जानिए क्या होती है सीआरपीसी की धारा-144



 दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 
धारा 144 क्या है और ये कब लागू की जाती है?
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 शांति व्यवस्था कायम करने के लिए लगाई जाती है। इस धारा को लागू करने के लिए जिला मजिस्ट्रेट द्वारा एक नोटिफिकेशन जारी की जाती है और जिस भी स्थान के लिए यह धारा-144 लगाई जाती है, उस स्थान पर पांच या उससे ज्यादा लोग इकट्ठे नहीं हो सकते हैं। इस धारा से उस स्थान पर हथियारों के लाने ले जाने पर भी रोक लगा दी जाती है, जो भी व्यक्ति इस धारा का पालन नहीं करता है तो फिर पुलिस उस व्यक्ति को धारा-107 या फिर धारा-151 के तहत गिरफ्तार भी कर सकती है। इस प्रकार के मामलों में एक साल की कैद भी हो सकती है। वैसे यह एक जमानती अपराध है, इसमें जमात हो जाती है।


धारा 144 :- न्यूसेंस या आशंकित खतरे के अर्जेंट मामलों में आदेश जारी करने की शक्ति :-
  1. उन मामलों में जिनमें जिला मजिस्ट्रेट या उप खंड मजिस्ट्रेट राज्य सरकार द्वारा इस निमित विशेषतया सशक्त किये गये किसी अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट की राय में इस धारा के अधीन कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है और तुरंत निवारण या शीघ्र उपचार करना वांछनीय है, वह मजिस्ट्रेट ऐसे लिखित आदेश द्वारा जिसमें इस मामले के तात्विक तथ्यों का कथन होगा और जिसकी तामील धारा 134 द्वारा उपबंधित रीति से कराई जाएगी, किसी व्यक्ति को कार्य विशेष न करने या अपने कब्जे की या अपने प्रबंधाधीन किसी विशिष्ट सम्पति की कोई विशिष्ट व्यवस्था करने का निर्देश उस दशा में दे सकता है, जिसमें मजिस्ट्रेट ऐसा समझता है कि ऐसे निर्देश से यह सम्भाव्य है या ऐसे निर्देश की यह प्रवृति है कि विधिपूर्वक नियोजित ऐसे व्यक्ति को बाधा, क्षोभ या क्षति का मानव जीवन, स्वास्थ्य या क्षोभ के खतरे का या लोक प्रशान्ति विक्षुब्ध होने का, या बलवे या दंगे का निवारण हो जाएगा।
  2. इस धारा के अधीन, आदेश, आपात की दशाओं में या उन दशाओं में जब परिस्थितियाँ ऐसी है कि उस व्यक्ति पर, जिसके विरुद्ध वह आदेश निर्दिष्ट है, सूचना की तामील सम्यक समय में करने की गुंजाइश न हो, एक पक्षीय रुप में पारित किया जा सकता है।
  3. इस धारा के अधीन आदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति को, या किसी विशेष स्थान या क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों को अथवा आम जनता को, जब वे, किसी विशेष स्थान या क्षेत्र में जाते रहते हैं या जाऐं, निर्दिष्ट किया जा सकता है।
  4. इस धारा के अधीन कोई आदेश उस आदेश के दिए जाने की तारीख से ही दो मास से आगे प्रवृत्त न रहेगा-परन्तु यदि राज्य सरकार मानव जीवन, या स्वास्थ्य या क्षेत्र को खतरे का निवारण करने के लिए अथवा बलवे या किसी दंगे का निवारण करने के लिए ऐसा करना आवश्यक समझती है तो वह अधिसूचना द्वारा यह निदेश दे सकती है कि मजिस्ट्रेट द्वारा इस धारा के अधीन किया गया कोई आदेश उतनी अतिरिक्त अवधि के लिए, जितनी वह उक्त अधिसूचना में विनिर्दिष्ट करें प्रवृत्त रहेगा, किन्तु वह अतिक्ति अवधि उस तारीख से छः मास से अधिक की न होगी, जिसको मजिस्ट्रेट द्वारा दिया गया आदेश ऐसे निदेश के अभाव में समाप्त हो गया होता।
  5. कोई मजिस्ट्रेट या तो स्वप्रेरणा से या किसी व्यथित व्यक्ति के आवेदन पर किसी ऐसे आदेश को विखंडित या परिवर्तित कर सकता है, जो स्वयं उसने या उसके अधीनस्थ किसी मजिस्ट्रेट ने या उसके पद पूर्ववर्ती ने इस धारा के अधीन दिया है।
  6. राज्य सरकार उपधारा (4) के परन्तुक के अधीन अपने द्वारा दिए गये किसी आदेश को या तो स्वप्रेरणा से या किसी व्यथित व्यक्ति के आवेदन पर विखंडित या परिवर्तित कर सकती है।
  7. जहाँ उपधारा (5) या उपधारा (6) के अधीन आवेदन प्राप्त होता है वहाँ यथास्थिति मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार आवेदक को या तो स्वयं या प्लीडर द्वारा उसके समक्ष हाजिर होने और आदेश के विरुद्ध कारण दर्शित करने का शीध्र अवसर देगी और यदि यथास्थिति मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार आवेदन को पूर्णतः या अंशतः नामंजूर कर दे तो वह ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगी।
      1. धारा 144 ‘क’ - आयुध सहित जुलूस या सामूहिक कवायद या सामूहिक प्रशिक्षण के प्रतिषेध की शक्ति -
        (1) जिला मजिस्ट्रेट, जब भी वह लोक शांति या लोक सुरक्षा या लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक समझता है, लोक सूचना या आदेश द्वारा अपनी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर किसी जुलूस में आयुध ले जाने या किसी लोक स्थान में आयुध सहित कोई सामूहिक कवायद या सामूहिक प्रशिक्षण व्यवस्थित या आयोजित करने या उसमें भाग लेने का प्रतिषेध कर सकता है।
        (2) इस धारा के अधीन जारी की गई लोक सूचना या किया गया आदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति या किसी समुदाय, दल या संगठन के व्यक्तियों के प्रति, सम्बोधित हो सकती या हो सकता हैं।
        (3) इस धारा के अधीन जारी की गई लोक सूचना या किया गया आदेश जारी किए जाने या बनाए जाने की तारीख से तीन मास से अधिक के लिए, प्रवृत्त नहीं रहेगी या रहेगा।
        (4) राज्य सरकार, यदि वह लोक शांति या लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक समझती है, तो अधिसूचना द्वारा, निदेश दे सकती है कि इस धारा के अधीन जिला मजिस्ट्रेट द्वारा निकाली गई लोक सूचना या किया गया आदेश, उस तारीख से जिसका जिला मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसी लोक सूचना निकाली गई थी या आदेश किया गया था, ऐसे निर्देश के न होने की दशा में समाप्त हो जाती या हो जाता, ऐसी अतिरिक्त अवधि के लिए लागू रहेगी या रहेगा जो उक्त अधिसूचना में विनिर्दिष्ट की जाए।
        (5) राज्य सरकार, साधारण या विशेष आदेश द्वारा, उपधारा (4) के अधीन अपनी शक्तियां जिला मजिस्ट्रेट को, ऐसे नियंत्रणों और निदेशों के अधीन रहते हुए जिन्हें अधिरोपित करना वह ठीक समझे, प्रत्यायोजित कर सकती है। स्पष्टीकरण - ‘आयुध’ शब्द का वही अर्थ है जो उसका भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 153कक में है।’’
