटिकाओं में उगते हैं, कितने ही आपसे आप उगते हैं, उनका झाड़ भी बड़ा फैला हुआ होता है। जैसे-जैसे वे ऊपर उठते हैं वैसे-वैसे उनकी छाया अधिक होती जाती है। कुछ ऐसे होते हैं, जिनको आप काटकर मट्टी बनाकर किसी स्थान में लगाते हैं और अपनी वाटिकाओं में उगाते हैं। इसी तरह भाषा में जो बहुत शब्द हैं, जैसे कर्ण से कान, हस्त से हाथ संस्कृत से उत्पन्न हुए हैं वे प्राकृत रूप में अपने से आप उपजे। जो शब्द संस्कृत के उठाकर रख दिए हैं, वह वैसे ही हैं जैसे कि गुच्छा, कितने ही वृक्ष थोड़े समय में सूख जायँगे, फिर उनमे ं शक्ति नहीं कि वह दूसरे फल उत्पन्न करें। जहाँ यह मुरझाए, फिर इन्हें हटाना ही पड़ेगा। इसी प्रकार से हिन्दी भाषा के तद्भव शब्द जो हैं वह निज की संपत्ति हैं, उनके निज के अवयव पुष्ट हैं, वह फूलें फलेंगे और अपने आप बढ़ते चले जायँगे। यह सब प्रबल और पुष्ट होते हैं। किन्तु जिन शब्दों में किसी का पैबंद लगा दिया जाता है, वह बनने को बन जाते हैं किन्तु पुष्ट नहीं होते। जो लिए हुए शब्द हैं, उनमें भाषा की शक्ति नहीं। बच्चा माता के दूध से जितना पुष्ट होता है, ऊपरी दूध से उतना पुष्ट नहीं होता, जो बच्चा धीरे-धीरे माता का दूध पी ता है वह पुष्ट होता जाता है और अंत में संसार में काम करने योग्य होता है। फिर भी हरेक भाषा में हर एक तरह के शब्द मिलेंगे ही, जैसे भोजन में दा ल भात रोटी इत्यादि। और संस्कृत की जितनी बेटियाँ हैं, वह सब भी माँ के गहनों को पहनेंगी, चाहे वह अच्छा हो चाहे बुरा, सब माँ का गहना है। उनमें एक गहना दो गहना चार गहना माँ का है। माँ के गहने से बड़ा प्रेम होता है। उस समय उनको धारण करने में विशेष आनन्द होता है। किन्तु जो सब गहने माँ के ही हों तो सब कहेंगे कि यह सब माँ की संपत्ति है। इसलिये हिन्दी भाषा का यह सौभाग्य है कि उसके जो शब्द हें वह सब माता के ही प्रसाद हैं। किन्तु माता ने कहा, हे बेटी! यह तेरे हैं, तू इसका व्यवहार करना। बिहार में बंगाल में विद्यापति जी ने हिन्दी भण्डार से फूल पत्ते ले जाकर अपने काव्यग्रन्थ को भरा है। इस प्रकार आप देखेंगे कि दक्षिण में मराठी में भी जो शब्द का मेल हैं, उसमें जो कुछ तद्भव शब्द व्यवहार में लाए जाते हैं वह यहीं के हैं। हम आप ‘मुझ, तुझ’ कहते हैं मराठी में ‘मुझा तुझा’ कहते हैं। हाँ यह मानना पड़ेगा कि इन शब्दों का उच्चारण बंगाल में और है, महाराष्ट्र में और। हमें इस बात की ईष्र्या नहीं है, अगर वह सबकी माँ नहीं तो मौसी है। हम तो सब के बालक हैं। सबके पैरों पर लोटेंगे। माँ ने भोजन दे दिया तो ले लेंगे, मौसी ने दे दिया तो ले लेंगे। वह हमारी, हम उनके हैं। आप देखेंगे कि हिन्दी भाषा में शब्दों का अिधक भण्डार है, यह बड़ा प्रबल है और हिन्दी की यह बड़ी सम्पत्ति है। इस प्रकार से आप कीग्रन्थमाला की शब्दावली का भण्डार भरा हुआ है। सन् 1835 से 1858 तक महाभारत का प्रथम अनुवाद हुआ। इसके उपरांत एक विशेष दशा आई। आप जानते हैं कि रीति जो पड़ जाती है, वह छोड़े नहीं छुटती। जब-जब जिस-जिस स्थान में आप देखंेगे, लता वृक्ष के सहारे फैलती पाएँगे। सबसे बड़ा सहारा प्रत्येक भाषा का राजा ही होता है। बिहारी ने जयपुर के महाराज के यहाँ जाकर अपनी कविताशक्ति का चमत्कार दिखाया। शिवाजी महाराज के आश्रय में भूषण कवि ने अपनी कविताशक्ति का परिचय दिया। एक ओर युद्ध में तलवार नाचती थी, दूसरी ओर उनकी कविता नाचती थी। राजा का आश्रय दो प्रकार का होता है। एक तो प्रत्यक्ष, दूसरा गुप्त। इन दोनों की आवश्यकता है, किन्तु इस समय मैं प्रत्यक्ष को ही लूँगा। जब अँगरेजी गवर्मेंट इस देश में आई, तब उसने बड़ी ही सुव्यवस्था की जिसके लिए उसे सच्चे हृदय से धन्यवाद देना चाहिए। इसने इस देश में ऐसा नियम स्थापित किया जिससे आज इतना बड़ा समारोह हो रहा है। याद रहे कि कोई व्यक्ति चाहे वह ऊँचे घर का बालक ही क्यों न हो, जब गिरता है, तब बुरा गिरता है। यह पवित्र आर्यजाति जो अपनी प्राचीन महिमा से गिरी तो ऐसी गिरी कि फिर से उसका पुनरूद्धार न हुआ। इस आर्यजाति के पतन के कारण इससे महाराष्ट्रों और सिक्खों का अलगाव हुआ। जब से अंग्रेजी गवर्नमेण्ट आई तब से आप देखते हैं कि विद्या की चर्चा बढ़ गई। यंत्रालय आया, साथ ही साथ बड़ी भारी शिक्षा आई। आपने देखा होगा कि अँगरेज लाेग अपनी भाषा की कैसी उन्नति करते हैं अँगरेजी गवर्नमेण्ट ने यहाँ आ अँगरेजी विद्या के प्रचार का उपाय किया, साथ-साथ आपकी संस्कृत भाषा की उन्नति का भी पथ प्रशस्त किया। इस काशीपुरी में सबसे पहले क्वींस काॅलेज और संस्कृत कालेज स्थापित हुआ, जिससे हिन्दुओं की भाषा की रक्षा हुई। गवर्नमेण्ट के उत्तम कार्यों का धन्यवाद हम हिन्दू किसी प्रकार कर नहीं सकते और आज जो आपके भारतवर्ष में कुछ जनों में संस्कृत का प्रचार देख पड़ता है, इस काशी ही में धुरंधर पंडित मिलते हैं जिनका सम्मान बड़े-बड़े लोग करते हैं, उसका अन्यतम कारण अंग्रेज सरकार का संस्कृत-प्रचार है। मैरे आपसे इसको सुनकर नहीं कहा है। डाॅ0 वालेंटाइन जब प्रिंसिपल थे तब उन्होंने लेख लिखा था कि हमको केवल संस्कृत के ग्रन्थों का अनुवाद करके हिन्दी भाषा में प्रचार करना चाहिए; सो उन्होंने अपने समय में जो आवश्यक था वह कर डाला। किन्तु खेद की बात है कि इतना अवसर पाने पर भी हम जगाए जाने से भी आप से आप नहीं जागे। गवर्नमेण्ट की सहायता से भी नहीं जागे। इस प्रान्त में भाषा की उन्नति का बीज सबसे पहले बोया गया था, किन्तु आज उसी प्रान्त की हिन्दी भाषा अपनी और बहनों के सामने मुँह मोड़े खड़ी है। अब 1835 के लगभग आ जाइए। उस समय गवर्नमेण्ट के सरकारी दफ्तरों में फारसी में काम होता था। गवर्नमेण्ट ने 1835 में यह आज्ञा दी कि हिन्दुस्थान की भाष्ााएँ भी काम में लाई जायँ। इस आज्ञा के फल से इस प्रान्त में उर्दू जारी हो गई; हिन्दी जारी नहीं हुई, इसका फल यह हुआ कि हिन्दी की बड़ी अवनति हुई। यह सत्य है कि सन् 1844 ई0 में जब टामसन साहब लेफ्टिनेंट गवर्नर थे, सरकार ने हिन्दी भाषा का पढ़ना-पढ़ाना आरंभ किया। यदि यह न हुआ होता तो आज आपको हिन्दी के जानने वाले इतने भी न मिलते जिनसे लोगों को पढ़ाने का अवसर मिलता। फिर भी अदालतों में हिन्दी के प्रवेश न करने से हिन्दी की उतनी उन्नति नहीं हुई। उर्दू सरकारी दफ्तरों में जारी थी उसी का प्रचार था। फिर भी उर्दू का वैसा प्रचार नहीं हुआ जैसा होना चाहिए था। उर्दू पुस्तकों की उतनी उन्नति नहीं हुई जितनी बंगाली, महाराष्ट्री और गुजराती की। मैं जानता हूँू कि मुसलमान अब जागे हैं, किन्तु पचास साठ वर्ष तक उन्होंने उर्दू की वैसी उन्नति नहीं की जैसी करनी चाहिए थी। उर्दू की उन्नति में बाधा पड़ने का एक कारण यह है कि उर्दू, विशेष करके वह उर्दू जिसे अधिकतर उर्दू के प्रेमी लिखते हैं, अरबी और फारसी के शब्दों से भरी होती है, जिसके जानने वाले लोग कम हैं और जिसके लिखने वाले लोग भी कम हैं। सन् 1858 में जब गवर्नमेंट ने विद्या के विभाग के नियम बनाए, उन्हीं दिनों स्कूल के लिये हिन्दी पुस्तकें छपवाई और बहुतेरे विद्वानों की सम्मति ली। गवर्नमेण्ट आॅफ इंडिया ने सन् 1873 के लगभग 231 पुस्तकों का संचय किया। गवर्नमेण्ट की सहायता से आदित्यराम जी ने एक दो अनुवाद अंग्रेजी पुस्तकों के किए, राजा शिवप्रसाद जी से सम्मति ली गई। लोगों को इस पर ध्यान देना चाहिए कि हिन्दू मुसलमान दोनों की तरफ से, जहाँ तक मुझको मालूम हुआ है, इन पुस्तकों के पढ़ने वाले अधिक नहीं थे, इसीलिये दोनों की उन्नति नहीं हुई। और प्रान्तवालों ने जिन्होंने अंग्रेजी पढ़ी, उनकी दूसरी भाषा मातृभाषा थी, बंगालियों ने अँगरेजी पढ़ी, उनकी दूसरी भाषा बंगला थी। बंगालियों को ले लीजिए, चार विद्वानों ने बंगाली भाषा को जन्म दिया। पचास वर्ष में बंगला ने ऐसी उन्नति की कि उसको देखकर न केवल संतोष ही होता है बल्कि ईष्र्या भी होती है। मराठी में ऐसा ही हुआ कि जिन्होंने अँगरेजी पढ़ी उन्होंने साथ-साथ अपनी भाषा भी पढ़ी। गुजरात में वर्नाक्यूलर सोसाइटी बनी। संस्कृत से अनुवाद करना आरम्भ किया गया, उनकी भाषा की पुस्तकें जितनी बिकने लगीं, वह सभी को मालूम है। अनुवाद का अंत नहीं। आज ऐसा होता है कि अँगरेजी भाषा में जो अच्छी पुस्तकें छपती हैं, उनका अनुवाद हो जाता है। इधर हिन्दू, मुसलमान, काश्मीरी, कायस्थ हमारे सब भाइयों ने सिर्फ उर्दू लिखना आरम्भ किया। ‘गुलजारे नसीम’ पंडित दयाशंकर नसीम ने लिखी। हिन्दुओं काे यह तो शौक हुआ कि वह लिखें लेकिन हिन्दी में लिखने का शौक नहीं हुआ। पंडित रतननाथ सरशार ने ‘फिसानये आजाद’ लिखक उर्दू भाषा को अनमोल हार पहना दिया। पर हिन्दी जाननेवालों को उस हार का पता नहीं कि वह कैसा है, मूँज का हार है या किसका। यह सत्य है कि मुसलमान कवियों ने हिन्दी भाषा की भी सेवा की है। मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत लिखा है, जब तक हिन्दी भाषा रहेगी उनका नाम रहेगा। किन्तु मैं आपको यह दशा दिखलाता हूँ कि काश्मीरी भाइयों ने जो लिखा वह उर्दू में। हमारे हिन्दू भाइयों में कायस्थ भाइयों ने बहुत समय से बहुत कुछ लिखा किन्तु वह भी उर्दू में। उन्होंने विज्ञान काव्य की कितनी ही पुस्तकें लिखीं। हिन्दू मुसलमानों द्वारा उर्दू की उन्नति का यत्न किया गया सही, किन्तु हमें तो बंगला की उन्नति और वृद्धि से संतोष होता है। मराठी गुजराती से भी ऐसा ही होता है। वहाँ विद्या सरस्वती आप ही आप चली आई। इधर हिन्दी के लिये काम करने वाले नहीं। यह दशा आपकी है। 1835 और 58 से पहले आपकी हिन्दी भाषा अपनी माँ की सुन्दर छवि को लिए हुए अपने भण्ज्ञर को भरे आनन्द के साथ बैठी हुई आपको देखती है। 1835 और 58 के बाद इसकी और बहनें आगे बढ़ गई, यह जहाँ की तहाँ रह गई। कहते हुए दुःख होता है कि जिस हिन्दी के लिखने वालों में चंद कवि तुलसीदास, सूरदास, बिहारीलाल हो गए हैं, बबुआ हरिश्चन्द्र हो गए है, वह हिन्दी आज अपनी बहिनों के सामने आखें नीची किए खड़ी है। हिन्दी के प्रेमियों! तुम्हारे और हमारे लिये यह बड़ी ही लज्जा की बात है। यह सच है कि अँगरेजी कार्यालयों में िहन्दी का प्रचार अधिक नहीं। 1858 में जब राजा शिवप्रसाद विद्यमान थे, उस समय अनेक सज्जनों ने इस बात को कहा था कि सरकारी दफ्तरों में हिन्दी भाषा का प्रवेश हो, किन्तु उस समय यह बात बातों ही में रह गई।

