वाहन दुर्घटना के अन्तर्गत मुआवजा



सड़कों पर दिनों दिन बढ़ती भीड़ व बढ़ते हुए यातायात के कारण मोटर दुर्घटनाओ की संख्या में वृद्वि हो रही है। दुर्घटना की षिकार व्यक्ति को आर्थिक सहायता की आवश्यकता होती है। भारत देश कल्याणकारी देश होने के नाते इस प्रकार की सहायता देने के लिए वचनबद्व है। सबसे प्रमुख कार्य दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को प्रातिकार या हर्जाना दिलाना होता है। मोटर गाडि़यों से सम्बन्धित कानून को अधिक कल्याणकारी और व्यापक बनाने के लिए मोटरयान अधिनियम 1988 (59 ऑफ़ 1988) नया मोटरयान अधिनियम सड़क यातायात तकनीकी ज्ञान, व्यक्ति तथा माल की यातायात सहूलियत के बारे में व्याख्या करता है। इसमें मोटर दुर्घटनाओं के लिए प्रतिकार दिलाने की व्यवस्था है। इस कानून के अन्तर्गत मोटरयान का तात्पर्य सड़क पर चलने योग्य बनाया गया प्रत्येक वाहन जैसे ट्रक, बस, कार, स्कूटर, मोटर साईकिल, मोपेड़ व सड़क कूटने का इंजन इत्यादि से है। इनसे होने वाला प्रत्येक दुर्घटना मोटर दुर्घटना मानी जाती है और उसके लिए प्रतिकार दिलाया जाता है।

motor accident claim
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धारा 166 (ज्ञात मोटरयान से दुर्घटना जब गलती मोटर वाले की हो) : यदि दुर्घटना मोटर के स्वामी या चालाक की गलती से होती है तो उसके लिए प्रतिकर मांगने का आवेदन, उस इलाका के दुर्घटना दावा अधिकरण (मोटर दुर्घटना अध्यर्थना न्यायाधिकरण) जो कि जिला न्यायाधीश होता है को दिया जाता है वहां दुर्घटना होती है या जिस स्थान का आवेदक रहने वाला है या जहां प्रतिवादी रहता है उस अधिकरण के पास आवेदन आवेदक की इच्छानुसार स्थान का चयन करते हुए दायर किया जा सकता है। आवेदन घायल व्यक्ति स्वयं, विधिक प्रतिनिधि या एजेंट द्वारा दे सकता है। मृत्यु की दशा में मृतक का कोई विधिक प्रतिनिधि या उसका एजेंट आवेदन दे सकता है। जो छपे फार्म पर दिया जाता है। अगर छपा फार्म उपलब्ध न हो तो फार्म की नकल सादे कागज पर करके आवेदन दिया जा सकता है। एक आवेदन में मोटर के मालिक व चालक को तो पक्षकार बनाया ही जाता है बल्कि बीमा कम्पनी को भी पक्षकार बनाना चाहिए क्योंकि कोई भी मोटर गाड़ी बीमा करवाए बिना नहीं चलाई जा सकती। मोटरयान कर स्वामी इस बात के लिए आवद्ध है कि वह बीमा कम्पनी का नाम बताएं। दावा अधिकारी मुकद्दमें की सुनवाई करता है जो कि प्रायः संक्षिप्त होती है। दावा में यह साबित करना होता है कि:-

  1. दुर्घटना उस मोटर गाड़ी से हुई।
  2. मोटर वाले की गलती के कारण हुई
  3. दुर्घटना से क्या हानि हुई

यदि दुर्घटना से मृत्यु होती है तो दावेदारों को यह भी साबित करना होता है कि मृतक के दावेदारों को क्या लाभ होता था व क्या लाभ भविष्य में होने की आशा थी। इसके आधार पर प्रतिकर की राशि नियत की जाती है, सम्पति की हानि भी साबित करनी होगी व 6000 रूपये तक मुआवजा अधिकरण दे सकता है। अगर किसी वाहन की बीमा राशि में अतिरिक्त बढ़ौतरी बाबत असीमित नुक्सान की जिम्मेवारी जमा कराया गया हो तो उस सूरत में बीमा कम्पनी 6000 रूपये से अधिक रक़म की सम्पति नुकसान की भी भरपाई करने की जिम्मेवार होगी अन्यथा इससे अधिक की राशि के लिए दिवानी दावा करना आवश्यक है। यदि किसी व्यक्ति को दुर्घटना से चोट लगी है तो उसके इलाज पर होने वाल व्यय, काम न कर पाने के कारण होने वाली हानि, आदि के विषय में प्रतिकर देय है। यदि कोई गम्भीर चोट आती है जिसका स्थाई प्रभाव हो जैसे की कोई लंगड़ा या काना हो जाए तो उसे शेष जीवन, उससे होने वाली असुविधा व हानि का भी प्रतिकर देय होगा। राशि बीमा कम्पनी द्वारा ही चुकाई जाती है। परन्तु तात्पर्य यह नहीं कि वह मोटर वाले से वसूल नहीं की जा सकती है। राशि जितनी दिलाई जाए वह चाहे कम्पनी चाहे मालिक या फिर दोनों से ही दिलाई जा सकती है। यह भी हो सकता है कि मोटर चालक या स्वामी का दोष साबित न हो पाये। उस सूरत में चाहिए कि आवेदन में ही यह मांग भी की गई हो कि गलती न होने पर मिलने वाले प्रतिकर तो दिलाया ही जाए। इस प्रकार यदि मोटर वाले की गलती साबित हो तो पूरा, अगर न साबित हो तो नियम प्रतिकर मिल जायेगा।

मुआवजा लेने सम्बन्धित कार्यवाई : मोटर दुर्घटना की रिपोर्ट थाने में करनी चाहिए। रिर्पोट घायल व्यक्ति स्वयं या उसका कोई साथी लिखवा सकता है। रिपोर्ट में दुर्घटना का समय, स्थान, वाहन का नम्बर, दुर्घटना का कारण इत्यादि लिखवाने चाहिए। चोट के बारे में शीघ्रातिषीघ्र डाक्टरी जांच करवानी चाहिए। सम्पति हानि का विवरण भी देना चाहिए। गवाहों के नाम भी लिखवाने चाहिए। यदि बहुत घायल हुए हों तो प्रत्येक को अलग रिर्पोट लिखवाने की आवश्यकता नहीं, परन्तु यह देख लेना चाहिए कि रिर्पोट में पूरी बात आ गई है या नहीं ज्यादा घायल होने पर रिर्पोट अस्पताल में पुहंचने के बाद भी लिखवाई जा सकती है। डाक्टरी परीक्षा की नकल प्राप्त कर लेनी चाहिए और इलाज के कागज सावधानी से रख लेने चाहिए ताकि प्रतिकर लेते वक्त हानि साबित करने में सुविधा रहे।
मृत्यु होने की दशा में शव परीक्षा पुलिस करवाती है लेकिन दुर्घटना में लम्बी चोटों के कारण मृत्यु कुछ दिन बाद होती है तो भी शव परीक्षा की आवश्यकता होती है क्योंकि यह मृत्यु भी दुर्घटना में घायल होने के कारण ही मानी जाती है। पुलिस को की गई रिर्पोट को भी मोटर दुर्घटना अध्यर्थना न्यायाधिकरण हर्जाने के लिए स्वीकार कर सकती है।

धारा 173 के अधीन अपील : दावा अधिकरण के निर्णय से असन्तुष्ट कोई भी व्यक्ति निर्णय की तारीख के 90 दिन के भीतर उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है। उचित कारण बताए जाने पर, उच्च न्यायालय 90 दिन के अविध के बाद भी अपील की सुनवाई कर सकता है अगर प्रतिकर की रक़म 10000 रूपये से कम हो तो अपील नहीं की जा सकती है और अगर प्रतिकर की रक़म ज्यादा हो तो अपील करने से पहले 25000 रूपये या प्रतिकर का 50 प्रतिशत जो भी कम हो, उच्च न्यायालय में जमा करवाना पड़ता है।

अधिकरण द्वारा दिलाई गई रक़म प्राप्त करने की विधि :- यह रकम निर्णय के 30 दिन के अन्दर देय होती है अधिकरण द्वारा दिलाई गई रक़म की वसूली के लिए एक प्रमाण-पत्र जिला कलैक्टर के नाम भी प्राप्त किया जा सकता है। जिला कलैक्टर इस रक़म को मालगुजारी की बकाया रक़म की तरह-कुर्की गिरफतारी आदि से वसूल करवा सकता है। अन्यथा मोटर दुर्घटना अध्यर्थना न्यायाधिकरण खुद भी इजराए के जरिए मुआवजे की रक़म उत्तरवादियों से वसूल कर सकता है।

कानूनी सहातया कार्यक्रमों के अंतर्गत लोक अदालत द्वारा दुर्घटनाओं में प्रतिकर सम्बन्धी वादों के निर्णय की विधि : मोटर दुर्घटना के प्रतिकर सम्बन्धी वादों के लोक अदालतों में संधिकर्ताओं की मद्द से तय कराने का प्रयास किया जाता हैं जो आवेदक अपना निर्णय, लोक अदालत के माध्यम से करवाने के इच्छुक हैं वह छपे फार्म में दी गई सूचनाओं के साथ प्रार्थना-पत्र सम्बन्धित अधिकरण को दे सकता है जिसमें वह यह अनुरोध कर सकता है कि उसका निर्णय लोक अदालत के माध्यम से शीघ्र करवाया जाए। इस आवेदन पर मोटर मालिक व बीमा कम्पनी को सूचना भेज कर निष्चित समय पर बुलाया जाएगा व प्रतिकर के बारे समझौते द्वारा निर्णय करवाने की कोषिष की जाएगी। ऐसी दशा में बीमा कम्पनी या मालिक से आवेदक की धन राशि बिना किसी विलम्ब के दिलाने का प्रयास किया जायेगा। 

भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख



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धारा 50 सी.आर.पी.सी. के अधीन हिरासत व जमानत सम्बन्धित अधिकार



समाज में न्याय व्यवस्था रखना राज्य सरकार का संवैधानिक तथा कानूनी कर्तव्य है। भारत का संविधान भारत के लोगों को समान अधिकार और जीवित रहने का अधिकार प्रदान करता है तथा संविधान के तहत लोगों का यह मूलभूत अधिकार है कि बिना किसी अभियोग के किसी भी व्यक्ति को सजा न दी जाए औरदोषी व्यक्ति को केवल उतनी ही सजा दी जाए जितनी का कानून में प्रावधान है। किसी ऐसे दोषी व्यक्ति को दो बार किसी एक विशेष अभियोग में सजा नहीं दी जा सकती है।
धारा 50 सी.आर.पी.सी. के अधीन हिरासत व जमानत सम्बन्धित अधिकार
धारा 50  सीआरपीसी के अधीन हिरासत व जमानत सम्बन्धित अधिकार
सामाजिक अव्यवस्था तथा अपराधिक व असामाजिक तत्वों से जनता की सुरक्षा के लिए पुलिस विभाग की रचना की गई है। पुलिस विभाग का मुख्य कर्तव्य जनता की सुरक्षा व सहयोग देना है परन्तु कई बार कानून प्रदत्त इन शक्तियों का पुलिस विभाग के कुछ कर्मियों द्वारा दुरूपयोग किया जाता है और कई बार जनता से पुलिस विभाग का अपना कर्तव्य पालन करने के लिए समुचित सहयोग प्राप्त नहीं होता। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि हर व्यक्ति यह जान सके कि उसके अधिकार और कर्तव्य मुख्यतः बन्दी बनाए जाने पर व जमानत करवाने सम्बन्धी क्या है।
पुलिस विभाग को बन्दी बनाने का अधिकार कानून प्रदत्त है परन्तु यह अधिकार असीमित नहीं है। कानून में यह व्यवस्था है कि समुचित कारण होने पर या अपराध जघन्न होने पर ही, पुलिस किसी व्यक्ति को बन्दी बना सकती है। मुख्यतः अपराध दो श्रेणियों में बांटे जा सकते है:-
  • संज्ञेय अपराध - इस प्रकार के अपराधों के लिए पुलिस बिना किसी वारंट के संदिगध अपराधी को गिरफ्तार कर सकती है। सामान्यतः गम्भीर अपराधों के लिए ही बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार है। गम्भीर या जघन्य अपराधों की श्रेणी में मुख्यतः निम्नलिखित अपराध आते हैंः-
    1. अगर वह हत्या, बलात्कार, अपहारण जैसे अपराधों का दोषी हो
    2. अगर उस पर चोरी-डकैती इत्यादि का अभियोग हो, या उसके पास चोरी का सामान इत्यादि बरामद हो।
    3. अगर वह इश्तहारशुदा भगोड़ा हो।
    4. अगर वह जेल से फरार हुआ हो।
    5. अगर व किसी भी सेना से भागा हुआ हो।
    6. गंभीर चोट पहुंचाना, बिना अधिकार प्रवेष करना, नाजायज शराब खरीद करना व रखना, इन्यादि भी संज्ञेय अपराध की परिभाषा में आते हैं।
  • असंज्ञेय अपराध इस प्रकार के अपराधों में छोटे-मोटे और व्यक्तिगत अपराध जैसे कि किसी पर बिना चोट पहुंचाए हमला करना, किसी की मान हानि करना या किसी को गाली गलौच देना गैर-कानूनी तौर पर दूसरी शादी करना आदि आते हैं। असंज्ञेय अपराध बारे जब पुलिस में सूचना दी जाती है, तो वैसी सूचना रोजनामचा में दर्ज की जाती है और सूचना देने वाला व्यक्ति पुलिस को बाध्य नहीं कर सकता कि वह प्रथम सूचना रिर्पोट (एफ0आई0आर0) दर्ज करें। इस प्रकार के असंज्ञेय अपराधों को पुलिस अनुवेषण या तहकीकात बिना इलाका मैजिस्ट्रेट से आदेश प्राप्त किए बिना नहीं कर सकता है।

गिरफ्तार होने पर अपराधी के अधिकार है कि उसे यह जानकारी मिलें :- 
  1. कि वह किस अपराध में हिरासत में लिया जा रहा है।
  2. अगर वह वारंट के आधार पर गिरफ्तार किया गया है तो वह उस वारंट को देखे और पढ़े।
  3. किसी वकील को बुलाकर सलाह ले सके।
  4. अदालत के समय 24 घंटे के भीतर पेश किया जाए।
  5. उसे यह जानकारी दी जाए कि वह जमानत ले सकता है कि नहीं।
  6. अगर अदालत द्वारा उसे पुलिस हिरासत में रखने का आदेश हो तो वह अपना डाक्टरी मुआयना किसी सरकारी अस्पलात से करवाए।
  7. उसे किसी ऐसे बयान को देने के लिए बाध्य न किया जाए जो अदालत में उसके अपने खिलाफ साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता हो।
  8. अगर 24 घंटों के दौरान उसके साथ कोई अत्याचार या जोर जबरदस्ती की गई तो वह इलाका मैजिस्ट्रेट को इस बारे में बताए व उचित आदेश प्राप्त कर सके।
  9. उच्चतम न्यायालय के दिषा निर्देषानुसार हथकड़ी लगाए जाने सम्बन्धी अधिकार उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्देष जारी किए गये हैं कि अपराधी को हथकड़ी सामान्यतः नहीं लगाई जाएगी बल्कि उचित कारणों पर ही लगाई जा सकती है जैसे (अपराधी द्वारा भागने की कोषिष या अपराधी के हिंसक होने की स्थिति या अन्य किसी ऐसे उचित कारण होने पर, व लिखित रूप से आदेश प्राप्त करने पर ही अपराधी को हथकड़ी लगाई जा सकती है।