      2. धारा 144 का क्षेत्र (SCOPE) - यह धारा केवल आशंकित खतरे या इमरजेंसी को ही आकर्षित करताहै। शक्ति का उपयोग, Obstruction, Annoyance, Injury को रोकने के लिए उस व्यक्ति के लिए किया जाएगा जो कानूनन रुप से कार्यरत है या मानव जीवन को खतरा हो या स्वास्थ्य, सुरक्षा आम जनता की शांति, स्थिरता, दंगा या बलवा (Affray) का खतरा हो। बाबूलाल बनाम महाराष्ट्र सरकार, ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 884, गुलाम बनाम इब्राहिम ए.आई.आर. 1978 एस.सी.422, 
      3. निषेध का तरीका:- इस धारा के अंतर्गत व्यवधान निषेध निम्न प्रकार से किया जा सकता हैः-
        1. किसी व्यक्ति विशेष के कोई कार्य नहीं करने हेतु निर्देश देकर
        2. किसी व्यक्ति को किसी सम्पत्ति विशेष के लिए कोई आदेश देकर जो सम्पत्ति उसके स्वामित्व या नियंत्रण में है।
      4. धारा 144 के कार्यवाही की प्रकृति :- कार्यवाही की प्रकृति:- धारा 144 के अधीन किया गया आदेश प्रशासनिक व कार्यपालक होता है न कि न्यायिक या न्यायिककल्प। अतः अनु. 32 के अंतर्गत ऐसा आदेश रिट-अधिकारिता में परीक्षणीय है। गुलाम अब्बास व अन्य बनाम उ.प्र. राज्य, व अन्य (1980) 3 उम.नि.प. 467, 1981 क्रि.ला.ज. 1835 धारा 144 के अधीन आदेश पारित किया गया था। इसके प्रकृति के बारे में प्रश्न था कि क्या वह अस्थाई प्रकृति का था धारित किया गया कि अधिसूचना की पुनरावृत्ति करके उसे स्थायी या अर्धस्थायी के रुप में आरोपित नहीं किया जा सकता। एम.एस. एसोसिएट्स बनाम पुलिस कमिश्नर, 1997 क्रि.ला.ज.377 
      5. आदेश की प्रकृति:- धारा 144 का आदेश न्यायिक कल्प प्रकृति का नहीं है। यह कार्यपालक या प्रशासनिक प्रकृति का है, जिसे लोक व्यवस्था एवं शान्ति की रक्षा के लिए आवश्यक जानकर दिया जाता है। इसी कारण दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के लागू हो जाने के बाद धारा 144 के अधीन आदेश जारी करने की अधिकारिता केवल कार्यपालक मजिस्ट्रेटों को दी गई है, न्यायिक मजिस्ट्रेट को नहीं। गुलाम अब्बास बनाम उ.प्र. राज्य 1981 एस.सी. 2198, 1981 क्रि.ला.ज. 1835
        अतः संहिता 1973 के लागू हो जाने के बाद धारा 144 के आदेश को न्यायिक वाली उदाहरणें अब विधि की दृष्टि में विधिमान्य नहीं रही है। यह आदेश आपात प्रकृति का है। मधुलिमए बनाम एस.डी.एम. मुंगेर, ए.आई.आर. 1971 एस.सी. 2486, आचार्य जगदीश्वर का मामला 1983 क्रि.ला.ज. 1872(एस.सी.)
        कार्यपालक कर्तव्यों के सम्पादन में पारित धारा 144 दं.प्र.सं. के आदेश को एक कार्यपालक आदेश मानना होगा, जिसमें कोई वाद अवधारित नहीं होता। यह तो केवल ऐसा आदेश है, जो लोक शान्ति के बनाए रखने के लिए किया जाता है। अब यह सुस्थापित है कि भारत के संविधान अनुच्छेद 19 में गारंटीशुदा 6 स्वतंत्रताऐं आत्यांतिक (Absolute) नहीं है, किन्तु उन पर भी युक्तियुक्त परिसीमाऐं अधिरोपित की जा सकती है। व्यापार संबंधी स्वतंत्रता पर भी सार्वजनिक लोकहित में कुछ परिसीमाऐं (Restriction) लगाई जा सकती है। बाल भारती स्कूल बनाम जिला मजिस्ट्रेट 1990 क्रि.ला.ज. 422, 1989 ए.एल.जे. 139 
      6. धारा लागू करने की शर्त (Condition for Application of Section) :-वह सूचना जो दंडाधिकारी को संतुष्ट करता है कि सूचना का विषय अति आवश्यक है, तुरंत का रोक अथवा तीव्र उपाय आवश्यक है, संभावित खतरा टालने के लिए यही एक आधार है जिस पर दंडाधिकारी आगे कार्य कर सकते हैं। इम्परर बनाम तुरब ए.आई.आर. 1942 अवध 39, बाबूलाल बनाम महाराष्ट्र सरकार ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 884 
      7. सूचना प्राप्ति का प्रकार :-सूचना मौखिक या पुलिस प्रतिवेदन पर आधारित हो सकती है।
      8. प्रारुप एवं आदेश का सार(Forms & Contents of Order):- आदेश निश्चित रुप से लिखित होना चाहिए। पीताम्बर 17 डब्लू. आर. 57 इस धारा के अधीन का आदेश संक्षिप्त सरल, पूर्ण रुप से स्पष्ट तथा निश्चित होना चाहिए ताकि उसे लागू करने में आसानी हो। भगवती ए.आई.आर. 1940 इला. 465 ए.आई.आर. 1935 बाम्बे 33
        आदेश में वस्तुमूलक तथ्य अवश्य होना चाहिए जिसे दंडाधिकारी विवाद का तथ्य समझते हैं तथा जिस आधार पर उनका आदेश टिका है। कारुँ लाल - 32 सी. कल. 935 
      9. आदेश की विषय-वस्तु :- धारा 144 के अधीन पारित आदेश लिखित अंतिम व निश्चित शर्तो का होना चाहिए। उपधाराऐं (1) व (2) में ऐसे सशर्त आदेश के पारित करने का अनुध्यात अथवा परिकल्पना नहीं है, जो वाद में अन्तिम किया जाए। भोला गिरी का मामला 36 क्रि.लॉ.ज.1955 पृ.547आदेश में ऐसे सारवान व ”तात्विक (मेटेरियल) तथ्यों के कथन“ का समावेश होना आवश्यक है जो मजिस्ट्रेट की राय में मामले के तथ्य हैं तथा कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है। बाबूलाल पराठे बनाम महाराष्ट्र राज्य ए.आई.आर. 1961 एस.सी.884, ए.आई.आर. 1971 एस.सी. 2486, 1977 क्रि.लॉ.ज. 1747
        यदि आदेश में वास्तविक तथ्य नहीं दिए गये हैं तो आदेश अपास्त हो जाएगा। गोपाल प्रसाद बनाम सिक्किम राज्य, 1981, क्रि.लॉ.ज. 60 
      10. कौन मजिस्ट्रेट कार्यवाही कर सकता है:- धारा 144 की उपधारा (1) के अधीन आदेश करने की अधिकारिता केवल जिला मजिस्ट्रेट, उपखंड मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित्त सशक्त किए गये किसी अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट को है। अ.च.चैधरी बनाम अनिरुद्ध रविदास 1983 क्रि.लॉ.ज. (एन.ओ.सी.) 80 गोहाटी 
      11. दंडाधिकारी की अधीनस्थता:- धारा 144 के अधीन कार्यरत दंडाधिकारी उच्च न्यायालय तथा सत्र न्यायाधीश के अधीनस्थ होते हैं रिविजन के उद्देश्य के लिए। यशवंत सिंह बनाम प्रीतम वगैरह ए.आई.आर. 1967 पंजा.482, 1967 क्रि.लॉ.ज. 1630 
      12. दंडाधिकारी आदेश पारित कर सकते हैं:-1. हथियार ले जाने से रोकने का। गर्ग बनाम सुपरिटेंडेंट 1970 (3) एस.सी.सी. 747
        2. सामूहिक रुप से जमा होने से रोक सकता है। राम मनोहर बनाम स्टेट ए.आई.आर. 1968 इला. 100
        3. जूलूस निकालने पर रोक लगा सकते हैं। बाबूलाल बनाम महा. ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 884
        4. किसी सभा को रोक सकते हैं। गर्ग बनाम सुपरिटेंडेंट 1970(3) 3 सी.सी. 747
        5. किसी खास व्र्यिक्त को किसी खास इलाके अथवा राज्य में प्रवेश पर रोक लगा सकते हैं। डांगे बनाम राज्य, 1970(3) एस.सी.सी. 218
        6. किसी व्यक्ति को यह निदेश दे सकते हैं कि वह किसी खास और अपनी संबंधित वस्तु से अलग रहे।
      13. आदेश आत्यंतिक (Absolute) होना चाहिए :- इस धारा के अधीन का आदेश आत्यंतिक होना चाहिए न कि सशर्त। इम्परर बनाम भोला गिरी ए.आई.आर. 1939 कल. 259, 63 क्रि.लॉ.ज. 1374