अंत में सर एंटनी मेकडानल का भला हो, उन्होंने यह आज्ञा दी कि कचहरियेां में जो दरख्वास्तंे दी जावें वह हिन्दी उर्दू दोनों में लिखी जावें। उस समय से हमलोग हिन्दी भाषा की विशेष उन्नति करने लगे हैं। जब रोगी दुर्बल हो सन्निपात की दशा को पहुँच जाता है, तब पहले उसका ज्वर छुड़ाया जाता है, फिर उसका आहार आदि ठीक किया जाता है, अंत में यह पहाड़ हट गया। किन्तु बड़े धिक्कार और बड़े लज्जा की बात है कि यद्यपि यह पहाड़ हमारे मार्ग से काटकर हटा दिया गया, तो भी हमलोगों ने आज तक इससे पूरा लाभ न उठाया। हम वकील हम मुख्तार, हम व्यवहार करने वाले महाजन और वह लोग जो कचहरी में वकालत करते हैं, और अपने हिन्दू भाइयों के मुकदमें में उनका धन व्यय कराते हैं, हम लोग भी हिन्दी भाषा की ओर से उदासीन हैं। कितने लोग हैं, जो जाति का उपकार करते हैं। कहते हैं कि जाति बिना भाषा जीवित नहीं रह सकती, जैसे कि नाल के बिना बालक नहीं जीवित रह सकता। किन्तु क्या यह बात सत्य है? जरा बंगाली मराठी आदि को देखिए। हिन्दी भाषा के कितने लोग हैं जिनको इस बात से दुःख और लज्जा होती है कि यह आर्यावर्त देश, जहाँ कि आप देखेंगे कि लाखों लोग ऐसे हैं जो अपनी माँ की बोली से परिचय नहीं रख्ाते। सब आशा उन्नति को छोड़ दीजिए। उन्नति करने वालों के सामने खड़ा होना छोड़ दीजिए। जब तक आप इस लज्जा को न मिटावें, अपनी माँ की बोली न सीखें, तब तक आप मुँह न दिखावें। मातृभाषा के सीखने में कौन लज्जा करता है? अब आप लोग अपने हृदय में आज से इस बात का प्रण कर लें कि जब तक आप मातृभाषा को सीख न लेंगे तब तक आप मस्तक ऊँचा न करेंगे। कोई अँगरेज जो अँगरेजी भाषा से परिचित न हो या कोई और देश का पुरूष जो अपने देश की भाषा न जानता हो, क्या कभी गौरवान्वित हो सकता है? जब हमारी यह दशा है तब क्यों न इस भाषा की दुर्दशा होगी और क्यों न हमको औरों के सामने दुर्बलता स्वीकार करनी पड़ेगी? यह सत्य है कि कुछ लोग अपनी मातृभाषा का काम करते हैं, किन्तु ऐसे लोग कितने हैं? मेरा यह प्रस्ताव नहीं है मेरा यह निवेदन है कि जो हुआ वह हुआ, अब क्या करना चाहिए। आपको यह आवश्यक है कि सरकारी दफ्तरों से जो नकलें दी जाती हैं, उनको आप हिन्दी में लें, जो डिगरियाँ तजबीजें आदि मिलती हैं, उनको आप हिन्दी में लें। यह सब आपके लिये आवश्यक है। गवर्नमेण्ट ने आपको जो अवसर दिया है, उसे आप काम में नहीं लाते। इसके उपरान्त यह भी सत्य है कि आज तक इस कारण से आपके अँगरेजी पढ़नेवालों में केवल उर्दू का अधिक प्रचार है। अब मैं यह आशा करता हूँ और सोचता हूँ कि जब तक यह प्रचार रहेगा, तब तक हिन्दी भाषा की उन्नति में बड़ी रूकावट रहेगी। उर्दू भाषा रहे, कोई बुद्धिमान पुरूष यह नहीं कह सकता कि उर्दू मिट जाय। यह अवश्य रहे और इसके मिटाने का विचार वैसा ही होगा, जैसा हिन्दी भाषा के मिटाने का। दोनों भाषाएँ अमिट हैं, दोनों रहेंगी। उर्दू भ्ााषा के प्रेमी करोड़ों हैं और इस पचास वर्ष में उन्होंने बहुत कुछ उन्नति की है। मौलवी जकाउल्लह साहब, मुहम्मद हुसैन आजाद और देहली के नजीर अहमद को लीजिए, उस शब्दकोष को लीजिए, जो निजाम हैदराबाद में छपकर तैयार हो गया है। हैदराबाद में मुसलमान भाई 25 वर्ष से उर्दू की उन्नति का बड़ा यत्न कर रहे हैं। हमको संतोष और सुख होता है कि मौलवी शिवली के काम से उसकी उन्नति में अधिकता हुई है और उसकी उन्नित हमारे देश की उन्नति है। हम इसकी भलाई चाहते हैं, किन्तु इसी के साथ-साथ हमें यह भी कहना चाहिए कि हिन्दी जानने वाले इस ्रान्त में बहुत हैं। पिछली मनुष्य गणना से जान पड़ा है कि एक उर्दू जाननेवाला है, तो चार हिन्दी जाननेवाले। हमारे मुसलमान भाई जिनको इसका प्रेम है और जो देशभक्त हैं, जिनसे हमारे देश की सब तरह की उन्नति है, वह उर्दू की उन्नति का यत्न करें और हिन्दी जाननेवाले हिन्दी की उन्नति का। इस देश में हिन्दी भाषा जाननेवालों की कमी नहीं, कोई दस बारह करोड़ हैं। इनकी हिन्दी भाषा की उन्नति करने के लिये हमें क्या उपाय करना चाहिए? जितना अब विचार हो चुका है, उससे आपने यह देख लिया कि भाषाओं की अवस्था में कैसा उलट फेर हुआ और हिन्दी ज्यों की त्यों रही। यह दशा जो हमारी है, उसमें क्या करने की आवश्यकता है। इस बात के विचारने में मैंने आपसे कहा कि राजा के सहारे से बड़ा सहारा होता है। यदि आपको जैसा कि नागरी प्रचारिणी सभा के लिये गवर्नमेण्ट सहारा देती चली आई है, राजसाहा ̧य मिले तो काम बहुत कुछ बन जा सकता है। किन्तु बड़े दुःख की बात यह है कि अंग्रेजी गवर्नमेण्ट ने इसका जितना प्रचार करना चाहा था, हमारी अपेक्षा से उसका उतना प्रचार नहीं हुआ। हमलोंगों को जितना करना चाहिए था, उसका सिर्फ कुछ अंश हमने किया। अब यह सम्मेलन ही विचार करें कि इसकी उन्नति का क्या उपाय होना चाहिए। 
 
प्रथम हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति महामना पंडित मदनमोहन मालवीय का भाषण हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का यह अधिवेशन नागरी प्रचारिणी सभा के तत्त्वावधान में 10, 11, 12 अक्टूबर 1910 ई0 को हुआ था।