जमानत के अधिकार को आधार मानकर, अपराधों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है:-
  1. धारा 436 सी0आर0पी0सी0 :- जमानत योग्य अपराध जिनमें जमानत प्राप्त करना अधिकार है। इस श्रेणी में आने वाले केसों में अपराधी जमानत करवाने का अधिकार रखता है और अगर वह मैजिस्ट्रेट या पुलिस द्वारा मांगी गई जमानत देता है तो उसे जमानत पर रिहा करना आवश्यक है।
  2. धारा 437 सी0आर0पी0सी0 :- बिना जमानत योग्य अपराध जिनमें जमानत देना या ना देना अदालत की इच्छा पर निर्भर करता है। इन अपराधों में जमानत सिर्फ अदालतों द्वारा दी जाती है और अदालत द्वारा अपराध की गम्भीरता, साक्ष्य को सुरिक्षत रखना इत्यादि बातों को ध्यान में रखते हुए, जमानत दरखास्त मंजूर या नामंजूर की जा सकती है।
महिला अपराधी के अधिकार कुछ अतिरिक्त विशेषाधिकार प्राप्त है :-
  1. महिला अपराधी को किसी महिला पुलिस की ही हिरासत में रखा जा सकता है।
  2. किसी महिला को किसी अपराध की पूछताछ के लिए सूर्यास्त के बाद या सूर्योदय से पहले किसी भी पुलिस स्टेशन व चौकी में नहीं बुलाया जा सकता औा पूछताछ के वक्त महिला आरक्षी का उपस्थित रहना आवश्यक है।
  3. किसी भी महिला अपराधी की डाक्टरी जांच महिला डाक्टर द्वारा ही करवाई जा सकती है।
  4. किसी गिरफतार महिला की तलाशी केवल महिला ही ले सकती है।
  5. घर की तलाशी लेते वक्त महिला को अधिकार है कि वह तलाशी लेने वाली महिला अधिकारी/अधिकारी उस महिला को घर से बाहर आने का समय दें।
धारा 53-54 सी0आर0पी0सी0 के अधीन अपराधी की डाक्टरी जांच
पुलिस अधिकारी अदालत में दरखास्त देकर अपराधी का डाक्टरी मुआयना करवा सकता है ताकि उस डाक्टरी सर्टीफिकेट को वह साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल कर सके। जैसे बलात्कार के अपराध में वह शराब पीने का साक्ष्य प्राप्त करने के लिए भी डाक्टरी जांच का आदेश अदालत से हासिल कर सकता है।
अपराधी स्वयं भी अपनी डाक्टरी जांच की लिए अदालत को प्रार्थना पत्र दे सकता है। ताकि यह साबित कर सके कि उस पर पुलिस द्वारा जयादती या मार-पीट की गई है। बलात्कार इत्यादि अपराधों की षिकार महिलाएं अपनी डाक्टरी जांच करवाने मे पुलिस से आमतौर पर सहयोग नहीं करती। उन्हें ऐसी जांच के लिए बाध्य तो नहीं किया जा सकता लेकिन परिणामस्वरूप आवश्यक साक्ष्य की कमी रह जाने के कारण अपराधी कानून के षिकंजे से छूटने में सफल हो जाता है और समाज में असामाजिक तत्वों को बढ़ावा मिलता है। इसलिए यह आवश्यक है कि पुलिस को जनता का सम्पूर्ण सहयोग प्राप्त हो।

धारा 438 सी0आर0पी0सी0 के अधीन अग्रिम जमानत
गैर जमानती अपराधों मे अग्रिम जमानत का भी प्रावधान है। इस कानून की धारा के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति जिसके विरूद्ध गैर जमानती अपराध का मुकदमा दर्ज किया गया हो सेशन अदालत या उच्च न्यायालय में अग्रिम जमानत करवाने हेतू प्रार्थना-पत्र दे सकता है। अदालत मुकद्दमें के विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, शर्तो पर या बिना शर्त के अग्रिम जमानत मन्जूर या नामन्जूर कर सकती है।
अगर कोई अपराधी स्वयं वकील का खर्च वहन करने में असमर्थ है तो उसे सरकारी खर्चे पर वकील अदालत द्वारा दिलाया जा सकता है। बल्कि अदालत स्वयं भी इस बात के लिए बाध्य है कि अगर किसी अपराधी के पास वकील न हो तो स्वयं उसे सरकारी खर्चे पर वकील देने की आज्ञा दें।

जमानत
इस शब्द का अभिप्राय यह है कि जहाँ कोई व्यक्ति किसी फौजदारी मुकद्दमें में अभियुक्त हो और अदालत उसके केस की सुनवाई के दौरान उसे जेल में बन्द रखने के बजाय उसे ‘‘जमानत’’ पर छोडे़ जाने के आदेश देती है तो उस सूरत में जो व्यक्ति उस अभियुक्त की उस अदालत में समय-समय पर हाजिर रहने की जिम्मेदारी लेता है, वह व्यक्ति उस अभियुक्त का जमानती कहलाता है और अगर वह व्यक्ति इस जिम्मेदार को निभाने में असफल रहता है तो वह अपने द्धारा ज़मानतनामें में लिखी रक्म (या उससे कम रक्म) अदालत के आदेश अनुसार देने का बाध्य रहता है। जब तक अभियुक्त या उसके ज़मानती पर अदालत द्वारा कोई जुर्माना अभियुक्त की किसी गैर हाजरी बारे नहीं लगाया जाता तब तक कोई भी रक्म दोषी या उसके जमानती द्वारा किसी भी व्यक्ति या अधिकारी को देने की कोई जरूरत न है। जब कभी ऐसी कोई रक्म कोई अदा करता है तो वह उस अदायगी की सरकारी रसीद पाने का हकदार है।

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जानिए क्या होती है सीआरपीसी की धारा-144



 दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 
धारा 144 क्या है और ये कब लागू की जाती है?
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 शांति व्यवस्था कायम करने के लिए लगाई जाती है। इस धारा को लागू करने के लिए जिला मजिस्ट्रेट द्वारा एक नोटिफिकेशन जारी की जाती है और जिस भी स्थान के लिए यह धारा-144 लगाई जाती है, उस स्थान पर पांच या उससे ज्यादा लोग इकट्ठे नहीं हो सकते हैं। इस धारा से उस स्थान पर हथियारों के लाने ले जाने पर भी रोक लगा दी जाती है, जो भी व्यक्ति इस धारा का पालन नहीं करता है तो फिर पुलिस उस व्यक्ति को धारा-107 या फिर धारा-151 के तहत गिरफ्तार भी कर सकती है। इस प्रकार के मामलों में एक साल की कैद भी हो सकती है। वैसे यह एक जमानती अपराध है, इसमें जमात हो जाती है।