      14. आदेश सकारण (Speaking) अवश्य होना चाहिए :- धारा 144 की उपधारा (2) कार्यपालक दंडाधिकारी के तरफ से न्यायिक मस्तिष्क की ओर अनुबंधित करता है। कार्यपालक दंडाधिकारी से यह आशा की जाती है कि वे एक सकारण आदेश जारी करें जिसमें स्पष्ट रुप से यह वर्णित करें कि इमरजेंसी की स्थिति वर्तमान है जिसके कारण वे असाधारण अधिकार क्षेत्र प्राप्त कर एक पक्षीय आदेश विरोधी पक्ष के पीछे कार्यवाही के तरफ पारित करने में सक्षम हुए हैं। विष्णु पदखरा बनाम पं. बंगाल. सरकार 1995 कल. क्रि.एल.आर. 25 (कल.)
        एकपक्षीय आदेश पारित करने के पूर्व दंडाधिकारी को अपना कारण लिखना चाहिए , विचारित किया गया तथा यह इमरजेंसी का समय पाया गया। इसकी असफलता में एकपक्षीय आदेश अनुमान्य नहीं होगा। बी. लिंगारेडी बनाम बी.हुसैन 1979 क्रि.लॉ.ज. 1147 आं.प्र. 
      15. साक्ष्य ग्रहण करने का प्रावधान :- इस प्रक्रिया में साक्ष्य ग्रहण करना आवश्यक नहीं है। 1971 एस.सी.(2) 486, 1977 ए.सी.सी. 315 
      16. आदेश किसको संबोधित किया जाय:- धारा 144 की उपधारा (3) में विनिर्दिष्ट रुप से यह स्पष्ट किया गया कि इस धारा के अधीन आदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति को अथवा आम जनता को जब वे किसी विशेष क्षेत्र में जाते रहते हैं या जाऐं, निर्दिष्ट किया जा सकता है। 1978 क्रि.लॉ.ज. 496, ए.आई.आर. 1978 एस.सी.सी. 422 
      17. धारा 144 व पक्षकारों के कब्जे व हक का फैसला :- मजिस्ट्रेट को धारा 144 के अधीन कार्यवाही करने के लिए तात्पर्यिक होते हुए पक्षकारों के कब्जे अथवा हक-विषयक प्रश्नों को तय करने की अधिकारिता नहीं है। 53 क्रि.लॉ.ज. 1952, 1981 क्रि.लॉ.ज. 1835 
      18. आदेश का साक्ष्यिक मूल्य :- धारा 144 का आदेश प्रशान्ति भंग के निवारण हेतु एक अस्थायी कदम है। इसका कब्जा के प्रश्न के बारे में कोई साक्ष्यिक मूल्य नहीं है। किन्तु निम्न उदाहरण में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यह सही है कि धारा 144 का आदेश कब्जे का साक्ष्य नहीं है, किन्तु इस सीमित प्रयोजन के लिए कि कार्यवाही में पक्षकारों के दावे क्या थे, देखने के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है। राम प्र. बनाम शंकर प्रसाद, 52 क्रि.ला.ज. 778 (पटना), भूपत कुम्हार बनाम बिहार राज्य 1975 क्रि.लॉ.ज. 1405 (पटना) 
      19. आदेश की अवधि :- दो मास की अधिकतम अवधि- धारा 144 की उपधारा (4) के अधीन मजिस्ट्रेट का आदेश केवल दो माह तक लागू रह सकता है, इससे अधिक नहीं। जब तक कि इस अवधि में राज्य सरकार द्वारा मानव जीवन, स्वास्थ्य या क्षेम को खतरे का निवारण करने के लिए अथवा बलवे को या दंगेका निवारण करने के लिए इस अवधि में वृद्धि नहीं की जाती। रामदास बनाम नगर मजिस्ट्रेट 1960 क्रि.लॉ.ज.865 (2) 1984 एस.सी.सी. (क्रि.), माधव सिंह बनाम इम्परर ए.आई.आर. 1982 पटना 331, 
      20. अवधि की गणना :- साठ दिनों की गिनती कैसे की जाएगी इसका प्रारंभ उसी दिन से होता है जिस दिन धारा 144 के अधीन की कार्यवाही के अधीन रोक आदेश पारित किया जाता है। 1983 बी.एल.जे. 289 
      21. राज्य सरकार द्वारा अवधि में वृद्धि :- राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा मानव-जीवन एवं स्वास्थ्य या क्षेम को खतरे अथवा बलवे या दंगे का निवारण करने के लिए आवश्यक होने पर अधिसूचना द्वारा 6 मास की अवधि में, उस तारीख से जिसको मजिस्ट्रेट द्वारा किया गया है आदेश ऐसे निदेश के अभाव में समाप्त हो गया हो, वृद्धि कर सकता है। किन्तु राज्य सरकार को ऐसे आदेश को जो प्रवर्तन में नहीं है, धारा 144 के अधीन अवधि बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। यह उपधारा आज्ञापक है। चानन सिंह बनाम इम्परर 42 क्रि.ला.ज. 1941 
      22. पुनरीक्षण :- उचित मामले में आवश्यकता पड़ने पर उच्च न्यायालय धारा 401 के अधीन तथा सेशन न्यायालय धारा 399 के अधीन धारा 144 के मामले में हस्तक्षेप कर सकता है। उच्च न्यायालय इस धारा के अधीन वैधता पर विचार तो करती है, साथ ही ऐसा आदेश उचित है अथवा नहीं, उसके आधार न्यायोचित है अथवा नहीं उस पर भी विचार किया जा सकता है। जिला परिषद इटावा बनाम के.सी. सक्सेना 1977 क्रि.लॉ.ज. 1747 (इलाहाबाद) 1977 क्रि.लॉ.ज. 1747
        रिविजन (Rivision):- इस धारा के अधीन आदेश से व्यथित व्यक्ति उच्च न्यायालय में जा सकते हैं या सेशन जज के यहाँ रिविजन (पुर्नविचार) के लिए जा सकते हैं। मधुलिमा बनाम एस.डी.एम. ए.आई.आर. 1971 एस.सी. 2486, 1971 क्रि.लॉ.ज 1720 बाबूलाल बनाम महा. सरकार ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 884, जिला परिषद बनाम के.सी. सक्सेना 1977 क्रि.लॉ.ज. 1747 (इला.) 
      23. आदेश की अवज्ञाकारिता का परिणाम:- यदि कोई व्यक्ति धारा 144 के आदेश की अवज्ञा करता है तो वह धारा 188 आई.पी.सी. के अधीन दंड पाने के योग्य है। राजनारायण बनाम डी.एम; ए.आई.आर. 1956 इला. 481 
      24. परिवाद दायर करना आवश्यक:- धारा 144 के आदेश की अवज्ञा के लिए आदेश जारी करने वाला मजिस्ट्रेट भा.दं.सं. की धारा 188 में अभियुक्त को दंडित करने के लिए स्वयं सशक्त नहीं है। उसे या किसी ऐसे अन्य लोकसेवक को, जिसके वह प्रशासनिक तौर पर अधीनस्थ है, उसे दं.प्र.सं. की धारा 195 तथा धारा 340 के उपबंधानुसार लिखित परिवाद दाखिल करना होगा। सतीश बनाम राज्य 39 सी.डब्लू.एन1053, महेन्द्र बनाम राज्य ए.आई.आर. 1970 पृ. 162 
      25. धारा 144 को 145 दं.प्र.सं.में बदलना:- धारा 144 दं.प्र.सं. की कारवाई को धारा 145 दं.प्र.सं. में उसी अंतिम दिन की या पहले बदला जा सकता है जिस दिन धारा 144 के अधीन का निषेधात्मक आदेश की समय सीमा खत्म हो रही हो। हदु खान बनाम महादेव दास ए.आई.आर. 1968 उड़ी. 221, 1968 क्रि.लॉ.ज. 1623, 1976 क्रि.लॉ.ज. 649, 1975 बी.बी.सी.जे. 632, यदि धारा 145 दं.प्र.सं. की जरुरतें पूरी हो जाती है उस कारवाई में जो धारा 144 दं.प्र.सं. की लंबित कारवाई है तो कारवाई को धारा 145 दं.प्र.सं. की कारवाई में परिवत्र्तित किया जा सकता है। सुरेन्द्र मिश्रा बनाम वी. त्रिनाथ राव 1975 क्रि.लॉ.ज. 1850 उड़ीसा
        जब कारवाई में ऐसा परिवर्तन होता है तो दंडाधिकारी एक नई कारवाई प्रारंभ करते हैं। वीजेन्द्र राय बनाम मोहन राय 1978 क्रि.लॉ.ज. 306 पटना, राधा सहनी बनाम रामकांत झा 1978 पी.एल.जे.आर. 606, 1978 बी.एल.जे.आर. 187
      भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख