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प्रमुख महापुरुषों की सूक्तियां एवं अमृत वचन



amrit vachan
  1. हिन्दी हमारे राष्ट्र की अभिव्यक्ति का सरलतम स्त्रोत है। - सुमित्रानंदन पंत
  2. राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की उन्नति के लिए आवश्यक है। - महात्मा गांधी
  3. भाषा एक नगर है, जिसके निर्माण के लिए प्रत्येक व्यक्ति एक-एक पत्थर लाया है।- एमर्सन
  4. हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - डा. राजेंद्र प्रसाद
  5. आस्था वो पक्षी है जो भोर के अंधेरे में भी उजाले को महसूस करती है।- रवींद्रनाथ ठाकुर
  6. प्रेम ही एकमात्र वास्तविकता है, यह महज एक भावना नहीं है। यह परम सत्य है जो सृजन के समय से आत्मा में वास करता है। - रवींद्रनाथ ठाकुर
  7. कवि और चित्रकार में भेद है। कवि अपने स्वर में और चित्रकार अपनी रेखा में जीवन के तत्व और सौंदर्य का रंग भरता है। - डाॅ. रामकुमार वर्मा
  8. शाश्वत शांति की प्राप्ति के लिए शांति की इच्छा नहीं बल्कि आवश्यक है इच्छाओं की शांति। - स्वामी ज्ञानानंद
  9. धर्म का अर्थ तोड़ना नहीं बल्कि जोड़ना है। धर्म एक संयोजक तत्व है।धर्म लोगों को जोड़ता है। - डाॅ. शंकर दयाल शर्मा
  10. त्योहार साल की गति के पड़ाव हैं, जहाँ भिन्न-भिन्न मनोरंजन हैं, भिन्न-भिन्न आनंद हैं, भिन्न-भिन्न क्रीड़ास्थल हैं। -बरुआ
  11. दुखियारों को हमदर्दी के आँसू भी कम प्यारे नहीं होते। - प्रेमचंद
  12. अधिक हर्ष और अधिक उन्नति के बाद ही अधिक दुख और पतन की बारी आती है। - जयशंकर प्रसाद
  13. अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच-सींच कर महाप्राण शक्तियाँ बनाते हैं। - महर्षि अरविंद
  14. चाहे गुरु पर हो या ईश्वर पर, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए। क्योंकि बिना के सब बातें व्यर्थ होती हैं।- समर्थ रामदास
  15. यदि असंतोष की भावना को लगन व धैर्य से रचनात्मक शक्ति में न बदला जाए तो वह खतरनाक भी हो सकती है।- इंदिरा गांधी
  16. प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का हित नहीं है, प्रजाओं की प्रियता में ही राजा का हित है।- चाणक्य
  17. द्वेष बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते, प्रेम की शक्ति ही उसे मिटा सकती है। - विनोबा
  18. साहित्य का कर्तव्य केवल ज्ञान देना नहीं है परंतु एक नया वातावरण देना भी है। - डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
  19. लोकतंत्र के पौधे का, चाहे वह किसी भी किस्म का क्यों न हो तानाशाही में पनपना संदेहास्पद है। - जयप्रकाश नारायण
  20. बाधाएँ व्यक्ति की परीक्षा होती हैं। उनसे उत्साह बढ़ाना चाहिए, मंद नहीं पड़ना चाहिए। - यशपाल
  21. सहिष्णुता और समझदारी संसदीय लोकतंत्र के लिए उतने ही आवयक हैं जितने संतुलन और मर्यादित चेतना।- डाॅ. शंकर दयाल शर्मा
  22. जिस प्रकार रात्रि का अंधकार केवल सूर्य दूर कर सकता है, उसी प्रकार मनुष्य की विपत्ति को केवल ज्ञान दूर कर सकता है। - नारद भक्ति
  23. ज्ञानी जन विवेक से सीखते हैं, साधारण मनुष्य अनुभव से, अज्ञानी पुरुष आवश्यकता से और पशु स्वभाव से। - कौटिल्य
  24. जिस व्यक्ति के हृदय में संगीत का स्पंदन नहीं है वह व्यक्ति कर्म और चिंतन द्वारा कभी महान नहीं बन सकता। - सुभाष चन्द्र बोस
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सबसे चर्चित अनमोल वचन एवं अमृत वचन - Amrit Vachan
अमृत वचन स्‍वामी राम तीर्थ (Amrit Vachan Swami Ram Tirath)
सूक्ति और सद् विचार साहित्‍य से
नीति एवं अमृत वचन



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संवैधानिक उपबंध सार



भारत का संविधान
  • संविधान सभा ने दिनांक 14 सितम्बर, 1949 को हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में अंगीकार किया था।
  • भारत के संविधान के भाग-5 (अनुच्छेद 120) भाग-6 (अनुच्छेद 210) और भाग-17 (अनुच्छेद 343 से 351, 350 को छोड़कर) तक में हिंदी संबंधी प्रावधान हैं।
  • अनुच्छेद 343 के तहत संघ की राजभाषा हिंदी होगी और लिपि देवनागरी होगी, अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रीय रूप होगा।
  • हिंदी संघ की राजभाषा दिनांक 26 जनवरी, 1950 से बनी।
  • अनुच्छेद 343 के तहत गठित राजभाषा आयोग के अध्यक्ष बी.जी. खेर थे।
  • अनुच्छेद 344(4) के तहत खेर आयोग की सिफारिशों पर निर्णय के लिए गठित तीस सदस्यीय समिति के अध्यक्ष जी.बी. पंत थे।
  • संसद में प्रयुक्त होने वाली भाषा के बारे में भाग-5, अनुच्छेद 120(1) में लिखा गया है कि संसदीय कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जाएगा।
  • राज्य के विधान मंडल में कार्य के बारे में भाग-6, अनुच्छेद 210 में लिखा गया है कि राज्य विधान मंडल में कार्य राज्य की राजभाषा या भाषाओं में या हिंदी/अंग्रेजी में किया जाएगा।
  • भाग-17, अनुच्छेद 345 के तहत राज्य विधान मंडल को अधिकार दिया गया है कि वह अपने सरकारी कार्यों के लिए अपने राज्य की किसी भाषा/भाषाओं को या हिंदी का प्रयोग अंगीकार कर सकेगा।
  • भाग-17, अनुच्छेद-346 के अंतर्गत प्रावधान है कि राज्यों द्वारा आपस में और राज्यों द्वारा संघ के साथ पत्राचार के लिए संघ की राजभाषा काम में लाई जाएगी।
  • अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए विशेष निदेश दिए गए हैं कि हिंदी भाषा का विकास हिंदुस्तानीऔर आठवीं अनुसूची में उल्लिखित अन्य भाषाओं से रूप, गुण और शैली तथा मुख्यतः संस्कृत से और फिरअन्य भाषाओं से शब्द संपदा ली जाए।
  • भाग-17, अनुच्छेद 351 के तहत आठवीं अनुसूची में कुल 22 भाषाएं हैं। नई भाषाएं हैं - मैथिली, बोडो, डोगरी तथा संथाली।
  • अनुच्छेद 343(2) के तहत राष्ट्रपति के मई 1952 के आदेश द्वारा राज्यों के राज्यपाल, उच्चतम/उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए देवनागरी अंकों का प्रयोग प्राधिकृत किया गया।
  • अनुच्छेद 343(2) के तहत 3 दिसम्बर, 1955 को राष्ट्रपति जी के आदेश द्वारा 1965 से पहले ही जनता के साथ पत्र-व्यवहार, प्रशासनिक रिपोर्ट, संसद रिपोर्ट, संकल्प हिंदी राजभाषा वाले राज्यों के साथ पत्र-व्यवहार, अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारतीय पदाधिकारियों के नाम जारी किए जाने वाले औपचारिक दस्तावेज अंग्रेजी के साथ ही हिंदी में भी जारी किए जाने की व्यवस्था की गई।
भारतीय विधि से संबधित महत्वपूर्ण लेख


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शारदीय नवरात्रि : आया शक्ति और मर्यादा की आराधना का उत्सव



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दस दिन का दशहरा, नौ दिन का नवरात्र और साथ ही दुर्गा-पूजा उत्सव। ये सभी भारतीय परम्परा का बहुत बड़ा हिस्सा हैं। हर साल सितंबर-अक्टूबर में यह पर्व दस दिन तक मनाया जाता है जो पूरी तरह से देवी मां को समर्पित है। यह शुरू होता है नौ दिन के व्रत से और खत्म होता है ‘विजयदशमी‘ को। देवी मां को कई तरह के नामों से जाना जाता है जैसे दुर्गा, भवानी, अंबा, चंडिका, गौरी, पार्वती, महिषासुर मर्दिनी और दूसरे कई नाम। दुर्गा का मतलब है ‘शक्ति‘ जो भगवान शिव की ऊर्जा की भी प्रतीक हैं। हालांकि मां दुर्गा सभी देवताओं की प्रचण्ड शक्ति को दर्शाती है और भक्तों की रक्षक के रूप में भी जानी जाती हैं। मां दुर्गा का स्मरण आते ही उनकी छवि सामने आती है- सिंह पर सवार और हाथों में कई अस्त्र लिए शक्ति की।



 हिंदुओं में यह त्योहार अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। कुछ देशों में विभिन्न तरह से इस उत्सव का आयोजन होता हैं। उत्तरी भारत में यह पर्व नौ दिन तक चलता है। इसे नवरात्र कहते हैं। इस अवसर पर कई लोग व्रत रखते हैं और फिर विजयदशमी भी धूमधाम से मनाई जाती है। पश्चिमी भारत में नौ दिन का यह त्योहार मनाया जाता है पर वहां एक खास तरह का नृत्य भी होता है। जिसमें पुरुष और महिलाएं दोनों ही हिस्सा लेते हैं। दक्षिण भारत में दशहरा दस दिन का होता है और यह मेले भी लगाए जाते है। पूर्वी भारत में इस त्योहार पर लोगों का उत्साह देखते बनता है। सांतवे दिन से लेकर दसवें दिन तक महोत्सव जैसा माहौल लगता है। हालांकि इस पर्व पर अलग-अलग रूप भी दिखते हैं। जैसे- गुजरात का गरबा नृत्य, वाराणसी की रामलीला, मैसूर का दशहरा और बंगाल की पूजा तो देखते बनती है।
नवरात्र का मतलब होता है ‘नौ रात‘ जिसे लोग पूजा और व्रत कर मनाते हैं। यह साल में दो बार आता है। पहला गर्मियों के शुरू होते ही और दूसरा सर्दियों के आगमन से पहले। नवरात्र के दौरान ऊर्जा और शक्ति की प्रतीक देवी मां की उपासना और भक्ति की जाती है। सदियों से नारी को शक्ति का प्रतीक माना गया हैं। बच्चे भी अपने मां से बहुत कुछ सीखते हैं इसलिए माता की पूजा जरूरी हो जाती है। और उसी शक्ति के रूप में मां दुर्गा की पूजा की जाती है। नवरात्र के नौ दिन को लोग कई तरह से मनाते हैं। पर नवरात्र का पहला तीन दिन पूरी तरह से मां दुर्गा का उत्सव होता है उसके बाद के तीन दिन में मां लक्ष्मी की पूजा की जाती हैं और फिर आखिरी के तीन दिन में देवी सरस्वती की। इन नौ दिनों में भक्तों को धन, बुद्धि और शक्ति तीनों का आशीर्वाद मिलता हैं। ‘दशहरा‘ नवरात्र के बाद का दसवां दिन हैं। यह दिन बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। रामायण के अनुसार इसी दिन असत्य के प्रतीक रावण को मार कर सत्य को नई प्रतिष्ठा दी थी। इस दिन रावण पुतले फूंके जाते हैं।
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उत्तरी भारत खासकर वाराणसी में दशहरा रामलीला का मंचन कर मनाया जाता है। मैसूर का दशहरा देखते बनता है। यहां दुर्गा के रूप में चामुंडा देवी की पूजा की जाती है। कहते हैं मैसूर के महाराजा का पूरा परिवार इन्हें अपना खानदानी देवी मानता था। चामुंडा देवी की पूजा में हाथी-घोड़े सब शामिल होते हैं। यह दृश्य बेहद सुंदर होता है। पूर्वी भारत खासकर बंगाल में दुर्गा पूजा का माहौल ही कुछ अलग होता है। बड़े पंडालों में मां दुर्गा की भव्य मूर्तियां रखी जाती हैं और उनकी पूजा की जाती है। सांस्कृतिक उत्सव के साथ प्रसाद भी बंटता हैं। जब मां दुर्गा की विदाई होती है तो महिलाएं सिंदूर की होली खेलती हैं और खुशी-खुशी मां को अगले साल आने का आवाहन करती हैं। वहीं पूर्वी परम्परा में मां दुर्गा के साथ-साथ मां लक्ष्मी, सरस्वती, भगवान गणेश और कार्तिकेय की मूर्ति भी साथ में रखी जाती है और उनकी भी पूजा की जाती है। विजयदशमी के दिन जहां रावण जलाने की परम्परा है वहीं मां दुर्गा की विदाई भी की जाती हैं। यह माना जाता है मां विदा होकर अपने पति भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत चली जाती है।
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नवरात्र के दौरान मां दुर्गा की उपासना से सुख-संपत्ति और ज्ञान ही नहीं, कई शक्तियां भी प्राप्त होती हैं। जिससे जीवन की चुनौतियां का सामना करने की हिम्मत मिलती है। वैसे तो हर किसी में अपनी शक्ति होती है लेकिन मां दुर्गा यह शक्ति और बढ़ा देती है।
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नवरात्रि पर्व - माँ दुर्गा के नौ रूपों के पूजन का उत्सव