धारा 144 :- न्यूसेंस या आशंकित खतरे के अर्जेंट मामलों में आदेश जारी करने की शक्ति :-
  1. उन मामलों में जिनमें जिला मजिस्ट्रेट या उप खंड मजिस्ट्रेट राज्य सरकार द्वारा इस निमित विशेषतया सशक्त किये गये किसी अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट की राय में इस धारा के अधीन कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है और तुरंत निवारण या शीघ्र उपचार करना वांछनीय है, वह मजिस्ट्रेट ऐसे लिखित आदेश द्वारा जिसमें इस मामले के तात्विक तथ्यों का कथन होगा और जिसकी तामील धारा 134 द्वारा उपबंधित रीति से कराई जाएगी, किसी व्यक्ति को कार्य विशेष न करने या अपने कब्जे की या अपने प्रबंधाधीन किसी विशिष्ट सम्पति की कोई विशिष्ट व्यवस्था करने का निर्देश उस दशा में दे सकता है, जिसमें मजिस्ट्रेट ऐसा समझता है कि ऐसे निर्देश से यह सम्भाव्य है या ऐसे निर्देश की यह प्रवृति है कि विधिपूर्वक नियोजित ऐसे व्यक्ति को बाधा, क्षोभ या क्षति का मानव जीवन, स्वास्थ्य या क्षोभ के खतरे का या लोक प्रशान्ति विक्षुब्ध होने का, या बलवे या दंगे का निवारण हो जाएगा।
  2. इस धारा के अधीन, आदेश, आपात की दशाओं में या उन दशाओं में जब परिस्थितियाँ ऐसी है कि उस व्यक्ति पर, जिसके विरुद्ध वह आदेश निर्दिष्ट है, सूचना की तामील सम्यक समय में करने की गुंजाइश न हो, एक पक्षीय रुप में पारित किया जा सकता है।
  3. इस धारा के अधीन आदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति को, या किसी विशेष स्थान या क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों को अथवा आम जनता को, जब वे, किसी विशेष स्थान या क्षेत्र में जाते रहते हैं या जाऐं, निर्दिष्ट किया जा सकता है।
  4. इस धारा के अधीन कोई आदेश उस आदेश के दिए जाने की तारीख से ही दो मास से आगे प्रवृत्त न रहेगा-परन्तु यदि राज्य सरकार मानव जीवन, या स्वास्थ्य या क्षेत्र को खतरे का निवारण करने के लिए अथवा बलवे या किसी दंगे का निवारण करने के लिए ऐसा करना आवश्यक समझती है तो वह अधिसूचना द्वारा यह निदेश दे सकती है कि मजिस्ट्रेट द्वारा इस धारा के अधीन किया गया कोई आदेश उतनी अतिरिक्त अवधि के लिए, जितनी वह उक्त अधिसूचना में विनिर्दिष्ट करें प्रवृत्त रहेगा, किन्तु वह अतिक्ति अवधि उस तारीख से छः मास से अधिक की न होगी, जिसको मजिस्ट्रेट द्वारा दिया गया आदेश ऐसे निदेश के अभाव में समाप्त हो गया होता।
  5. कोई मजिस्ट्रेट या तो स्वप्रेरणा से या किसी व्यथित व्यक्ति के आवेदन पर किसी ऐसे आदेश को विखंडित या परिवर्तित कर सकता है, जो स्वयं उसने या उसके अधीनस्थ किसी मजिस्ट्रेट ने या उसके पद पूर्ववर्ती ने इस धारा के अधीन दिया है।
  6. राज्य सरकार उपधारा (4) के परन्तुक के अधीन अपने द्वारा दिए गये किसी आदेश को या तो स्वप्रेरणा से या किसी व्यथित व्यक्ति के आवेदन पर विखंडित या परिवर्तित कर सकती है।
  7. जहाँ उपधारा (5) या उपधारा (6) के अधीन आवेदन प्राप्त होता है वहाँ यथास्थिति मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार आवेदक को या तो स्वयं या प्लीडर द्वारा उसके समक्ष हाजिर होने और आदेश के विरुद्ध कारण दर्शित करने का शीध्र अवसर देगी और यदि यथास्थिति मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार आवेदन को पूर्णतः या अंशतः नामंजूर कर दे तो वह ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगी।
      1. धारा 144 ‘क’ - आयुध सहित जुलूस या सामूहिक कवायद या सामूहिक प्रशिक्षण के प्रतिषेध की शक्ति -
        (1) जिला मजिस्ट्रेट, जब भी वह लोक शांति या लोक सुरक्षा या लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक समझता है, लोक सूचना या आदेश द्वारा अपनी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर किसी जुलूस में आयुध ले जाने या किसी लोक स्थान में आयुध सहित कोई सामूहिक कवायद या सामूहिक प्रशिक्षण व्यवस्थित या आयोजित करने या उसमें भाग लेने का प्रतिषेध कर सकता है।
        (2) इस धारा के अधीन जारी की गई लोक सूचना या किया गया आदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति या किसी समुदाय, दल या संगठन के व्यक्तियों के प्रति, सम्बोधित हो सकती या हो सकता हैं।
        (3) इस धारा के अधीन जारी की गई लोक सूचना या किया गया आदेश जारी किए जाने या बनाए जाने की तारीख से तीन मास से अधिक के लिए, प्रवृत्त नहीं रहेगी या रहेगा।
        (4) राज्य सरकार, यदि वह लोक शांति या लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक समझती है, तो अधिसूचना द्वारा, निदेश दे सकती है कि इस धारा के अधीन जिला मजिस्ट्रेट द्वारा निकाली गई लोक सूचना या किया गया आदेश, उस तारीख से जिसका जिला मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसी लोक सूचना निकाली गई थी या आदेश किया गया था, ऐसे निर्देश के न होने की दशा में समाप्त हो जाती या हो जाता, ऐसी अतिरिक्त अवधि के लिए लागू रहेगी या रहेगा जो उक्त अधिसूचना में विनिर्दिष्ट की जाए।
        (5) राज्य सरकार, साधारण या विशेष आदेश द्वारा, उपधारा (4) के अधीन अपनी शक्तियां जिला मजिस्ट्रेट को, ऐसे नियंत्रणों और निदेशों के अधीन रहते हुए जिन्हें अधिरोपित करना वह ठीक समझे, प्रत्यायोजित कर सकती है। स्पष्टीकरण - ‘आयुध’ शब्द का वही अर्थ है जो उसका भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 153कक में है।’’
      2. धारा 144 का क्षेत्र (SCOPE) - यह धारा केवल आशंकित खतरे या इमरजेंसी को ही आकर्षित करताहै। शक्ति का उपयोग, Obstruction, Annoyance, Injury को रोकने के लिए उस व्यक्ति के लिए किया जाएगा जो कानूनन रुप से कार्यरत है या मानव जीवन को खतरा हो या स्वास्थ्य, सुरक्षा आम जनता की शांति, स्थिरता, दंगा या बलवा (Affray) का खतरा हो। बाबूलाल बनाम महाराष्ट्र सरकार, ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 884, गुलाम बनाम इब्राहिम ए.आई.आर. 1978 एस.सी.422, 
      3. निषेध का तरीका:- इस धारा के अंतर्गत व्यवधान निषेध निम्न प्रकार से किया जा सकता हैः-
        1. किसी व्यक्ति विशेष के कोई कार्य नहीं करने हेतु निर्देश देकर
        2. किसी व्यक्ति को किसी सम्पत्ति विशेष के लिए कोई आदेश देकर जो सम्पत्ति उसके स्वामित्व या नियंत्रण में है।
      4. धारा 144 के कार्यवाही की प्रकृति :- कार्यवाही की प्रकृति:- धारा 144 के अधीन किया गया आदेश प्रशासनिक व कार्यपालक होता है न कि न्यायिक या न्यायिककल्प। अतः अनु. 32 के अंतर्गत ऐसा आदेश रिट-अधिकारिता में परीक्षणीय है। गुलाम अब्बास व अन्य बनाम उ.प्र. राज्य, व अन्य (1980) 3 उम.नि.प. 467, 1981 क्रि.ला.ज. 1835 धारा 144 के अधीन आदेश पारित किया गया था। इसके प्रकृति के बारे में प्रश्न था कि क्या वह अस्थाई प्रकृति का था धारित किया गया कि अधिसूचना की पुनरावृत्ति करके उसे स्थायी या अर्धस्थायी के रुप में आरोपित नहीं किया जा सकता। एम.एस. एसोसिएट्स बनाम पुलिस कमिश्नर, 1997 क्रि.ला.ज.377 
      5. आदेश की प्रकृति:- धारा 144 का आदेश न्यायिक कल्प प्रकृति का नहीं है। यह कार्यपालक या प्रशासनिक प्रकृति का है, जिसे लोक व्यवस्था एवं शान्ति की रक्षा के लिए आवश्यक जानकर दिया जाता है। इसी कारण दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के लागू हो जाने के बाद धारा 144 के अधीन आदेश जारी करने की अधिकारिता केवल कार्यपालक मजिस्ट्रेटों को दी गई है, न्यायिक मजिस्ट्रेट को नहीं। गुलाम अब्बास बनाम उ.प्र. राज्य 1981 एस.सी. 2198, 1981 क्रि.ला.ज. 1835
        अतः संहिता 1973 के लागू हो जाने के बाद धारा 144 के आदेश को न्यायिक वाली उदाहरणें अब विधि की दृष्टि में विधिमान्य नहीं रही है। यह आदेश आपात प्रकृति का है। मधुलिमए बनाम एस.डी.एम. मुंगेर, ए.आई.आर. 1971 एस.सी. 2486, आचार्य जगदीश्वर का मामला 1983 क्रि.ला.ज. 1872(एस.सी.)
        कार्यपालक कर्तव्यों के सम्पादन में पारित धारा 144 दं.प्र.सं. के आदेश को एक कार्यपालक आदेश मानना होगा, जिसमें कोई वाद अवधारित नहीं होता। यह तो केवल ऐसा आदेश है, जो लोक शान्ति के बनाए रखने के लिए किया जाता है। अब यह सुस्थापित है कि भारत के संविधान अनुच्छेद 19 में गारंटीशुदा 6 स्वतंत्रताऐं आत्यांतिक (Absolute) नहीं है, किन्तु उन पर भी युक्तियुक्त परिसीमाऐं अधिरोपित की जा सकती है। व्यापार संबंधी स्वतंत्रता पर भी सार्वजनिक लोकहित में कुछ परिसीमाऐं (Restriction) लगाई जा सकती है। बाल भारती स्कूल बनाम जिला मजिस्ट्रेट 1990 क्रि.ला.ज. 422, 1989 ए.एल.जे. 139 
      6. धारा लागू करने की शर्त (Condition for Application of Section) :-वह सूचना जो दंडाधिकारी को संतुष्ट करता है कि सूचना का विषय अति आवश्यक है, तुरंत का रोक अथवा तीव्र उपाय आवश्यक है, संभावित खतरा टालने के लिए यही एक आधार है जिस पर दंडाधिकारी आगे कार्य कर सकते हैं। इम्परर बनाम तुरब ए.आई.आर. 1942 अवध 39, बाबूलाल बनाम महाराष्ट्र सरकार ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 884 
      7. सूचना प्राप्ति का प्रकार :-सूचना मौखिक या पुलिस प्रतिवेदन पर आधारित हो सकती है।
      8. प्रारुप एवं आदेश का सार(Forms & Contents of Order):- आदेश निश्चित रुप से लिखित होना चाहिए। पीताम्बर 17 डब्लू. आर. 57 इस धारा के अधीन का आदेश संक्षिप्त सरल, पूर्ण रुप से स्पष्ट तथा निश्चित होना चाहिए ताकि उसे लागू करने में आसानी हो। भगवती ए.आई.आर. 1940 इला. 465 ए.आई.आर. 1935 बाम्बे 33
        आदेश में वस्तुमूलक तथ्य अवश्य होना चाहिए जिसे दंडाधिकारी विवाद का तथ्य समझते हैं तथा जिस आधार पर उनका आदेश टिका है। कारुँ लाल - 32 सी. कल. 935 
      9. आदेश की विषय-वस्तु :- धारा 144 के अधीन पारित आदेश लिखित अंतिम व निश्चित शर्तो का होना चाहिए। उपधाराऐं (1) व (2) में ऐसे सशर्त आदेश के पारित करने का अनुध्यात अथवा परिकल्पना नहीं है, जो वाद में अन्तिम किया जाए। भोला गिरी का मामला 36 क्रि.लॉ.ज.1955 पृ.547आदेश में ऐसे सारवान व ”तात्विक (मेटेरियल) तथ्यों के कथन“ का समावेश होना आवश्यक है जो मजिस्ट्रेट की राय में मामले के तथ्य हैं तथा कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है। बाबूलाल पराठे बनाम महाराष्ट्र राज्य ए.आई.आर. 1961 एस.सी.884, ए.आई.आर. 1971 एस.सी. 2486, 1977 क्रि.लॉ.ज. 1747
        यदि आदेश में वास्तविक तथ्य नहीं दिए गये हैं तो आदेश अपास्त हो जाएगा। गोपाल प्रसाद बनाम सिक्किम राज्य, 1981, क्रि.लॉ.ज. 60 
      10. कौन मजिस्ट्रेट कार्यवाही कर सकता है:- धारा 144 की उपधारा (1) के अधीन आदेश करने की अधिकारिता केवल जिला मजिस्ट्रेट, उपखंड मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित्त सशक्त किए गये किसी अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट को है। अ.च.चैधरी बनाम अनिरुद्ध रविदास 1983 क्रि.लॉ.ज. (एन.ओ.सी.) 80 गोहाटी 
      11. दंडाधिकारी की अधीनस्थता:- धारा 144 के अधीन कार्यरत दंडाधिकारी उच्च न्यायालय तथा सत्र न्यायाधीश के अधीनस्थ होते हैं रिविजन के उद्देश्य के लिए। यशवंत सिंह बनाम प्रीतम वगैरह ए.आई.आर. 1967 पंजा.482, 1967 क्रि.लॉ.ज. 1630 
      12. दंडाधिकारी आदेश पारित कर सकते हैं:-1. हथियार ले जाने से रोकने का। गर्ग बनाम सुपरिटेंडेंट 1970 (3) एस.सी.सी. 747
        2. सामूहिक रुप से जमा होने से रोक सकता है। राम मनोहर बनाम स्टेट ए.आई.आर. 1968 इला. 100
        3. जूलूस निकालने पर रोक लगा सकते हैं। बाबूलाल बनाम महा. ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 884
        4. किसी सभा को रोक सकते हैं। गर्ग बनाम सुपरिटेंडेंट 1970(3) 3 सी.सी. 747
        5. किसी खास व्र्यिक्त को किसी खास इलाके अथवा राज्य में प्रवेश पर रोक लगा सकते हैं। डांगे बनाम राज्य, 1970(3) एस.सी.सी. 218
        6. किसी व्यक्ति को यह निदेश दे सकते हैं कि वह किसी खास और अपनी संबंधित वस्तु से अलग रहे।
      13. आदेश आत्यंतिक (Absolute) होना चाहिए :- इस धारा के अधीन का आदेश आत्यंतिक होना चाहिए न कि सशर्त। इम्परर बनाम भोला गिरी ए.आई.आर. 1939 कल. 259, 63 क्रि.लॉ.ज. 1374
      14. आदेश सकारण (Speaking) अवश्य होना चाहिए :- धारा 144 की उपधारा (2) कार्यपालक दंडाधिकारी के तरफ से न्यायिक मस्तिष्क की ओर अनुबंधित करता है। कार्यपालक दंडाधिकारी से यह आशा की जाती है कि वे एक सकारण आदेश जारी करें जिसमें स्पष्ट रुप से यह वर्णित करें कि इमरजेंसी की स्थिति वर्तमान है जिसके कारण वे असाधारण अधिकार क्षेत्र प्राप्त कर एक पक्षीय आदेश विरोधी पक्ष के पीछे कार्यवाही के तरफ पारित करने में सक्षम हुए हैं। विष्णु पदखरा बनाम पं. बंगाल. सरकार 1995 कल. क्रि.एल.आर. 25 (कल.)
        एकपक्षीय आदेश पारित करने के पूर्व दंडाधिकारी को अपना कारण लिखना चाहिए , विचारित किया गया तथा यह इमरजेंसी का समय पाया गया। इसकी असफलता में एकपक्षीय आदेश अनुमान्य नहीं होगा। बी. लिंगारेडी बनाम बी.हुसैन 1979 क्रि.लॉ.ज. 1147 आं.प्र. 
      15. साक्ष्य ग्रहण करने का प्रावधान :- इस प्रक्रिया में साक्ष्य ग्रहण करना आवश्यक नहीं है। 1971 एस.सी.(2) 486, 1977 ए.सी.सी. 315 
      16. आदेश किसको संबोधित किया जाय:- धारा 144 की उपधारा (3) में विनिर्दिष्ट रुप से यह स्पष्ट किया गया कि इस धारा के अधीन आदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति को अथवा आम जनता को जब वे किसी विशेष क्षेत्र में जाते रहते हैं या जाऐं, निर्दिष्ट किया जा सकता है। 1978 क्रि.लॉ.ज. 496, ए.आई.आर. 1978 एस.सी.सी. 422 
      17. धारा 144 व पक्षकारों के कब्जे व हक का फैसला :- मजिस्ट्रेट को धारा 144 के अधीन कार्यवाही करने के लिए तात्पर्यिक होते हुए पक्षकारों के कब्जे अथवा हक-विषयक प्रश्नों को तय करने की अधिकारिता नहीं है। 53 क्रि.लॉ.ज. 1952, 1981 क्रि.लॉ.ज. 1835 
      18. आदेश का साक्ष्यिक मूल्य :- धारा 144 का आदेश प्रशान्ति भंग के निवारण हेतु एक अस्थायी कदम है। इसका कब्जा के प्रश्न के बारे में कोई साक्ष्यिक मूल्य नहीं है। किन्तु निम्न उदाहरण में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यह सही है कि धारा 144 का आदेश कब्जे का साक्ष्य नहीं है, किन्तु इस सीमित प्रयोजन के लिए कि कार्यवाही में पक्षकारों के दावे क्या थे, देखने के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है। राम प्र. बनाम शंकर प्रसाद, 52 क्रि.ला.ज. 778 (पटना), भूपत कुम्हार बनाम बिहार राज्य 1975 क्रि.लॉ.ज. 1405 (पटना) 
      19. आदेश की अवधि :- दो मास की अधिकतम अवधि- धारा 144 की उपधारा (4) के अधीन मजिस्ट्रेट का आदेश केवल दो माह तक लागू रह सकता है, इससे अधिक नहीं। जब तक कि इस अवधि में राज्य सरकार द्वारा मानव जीवन, स्वास्थ्य या क्षेम को खतरे का निवारण करने के लिए अथवा बलवे को या दंगेका निवारण करने के लिए इस अवधि में वृद्धि नहीं की जाती। रामदास बनाम नगर मजिस्ट्रेट 1960 क्रि.लॉ.ज.865 (2) 1984 एस.सी.सी. (क्रि.), माधव सिंह बनाम इम्परर ए.आई.आर. 1982 पटना 331, 
      20. अवधि की गणना :- साठ दिनों की गिनती कैसे की जाएगी इसका प्रारंभ उसी दिन से होता है जिस दिन धारा 144 के अधीन की कार्यवाही के अधीन रोक आदेश पारित किया जाता है। 1983 बी.एल.जे. 289 
      21. राज्य सरकार द्वारा अवधि में वृद्धि :- राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा मानव-जीवन एवं स्वास्थ्य या क्षेम को खतरे अथवा बलवे या दंगे का निवारण करने के लिए आवश्यक होने पर अधिसूचना द्वारा 6 मास की अवधि में, उस तारीख से जिसको मजिस्ट्रेट द्वारा किया गया है आदेश ऐसे निदेश के अभाव में समाप्त हो गया हो, वृद्धि कर सकता है। किन्तु राज्य सरकार को ऐसे आदेश को जो प्रवर्तन में नहीं है, धारा 144 के अधीन अवधि बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। यह उपधारा आज्ञापक है। चानन सिंह बनाम इम्परर 42 क्रि.ला.ज. 1941 
      22. पुनरीक्षण :- उचित मामले में आवश्यकता पड़ने पर उच्च न्यायालय धारा 401 के अधीन तथा सेशन न्यायालय धारा 399 के अधीन धारा 144 के मामले में हस्तक्षेप कर सकता है। उच्च न्यायालय इस धारा के अधीन वैधता पर विचार तो करती है, साथ ही ऐसा आदेश उचित है अथवा नहीं, उसके आधार न्यायोचित है अथवा नहीं उस पर भी विचार किया जा सकता है। जिला परिषद इटावा बनाम के.सी. सक्सेना 1977 क्रि.लॉ.ज. 1747 (इलाहाबाद) 1977 क्रि.लॉ.ज. 1747
        रिविजन (Rivision):- इस धारा के अधीन आदेश से व्यथित व्यक्ति उच्च न्यायालय में जा सकते हैं या सेशन जज के यहाँ रिविजन (पुर्नविचार) के लिए जा सकते हैं। मधुलिमा बनाम एस.डी.एम. ए.आई.आर. 1971 एस.सी. 2486, 1971 क्रि.लॉ.ज 1720 बाबूलाल बनाम महा. सरकार ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 884, जिला परिषद बनाम के.सी. सक्सेना 1977 क्रि.लॉ.ज. 1747 (इला.) 
      23. आदेश की अवज्ञाकारिता का परिणाम:- यदि कोई व्यक्ति धारा 144 के आदेश की अवज्ञा करता है तो वह धारा 188 आई.पी.सी. के अधीन दंड पाने के योग्य है। राजनारायण बनाम डी.एम; ए.आई.आर. 1956 इला. 481 
      24. परिवाद दायर करना आवश्यक:- धारा 144 के आदेश की अवज्ञा के लिए आदेश जारी करने वाला मजिस्ट्रेट भा.दं.सं. की धारा 188 में अभियुक्त को दंडित करने के लिए स्वयं सशक्त नहीं है। उसे या किसी ऐसे अन्य लोकसेवक को, जिसके वह प्रशासनिक तौर पर अधीनस्थ है, उसे दं.प्र.सं. की धारा 195 तथा धारा 340 के उपबंधानुसार लिखित परिवाद दाखिल करना होगा। सतीश बनाम राज्य 39 सी.डब्लू.एन1053, महेन्द्र बनाम राज्य ए.आई.आर. 1970 पृ. 162 
      25. धारा 144 को 145 दं.प्र.सं.में बदलना:- धारा 144 दं.प्र.सं. की कारवाई को धारा 145 दं.प्र.सं. में उसी अंतिम दिन की या पहले बदला जा सकता है जिस दिन धारा 144 के अधीन का निषेधात्मक आदेश की समय सीमा खत्म हो रही हो। हदु खान बनाम महादेव दास ए.आई.आर. 1968 उड़ी. 221, 1968 क्रि.लॉ.ज. 1623, 1976 क्रि.लॉ.ज. 649, 1975 बी.बी.सी.जे. 632, यदि धारा 145 दं.प्र.सं. की जरुरतें पूरी हो जाती है उस कारवाई में जो धारा 144 दं.प्र.सं. की लंबित कारवाई है तो कारवाई को धारा 145 दं.प्र.सं. की कारवाई में परिवत्र्तित किया जा सकता है। सुरेन्द्र मिश्रा बनाम वी. त्रिनाथ राव 1975 क्रि.लॉ.ज. 1850 उड़ीसा
        जब कारवाई में ऐसा परिवर्तन होता है तो दंडाधिकारी एक नई कारवाई प्रारंभ करते हैं। वीजेन्द्र राय बनाम मोहन राय 1978 क्रि.लॉ.ज. 306 पटना, राधा सहनी बनाम रामकांत झा 1978 पी.एल.जे.आर. 606, 1978 बी.एल.जे.आर. 187
      भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख


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      रात्रि भोजन एवं शयन के मुख्य नियम



       
      रात्रि चर्या में अंतिम एवं महत्वपूर्ण कर्म शमन या नींद लेना होता है। शरीर के स्वास्थ को बनाये रखने के लिए नींद का बहुत बड़ा योगदान है। सारे दिन की विभिन्न क्रियाओं के पश्चात जब मनुष्य का शरीर एवं मस्तिष्क बहुत थक जाता है अतः शरीर के सभी अंगों एवं मन को आराम देने के लिए नींद अति आवश्यक है, मन, मस्तिष्क एवं ज्ञानेन्द्रिय जब शिथिल हो जाता है तथा निष्क्रिय हो जाता है उसे नींद कहते है या मन की ऐसी स्थिति जिसमें उसका संपर्क ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से दूर जाता है वह अवस्था निद्रा कहलाता है। जब मन एवं मस्तिष्क थक जाते है तो स्वतः ही कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेंद्रिय से उसका संपर्क टूट जाता है परिणाम स्वरूप कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय स्वयं निष्क्रिय हो जाती है। इस अवस्था में श्वास-प्रश्वास तथा रक्त संचार, हृदय की गति, पाचन जैसे महत्वपूर्ण क्रियाओं चलती होती है। शरीर की ऊर्जा में वृद्धि होती है तथा व्यक्ति अपने आप को स्वस्थ, ताजा व उत्साहित महसूस करता है। इस दौरान शरीर के कोशिकाओं का नया निर्माण भी होता है।
      अच्छे स्वास्थ्य के लिए नींद अत्यंत आवश्यक कर्म है। जिन व्यक्तियों को नींद नहीं आती। वे अनेक शारीरिक एवं मानसिक रोगों से पीड़ित होते है एवं अनिद्रा रोग से ग्रसित होते है। ठीक इससे विपरीत, ज्यादा नींद भी आलस्य, निष्क्रियता, कफ प्रकोप, मोटापा, मन्दाग्नि आदि रोगों से पीड़ित होते है। एवं कुपोषण, दुर्बलता, अजीर्ण विषाक्तता आदि उत्पन्न होता है। अवस्था भेद से नींद का समय:-
      1. नवजात शिशु को 24 में 20 घंटा सोना आवश्यक है क्योंकि इससे उनकी शारीरिक वृद्धि तीव्र गति से होती है।
      2. साधारण स्वस्थ व्यक्ति को 6-8 घंटा का नींद पर्याप्त है।
      3. वृद्धजनों को चार से छः घंटे की नींद पर्याप्त है।
      कहावत है कि रोगी को आठ घंटा, भोगी (यौवनावस्था में) को छः घंटा, जोगी (साधु-संत वृद्ध) को चार घंटा नींद लेना चाहिए। उचित समय तक गहरी नींद सोने से मनुष्य में प्रसन्नता, पुष्टि, शक्ति, पौरूषत्व, ज्ञान और आयु की वृद्धि होती हैं इसके विपरीत पर्याप्त नींद न लेने से व्यक्ति, दुर्बल, कमजोर, कुपोषित, नपुंसक जड़बुद्धि हो जाता है। और भिन्न रोगों से ग्रसित हो मृत्यु को प्राप्त होता है। शयन के लिए निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए -
      1. स्वच्छ एवं हवादार कमरा हो, जहां वर्षा में पानी ठंड में ठंडी हवा तथा ग्रीष्म ऋतु में गर्म हवा का शीध्र प्रवेश न हो।
      2. साथ सुथरे-बिछावन हो, सुगन्धित द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिए।
      3. रूचि अनुसार संगीत सुनना या साहित्य पढ़ना।
      4. बिछावन में सिर दिशा पूर्व या दक्षिण की ओर होना चाहिए।
      5. मन को शांत रखे, आदि।
      6. सोते समय शरीर पर मालिश, दूध, मिठाई आदि खाना चाहिए।
      इस तरह रात्रि चर्या का पालन करने से दोष धातु, मल अवस्था में मन एवं इन्द्रिय प्रसन्न रहती है। और व्यक्ति आरोग्य रहता है। आहार का वर्णन आहार प्रकरण में किया गया हैं।
      शारीरिक दोषों में कफ दोष की तथा मानसिक दोषों में तमस दोष की प्रधानता होने पर नींद आती है। रात्रि का समय निद्रा के लिए अनुकूल होता है क्योंकि इस समय, अंधकार, शोर की कमी, वातावरण शीतल होने से नींद जल्दी और अच्छी आती है इसी तरह अच्छी नींद के लिए जहां शारीरिक श्रम, थकावट का होना भी आवश्यक है। वहीं मानसिक रूप से पूर्णतः शांत रहना अर्थात क्रोध, शोक, भय, चिन्ता आदि मानसिक विकारो से मुक्ती भी होना चाहिए। यह बात सभी लोग जानते है कि भोजन का गहरा सम्बन्ध नींद से होता है भोजन का सही पाचन न होने पर, नींद में बाधा उत्पन्न होती है। अतः रात्रि में यथा संभव जल्दी भोजन कर लेना चाहिए। भोजन के समय एवं सोने के समय के बीच कम से कम एक घंटा का अंतर होना चाहिए। रात्रि का भोजन सुपाच्य एवं हल्का होना चाहिए। भोजन के पश्चात कुछ दूर पैदल भ्रमण करना चाहिए। इससे भोजन का पाचन अच्छा होता है और नींद भी अच्छी आती है।
      रात्रि में दही का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह शरीर के अंदर स्थित स्रोतों में रुकावट उत्पन्न करता हैं। चूंकि रात्रि भोजन के बाद व्यक्ति सो जाता है और पाचन क्रिया सोये अवस्था में चलती जाती है जो धीमी होती है परिणामतः स्रोतों में अवरोध होने से नींद बाधित होता है पाचन की क्रिया बाधित होती है।
      रात्रि के समय अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि उचित प्रकाश की व्यवस्था हो। कम प्रकाश की उपस्थिति में नेत्रों पर जोर पड़ने से नेत्र ज्योति प्रभावित होती है। दर्शन शक्ति कम होती जाती है जहां तक हो सके रात में कम से कम पढ़ना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर लेखन कार्य करे। परंतु कई विद्वानों का मत है कि सोते समय अध्ययन करना नींद अच्छी आती है। अतः सोते समय मन पसन्द साहित्यों का अध्ययन जरूर करना चाहिए।