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      रात्रि भोजन एवं शयन के मुख्य नियम



       
      रात्रि चर्या में अंतिम एवं महत्वपूर्ण कर्म शमन या नींद लेना होता है। शरीर के स्वास्थ को बनाये रखने के लिए नींद का बहुत बड़ा योगदान है। सारे दिन की विभिन्न क्रियाओं के पश्चात जब मनुष्य का शरीर एवं मस्तिष्क बहुत थक जाता है अतः शरीर के सभी अंगों एवं मन को आराम देने के लिए नींद अति आवश्यक है, मन, मस्तिष्क एवं ज्ञानेन्द्रिय जब शिथिल हो जाता है तथा निष्क्रिय हो जाता है उसे नींद कहते है या मन की ऐसी स्थिति जिसमें उसका संपर्क ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से दूर जाता है वह अवस्था निद्रा कहलाता है। जब मन एवं मस्तिष्क थक जाते है तो स्वतः ही कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेंद्रिय से उसका संपर्क टूट जाता है परिणाम स्वरूप कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय स्वयं निष्क्रिय हो जाती है। इस अवस्था में श्वास-प्रश्वास तथा रक्त संचार, हृदय की गति, पाचन जैसे महत्वपूर्ण क्रियाओं चलती होती है। शरीर की ऊर्जा में वृद्धि होती है तथा व्यक्ति अपने आप को स्वस्थ, ताजा व उत्साहित महसूस करता है। इस दौरान शरीर के कोशिकाओं का नया निर्माण भी होता है।
      अच्छे स्वास्थ्य के लिए नींद अत्यंत आवश्यक कर्म है। जिन व्यक्तियों को नींद नहीं आती। वे अनेक शारीरिक एवं मानसिक रोगों से पीड़ित होते है एवं अनिद्रा रोग से ग्रसित होते है। ठीक इससे विपरीत, ज्यादा नींद भी आलस्य, निष्क्रियता, कफ प्रकोप, मोटापा, मन्दाग्नि आदि रोगों से पीड़ित होते है। एवं कुपोषण, दुर्बलता, अजीर्ण विषाक्तता आदि उत्पन्न होता है। अवस्था भेद से नींद का समय:-
      1. नवजात शिशु को 24 में 20 घंटा सोना आवश्यक है क्योंकि इससे उनकी शारीरिक वृद्धि तीव्र गति से होती है।
      2. साधारण स्वस्थ व्यक्ति को 6-8 घंटा का नींद पर्याप्त है।
      3. वृद्धजनों को चार से छः घंटे की नींद पर्याप्त है।
      कहावत है कि रोगी को आठ घंटा, भोगी (यौवनावस्था में) को छः घंटा, जोगी (साधु-संत वृद्ध) को चार घंटा नींद लेना चाहिए। उचित समय तक गहरी नींद सोने से मनुष्य में प्रसन्नता, पुष्टि, शक्ति, पौरूषत्व, ज्ञान और आयु की वृद्धि होती हैं इसके विपरीत पर्याप्त नींद न लेने से व्यक्ति, दुर्बल, कमजोर, कुपोषित, नपुंसक जड़बुद्धि हो जाता है। और भिन्न रोगों से ग्रसित हो मृत्यु को प्राप्त होता है। शयन के लिए निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए -
      1. स्वच्छ एवं हवादार कमरा हो, जहां वर्षा में पानी ठंड में ठंडी हवा तथा ग्रीष्म ऋतु में गर्म हवा का शीध्र प्रवेश न हो।
      2. साथ सुथरे-बिछावन हो, सुगन्धित द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिए।
      3. रूचि अनुसार संगीत सुनना या साहित्य पढ़ना।
      4. बिछावन में सिर दिशा पूर्व या दक्षिण की ओर होना चाहिए।
      5. मन को शांत रखे, आदि।
      6. सोते समय शरीर पर मालिश, दूध, मिठाई आदि खाना चाहिए।
      इस तरह रात्रि चर्या का पालन करने से दोष धातु, मल अवस्था में मन एवं इन्द्रिय प्रसन्न रहती है। और व्यक्ति आरोग्य रहता है। आहार का वर्णन आहार प्रकरण में किया गया हैं।
      शारीरिक दोषों में कफ दोष की तथा मानसिक दोषों में तमस दोष की प्रधानता होने पर नींद आती है। रात्रि का समय निद्रा के लिए अनुकूल होता है क्योंकि इस समय, अंधकार, शोर की कमी, वातावरण शीतल होने से नींद जल्दी और अच्छी आती है इसी तरह अच्छी नींद के लिए जहां शारीरिक श्रम, थकावट का होना भी आवश्यक है। वहीं मानसिक रूप से पूर्णतः शांत रहना अर्थात क्रोध, शोक, भय, चिन्ता आदि मानसिक विकारो से मुक्ती भी होना चाहिए। यह बात सभी लोग जानते है कि भोजन का गहरा सम्बन्ध नींद से होता है भोजन का सही पाचन न होने पर, नींद में बाधा उत्पन्न होती है। अतः रात्रि में यथा संभव जल्दी भोजन कर लेना चाहिए। भोजन के समय एवं सोने के समय के बीच कम से कम एक घंटा का अंतर होना चाहिए। रात्रि का भोजन सुपाच्य एवं हल्का होना चाहिए। भोजन के पश्चात कुछ दूर पैदल भ्रमण करना चाहिए। इससे भोजन का पाचन अच्छा होता है और नींद भी अच्छी आती है।
      रात्रि में दही का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह शरीर के अंदर स्थित स्रोतों में रुकावट उत्पन्न करता हैं। चूंकि रात्रि भोजन के बाद व्यक्ति सो जाता है और पाचन क्रिया सोये अवस्था में चलती जाती है जो धीमी होती है परिणामतः स्रोतों में अवरोध होने से नींद बाधित होता है पाचन की क्रिया बाधित होती है।
      रात्रि के समय अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि उचित प्रकाश की व्यवस्था हो। कम प्रकाश की उपस्थिति में नेत्रों पर जोर पड़ने से नेत्र ज्योति प्रभावित होती है। दर्शन शक्ति कम होती जाती है जहां तक हो सके रात में कम से कम पढ़ना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर लेखन कार्य करे। परंतु कई विद्वानों का मत है कि सोते समय अध्ययन करना नींद अच्छी आती है। अतः सोते समय मन पसन्द साहित्यों का अध्ययन जरूर करना चाहिए।

      महत्वपूर्ण लेख 


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      श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या की समय गाथा