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देवी मां दुर्गा के नौ विभिन्न रूपों की पूजा का उत्सव है नवरात्रि पर्व। यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है। इनमें पहला है चैत्र नवरात्रि और दूसरा है शारदीय नवरात्रि। शारदीय नवरात्रि के बारे में कहा जाता है कि सर्वप्रथम भगवान श्रीरामचंद्रजी ने इस पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की। मान्यता है कि तभी से असत्य पर सत्य की जीत तथा अर्धम पर धर्म की विजय की जीत के प्रतीक के रूप में दशहरा और उससे पहले नवरात्रि पर्व मनाया जाने लगा।


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नवरात्रि पर्व के दौरान प्रत्येक दिन आदिशक्ति के विभिन्न नौ रूपों की विधि विधान से पूजा की जाती है। इन नौ रूपों में मां दुर्गा का पहला स्वरूप ‘शैलपुत्री’ के नाम से विख्यात है। कहा जाता है कि पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न ह¨ने के कारण इनका नाम ‘शैलपुत्री‘ पड़ा। नवरात्रि पर्व के दूसरे दिन मां के दूसरे स्वरूप ‘ब्रह्मचारिणी’ की पूजा अर्चना की जाती है। दुर्गा जी का तीसरा स्वरूप मां ‘चंद्रघंटा’ का है। तीसरे दिन की पूजा का नवरात्रि में अत्यधिक महत्व माना गया है। पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है। पांचवां दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। स्कंदमाता अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। दुर्गा जी के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी और सातवें स्वरूप का नाम कालरात्रि है। मान्यता है कि नवरात्रि के सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा से ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। दुर्गा जी की आठवें स्वरूप का नाम महागौरी है। यह मनवांछित फलदायिनी हैं और इनकी उपासना से श्रद्धालुओं के सभी पाप विनष्ट हो जाते हैं। दुर्गा जी के नौवें स्वरूप का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। जो श्रद्धालु इस दिन पूरे विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करते हैं उन्हें सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है।
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पूजन विधि- वेदी पर रेशमी वस्त्र से आच्छादित सिंहासन स्थापित करें। उसके ऊपर चार भुजाओं तथा उनमें आयुधों से युक्त देवी की प्रतिमा स्थापित करें। भगवती की प्रतिमा रत्नमय भूषणों से युक्त, मोतियों के हार से अलंकृत, दिव्य वस्त्रों से सुसज्जित, शुभलक्षण सम्पन्न और सौम्य आकृति की हो। वे कल्याणमयी भगवती शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये हुये हों और सिंह पर सवार हों अथवा अठारह भुजाओं से सुशोभित सनातनी देवी को प्रतिष्ठित करें। भगवती की प्रतिमा के अभाव में नवार्णमन्त्र युक्त यंत्र को पीठ पर स्थापित करें और पीठ पूजा के लिये पास में कलश भी स्थापित कर लें। वह कलश पंचपल्लव युक्त, उत्तम तीर्थ के जल से पूर्ण और सुवर्ण तथा पंचरत्नमय होना चाहिये। पास में पूजा की सब सामग्रियां रखकर उत्सव के निमित्त गीत तथा वाद्यों की ध्वनि भी करानी चाहिये। हस्त नक्षत्र युक्त नन्दा तिथि में पूजन श्रेष्ठ माना जाता है। पहले दिन विधिवत् किया हुआ पूजन मनुष्यों का मनोरथ पूर्ण करने वाला होता है। सबसे पहले उपवास व्रत, एकभुक्त व्रत अथवा नक्तव्रत इनमें से किसी एक व्रत के द्वारा नियम करने के पश्चात् ही पूजा करनी चाहिये।
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पूजन के पहले प्रार्थना करते हुये कहें- हे माता् मैं सर्वश्रेष्ठ नवरात्र व्रत करूंगा। हे देवि! हे जगदम्बे! इस पवित्र कार्य में आप मेरी संपूर्ण सहायता करें। इस व्रत के लिए यथाशक्ति नियम रखें। उसके बाद मंत्रोच्चारणपूर्वक विधिवत् भगवती का पूजन करें। चंदन, अगरु, कपूर तथा मन्दार, करंज, अशोक, चम्पा, कनैल, मालती, ब्राम्ही आदि सुगन्धित पुष्पों, सुंदर बिल्वपत्रों और धूप-दीप से विधिवत् भगवती जगदम्बा का पूजन करना चाहिये। इस अवसर पर अघ्र्य भी प्रदान करें। नारियल, बिजौरा नींबू, दाडिम, केला, नारंगी, कटहल तथा बिल्वफल आदि अनेक प्रकार के सुंदर फलों के साथ भक्तिपूर्वक अन्न का नैवेद्य अर्पित करें। होम के लिए त्रिकोण कुण्ड बनाना चाहिये अथवा त्रिकोण के मान के अनुरूप उत्तम वेदी बनानी चाहिये। विविध प्रकार के सुंदर द्रव्यों से प्रतिदिन भगवती का त्रिकाल पूजन करना चाहिये और गायन, वादन तथा नृत्य के द्वारा महान उत्सव मनाना चाहिये।
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व्रती नित्य भूमि पर सोये और वस्त्र, आभूषण तथा अमृत के सदृश दिव्य भोजन आदि से कुमारी कन्याओं का पूजन करे। नित्य एक ही कुमारी का पूजन करें अथवा प्रतिदिन एक-एक कुमारी की संख्या के वृद्धि क्रम से पूजन करें अथवा प्रतिदिन दुगुने-तिगुने के वृद्धि क्रम से और या तो प्रत्येक दिन 9 कुमारी कन्याओं का पूजन करें। अपने धन-सामथ्र्य के अनुसार भगवती की पूजा करें। देवी के यज्ञ में धन की कृपणता न करें। पूजा विधि में एक वर्ष की अवस्था वाली कन्या नहीं लेनी चाहिये क्योंकि यह कन्या गन्ध और भोग आदि पदार्थों के स्वाद से बिल्कुल अनभिज्ञ रहती है। कुमारी कन्या वह कही गयी है जो दो वर्ष की हो चुकी हो। तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कन्या कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छह वर्ष की कालिका, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, 9 वर्ष को दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कहलाती है। इससे ऊपर की अवस्था वाली कन्या का पूजन नहीं करना चाहिये क्योंकि वह सभी कार्यों में निन्द्य मानी जाती हैं। इन नामों से कुमारी का विधिवत् पूजन सदा करना चाहिये।
 
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 अद्भुत व अलौकिक हैं दुर्गा माता के सभी नौ स्वरूप
नवरात्र में माता दुर्गा के नौ रूपों को पूजा जाता है। माता दुर्गा के इन सभी नौ रूपों का अपना अलग महत्व है। माता के प्रथम रूप को शैलपुत्री, दूसरे को ब्रह्मचारिणी, तीसरे को चंद्रघण्टा, चैथे को कूष्माण्डा, पांचवें को स्कन्दमाता, छठे को कात्यायनी, सातवें को कालरात्रि, आठवें को महागौरी तथा नौवें रूप को सिद्धिदात्री कहा जाता है। नवरात्र के सभी नौ दिन इन सभी रूपों में बंटे हुए हैं जोकि इस प्रकार हैं-

शैलपुत्री
 वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशंस्विनिम।।

मां दुर्गा का पहला स्वरूप शैलपुत्री का है। पर्वतराज हिमालय के यहां पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनको शैलपुत्री कहा गया। यह वृषभ पर आरूढ़ दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में पुष्प कमल धारण किए हुए हैं। यह नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। नवरात्र पूजन में पहले दिन इन्हीं का पूजन होता है। प्रथम दिन की पूजा में योगीजन अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना शुरू होती है।

ब्रह्मचारिणी
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।

मां दुर्गा की नौ शक्तियों में से दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। यहां ब्रह्मा शब्द का अर्थ तपस्या से है। ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप की चारिणी यानि तप का आचरण करने वाली। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है। इसके बाएं हाथ में कमण्डल और दाएं हाथ में जप की माला रहती है। मां दुर्गा का यह स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल प्रदान करने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं की उपाासना की जाती है। इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।
चंद्रघण्टा
पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते महयं चंद्रघण्टेति विश्रुता।।

मां दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघण्टा है। नवरात्र उपासना में तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन व आराधना की जाती है। इनका स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक में घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र है। इसी कारण इस देवी का नाम चंद्रघण्टा पड़ा। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनका वाहन सिंह है। हमें चाहिए कि हम मन, वचन, कर्म एवं शरीर से शुद्ध होकर विधि-विधान के अनुसार, मां चंद्रघण्टा की शरण लेकर उनकी उपासना व आराधना में तत्पर हों। इनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से छूटकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं।
कूष्माण्डा
सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तुमे।।

माता दुर्गा के चैथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मंद, हल्की हंसी द्वारा ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इनका नाम कूष्माण्डा पड़ा। नवरात्रों में चैथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन अनाहज चक्र में स्थित होता है। अतः पवित्र मन से पूजा-उपासना के कार्य में लगना चाहिए। मां की उपासना मनुष्य को स्वाभाविक रूप से भवसागर से पार उतारने के लिए सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है। माता कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधिव्याधियों से विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाती है। अतः अपनी लौकिक, परलौकिक उन्नति चाहने वालों को कूष्माण्डा की उपासना में हमेशा तत्पर रहना चाहिए।
स्कन्दमाता
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।।

मां दुर्गा के पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता कहा जाता है। ये भगवान स्कन्द ‘कुमार कार्तिकेय’ के नाम से भी जाने जाते हैं। इन्हीं भगवान स्कन्द अर्थात कार्तिकेय की माता होने के कारण मां दुर्गा के इस पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। इनकी उपासना नवरात्रि पूजा के पांचवें दिन की जाती है इस दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में स्थित रहता है। इनका वर्ण शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान हैं। इसलिए इन्हें पद्मासन देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है। नवरात्र पूजन के पांचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित रहने वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाएं एवं चित्र वृत्तियों का लोप हो जाता है।
कात्यायनी
चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शाईलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।

मां दुर्गा के छठे स्वरूप को कात्यायनी कहते हैं। कात्यायनी महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की थी इसलिए ये कात्यायनी के नाम से प्रसिद्ध हुईं। मां कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं। दुर्गा पूजा के छठे दिन इनके स्वरूप की पूजा की जाती है। इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित रहता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक मां कात्यायनी के चरणों में अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है। भक्त को सहजभाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं। इनका साधक इस लोक में रहते हुए भी अलौकिक तेज से युक्त होता है।
कालरात्रि
एक वेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकणी तैलाभ्यक्तशरीरणी।।
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टक भूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयड्करी।।