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      श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या की समय गाथा



       
      यदि राष्ट्र की धरती छिन जाए तो शौर्य उसे वापस ला सकता है, यदि धन नष्ट हो जाए तो परिश्रम से कमाया जा सकता है, यदि राज्यसत्ता छिन जाए तो पराक्रम उसे वापस ला सकता है परन्तु यदि राष्ट्र की चेतना सो जाए, राष्ट्र अपनी पहचान ही खो दे तो कोई भी शौर्य, श्रम या पराक्रम उसे वापस नहीं ला सकता। इसी कारण भारत के वीर सपूतों ने, भीषण विषम परिस्थितियों में, लाखों अवरोधों के बाद भी राष्ट्र की इस चेतना को जगाए रखा। इसी राष्ट्रीय चेतना और पहचान को बचाए रखने का प्रतीक है श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण का संकल्प।

      गौरवमयी अयोध्या
      अयोध्या की गौरवगाथा अत्यन्त प्राचीन है। अयोध्या का इतिहास भारत की संस्कृति का इतिहास है। अयोध्या सूर्यवंशी प्रतापी राजाओं की राजधानी रही, इसी वंश में महाराजा सगर, भगीरथ तथा सत्यवादी हरिशचन्द्र जैसे महापुरुष उत्पन्न हुए, इसी महान परम्परा में प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ। पाँच जैन तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या है। गौतम बुद्ध की तपस्थली दंत धावन कुण्ड भी अयोध्या की ही धरोहर है। गुरुनानक देव जी महाराज ने भी अयोध्या आकर भगवान श्रीराम का पुण्य स्मरण किया था, दर्शन किए थे। अयोध्या में ब्रह्मकुण्ड गुरूद्वारा है। मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम का जन्मस्थान होने के कारण पावन सप्तपुरियों में एक पुरी के रूप में अयोध्या विख्यात है। सरयु के तट पर बने प्राचीन पक्के घाट शताब्दियों से भगवान श्रीराम का स्मरण कराते आ रहे हैं। श्रीराम जन्मभूमि हिन्दुओं की आस्था का प्रतीक है। अयोध्या मन्दिरों की ही नगरी है। हजारों मन्दिर हैं, सभी राम के हैं। विश्व प्रसिद्ध स्विट्स्बर्ग एटलस में वैदिक कालीन, महाभारत कालीन, 8वीं से 12वीं, 16वीं, 17वीं शताब्दी के भारत के मानचित्र मौजूद हैं। इन मानचित्रों में अयोध्या को धार्मिक नगरी के रूप में दर्शाया गया है। ये मानचित्र अयोध्या की प्राचीनता और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं। सभी सम्प्रदायों ने भी ये माना है कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित अयोध्या यही है।

      आक्रमण का प्रतिकार
      श्रीराम जन्मभूमि पर कभी एक भव्य विशाल मंदिर खड़ा था। मध्ययुग में धार्मिक असहिष्णु, आतताई, इस्लामिक आक्रमणकारी बाबर के क्रूर प्रहार ने जन्मभूमि पर खड़े सदियों पुराने मन्दिर को ध्वस्त कर दिया। आक्रमणकारी बाबर के कहने पर उसके सेनापति मीर बाकी ने मंदिर को तोड़कर ठीक उसी स्थान पर एक मस्जिद जैसा ढांचा खड़ा कराया। 1528 ई0 के इस कुकृत्य से सदा-सदा के लिए हिन्दू समाज के मस्तक पर अपमान का कलंक लग गया। श्रीराम जन्मस्थान पर मंदिर का पुनर्निर्माण इस अपमान के कलंक को धोने के लिए तथा हमारी आस्था की रक्षा के साथ-साथ भावी पीढ़ी को प्रेरणा देने के लिए आवश्यक है। अपमान का यह कलंक काशी और मथुरा में भी हमें सताता है।
      इस स्थान को प्राप्त करने के लिए अवध का हिन्दू समाज 1528 ई0 से ही निरंतर संघर्ष करता आ रहा है। सन् 1528 से 1949 ई0 तक जन्मभूमि को प्राप्त करने के लिए 76 युद्ध हुए। इस संघर्ष में भले ही समाज को पूर्ण सफलता नहीं मिली पर समाज ने कभी हिम्मत भी नहीं हारी। आक्रमणकारियों को कभी चैन से बैठने नहीं दिया। बार-बार लड़ाई लड़कर जन्मभूमि पर अपना कब्जा जताते रहे। हर लड़ाई में जन्मभूमि को प्राप्त करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़े। 1934 ई0 का संघर्ष तो जग जाहिर है, जब अयोध्या की जनता ने ढांचे को भारी नुकसान पहुँचाया था। इन सभी संघर्षों में लाखों रामभक्तों ने अपना सर्वस्व समर्पण कर आहुतियाँ दी। 6 दिसम्बर, 1992 की घटना इस सतत् संघर्ष की ही अन्तिम परिणिति है, जब गुलामी का प्रतीक तीन गुम्बद वाला मस्जिद जैसा ढांचा ढह गया और श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर के पुनःनिर्माण का मार्ग खुल गया।

      ढांचे की रचना
      तथाकथित बाबरी मस्जिद कहे जाने वाले इस ढांचे में सदैव प्रभु श्रीराम की पूजा-अर्चना होती रही। इसी ढांचे में काले रंग के कसौटी पत्थर के 14 खम्भे लगे थे, जिस पर हिन्दु धार्मिक चिन्ह् उकेरे हुए थे। जो यह बताते थे कि पुराने मन्दिर के कुछ पत्थर मीरबाकी ने इस मस्जिदनुमा ढांचे के निर्माण में लगवाए। यह भी तथ्य है कि वहाँ कोई मीनार नहीं थी, वजु करने के लिए पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी।

      भ्रमणकारी पादरी की डायरी
      हिंदुओं के आराध्य भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का वर्णन अनेक विदेशी लेखकों और भ्रमणकारी यात्रियों ने किया है। फादर टाइफैन्थेलर का यात्रा वृत्तान्त इसका जीता-जागता उदाहरण है। ऑस्ट्रिया के इस पादरी ने 45 वर्षों तक (1740 से 1785) भारतवर्ष में भ्रमण किया, अपनी डायरी लिखी। लगभग पचास पृष्ठों में उन्होंने अवध का वर्णन किया, उन्होंने लिखा कि रामकोट में तीन गुम्बदों वाला ढांचा है उसमें 14 काले कसौटी पत्थर के खंभे लगे हैं, इसी स्थान पर भगवान श्रीराम ने अपने तीन भाइयों के साथ जन्म लिया। जन्मभूमि पर बने मंदिर को बाबर ने तुड़वाया। आज भी हिन्दू यहाँ साष्टांग दंडवत करते हैं, श्रद्धालु लोग इस स्थान की परिक्रमा करते हैं।

      भगवान का प्राकट्य
      समाज की श्रद्धा और इस स्थान को प्राप्त करने के सतत संघर्ष का एक रूप आजादी के बाद 22 दिसंबर, 1949 की रात्रि को देखने को मिला, जब ढांचे के अंदर भगवान प्रकट हुए। पंडित जवाहर लाल नेहरू उस समय देश के प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत और फैजाबाद के कलेक्टर के. के. नायर थे। नायर साहब ने ढांचे के सामने की दीवार में लोहे की सींखचों वाला दरवाजा लगवाकर ताला डलवा दिया, भगवान की पूजा के लिए पुजारी नियुक्त हुआ। पुजारी रोज सवेरे शाम भगवान की पूजा के लिए भीतर जाता था, जनता ताले के बाहर से पूजा करती थी, अनेक श्रद्धालु वहाँ कीर्तन करने बैठ गए, जो 6 दिसम्बर, 1992 तक उसी स्थान पर होता रहा।

      ताला खुला

      इसी ताले को खुलवाने का संकल्प सन्तों ने 8 अप्रैल, 1984 को विज्ञान भवन, दिल्ली में लिया। यही सभा प्रथम धर्म संसद कहलाई। श्रीराम जानकी रथों के माध्यम से व्यापक जन-जागरण हुआ। फैजाबाद के जिला न्यायाधीश श्री के. एम. पाण्डेय ने 01 फरवरी, 1986 को ताला खोलने का आदेश दे दिया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री वीरबहादुर सिंह थे।

      शिला पूजन व शिलान्यास

      भावी मंदिर का प्रारूप बनाया गया। अहमदाबाद के प्रसिद्ध मंदिर निर्माण कला विशेषज्ञ श्री सी. बी. सोमपुरा ने प्रारूप बनाया। इन्हीं के दादा ने सोमनाथ मन्दिर का प्रारूप बनाया था। मंदिर निर्माण के लिए जनवरी, 1989 में प्रयागराज में कुम्भ मेला के अवसर पर पूज्य देवरहा बाबा की उपस्थिति में गांव-गांव में शिला पूजन कराने का निर्णय हुआ। पौने तीन लाख शिलाएं पूजित होकर अयोध्या पहुँची। विदेश में निवास करने वाले हिन्दुओं ने भी मन्दिर निर्माण के लिए शिलाएं पूजित करके भारत भेजीं। पूर्व निर्धारित दिनांक 09 नवम्बर, 1989 को सब अवरोधों को पार करते हुए सबकी सहमति से मंदिर का शिलान्यास बिहार निवासी श्री कामेश्वर चैपाल के हाथों सम्पन्न हुआ। तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री नारायण दत्त तिवारी और भारत सरकार के गृह मंत्री श्री बूटा सिंह तथा प्रधानमंत्री स्व0 राजीव गांधी थे।

      प्रथम कारसेवा
      24 मई, 1990 को हरिद्वार में विराट हिन्दू सम्मेलन हुआ। सन्तों ने घोषणा की कि देवोत्थान एकादशी (30 अक्टूबर, 1990) को मंदिर निर्माण के लिए कार सेवा प्रारम्भ करेंगे। यह संदेश गांव-गांव तक पहुँचाने के लिए 01 सितम्बर, 1990 को अयोध्या में अरणी मंथन के द्वारा अग्नि प्रज्वलित की गई, इसे ‘रामज्योति’ कहा गया। दीपावली 18 अक्टूबर, 1990 के पूर्व तक देश के लाखों गांवों में यह ज्योति पहुँचा दी गई। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी ने अहंकारपूर्ण घोषणा की कि ‘अयोध्या में परिन्दा भी पर नहीं मार सकता’, उन्होंने अयोध्या की ओर जाने वाली सभी सड़कें बन्द कर दीं, अयोध्या को जाने वाली सभी रेलगाडि़याँ रद्द कर दी गईं, 22 अक्टूबर से अयोध्या छावनी में बदल गई। फैजाबाद जिले की सीमा से श्रीराम जन्मभूमि तक पहंुचने के लिए पुलिस सुरक्षा के सात बैरियर पार करने पड़ते थे। फिर भी रामभक्तों ने 30 अक्टूबर को वानरों की भांति गुम्बदों पर चढ़कर झण्डा गाड़ दिया। सरकार ने 02 नवम्बर, 1990 को भयंकर नरसंहार किया। कलकत्ता निवासी दो सगे भाइयों में से एक को मकान से खींचकर गोली मारी गई, छोटा भाई बचाव में आया तो उसे भी वहीं गोली मार दी (कोठारी बन्धुओं का बलिदान)। कितने लोगों को मारा कोई गिनती नहीं। देशभर में रोष छा गया। कारसेवक दर्शन करके ही लौटे। कई दिन तक निरन्तर सत्याग्रह चला। कारसेवकों की अस्थियों का देशभर में पूजन हुआ। 14 जनवरी, 1991 को अस्थियाँ माघ मेला के अवसर पर प्रयागराज संगम में प्रवाहित कर दी गईं। मन्दिर निर्माण का संकल्प और मजबूत हो गया। घोषणा की गई कि सरकार झुके या हटे।

      विराट प्रदर्शन

      04 अप्रैल, 1991 को दिल्ली के वोट क्लब पर विशाल रैली हुई। देशभर से पचीस लाख रामभक्त दिल्ली पहुँचे। यह भारत के इतिहास की विशालतम रैली कहलाई। इस रैली की विशालता को देखकर बोट क्लब पर सभाएं करना प्रतिबंधित ही कर दिया गया। रैली में सन्तों की गर्जना हो रही थी तभी सूचना मिली कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। श्रीराम जन्मभूमि पर देश में जनादेश प्राप्त हो गया। उत्तर प्रदेश में पुनः चुनाव हुए। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का विरोध करने वाले पराजित हुए। श्री कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने।

      समतलीकरण
      श्रीराम जन्मभूमि न्यास ने उत्तर प्रदेश सरकार से राम कथाकुंज के लिए भूमि की मांग की। मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह जी ने 42 एकड़ भूमि श्रीराम कथाकुंज के लिए राम जन्मभूमि न्यास को पट्टे पर दी। यह भूमि ढांचे के पूर्व व दक्षिण दिशा में थी। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी 2.77 एकड़ भूमि तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अधिग्रहण की। जून, 1991 में उत्तर प्रदेश सरकार जब इस उबड़-खाबड़ भूमि का समतलीकरण करा रही थी, तब ढांचे के दक्षिणी, पूर्वी कोने की जमीन से अनेक पत्थर प्राप्त हुए, जिनमें शिव पार्वती की खंडित मूर्ति, सूर्य के समान अर्ध कमल, मन्दिर के शिखर का आमलक, उत्कृष्ट नक्काशी वाले पत्थर व अन्य मूर्तियाँ थी।