       
      यदि राष्ट्र की धरती छिन जाए तो शौर्य उसे वापस ला सकता है, यदि धन नष्ट हो जाए तो परिश्रम से कमाया जा सकता है, यदि राज्यसत्ता छिन जाए तो पराक्रम उसे वापस ला सकता है परन्तु यदि राष्ट्र की चेतना सो जाए, राष्ट्र अपनी पहचान ही खो दे तो कोई भी शौर्य, श्रम या पराक्रम उसे वापस नहीं ला सकता। इसी कारण भारत के वीर सपूतों ने, भीषण विषम परिस्थितियों में, लाखों अवरोधों के बाद भी राष्ट्र की इस चेतना को जगाए रखा। इसी राष्ट्रीय चेतना और पहचान को बचाए रखने का प्रतीक है श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण का संकल्प।

      गौरवमयी अयोध्या
      अयोध्या की गौरवगाथा अत्यन्त प्राचीन है। अयोध्या का इतिहास भारत की संस्कृति का इतिहास है। अयोध्या सूर्यवंशी प्रतापी राजाओं की राजधानी रही, इसी वंश में महाराजा सगर, भगीरथ तथा सत्यवादी हरिशचन्द्र जैसे महापुरुष उत्पन्न हुए, इसी महान परम्परा में प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ। पाँच जैन तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या है। गौतम बुद्ध की तपस्थली दंत धावन कुण्ड भी अयोध्या की ही धरोहर है। गुरुनानक देव जी महाराज ने भी अयोध्या आकर भगवान श्रीराम का पुण्य स्मरण किया था, दर्शन किए थे। अयोध्या में ब्रह्मकुण्ड गुरूद्वारा है। मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम का जन्मस्थान होने के कारण पावन सप्तपुरियों में एक पुरी के रूप में अयोध्या विख्यात है। सरयु के तट पर बने प्राचीन पक्के घाट शताब्दियों से भगवान श्रीराम का स्मरण कराते आ रहे हैं। श्रीराम जन्मभूमि हिन्दुओं की आस्था का प्रतीक है। अयोध्या मन्दिरों की ही नगरी है। हजारों मन्दिर हैं, सभी राम के हैं। विश्व प्रसिद्ध स्विट्स्बर्ग एटलस में वैदिक कालीन, महाभारत कालीन, 8वीं से 12वीं, 16वीं, 17वीं शताब्दी के भारत के मानचित्र मौजूद हैं। इन मानचित्रों में अयोध्या को धार्मिक नगरी के रूप में दर्शाया गया है। ये मानचित्र अयोध्या की प्राचीनता और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं। सभी सम्प्रदायों ने भी ये माना है कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित अयोध्या यही है।

      आक्रमण का प्रतिकार
      श्रीराम जन्मभूमि पर कभी एक भव्य विशाल मंदिर खड़ा था। मध्ययुग में धार्मिक असहिष्णु, आतताई, इस्लामिक आक्रमणकारी बाबर के क्रूर प्रहार ने जन्मभूमि पर खड़े सदियों पुराने मन्दिर को ध्वस्त कर दिया। आक्रमणकारी बाबर के कहने पर उसके सेनापति मीर बाकी ने मंदिर को तोड़कर ठीक उसी स्थान पर एक मस्जिद जैसा ढांचा खड़ा कराया। 1528 ई0 के इस कुकृत्य से सदा-सदा के लिए हिन्दू समाज के मस्तक पर अपमान का कलंक लग गया। श्रीराम जन्मस्थान पर मंदिर का पुनर्निर्माण इस अपमान के कलंक को धोने के लिए तथा हमारी आस्था की रक्षा के साथ-साथ भावी पीढ़ी को प्रेरणा देने के लिए आवश्यक है। अपमान का यह कलंक काशी और मथुरा में भी हमें सताता है।
      इस स्थान को प्राप्त करने के लिए अवध का हिन्दू समाज 1528 ई0 से ही निरंतर संघर्ष करता आ रहा है। सन् 1528 से 1949 ई0 तक जन्मभूमि को प्राप्त करने के लिए 76 युद्ध हुए। इस संघर्ष में भले ही समाज को पूर्ण सफलता नहीं मिली पर समाज ने कभी हिम्मत भी नहीं हारी। आक्रमणकारियों को कभी चैन से बैठने नहीं दिया। बार-बार लड़ाई लड़कर जन्मभूमि पर अपना कब्जा जताते रहे। हर लड़ाई में जन्मभूमि को प्राप्त करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़े। 1934 ई0 का संघर्ष तो जग जाहिर है, जब अयोध्या की जनता ने ढांचे को भारी नुकसान पहुँचाया था। इन सभी संघर्षों में लाखों रामभक्तों ने अपना सर्वस्व समर्पण कर आहुतियाँ दी। 6 दिसम्बर, 1992 की घटना इस सतत् संघर्ष की ही अन्तिम परिणिति है, जब गुलामी का प्रतीक तीन गुम्बद वाला मस्जिद जैसा ढांचा ढह गया और श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर के पुनःनिर्माण का मार्ग खुल गया।

      ढांचे की रचना
      तथाकथित बाबरी मस्जिद कहे जाने वाले इस ढांचे में सदैव प्रभु श्रीराम की पूजा-अर्चना होती रही। इसी ढांचे में काले रंग के कसौटी पत्थर के 14 खम्भे लगे थे, जिस पर हिन्दु धार्मिक चिन्ह् उकेरे हुए थे। जो यह बताते थे कि पुराने मन्दिर के कुछ पत्थर मीरबाकी ने इस मस्जिदनुमा ढांचे के निर्माण में लगवाए। यह भी तथ्य है कि वहाँ कोई मीनार नहीं थी, वजु करने के लिए पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी।

      भ्रमणकारी पादरी की डायरी
      हिंदुओं के आराध्य भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का वर्णन अनेक विदेशी लेखकों और भ्रमणकारी यात्रियों ने किया है। फादर टाइफैन्थेलर का यात्रा वृत्तान्त इसका जीता-जागता उदाहरण है। ऑस्ट्रिया के इस पादरी ने 45 वर्षों तक (1740 से 1785) भारतवर्ष में भ्रमण किया, अपनी डायरी लिखी। लगभग पचास पृष्ठों में उन्होंने अवध का वर्णन किया, उन्होंने लिखा कि रामकोट में तीन गुम्बदों वाला ढांचा है उसमें 14 काले कसौटी पत्थर के खंभे लगे हैं, इसी स्थान पर भगवान श्रीराम ने अपने तीन भाइयों के साथ जन्म लिया। जन्मभूमि पर बने मंदिर को बाबर ने तुड़वाया। आज भी हिन्दू यहाँ साष्टांग दंडवत करते हैं, श्रद्धालु लोग इस स्थान की परिक्रमा करते हैं।

      भगवान का प्राकट्य
      समाज की श्रद्धा और इस स्थान को प्राप्त करने के सतत संघर्ष का एक रूप आजादी के बाद 22 दिसंबर, 1949 की रात्रि को देखने को मिला, जब ढांचे के अंदर भगवान प्रकट हुए। पंडित जवाहर लाल नेहरू उस समय देश के प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत और फैजाबाद के कलेक्टर के. के. नायर थे। नायर साहब ने ढांचे के सामने की दीवार में लोहे की सींखचों वाला दरवाजा लगवाकर ताला डलवा दिया, भगवान की पूजा के लिए पुजारी नियुक्त हुआ। पुजारी रोज सवेरे शाम भगवान की पूजा के लिए भीतर जाता था, जनता ताले के बाहर से पूजा करती थी, अनेक श्रद्धालु वहाँ कीर्तन करने बैठ गए, जो 6 दिसम्बर, 1992 तक उसी स्थान पर होता रहा।

      ताला खुला

      इसी ताले को खुलवाने का संकल्प सन्तों ने 8 अप्रैल, 1984 को विज्ञान भवन, दिल्ली में लिया। यही सभा प्रथम धर्म संसद कहलाई। श्रीराम जानकी रथों के माध्यम से व्यापक जन-जागरण हुआ। फैजाबाद के जिला न्यायाधीश श्री के. एम. पाण्डेय ने 01 फरवरी, 1986 को ताला खोलने का आदेश दे दिया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री वीरबहादुर सिंह थे।