मां दुर्गा के सातवें स्वरूप को कालरात्रि कहा जाता है। मां कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है लेकिन ये सदैव शुभ फल देने वाली मानी जाती हैं। इसलिए इन्हें शुभड्करी भी कहा जाता है। दुर्गा पूजा के सप्तम दिन मां कालरात्रि की पूजा का विधान है। इस दिन साधक का मन सहस्त्रार चक्र में स्थित रहता है। उसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों के द्वार खुलने लगते हैं। इस चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः मां कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। मां कालरात्रि दुष्टों का विनाश और ग्रह बाधाओं को दूर करने वाली हैं। जिससे साधक भयमुक्त हो जाता है।
महागौरी
 श्वेते वृषे समरूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।

मां दुर्गा के आठवें स्वरूप का नाम महागौरी है। दुर्गा पूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों के सभी कलुष धुल जाते हैं।
सिद्धिदात्री
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यामाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।

मां दुर्गा की नौवीं शक्ति को सिद्धिदात्री कहते हैं। जैसा कि नाम से प्रकट है ये सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाली हैं। नव दुर्गाओं में मां सिद्धिदात्री अंतिम हैं। इनकी उपासना के बाद भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। देवी के लिए बनाए नैवेद्य की थाली में भोग का सामान रखकर प्रार्थना करनी चाहिए।

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विभिन्न रोगों के लिए औषधियों के नुस्खे



  • 50 से 200 मि.ली. छाछ में जीरा और सेंधा नमक डालकर उसके साथ निर्गुण्डी के पत्तों का 20 से 50 मि.ली. रस पीने से वात रोगों से मुक्ति मिलती है।
  • रसवंती के साथ शहद मिलाकर लगाने से डिप्थिरिया, टॉन्सिल, गले के रोग, मुँह का पकना, भगंदर, गंडमाल आदि मिटते हैं।
  • मेथी की सब्जी का नियमित सेवन करने से अथवा उसका दो-दो चम्मच रस दिन में दो बार पीने से शरीर में कोई रोग नहीं होता।
  • असगंध का चूर्ण, गुडुच का चूर्ण एवं गुडुच का सत्व 1-1 तोला लेकर उसमें घी-शहद (विषम-मात्रा) में मिलाकर दो महीने तक (शिशिर ऋतु में) में खाने से कमजोरी दूर होकर सब रोग नष्ट हो जाते हैं।
  • स्वच्छ पानी को उबालकर आधा कर दें। ऐसा पानी बुखार, कफ, श्वास, पित्तदोष, वायु, आमदोष तथा मेद का नाशक है।
  • प्रतिदिन प्रातःकाल 1 से 3 ग्राम हरड़ के सेवन से हर प्रकार के रोग से बचाव होता है।
महात्मा प्रयोग - हरड़ का पाँच तोला चूर्ण एवं सोंठ का ढाई तोला चूर्ण लेकर उसमें आवश्यकतानुसार गुड़ मिलाकर चने जितनी गोली बनायें। रात्रि को सोते समय 3 से 6 गोली पानी के साथ लें। जब जरूरत पड़े तब तमाम रोगों से उपयोग किया जा सकता है। यह कब्जियत को मिटाकर साफ दस्त लाती है।

कल्याण अमृत बिन्दुः कपूर, इजमेन्ट के फूल(क्रिस्टल मेन्थल), अजवाइन के फूल तीनों समान मात्रा में लेकर शीशी में डाल दें। तीनों मिलकर पानी बन जायेंगे। शीशी के ऊपर कार्क लगाकर फिर बंद कर दें ताकि दवा उड़ न जाये। इस दवा की 2 से 5 बूँद दिन में 3 से 4 बार पानी के साथ देने से कॉलरा, दस्त, मंदाग्नि, अरूचि, पेट का दर्द, वमन आदि मिटता है। दाँत अथवा दाढ़ के दर्द में इसमें रूई का फाहा भीगोकर लगायें। सिर अथवा बदनदर्द में इस दवा को तेल में मिलाकर मालिश करें। सर्दी-खाँसी होने पर थोड़ी सी दवा ललाट एवं नाक पर लगायें। छाती के दर्द में छाती पर लगायें। यह दवा सफर में साथ रखने से डॉक्टर का काम करती है।

विभिन्न रोगों के लिए आयुर्वेद औषधियों के नुस्खे


आज का विचार 
"रणभूमि मेँ दस हजार योद्धाओँ को जीतने वाले को बलवान माना जाता है किँतु इससे भी बलवान वह है जो अपने मन को जीत लेता है...!!!"


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अच्छी बातें और अच्छे विचार करें व्यक्तित्व का विकास



  • मन की वह शान्ति जो विघ्न बाधाओं के समय भंग नहीं होती और दूसरों द्वारा अपने ऊपर दोषारोपण करते समय जिसमें कोई विकार नहीं आता, वह उच्च आत्मिक बल से प्राप्त होती है।
  • बर्तन के पानी में काला रंग डाल देने पर हम उसमें अपना प्रतिबिम्ब ठीक- ठीक नहीं देख सकते। इसी प्रकार जिसका चित्त विकारों से मैला हो रहा है वह अपने हित अनहित का ज्ञान नहीं रखता।
  • सदाचार युक्त और ज्ञानपूर्वक एक दिन जीना, सौ वर्ष दुराचार पूर्ण और अव्यवस्थित जीने से कहीं अच्छा है।
  • किसी की निंदा मत करो। याद रखो इससे तुम्हारी जबान गन्दी होगी, तुम्हारी वासना मलिन होगी। जिसकी निंदा करते हो उससे बैर होने की संभावना रहेगी और चित्त में कुसंस्कारों के चित्र अंकित होंगे।
  • अहा। उसे कैसा विश्राम और शान्ति उपलब्ध है जो मिथ्या चिन्ता से मुक्त रह कर सदा ईश्वर और आत्मोद्धार का चिंतन करता है।
  • मनुष्य तभी दुःख में ग्रसित होता है, जब उसके आंतरिक विचारों और बाह्य परिस्थितियों में मेल नहीं होता।
  • किसी मनुष्य की शुद्धता का आप्त पुरुषों में विश्वास से बढ़कर कोई प्रमाण नहीं है।
  • किसी मनुष्य की शुद्धता का आप्त पुरुषों में विश्वास से बढ़कर कोई प्रमाण नहीं है।
  • अशान्त मनुष्य को अज्ञानी कहना चाहिए क्योंकि वह स्वार्थ में अन्धा होकर अँधेरे में भटक रहा है। शान्त पुरुष सब प्रकार की परिस्थितियों में अपने लिए आनन्द ढूँढ़ निकालते हैं।
  • हमें दुनियाँ में जितने दुःख और पाप दिखाई देते हैं उनका मूल कारण अज्ञान है। यह समझकर विचारवान पुरुष पापियों और पीड़ितों से घृणा न करके उन्हें दया की दृष्टि से देखता है।
  • लोग नेक बनने की अपेक्षा विद्वान बनने का प्रयत्न अधिक करते हैं, फलस्वरूप वे भ्रम में पड़ जाते हैं।दुनियाँ में कालापन बहुत है, पर वह सफेदी से अधिक नहीं है। यदि ऐसा न होता तो यह दुनियाँ रहने के सर्वथा अयोग्य होती।
  • धर्म जीवन की आशा है, आत्मरक्षा का अवलम्बन है, उसी के द्वारा दूषित वृत्तियों से मुक्ति होती है।
  • जो उपकार जताने का इच्छुक है, वह द्वार खटखटाया है। जिसमें प्रेम है, उसके लिए द्वार खुला है।
  • जो दूसरों को दिये बिना खुद लेना चाहता है वह पाता तो कुछ नहीं, खोता बहुत है।
  • लोग डरते तो हैं अपने आप से और कहते हैं हम दूसरों से डरते हैं। यह एक मानसिक रोग है और शास्त्र के अज्ञान का परिणाम है।
  • हम न एक दूसरे को धोखा दें, न एक दूसरे का अपमान करें और न खिज या द्वेष बुद्धि से एक दूसरे को दुःख देने की नीयत रखें।
  • पाप का प्रायश्चित पश्चाताप है। पश्चाताप का अर्थ है पाप की पुनरावृत्ति न करना।


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भाजपा, आरके सिंह और नैतिकता



अख़बार से पता चला कि पूर्व गृहसचिव और भाजपा सांसद आरके सिंह ने भाजपा नेतृत्व पर आरोप लगाया है कि बिहार में पैसे लेकर अपराधियों को टिकट दिया जा रहा है..
 
भाजपा की ओर से भी इस पर सफाई दिया जा रहा है और बचाव में अपनी तरह से बातें प्रस्तुत की जा रही है..

यहाँ गौरतलब यह है कि यदि आरके सिंह सच बोल रहे है तो बीजेपी परिवार को इस विषय में सोचना चाहिए कि सत्ता कुछ भी किया जाना उचित है ? जो भाजपा विचार और सिधान्तों की पार्टी नहीं परिवार कहा जाती है वह आज सत्ता और पैसे के लिए सौदा करने को तैयार हो रही है? पूर्व में इलाहबाद विश्वविद्यालय में भी विद्यार्थी परिषद् के टिकट भी बिकने की बात सामने आई थी. क्या विचारधारा परिवार इतना कमजोर और कामचोर हो रहा है कि वह जनता के बीच चुनाव फेस नहीं कर पा रहा है ?


और यदि आरके सिंह झूठ बोल रहे है तो भाजपा को यह सोचना चाहिए कि ऐसे भाड़े के लोगो को बुला बुला कर बीजेपी ज्वाइन करा कर टिकट देना कितना उचित होगा जो बीजेपी के लिए विषबीज हो रहे है..अक्सर बीजेपी के सत्तासीन होने पर बीजेपी और संघ से कई पीढ़ियों से जुड़े होने के नाम पर बीजेपी से नजदीकियां दिखाने की कोशिश की जाती है जबकि यही लोग बीजेपी के बुरे वक्त में दूर दूर तक नजर नहीं आते है और अन्य दलों में अपने हित लाभ खोजते है जैसे आज वह भाजपा और संघ में खोज रहे होते है..

मैं पहले भी कहता आया हूँ कि जमीनी स्तर के लोगो को नजरअंदाज भाड़े के लोगो पर भरोसा करके भाजपा बहुत दिनों तक सफल नहीं हो सकेगी. दिल्ली चुनाव में किरण बेदी के रूप में परिणामदेखा भी जा चूका है. कि किस प्रकार मूल कार्यकर्त्ता की अनदेखी करके बाहरी को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करना खुद दिल्ली में बीजेपी को 4 सीट समेट दिया.

कुछ भी हो इस प्रकरण में या तो आरके सिंह नंगे होगे या वो बीजेपी के अन्दर का सच उजागिर करेगे..