      सर्वदेव अनुष्ठान व नींव ढलाई
      09 जुलाई, 1992 से 60 दिवसीय सर्वदेव अनुष्ठान प्रारंभ हुआ। जन्मभूमि के ठीक सामने शिलान्यास स्थल से भावी मंदिर की नींव के चबूतरे की ढलाई भी प्रारंभ हुई। 15 दिनों तक ढलाई का काम चला। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने संतों से कुछ समय मांगा और नींव ढलाई का काम बन्द करने का निवेदन किया। संतों ने प्रधानमंत्री की बात मान ली और कुछ दूरी पर बनने वाले शेषावतार मंदिर की नींव के निर्माण के काम में लग गए। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर की जिस नींव की ढलाई हुई वह त्।थ्ज् है। यह नींव 290 फीट लम्बी, 155 फीट चैडी और 2-2 फीट मोटी एक-के-ऊपर-एक तीन परत ढलाई करके कुल 6 फीट मोटी बनेगी।

      पादुका पूजन
      नंदीग्राम में भरत जी ने 14 वर्ष वनवासी रूप में रहकर अयोध्या का शासन भगवान की पादुकाओं के माध्यम से चलाया था, इसी स्थान पर 26 सितम्बर, 1992 को श्रीराम पादुकाओं का पूजन हुआ। अक्टूबर मास में देश के गांव-गांव में इन पादुकाओं के पूजन द्वारा जन जागरण हुआ। रामभक्तों ने मन्दिर निर्माण का संकल्प लिया।

      द्वितीय कारसेवा
      दिल्ली में 30 अक्टूबर, 1992 को सन्त पुनः इकट्ठे हुए। यह पांचवीं धर्मसंसद थी। सन्तों ने फिर घोषणा की कि गीता जयन्ती (6 दिसम्बर, 1992) से कारसेवा पुनः प्रारम्भ करेंगे। सन्तों के आवाहन पर लाखों रामभक्त अयोध्या पहुँच गए। निर्धारित तिथि व समय पर रामभक्तों का रोष फूट पड़ा, जो ढांचे को समूल नष्ट करके ही शान्त हुआ।

      ढांचे से प्राप्त शिलालेख
      6 दिसम्बर, 1992 को जब ढांचा गिर रहा था तब उसकी दीवारों से शिलालेख प्राप्त हुआ। विशेषज्ञों ने पढ़कर बताया कि यह शिलालेख 1154 ई0 का संस्कृत में लिखा है, इसमें 20 पंक्तियाँ हैं। ऊँ नमः शिवाय से यह शिलालेख प्रारम्भ होता है। विष्णुहरि के स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर का इसमें वर्णन है। अयोध्या के सौन्दर्य का वर्णन है। दशानन के मान-मर्दन करने वाले का वर्णन है। ये समस्त पुरातात्त्विक साक्ष्य उस स्थान पर कभी खड़े रहे भव्य एवं विशाल मन्दिर के अस्तित्व को ही सिद्ध करते हैं।


      संविधान निर्माताओं की दृष्टि में राम
      भारतीयों के लिए तो राम आदर्श हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। संविधान निर्माताओं ने भी जब संविधान की प्रथम प्रति का प्रकाशन किया तब भारत की सांस्कृतिक व ऐतिहासिक प्राचीनता को दर्शाया है। संविधान की इस प्रति में तीसरे नम्बर का चित्र प्रभु श्रीराम, माता जानकी व लक्ष्मण जी का उस समय का है, जब वे लंका विजय के पश्चात पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या को वापस आ रहे हैं। संविधान निर्मात्री सभा में सभी मत-मतान्तरों के लोग थे, किसी ने आपत्ति नहीं उठाई। आखिर सबकी सहमति से ही वह चित्र छपा होगा। इसी संविधान में वैदिक काल के आश्रम (गुरुकुल), युद्ध के मैदान में विषादयुक्त अर्जुन को प्रेरणा देते हुए भगवान श्रीकृष्ण, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी आदि भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ पूज्य पुरुषों के चित्र संविधान निर्माताओं ने रखे हैं। अतः ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के जन्मस्थान की रक्षा करना हमारा संवैधानिक दायित्व भी है।

      हस्ताक्षर अभियान
      वर्ष 1993 में दस करोड़ नागरिकों के हस्ताक्षरों से युक्त एक ज्ञापन तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय को सौंपा गया था, जिसमें एक पंक्ति का संकल्प था कि ‘‘आज जिस स्थान पर रामलला विराजमान है, वह स्थान ही श्रीराम जन्मभूमि है, हमारी आस्था का प्रतीक है और वहाँ एक भव्य मन्दिर का निर्माण करेंगे।’’ सांस्कृतिक गुलामी से मुक्ति एक सतत प्रक्रिया श्रीराम जन्मभूमि को प्राप्त करने का यह अभियान ठीक वैसा ही है जैसा आजादी के बाद देश के गृहमंत्री सरदार पटेल ने देश से गुलामी के चिन्हों को हटाने के लिए संकल्प लिया था और आक्रमणकारी महमूद गजनी द्वारा तोड़े गए भगवान सोमनाथ के मन्दिर के पुनर्निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया था। सोमनाथ मन्दिर में प्राण-प्रतिष्ठा के समय तो तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद जी स्वयं उपस्थित रहे। भारत सरकार ने 1947 के बाद देश के पार्कों, चैराहों से विक्टोरिया की मूर्तियाँ हटाई। सड़कों के नाम बदले। दिल्ली का इर्विन होस्पिटल जयप्रकाश नारायण अस्पताल बना। विलिंग्टन होस्पिटल राम मनोहर लोहिया अस्पताल कहलाने लगा। मिन्टो ब्रिज को शिवाजी ब्रिज कहने लगे। मद्रास, कलकत्ता, बाॅम्बे के नाम बदल कर चेन्नई, कोलकाता और मुम्बई कर दिए, क्योंकि ये सब गुलामी की याद दिलाते थे।

      अस्थायी मन्दिर का निर्माण
      6 दिसम्बर, 1992 को ढांचा ढह जाने के बाद तत्काल बीच वाले गुम्बद के स्थान पर ही भगवान का सिंहासन और ढांचे के नीचे परंपरा से रखा चला आ रहा विग्रह सिंहासन पर स्थापित कर पूजा प्रारंभ कर दी। हजारों भक्तों ने रात और दिन लगभग 36 घंटे मेहनत करके बिना औजारों के केवल हाथों से उस स्थान के चार कोनों पर चार बल्लियाँ खड़ी करके कपड़े लगा दिए, 5-5 फीट ऊँची, 25 फीट लम्बी, 25 फीट चैड़ी ईंटों की दीवार खड़ी कर दी और बन गया मन्दिर। आज भी इसी स्थान पर पूजा हो रही है, जिसे अब भव्य रूप देना है।

      न्यायालय द्वारा दर्शन की पुनः अनुमति
      08 दिसम्बर 1992 अतिप्रातः सम्पूर्ण अयोध्या में कफ्र्यू लग गया। परिसर केन्द्रीय सुरक्षा बलों के हाथ में चला गया। परन्तु केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवान भगवान् की पूजा करते रहे। हरिशंकर जैन नाम के एक वकील ने उच्च न्यायालय में गुहार की, कि भगवान् भूखे हैं। राग, भोग, पूजन की अनुमति दी जाए। 01 जनवरी, 1993 को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी ने दर्शन-पूजन की अनुमति प्रदान की। अधिग्रहण एवं दर्शन की पीड़ादायी प्रशासनिक व्यवस्था 07 जनवरी 1993 को भारत सरकार ने ढांचे वाले स्थान को चारों ओर से घेरकर लगभग 67 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया। इस भूमि के चारों ओर लोहे के पाईपों की ऊँची-ऊँची दोहरी दीवारें खड़ी कर दी गईं। भगवान् तक पहंुचने के लिए बहुत संकरा गलियारा बनाया, दर्शन करने जानेवालों की सघन तलाशी की जाने लगी। जूते पहनकर ही दर्शन करने पड़ते हैं। आधा मिनट भी ठहर नहीं सकते। वर्षा, शीत, धूप से बचाव के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। इन कठिनाइयों के कारण अतिवृद्ध भक्त दर्शन करने जा ही नहीं सकते। अपनी इच्छा के अनुसार प्रसाद नहीं ले जा सकते। जो प्रसाद शासन ने स्वीकार किया है वही लेकर अन्दर जाना पड़ता है। दर्शन का समय ऐसा है मानो सरकारी दफ्तर हो। दर्शन की यह अवस्था अत्यन्त पीड़ादायी है। इस अवस्था में परिवर्तन लाना है।

      भावी मंदिर की कार्यशाला
      श्रीराम जन्मभूमि पर बनने वाला मन्दिर तो केवल पत्थरों से बनेगा। सीमेंट, कंक्रीट से नहीं। मंदिर में लोहा नहीं लगेगा। नींव में भी नहीं। मन्दिर दो मंजिला होगा। भूतल पर रामलला और प्रथम तल पर राम दरबार होगा। सिंहद्वार, नृत्य मंडप, रंग मण्डप, गर्भगृह और परिक्रमा मन्दिर के अंग हैं। 270 फीट लम्बा, 135 फीट चैड़ा तथा 125 फीट ऊँचा शिखर है। 10 फीट चैड़ा परिक्रमा मार्ग है। 106 खंभे हैं। 6 फीट मोटी पत्थरों की दीवारें लगेंगी। दरवाजों की चौखटें सफेद संगमरमर पत्थर की होंगी।
      1993 से मन्दिर निर्माण की तैयारी तेज कर दी गई। मंदिर में लगने वाले पत्थरों की नक्काशी के लिए अयोध्या, राजस्थान के पिंडवाड़ा व मकराना में कार्यशालाएं प्रारम्भ हुईं। अब तक मन्दिर के फर्श पर लगने वाला सम्पूर्ण पत्थर तैयार किया जा चुका है। भूतल पर लगने वाले 16.6 फीट के 108 खम्भे तैयार हो चुके हैं। रंग मण्डप एवं गर्भगृह की दीवारों तथा भूतल पर लगने वाली संगमरमर की चैखटों का निर्माण पूरा किया जा चुका है। खम्भों के ऊपर रखे जाने वाले पत्थर के 185 बीमों में 150 बीम तैयार हैं। मन्दिर में लगने वाले सम्पूर्ण पत्थरों का 60 प्रतिशत से अधिक कार्य पूर्ण हो चुका है।
      हम समझ लें कि श्रीराम जन्मभूमि सम्पत्ति नहीं है। हिन्दुओं के लिए श्रीराम जन्मभूमि आस्था है। भगवान की जन्मभूमि स्वयं में देवता है, तीर्थ है व धाम है। रामभक्त इस धरती को मत्था टेकते हैं। यह विवाद सम्पत्ति का विवाद ही नहीं है। इस कारण यह अदालत का विषय नहीं है। अदालत आस्थाओं पर फैसले नहीं देती।

      अदालती प्रक्रिया
      श्रीराम जन्मभूमि के लिए पहला मुकदमा हिन्दु की ओर से जिला अदालत में जनवरी, 1950 में दायर हुआ। दूसरा मुकदमा रामानन्द सम्प्रदाय के निर्माेही अखाड़ा की ओर से 1959 में दायर हुआ। सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड की ओर से तो दिसम्बर, 1961 में मुकदमा दायर हुआ। 40 साल तक फैजाबाद की जिला अदालत में ये मुकदमे ऐसे ही पड़े रहे। वर्ष 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश देवकीनन्दन अग्रवाल (अब स्वर्गीय) ने स्वयं रामलला और राम जन्मस्थान को वादी बनाते हुए अदालत में वाद दायर कर दिया, मुकदमा स्वीकार हो गया। सभी मुकदमे एक ही स्थान के लिए है अतः सबको एक साथ जोड़ने और एक साथ सुनवाई का आदेश भी हो गया। विषय की नाजुकता को समझते हुए सभी मुकदमे जिला अदालत से उठाकर उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को दे दिए गए। दो हिन्दू और एक मुस्लिम न्यायाधीश की पूर्ण पीठ बनी। इस पीठ के समक्ष 20 साल से इन मुकदमों की सुनवाई हो रही है। पीठ का 12 बार पुनर्गठन हो चुका है परन्तु अभी प्रक्रिया अधूरी है।

      महामहिम राष्ट्रपति का प्रश्न व उत्खनन से प्राप्त अवशेष
      भारत के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने ढांचा गिर जाने के बाद वर्ष 1993 में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान की धारा 143 के अन्तर्गत अपना एक प्रश्न प्रस्तुत किया और उसका उत्तर चाहा। प्रश्न था कि ‘‘क्या ढांचे वाले स्थान पर 1528 ईसवी के पहले कोई हिन्दू मंदिर था ?’’ सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्न के उत्तर का दायित्व उच्च न्यायालय की अदालती प्रक्रिया पर डाल दिया। उच्च न्यायालय को इस प्रश्न का उत्तर खोजना था।
      यदि 1528 ई0 में मन्दिर तोड़ा गया तो उसके अवशेष जमीन में जरूर दबे होंगे, यह खोजने के लिए उच्च न्यायालय ने स्वयं प्रेरणा से 2003 ई0 में राडार तरंगों से जन्मभूमि के नीचे की फोटोग्राफी कराई। फोटो विशेषज्ञ कनाडा से आए, उन्होंने अपने निष्कर्ष में लिखा कि किसी भवन के अवशेष दूर-दूर तक दिखते हैं। रिपोर्ट की पुष्टि के लिए खुदाई का आदेश हुआ। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने खुदाई की। खुदाई की रिपोर्ट फोटोग्राफी रिपोर्ट से मेल खा गयी। खुदाई में 27 दीवारें, दीवारों में लगे नक्काशीदार पत्थर, प्लास्टर, चार फर्श, दो पंक्तियों में बावन स्थानों पर खम्भों के नीचे की नींव की रचना मिली। एक शिव मंदिर प्राप्त हुआ। उत्खनन करने वाले विशेषज्ञों ने लिखा कि यहां उत्तरभारतीय शैली का कोई मंदिर कभी अवश्य रहा होगा। सभी तथ्य आज अदालत के रिकार्ड पर मौजूद हैं। पर उच्च न्यायालय का क्या फैसला आएगा ?कब आएगा ?यह यक्ष प्रश्न हमारे सामने मुँह बाए खड़ा है। न्यायालय कब और क्या निर्णय करेगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। अदालतों के निर्णयों के क्रियान्वयन का नैतिक बल सरकार के पास होगा या नहीं, यह कहना बहुत कठिन है। लेकिन यह तय है कि जागरुक और स्वाभिमानी समाज अपने सम्मान की रक्षा के लिए संकल्पबद्ध है।

      वार्ताओं का इतिहास
      आज अनेक लोग वार्ता की बात करते हैं। उन्हें जानना चाहिए कि वार्ताएं भी हुई हैं। स्वर्गीय राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में गृहमंत्री बूटा सिंह वार्ता कराया करते थे, हर मीटिंग में वार्ता के मुद्दे ही बदल जाते थे। स्व0 विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में एक वार्तालाप का दिन शुक्रवार था, मुस्लिम पक्ष के लोग दोपहर की नमाज के समय नमाज पढ़ने चले गए, वापस लौटे तो स्वामी सत्यमित्रानंद जी महाराज ने खड़े होकर अपना आंचल फैलाकर कहा कि ‘‘मैं आपसे श्रीराम जन्मभूमि की भीख मांगता हूँ’’, नमाज के बाद जकात (दान) होती है, आप मुझे जकात में दे दीजिए। वहाँ बैठे मुस्लिम पक्ष से जवाब आया कि ‘यह कोई माचिस की डिब्बी है’ जो दे दें। एक बार सैयद शहाबुद्दीन साहब ने स्वयं कहा था कि यदि यह सिद्ध हो जाए कि किसी मंदिर को तोड़कर यह स्थान बना है, तो हम इसे छोड़ देंगे। अगली बैठक में शहाबुद्दीन साहब अपनी बात से पलट गए। श्री चन्द्रशेखर साहब जब प्रधानमंत्री थे तब भी वार्ताएं हुईं। दोनों पक्षों ने अपने साक्ष्य लिखित रूप में गृह राज्यमंत्री को दिए। साक्ष्यों का आदान-प्रदान हुआ। दोनों पक्षों ने एक दूसरे के साक्ष्यों के उत्तर/आपत्तियाँ दी। निर्णय हुआ कि दोनों पक्षों के विद्वान आमने-सामने बैठकर प्रस्तुत साक्ष्यों पर वार्तालाप करेंगे। 10 जनवरी, 1991 का दिनांक विद्वानों के मिलने के लिए तय हुआ परन्तु मुस्लिम पक्ष के राजस्व और कानूनी विशेषज्ञ मीटिंग में आए ही नहीं। पुनः 25 जनवरी, 1991 को गुजरात भवन में मीटिंग निर्धारित की गई। मुंिस्लम पक्ष का कोई भी विशेषज्ञ नहीं पहुँचा। मुस्लिम पक्ष की अनुपस्थिति को अपमानजनक समझते हुए वार्तालाप का दौर यहीं समाप्त हो गया। अनुभव यह आया कि वे वार्तालाप से भागते हैं या हर बार पैंतरा बदलते हैं। अब वार्ता कहाँ से शुरू होगी? वार्तालाप में लेन-देन भी होता है। भारत में निवास करने वाले वर्तमान मुस्लिम समाज का बाबर से कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है। बाबर कोई धार्मिक पुरुष नहीं था, वह मात्र आक्रमणकारी था। अतः मुस्लिम पक्ष श्रीराम जन्मभूमि से अपना वाद वापस ले और यह स्थान हिन्दू समाज को सौंप दे। हिन्दू समाज बदले में उन्हें अपनी आत्मीयता और सद्भाव देगा, जो अन्य किसी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकता। एकमेव मार्ग है कि सोमनाथ मंदिर निर्माण की तर्ज पर संसद कानून बनाए और श्रीराम जन्मभूमि हिन्दू समाज को सौंप दे। इसी मार्ग से 1528 के अपमान का परिमार्जन माना जाएगा।