      शिला पूजन व शिलान्यास

      भावी मंदिर का प्रारूप बनाया गया। अहमदाबाद के प्रसिद्ध मंदिर निर्माण कला विशेषज्ञ श्री सी. बी. सोमपुरा ने प्रारूप बनाया। इन्हीं के दादा ने सोमनाथ मन्दिर का प्रारूप बनाया था। मंदिर निर्माण के लिए जनवरी, 1989 में प्रयागराज में कुम्भ मेला के अवसर पर पूज्य देवरहा बाबा की उपस्थिति में गांव-गांव में शिला पूजन कराने का निर्णय हुआ। पौने तीन लाख शिलाएं पूजित होकर अयोध्या पहुँची। विदेश में निवास करने वाले हिन्दुओं ने भी मन्दिर निर्माण के लिए शिलाएं पूजित करके भारत भेजीं। पूर्व निर्धारित दिनांक 09 नवम्बर, 1989 को सब अवरोधों को पार करते हुए सबकी सहमति से मंदिर का शिलान्यास बिहार निवासी श्री कामेश्वर चैपाल के हाथों सम्पन्न हुआ। तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री नारायण दत्त तिवारी और भारत सरकार के गृह मंत्री श्री बूटा सिंह तथा प्रधानमंत्री स्व0 राजीव गांधी थे।

      प्रथम कारसेवा
      24 मई, 1990 को हरिद्वार में विराट हिन्दू सम्मेलन हुआ। सन्तों ने घोषणा की कि देवोत्थान एकादशी (30 अक्टूबर, 1990) को मंदिर निर्माण के लिए कार सेवा प्रारम्भ करेंगे। यह संदेश गांव-गांव तक पहुँचाने के लिए 01 सितम्बर, 1990 को अयोध्या में अरणी मंथन के द्वारा अग्नि प्रज्वलित की गई, इसे ‘रामज्योति’ कहा गया। दीपावली 18 अक्टूबर, 1990 के पूर्व तक देश के लाखों गांवों में यह ज्योति पहुँचा दी गई। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी ने अहंकारपूर्ण घोषणा की कि ‘अयोध्या में परिन्दा भी पर नहीं मार सकता’, उन्होंने अयोध्या की ओर जाने वाली सभी सड़कें बन्द कर दीं, अयोध्या को जाने वाली सभी रेलगाडि़याँ रद्द कर दी गईं, 22 अक्टूबर से अयोध्या छावनी में बदल गई। फैजाबाद जिले की सीमा से श्रीराम जन्मभूमि तक पहंुचने के लिए पुलिस सुरक्षा के सात बैरियर पार करने पड़ते थे। फिर भी रामभक्तों ने 30 अक्टूबर को वानरों की भांति गुम्बदों पर चढ़कर झण्डा गाड़ दिया। सरकार ने 02 नवम्बर, 1990 को भयंकर नरसंहार किया। कलकत्ता निवासी दो सगे भाइयों में से एक को मकान से खींचकर गोली मारी गई, छोटा भाई बचाव में आया तो उसे भी वहीं गोली मार दी (कोठारी बन्धुओं का बलिदान)। कितने लोगों को मारा कोई गिनती नहीं। देशभर में रोष छा गया। कारसेवक दर्शन करके ही लौटे। कई दिन तक निरन्तर सत्याग्रह चला। कारसेवकों की अस्थियों का देशभर में पूजन हुआ। 14 जनवरी, 1991 को अस्थियाँ माघ मेला के अवसर पर प्रयागराज संगम में प्रवाहित कर दी गईं। मन्दिर निर्माण का संकल्प और मजबूत हो गया। घोषणा की गई कि सरकार झुके या हटे।

      विराट प्रदर्शन

      04 अप्रैल, 1991 को दिल्ली के वोट क्लब पर विशाल रैली हुई। देशभर से पचीस लाख रामभक्त दिल्ली पहुँचे। यह भारत के इतिहास की विशालतम रैली कहलाई। इस रैली की विशालता को देखकर बोट क्लब पर सभाएं करना प्रतिबंधित ही कर दिया गया। रैली में सन्तों की गर्जना हो रही थी तभी सूचना मिली कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। श्रीराम जन्मभूमि पर देश में जनादेश प्राप्त हो गया। उत्तर प्रदेश में पुनः चुनाव हुए। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का विरोध करने वाले पराजित हुए। श्री कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने।

      समतलीकरण
      श्रीराम जन्मभूमि न्यास ने उत्तर प्रदेश सरकार से राम कथाकुंज के लिए भूमि की मांग की। मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह जी ने 42 एकड़ भूमि श्रीराम कथाकुंज के लिए राम जन्मभूमि न्यास को पट्टे पर दी। यह भूमि ढांचे के पूर्व व दक्षिण दिशा में थी। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी 2.77 एकड़ भूमि तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अधिग्रहण की। जून, 1991 में उत्तर प्रदेश सरकार जब इस उबड़-खाबड़ भूमि का समतलीकरण करा रही थी, तब ढांचे के दक्षिणी, पूर्वी कोने की जमीन से अनेक पत्थर प्राप्त हुए, जिनमें शिव पार्वती की खंडित मूर्ति, सूर्य के समान अर्ध कमल, मन्दिर के शिखर का आमलक, उत्कृष्ट नक्काशी वाले पत्थर व अन्य मूर्तियाँ थी।

      सर्वदेव अनुष्ठान व नींव ढलाई
      09 जुलाई, 1992 से 60 दिवसीय सर्वदेव अनुष्ठान प्रारंभ हुआ। जन्मभूमि के ठीक सामने शिलान्यास स्थल से भावी मंदिर की नींव के चबूतरे की ढलाई भी प्रारंभ हुई। 15 दिनों तक ढलाई का काम चला। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने संतों से कुछ समय मांगा और नींव ढलाई का काम बन्द करने का निवेदन किया। संतों ने प्रधानमंत्री की बात मान ली और कुछ दूरी पर बनने वाले शेषावतार मंदिर की नींव के निर्माण के काम में लग गए। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर की जिस नींव की ढलाई हुई वह त्।थ्ज् है। यह नींव 290 फीट लम्बी, 155 फीट चैडी और 2-2 फीट मोटी एक-के-ऊपर-एक तीन परत ढलाई करके कुल 6 फीट मोटी बनेगी।

      पादुका पूजन
      नंदीग्राम में भरत जी ने 14 वर्ष वनवासी रूप में रहकर अयोध्या का शासन भगवान की पादुकाओं के माध्यम से चलाया था, इसी स्थान पर 26 सितम्बर, 1992 को श्रीराम पादुकाओं का पूजन हुआ। अक्टूबर मास में देश के गांव-गांव में इन पादुकाओं के पूजन द्वारा जन जागरण हुआ। रामभक्तों ने मन्दिर निर्माण का संकल्प लिया।

      द्वितीय कारसेवा
      दिल्ली में 30 अक्टूबर, 1992 को सन्त पुनः इकट्ठे हुए। यह पांचवीं धर्मसंसद थी। सन्तों ने फिर घोषणा की कि गीता जयन्ती (6 दिसम्बर, 1992) से कारसेवा पुनः प्रारम्भ करेंगे। सन्तों के आवाहन पर लाखों रामभक्त अयोध्या पहुँच गए। निर्धारित तिथि व समय पर रामभक्तों का रोष फूट पड़ा, जो ढांचे को समूल नष्ट करके ही शान्त हुआ।