डर यो यह है कि कहीं मिस्टर सिंह यह न कह दे मैंने भी पैसा लोक सभा का देकर टिकट खरीदा थ


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शुभ काम करे और उसे शुभ फल प्राप्त हो




शुभ काम करे और उसे शुभ फल प्राप्त हो

कहा जाता है कि सुख-दुख इंसान के कर्मों के फल हैं। वह जैसा बीज बोता है उसे वैसा ही फल मिल जाता है। वास्तु, अध्यात्म और ज्योतिष आदि में सफल व सुखी जीवन के सूत्र इसीलिए बनाए गए हैं ताकि मनुष्य शुभ काम करे और उसे शुभ फल प्राप्त हो। अनजाने में किए गए कुछ कार्य उसके दुख का कारण भी बन सकते हैं। सभी शास्त्र ऐसे कार्यों से दूर रहने का उपदेश देते हैं। आप भी जानिए सुखी जीवन के लिए किन कार्यों से दूर रहना चाहिए।
  • मुख्य द्वार के पास या सामने कूड़ादान न रखें और न ही वहां पानी इकट्ठा होने दें। इससे पड़ोसी भी शत्रु हो जाते हैं।
  • रात को सोने से पहले रसोई में एक बाल्टी पानी भरकर रखें। इससे घर में सुख व समृद्धि का वास होता है। खाली बाल्टी घर में तनाव और चिंता लेकर आती है।
  • सूर्यास्त के बाद किसी के घर दूध, दही, नमक, तेल और प्याज लेने न जाएं। इससे जीवन में बाधाएं आती हैं और कष्टों का सामना करना पड़ता है। साथ ही परिजनों का मान-सम्मान कमजोर होता है।
  • जब यात्रा के लिए निकलें तो घर से पूरे परिवार को एक साथ नहीं निकलना चाहिए। इससे घर की लक्ष्मी और यश का नाश होता है।
  • छत पर पुराने मटके या फूटे हुए बर्तन नहीं रखने चाहिए। खासतौर से रसाईघर की छत पर पुरानी चीजें न रखें। ये गरीबी को आमंत्रण देते हैं।
  • कभी किसी की गरीबी, अपंगता या रोग का मजाक न बनाएं और न उसकी नकल करें। संभव हो तो उसकी यथाशक्ति सहायता करें। किसी की लाचारी का मजाक बनाने से जीवन में दुर्भाग्य का आगमन होता है और उस व्यक्ति को उसका दंड मिलता है।
  • टूटे हुए दर्पण में चेहरा देखना या टूटे हुए कंघे का उपयोग करने से भी अशुभ फल मिलता है। माना जाता है कि इससे जीवन में नकारात्मक ऊर्जा का आगमन होता है जो शुभ कार्यों में बाधा पहुंचाती है।


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फर्जीफिकेशन







हमारे सीनियर्स एक प्रकरण सुनाते थे कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में माननीय न्यायमूर्ति गणों द्वारा बहुत पहले से और आज भी एक शब्द बेधडक इस्तेमाल होता है वह है "फर्जीफिकेशन"अक्सर कुछ मामलो में मिस गाइड करने पर माननीय न्यायमूर्ति गण वकील साहब से यह कहते पाए जाते है कि अब फर्जीफिकेशन नहीं चलेगा..
एक बार की बात है एक वकील साहब से कहा गया कि हमारी अदालत में फर्जीफिकेशन नहीं चलेगा...
इस पर वकील साहब ने फर्जीफिकेशन शब्द पर जज साहब पर ही काउंटर अटैक कर दिया और कहा कि मायलार्ड फर्जीफिकेशन शब्द का अर्थ क्या है और किस भाषा की शब्दावली से संबंधित है और आप किस आधार पर इसका उपयोग कर रहे है..
वकील साहब की आपत्ति के बाद जज साहब को गलती का एहसास हुआ और उन्होंने फर्जीफिकेशन के उपयोग को वापस ले लिया..
मगर आज भी बहुत जगह पर फर्जीफिकेशन शब्द का उपयोग हो व्यावहारिक रूप में हो रहा है.. ‪#‎BoleToHindi‬ वो भी फर्जीफिकेशन वाली




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क्या आप जाने हैं? घोड़े पर बांयी ओर से क्यों चढ़ा जाता है?



क्या आप जाने हैं? घोड़े पर बांयी ओर से क्यों चढ़ा जाता है?
क्या आप जाने हैं? घोड़े पर बांयी ओर से क्यों चढ़ा जाता है?

घोड़े पर उसकी बांयी तरफ से चढ़ने और उतरने की प्रथा शायद बहुत पुराने समय से ही चली आ रही है। उस समय से जब योद्धा के रूप में पुरूषों की कमर से इनके बाएँ पैर की तरफ धातु की भारी तलवार लटकती थी।

ऐसी स्थिति में जब एक ओर शरीर पर इतनी वजनी चीज लटकी हो तो स्वाभाविक था कि इसके दूसरी ओर के पैर का उपयोग हमेशा बेहतर रहता था। अन्यथा बाएँ पैर को उठाकर घोड़े की पीठ पर चढ़ते समय तलवार का बीच में अटकाव बहुत स्वाभाविक था जिससे असुविधा ही नहीं, दुर्घटना भी घट सकती थी।

आज प्रशिक्षण के दौरान घुड़सवारी सिखाते समय जो पहला पाठ पढ़ाया जाता है, वह है घोड़े पर हमेशा बांयी ओर से चढ़ना।यही कारण है कि अधिकतर घोड़े भी इस रिवाज के आदी हो जाते हैं और जब कभी कोई सवार इस प्रथा को तोड़कर दांयी ओर से चढ़ने का प्रयास करता है तो घोड़ा बौखला जाता है।


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एसर मोबाइल की घटिया सर्विस और ग्राहकों का नुकसान



 

सेवा में,
प्रबन्‍धक एसर मोबाइल
महोदय,
मैं 1 फरवरी 2015 को Acer E700 मोबाइल स्नैपडील से खरीदा था और जिसकी डिलीवरी मुझे करीब 10 दिनों बाद कोरियर द्वारा की गयी.
मेरे फोन में सर्वप्रथम दिनांक 15 मई 2015 को मैं लखनऊ गया था तो यह खराबी आई की फोन पूरी अचानक पूरी तरह ऑफ हो गया और फिर ऑन नहीं हुआ. फिर मैं जब लखनऊ से लौट कर आया तो पता मैंने एसर के कस्टमर केयर नंबर पर काल करके अपनी समस्या बताई तो उनके द्वारा मुझे कुछ बटन दबाने को कहा और फिर सेट ऑन हुआ.
दिनांक 15 अगस्त को भी अचानक मोबाइल सेट ऑफ हो गया और फिर ऑन नही हुआ इस बार फिर से जब एसर के कस्टमर केयर नंबर पर फोन मिलाया तो रविवार होने के नाते फोन पर बात संभव नहीं हुई और जब फोन पूरी तरह से डिस्चार्ज होकर फिर से चार्ज किया गया तो फोन ऑन हुआ.
दिनांक 26 अगस्त को फिर से फोन ऐसे ही ऑफ हो गया और काफी कोशिशों के बाद भी फोन ऑन नही हुआ. तो दिनांक 27 अगस्त को फिर से कस्टमर केयर नंबर पर कॉल किया और उन्होंने फिर से कुछ बटन दबाकर ऑन करने को कहा किन्तु फोन ऑन नही हुआ. फिर कस्टमर केयर प्रतिनिधि द्वारा मुझे सर्विस आई डी दी गयी और कहा गया कि और कहा कि इसे सर्विस सेंटर में दिखा दीजिये. कस्टमर केयर द्वारा कॉल आईडी 1428679i दिया गया.




दिनांक 27 अगस्त को मैंने इसे सर्विस सेंटर में ले गया और वहां प्रतिनिधि को सेट दिखाया और समस्या बताई तो उन्होंने सेट को जमा करने को कहा और अगले दिन फोन करके पता करने को कहा जब अगले दिन फोन किया तो सर्विस सेंटर द्वारा बताया गया कि फोन का पूरा पैनल चेंज होगा और एक हफ्ते का टाइम लगेगा.
महोदय सबसे बड़ी बात यह है कि मोबाइल आज के समय में एक आवश्यक अंग बन गया है अगर अधिकृत सर्विस सेंटर भी एक हफ्ते या उससे ज्यादा टाइम मोबाइल को ठीक करने में लेगे तो यह आप उपभोकताओ के लिए कष्ट का विषय होगा.
मोबाइल की इस प्रकार की खराबी के कारण मेरा कई प्रकार से नुकसान हो रहा है और रोजमर्रा कार्यकलापो में दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है. दो बार मोबाइल सेट ऐसे ख़राब होने के कारण मेरा आवश्यक डाटा और फोटो गायब हो चुकी है.
आपके कस्टमर केयर ईमेल पर मैंने ईमेल भी किया किन्तु 3 दिन से अधिक समय बीत जाने के बाद भी आपकी और से कोई रिप्लाई नहीं आया. आज एक हफ्ते से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी आपका सर्विस सेंटर मोबाइल उपलब्ध नहीं करवा रहा है. आज के व्यवहारिक जीवन में मोबाइल कितनी उपयोगिता है वह किसी से छिपी नहीं है. अगर आप 1-2 हफ्ते तक अपने पास ही रहेंगे तो ग्राहक का डेली रूटीन का काम कैसे चलेगा? आपके द्वारा कोई बैकप सेट भी उपलब्ध नहीं करवाया गया जिससे की कस्टमर का काम सफ़र न करें. आपकी कम्पनी इतनी टकही है कि अपने सर्विस सेंटर को एक दो एक्स्ट्रा मदरबोर्ड नहीं उपलब्ध नहीं करवा सकती है कि किसी ग्राहक का मदरबोर्ड ख़राब होने पर 1-2 कार्य दिवसों मोबाइल को ठीक करके ग्राहक को दिया जा सके? अब आपका सर्विस सेंटर कह रहा है कि हमने कम्पनी को कह दिया है वो बंगलौर से मदरबोर्ड भेजेंगे तब आपका सेट ठीक हो पायेगा. एसर कम्पनी भारतीय कहावत चरित्रार्थ कर रही है कि नाम बड़े पर दर्शन छोटे.. इतनी बड़ी कम्पनी पर सर्विस के नाम सब गुड-गोबर वाली स्थिति है.
अत: आपसे निवेदन है कि मुझे 24 घंटे के अन्दर मोबाइल ठीक करवा कर दिया जाए क्योंकि 7 दिनों के इंतजार और इंतजार कर पाना कठिन है. अगर आप 24 घंटे में सेट नहीं ठीक करके देते है तो अविलम्ब ख़राब सामान को बदल का नया देने की व्यवस्था करें. क्योकि इस प्रकार सेट के बार बार ख़राब होने के कारण मेरा काम बहुत प्रभावित हो रहा है और आवश्यक डाटा अन्य हानि सहनी पड़ रही है और मेरा कार्य व्यवसाय बाधित हो रहा है.
आप 24 घंटे के अन्दर त्वरित कार्यवाही मुझे सूचित करें अन्यथा उपभोक्ता हित में मुझे उपभोक्ता फोरम में जाने के लिए विवश होना पड़ेगा. यह पत्र आपके फेसबुक पेज के अतिरिक्त ईमेल पर भेज रहा हूँ और आपकी सर्विस गुणवत्ता देश को पता चले इसलिए मेरे फेसबुक और मेरी साईट महाशक्ति पर भी डाल रहा हूँ.


भवदीय
प्रमेन्द्र प्रताप सिंह



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Benefits of Deep Breathing




1. Breathing Detoxifies and Releases Toxins
Your body is designed to release 70% of its toxins through breathing. If you are not breathing effectively, you are not properly ridding your body of its toxins i.e. other systems in your body must work overtime which could eventually lead to illness. When you exhale air from your body you release carbon dioxide that has been passed through from your bloodstream into your lungs. Carbon dioxide is a natural waste of your body's metabolism.

2. Breaw your body feels when you are tense, angry, scared or stressed. 
It constricts. Your muscles get tight and your breathing becomes shallow. When your breathing Releases Tension Think hothing is shallow you are not getting the amount of oxygen that your body needs.