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      श्रीराम जन्मभूमि का न्यायायिक पहलू



       श्रीराम जन्म भूमि प्रस्तावित मंदिर
      वैसे तो सम्पूर्ण अयोध्या नगरी मन्दिरों की ही नगरी है, हजारों मन्दिर हैं, लगभग सभी मन्दिर प्रभु राम को समर्पित हैं या भगवान राम की जीवनलीलाओं से जुड़े हुए हैं। अयोध्या में एक रामकोट नामक मोहल्ला है जिसमें चारदीवारी (Boundary wall) से घिरा एक स्थान था, जो उत्तर दक्षिण दिशा में लगभग 130 फीट लम्बा तथा पूरब पश्चिम दिशा में 90 फीट चैड़ा था। इस परिसर में चारदीवारी के अन्दर ही उत्तर दक्षिण दिशा में लगभग बीचोबीच में एक दीवार थी। इस दीवार में एक लोहे का दरवाजा लगा रहता था। दरवाजे पर ताला भी लगा रहता था, जो परिसर को दो भागों में बांट देती थी। दीवार के पश्चिम वाला भाग भीतरी आंगन (Inner courtyard) तथा दीवार के पूरब वाला भाग बाहरी आंगन (Outer courtyard) कहलाता था। भीतरी आंगन में तीन गुम्बदों वाला एक ढांचा था, जो दूर से देखने पर मस्जिद जैसा लगता था। मुस्लिम समाज इसी ढांचे को बाबरी मस्जिद कहता था, इसके विपरीत हिन्दू समाज इस सम्पूर्ण परिसर को भगवान राम की जन्मभूमि मानता था। मस्जिद जैसा दिखने वाले इस ढांचे के साथ अजान देने के लिए कोई मीनार तथा हाथ-पैर साफ करने अर्थात वजू करने के लिए पानी का कोई प्रबन्ध नहीं था। परिसर के बाहरी आंगन में एक छोटा सा चबुतरा था, जो संभवतः 20 फीट लम्बा और 15 फीट चैड़ा था तथा 5 फीट ऊँचा था। इस पर भगवान राम का विग्रह रखा रहता था। हिन्दू समाज इसकी पूजा करता था। यह चबुतरा 'रामचबुतरा' कहलाता था। भगवान के विग्रह की हवा, वर्षा, धूप आदि से रक्षा के लिए इस पर एक छप्पर या टीन की झोपड़ीनुमा छाया रहती थी। इस रामचबुतरे पर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी और ऐसा कहते हैं कि यह अकबर के शासनकाल से चला आ रहा है। समस्त विवाद तीन गुम्बदों वाले ढांचे पर था। हिन्दू मानता था कि यह सम्पूर्ण परिसर भगवान राम की जन्मभूमि है, यहाँ कभी एक बड़ा मन्दिर था, जिसे 1528 ई0 में मुस्लिम आक्रमणकारी बाबर के आदेश से उसके सेनापति मीरबाकी ने तोड़ा और उसी के मलबे का प्रयोग करके मस्जिद जैसा दिखने वाला यह ढांचा बनाया। हिन्दू समाज का प्रतिकार बहुत जबरदस्त था, इसी कारण वहाँ मीनार व वजू करने का स्थान नहीं बनाया जा सका। इस भीतरी आंगन वाले परिसर को प्राप्त करने के लिए हिन्दू निरन्तर लड़ता रहा।
      http://www.megamedianews.in/wp-content/uploads/2011/05/Ram-Janma-Bhomi.jpg
      1947 ई0 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अयोध्या के वैरागी साधुओं और जनता में इस स्थान को प्राप्त करने की ललक और बढ़ गई। दिनांक 22 दिसम्बर, 1949 की अर्ध रात्रि में 50-60 युवकों और साधुओं की टोली रामचबुतरे और ढांचे के बीच की दीवार को फांद कर भीतरी आंगन में घुस गए और तीन गुम्बदों वाले ढाँचे के बीच वाले गुम्बद में भगवान का विग्रह रखकर कीर्तन करने लगे। अयोध्या में शोर मच गया कि जन्मभूमि में रात को भगवान प्रकट हो गए हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस के एक सिपाही माता प्रसाद की मौखिक सूचना के आधार पर 23 दिसम्बर, 1949 की प्रातःकाल अयोध्या पुलिस स्टेशन में रात्रि को घटी इस घटना की FIR (प्रथम सूचना रपट) लिखाई गई। यह जानना महत्वपूर्ण है कि अयोध्या का कोई भी स्थानीय मुस्लिम थाने में अपनी आपत्ति/शिकायत/एफ. आई. आर. लिखाने नहीं पहुँचा। उस समय फैजाबाद के जिलाधिकारी श्री के. के. नायर (आई.सी.एस., मूल केरल निवासी) थे।
      अयोध्या श्री राम जन्मभूमि बाबरी ढांचा


      भगवान के प्राकट्य के बाद अयोध्या-फैजाबाद के अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट (प्रथम श्रेणी) श्री मार्कण्डेय सिंह ने स्वयं प्रेरणा से (Suo-moto)भीतरी आंगन वाले परिसर को 29 दिसम्बर, 1949 को अपने एक आदेश द्वारा अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अन्तर्गत कुर्क कर लिया। परन्तु अपने आदेश में किसी हिन्दू या मुसलमान का नामोेल्लेख नहीं किया अपितु लिखा कि अयोध्या के मोहल्ला रामकोट में बाबरी मस्जिद/राम जन्मभूमि में पूजा तथा मालिकाना हक पर विवाद है। यह विषय अत्यन्त नाजुक और गम्भीर है अतः मैं विवाद के निपटारे तक इस भवन के कुर्की के आदेश देता हूँ और आदेश दिया जाता है कि ''सभी सम्बंधित पक्ष भवन के अधिकार के सम्बन्ध में अपने लिखित वक्तव्य दे।'' भीतरी आंगन में स्थित तीन गुम्बदों वाले ढांचे को सिटी मजिस्ट्रेट ने नगरपालिका अध्यक्ष श्री प्रियदत्त राम के अधिकार में सौंपकर प्रियदत्त राम को रिसीवर घोषित कर दिया। यह भी आदेश दिया कि रिसीवर महोदय इस सम्पत्ति के प्रबन्ध की व्यवस्था की स्कीम प्रस्तुत करेंगे। रिसीवर बाबू प्रियदत्त राम ने बीच वाले गुम्बद के नीचे रखे भगवान रामलला की पूजा अर्चना तथा प्रबन्ध व्यवस्था की लिखित योजना प्रस्तुत की, जो स्वीकार की गई। और इस प्रकार भगवान की पूजा-अर्चना निर्बाध प्रारम्भ हो गई। 23 दिसम्बर, 1949 की प्रातःकाल से ही भक्तगण दरवाजे के बाहर कीर्तन करने बैठ गए जो 6 दिसम्बर, 1992 तक रात और दिन अखण्ड रूप से चलता रहा।
      मुकदमों का विवरण
      पहला मुकदमा
      यह मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 2/1950) एक दर्शनार्थी भक्त गोपाल सिंह विशारद (उत्तर प्रदेश के तत्कालीन जिला गोण्डा, वर्तमान जिला बलरामपुर के निवासी तथा हिन्दू महासभा, गोण्डा जिलाध्यक्ष) ने 16 जनवरी, 1950 ई. को सिविल जज, फैजाबाद की अदालत में दायर किया था। गोपाल सिंह विशारद 14 जनवरी, 1950 को जब भगवान के दर्शन करने श्रीराम जन्मभूमि जा रहे थे, तब पुलिस ने उनको रोका, पुलिस अन्य दर्शनार्थियों को भी रोक रही थी। 16 जनवरी, 1950 को ही गोपाल सिंह विशारद ने जिला अदालत में अपना वाद प्रस्तुत करके अदालत से प्रार्थना की कि-''प्रतिवादीगणों के विरुद्ध स्थायी व सतत् निषेधात्मक आदेश जारी किया जाए ताकि प्रतिवादी स्थान जन्मभूमि से भगवान रामचन्द्र आदि की विराजमान मूर्तियों को उस स्थान से जहाँ वे हैं, कभी न हटावें तथा उसके प्रवेश द्वार व अन्य आने-जाने के मार्ग बन्द न करे और पूजा-दर्शन में किसी प्रकार की विघ्न-बाधा न डाले।'' (An injunction restraining the defendants from removing the idols installed in the building and from closing the entrance and passage or from interfering with the Puja and Darshan.)
      अदालत ने सभी प्रतिवादियों को नोटिस देने केआदेश दिए, तब तक के लिए 16 जनवरी, 1950 को ही गोपाल सिंह विशारद के पक्ष में अन्तरिम आदेश जारी कर दिया। भक्तों के लिए पूजा-अर्चना चालू हो गई। सिविल जज ने ही 3 मार्च, 1951 को अपने अन्तरिम आदेश की पुष्टि कर दी। मुस्लिम समाज के कुछ लोग इस आदेश के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चले गए। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति मूथम व न्यायमूर्ति रघुवर दयाल की पीठ ने 26 अप्रैल, 1955 को अपने आदेश के द्वारा सिविल जज के आदेश को पुष्ट कर दिया। ढाँचे के अन्दर निर्बाध पूजा-अर्चना का अधिकार सुरक्षित हो गया। इसी आदेश के आधार पर आज तक रामलला की पूजा-अर्चना हो रही है। 

      दूसरा मुकदमा
      पहले मुकदमे के ठीक समान प्रार्थना के साथ दूसरा मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 25/1950) अयोध्या निवासी रामानन्द सम्प्रदाय के एक साधु परमहंस रामचन्द्रदास जी महाराज (परमहंस जी के साथ प्रतिवादि भयंकर विशेषण लगाया जाता था, कालान्तर में वे श्रीराम जन्मभूमि न्यास के कार्याध्यक्ष तथा श्री पंच रामानन्दीय दिगम्बर अनी अखाड़ा के श्रीमहंत बने) ने 5 दिसम्बर, 1950 को सिविल जज, फैजाबाद की अदालत में ही दायर किया और गोपाल सिंह विशारद के मुकदमे के प्रतिवादियों को इस मुकदमें में भी परमहंस जी ने प्रतिवादी बनाया। अदालत ने गोपाल सिंह विशारद को दी गई सुविधा परमहंस जी को भी प्रदान की। पहला और दूसरा अर्थात दोनों मुकदमें एक दूसरे के साथ सामूहिक सुनवाई के लिए जोड़ दिए गए। उपर्युक्त दोनों मुकदमों में सिविल जज, फैजाबाद के द्वारा 3 मार्च, 1951 को स्थायी स्थगनादेश हो जाने के पश्चात सिटी मजिस्ट्रेट ने 30 जुलाई, 1953 को अपने एक आदेश के द्वारा अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अन्तर्गत की गई कार्यवाही को बन्द कर दिया परन्तु मजिस्ट्रेट केद्वारा नियुक्त किए गए रिसीवर को भगवान की दर्शन-पूजा का प्रबन्ध एवं उस ढांचे की देखभाल का अधिकार बना रहा। (विशेष नोट: परमहंस जी ने अपना यह मुकदमा वर्ष 1992 में वापस ले लिया।) 

      तीसरा मुकदमा
      उपर्युक्त दोनों मुकदमों में अभी कोई विधिक प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं हुई थी, वे लम्बित (Pending) ही थे कि तीसरा मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 26/1959) पंच रामानन्दी निर्मोही अखाड़ा ने अपने महंत के माध्यम से 17 दिसम्बर, 1959 को दायर किया और अपने वादपत्र में बिन्दु क्रमांक 14 में उन्होंने अदालत से राहत माँगी कि ''जन्मभूमि मन्दिर के प्रबन्धन तथा सुपुर्दगी से रिसीवर को हटाकर उपर्युक्त कार्य वादी निर्मोही अखाड़े को सौंपने के पक्ष में आदेश जारी किया जाए।''

      चौथा मुकदमा
      यह मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 12/1961) उत्तर प्रदेश सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड की ओर से 18 दिसम्बर, 1961 को जिला अदालत, फैजाबाद में दायर करके निम्नलिखित राहत की माँग की -
      1. वादपत्र के साथ नत्थी किए गए नक्शे में ए.बी.सी.डी. अक्षरों से दिखाई गई सम्पत्ति को सार्वजनिक मस्जिद घोषित किया जाए, जिसे सामान्यतया बाबरी मस्जिद कहा जाता है तथा उसके सटी हुई भूमि को कब्रिस्तान घोषित किया जाए।
      2. यदि अदालत की राय में इसका कब्जा दिलाना सही समाधान नजर आता है तो ढांचे के भीतर रखी मूर्ति और अन्य पूजा वस्तअुों को हटाकर उसका कब्जा दिलाने का आदेश भी दिया जाए।
      3. रिसीवर को आदेश दिया जाए कि वह अनधिकृत रूप से खड़े किए गए निर्माण को हटाकर वह सम्पत्ति वादी सुन्नी वक्फ बोर्ड को सौंप दे। (विशेष नोट: 23 फरवरी, 1996 को सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड के लिखित आवेदन देकर कब्रिस्तान की माँग को वापस ले लिया, जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।)
      सिविल जज, फैजाबाद के द्वारा दिनांक 6 जनवरी, 1964 को दिए गए आदेश के माध्यम से उपरोक्त चारों मुकदमें सामूहिक सुनवाई के लिए एक साथ जोड़ दिए गए।

      श्रीराम जन्मभूमि पर भीतरी और बाहरी आंगन के बीच की उत्तर दक्षिण दिशा वाली दीवार के दरवाजे में लगे ताले को खुलवाने के लिए रामजानकी रथों के माध्यम से जन जागरण का निर्णय सन्तों ने लिया। व्यापक जन जागरण हुआ। फैजाबाद के एक अधिवक्ता श्री उमेश चन्द पाण्डेय ने जनवरी, 1986 में सिविल जज, फैजाबाद की अदालत में ताले को अवैध मानते हुए उसे हटाए जाने की मांग की। अधिवक्ता उमेश चन्द पाण्डेय ने अदालत को कहा कि शान्ति व्यवस्था के नाम पर ताला लगाया गया है जबकि ताले का शान्ति व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं है। तत्कालीन जिला न्यायाधीश श्री के. एम. पाण्डेय ने तत्कालीन प्रशासन से पूछा कि ताला हटाने पर शान्ति व्यवस्था बनाई रखी जा सकती है क्या ? प्रशासन का उत्तर सकारात्मक था, परिणामस्वरूप न्यायाधीश महोदय ने उसी दिन आधे घण्टे में ताला हटा देने का आदेश दिया। 1 फरवरी, 1986 को सायंकाल 4.30 बजे ताला खोल दिया गया। ताला खोले जाने के इस आदेश के विरुद्ध भी कुछ मुस्लिम व्यक्ति उच्च न्यायालय में गए। न्यायालय ने यह प्रार्थना पत्र सुरक्षित कर लिया और 31 जुलाई, 2010 तक उसका फैसला नहीं हुआ है। 1992 की घटना के बाद तो अब यह आवेदन ही निरर्थक हो गया है।