      ढांचे से प्राप्त शिलालेख
      6 दिसम्बर, 1992 को जब ढांचा गिर रहा था तब उसकी दीवारों से शिलालेख प्राप्त हुआ। विशेषज्ञों ने पढ़कर बताया कि यह शिलालेख 1154 ई0 का संस्कृत में लिखा है, इसमें 20 पंक्तियाँ हैं। ऊँ नमः शिवाय से यह शिलालेख प्रारम्भ होता है। विष्णुहरि के स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर का इसमें वर्णन है। अयोध्या के सौन्दर्य का वर्णन है। दशानन के मान-मर्दन करने वाले का वर्णन है। ये समस्त पुरातात्त्विक साक्ष्य उस स्थान पर कभी खड़े रहे भव्य एवं विशाल मन्दिर के अस्तित्व को ही सिद्ध करते हैं।


      संविधान निर्माताओं की दृष्टि में राम
      भारतीयों के लिए तो राम आदर्श हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। संविधान निर्माताओं ने भी जब संविधान की प्रथम प्रति का प्रकाशन किया तब भारत की सांस्कृतिक व ऐतिहासिक प्राचीनता को दर्शाया है। संविधान की इस प्रति में तीसरे नम्बर का चित्र प्रभु श्रीराम, माता जानकी व लक्ष्मण जी का उस समय का है, जब वे लंका विजय के पश्चात पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या को वापस आ रहे हैं। संविधान निर्मात्री सभा में सभी मत-मतान्तरों के लोग थे, किसी ने आपत्ति नहीं उठाई। आखिर सबकी सहमति से ही वह चित्र छपा होगा। इसी संविधान में वैदिक काल के आश्रम (गुरुकुल), युद्ध के मैदान में विषादयुक्त अर्जुन को प्रेरणा देते हुए भगवान श्रीकृष्ण, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी आदि भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ पूज्य पुरुषों के चित्र संविधान निर्माताओं ने रखे हैं। अतः ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के जन्मस्थान की रक्षा करना हमारा संवैधानिक दायित्व भी है।

      हस्ताक्षर अभियान
      वर्ष 1993 में दस करोड़ नागरिकों के हस्ताक्षरों से युक्त एक ज्ञापन तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय को सौंपा गया था, जिसमें एक पंक्ति का संकल्प था कि ‘‘आज जिस स्थान पर रामलला विराजमान है, वह स्थान ही श्रीराम जन्मभूमि है, हमारी आस्था का प्रतीक है और वहाँ एक भव्य मन्दिर का निर्माण करेंगे।’’ सांस्कृतिक गुलामी से मुक्ति एक सतत प्रक्रिया श्रीराम जन्मभूमि को प्राप्त करने का यह अभियान ठीक वैसा ही है जैसा आजादी के बाद देश के गृहमंत्री सरदार पटेल ने देश से गुलामी के चिन्हों को हटाने के लिए संकल्प लिया था और आक्रमणकारी महमूद गजनी द्वारा तोड़े गए भगवान सोमनाथ के मन्दिर के पुनर्निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया था। सोमनाथ मन्दिर में प्राण-प्रतिष्ठा के समय तो तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद जी स्वयं उपस्थित रहे। भारत सरकार ने 1947 के बाद देश के पार्कों, चैराहों से विक्टोरिया की मूर्तियाँ हटाई। सड़कों के नाम बदले। दिल्ली का इर्विन होस्पिटल जयप्रकाश नारायण अस्पताल बना। विलिंग्टन होस्पिटल राम मनोहर लोहिया अस्पताल कहलाने लगा। मिन्टो ब्रिज को शिवाजी ब्रिज कहने लगे। मद्रास, कलकत्ता, बाॅम्बे के नाम बदल कर चेन्नई, कोलकाता और मुम्बई कर दिए, क्योंकि ये सब गुलामी की याद दिलाते थे।

      अस्थायी मन्दिर का निर्माण
      6 दिसम्बर, 1992 को ढांचा ढह जाने के बाद तत्काल बीच वाले गुम्बद के स्थान पर ही भगवान का सिंहासन और ढांचे के नीचे परंपरा से रखा चला आ रहा विग्रह सिंहासन पर स्थापित कर पूजा प्रारंभ कर दी। हजारों भक्तों ने रात और दिन लगभग 36 घंटे मेहनत करके बिना औजारों के केवल हाथों से उस स्थान के चार कोनों पर चार बल्लियाँ खड़ी करके कपड़े लगा दिए, 5-5 फीट ऊँची, 25 फीट लम्बी, 25 फीट चैड़ी ईंटों की दीवार खड़ी कर दी और बन गया मन्दिर। आज भी इसी स्थान पर पूजा हो रही है, जिसे अब भव्य रूप देना है।

      न्यायालय द्वारा दर्शन की पुनः अनुमति
      08 दिसम्बर 1992 अतिप्रातः सम्पूर्ण अयोध्या में कफ्र्यू लग गया। परिसर केन्द्रीय सुरक्षा बलों के हाथ में चला गया। परन्तु केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवान भगवान् की पूजा करते रहे। हरिशंकर जैन नाम के एक वकील ने उच्च न्यायालय में गुहार की, कि भगवान् भूखे हैं। राग, भोग, पूजन की अनुमति दी जाए। 01 जनवरी, 1993 को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी ने दर्शन-पूजन की अनुमति प्रदान की। अधिग्रहण एवं दर्शन की पीड़ादायी प्रशासनिक व्यवस्था 07 जनवरी 1993 को भारत सरकार ने ढांचे वाले स्थान को चारों ओर से घेरकर लगभग 67 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया। इस भूमि के चारों ओर लोहे के पाईपों की ऊँची-ऊँची दोहरी दीवारें खड़ी कर दी गईं। भगवान् तक पहंुचने के लिए बहुत संकरा गलियारा बनाया, दर्शन करने जानेवालों की सघन तलाशी की जाने लगी। जूते पहनकर ही दर्शन करने पड़ते हैं। आधा मिनट भी ठहर नहीं सकते। वर्षा, शीत, धूप से बचाव के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। इन कठिनाइयों के कारण अतिवृद्ध भक्त दर्शन करने जा ही नहीं सकते। अपनी इच्छा के अनुसार प्रसाद नहीं ले जा सकते। जो प्रसाद शासन ने स्वीकार किया है वही लेकर अन्दर जाना पड़ता है। दर्शन का समय ऐसा है मानो सरकारी दफ्तर हो। दर्शन की यह अवस्था अत्यन्त पीड़ादायी है। इस अवस्था में परिवर्तन लाना है।

      भावी मंदिर की कार्यशाला
      श्रीराम जन्मभूमि पर बनने वाला मन्दिर तो केवल पत्थरों से बनेगा। सीमेंट, कंक्रीट से नहीं। मंदिर में लोहा नहीं लगेगा। नींव में भी नहीं। मन्दिर दो मंजिला होगा। भूतल पर रामलला और प्रथम तल पर राम दरबार होगा। सिंहद्वार, नृत्य मंडप, रंग मण्डप, गर्भगृह और परिक्रमा मन्दिर के अंग हैं। 270 फीट लम्बा, 135 फीट चैड़ा तथा 125 फीट ऊँचा शिखर है। 10 फीट चैड़ा परिक्रमा मार्ग है। 106 खंभे हैं। 6 फीट मोटी पत्थरों की दीवारें लगेंगी। दरवाजों की चौखटें सफेद संगमरमर पत्थर की होंगी।
      1993 से मन्दिर निर्माण की तैयारी तेज कर दी गई। मंदिर में लगने वाले पत्थरों की नक्काशी के लिए अयोध्या, राजस्थान के पिंडवाड़ा व मकराना में कार्यशालाएं प्रारम्भ हुईं। अब तक मन्दिर के फर्श पर लगने वाला सम्पूर्ण पत्थर तैयार किया जा चुका है। भूतल पर लगने वाले 16.6 फीट के 108 खम्भे तैयार हो चुके हैं। रंग मण्डप एवं गर्भगृह की दीवारों तथा भूतल पर लगने वाली संगमरमर की चैखटों का निर्माण पूरा किया जा चुका है। खम्भों के ऊपर रखे जाने वाले पत्थर के 185 बीमों में 150 बीम तैयार हैं। मन्दिर में लगने वाले सम्पूर्ण पत्थरों का 60 प्रतिशत से अधिक कार्य पूर्ण हो चुका है।
      हम समझ लें कि श्रीराम जन्मभूमि सम्पत्ति नहीं है। हिन्दुओं के लिए श्रीराम जन्मभूमि आस्था है। भगवान की जन्मभूमि स्वयं में देवता है, तीर्थ है व धाम है। रामभक्त इस धरती को मत्था टेकते हैं। यह विवाद सम्पत्ति का विवाद ही नहीं है। इस कारण यह अदालत का विषय नहीं है। अदालत आस्थाओं पर फैसले नहीं देती।