3. Breathing Relaxes the Mind/Body and Brings Clarity
Oxygenation of the brain reducing excessive anxiety levels. Paying attention to your breathing. Breathe slowly, deeply and purposefully into your body. Notice any places that are tight and breathe into them. As you relax your body, you may find that the breathing brings clarity and insights to you as well.

4. Breathing Relieves Emotional Problems
Breathing will help clear uneasy feelings out of your body.

5. Breathing Relieves Pain.
You may not realize its connection to how you think, feel and experience life. For example, what happens to your breathing when you anticipate pain? You probably hold your breath. Yet studies show that breathing into your pain helps to ease it.

6. Breathing Massages Your Organs
The movements of the diaphragm during the deep breathing exercise massages the stomach, small intestine, liver and pancreas. The upper movement of the diaphragm also massages the heart. When you inhale air your diaphragm descends and your abdomen will expand. By this action you massage vital organs and improves circulation in them. Controlled breathing also strengthens and tones your abdominal muscles.

7. Breathing Increases Muscle
Breathing is the oxygenation process to all of the cells in your body. With the supply of oxygen to the brain this increases the muscles in your body.

8. Breathing Strengthens the Immune System
Oxygen travels through your bloodstream by attaching to haemoglobin in your red blood cells. This in turn then enriches your body to metabolise nutrients and vitamins.

9. Breathing Improves Posture
Good breathing techniques over a sustained period of time will encourage good posture. Bad body posture will result of incorrect breathing so this is such an important process by getting your posture right from early on you will see great benefits.

10. Breathing Improves Quality of the Blood
Deep breathing removes all the carbon-dioxide and increases oxygen in the blood and thus increases blood quality.

11. Breathing Increases Digestion and
Assimilation of food
The digestive organs such as the stomach receive more oxygen, and hence oper;ates more efficiently. The digestion is further enhanced by the fact that the food is oxygenated more.

12. Breathing Improves the Nervous System
The brain, spinal cord and nerves receive increased oxygenation and are more nourished. This improves the health of the whole body, since the nervous system communicates to all parts of the body.

13. Breathing Strengthen the Lungs
As you breathe deeply the lung become healthy and powerful, a good insurance against respiratory problems.

14. Proper Breathing makes the Heart Stronger.
Breathing exercises reduce the workload on the heart in two ways. Firstly, deep breathing leads to more efficient lungs, which means more oxygen, is brought into contact with blood sent to the lungs by the heart. So, the heart doesn't have to work as hard to deliver oxygen to the tissues. Secondly, deep breathing leads to a greater pressure differential in the lungs, which leads to an increase in the circulation, thus resting the heart a little.

15. Proper Breathing assists in Weight Control.
If you are overweight, the extra oxygen burns up the excess fat more efficiently. If you are underweight, the extra oxygen feeds the starving tissues and glands.


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शिव महिम्न: स्तोत्रम



 Shiva Mahmin Stotra
शिवमहिम्न स्तोत्र में 43 श्लोक हैं, श्लोक तथा उनके भावार्थ निम्नलिखित हैं-

पुष्पदंत उवाच -
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी।
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्।
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।। १।।

भावार्थ: पुष्पदंत कहते हैं कि हे प्रभु ! बड़े बड़े विद्वान और योगीजन आपके महिमा को नहीं जान पाए तो मैं तो एक साधारण बालक हूँ, मेरी क्या गिनती? लेकिन क्या आपके महिमा को पूर्णतया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकती? मैं ये नहीं मानता क्योंकि अगर ये सच है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहलाएगी। मैं तो ये मानता हूँ कि सबको अपनी मति अनुसार स्तुति करने का अधिकार है। इसलिए हे भोलेनाथ! आप कृपया मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति का स्वीकार करें।
 
अतीतः पंथानं तव च महिमा वांमनसयोः।
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः।
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः।। २।।

भावार्थ: आपकी व्याख्या न तो मन, न ही वचन द्वारा संभव है। आपके संदर्भ में वेद भी अचंभित हैं तथा 'नेति नेति' का प्रयोग करते हैं अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं। आपकी महिमा और आपके स्वरूप को पूर्णतया जान पाना असंभव है, लेकिन जब आप साकार रूप में प्रकट होते हो तो आपके भक्त आपके स्वरूप का वर्णन करते नहीं थकते। ये आपके प्रति उनके प्यार और पूज्य भाव का परिणाम है।

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः।
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः।
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता।। ३।।

भावार्थ: हे वेद और भाषा के सृजक! आपने अमृतमय वेदों की रचना की है। इसलिए जब देवों के गुरु, बृहस्पति आपकी स्तुति करते है तो आपको कोई आश्चर्य नहीं होता। मैं भी अपनी मति अनुसार आपके गुणानुवाद करने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि इससे आपको कोई आश्चर्य नहीं होगा, मगर मेरी वाणी इससे अधिक पवित्र और लाभान्वित अवश्य होगी।

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्।
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं।
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः।। ४।।

भावार्थ: आप इस सृष्टि के सृजनहार है, पालनहार है और विसर्जनकार है। इस प्रकार आपके तीन स्वरूप है – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा आप में तीन गुण है – सत्व, रज और तम। वेदों में इनके बारे में वर्णन किया गया है फिर भी अज्ञानी लोग आपके बारे में उटपटांग बातें करते रहते है। ऐसा करने से भले उन्हें संतुष्टि मिलती हो, किन्तु यथार्थ से वो मुंह नहीं मोड़ सकते।

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः।
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः।। ५।।

भावार्थ: मूर्ख लोग अक्सर तर्क करते रहते है कि ये सृष्टि की रचना कैसे हुई, किसकी इच्छा से हुई, किन वस्तुओं से उसे बनाया गया इत्यादि। उनका उद्देश्य लोगों में भ्रांति पैदा करने के अलावा कुछ नहीं है। सच पूछो तो ये सभी प्रश्नों के उत्तर आपकी दिव्य शक्ति से जुड़े है और मेरी सीमित बुद्धि से उसे व्यक्त करना असंभव है।

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां।
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो।
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे।। ६।।

भावार्थ: हे प्रभु, आपके बिना ये सब लोक (सप्त लोक – भू: भुव: स्व: मह: जन: तप: सत्य) का निर्माण क्या संभव है? इस जगत का कोई रचयिता न हो, ऐसा क्या संभव है?आपके अलावा इस सृष्टि का निर्माण भला कौन कर सकता है? आपके अस्तित्व के बारे केवल मूर्ख लोगों को ही शंका हो सकती है।

त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति।
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।। ७।।

भावार्थ: हे परमपिता!!! आपको पाने के लिए अनगिनत मार्ग है – सांख्य मार्ग, वैष्णव मार्ग, शैव मार्ग, वेद मार्ग आदि। लोग अपनी रुचि के अनुसार कोई एक मार्ग को पसंद करते है। मगर आखिरकार ये सभी मार्ग, जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समुद्र में जाकर मिलता है, वैसे ही, आप तक पहुंचते है। सचमुच, किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है।

महोक्षः खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः।
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां।
न हि स्वात्मारामं विषय मृगतृष्णा भ्रमयति।। ८।।

भावार्थ: आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण ऐश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ कुल्हाड़ी, बैल, व्याघ्रचर्म, शरीर पर भस्म तथा हाथ में खप्पर (खोपड़ी)! इससे ये फलित होता है कि जो आत्मानंद में लीन रहता है वो संसार के भोग पदार्थों में नहीं फंसता।

ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं।
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव।
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।। ९।।

भावार्थ: इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है। लोग जो भी कहें, आपके भक्त तो आपको हमेशा सत्य मानते है और आपकी भक्ति में आनंद पाते है। मैं भी उनका समर्थन करता हूँ, चाहे किसी को मेरा ये कहना धृष्टता लगे, मुझे उसकी परवाह नहीं।

तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिंचिर्हरिरधः।
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः।।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्।
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।। १०।।

भावार्थ: जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद हुआ की दोनों में से कौन महान है, तब आपने उनकी परीक्षा करने के लिए अग्नि स्तंभ का रूप लिया। ब्रह्मा और विष्णु – दोनों नें स्तंभ को अलग अलग छोर से नापने की कोशिश की मगर वो सफल न हो सके। आखिरकार अपनी हार मानकर उन्होंने आपकी स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर आपने अपना मूल रूप प्रकट किया। सचमुच, अगर कोई सच्चे दिल से आपकी स्तुति करें और आप प्रकट न हों ऐसा कभी हो सकता है भला?

अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं।
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्।।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः।
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।। ११।।

भावार्थ: आपके परम भक्त रावण ने पद्म की जगह अपने नौ-नौ मस्तक आपकी पूजा में समर्पित कर दिये। जब वो अपना दसवाँ मस्तक काटकर अर्पण करने जा रहा था तब आपने प्रकट होकर उसको वरदान दिया। इस वरदान की वजह से ही उसकी भुजाओं में अटूट बल प्रकट हुआ और वो तीनो लोक में शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ रहा। ये सब आपकी दृढ़ भक्ति का नतीजा है।

अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं।
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।।
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि।
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।। १२।।

भावार्थ: आपकी परम भक्ति से रावण अतुलित बल का स्वामी बन बैठा मगर इससे उसने क्या करना चाहा ? आपकी पूजा के लिए हर रोज कैलाश जाने का श्रम बचाने के लिए कैलाश को उठाकर लंका में गाड़ देना चाहा। जब कैलाश उठाने के लिए रावण ने अपनी भुजाओं को फैलाया तब पार्वती भयभीत हो उठीं। उन्हें भयमुक्त करने के लिए आपने सिर्फ अपने पैर का अंगूठा हिलाया तो रावण जाकर पाताल में गिरा और वहाँ भी उसे स्थान नहीं मिला। सचमुच, जब कोई आदमी अनधिकृत बल या संपत्ति का स्वामी बन जाता है तो उसका उपभोग करने में विवेक खो देता है।
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं।
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।।
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः।
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः।। १३।।

भावार्थ: आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन गया तथा तीनों लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर ! जो मनुष्य आपके चरण में श्रद्धा भक्तिपूर्वक शीश रखता है उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित है।

अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा-
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो।
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भंग-व्यसनिनः।। १४।।

भावार्थ: जब समुद्र मंथन हुआ तब अन्य मूल्यवान रत्नों के साथ महाभयानक विष निकला, जिससे समग्र सृष्टि का विनाश हो सकता था। आपने बड़ी कृपा करके उस विष का पान किया। विषपान करने से आपके कंठ में नीला चिन्ह हो गया और आप नीलकंठ कहलाये। परंतु हे प्रभु, क्या ये आपको कुरूप बनाता है ? कदापि नहीं, ये तो आपकी शोभा को और बढ़ाता है। जो व्यक्ति औरों के दुःख दूर करता है उसमें अगर कोई विकार भी हो तो वो पूजा पात्र बन जाता है।

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे।
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्।
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः।। १५।।

भावार्थ: कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव हों। पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भस्म कर दिया। श्रेष्ठ जनो के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता।

मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं।
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम्।।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा।
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।। १६।।

भावार्थ: जब संसार के कल्याण हेतु आप तांडव करने लगते हैं तब समग्र सृष्टि भय के मारे कांप उठती है, आपके पद प्रहार से पृथ्वी अपना अंत समीप देखती है ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं। आपकी जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोक व्याकुल हो उठता है और आपकी भुजाओं के बल से वैकुंठ में खलबली मच जाती है। हे महादेव! आश्चर्य ही है कि आपका बल अतिशय कष्टप्रद है।

वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति।
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः।। १७।।

भावार्थ: गंगा नदी जब मंदाकिनी के नाम से स्वर्ग से उतरती है तब नभोमंडल में चमकते हुए सितारों की वजह से उसका प्रवाह अत्यंत आकर्षक दिखाई देता है, मगर आपके सिर पर सिमट जाने के बाद तो वह एक बिंदु समान दिखाई पड़ती है। बाद में जब गंगा जी आपकी जटा से निकलती है और भूमि पर बहने लगती है तब बड़े बड़े द्वीपों का निर्माण करती है। ये आपके दिव्य और महिमावान स्वरूप का ही परिचायक है।

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो।
रथांगे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः।
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।। १८।।

भावार्थ: आपने (तारकासुर के पुत्रों द्वारा रचित) तीन नगरों का विध्वंश करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को दो पहिये मेरु पर्वत का धनुष बनाया और विष्णु जी का बाण लिया। हे शम्भू ! इस वृहद प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता? आपने तो केवल (अपने नियंत्रण में रही) शक्तियों के साथ खेल किया था, लीला की थी।

हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः।
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः।
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्।। १९।।

भावार्थ: जब भगवान विष्णु ने आपकी सहस्र कमलों (एवं सहस्त्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमल कम पाया। तब भक्ति भाव से विष्णु जी ने अपनी एक आँख को कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया। उनकी इसी अदम्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं। हे प्रभु, आप तीनो लोक (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) की रक्षा के लिए सदैव जागृत रहते हो।

क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं।
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः।। २०।।

भावार्थ: यज्ञ की समाप्ति होने पर आप यज्ञकर्ता को उसका फल देते हो। आपकी उपासना और श्रद्धा बिना किया गया कोई कर्म फलदायक नहीं होता। यही वजह है कि वेदों में श्रद्धा रखके और आपको फल दाता मानकर हर कोई अपने कार्यो का शुभारंभ करते है।

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां।
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः।।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः।
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः।। २१।।

भावार्थ: यद्यपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तद्यपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेरित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है इसीलिए दक्ष प्रजापति के महायज्ञ यज्ञ को जिसमें स्वयं ब्रह्मा तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि सम्मिलित हुए, आपने नष्ट कर दिया क्योंकि उसमें आपका सम्मान नहीं किया गया। सचमुच, भक्ति के बिना किये गये यज्ञ किसी भी यज्ञकर्ता के लिए हानिकारक सिद्ध होते है।

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं।
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममु।
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः।। २२।।

भावार्थ: एक बार प्रजापिता ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गए। जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरूप धारण कर भागने की कोशिश की तो कामातुर ब्रह्मा भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे। हे शंकर ! तब आप ने व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा को मार भगाया। आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा में अदृश्य अवश्य हुए परंतु आज भी वह आपसे भयभीत हैं।

स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्।
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्।
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः।। २३।।

भावार्थ: जब कामदेव ने आपकी तपश्चर्या में बाधा डालनी चाही और आपके मन में पार्वती के प्रति मोह उत्पन्न करने की कोशिश की, तब आपने कामदेव को तृणवत् भस्म कर दिया। अगर तत्पश्चात् भी पार्वती ये समझती है कि आप उन पर मुग्ध है क्योंकि आपके शरीर का आधा हिस्सा उनका है, तो ये उनका भ्रम होगा। सच पूछो तो हर युवती अपनी सुंदरता पे मुग्ध होती है।

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः।
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं।
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मंगलमसि।। २४।

भावार्थ: आप श्मशान में रमण करते हैं, भूत - प्रेत आपके मित्र हैं, आप चिता भस्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाला धारण करते हैं। ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं। तब भी हे श्मशान निवासी ! उन भक्तों जो आपका स्मरण करते है, आप सदैव शुभ और मंगल करते है।

मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः।
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्संगति-दृशः।।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये।
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्।। २५।।

भावार्थ: आपको पाने के लिए योगी क्या क्या नहीं करते ? बस्ती से दूर, एकांत में आसन जमा कर, शास्त्रों में बताई गई विधि के अनुसार प्राण की गति को नियंत्रित करने की कठिन साधना करते है और उसमें सफल होने पर हर्ष अश्रु बहाते है। सचमुच, सभी प्रकार की साधना का अंतिम लक्ष्य आपको पाना ही है।

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः।
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं।
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्वं न भवसि।। २६।।

भावार्थ: आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं। आप ही आत्मा भी हैं। हे देव!! मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों।

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्।
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः।
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्।। २७।।

भावार्थ: (हे सर्वेश्वर! ॐ शब्द अ, ऊ, म से बना है। ये तीन शब्द तीन लोक स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल; तीन देव – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा तीन अवस्था – स्वप्न, जागृति और सुषुप्ति के द्योतक है। लेकिन जब पूरी तरह से ॐ कार का ध्वनि निकलता है तो ये आपके तुरीय पद (तीनों से पर) को अभिव्यक्त करता है।

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्।
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि।
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते।। २८।।

भावार्थ: वेद एवं देवगण आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं भव, सर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं ईशान। हे शम्भू! मैं भी आपकी इन नामों की भावपूर्वक स्तुति करता हूँ।

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः।
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः।
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः।। २९।।

भावार्थ: आप सब से दूर हैं फिर भी सब के पास है। हे कामदेव को भस्म करने वाले प्रभु ! आप अति सूक्ष्म है फिर भी विराट है। हे तीन नेत्रों वाले प्रभु! आप वृद्ध है और युवा भी है। आप सब में है फिर भी सब से पर है। आपको मेरा प्रणाम है।

बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ, भवाय नमो नमः।
प्रबल-तमसे तत् संहारे, हराय नमो नमः।।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ, मृडाय नमो नमः।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये, शिवाय नमो नमः।। ३०।।

भावार्थ: मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपके ब्रह्म स्वरूप को नमन करता हूँ। तमोगुण को धारण करके आप जगत का संहार करते हो, आपके उस रुद्र स्वरूप को मैं नमन करता हूँ। सत्वगुण धारण करके आप लोगों के सुख के लिए कार्य करते हो, आपके उस विष्णु स्वरूप को नमस्कार है। इन तीनों गुणों से पर आपका त्रिगुणातीत स्वरूप है, आपके उस शिव स्वरूप को मेरा नमस्कार है।

कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं।
क्व च तव गुण-सीमोल्लंघिनी शश्वदृद्धिः।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्।
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्।। ३१।।

भावार्थ: मेरा मन शोक, मोह और दुःख से संतप्त तथा क्लेश से भरा पड़ा है। मैं दुविधा में हूँ कि ऐसे भ्रमित मन से मैं आपके दिव्य और अपरंपार महिमा का गान कैसे कर पाउँगा ? फिर भी आपके प्रति मेरे मन में जो भाव और भक्ति है उसे अभिव्यक्त किये बिना मैं नहीं रह सकता। अतः ये स्तुति की माला आपके चरणों में अर्पित करता हूँ।

असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे।
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।। ३२।।

भावार्थ: यदि समुद्र को दवात बनाया जाए, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड की शाखा को लेखनी बनाकर और पृथ्वी को कागज बनाकर स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें तो भी आप के गुणों की पूर्णतया व्याख्या करना संभव नहीं है।

असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः।
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।।
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः।
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार।। ३३।।

भावार्थ: आप सुर, असुर और मुनियों के पूजनीय है, आपने मस्तक पर चंद्र को धारण किया है और आप सभी गुणों से परे है। आपकी इसी दिव्य महिमा से प्रभावित होकर मैं, पुष्पदंत गंधर्व, आपकी स्तुति करता हूँ।

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्।
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः।।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र।
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च।। ३४।।

भावार्थ: पवित्र और भक्ति भावपूर्ण हृदय से जो मनुष्य इस स्तोत्र का नित्य पाठ करेगा, तो वो पृथ्वीलोक में अपनी इच्छा के अनुसार धन, पुत्र, आयुष्य और कीर्ति को प्राप्त करेगा। इतना ही नहीं, देहत्याग के पश्चात् वो शिवलोक में गति पाकर शिवतुल्य शांति का अनुभव करेगा। शिवमहिम्न स्तोत्र के पठन से उसकी सभी लौकिक व पारलौकिक कामनाएँ पूर्ण होंगी।

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्।। ३५।।

भावार्थ: शिव से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, शिवमहिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोइ स्रोत नहीं है, भगवान शंकर के नाम से अधिक महिमावान कोई मंत्र नहीं है और ना ही गुरु से बढ़कर कोई पूजनीय तत्व।

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। ३६।।

भावार्थ: शिवमहिम्न स्तोत्र का पाठ करने से जो फल मिलता है वो दीक्षा या दान देने से, तप करने से, तीर्थाटन करने से, शास्त्रों का ज्ञान पाने से तथा यज्ञ करने से कहीं अधिक है।

कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः।
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्।
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः।। ३७।।

भावार्थ: पुष्पदन्त गंधर्वों का राजा, चन्द्रमौलेश्वर शिव जी का परम भक्त था। मगर भगवान शिव के क्रोध की वजह से वह अपने स्थान से च्युत हुआ। महादेव को प्रसन्न करने के लिए उसने ये महिम्न स्तोत्र की रचना की है।

सुरवरमुनिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं।
पठति यदि मनुष्यः प्रांजलिर्नान्य-चेताः।।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः।
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्।। ३८।।

भावार्थ: जो मनुष्य अपने दोनों हाथों को जोड़कर, भक्ति भावपूर्ण, इस स्तोत्र का पठन करेगा, तो वह स्वर्ग-मुक्ति देने वाले, देवता और मुनियों के पूज्य तथा किन्नरों के प्रिय ऐसे भगवान शंकर के पास अवश्य जायेगा। पुष्पदंत द्वारा रचित यह स्तोत्र अमोघ और निश्चित फल देनेवाला है।

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्।
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्।। ३९।

भावार्थ: पुष्पदंत गन्धर्व द्वारा रचित, भगवान शिव के गुणानुवाद से भरा, मनमोहक, अनुपम और पुण्यप्रदायक स्तोत्र यहाँ पर संपूर्ण होता है।

इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छंकर-पादयोः।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां में सदाशिवः।। ४०।।

भावार्थ: वाणी के माध्यम से की गई मेरी यह पूजा आपके चरण कमलों में सादर अर्पित है। कृपया इसका स्वीकार करें और आपकी प्रसन्नता मुझ पर बनाए रखें।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः।। ४१।।

भावार्थ: हे शिव!! मैं आपके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता। लेकिन आप जैसे भी है, जो भी है, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते।। ४२।।

भावार्थ: जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वह सर्व प्रकार के पाप से मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है।

श्री पुष्पदन्त-मुख-पंकज-निर्गतेन।
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण।।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन।
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः।। ४३।।

भावार्थ: पुष्पदंत के कमल रूपी मुख से उदित, पाप का नाश करने वाले, भगवान शंकर की अति प्रिय यह स्तुति का जो पठन करेगा, गान करेगा या उसे सिर्फ अपने स्थान में रखेगा, तो भोलेनाथ शिव उन पर अवश्य प्रसन्न होंगे।
।। इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं सम्पूर्णम्।।


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