      पाँचवां मुकदमा
      इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री देवकीनन्दन अग्रवाल ने रामलला विराजमान को स्वयं वादी बनाते हुए तथा उस स्थान को देवता तुल्य मानकर वादी बनाते हुए, दोनों वादियों की ओर से 1 जुलाई, 1989 को जिला अदालत में अपना मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 236/1989) दायर किया और अपने वादपत्र के पैराग्राफ 39 में अदालत से माँग की कि-
      1. यह घोषणा की जाए कि अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि का सम्पूर्ण परिसर श्रीरामलला विराजमान का है।
      2. प्रतिवादियों के विरुद्ध स्थायी स्थगनादेश जारी करके कोई व्यवधान खड़ा करने से या कोई आपत्ति करने से या अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर नये मन्दिर के निर्माण में कोई बाधा खड़ी करने से रोका जाए।
      भारतीय कानून में मान्य हिन्दू व्यवस्था के अन्तर्गत मन्दिर में प्रतिष्ठित विग्रह अबोध बालक , नाबालिग , जीवित जागृत माना जाता है। नाबालिग होने के कारण उसे मुकदमा लड़ने के लिए किसी संरक्षक की आवश्यकता रहती है। यह संरक्षक ही महंत/सरवराहकार आदि नामों से पुकारा जा सकता है। कानून की भाषा में इसे भी कहते हैं। उच्च न्यायालय ने सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री देवकीनन्दन अग्रवाल को ही वादी रामलला विराजमान का घोषित किया। इस प्रकार वे लखनऊ उच्च न्यायालय में रामसखा के रूप में वादी संख्या 5 की देखभाल करने लगे।

      इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने अपने आदेश दिनांक 10 जुलाई, 1989 के द्वारा प्रथम चार मुकदमें मौलिक व सामूहिक सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय में स्थानान्तरित करा लिए।

      5 फरवरी, 1992 को परमहंस रामचन्द्रदास जी महाराज ने अपना मुकदमा लिखित रूप में उच्च न्यायालय से वापस ले लिया।

      5 फरवरी, 1992 को ही अपने आदेश के द्वारा उच्च न्यायालय ने वादी रामलला विराजमान का मुकदमा क्रमांक 236/1989 भी अन्य मुकदमों के साथ सामूहिक सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय में मंगवा लिया और इस प्रकार सामूहिक सुनवाई के लिए केवल चार मुकदमें शेष रहे। चारों मुकदमों को नये क्रमांक दिए गए-
      1. गोपाल सिंह विशारद का वाद क्रमांक 2/1950 ------- O.O.S.-1/198
      2. निर्मोही अखाड़ा का वाद क्रमांक 26/1959 --------- O.O.S.-3/1989
      3. मुस्लिम सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद क्रमांक 12/1961 ---- O.O.S.-4/1989
      4. वादी रामलला विराजमान का वाद क्रमांक 236/1989 --- O.O.S.-5/1989 (O.O.S. means - Other Original Suit)
      चारों मुकदमों के सामूहिक सुनवाई की पूर्व में दिए गए आदेश की पुष्टि 7 मई, 1992 को पुनः एक आदेश के द्वारा कर दी। साथ ही साथ यह भी घोषित किया कि सुन्नी वक्फ बोर्ड का मुकदमा Leading case माना जाएगा। उच्च न्यायालय ने 12 सितम्बर, 1996 को आदेश दिया कि किसी भी वादी अथवा प्रतिवादी द्वारा किसी भी वाद में जो भी दस्तावेज अथवा मौखिक साक्ष्य प्रस्तुत किए जाएंगे, वे सभी वादी अथवा प्रतिवादियों पर लागू होंगे तथा उनकी पुनरावृत्ति नहीं होगी।

      6 दिसम्बर, 1992 की घटना से हम सब परिचित हैं। घटना के पश्चात अयोध्या नगर में कफ्र्यू लग गया। पुजारी तथा जनता द्वारा भगवान के दर्शन-पूजन बन्द हो गए। इस अवस्था में लखनऊ उच्च न्यायालय के अधिवक्ता श्री हरिशंकर जैन ने भगवान की रूकी हुई पूजा-अर्चना-भोग को पुनः प्रारम्भ किए जाने की मांग के साथ अपना प्रार्थना पत्र उच्च न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया। न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी ने 01 जनवरी, 1993 को भगवान के राग-भोग, पूजा-अर्चना का आदेश कर दिया। आदेश में कहा गया कि ''भगवान के दर्शन ठीक से हो सके, ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए। साथ ही साथ आँधी, तूफान, वर्षा, शीत व हवा से भगवान की रक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।'' इस आदेश के बाद पूजा-अर्चना पनुः प्रारम्भ हो गई, जो आज तक जारी है। प्रतिदिन हजारों लोग दर्शन करते हैं। मेला काल में यह संख्या कई गुना बढ़ जाती है।

      भारत सरकार द्वारा अधिग्रहण एवं राष्ट्रपति महोदय का विशेष प्रश्न
      27 दिसम्बर, 1992 को भारत सरकार ने एक प्रस्ताव के द्वारा निर्णय लिया कि श्रीराम जन्मभूमि के भीतरी एवं बाहरी आंगन सहित इसके चारों ओर की लगभग 70 एकड़ भूमि को एक अध्यादेश द्वारा अधिग्रहीत किया जाएगा और साथ ही साथ संविधान की धारा 143ए के अन्तर्गत तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय के माध्यम से एक प्रश्न- ''कि क्या विवादित स्थल पर 1528 ई0 के पहले कोई हिन्दू मन्दिर था, जिसे गिराकर तथाकथित विवादित ढाँचा खड़ा किया गया ?'' पर सर्वोच्च न्यायालय से राय ली जाएगी। 7 जनवरी, 1993 को अध्यादेश जारी हुआ और सरकार ने अपने पर्वू निर्णय केअनुसार समस्त भूमि का अधिग्रहण कर लिया। भूमि अधिग्रहण एवं राष्ट्रपति महोदय डाॅ0 शंकरदयाल शर्मा की ओर से सर्वोच्च न्यायालय को संविधान की धारा 143ए के अन्तर्गत भेजे गए प्रश्न के कारण विवादित परिसर से सम्बंधित चारों वाद स्वतः समाप्त हो गए। इस अधिग्रहण अध्यादेश ने 3 अप्रैल, 1993 को संसदीय कानून (एक्ट नं0 33/1993) का स्वरूप ले लिया।

      अधिग्रहण अध्यादेश और राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न की वैधानिकता पर आपत्ति उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर हुईं। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री वैंकटचलैया जी की अध्यक्षता में 5 न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा, न्यायमूर्ति जी. एन. रे, न्यायमूर्ति ए. एम. अहमदी तथा न्यायमूर्ति एस. पी. भरूचा की पीठ बनी। इस पीठ में भारत सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण अध्यादेश तथा राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न पर विस्तारपूर्वक सुनवाई हुई।

      भारत सरकार ने अधिग्रहण का उद्देश्य संसद में गृहमंत्री के माध्यम से 9 मार्च, 1993 को प्रस्तुत किया था। अधिग्रहण का उद्देश्य सर्वोच्च न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया गया, वह निम्न प्रकार है -
      अधिग्रहण के उद्देश्यों और कारणों का कथन

      अयोध्या में भूतपूर्व राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद संरचना के सम्बन्ध में चिरकालीन विवाद रहा है। जिसके कारण समय-समय पर साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा हुई और अन्ततः 6 दिसम्बर, 1992 को विवादास्पद संरचना का विनाश हुआ। इसके पश्चात ही व्यापक साम्प्रदायिक हिंसा हुई जिसके परिणामस्वरूप देश के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में मृत्यु, क्षति और सम्पत्ति का विनाश हुआ। इस प्रकार उक्त विवाद ने देश में लोक व्यवस्था बनाए रखने और विभिन्न समुदायों के बीच सामंजस्य को प्रभावित किया। चूंकि भारत के लोगों के बीच साम्प्रदायिक सामंजस्य और सामान्य भ्रातृत्व की भावना आवश्यक है। अतः यह आवश्यक समझा गया कि ऐसा कम्पलेक्स स्थापित करने के लिए, जिसे योजनाबद्ध रीति से स्थापित किया जा सके और जहाँ एक राम मन्दिर, एक मस्जिद, तीर्थ यात्रियों के लिए सुख-सुविधाएं, एक पुस्तकालय, संग्रहालय और अन्य समुचित सुविधाएं स्थापित की जा सकें, विवादास्पद संरचना स्थल और उससे संलग्न समुचित भूमि का अर्जन किया जाए। एस. बी. चैहान नई दिल्ली 9 मार्च, 1993

      भारत सरकार ने फरवरी, 1993 में श्वेत पत्र भी जारी किया और इसे सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया। श्वेत पत्र के अध्याय 2 पृष्ठ 14 पर लिखित पैराग्राफ 2.3 नीचे लिखे अनुसार है- 2.3 ''इस विवाद का सौहार्दपूर्ण समाधान खोजने के लिए की गई बातचीत के दौरान जो एक मुद्दा उभर कर सामने आया वह यह था: क्या जिस स्थान पर विवादास्पद ढांचा है वहाँ पर एक हिन्दू मन्दिर था और क्या इसे मस्जिद के निर्माण के लिए बाबर के आदेशों पर ढहा दिया गया था। मुस्लिम संगठनों और कुछ प्रमुख इतिहासकारों की ओर से यह कहा गया था कि इन दोनों मन्तव्यों में से किसी के भी पक्ष में कोई साक्ष्य नहीं है। कुछ मुस्लिम नेताओं द्वारा यह भी कहा गया था कि यदि ये मन्तव्य सिद्ध हो जाते हैं तो मुस्लिम स्वेच्छापूर्वक इस विवादास्पद पूजा स्थल को हिन्दुओं को सौंप देंगे। स्वाभाविक है कि विश्व हिन्दू परिषद और आॅल इण्डिया बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के बीच बातचीत में यह एक केन्द्रीय मुद्दा बन गया।''

      राष्ट्रपति महोदय के द्वारा संविधान की धारा 143ए के अन्तर्गत पूछे गए प्रश्न के सम्बन्ध में भारत सरकार का विचार एवं उद्देश्य और अधिक स्पष्ट किए जाने की मांग सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने भारत सरकार से की। भारत सरकार के तत्कालीन साॅलिसीटर जनरल श्री दीपांकर पी. गुप्ता ने दिनांक 14 सितम्बर, 1994 को भारत सरकार की नीति को स्पष्ट करते हुए अपना लिखित वक्तव्य सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किया। वक्तव्य का अन्तिम पैराग्राफ क्रमांक 5 निम्न प्रकार है - भारत सरकार के तत्कालीन साॅलिसीटर जनरल दीपांकर पी. गुप्ता के लिखित वक्तव्य (14 सितम्बर, 1994) के अन्तिम पैराग्राफ का हिन्दी सारांश ''यदि वार्तालाप से समाधान के प्रयास सफल नहीं होते हैं तो भारत सरकार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई राय के आधार पर समाधान लागू करने के लिए वचनबद्ध है। इस सम्बन्ध में सरकार की कार्यवाही दोनों समुदायों के प्रति एक जैसी होगी। यदि न्यायालय को प्रस्तुत किए गए प्रश्न का उत्तर सकारात्मक होता है अर्थात ढहा दिए गए ढांचे के निर्माण के पूर्व उस स्थान पर एक हिन्दू मन्दिर/भवन था तो सरकार हिन्दू समुदाय की भावनाओं के अनुरुप कार्य करेगी। इसके विपरीत यदि प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है अर्थात वहाँ पहले कोई हिन्दू मन्दिर/भवन नहीं था तो भारत सरकार मुस्लिम समुदाय की भावनाओं के अनुरुप व्यवहार करेगी।''

      लगभग बीस महीने तक सर्वोच्च न्यायालय में राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न तथा भारत सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण की वैधानिकता पर सुनवाई हुई। 24 अक्टूबर, 1994 को न्यायालय ने अपना निर्णय सुनाया। निर्णय बहुमत और अल्पमत में बंट गया। बहुमत का निर्णय न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा द्वारा सुनाया गया। जिसके पक्ष में मुख्य न्यायाधीश वैंकटचलैया तथा न्यायमूर्ति जी. एन. रे रहे। इसके विपरीत अल्पमत का निर्णय न्यायमूर्ति भरुचा द्वारा सुनाया गया। जिसके पक्ष में न्यायमूर्ति ए. एम. अहमदी रहे।

      यह निर्णय सर्वोच्च न्यायालय में ''इस्माइल फारूखी बनाम भारत सरकार व अन्य'' (1994) 6 SCC के नाम से जाना जाता है तथा प्रकाशित हो चुका है। बहुमत का निर्णय 98 पृष्ठों में था तथा अल्पमत का निर्णय 42 पृष्ठों में था। दोनों ही निर्णयों में न्यायाधीशों ने, भारत सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण का उद्देश्य व कारण तथा श्वेत पत्र में मुस्लिमों के वचन तथा सोलिसीटर जनरल दीपांकर पी. गुप्ता द्वारा सरकार की ओर से दिए गए लिखित वक्तव्य को, अपनी भूमिका में ज्यों का त्यों लिखा।

      अल्पमत निर्णय में भारत सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण को पूर्णतः रद्द कर दिया गया। साथ ही साथ महामहिम राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न को अनुत्तरित वापस करते हुए कहा कि ''अधिग्रहण कानून एवं महामहिम राष्ट्रपति महोदय का यह प्रश्न एक समुदाय विशेष के पक्ष में तथा दूसरे के विपक्ष में है और इस प्रकार यह धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध है और असंवैधानिक है तथा यह प्रश्न कोई संवैधानिक उद्देश्य पूरा नहीं करता।''

      सर्वोच्च न्यायालय की 5 न्यायाधीशों की पीठ के तीन न्यायाधीशों द्वारा 24 अक्टूबर, 1994 को सामूहिक रूप से सुनाए गए बहुमत के निर्णय 1994(6) एस. सी. सी. का सारांश-
      1. अधिग्रहण कानून की धारा 4(3) को असंवैधानिक व अमान्य घोषित करते हैं। इस धारा के अन्तर्गत यह प्रावधान था कि अधिग्रहीत क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाली विवादित सम्पदा से सम्बंधित किसी भी न्यायालय में चलने वाले सभी प्रकार के वाद स्वतः समाप्त हो जाएंगे।
      2. धारा 4(3) को छोड़कर अधिग्रहण कानून की शेष सभी धाराओं को मान्य करते हुए उसे दी गई चुनौतियों को निरस्त किया जाता है।
      3. भारतवर्ष में लागू कानून के अन्तर्गत जो स्थान मन्दिर, गुरूद्वारा या अन्य किसी उपासना स्थल को प्राप्त है, ठीक उसी के बराबर और वसैी ही अधिकार भारत में चलने वाले मुस्लिम कानून के अन्तर्गत मस्जिद को है, उससे अधिक कदापि नहीं। अधिग्रहण किए जाने के सम्बन्ध में अन्य पूजा स्थलों की तुलना में मस्जिद को किसी विशेष रियायत की सुविधा प्राप्त नहीं है। मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं है, नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, यहाँ तक कि खुले में भी।
      4. विवादित परिसर (सामान्य रूप से जहाँ राम जन्मभूमि बाबरी ढांचा खड़ा था) से सम्बंधित सभी प्रकार के वाद अपने अन्तरिम आदेशों केसहित न्यायिक निपटारे के लिए पुनर्जीवित किए जाते हैं परन्तु सभी अन्तरिम आदेश अधिग्रहण कानून की धारा 7 के प्रकाश में संशोधित हो जाएंगे।
      5. विवादित परिसर के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार की भूमिका संवैधानिक रिसीवर के दायित्व तक ही सीमित है। सरकार का कर्तव्य होगा कि वह अधिग्रहण कानून की धारा 7(2) के अनुसार उस स्थान की व्यवस्था और प्रशासन के साथ-साथ 7 जनवरी, 1993 वाली यथास्थिति भी बनाए रखे। सरकार का यह भी कर्तव्य होगा कि न्यायिक फैसला होने के पश्चात फैसले के अनुसार अधिग्रहण कानून की धारा 6 के अन्तर्गत विवादित परिसर सम्बंधित पक्ष को सौंप दे।
      6. कोई नया अन्तरिम आदेश देने का न्यायालय का अधिकार अधिग्रहण कानून की धारा 7 की परिधि से बाहर के क्षेत्र तक के लिए ही सीमित होगा, विवादित परिसर के लिए नहीं।
      7. विवादित परिसर से सटी हुई आसपास की भूमि का अधिग्रहण अपने में पूर्ण है और इसका प्रबन्ध व प्रशासन भी केन्द्रीय सरकार के पास धारा 7(1) के अनुसार तभी तक रहेगा जब तक की सरकार इस सटे हुए क्षेत्र को किसी अन्य अधिकृत व्यक्ति, व्यक्ति समूह या किसी न्यास के न्यासी को धारा 6 के अनुसार सौंप नहीं देती।
      8. आर्थिक क्षतिपूर्ति केवल उन्हीं भू-स्वामियों के लिए है जिनकी सम्पत्ति पूर्ण रूप से केन्द्रीय सरकार में निहित हो चुकी है और उनके स्वामित्व पर कोई विवाद ही नहीं है। केन्द्रीय सरकार को विवादित परिसर का रिसीवर इस दायित्व के साथ बनाया गया है कि वह न्यायिक फैसला होने तक यह स्थान इसके मालिक को वापिस कर देगा।
      9. विवादित परिसर से सटी हुई भूमि के जिन भू-स्वामियों ने अपनी भूमि अधिग्रहण पर आपत्तियाँ उठाई हैं वह इस समय विचारणीय नहीं हैं। यह निर्णय हो जाने के बाद कि विवाद के निपटारे के लिए ठीक-ठीक कितनी भूमि की आवश्यकता होगी, शेष बची हुई अतिरिक्त भूमि उनके भू-स्वामियों को लौटा दी जाए।
      10. विवाद के निपटारे के लिए आवश्यक भूखण्ड का ठीक-ठीक निर्धारण हो जाने के बाद शेष बची हुई भूमि को लगातार केन्द्रीय सरकार यदि अपने अधिकार में दबाकर रखती है तो उन-उन क्षेत्रों के भू-स्वामियों को अदालत में दी गई चुनौती याचिकाओं के नवीनीकरण की छूट होगी।
      11. महामहिम राष्ट्रपति द्वारा संविधान की धारा 143(1) के अन्तर्गत भेजे गए प्रश्न को हम अनावश्यक मानते हुए सम्मानपूर्वक राय देने से इन्कार करते हैं और वापस करते हैं।