      अदालती प्रक्रिया
      श्रीराम जन्मभूमि के लिए पहला मुकदमा हिन्दु की ओर से जिला अदालत में जनवरी, 1950 में दायर हुआ। दूसरा मुकदमा रामानन्द सम्प्रदाय के निर्माेही अखाड़ा की ओर से 1959 में दायर हुआ। सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड की ओर से तो दिसम्बर, 1961 में मुकदमा दायर हुआ। 40 साल तक फैजाबाद की जिला अदालत में ये मुकदमे ऐसे ही पड़े रहे। वर्ष 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश देवकीनन्दन अग्रवाल (अब स्वर्गीय) ने स्वयं रामलला और राम जन्मस्थान को वादी बनाते हुए अदालत में वाद दायर कर दिया, मुकदमा स्वीकार हो गया। सभी मुकदमे एक ही स्थान के लिए है अतः सबको एक साथ जोड़ने और एक साथ सुनवाई का आदेश भी हो गया। विषय की नाजुकता को समझते हुए सभी मुकदमे जिला अदालत से उठाकर उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को दे दिए गए। दो हिन्दू और एक मुस्लिम न्यायाधीश की पूर्ण पीठ बनी। इस पीठ के समक्ष 20 साल से इन मुकदमों की सुनवाई हो रही है। पीठ का 12 बार पुनर्गठन हो चुका है परन्तु अभी प्रक्रिया अधूरी है।

      महामहिम राष्ट्रपति का प्रश्न व उत्खनन से प्राप्त अवशेष
      भारत के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने ढांचा गिर जाने के बाद वर्ष 1993 में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान की धारा 143 के अन्तर्गत अपना एक प्रश्न प्रस्तुत किया और उसका उत्तर चाहा। प्रश्न था कि ‘‘क्या ढांचे वाले स्थान पर 1528 ईसवी के पहले कोई हिन्दू मंदिर था ?’’ सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्न के उत्तर का दायित्व उच्च न्यायालय की अदालती प्रक्रिया पर डाल दिया। उच्च न्यायालय को इस प्रश्न का उत्तर खोजना था।
      यदि 1528 ई0 में मन्दिर तोड़ा गया तो उसके अवशेष जमीन में जरूर दबे होंगे, यह खोजने के लिए उच्च न्यायालय ने स्वयं प्रेरणा से 2003 ई0 में राडार तरंगों से जन्मभूमि के नीचे की फोटोग्राफी कराई। फोटो विशेषज्ञ कनाडा से आए, उन्होंने अपने निष्कर्ष में लिखा कि किसी भवन के अवशेष दूर-दूर तक दिखते हैं। रिपोर्ट की पुष्टि के लिए खुदाई का आदेश हुआ। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने खुदाई की। खुदाई की रिपोर्ट फोटोग्राफी रिपोर्ट से मेल खा गयी। खुदाई में 27 दीवारें, दीवारों में लगे नक्काशीदार पत्थर, प्लास्टर, चार फर्श, दो पंक्तियों में बावन स्थानों पर खम्भों के नीचे की नींव की रचना मिली। एक शिव मंदिर प्राप्त हुआ। उत्खनन करने वाले विशेषज्ञों ने लिखा कि यहां उत्तरभारतीय शैली का कोई मंदिर कभी अवश्य रहा होगा। सभी तथ्य आज अदालत के रिकार्ड पर मौजूद हैं। पर उच्च न्यायालय का क्या फैसला आएगा ?कब आएगा ?यह यक्ष प्रश्न हमारे सामने मुँह बाए खड़ा है। न्यायालय कब और क्या निर्णय करेगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। अदालतों के निर्णयों के क्रियान्वयन का नैतिक बल सरकार के पास होगा या नहीं, यह कहना बहुत कठिन है। लेकिन यह तय है कि जागरुक और स्वाभिमानी समाज अपने सम्मान की रक्षा के लिए संकल्पबद्ध है।

      वार्ताओं का इतिहास
      आज अनेक लोग वार्ता की बात करते हैं। उन्हें जानना चाहिए कि वार्ताएं भी हुई हैं। स्वर्गीय राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में गृहमंत्री बूटा सिंह वार्ता कराया करते थे, हर मीटिंग में वार्ता के मुद्दे ही बदल जाते थे। स्व0 विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में एक वार्तालाप का दिन शुक्रवार था, मुस्लिम पक्ष के लोग दोपहर की नमाज के समय नमाज पढ़ने चले गए, वापस लौटे तो स्वामी सत्यमित्रानंद जी महाराज ने खड़े होकर अपना आंचल फैलाकर कहा कि ‘‘मैं आपसे श्रीराम जन्मभूमि की भीख मांगता हूँ’’, नमाज के बाद जकात (दान) होती है, आप मुझे जकात में दे दीजिए। वहाँ बैठे मुस्लिम पक्ष से जवाब आया कि ‘यह कोई माचिस की डिब्बी है’ जो दे दें। एक बार सैयद शहाबुद्दीन साहब ने स्वयं कहा था कि यदि यह सिद्ध हो जाए कि किसी मंदिर को तोड़कर यह स्थान बना है, तो हम इसे छोड़ देंगे। अगली बैठक में शहाबुद्दीन साहब अपनी बात से पलट गए। श्री चन्द्रशेखर साहब जब प्रधानमंत्री थे तब भी वार्ताएं हुईं। दोनों पक्षों ने अपने साक्ष्य लिखित रूप में गृह राज्यमंत्री को दिए। साक्ष्यों का आदान-प्रदान हुआ। दोनों पक्षों ने एक दूसरे के साक्ष्यों के उत्तर/आपत्तियाँ दी। निर्णय हुआ कि दोनों पक्षों के विद्वान आमने-सामने बैठकर प्रस्तुत साक्ष्यों पर वार्तालाप करेंगे। 10 जनवरी, 1991 का दिनांक विद्वानों के मिलने के लिए तय हुआ परन्तु मुस्लिम पक्ष के राजस्व और कानूनी विशेषज्ञ मीटिंग में आए ही नहीं। पुनः 25 जनवरी, 1991 को गुजरात भवन में मीटिंग निर्धारित की गई। मुंिस्लम पक्ष का कोई भी विशेषज्ञ नहीं पहुँचा। मुस्लिम पक्ष की अनुपस्थिति को अपमानजनक समझते हुए वार्तालाप का दौर यहीं समाप्त हो गया। अनुभव यह आया कि वे वार्तालाप से भागते हैं या हर बार पैंतरा बदलते हैं। अब वार्ता कहाँ से शुरू होगी? वार्तालाप में लेन-देन भी होता है। भारत में निवास करने वाले वर्तमान मुस्लिम समाज का बाबर से कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है। बाबर कोई धार्मिक पुरुष नहीं था, वह मात्र आक्रमणकारी था। अतः मुस्लिम पक्ष श्रीराम जन्मभूमि से अपना वाद वापस ले और यह स्थान हिन्दू समाज को सौंप दे। हिन्दू समाज बदले में उन्हें अपनी आत्मीयता और सद्भाव देगा, जो अन्य किसी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकता। एकमेव मार्ग है कि सोमनाथ मंदिर निर्माण की तर्ज पर संसद कानून बनाए और श्रीराम जन्मभूमि हिन्दू समाज को सौंप दे। इसी मार्ग से 1528 के अपमान का परिमार्जन माना जाएगा।


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