      मुकदमों का पुनर्जीवन व वापसी
      सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के बहुमत के निर्णय के परिणामस्वरूप विवादित श्रीराम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद परिसर से सम्बंधित चारों वाद, जो अधिग्रहण के कारण स्वतः समाप्त हो गए थे, फिर से पुनर्जीवित हो गए और वापस इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को भेज दिए गए। लखनऊ पीठ में इन मुकदमों की सुनवाई के लिए पहले से ही तीन न्यायाधीशों की पूर्णपीठ बनी हुई थी।

      ढांचा न रहने के तथा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रकाश में सभी पक्षकारों (वादी एवं प्रतिवादी) को अपने वाद में तथा मांगी गई प्रार्थना में संशोधन की छूट दी गई। संशोधन हुए भी, जैसे- सुन्नी वक्फ बोर्ड ने कब्रिस्तान की अपनी मांग को वापस ले लिया आदि। सभी वादों में पूर्व में निर्धारित हो चुके वाद बिन्दुओं में भी संशोधन हुए। गवाहों के मौखिक बयान एवं दूसरे पक्ष के वकीलों द्वारा प्रश्नोत्तर प्रारम्भ हुआ। सभी पक्षों ने अपने-अपने पक्ष में तथ्य प्रस्तुत किए। लगभग सभी पक्षों की ओर से अनुमानित 80 गवाह प्रस्तुत हुए। गवाहों में पुरातत्ववेत्ता, लिपिशास्त्री, प्राचीन भारतीय इतिहास, मुस्लिम शासनकाल के जानकार इतिहासकार, ब्रिटिश शासनकाल के जानकार इतिहासकार, भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के विशेषज्ञ तथा तथ्यों के जानकार आदि सभी प्रकार के गवाह थे। गवाहियाँ लगभग 2006 ई0 के प्रारम्भ तक चलती रहीं।

      इसी बीच मई, 2002 में उच्च न्यायालय की विशेष पीठ के तीनों न्यायाधीशों ने अयोध्या में विवादित परिसर और उसके आसपास का स्वयं जाकर निरीक्षण किया। तीनों न्यायाधीश भीषण गर्मी में लगभग दो घण्टे तक परिसर में घूमते रहे। अनेक प्रश्न उन्होंने जिला प्रशासन को लिखकर भेजे थे। विवादित परिसर में घूमते समय अपने सभी प्रश्नों का उत्तर उन्होंने जिला प्रशासन से मौखिक रूप में प्राप्त किया। अपने इस निरीक्षण पर उन्होंने कोई रिपोर्ट लिखी अथवा नहीं लिखी, यह ज्ञात नहीं हुआ। यदि न्यायमूर्तिगण अपने निरीक्षण पर कोई रिपोर्ट लिखते तो उसकी प्रतिलिपि सभी पक्षों को अवश्य मिलती। किसी पक्ष को कोई प्रति नहीं मिली, इसका यही अर्थ है कि उन्होंने निरीक्षण तो किया परन्तु अपने निरीक्षण पर कोई लिखित टिप्पणी अपने रिकार्ड में नहीं रखी।

      1 अगस्त, 2002 को उच्च न्यायालय की पीठ ने एक अन्तरिम आदेश जारी कर सभी पक्षकारों से उनके सुझाव/विचार लिखित रूप में 15 दिन में मांगे। आदेश के प्रमुख अंश- 
      1. सभी वादों में मौलिक वाद बिन्दु यह है कि क्या प्रश्नगत स्थान पर पहले कभी कोई हिन्दू मन्दिर अथवा हिन्दू धार्मिक भवन खड़ा था, जिसे तोड़कर उस स्थान पर तथाकथित बाबरी मस्जिद बनाई गई ?
      2. अदालत ने अपने अन्तरिम आदेश में लिखा कि इसी प्रकार का वाद बिन्दु सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद ओ.ओ.एस.-4/1989 तथा रामलला विराजमान के वाद ओ.ओ.एस.- 5/1989 में भी बना है तथा महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने भी संविधान की धारा 143 के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय की राय जानने के लिए न्यायालय के पास ऐसा ही प्रश्न भेजा था।
      3. पुरातत्व विज्ञान इस प्रश्न का उत्तर देने में सहायक हो सकता है। वर्तमानकाल में पुरातत्व विज्ञान उत्खनन के माध्यम से भूतकाल का इतिहास बारीकी से बता सकता है।
      4. यदि विवादित स्थल पर कभी कोई मन्दिर या धार्मिक भवन रहा होगा तब उत्खनन के माध्यम से उसकी नींव खोजी जा सकती है।
      5. उन्होंने यह भी लिखा कि उत्खनन के पूर्व हम पुरातत्व विभाग के माध्यम से राडार तरंगों द्वारा भूमि के नीचे की फोटोग्राफी  कराएंगे।
      उपर्युक्त अन्तरिम आदेश पर सभी पक्षों ने अपने विचार/सझुाव लिखित रूप मंे दिए। अन्ततः न्यायपीठ ने राडार सर्वे का आदेश दिया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने राडार सर्वे का यह कार्य ''तोजो विकास इण्टरनेशनल प्राइवेट लिमिटेड'' को सौंपा। यह सर्वे 30 दिसम्बर, 2002 से 17 जनवरी, 2003 तक विवादित परिसर में सम्पन्न हुआ। लगभग 4000 वर्गमीटर क्षेत्र का तथा गहराई में 5.5 मीटर नीचे तक का राडार सर्वे किया गया, फोटो लिए गए। सर्वे रिपोर्ट देने वाले मुख्य भू-भौतिकी विशेषज्ञ कनाडा के थे। अपनी रिपोर्ट के निष्कर्ष भाग में उन्होंने लिखा कि ''राडार सर्वे के चित्रों मे अनेक विसंगतियाँ दिख रही हैं, जो प्राचीन भवन की रचना हो सकती है। इन विसंगतियों में स्तम्भ, नींव की दीवारें तथा फर्श और ये दूर-दूर तक फैली हुई हैं। तथापि इन विसंगतियों के सही स्वरूप की पुष्टि पुरातात्विक वैज्ञानिक उत्खनन के माध्यम से की जानी चाहिए।'' राडार सर्वे की यह रिपोर्ट 17 फरवरी, 2003 को उच्च न्यायालय की पीठ को सौंपी गई।

      राडार सर्वे रिपोर्ट के निष्कर्ष के आधार पर उच्च न्यायालय ने 5 मार्च, 2003 को परुातात्विक उत्खनन का आदेश जारी किया। मार्च, 2003 से अगस्त, 2003 तक विवादित परिसर के चारों ओर उत्खनन हुआ। यह ध्यान रखा गया कि उत्खनन के दौरान रामलला विराजमान को कोई क्षति न पहुँचे और दर्शनार्थियों का मार्ग भी बन्द न हो। उत्खनन हुआ। सभी पक्षों के प्रतिनिधि स्वरूप उनके अधिवक्ता, पक्षकार स्वयं तथा पक्षकारों की ओर से नियुक्त अन्य कोई पुरातात्विक विशेषज्ञ यदि उत्खनन स्थान पर उपस्थित रहना चाहें तो उन्हें उच्च न्यायालय ने फोटो सहित अनुमति पत्र जारी किए। उत्खनन कार्य की पल-पल की वीडियोग्राफी हुई। आॅवजर्वर के रूप में दो अतिरिक्त जिला जज नियुक्त किए गए। दो भागों में रिपोर्ट बनी। भाग एक में लिखित वर्णन है तथा भाग दो में उत्खनन से प्राप्त वस्तुओं के चित्र हैं।

      उत्खनन रिपोर्ट ने अपने निष्कर्ष भाग में स्पष्ट लिखा है कि उत्खनन से प्राप्त दीवारों, स्तम्भाधार, दीवारों में लगे नक्काशीदार पत्थर, शिव मन्दिर जैसी रचना को व अन्य प्राप्त वस्तुओं को देखकर निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ कभी कोई हिन्दू मन्दिर रहा होगा। उत्खनन रिपोर्ट पर सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से आपत्तियाँ लिखित रूप में की गईं। अनेक प्रकार के मौखिक आरोप लगाए गएं उत्खनन रिपोर्ट को रिकार्ड में लेना चाहिए अथवा नहीं इस पर बहस हुई। सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से जाने-माने वरिष्ठ अधिवक्ता एवं राजनेता श्री सिद्धार्थ शंकर रे उपस्थित हुए। इसके विपरीत वादी गोपाल सिंह विशारद की ओर से सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री कृष्णमणि ने रिपोर्ट को रिकार्ड में लिए जाने के लिए कानून प्रस्तुत किया। अन्ततः रिपोर्ट रिकार्ड का हिस्सा बनी। दोनों पक्षों की ओर से पुरातत्ववेत्ता मौखिक गवाह के रूप में प्रस्तुत हुए। पुरातत्ववेत्ताओं से दूसरे पक्ष के वकीलों ने जिरह की।

      2006 ई0 से सिविल मुकदमें का अन्तिम चरण प्रारम्भ हो गया। अन्तिम चरण अर्थात् वकीलों के तर्क सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे को प्रमुख वाद मान लिए जाने के कारण उनकी ओर से तर्क प्रारम्भ हुए।

      1996 ई0 से उच्च न्यायालय में प्रारम्भ हुए मुकदमे में महत्वपूर्ण पहलू है, न्यायपीठ का बार-बार पुनर्गठन। किसी न किसी न्यायाधीश के सेवानिवृत्त होने के कारण न्यायपीठ का पुनर्गठन हुआ। तब तक सुनवाई रूक जाती थी। तर्क के दौरान ही न्यायपीठ का तीन बार पुनर्गठन हुआ। इसके कारण तर्क फिर से सुने जाते थे। सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से अधिवक्ता श्री जफरयाब जिलानी को तीन बार अपने बात दोहरानी पड़ी। अन्तिम पुनर्गठन की परिस्थिति अगस्त, 2009 के अन्तिम सप्ताह में पैदा हुई जब पता लगा कि न्यायपीठ में 1996 से मुकदमे को सुन रहे न्यायाधीश सैयद रफात आलम साहब को मध्यप्रदेश में मुख्य न्यायाधीश का स्थान प्राप्त हो गया है। अगले दिन से ही न्यायपीठ ने अपना कार्य बन्द कर दिया। चार महीने बाद 20 दिसम्बर, 2009 को न्यायपीठ में न्यायमूर्ति एस. यू. खान की नियुक्ति हुई। उन्होंने 10 जनवरी, 2010 से कार्य पा्ररम्भ किया। जनवरी, 2010 के बाद प्रतिदिन अदालत बैठी। प्रतिदिन अर्थात एक महीने में लगभग 20 दिन और एक दिन में कम से कम साढ़े चार घण्टे की सुनवाई।

      सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद में एक हिन्दू प्रतिवादी की ओर से कलकत्ता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी. एन. मिश्रा ने अप्रैल, 2010 में सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद के विरुद्ध अपने तर्क प्रभावी रूप से रखे। इनका सहयोग स्थानीय अधिवक्ता सुश्री रंजना अग्निहोत्री ने किया। हिन्दू पक्ष अदालत के सामने आना प्रारम्भ हो गया। सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे के ही एक अन्य प्रतिवादी परमहंस रामचन्द्रदास की ओर से सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रविशंकर प्रसाद ने तर्क प्रस्तुत किए तथा एक और प्रतिवादी महंत धर्मदास की ओर से चेन्नई उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री जी. राजगोपालन ने वक्फ बोर्ड के मुकदमे के विरुद्ध अपने तर्क रखे। इनका सहयोग लखनऊ के अधिवक्ता श्री राकेश पाण्डेय ने किया। (श्री राकेश पाण्डेय के पूज्य पिता जी ने ही जिला जज के रूप में श्रीरामजन्मभूमि के ताले को खोलने का आदेश फरवरी, 1986 में दिया था)। श्री रविशंकर प्रसाद का सहयोग अधिवक्तागण सर्वश्री भूपेन्द्र यादव, विक्रम बनर्जी, सौरभ समशेरी ने किया। वादी रामलला विराजमान के वाद क्रमांक 5/1989 की ओर से रामलला का पक्ष सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री के. एन. भट्ट तथा फैजाबाद के अधिवक्ता श्री मदनमोहन पाण्डेय ने प्रस्तुत किया। कुछ अन्य वकील भी बोले। उनमें प्रमुख हैं- उच्च न्यायालय, लखनऊ के अधिवक्ता श्री हरिशंकर जैन तथा श्री अजय पाण्डेय एडवोकेट। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश लखनऊ निवासी श्रद्धेय श्री कमलेश्वर नाथ जी का मुकदमें को तैयार कराने में किया गया योगदान विलक्षण है।

      जब अदालत द्वारा सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधिवक्ता को कहा गया कि वे अपने मुकदमे के विरुद्ध प्रस्तुत किए गए कानूनी तर्कों का जबाव दें तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। अदालत ने लगभग सभी अधिवक्ताओं को अपनी बात कहने का अवसर दिया। 27 जुलाई, 2010 को सुनवाई समाप्त घोषित कर दी गई। न्यायाधीशों ने सभी पक्ष के वकीलों को क्रमिक रूप से अपने चैम्बर में बुलाकर मुकदमे के सम्बन्ध में विचारविमर्श किया। अन्ततः यह प्रक्रिया भी जुलाई के अन्त में पूरी हो गई। न्यायपीठ ने सभी पक्षों के सम्मुख यह स्पष्ट कर दिया था कि वे सितम्बर के तीसरे सप्ताह के आसपास अपना निर्णय सुनाएंगे और इसकी जानकारी पर्याप्त समय पहले सभी अधिवक्ताओं को दी जाएगी। अदालत ने अपने वचन का पालन किया। निर्णय सुनाने की तारीख 24 सितम्बर, 2010 सारे देश को 8 सितम्बर, 2010 को ही पता लग गया। निर्णय तो भविष्य के गर्भ में निहित है। यह भी सब मान रहे हैं कि असंतुष्ट पक्ष सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाएगा। मुकदमा गम्भीर है। सर्वोच्च न्यायालय को तो सुनना ही पड़ेगा। वहाँ क्या होगा? कितने वर्ष लगेंगे ? क्या आने वाले 25 वर्षों में भी फैसला हो पाएगा ? कुछ भी कहना कठिन है। हमें तो लगता है कि गेंद अन्ततः भारत सरकार के पाले में जाएगी।


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